महात्मा ज्योतिबा फुले कौन से समाज के थे? - mahaatma jyotiba phule kaun se samaaj ke the?

महात्मा फुले: जब मारने आए हत्यारे ही बने निकट सहयोगी

  • तुषार कुलकर्णी
  • बीबीसी मराठी संवाददाता

28 नवंबर 2021

महात्मा ज्योतिबा फुले कौन से समाज के थे? - mahaatma jyotiba phule kaun se samaaj ke the?

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जिस प्रकार गौतम बुद्ध ने डाकू अंगुलिमाल को बौद्ध भिक्षु बना दिया, उसी प्रकार महात्मा फुले की हत्या करने आए दो व्यक्तियों ने भी सामाजिक कार्यों में महात्मा फुले का साथ दिया था. उनमें से एक महात्मा फुले के अंगरक्षक बने जबकि दूसरे सत्यशोधक समाज के अनुयायी बने और किताबें भी लिखीं.

महात्मा फुले ने अपना जीवन महिलाओं, वंचितों और शोषित किसानों के उत्थान के लिए समर्पित किया था. इस काम के चलते उन्हें और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. रूढ़िवादी समाज उन पर ताने मारता था और गाली गलौज भी किया करता था.

कुछ लोगों ने उन पर गोबर भी फेंका लेकिन फुले दंपति ने अपना काम नहीं छोड़ा. इन विरोधों का कोई असर न होते देख कुछ लोगों ने फुले को मारने के लिए दो हत्यारों को भेजा.

फुले दंपति दिन का काम पूरा करने के बाद आधी रात को आराम कर रहे थे. अचानक नींद टूटने पर मंद रोशनी में दो लोगों की छाया दिखी. ज्योतिबा फुले ने ज़ोर से पूछा कि तुम लोग कौन हो?

एक हत्यारे ने कहा, 'हम तुम्हें ख़त्म करने आए हैं', जबकि दूसरा हत्यारा चिल्लाया, 'हमें तुम्हें यमलोक भेजने के लिए भेजा गया है.'

यह सुनकर महात्मा फुले ने उनसे पूछा, "मैंने तुम्हारा क्या नुकसान किया है कि तुम मुझे मार रहे हो?" उन दोनों ने उत्तर दिया, "तुमने हमारा कोई नुकसान नहीं किया है लेकिन हमें तुम्हें मारने को भेजा गया है."

महात्मा फुले ने उनसे कहा, मुझे मारने से क्या फ़ायदा होगा? "अगर हम तुम्हें मार देंगे, तो हमें एक-एक हज़ार रुपये मिलेंगे," उन्होंने कहा.

यह सुनकर महात्मा फुले ने कहा, "अरे वाह! मेरी मृत्यु से आपको लाभ होने वाला है, इसलिए मेरा सिर काट लो. यह मेरा सौभाग्य है कि जिन ग़रीब लोगों की मैं सेवा कर खुद को भाग्यशाली और धन्य मानता था, वे मेरे गले में चाकू चलाएं. चलो. मेरी जान सिर्फ़ दलितों के लिए है. और मेरी मौत ग़रीबों के हित में है.''

उनकी बातें सुनकर हत्या करने आए दोनों को होश आया और उन्होंने महात्मा फुले से माफ़ी मांगी और कहा "अब हम उन लोगों को मार डालेंगे जिन्हें आपको मारने के लिए भेजा था."

इस पर महात्मा फुले ने उन्हें समझाया और यह सीख दी कि बदला नहीं लेना चाहिए. इस घटना के बाद दोनों महात्मा फुले के सहयोगी बन गए. उनमें से एक का नाम रोडे और दूसरे का नाम था पं. धोंडीराम नामदेव.

यह पूरा घटनाक्रम धनंजय कीर द्वारा लिखित महात्मा फुले की बायोग्राफ़ी में दर्ज है.

इस कहानी को पढ़ने के बाद कोई भी आसानी से समझ सकता है कि चार या पांच वाक्य बोलने से किसी का जीवन पर आया संकट कैसे दूर जा सकता है. लेकिन फुले की पूरी जीवनी पढ़कर पता चलता है कि ये चार-पांच वाक्य उनके पूरे जीवन का सार हैं.

