युद्ध में पांडव का प्रथम सेनापति कौन था? - yuddh mein paandav ka pratham senaapati kaun tha?

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पांडवों और कौरवों के सेनापति Class 7 Hindi Summary Bal Mahabharat

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युद्ध में पांडव का प्रथम सेनापति कौन था? - yuddh mein paandav ka pratham senaapati kaun tha?


पांडवों और कौरवों के सेनापति Class 7 Hindi Summary Bal Mahabharat


हस्तिनापुर से उपप्लव्य लौटकर श्रीकृष्ण ने वहाँ का सारा हाल पांडवों को सुनाया| युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से युद्ध की तैयारी के लिए कह दिया। पांडवों ने अपनी सेना को सात हिस्सों में बाँटकर द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकि, चेकितान और भीम को इन सात दलों का नायक बनाया। उन्होंने धृष्टद्युम्न को सेनापति बनाया।


कौरव पक्ष में भीष्म ने कहा कि लड़ाई की घोषणा करते समय मेरी राय नहीं ली गई है। इसलिए मैं पांडु-पुत्रों का वध नहीं करूँगा। उन्होंने कर्ण को सेनापति बनाए जाने की माँग की लेकिन दुर्योधन ने पितामह भीष्म को ही सेनापति बनाया। कर्ण ने निश्चय किया कि जब तक भीष्म जीवित रहेंगे वह युद्ध-भूमि में प्रवेश नहीं करेगा। भीष्म के मारे जाने के बाद ही वह युद्ध में भाग लेगा और केवल अर्जुन को ही मारेगा।


युद्ध की दोनों ओर से तैयारियों के बीच एक दिन बलराम पांडवों की छावनी में आए| उन्होंने कहा कि कृष्ण को भी बीच में नहीं पड़ना चाहिए था क्योंकि हमारे लिए दोनों ही समान हैं। कृष्ण की अर्जुन के प्रति ममता ने उसे पांडवों का पक्ष लेने पर विवश किया। दुर्योधन व भीम दोनों मेरे शिष्य हैं इसलिए दोनों मुझे प्रिय हैं। मैं इन दोनों को लड़ते-मरते नहीं देख सकता, इसलिए मैं यहाँ से जा रहा हूँ। महाभारत युद्ध में बलराम और भोजकट के राजा रुक्मी दो ही तटस्थ रहे थे। रुक्मी की छोटी बहन रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पत्नी थी। युद्ध का समाचार सुनकर रुक्मी पांडवों की सहायता के लिए एक अक्षौहिणी सेना लेकर आया था पर उसकी सशर्त सहायता उन्हें स्वीकार नहीं की। वह जब कौरवों के पास गया तो कौरवों ने भी उसकी सहायता इसलिए स्वीकार नहीं की थी क्योंकि पांडवों ने उसे मना कर दिया था।


कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाएँ लड़ने के लिए तैयार खड़ी थीं। सबने प्रचलित युद्ध नीति के अनुसार युद्ध करने की प्रतिज्ञा की। युधिष्ठिर ने कौरवों की सेना की व्यूह-रचना देखकर अर्जुन की सेना सूई की नोक के समान व्यूह में सजाने का आदेश दिया। युद्ध के लिए जब दोनों ओर की सेनाएँ व्यूहाकार तैयार खड़ी थीं, तब अर्जुन को मोह हो गया। श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश से अर्जुन का भ्रम दूर किया।


युद्ध शुरु होने वाला ही था कि युधिष्ठिर अपना कवच उतारकर, धनुषबाण रखकर, रथ से उतरकर पैदल ही कौरव सेना को चीरते हुए भीष्म की ओर चल दिए। यह देखकर श्रीकृष्ण और शेष पांडव उनके पीछे-पीछे हो लिए। युधिष्ठिर ने पितामह के चरण छूकर आशीर्वाद लिया| भीष्म उन्हें आशीर्वाद देते हुए अपनी विवशता के कारण उनसे लड़ने की बात कही। इसके बाद युधिष्ठिर द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा मद्रराज शल्य से आशीर्वाद लेने के बाद अपनी सेना की ओर आ जाते हैं।


युद्ध प्रारंभ हुआ। अर्जुन भीष्म के साथ, सात्यकि कृतवर्मा के साथ, अभिमन्यु बृहत्पाल के साथ, भीम दुर्योधन के साथ, युधिष्ठिर शल्य के साथ और धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य के साथ भिड़ गए। भीष्म के नेतृत्व में कौरव सेना दस दिन तक युद्ध करती है। भीष्म के आहत होने पर द्रोणाचार्य सेनापति बनते हैं। उनकी मृत्यु के बाद कर्ण सेनापति बनता है। सत्रहवें दिन के युद्ध में उसकी मृत्यु हो जाती है। उसके बाद शल्य सेनापति बनते हैं। इस प्रकार महाभारत का युद्ध अठारह दिन चलता है।

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारतवर्ष के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। [1] इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के यादव [कृपया उद्धरण जोड़ें] वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। [2] इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। [3]

महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों[कृपया उद्धरण जोड़ें] के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। [1] महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। [2] महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है।[4] कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं।[5] गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं[6], जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया[7], इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं[8], ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं।

