डेनमार्क का दूसरा नाम क्या है? - denamaark ka doosara naam kya hai?

जब डेनमार्क ने भारतीय कॉलोनियां ब्रिटेन को साढ़े बारह लाख रुपये में बेच दी थीं

  • वक़ार मुस्तफ़ा
  • पत्रकार और रिसर्चर

20 अक्टूबर 2022

डेनमार्क का दूसरा नाम क्या है? - denamaark ka doosara naam kya hai?

इमेज स्रोत, TRAVELIB PRIME / ALAMY STOCK PHOTO

'गाती लहरों की धरती'. दक्षिण भारत में तरंगमबाड़ी शहर के नाम का रूमानी मतलब यही है.

लेकिन 17वीं सदी की शुरुआत में यहां आए डेनमार्क-नार्वे संघ के लोगों को यह नाम कुछ मुश्किल लगा. इसलिए उन्होंने इसे त्रांकेबार कहना शुरू कर दिया.

1814 में नॉर्वे की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ख़त्म होने वाला, यह जुड़वां शासन डेनमार्क के राजा क्रिश्चियन चतुर्थ के अधीन था. इसलिए हम भी सुविधा के लिए इस संघ को डेनमार्क और इसके निवासियों को डैनिश कहेंगे.

डैनिश आए तो व्यापार करने के लिए थे, लेकिन बाद में भारत के एक हिस्से पर दो सौ से अधिक वर्षों तक शासन भी किया. यहां तक कि वो मुग़लों से लड़ाई करने से भी नहीं झिझके जो उस समय दुनिया की बड़ी शक्ति थे.

मसालों के फ़ायदेमंद व्यापार के बारे में सुनकर क्रिश्चियन चतुर्थ ने साल 1616 में सीलोन (1972 से श्रीलंका) और भारत के साथ काली मिर्च और इलायची का व्यापार करने के लिए डैनिश ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन किया.

कंपनी का गठन तो हो गया, लेकिन शायद डैनिश निवेशकों के विश्वास की कमी के कारण दो साल तक काफ़िला भेजने के लिए पैसे जमा नहीं हो सके.

1618 के अंत में डैन ओ गेडे की कमान के तहत भेजे गए कंपनी के पहले काफ़िले को सीलोन तक पहुंचने में दो साल लग गए और रास्ते में इस काफ़िले के आधे से ज़्यादा लोगों ने अपनी जान गंवा दी.

सीलोन में प्रारंभिक योजनाएं विफल रहीं, लेकिन एक गजेटियर के अनुसार, 10 मई 1620 को एक संधि के तहत द्वीप के पूर्वी तट पर त्रिंकोमाली में एक व्यापारिक बस्ती बसाई गई.

चारुकेसी रामद्राई का कहना है कि डेनमार्क के समुद्री जहाज़ साल 1620 में भारत के दक्षिण-पूर्व में कोरोमंडल तट (अब तमिलनाडु) पर तरंगमबाड़ी पहुंचे.

यहां तंजौर (अब तंजावुर) के शासक व्यापार के अवसरों में रुचि रखते थे, इसलिए संधि पर बातचीत की गई.

"तंजावुर साम्राज्य के शासक रघुनाथ नायक ने 20 नवंबर 1620 को डैनिश के साथ एक व्यापार समझौता किया जिसमें उन्हें 3,111 रुपये के वार्षिक किराए पर शहर का क़ब्ज़ा दे दिया और उन्हें काली मिर्च निर्यात करने की इजाज़त दी गई."

कंपनी को पड़ोसी गांवों से भी टैक्स वसूल करने का अधिकार दिया गया और कई तरह के टैक्सों में रियायतें दी गईं. बदले में, कंपनी को हर साल विजयादशमी के त्योहार पर नायक को 2000 चक्रम (एक प्रकार की मुद्रा) श्रद्धांजलि के तौर पर देनी थी.

शहर का नाम बदलकर त्रांकेबार रख दिया गया. कंपनी के पहले गवर्नर गेडे ने स्थानीय लोगों की मदद से एक क़िला बनाया, जिसका नाम 'फ़र्ट (फ़ोर्ट) डैन्सबर्ग' रखा गया.