उन्होंने न केवल उन वाक्यों को बोला बल्कि जीवन भर उन्हीं शब्दों को जिया है. महात्मा फुले ने न केवल शोषितों के लिए अपना जीवन लगा दिया, बल्कि उनके विचार आज भी समाज का मार्गदर्शन करते हैं.

महात्मा फुले के निधन को 132 साल हो चुके हैं लेकिन उनके विचारों में अभी भी ताज़गी बनी हुई है. महात्मा फुले एक मानवतावादी विचारक थे लेकिन साथ ही वे एक दूरदर्शी कृषि विशेषज्ञ भी थे.

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हम उनके विचारों के आधार पर क़दम उठाएं तो देश की कृषि समस्याओं का समाधान किया जा सकता है. महात्मा फुले और उनके कृषि विचारों को देखने से पहले, आइए उनके काम और उनकी पृष्ठभूमि को देखें.

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शिक्षा के महत्व को पहचानने वाले फुले

विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी

नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया

वित्त बिना शूद्र गये!

इतने अनर्थ एक अविद्या ने किये"

महात्मा फुले ने जीवन में शिक्षा के अभाव से पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करते हुए ये पंक्तियां 'शेतकऱ्यांचा आसूड' यानी 'किसानों का कोडा' नामक किताब में लिखी हैं.

महात्मा फुले ने समय रहते शिक्षा के महत्व को पहचाना. उन्होंने महसूस किया कि बहुजन समाज और उनके आसपास की महिलाएं शिक्षा की कमी के कारण गुलामी में हैं.

इस आधार पर उन्होंने सुझाव दिया है कि ज्ञान की कमी के चलते बहुजन समाज को दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का जीवन भर सामना करना पड़ता है. उन्होंने निदान बताते हुए कहा है कि इस दुर्भाग्य की जड़ अज्ञानता है.

महात्मा फुले की शिक्षा पहले एक मराठी स्कूल और फिर एक मिशनरी स्कूल में हुई. उनके पिता गोविंदराव का फूलों का व्यवसाय था.

उस समय, कुछ सनातनी ब्राह्मणों को यह पसंद नही था कि जो गैर-ब्राह्मण हैं, वे पढ़ें और शिक्षा प्राप्त करें. उन्होंने ज्योतिबा फुले के पिता के कान भर दिए और कहा कि अगर आपका बेटा अभी शिक्षा प्राप्त करता है, तो उसका मन खेती और बागवानी में नहीं लगेगा, वह असभ्य बन जाएगा.

इसके बाद उनके पिता ने उन्हें पढ़ाई बंद करने को कहा. लेकिन तब तक ज्योतिबा फुले ने अंग्रेजी सीखना शुरू कर दिया था. उन्होंने विभिन्न वैचारिक ग्रंथों और क्रांतियों का अध्ययन किया.

उन्होंने थॉमस पायने की किताब राइट्स ऑफ़ मैन पढ़ी. इसलिए, उन्हें यह एहसास होने लगा कि मनुष्यों के कुछ बुनियादी अधिकार हैं और उन्हें प्राप्त करना उनका अधिकार है.

उनके जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसने उनके मन की जागरूकता को लक्ष्य में बदल दिया. एक बार उन्हें एक ब्राह्मण मित्र की शादी में आमंत्रित किया गया. वे बारात में शामिल थे तब कुछ सनातनी ब्राह्मणों ने उन्हें पहचान लिया और उन्हें तंग करने लगे.

उनमें से एक ने उनसे कहा, "क्या सभी जाति प्रतिबंधों और रीति-रिवाजों को तोड़कर हमारा अपमान कर रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि तुम हमारे बराबर हो? ऐसा करने से पहले आपको सौ बार सोचना चाहिए था. पीछे पीछे चलो हमारे."