महाभारत युद्ध होने का मुख्य कारण कौरवों की उच्च महत्वाकांक्षाएँ और धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था। कौरव और पाण्डव आपस में चचेरे भाई थे। वेदव्यास जी से नियोग के द्वारा विचित्रवीर्य की भार्या अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, उनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था। पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पाँच पुत्र हुए| धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राज दिया गया जिससे धृतराष्ट्र को सदा पाण्डु और उसके पुत्रों से द्वेष रहने लगा। यह द्वेष दुर्योधन के रूप मे फलीभूत हुआ और शकुनि ने इस आग में घी का काम किया। शकुनि के कहने पर दुर्योधन ने बचपन से लेकर लाक्षागृह तक कई षडयंत्र किये। परन्तु हर बार वो विफल रहा। युवावस्था में आने पर जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो उसने उन्हें लाक्षागृह भिजवाकर मारने की कोशिश की परन्तु पाण्डव बच निकले। पाण्डवों की अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया परन्तु जब पाण्डवों ने वापिस आकर अपना राज्य वापिस मांगा तो उन्हें राज्य के नाम पर खण्डहर रुपी खाण्डव वन दिया गया। धृतराष्ट्र के अनुरोध पर गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने यह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से इन्द्र की अमारावती पुरी जितनी भव्य नगरी इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। पाण्डवों ने विश्वविजय करके प्रचुर मात्रा में रत्न एवं धन एकत्रित किया और राजसूय यज्ञ किया। दुर्योधन पाण्डवों की उन्नति देख नहीं पाया और शकुनि के सहयोग से द्यूत में छ्ल से युधिष्ठिर से उसका सारा राज्य जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास कर उसे अपमानित किया। सम्भवतः इसी दिन महाभारत के युद्ध के बीज पड़ गये थे। अन्ततः पुनः द्यूत में हारकर पाण्डवों को १२ वर्षो को ज्ञातवास और १ वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार करना पड़ा। परन्तु जब यह शर्त पूरी करने पर भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण ने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया।

महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन

तब श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और वहाँ श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पाण्डवों को केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। परन्तु जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो अन्ततः युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहुँचे, जहाँ यह भयंकर युद्ध लड़ा गया [9] कुरुक्षेत्र के उस भयानक और घमासान संहारक युद्ध का अनुमान महाभारत के भीष्म पर्व में दिये एक श्लोक [10] से लगाया जा सकता है कि

“न पुत्रः पितरं जज्ञे पिता वा पुत्रमौरसम्।

भ्राता भ्रातरं तत्र स्वस्रीयं न च मातुलः॥

„“अर्थात् : उस युद्ध में न पुत्र पिता को, न पिता पुत्र को, न भाई भाई को, न मामा भांजे को, न मित्र मित्र को पहचानता था'„

महाभारतकालीन भारत का मानचित्र

  • महाभारत युद्ध को आमतौर पर वैदिक युग में लगभग 950 ईसा पूर्व के समय का माना जाता है।[11] अधिकतर पश्चिमी विद्वान् इसे १००० ईसा पूर्व से १५०० ईसा पूर्व मानते है विद्वानों ने इसकी तिथि निर्धारित करने के लिये इसमें वर्णित सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहणों के बारे में अध्ययन किया है और इसे ३१ वीं सदी ईसा पूर्व का मानते हैं, लेकिन मतभेद अभी भी जारी है। इसकी कई भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न तिथियाँ निर्धारित की गयी हैं-
  • विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था। [12]
  • चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट् पुलकेसि २ के ५वी शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३,७३५ वर्ष बीत गए हैं, इस दृष्टि से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा। [14]
  • पुराणों की मानें तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावलियों को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया है वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है। [15]
  • अधिकतर पश्चिमी यूरोपीय विद्वानों जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं। [16]
  • कुछ पश्चिमी यूरोपीय विद्वानों जैसे पी वी होले महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय स्थितियों का अध्ययन करने के बाद इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [17]
  • अधिकतर भारतीय विद्वान् जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के. सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [18]
  • भारतीय विद्वान् पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्तूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [17][19]
  • कुछ विद्वानों जैसे पी वी वारटक [17][19] के अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीजअपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से मिलने का वर्णन करते है, मेगस्थनीज यह बताते है कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पुजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ियों पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ यह साफ है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान् इसे हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोडते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ियों पहले थे तो अगर एक पीढ़ी को २०-३० वर्ष दें तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अत इस हिसाब से ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय महाभारत का युद्ध हुआ होगा।
  • मोहनजोदड़ो में १९२७ में मैके द्वारा किये गये पुरातात्विक उत्खनन में मिली एक पत्थर की टेबलेट में एक छोटे बालक को दो पेड़ों को खींचता दिखाया गया है और उन पेड़ों से दो पुरुषों को निकलकर उस बालक को प्रणाम करते हुए भी दिखाया गया है, यह दृश्य भगवान श्रीकृष्ण की बचपन की यमलार्जुन-लीला से समानता दिखाता है, अत कई विद्वान् यह मानते है कि मोहनजोदड़ो सभ्यता के लोग महाभारत की कथाओं से परिचित थे। इस कारण भी इस युद्ध को ३००० ईसा पूर्व माना गया है। [20]

श्रीकृष्ण द्वारा शांति का अंतिम प्रयास[21][संपादित करें]

१२ वर्षों के ज्ञातवास और १ वर्ष के अज्ञातवास की शर्त पूरी करने पर भी जब कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। परन्तु श्रीकृष्ण ने कहा कि यह युद्ध सम्पूर्ण विश्व सभ्यता के विनाश का कारण बन सकता है अतः उन्होने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि दुर्योधन को एक अन्तिम अवसर अवश्य देना चाहिए, इसलिये श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और दुर्योधन से पाण्डवों के सामने केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि दुर्योधन के इस हठ के कारण उसके वंश और साथियों के साथ-साथ कई निर्दोष लोगों को युद्ध की बलि चढ़ना पड़ेगा। इस बात क्रोधित होकर दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने की कोशिश की परन्तु श्रीकृष्ण माया का प्रयोग करके सबको अपने विराट रूप से भयभीत कर वहाँ से चले गये। इसके बाद तो युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये विवश होना ही पड़ा। उसी समय भगवान वेदव्यास ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा कि तुम्हारे पुत्रों ने समस्त गुरुजनों की बातों की अवहेलना करके अन्ततः महाविनाशकारी युद्ध को खड़ा ही कर दिया। धृतराष्ट्र के युद्ध की संसूचना जानने की विनती करने पर वेदव्यास जी ने उन्हे कहा कि यदि तुम इस महायुद्ध को देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूँ। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि इसमें मेरे ही कुल का विनाश होना है, इसलिये मैं इस युद्ध अपनी आँखों से नहीं देखूँगा। अतः आप कृपा करके ऐसी व्यवस्था कर दें कि मुझे इस युद्ध का समाचार मिलता रहे। यह सुनकर वेदव्यास जी ने संजय को बुलाकर उसे दिव्य दृष्टि दे दी और कहा, “हे धृतराष्ट्र! मैंने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर दिया है। सम्पूर्ण युद्ध क्षेत्र में कोई भी बात ऐसी न रहेगी जो इससे छुपी रहे। यह तुम्हें इस महायुद्ध का सारा वृत्तान्त सुनायेगा।” इतना कहकर वेदव्यास जी चले गये।