लेकिन गेडे जल्द ही वापस चला गया. शायद कुछ महीनों के प्रवास के कारण ही कुछ किताबों में गेडे के बजाए उनके बाद आने वाले रोलैंड क्रेपे को पहला गवर्नर बताया गया है.

इमेज स्रोत, PICTURES FROM HISTORY

इमेज कैप्शन,

1658 में फर्ट (फ़ोर्ट) डैंसबर्ग का स्केच

क्रेपे ने मुख्य बेड़े से एक महीने पहले एक स्काउटिंग फ़्रेटर पर यात्रा की थी. बंगाल की खाड़ी में कराइकल के तट पर पुर्तगाली जहाज़ों पर हुए हमले में यह यह फ़्रेटर डूब गया था.

क्रू मेंबर के ज़्यादातर लोगों को या तो मार दिया गया था या बंदी बना लिया गया था. दो लोगों के सिर समुद्र तट पर भाले पर टांग दिए गए थे. क्रेपे 13 लोगों के साथ तरंगमबाड़ी पहुंचने में कामयाब हो गए थे.

1636 तक इस पद पर बने रहे, क्रेपे ने गवर्नर बनते ही, डेनमार्क के व्यापार केंद्र त्रांकेबार से भारत के अंदर और अन्य एशियाई देशों में व्यापार का विस्तार करने के प्रयास शुरू कर दिए. पहले दक्षिण की ओर तटीय व्यापार को सीलोन तक बढ़ाया गया.

साल 1625 तक, मसूलीपट्टनम (वर्तमान आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले) में एक फ़ैक्ट्री स्थापित की जा चुकी थी. यह इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण एम्पोरियम था.

पिपली, सूरत, जावा और बालासोर में व्यापारिक कार्यालय स्थापित किए गए थे. डच रिपोर्टों के अनुसार, पिपली कारख़ाने ने अपने पहले ही वर्ष के दौरान अच्छा प्रदर्शन किया.

हालाँकि, साल 1627 तक, डैनिश कॉलोनी के पास केवल तीन समुद्री जहाज़ बचे थे. संजय सुब्रमण्यम का कहना है कि 1627 में, ख़राब वित्तीय स्थिति के कारण, कंपनी त्रांकेबार और पुडुचेरी के टैक्सों का भुगतान नहीं कर सकी.

क्रेपे के बाद साल 1636 से 1643 तक गवर्नर रहने वाले ब्रेंट पेसार्ट, ने पैसा कमाने के लिए कई जोखिम भरी परियोजनाओं की कोशिश की, लेकिन ये परियोजनाएं नाकाम हो गई और शुरू से ही बड़े क़र्ज़ों से जूझ रहे, डेनमार्क का क़र्ज़ और भी बढ़ गया.

मुग़लों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा

कैथरीन वेलन का कहना है कि साल 1642 में डैनिश नॉर्वे कॉलोनी ने मुग़ल साम्राज्य के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा की और बंगाल की खाड़ी में समुद्री जहाज़ों पर छापेमारी शुरू कर दी.

कुछ ही महीनों के भीतर, उन्होंने मुग़ल बादशाह के एक जहाज़ पर क़ब्ज़ा करके उसे अपने बेड़े में शामिल कर लिया और लाभ के लिए सामान त्रांकेबार में बेच दिया.

पिपली और उड़ीसा के पास दो अन्य समुद्री जहाज़ों को जलाने से मुग़लों को गुस्सा आ गया, लेकिन वे अपनी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करके इसका निवारण नहीं कर सके क्योंकि मुग़ल क्षेत्र में कोई डैनिश बस्ती नहीं थी.

तपन रॉय चौधरी कहते हैं कि मुग़लों का समुद्री व्यापार के प्रति एक अलग दृष्टिकोण था, जबकि धन बनाने की बहुत इच्छा थी, उनकी ज़्यादातर आय भूमि-आधारित स्रोतों से होती थी. समुद्री व्यापार को व्यापारियों के विभिन्न समूहों पर छोड़ दिया गया था.

समुद्री ताक़त में अपनी सीमाओं को देखते हुए, मुग़लों ने डेनमार्क की आक्रमकता का मुक़ाबला करने के लिए दूसरे साधनों की तलाश की.