21 वर्षीय ज्योतिबा पर इस घटना का गंभीर प्रभाव पड़ा. उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार क्यों किया जा रहा है. उन्होंने इस पर विचार किया और अपनी पृष्ठभूमि और संसाधनों के बारे में सोचा. तो एक बात उनके ध्यान में आयी कि शिक्षा की कमी के चलते यह अंतर है.

वे इस नतीजे तक पहुंच गए कि समुदायों में शिक्षा की कमी ने सैकड़ों वर्षों की गुलामी को जन्म दिया है. शिक्षा केवल एक वर्ग तक सीमित है. औरों को शास्त्र देखने का भी अधिकार नहीं है.

उन्होंने सोचा कि यदि हम सबके लिए शिक्षा के द्वार खोल दें तो गुलामी के बंधनों को हटाया जा सकता है और उन्होंने समाज के शोषित वर्ग के लिए काम करने का फ़ैसला किया.

उन्होंने महिलाओं में शिक्षा का अलख जगाने का फ़ैसला लिया. महात्मा फुले ने महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य क्यों किया, इस बारे में उन्होंने जो कहा, उसका विवरण कुछ इस तरह है, वे कहते हैं - ''सबसे पहले महिला स्कूल ने मेरा ध्यान खींचा. मेरे ख़्याल से महिलाओं के लिए स्कूल पुरुषों से ज़्यादा अहम थे."

इस विचार के मुताबिक महात्मा फुले ने अपने सहयोगियों के साथ 1848 में पुणे के भिडेवाड़ा में एक लड़कियों के स्कूल की शुरुआत की. पुणे रूढ़िवादी लोगों का गढ़ था.

जब उन्हें पता चला कि यहां लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की गई है और यहां बहुजन वर्ग की लड़कियां भी आ रही हैं तो वे स्कूल बंद करने की धमकी देने लगे.

जब उन्होंने देखा कि ज्योतिबा पर उनकी धमकियों का असर नहीं हो रहा है तो वे उनके पिता के पास गए.

इन लोगों ने ज्योतिबा के पिता से कहा कि या तो बेटे को रोक लो नहीं तो तुम लोगों को यहां से निकलना होगा. ज्योतिबा के पिता ने उनसे कहा कि या तो घर छोड़ दो या स्कूल बंद कर दो.

इसके जवाब में ज्योतिबा ने कहा, "मैं स्कूल बंद नहीं कर सकता."

हालांकि, वित्तीय कठिनाइयों के चलते उन्हें स्कूल बंद करना पड़ा लेकिन उन्होंने 1851 में चिपलूनकरवाड़ा में लड़कियों के स्कूल को फिर से खोल दिया. इस स्कूल की शुरुआत आठ लड़कियां से हुई और कुछ ही दिनों में इनकी संख्या बढ़कर 48 हो गई.

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विधवा माताओं की मदद

भारत में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 में पारित किया गया था, लेकिन फिर भी विधवाओं का पुनर्विवाह अधिकांश समाज को स्वीकार नहीं था. बहुत कम उम्र की लड़कियों को बड़े पुरुषों से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता था.

फुले दंपत्ति ने 1863 में विधवा होने के बाद यौन शोषण की वजह से गर्भधारण करने वाली महिलाओं के लिए घर बनवाया था. महिलाएं इस जगह पर गुपचुप तरीके से आती थीं और उनकी डिलीवरी की व्यवस्था की जाती थी. अगर महिला बच्चों की देखभाल करना चाहती थी, तो वह ऐसा कर सकती थी, अन्यथा फुले दंपति ही बच्चों की देखभाल करते.

पुणे में विभिन्न जगहों पर इस घर के बारे में जानकारी संबंधी पर्चे रखवाए गए.

इस पत्र में लिखा था, "विधवाओं, यहाँ आओ और गुप्त और सुरक्षित रूप से बच्चे को जन्म दो. यह आपको तय करना है कि आप अपने बच्चे को यहां लाना चाहते हैं या नहीं. अनाथालय उन बच्चों की देखभाल करेगा."