युद्ध की तैयारियाँ और कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान[22][संपादित करें]

महाभारत युद्ध मे भाग लेने वाले विभिन्न जनपदों की स्थिति

जब यह निश्चित हो गया कि युद्ध तो होगा ही, तो दोनों पक्षों ने युद्ध के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं। दुर्योधन पिछ्ले १३ वर्षों से ही युद्ध की तैयारी कर रहा था, उसने बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा प्राप्त की तथा कठिन परिश्रम और अभ्यास से गदा युद्ध करने में भीम से भी अच्छा हो गया। शकुनि ने इन वर्षों मे की विश्व के अधिकतर जनपदों को अपनी तरफ कर लिया। दुर्योधन कर्ण को अपनी सेना का सेनापति बनाना चाहता था परन्तु शकुनि के समझाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म को अपनी सेना का सेनापति बनाया, जिसके कारण भारत और विश्व के कई जनपद दुर्योधन के पक्ष मे हो गये। पाण्डवों की तरफ केवल वही जनपद थे जो धर्म और श्रीकृष्ण के पक्ष मे थे। महाभारत के अनुसार महाभारत काल में कुरुराज्य विश्व का सबसे बड़ा और शक्तिशाली जनपद था। विश्व के सभी जनपद कुरुराज्य से कभी युद्ध करने की भूल नहीं करते थे एवं सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते थे। अत: सभी जनपद कुरुओं द्वारा लाभान्वित होने के लोभ से युद्ध में उनकी सहायता करने के लिये तैयार हो गये। पाण्डवों और कौरवों द्वारा यादवों से सहायता मांगने पर श्रीकृष्ण ने पहले तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और फिर कहा कि "एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना", अब अर्जुन व दुर्योधन को इनमें से एक का चुनाव करना था। अर्जुन ने तो श्रीकृष्ण को ही चुना, तब श्रीकृष्ण ने अपनी एक अक्षौहिणी सेना दुर्योधन को दे दी और खुद अर्जुन का सारथि बनना स्वीकार किया। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। फिर श्रीकृष्ण ने कर्ण से मिलकर उसे यह समझाया कि वह पाण्डवों का ही भाई है अतः वह पाण्डवों की तरफ से युद्ध करे, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन के ऋण और मित्रता के कारण कौरवों का साथ नहीं छोड़ा। इसके बाद कुन्ती के विनती करने पर कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर उसके शेष चार पुत्रों को अवसर प्राप्त होने पर भी न मारने का वचन दिया। इधर इन्द्र ने भी ब्राह्मण का वेष बनाकर कर्ण से उसके कवच और कुण्डल ले लिये। जिससे कर्ण की शक्ति कम हो गयी और पाण्डवों का उत्साह बढ़ गया क्योंकि उस अभेद्य कवच के कारण कर्ण को किसी भी दिव्यास्त्र से मारा नहीं जा सकता था।

सेना विभाग एवं संरचनाएँ, हथियार और युद्ध सामग्री[संपादित करें]

  • विदर्भ, शाल्व, चीन, लौहित्य, शोणित ,नेपा, कोंकण, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र, द्रविड़ आदि ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।


पाण्डवों और कौरवों ने अपनी सेना के क्रमशः ७ और ११ विभाग अक्षौहिणी में किये। एक अक्षौहिणी में २१, ८७० रथ, २१, ८७० हाथी, ६५, ६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।[24][25] यह प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथि होता है हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है, कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २, ८४, ३२३ होती हैं एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६, ३४, २४३ होती हैं, अतः १८ अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या १, १४, १६, ३७४ होगी। अठारह अक्षौहिणियों के लिए यही संख्या ११, ४१६ ,३७४ हो जाती है अर्थात ३, ९३, ६६० हाथी, २७, ५५, ६२० घोड़े, ८२, ६७, ०९४ मनुष्य।[26]

  • महाभारत युद्ध में भाग लेने वाली कुल सेना निम्नलिखित है[26]
कुल पैदल सैनिक-१९, ६८, ३००कुल रथ सेना-३, ९३, ६६०कुल हाथी सेना-३, ९३, ६६०कुल घुड़सवार सेना-११, ८०, ९८०कुल न्यूनतम सेना-३९,०६,६००कुल अधिकतम सेना-१, १४, १६, ३७४
  • यह सेना उस समय के अनुसार देखने में बहुत बड़ी लगती है परन्तु जब ३२३ ईसा पूर्व यूनानी राजदूत मेगस्थनीज भारत आया था तो उसने चन्द्रगुप्त जो कि उस समय भारत का सम्राट् था, के पास ३०,००० रथों, ९००० हाथियों तथा ६,००,००० पैदल सैनिकों से युक्त सेना देखी। अतः चन्द्रगुप्त की कुल सेना उस समय ६, ३९, ००० के आस पास थी [27][28], जिसके कारण सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया था और पुनः अपने देश लौट गया था। यह सेना प्रामाणिक तौर पर प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे विशाल सेना मानी जाती है। यह तो सिर्फ एक राज्य मगध की सेना थी, अगर समस्त भारतीय राज्यों की सेनाएँ देखें तो संख्या में एक बहुत विशाल सेना बन जायेगी। अतः महाभारत काल में जब भारत बहुत समृद्ध देश था, इतनी विशाल सेना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, जिसमें की सम्पूर्ण भारत देश के साथ साथ अनेक अन्य विदेशी जनपदों ने भी भाग लिया था।

हथियार और युद्ध सामग्री[संपादित करें]

महाभारत के युद्ध मे कई तरीके के हथियार प्रयोग मे लाये गये। प्रास, ऋष्टि, तोमर, लोहमय कणप, चक्र, मुद्गर, नाराच, फरसे, गोफन, भुशुण्डी, शतघ्नी, धनुष-बाण, गदा, भाला, तलवार, परिघ, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, कम्पन, चाप, दिव्यास्त्र, एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें।[29]