डेनमार्क के साथ सीधे तौर पर बातचीत करने की कोशिशें नाकाम हो गईं तो मुग़लों ने दूसरे यूरोपीय शासकों पर डैनिश आक्रमण को रोकने के लिए दबाव बनाने की कोशिश की.

माइकल वीनर लिखते हैं कि असंतोष के नतीजे में 1645 और 1648 के बीच नायक की सेना ने त्रांकेबार पर दो हमले किए.

1648 में क्रिश्चियन चतुर्थ की मृत्यु हो गई और डैनिश ईस्ट इंडिया कंपनी दिवालिया हो गई. दो साल बाद उनके बेटे फ्रेडरिक तृतीय ने कंपनी को ख़त्म कर दिया, लेकिन भारतीय कॉलोनी डेनमार्क में घटे इन दरबारी घटनाक्रमों से अनजान रही.

पीटर रासमुसेन के अनुसार, जैसे-जैसे कंपनी छोड़ जाने और बीमारी के कारण डैनिश की संख्या कम होती गई, पुर्तगाली और पुर्तगाली-भारतीय लोगों को नौकरी पर रख लिया गया. यहां तक कि अंत में, साल 1655 तक एस्केल्ड एंडरसन कोनिग्सबाके त्रांकेबार में एकमात्र कमांडर और डैनिश रह गए थे.

बंगाल की खाड़ी में जहाज़ों पर क़ब्ज़ा करते हुए श्रद्धांजलि का भुगतान न करने की वजह से नायक के लगातार घेराबंदी के बावजूद कोनिग्सबाके ने किले पर डैनिश-नॉर्वेजियन झंडा फहराए रखा.

जहाज़ों के सामान की बिक्री से होने वाली आय से उसने शहर के चारों ओर एक दीवार का निर्माण किया और नायक के साथ एक समझौते पर बातचीत की.

आख़िरकार मई 1669 में कैप्टन स्वार्ट एडेलेयर को कॉलोनी की कमान संभालने के लिए यहां भेजा गया.

इमेज स्रोत, FRÉDÉRIC SOLTAN/GETTY IMAGES

इमेज कैप्शन,

फ़ोर्ट डैन्सबर्ग, त्रांकेबार

डैनिश ईस्ट इंडिया कंपनी का दूसरा जन्म

डेनमार्क-नॉर्वे और त्रांकेबार के बीच व्यापार एक नई डैनिश ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत फिर से शुरू हुआ. कई नई व्यापारिक चौकियों की स्थापना की गई.

इनमें साल 1696 में मालाबार तट पर ओडवे टोरे और साल 1698 में बंगाल में चंद्रनगर के दक्षिण-पूर्व में डेनमार्कस नागौर. इनका प्रशासन त्रांकेबार के हाथ में था.

नायक के साथ समझौते को बढ़ा दिया गया और त्रांकेबार को आसपास के तीन गांवों को शामिल करने के लिए विस्तार करने की अनुमति दे दी गई.

पुर्तगालियों ने साल 1696 में केरल में वर्कला के पास एक बस्ती की स्थापना की.

इतिहासकार पद्मनाभ मेनन ने 'हिस्ट्री ऑफ़ केरल' में 18वीं सदी के शुरुआती ब्रिटिश सैन्य अधिकारी एलेक्ज़ेंडर हैमिल्टन का हवाला देते हुए लिखा है, "यहां तट पर डेनमार्क के व्यापारियों के पास नारियल की छत वाला एक छोटा गोदाम है. यह ख़स्ताहाल है, इसी तरह उनका व्यापार भी नाममात्र का है.''

साल 1672 में क्रिश्चियन पंचम ने मुग़लों को पत्र लिखकर बंगाल में डैनिश प्रजा को हुए नुक़सान के लिए मुआवज़े का अनुरोध किया जिसमें 1640 में सेंट जैकब जहाज़ भी शामिल था. यह मुआवज़ा कभी नहीं दिया गया.

डेनमार्क से नैतिक और भौतिक कुमक के साथ पुर्तगालियों ने बंगाल में ख़ुद बंगाली व्यापारियों पर हमले किए और बड़े जहाज़ों को या तो उड़ा दिया या उन पर क़ब्ज़ा कर लिया और उन्हें त्रांकेबार ले गए.