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'गुलामी' का लेखन और सच्चाई तलाशने वाला समाज

ज्योतिबा धार्मिक गुरूओं की धमकियों से नहीं डरते थे. उन्होंने यह विश्लेषण करते हुए एक किताब लिखी कि क्यों रूढ़िवादियों की समाज में इतनी मज़बूत पैठ है.

इस किताब का नाम 'गुलामी' है. पुणे विद्यापीठ के रिटायर्ड प्रोफेसर और लेखक डॉ. सदानंद मोरे इस किताब को उनका मेग्नम ओपस यानी महाग्रंथ कहते हैं.

ज्योतिबा को उम्मीद थी कि धार्मिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर पूरा समाज जाति से मुक्त हो जाएगा. यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी से मुक्ति हासिल करने वाले काले लोगों को समर्पित है.

इस किताब के बारे में डॉ. सदानंद मोरे अपनी पुस्तक 'द ग्रामर ऑफ रिबेलियन' में कहते हैं, "ज्योतिराव के मन में अमेरिका के समतावादी योद्धाओं का बहुत सम्मान था, इसलिए उन्होंने अपना कार्य उन्हें समर्पित कर दिया. लेकिन मुद्दा भारत में गुलामी का था. ज्योतिराव द्वारा इतिहास के अनुसार यहां के शूद्र समुदाय को आर्यों यानी ब्राह्मणों ने गुलाम बना लिया था. उन्हें उम्मीद थी कि ब्राह्मण समुदाय अमेरिका में गोरों की नकल करेंगे और भारत में शूद्रों की गुलामी को ख़त्म करेंगे."

डॉ. मोरे कहते हैं, "ज्योतिराव ने गुलामी की सैद्धांतिक विवेचना करने के बाद क़दम उठाने में देरी नहीं की. 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सच्चाई की तलाश करने वाले सत्य शोधक समाज का गठन किया था."

बहुजन समाज को जाति और धार्मिक परंपराओं से मुक्त कराने के लिए इस समाज की स्थापना की गई थी जिसके मूल स्तंभ तर्कवाद, विवेक और सत्य थे.

उन्होंने कहा कि भगवान और भक्त के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है, ऐसा कहकर उन्होंने पुरोहितों के महत्व को नकार दिया.

पुराने पारंपरिक रीति-रिवाजों को खारिज करने के बाद, सत्यशोधक समाज ने विवाह, वास्तु शांति, अंतिम संस्कार के लिए वैकल्पिक अनुष्ठानों का सुझाव दिया.

सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता इन अनुष्ठानों को करते थे और वे कोई दक्षिणा नहीं लेते थे.

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महात्मा फुले की किताब गुलामी का एक पृष्ठ

महात्मा फुले और वर्तमान किसान

महात्मा फुले ने 1883 में 'किसानों का कोडा' नामक पुस्तक लिखी थी. उन्होंने बताया कि नौकरशाही, साहूकारों, बाज़ार व्यवस्था, जाति व्यवस्था, प्राकृतिक आपदाओं से किसानों की दुर्दशा बढ़ गई है.

महात्मा फुले ने किसानों को लेकर जो समस्याएं उठाई हैं, वे आज भी कुछ हद तक मौजूद हैं. शिवाजी विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशोक चौसालकर ने कहा कि यदि महात्मा फुले द्वारा सुझाए गए उपायों को लागू किया जाता तो किसानों की स्थिति बदल सकती है. उन्होंने 'महात्मा फुले और किसान आंदोलन' नामक पुस्तक लिखी है.

चौसालकर का कहना है कि तब और अब लाभदायक खेती की ज़रूरत है. कृषि को लाभदायक बनाने के लिए उसे एक साइड बिजनेस की जरूरत है. साथ ही जल नियोजन आवश्यक है.

महात्मा फुले कहा करते थे कि हर किसान को पानी का सही हिस्सा देना चाहिए.

साहूकारी, सरकारी विभाग में भ्रष्टाचार और किसानों का उत्पीड़न तब भी हुआ और अब भी होता है. महात्मा फुले ने कहा था कि किसानों के बच्चों को बढ़ईगीरी और लोहार बनना सीखना चाहिए.