  • प्राचीन कांस्य युग के अस्त्र-शस्त्र

  • लखनऊ के दादुपुर गाँव मे उत्खनन मे प्राप्त १८०० ईसा पूर्व का लोहे के बाण का भाग

  • एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें


प्राचीन समय में युद्ध के के समय में सेनापति को सेना के कई व्यूह बनाने पड़ते थे जिससे की शत्रु की सेना में आसानी से प्रवेश पाया जा सके तथा राजा और मुख्य सेनापतियों को बन्दी बनाया या मार गिराया जा सके। इसमें अपनी सम्पूर्ण सेना को व्यूह के नाम या गुण वाली एक विशेष आकृति मे व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार की व्यूह रचना से छोटी से छोटी सी सेना भी विशालकाय लगने लगती है और बड़ी से बड़ी सेना का सामना कर सकती है जैसा की महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की केवल ७ अक्षौहिणी सेना ने कौरवो की ११ अक्षौहिणी सेना का सामना करके यह सिद्ध कर दिखाया। महाभारत के १८ दिन के युद्ध में दोनों पक्ष के सेनापतियों द्वारा कई प्रकार के व्यूह बनाये गए। जो निम्नलिखित हैं-

  • युद्ध में पांडव का प्रथम सेनापति कौन था? - yuddh mein paandav ka pratham senaapati kaun tha?

    चक्रव्यूह के गठन का चित्रण

  • प्राचीन शिलाचित्र जिसमें अभिमन्यु चक्र व्यूह में प्रवेश करता हुआ दिखाया गया है


महाभारत काल के सबसे शक्तिशाली योद्धा[30][संपादित करें]

अर्जुन,श्रीकृष्ण,भीष्म,
बलराम,

कर्ण,द्रोणाचार्य,भगदत्त

ये ऐसे योद्धा थे जिन्होने युद्ध में कभी हार का स्वाद नहीं चखा था। इनके पास दिव्यास्त्रों की कमी नहीं थी और अपनी अपनी युद्ध कला मे पूर्ण रुप से पारंगत और प्रवीण तथा सबसे अच्छे थे। महाभारत के अनुसार ये देवताओं को भी पराजित कर सकते थे जैसा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण ने कई बार किया और यहाँ तक कि भगवान शिव को भी युद्ध मे सन्तुष्ट कर दिया। भीष्म ने भी परशुराम को पराजित किया था। और भगदत्त तो इन्द्र का मित्र था, उसने भी अनेकों बार देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता की थी।

भीम,,जरासंध,सात्यकि,
कृतवर्मा,भूरिश्र्वा,अश्वत्थामा,
अभिमन्यु,कंस

ये ऐसे योद्धा थे जिन्होने युद्ध मे बहुत ही कम बार हार का स्वाद चखा था। इनके पास भी दिव्यास्त्रों की कमी नहीं थी परन्तु अति विशेष दिव्यास्त्र जैसे पाशुपत अस्त्र आदि की प्रधानता भी नहीं थी। ये सब युद्ध कला में पूर्ण रुप से पारंगत और प्रवीण थे तथा भारतवर्ष के कई जनपदों को युद्ध में परास्त कर चुके थे।

दुर्योधन,धृष्टद्युम्न,शल्य,द्रुपद,
अलम्बुष,घटोत्कच,कीचक

ये ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपने युद्ध में हार कम ही बार देखी थी, परन्तु ये ऐसे योद्धा थे जो किसी भी क्षण उत्साह और आवेश मे आकर बड़े से बड़े युद्ध का पासा पलट देने की क्षमता रखते थे। ये योद्धा अपने-अपने युद्ध कौशल में प्रवीण तथा श्रेष्ठ थे।

ये वीर युद्ध कला मे पूर्ण रुप से पारंगत और प्रवीण थे परन्तु इनके पास बहुत ज्यादा श्रेष्ठ दिव्यास्त्र नही थे। फिर भी ये समान्य वीरो से बहुत बढ़कर थे।

महाभारत काल के क्रमशः महाशक्तिशाली जनपद और उनके प्रतिनिधि

महाभारत के अनुसार ये जनपद महाभारत काल में सबसे अधिक विकसित और आर्थिक रुप से सुदृढ माने जाते थे, इन्हे उस समय के विकसित देश समझा जा सकता है तथा इनमे भी कुरु और यादव तो सबसे अधिक शक्तिशाली थे और केवल यही दो जनपद थे जिन्होंने उस समय राजसूय और अश्वमेध यज्ञ किये थे।

युद्ध का प्रारम्भ और अंत[संपादित करें]

युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहँचे। पाण्डवों ने कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समन्तपंचक तीर्थ से बहुत दूर हिरण्यवती नदी (सरस्वती की ही एक सहायक धारा) के तट के पास अपना पड़ाव डाला और कौरवो ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग मे वहाँ से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान मे अपना पड़ाव डाला। दोनों पक्षों ने वहाँ चिकने और समतल प्रदेशों मे जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। युधिष्ठिर ने देवमंदिरों, तीर्थों और महर्षियों के आश्रमों से बहुत दूर हिरण्यवती नदी के तट के समीप हजारों सैन्य शिविर लगवाये। वहाँ प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यन्त्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गये। दुर्योधन ने भी इसी तरह हजारों पड़ाव डाले [32] वहाँ केवल दोनों सेनाओ के बीच में युद्ध के लिये ५ योजन का घेरा छोड़ दिया गया था। [33] फिर अगले दिन प्रातः दोनों पक्षो की सेनाएँ एक दूसरे के आमने-सामने आकर खड़ी हो गयीं।

पाण्डवों ने अपनी सेना का पड़ाव समन्त्र पंचक तीर्थ पास डाला और कौरवों ने उत्तम और समतल स्थान देखकर अपना पड़ाव डाला। उस संग्राम में हाथी, घोड़े और रथों की कोई गणना नहीं थी। पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों ने एकत्र होकर युद्ध के कुछ नियम बनाये। उनके बनाये हुए नियम निम्नलिखित हैं-

संख्यानियम१प्रतिदिन युद्ध सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक ही रहेगा२युद्ध समाप्ति के पश्‍चात् छल कपट छोड़कर सभी लोग प्रेम का व्यवहार करेंगे३रथी रथी से, हाथी वाला हाथी वाले से और पैदल पैदल से ही युद्ध करेगा४एक वीर के साथ एक ही वीर युद्ध करेगा५भय से भागते हुए या शरण में आये हुए लोगों पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं किया जायेगा६जो वीर निहत्था हो जायेगा उस पर कोई अस्त्र नहीं उठाया जायेगा७युद्ध में सेवक का काम करने वालों पर कोई अस्त्र नहीं उठायेगा

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाना

इस प्रकार युद्ध संबंधी नियम बना कर दोनों दल युद्ध के लिये प्रस्तुत हुए। पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। दोनों पक्ष की सेनाएँ पूर्व तथा पश्‍चिम की ओर मुख करके खड़ी हो गयीं। कौरवों की तरफ से भीष्म और पाण्डवों की तरफ से अर्जुन सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कुरुक्षेत्र के केवल ५ योजन (४० किलोमीटर) के क्षेत्र के घेरे मे दोनों पक्ष की सेनाएँ खड़ी थीं। [34] युद्ध से पूर्व अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाने को कहते हैं जिससे वह यह देख ले कि युद्ध में उसे किन किन योद्धाओं का सामना करना है। जब अर्जुन युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु द्रोण, पितामह भीष्म एवं अन्य संबंधियों को देखता है तो वह बहुत शोकग्रस्त एवं उदास हो जाता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि जिनके लिये हम ये सारे राजभोग प्राप्त करना चाहते हैं, वे तो यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में उसी राजभोग की प्राप्ति के लिये हमारे विपक्ष मे खड़े हैं इन्हें मारकर हम राज प्राप्त करके भी क्या करेगें। अतएव मैं युद्ध नहीं करूँगा, ऐसा कहकर अर्जुन अपने धनुष रखकर रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है तब श्रीकृष्ण योग में स्थित होकर उसे गीता का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि संसार में जो आया है उसको एक ना एक दिन जाना ही पड़ेगा। यह शरीर और संसार दोनों नश्वर हैं परन्तु इस शरीर के अन्दर रहने वाला आत्मा शरीर के मरने पर भी नहीं मरता। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र पहनता है उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करती है इसको तुम ऐसे समझो कि यह सब प्रकृति तुम से करवा रहीं है तुम केवल निमित्त मात्र हो। श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान योग,भक्ति योग और कर्म योग तीनों की शिक्षा देते हैं जिसे सुनकर अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो जाता है।


युद्ध का विवरण एवं घटनाक्रम[संपादित करें]

पहले दिन की समाप्ति पर पाण्डव पक्ष को भारी हानि उठानी पड़ी, विराट नरेश के पुत्र उत्तर और श्वेत क्रमशः शल्य और भीष्म के द्वारा मारे गये। भीष्म द्वारा उनके कई सैनिकों का वध कर दिया गया। यह दिन कौरवों के उत्साह को बढ़ाने वाला था। इस दिन पाण्डव किसी भी मुख्य कौरव वीर को नहीं मार पाये। [35]

इस दिन पाण्डव पक्ष की अधिक क्षति नहीं हुई, द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को कई बार हराया और उसके कई धनुष काट दिये, भीष्म द्वारा अर्जुन और श्रीकृष्ण को कई बार घायल किया गया, यह दिन कौरवों के लिये भारी पड़ा, इस दिन भीम का कलिंगों और निषादों से युद्ध हुआ तथा भीम द्वारा सहस्रों कलिंग और निषाद मार गिराये गए, अर्जुन ने भी भीष्म को भीषण संहार मचाने से रोके रखा। [35]

कलिंगराज भानुमान्,केतुमान,अन्य कलिंग वीर

इस दिन भीम ने घटोत्कच के साथ मिलकर दुर्योधन की सेना को युद्ध से भगा दिया, भीष्म दुर्योधन को आश्वासन देकर भीषण संहार मचा देते हैं, श्रीकृष्ण अर्जुन को भीष्म वध करने को कहते है परन्तु अर्जुन उत्साह से युद्ध नहीं कर पाता जिससे श्रीकृष्ण स्वयं भीष्म को मारने के लिए उद्यत हो जाते है परन्तु अर्जुन उन्हे प्रतिज्ञा रूपी आश्वासन देकर कौरव सेना का भीषण संहार करते है, वह एक दिन में ही समस्त प्राच्य, सौवीर, क्षुद्रक और मालव क्षत्रियगणों को मार गिराते हैं। [35]

प्राच्य,सौवीर,क्षुद्रक और मालव वीर

इस दिन कौरवों ने अर्जुन को अपने बाणों से ढक दिया, परन्तु अर्जुन ने सभी को मार भगाया। भीम ने तो इस दिन कौरव सेना में हाहाकार मचा दी, दुर्योधन ने अपनी गजसेना भीम को मारने के लिये भेजी परन्तु घटोत्कच की सहायता से भीम ने उन सबका नाश कर दिया और १४ कौरवों को भी मार गिराया, परन्तु राजा भगदत्त द्वारा जल्द ही भीम पर नियंत्रण पा लिया गया। बाद में भीष्म को भी अर्जुन और भीम ने भयंकर युद्ध कर कड़ी चुनौती दी। [35]

इस दिन भीष्म ने पाण्डव सेना को अपने बाणों से ढक दिया, उन पर रोक लगाने के लिये क्रमशः अर्जुन और भीम ने उनसे भयंकर युद्ध किया। सात्यकि ने द्रोणाचार्य को भीषण संहार करने से रोके रखा। भीष्म द्वारा सात्यकि को युद्ध क्षेत्र से भगा दिया गया। [35]

इस दिन भी दोनो पक्षों में भयंकर युद्ध चला, युद्ध में बार बार अपनी हार से दुर्योधन क्रोधित होता रहा परन्तु भीष्म उसे आश्वासन देते रहे। अंत में भीष्म द्वारा पांचाल सेना का भयंकर संहार किया गया। [35]

इस दिन अर्जुन कौरव सेना में भगदड़ मचा देता है, धृष्टद्युम्न दुर्योधन को युद्ध में हरा देता है, अर्जुन पुत्र इरावान विन्द और अनुविन्द को हरा देते है, भगदत्त घटोत्कच को और नकुल सहदेव शल्य को युद्ध क्षेत्र से भगा देते हैं, भीष्म पाण्डव सेना का भयंकर संहार करते हैं। [35]

इस दिन भी भीष्म पाण्डव सेना का भयंकर संहार करते है, भीमसेन धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध कर देता है, राक्षस अम्बलुष अर्जुन पुत्र इरावान का वध कर देता है। एक बार पुनः घटोत्कच दुर्योधन को युद्ध में अपनी माया द्वारा प्रताड़ित कर युद्ध से उसकी सेना को भगा देता है, तब भीष्म की आज्ञा से भगदत्त घटोत्कच को हरा कर भीम, युधिष्ठिर व अन्य पाण्डव सैनिकों को पीछे ढकेल देता है। दिन के अंत तक भीमसेन धृतराष्ट्र के नौ और पुत्रो का वध कर देता है। [35]

इस दिन दुर्योधन भीष्म को या तो कर्ण को युद्ध करने की आज्ञा देने को कहता है या फिर पाण्डवों का वध करने को, तो भीष्म उसे आश्वासन देते हैं कि कल या तो कृष्ण अपनी युद्ध मे शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तोड़गे वरना वो किसी एक पाण्डव का वध अवश्य कर देंगे। युद्ध में आखिरकार भीष्म के भीषण संहार को रोकने के लिये कृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ती है परन्तु इस दिन भीष्म पाण्डवों की सेना का अधिकांश भाग समाप्त कर देते हैं। [35]

इस दिन पाण्डव श्रीकृष्ण के कहने पर भीष्म से उनकी मुत्यु का उपाय पुछकर अर्जुन शिखण्डी को आगे कर भीष्म के शरीर को बाणों से ढक देते हैं, भीष्म पांचाल तथा मत्स्य सेना का भयंकर संहार कर देते है और अंत में अर्जुन के बाणों से विदीर्ण हो बाणों की उस शय्या पर लेट जाते हैं। [35]

कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनाये जाते हैं, कर्ण भी युद्ध में आ जाता है जिससे कौरवों का उत्साह कई गुणा बढ़ जाता है, दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते है कि वे युधिष्ठिर को बन्दी बना लें तो युद्ध अपनेआप खत्म हो जायेगा, तो जब दिन के अंत में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हरा कर उसे बन्दी बनाने के लिये आगे बढ़ते ही हैं कि अर्जुन आकर अपने बाणों की वर्षा से उन्हे रोक देता है, कर्ण भी इस दिन पाण्डव सेना का भारी संहार करता है। [36]

पिछले दिन अर्जुन के कारण युधिष्ठिर को बन्दी न बना पाने के कारण शकुनि व दुर्योधन अर्जुन को युधिष्ठिर से काफी दूर भेजने के लिए त्रिग‍र्त देश के राजा को उससे युद्ध कर उसे वहीं युद्ध में व्यस्त बनाये रखने को कहते है, वे ऐसा करते भी है परन्तु एक बार फिर अर्जुन समय पर पहुँच जाता है और द्रोण असफल हो जाते हैं। [36]

इस दिन दुर्योधन राजा भगदत्त को अर्जुन को व्यस्त बनाये रखने को कहते है क्योंकि केवल वही अर्जुन की श्रेणी के योद्धा थे, भगदत्त युद्ध में एक बार फिर से पाण्डव वीरों को भगा कर भीम को एक बार फिर हरा देते है फिर अर्जुन के साथ भयंकर युद्ध करते है, श्रीकृष्ण भगदत्त के वैष्णवास्त्र को अपने ऊपर ले उससे अर्जुन की रक्षा करते है। अन्ततः अर्जुन भगदत्त की आँखो की पट्टी को तोड़ देता है जिससे उसे दिखना बन्द हो जाता है और अर्जुन इस अवस्था में ही छ्ल से उनका वध कर देता है। इसी दिन द्रोण युधिष्ठिर के लिये चक्र व्यूह रचते हैं जिसे केवल अभिमन्यु तोड़ना जानता था परन्तु निकलना नहीं जानता था। अतः युधिष्ठिर भीम आदि को उसके साथ भेजता है परन्तु चक्र व्यूह के द्वार पर वे सब के सब जयद्रथ द्वारा शिव के वरदान के कारण रोक दिये जाते हैं और केवल अभिमन्यु ही प्रवेश कर पाता है। वह छल से अकेला ही सभी कौरव महारथियों द्वारा मार दिया जाता है, अपने पुत्र अभिमन्यु का अन्याय पूर्ण तरीके से वध हुआ देख अर्जुन अगले दिन जयद्रथ वध करने की प्रतिज्ञा लेता है और ऐसा न कर पाने पर अग्नि समाधि लेने को कहता है। [36]

अर्जुन की अग्नि समाधि वाली बात सुनकर कौरव उत्साहित हो जाते हैं और यह योजना बनाते है कि आज युद्ध में जयद्रथ को बचाने के लिये सब कौरव योद्धा अपने जान की बाजी लगा देंगे, द्रोण जयद्रथ को बचाने का पूर्ण आश्वासन देते हैं और उसे सेना के पिछले भाग मे छिपा देते है, परन्तु अर्जुन सब को रौंदते हुए कृष्ण द्वारा किये गये सूर्यास्त के कारण बाहर आये जयद्रथ को मारकर उसका मस्तक उसके पिता के गोद मे गिरा देते हैं। इस दिन द्रोण द्रुपद और विराट को मार देते हैं। [36]

इस दिन पाण्डव छल से द्रोणाचार्य को अश्वत्थामा की मृत्यु का विश्वास दिला देते हैं जिससे निराश हो द्रोण समाधि ले लेते हैं उनकी इस दशा मे धृष्टद्युम्न उनका सिर काटकर वध कर देता है। [36]

इस दिन कर्ण कौरव सेना का मुख्य सेनापति बनाया जाता है वह इस दिन पाण्डव सेना का भयंकर संहार करता है, इस दिन वह नकुल सहदेव को युद्ध मे हरा देता है परन्तु कुंती को दिये वचन को स्मरण कर उनके प्राण नहीं लेता। फिर अर्जुन के साथ भी भयंकर संग्राम करता है, भीम दुःशासन का वध कर उसकी छाती का रक्त पीता है और अंत मे सूर्यास्त हो जाता है। [37]

इस दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हरा कर कुंती को दिये वचन को स्मरणकर उनके प्राण नहीं लेता। अन्ततः अर्जुन कर्ण के रथ के पहिये के भूमि में धँस जाने पर श्रीकृष्ण के कहने पर रथ के पहिये को निकाल रहे कर्ण का उसी अवस्था में वध कर देता है, इसके बाद कौरव अपना उत्साह हार बैठते है। फिर शल्य प्रधान सेनापति बनाये गये परन्तु उनको भी युधिष्ठिर दिन के अंत में मार देते हैं। [38]

कर्ण,शल्य,दुर्योधन के २२ भाई

इस दिन भीम दुर्योधन के बचे हुए भाइयों को मार देता है सहदेव शकुनि को मार देता है और अपनी पराजय हुई जान दुर्योधन एक तालाब मे छिप जाता है परन्तु पाण्डवों द्वारा ललकारे जाने पर वह भीम से गदा युद्ध करता है और छल से जंघा पर प्रहार किये जाने से उसकी मृत्यु हो जाती है इस तरह पाण्डव विजयी होते हैं। [39]

द्रोपदी के पाँच पुत्र,धृष्टद्युम्न,शिखण्डी

कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम[संपादित करें]

महाभारत एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यह युद्ध भारत वंशियों के साथ-साथ अन्य कई महान वंशों तथा वैदिक ज्ञान विज्ञान के पतन का कारण बना। महाभारत में वर्णित इस युद्ध के कुछ मुख्य परिणाम निम्न लिखित हैं-

नकारात्मक फल

  • यह युद्ध प्राचीन भारत के इतिहास का सबसे विध्वंसकारी और विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ। इस युद्ध के बाद भारतवर्ष की भूमि लम्बें समय तक वीर क्षत्रियों से विहीन रही। इस युद्ध में लाखों वीर योद्धा मारे गये।
  • गांधारी के शापवश यादवों के वंश का भी विनाश हो गया। लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गये, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने भी इस धरती से प्रयाण किया।
  • इस युद्ध के समापन एवं श्रीकृष्ण के महाप्रयाण के साथ ही वैदिक युग एवं सभ्यता के अंत का आरम्भ हुआ, भारत से वैदिक ज्ञान और विज्ञान का लोप होने लगा। जिसे पौराणिक विद्वानों ने कलियुग के आगमन से जोड़ा।
  • पूरे भारतवर्ष में सम्पूर्ण जनपदों की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गयी, भारत में गरीबी के साथ साथ अज्ञानता फैल गयी।
  • भविष्य पुराण के अनुसार इस युद्ध के बाद भारत में निरन्तर शतियों तक विदेशियों (मलेच्छों) के आक्रमण होते रहे, कुरुवंश के अंतिम राजा क्षेमक भी मलेच्छों से युद्ध करते हुए मारे गये, जिसके बाद तो यह आर्यावर्त देश सब प्रकार से क्षीण हो गया, कलियुग के बढ़ते प्रभाव को देखकर तथा सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने पर लगभग ८८००० वैदिक ऋषि-मुनि हिमालय चले गये और इस प्रकार भारतवर्ष ऋषि-मुनियों के ज्ञान एवं विज्ञान से भी हीन हो गया।
  • समस्त ऋषि-मुनियों के चले जाने पर भारत में धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण करने लगे, जो पहले केवल यज्ञ करते थे एवं वेदों का अध्ययन करते थे। ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को लम्बे समय तक बचाये रखा, परन्तु पौराणिक ग्रंथों में दिये वर्णन के अनुसार कलियुग के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग भी नहीं बच पाया और उनमें से कुछ दूषित एवं भ्रष्ट हो गये, मंत्रों का सही तरीके से उच्चारण करने की विधि भूल जाने के कारण वैदिक मंत्रों का दिव्य प्रभाव भी सीमित रह गया। कुछ भ्रष्ट ब्राह्मणों ने बाद के समाज में कई कुरीतियाँ एवं प्रथाएँ चला दी, जिसके कारण क्षुद्र एवं पिछड़े वर्ग का शोषण होने लगा एवं सतीप्रथा, छुआछूत जैसी प्रथाओं ने जन्म लिया। [40] परन्तु कई ब्राह्मणों ने कठोर तप एवं नियमों का पालन करते हुए कलियुग के प्रभाव के बावजूद वैदिक सभ्यता को किसी न किसी अंश में जीवित रखा, जिसके कारण आज भी ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ सहस्रों वर्षों बाद लगभग उसी रूप में उपलब्ध हैं।

सकारात्मक फल

  • इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर के राज्य-अभिषेक के साथ धरती पर धर्म के राज्य की स्थापना हुई।

हिन्दू परम्पराओं एवं पुराणों में दी गयी प्राचीन राजवंशों की सूची के आधार पर तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में दी गयी ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर महाभारत काल के बाद का प्राचीन भारतीय राजवंश ऐतिहासिक घटना कालक्रम में निम्नलिखित है-

इस काल में सर्वप्रथम महाभारत युद्ध हुआ [44] तथा इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर राजा बने। युधिष्ठिर से लगभग ३० पीढ़ियों तक यह राजवंश चला। इस वंश के अन्तिम सम्राट क्षेमक हुए, जो मलेच्छों के साथ युद्ध करते हुए मारे गये। क्षेमक के वेदवान् तथा वेदवान् के सुनन्द नामक पुत्र हुआ एवं सुनन्द पुत्रहीन ही रहा, इस प्रकार सुनन्द के अंत के साथ ही पाण्डव वंश का अंत हो गया। [45][46]

यह राजवंश महाभारत काल में जरासंध के पुत्र बृहद्रथ से आगे बढ़ा था, इस वंश में कुल २२ राजा हुए, जिन्होंने लगभग १००० वर्षों तक शासन किया। इस वंश का अन्तिम राजा रिपुञ्जय था जिसकी मृत्यु के साथ यह वंश समाप्त हुआ। [45][46]

पौराणिक तथा ज्योतिषीय प्रमाणों के आधार पर यह महाभारत युद्ध की प्रसिद्ध परंपरागत तिथि है, परन्तु अभी यह विवादित है आधुनिक विद्वान् इसे १५००-१००० ईसा पूर्व हुआ मानते है यद्यपि आर्यभट व अन्य प्राचीन विद्वानों ने इसे ३००० ईसा पूर्व ही बताया है। [44]

प्रद्योत एवं शिशुनाग राजवंश

यह राजवंश मगध में बृहद्रथ राजवंश के समापन के साथ ही स्थापित हुआ, बृहद्रथ राजवंश के अन्तिम राजा रिपुञ्जय के मन्त्री शुनक ने रिपुञ्जय को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजसिंहासन पर बिठाया। प्रद्योत वंश की समाप्ति इनके ५ राजाओं के १३८ वर्षों तक शासन करने के बाद अंतिम राजा नन्दिवर्धन की मृत्यु के साथ हुई। इसके बाद शिशुनाग राजा हुए जिनके वंश में १० राजाओं ने लगभग ३६०-४५० वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार कुल ६०० वर्षों तक इस राजवंश का शासन रहा। [45][46]

पाण्डव वंश का अंत एवं काश्यप की उत्पत्ति

इस समय के प्रारम्भ में ब्राह्मणों के पूर्वज काश्यप नामक ब्राह्मण का जन्म हुआ, इन्होने मिश्र में जाकर मलेच्छों को मोहित कर आर्यावर्त आने से रोक दिया। फिर काश्यप ने अपने प्रतिनिधि मागध को आर्यावर्त का सम्राट बनाया। मागध ने इस देश को कई विभागों में बाँट दिया। मागध के पुत्र के पुत्र ही शिशुनाग थे। जिनके नाम से शिशुनाग राजवंश चला। इस समय तक पाण्डव वंश भी समाप्त हो गया, जिससे भारत में मगध राज्य की शक्ति बहुत बढ गयी। सिन्धु नदी से पश्चिम के भाग पर यवनों व मलेच्छों ने अधिकार कर लिया। [45][46]

इस अवधि काल तक सरस्वती नदी लुप्त हो गयी, जिसके कारण ८८००० ऋषि-मुनि कलियुग के बढ़ते प्रभाव को देखकर आर्यावर्त छोड़कर हिमालय पर चले गये, इस प्रकार ज्ञान की देवी सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने पर भारत से वैदिक ज्ञान-विज्ञान भी लुप्त हो गया। इसी काल तक सरस्वती सिंधु सभ्यता भी लुप्त हो गयी थी। इसके बाद काश्यप नामक ब्राह्मण के वंशियों ने वैदिक परम्पराओं तथा ज्ञान को बचाये रखा जिससे उन्हें समाज में प्रधानता दी गयी, परन्तु उनमें से कुछ कलियुग के प्रभाव से न बच सके और पतित हो गये जिससे आने वाले हिन्दू समाज में कई कुरीतियाँ फैल गयीं। [45][46][43]

इस अवधि में मगध पर नन्द राजवंश का शासन रहा, इसके अन्तिम राजा महापद्मनन्द को चाणक्य नामक ब्राह्मण ने मरवाकर चन्द्रगुप्त मौर्य को शासक बनाया।[45][46] इसी काल में गौतम बुद्ध की उत्पत्ति भी हुई। [47][43][44]

मौर्यों के १२ राजाओं ने लगभग ३०० वर्षों तक मगध पर शासन किया [46]

इस वंश में १० राजा हुए जिन्होनें लगभग ३०० वर्षों तक शासन किया इसके बाद कण्व वंश में ४ राजा हुए जिन्होने लगभग १०० वर्षों तक शासन किया, इस वंश का अन्तिम राजा सुशर्मा था। [45][46]

इस राजवंश के प्रथम राजा ने सुशर्मा को मारकर उसका राज्य अपने अधिकार में लिया, इनके वंश में कुल २२ राजा हुए जिन्होनें लगभग ४०० वर्षो तक शासन किया। [45][46]

इस वंश का प्रथम राजा चन्द्रगुप्त हुआ जिससे यूनानी राजदूत मेगस्थनीज मिला था। गुप्त वंश में ७ राजा हुए जिन्होनें ३०० वर्षों तक शासन किया, इस वंश की समाप्ति उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने की, जिन्होनें अपने नाम पर विक्रम संवत् स्थापित की। [45][46]

पांडव सेना के प्रथम सेनापति कौन थे?

युद्ध में पांडवों की तरफ से सेनापति थी शिखण्डिनी और कौरवों के सेनापति थे भीष्म लेकिन पितामाह भीष्म की मृत्यु के बाद कर्ण और द्रोण को सेनापति बनाया।

पांडव सेना के सात नायक कौन थे उनमें से कौन सेनापति बना?

पांडवों ने अपनी सेना को सात हिस्सों में बाँटकर द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकि, चेकितान और भीम को इन सात दलों का नायक बनाया। उन्होंने धृष्टद्युम्न को सेनापति बनाया।

महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों के सेनापति कौन कौन बने?

भीष्म के बाद सेनापति बने थे द्रोणाचार्य जब कौरवोंपांडवों में युद्ध शुरू हुआ, उस समय कौरव सेना के सेनापति भीष्म थे। भीष्म के बाद दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को अपना सेनापति बनाया। सेनापति बनते ही द्रोणाचार्य ने पांडवों की सेना का संहार करना शुरू किया। द्रोणाचार्य ने पांडव सेना के अनेक वीरों का वध कर दिया।

महाभारत के युद्ध में कौरवों के प्रथम सेनापति कौन थे?

01. भीष्म पितामह