इमेज स्रोत, HULTON ARCHIVE

17वीं सदी के अंतिम वर्षों में वे बंगाली गवर्नर मोहम्मद अजमादी के साथ शांति स्थापित करने में सफल रहे, जिसके बाद दोनों पक्षों ने क़ब्ज़े में लिए गए जहाज़ों के लिए अपनी मांगों को छोड़ दिया. पुर्तगालियों ने राजकुमार को 15,000 रुपये और चार तोपें भी भेंट कीं.

9 जून 1706 को, राजा फ़्रेडरिक चतुर्थ ने दो मिशनरियों, हेनरिक प्लॉस्चौ और बार्थोलोमियस ज़ीगेनबुलग को भारत भेजा. वह भारत में पहले प्रोटेस्टेंट मिशनरी थे.

इससे पहले, पादरियों ने धर्मांतरण की कोशिश नहीं की थी और भारतीयों को यूरोपीय चर्चों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी.

निम्न जाति के लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया, लेकिन उच्च जाति के हिंदुओं ने इसे अस्वीकार कर दिया.

स्थानीय गवर्नर, जॉन सिगिस्मंड हसियस ने महसूस किया कि जर्मन मिशनरी ज़ीगेनबुलग त्रांकेबार के दास व्यापार को नुक़सान पहुंचा रहे हैं. इसलिए उन्हें चार महीने के लिए जेल भेज दिया गया.

ज़ीगेनबुलग ने त्रांकेबार के निवासियों की भाषा ज़्यादा से ज़्यादा सीखने की कोशिश की, पुर्तगाली और तमिल सीखने के लिए ट्यूटर्स रखे और संस्कृत के ग्रंथ ख़रीदे.

पहला तमिल शब्दकोश, तमिल-जर्मन शब्दकोश लिखने और संस्कृत की किताबों के अनुवाद के अलावा, उन्होंने बाइबिल के कुछ हिस्सों का भी तमिल में अनुवाद किया.

बाद में, यूरोप से फ़ंड हासिल करके उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की और तमिल बाइबिल और किताबें छापी. इस तरह, त्रांकेबार के राजा के विरोध के बावजूद, मिशनरी कॉलोनी के बाहर तक फैल गए.

1729 में, डैनिश-नार्वेजियन राजा ने डैनिश ईस्ट इंडिया कंपनी को उन्हें पैसे उधार देने के लिए मजबूर किया. क़र्ज़ अदा करने में नाकाम होने और भारतीय व्यापार में निरंतरता न रहने की वजह से कंपनी बंद हो गई.

एशियाटिक कंपनी का चार्टर

12 अप्रैल 1732 को क्रिश्चियन VI ने भारत और चीन के साथ एशियाई व्यापार पर 40 साल के एकाधिकार के साथ नई एशियाटिक कंपनी के चार्टर पर हस्ताक्षर किए.

पिछली दोनों कंपनियां व्यापार में निरंतरता न होने की वजह से विफल हो गई थीं. इस बार निवेशकों का इरादा 'भविष्य में इस एशियाई व्यापार को अपने हलकों और क्षेत्रों में और अधिक स्थायी आधार पर रखना' था.

18वीं सदी के तीसरे दशक में डेनमार्क के चीनी और भारतीय व्यापार में स्थिरता आई, कोरोमंडल तट और बंगाल में सूती कपड़े का प्रभुत्व था.

काली मिर्च की ज़्यादातर पैदावार दक्षिण पूर्व एशिया के पश्चिमी क्षेत्र में होती थी, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण (इंडोनेशिया में) सुमात्रा और (भारतीय राज्य केरल में) मालाबार था.

डैनिश कंपनी पहले इसे केवल स्थानीय व्यापारियों से ख़रीदती थी. बाद में, कंपनी ने ख़ुद मालाबार में मिर्च ख़रीदने के लिए एक काफ़िला भेजा.

अजय कमलाकरन के अनुसार, साल 1752 में पुर्तगालियों ने कालीकट के ज़मोरिन के साथ शहर में काली मिर्च का गोदाम स्थापित करने के लिए एक समझौता किया.

कस्टम ड्यूटी के अलावा, डैनिश ज़मोरिन के क्षेत्रों पर हमले की सूरत में उन्हें हथियार और सैन्य सहायता प्रदान करने के लिए भी सहमत हुए. कालीकट की बस्ती लगभग चार दशकों तक मौजूद रही.

मसालों और ब्राउन शुगर ने केरल से कोपेनहेगन तक अपना रास्ता बना लिया. केरल के मसाले डैनिश और नॉर्वेजियन व्यंजनों में स्वाद बढ़ा देते और केरल की ब्राउन शुगर डैनिश पेस्ट्री के स्वाद को बढ़ाती.

अधिकारियों ने काली मिर्च, दालचीनी, गन्ना, कॉफ़ी और कपास की खेती के लिए अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को उपनिवेश बनाने का फ़ैसला किया, इस फ़ैसले के बाद दिसंबर 1755 में, डैनिश-नार्वेजियन अंडमान द्वीप समूह पहुंचे.

1 जनवरी 1756 को, निकोबार द्वीप समूह को फ्रेडरिक सुरने (फ्रेडरिक द्वीप समूह) के नाम से डैनिश-नार्वेजियन संपत्ति घोषित किया गया.

मलेरिया के प्रकोप के कारण समय-समय पर यहां से निकलने के बाद साल 1848 में इसे हमेशा के लिए छोड़ दिया गया. इस यात्रा से ऑस्ट्रिया और ब्रिटेन सहित अन्य औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा द्वीपों पर क़ब्ज़ों की शुरुआत हुई.

निकोबार द्वीप समूह भारत का हिस्सा इसीलिए है क्योंकि डैनिश ने पहले उन्हें अपनी कॉलोनी बनाया और फिर उन्हें 1869 में अंग्रेज़ों को बेच दिया.

डैनिश ने हैदर अली को भी हथियार दिए और उनके दुश्मन राज्य को भी

डैनिश यूरोप को काली मिर्च की आपूर्ति के बदले में त्रावणकोर (दक्षिण-पश्चिम भारत की यह पूर्व शाही रियासत अब केरल राज्य का हिस्सा है) को लोहे और तांबे की आपूर्ति करते थे.

केके कसोमन का कहना है कि 'त्रावणकोर के साथ संबंधों के बावजूद, डैनिश ने आर्कोट के नवाब को त्रावणकोर के ख़िलाफ़ अभियानों के लिए हथियार उपलब्ध कराए.'

नवाब को हथियारों की आपूर्ति एशियाटिक कंपनी को उनके दुश्मन, मैसूर के हैदर अली को हथियार बेचने से नहीं रोक सकी, जिनके हमले पर वो पहले ही नवाब को हथियार सप्लाई कर चुके थे. (त्रावणकोर को भी बंटवारे में हिस्सा मिला)

त्रावणकोर ने महसूस किया कि उसे टीपू सुल्तान के संभावित हमले को रोकने के लिए ब्रिटिश मदद की ज़रूरत है, इसलिए अंग्रेज़ों को नाराज़ न करने के लिए काफ़ी हद तक डैनिश को दूर ही रखा.

डैनिश ने कन्याकुमारी के नज़दीक कोलाचल में भी एक संस्था स्थापित की. कोलाचल में डैनिश की उपस्थिति साल 1755 से 1824 तक रही.

इमेज स्रोत, PRINT COLLECTOR

पश्चिम बंगाल में डेनमार्क और कलमकारी

पश्चिम बंगाल के सेरामपुर में डैनिश का बहुत ज़्यादा प्रभाव था. सेरामपुर को श्रीरामपुर के नाम से भी जाना जाता है.

हुगली नदी के पश्चिमी तट पर स्थित यह औपनिवेशिक शहर साल 1755 से 1845 तक फ्रेडरिक्स नागोर के नाम से डैनिश भारत का हिस्सा था.

डैनिश पहली बार साल 1755 में सेरामपुर पहुंचे और चंद्रनगर में फ्रांसीसियों की मदद से उन्होंने बंगाल के नवाब अली वर्दी ख़ान को 150,000 रुपये से अधिक का भुगतान करने के बाद 60 बीघा ज़मीन हासिल की.

यह केवल एक व्यापारिक चौकी थी और डैनिश को डैन्सबर्ग की तरह छावनी बनाने या रखने की अनुमति नहीं थी.

सुमित्रा दास के अनुसार, तीन बैपटिस्ट मिशनरियों - विलियम कैरी, जोशुआ मार्शमैन और विलियम वार्ड के अथक प्रयासों से इस शहर में बंगाली प्रकाशन की शुरुआत हुई. डैनिश के गोस्वामी जैसे बंगाली एजेंट इस समृद्ध काल में परवान चढ़े.

डैनिश के संरक्षण में निर्यात बाज़ार के लिए वस्त्रों का उत्पादन किया जाता था.

स्थानीय रंगकर्मी और रेशम के निर्माता, सादे और चित्रित सूती कपड़े बनाने वाले, स्कार्फ़ और शॉल बनाने वाले इससे जुड़े हुए थे. बड़ी मात्रा हाथ से पेंट किए हुए कपड़े (कलमकारी) की थी जिसकी ज़्यादा मांग थी.

1772 से 1808 तक डैनिश-नार्वेजियन व्यापार में काफ़ी वृद्धि हुई.

डैनिश ने त्रांकेबार को मज़बूत किया और 1777 तक इसका पूरा कंट्रोल संभाल लिया, हालांकि वहां 300 से अधिक डैनिश नहीं थे. डैनिश इतिहासकार इसे 'फ्लोरेसेंट ट्रेड का काल' कहते हैं.

भारत से मसालों और कपड़े का व्यापार लाभदायक था, लेकिन शायद सबसे ज़्यादा कमाई चीनी चाय की ब्रिटेन में तस्करी करने से होती थी. चीन का व्यापार औपनिवेशिक तो नहीं था, लेकिन इसे औपनिवेशिक व्यवस्था में मिला दिया गया था.

डेनमार्क के जहाज़ों के माध्यम से मनी लॉन्ड्रिंग

इमेज स्रोत, FRANCIS HAYMAN/NATIONAL PORTRAIT GALLERY, LONDON

ब्रिटेन, फ़्रांस और हॉलैंड के बीच युद्ध की वजह से व्यापार तटस्थ देशों जैसे डेनमार्क, नार्वे के रास्ते से होने लगा ताकि व्यापारिक जहाज़ युद्धरत पक्षों के क़ब्ज़े से बच सकें.

भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार से विशेष रूप से साल 1757 में प्लासी की लड़ाई में जीत के बाद, कंपनी के कई कर्मचारियों ने कंपनी के ख़र्च पर बहुत सारी निजी संपत्ति अर्जित की.

कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने इस धन को ब्रिटिश जहाज़ों पर वापस ब्रिटेन में स्थानांतरित होने से रोकने के लिए बहुत प्रयास किए.

इसके नतीजे में फ्रांसीसी, डच और डैनिश नॉर्वेजियन जहाज़ों द्वारा बड़े पैमाने पर मनी लॉन्ड्रिंग की गई. इससे 1770 के दशक के दौरान डैनिश-नार्वेजियन व्यापार में बहुत ज़्यादा निवेश किया गया, लेकिन व्यापार का मूल्य बहुत ज़्यादा अस्थिर रहा.

पीटर रेवेन रासमुसन कहते हैं कि भारत में डैनिश-नार्वेजियन उपस्थिति प्रमुख यूरोपीय शक्तियों के लिए कोई अहमियत नहीं रखती थी क्योंकि उन्हें इनसे न तो कोई सैन्य ख़तरा था और न ही कोई व्यावसायिक ख़तरा.

हालाँकि ब्रिटिश नौसेना की ताक़त में होने वाला इज़ाफ़ा 19 वीं सदी के दौरान डैनिश होल्डिंग्स पर क़ब्ज़े और ज़बर्दस्ती बिक्री की वजह बना.

साल 1799 में ब्रिटेन ने डेनमार्क को उन देशों के साथ व्यापार करने से रोकने की कोशिश की जिनके साथ वह युद्ध में था.

उस समय, डेनमार्क हिंद महासागर में फ्रांसीसी और विलंदेज़ी संपत्ति से औपनिवेशिक उत्पाद लाने और कोपेनहेगन के ज़रिये यूरोपीय बाज़ार में भेजकर भारी मुनाफ़ा कमा सकता था.

इमेज स्रोत, EDWARD DUNCAN

डैनिश का पतन और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को कॉलोनी बेचना

नेपोलियन से युद्ध के दौरान, साल 1801 में और फिर साल 1807 में ब्रिटेन ने कोपेनहेगन पर हमला किया.

आख़िरी हमले के नतीजे में (जिसमें पूरे डैनो-नॉर्वेजियन बेड़े पर क़ब्ज़ा कर लिया गया था) डेनमार्क (कुछ पश्चिमी यूरोपीय देशों में से एक जिस पर बोनापार्ट का क़ब्ज़ा नहीं था) ने हेलिगोलैंड द्वीप (डची ऑफ़ होल्स्टीन गॉटटॉर्प का हिस्सा) ब्रिटेन को सौंप दिया.

7 फ़रवरी, 1815 के लंदन गजट के अनुसार, जब एंग्लो-डैनिश दुश्मनी की ख़बर भारत तक पहुंची तो अंग्रेज़ों ने तुरंत 28 जनवरी, 1808 को सात डैनिश व्यापारी जहाज़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया जो हुगली में थे.

आख़िरी बस्तियों, त्रांकेबार, बालासोर और सेरामपुर को 1845 में डेनमार्क के राजा ने 12.5 लाख रुपये में ब्रिटेन को बेच दिया.

यह हस्तांतरण फ्रेडरिक नागोर में 11 अक्टूबर को और त्रांकेबार में 7 नवंबर को हुआ.

'ए लिटिल पीस ऑफ़ डेनमार्क इन इंडिया' में, क्रिस्टियान ग्रोनसेथ लिखते हैं कि ब्रिटिश भारत का हिस्सा बनने के बाद, त्रांकेबार ने अपने विशेष व्यापारिक विशेषाधिकार खो दिए और इसके महत्व में भी तेज़ी से गिरावट आई.

हालांकि 24,000 की आबादी वाला ये शहर आधिकारिक तौर पर तमिल है, लेकिन इसके डैनिश अतीत के अवशेष अभी भी हर जगह दिखते हैं.

शहर का मुख्य प्रवेश द्वार लैंडपोर्टन (टाउन गेट) है, जो डैनिश त्रांकेबार के चारों ओर असल दीवार का हिस्सा है. सफ़ेद रंग पर डेनमार्क की शाही मुहर है.

उन दिनों की सड़क के निशान, किंग स्ट्रीट जैसे नामों के साथ, अभी भी मौजूद हैं. त्रांकेबार में शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से डैनिश की विरासत है. ज़्यादातर स्कूलों का प्रबंधन कैथोलिक सेंट थेरेसा कॉन्वेंट और तमिल इवेंजेलिकल लूथरन चर्च द्वारा किया जाता है.

किसी को मुश्किल लगे या आसान मछली पकड़ने वालों के इस गाँव का नाम अब फिर से तरंगमबाड़ी है.

डेनमार्क को क्या कहा जाता है?

डेनमार्क या डेनमार्क राजशाही (डैनिश: Danmark या Kongeriget Danmark) स्कैंडिनेविया, उत्तरी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी भूसीमा केवल जर्मनी से मिलती है, जबकी उत्तरी सागर और बाल्टिक सागर इसे स्वीडन से अलग करते हैं। यह देश जूटलैंड प्रायद्वीप पर हज़ारों द्वीपों में फैला हुआ है।

डेनमार्क कहाँ स्थित है?

डेनमार्क उत्तरी यूरोप का एक देश है। यह जटलैंड प्रायद्वीप और उत्तरी सागर में 400 से अधिक द्वीपों से बना है। यह दक्षिण में जर्मनी के साथ सीमा साझा करता है।

डेनमार्क गर्म है या ठंडा?

डेनमार्क में एक समशीतोष्ण जलवायु है जो अपेक्षाकृत ठंडी गर्मियों और मध्यम ठंडी सर्दियों द्वारा चिह्नित है। वर्षण के संदर्भ में, इसमें लगभग 765 मिमी (30 इंच) एक वर्ष है। वसंत (मार्च से मई) ठंड की शुरुआत होती है लेकिन धीरे-धीरे गर्म हो जाती है।

डेनमार्क की राजधानी का क्या नाम है?

कोपेनहैगनडेनमार्क / राजधानीnull