उन्होंने यह भी कहा था कि किसान के बच्चे विलायत भी जाएं और वहां से काम सीखें. इस संबंध में चौसालकर का कहना है कि कृषि को समय के अनुसार बदलना चाहिए.

फुले भी कहते थे कि किसानों के बच्चों को अपने कौशल का विकास करना चाहिए और अपने अधिकारों का प्रयोग करना चाहिए.

किसानों के लिए दर्शनशास्त्र

महात्मा फुले आज कैसे प्रासंगिक हैं, इस पर किसानपुत्र आंदोलन के डॉ. अमर हबीब कहते हैं, "महात्मा फुले का सबसे बड़ा योगदान यह था कि वह किसानों को दर्शन देने वाले पहले व्यक्ति थे. महात्मा फुले की अवधारणा में रचनात्मकता सबसे अहम तत्व था. इसलिए किसान और महिलाएं उनके सोच के केंद्र में थीं."

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक आसाराम लोमटे का कहना है कि महात्मा फुले ने अपनी पुस्तक 'किसानों का कोडा' में किसानों की दुर्दशा का वर्णन किया है. लोमटे का कहना है कि महात्मा फुले न केवल सवाल पूछते थे बल्कि उसका समाधान भी सुझाते थे.

महात्मा फुले इस किताब के अंतिम अध्याय में समाधान भी सुझाते हैं.

ज्योतिराव ने कृषि सुधार का एक बुनियादी कार्यक्रम की रुपरेखा भी लोगों के सामने रखी थी जिसमें व्यवसायों का प्रशिक्षण, बांधों का निर्माण, पहाड़ियों और पहाड़ों में झील और तालाब का बनाना, सभी नदियों और नालों में गाद का मुफ्त भंडारण जैसे कई सुझाव दिए थे.

ज्योतिराव कृषि उत्पादों की बिक्री में दलाली के बारे में बहुत मुखर रहे. अगर कोई किसान सब्जियों से भरी गाड़ी बेचने के लिए लाता है, तो उसके पास दलालों और विभिन्न प्रकार के करों की परेशानी से गुजरने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

लोमटे कहते हैं कि उनके कहीं बातें आज भी प्रासंगिक हैं.

28 नवंबर 1890 को महात्मा फुले की मृत्यु हो गई. सावित्रीबाई फुले ने उनकी मृत्यु के बाद भी अपना काम जारी रखा. सत्यशोधक समाज की कई शाखाएँ गाँव-गाँव में काम कर रही थीं.

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर उन्हें गुरुस्थानी मानते थे, लेकिन 1932 में महात्मा गांधी ने महात्मा फुले को 'सच्चा महात्मा' कहा था.

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ज्योतिबा फुले के सामाजिक विचार क्या थे?

समाज में नयी चेतना के उदय होने पर भी ब्राह्मण अपना पुराना राग अलाप रहे थे। वे डर रहे थे कि यदि स्त्री और शूद्र शिक्षित हो गए तो समाज से उनका एकाधिपत्य और जातीय वर्चस्व ख़त्म हो जाएगा। काफी हिन्दू ईसाई हो चुके थे लेकिन ज्योतिबा फुले जी ने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया।

ज्योतिबा फुले व सावित्रीबाई ने समाजहित में क्या क्या कार्य?

जो स्वयं समाज सुधारक थे, उनके साथ मिलकर 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय खोला. वह भारत की पहली महिला अध्यापिका बनीं. इससे समाज में रोष उत्पन्न होने लगा. 1853 में सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने एक शिक्षा समाज की स्थापना की, जिसने आस-पास के गांवों में सभी वर्गों की लड़कियों महिलाओं के लिए और अधिक विद्यालय खोले.

ज्योतिराव के पत्नी का नाम क्या था?

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महात्मा ज्योतिबा फुले कौन था?

महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले (११ अप्रैल १८२७ - २८ नवम्बर १८९०) एक भारतीय समाजसुधारक, समाज प्रबोधक, विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्हें महात्मा फुले एवं ''जोतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है। सितम्बर १८७३ में इन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया।