बाजार में कीमत कैसे निर्धारित होती है - baajaar mein keemat kaise nirdhaarit hotee hai

Solution : संतुलन कीमत (Equilibrium Price)-संतुलन कीमत वह कीमत है जिस पर माँग तथा पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होते हैं या जहाँ क्रेताओं की खरीद या विक्रेताओं की बिक्री एक-दूसरे के समान होती है। पूर्ण प्रतियोगी बाजार में संतुलन कीमत का निर्धारण माँग तथा पूति की शक्तियों द्वारा होता है। संतुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ बाजार माँग बाजार पूर्ति के बराबर हो जाती है। <br> पूर्ण प्रतियोगिता में संतुलन कीमत/मूल्य का निर्धारण (Determination of equilibrium price in perfect competition state)- of storefront स्थिति में क्रेता वस्तु की सीमांत उपयोगिता से अधिक कीमत देने को तैयार नहीं होते हैं तथा विक्रेता सीमांत लागत से कम कीमत पर वस्तु की आपूर्ति नहीं करेंगे। इस प्रकार इन दोनों अधिकतम एवं न्यूनतम सीमाओं के बीच ही वस्तु की कीमत का निर्धारण होगा। वास्तव में, संतुलन कीमत का निर्धारण उस बिन्दु पर होगा जहाँ वस्तु की माँग की पूर्ति के बराबर होगी। <br> <img src="https://d10lpgp6xz60nq.cloudfront.net/physics_images/UNQ_HIN_10Y_QB_ECO_XII_QP_E02_011_S01.png" width="80%"> <br> चित्र में E बिन्दु पर वस्तु की माँग मानी जाने वाली मात्रा, पूर्ति के बराबर है अर्थात् OP संतुलित कीमत है जहाँ पर OM संतुलित मात्रा है। यदि कीमत `OP_1` है तो पूर्ति `P_1B` तथा माँग `P_1A` है। इस अवस्था में अधिक पूर्ति की दशा है जिससे विक्रेताओं में परस्पर प्रतियोगिता होगी तथा इस प्रतियोगिता के कारण वस्तु की कीमत कम हो जाएगी तथा माँग का विस्तार होगा। जब कीमत कम होकर OP रह जाएगी तो माँग तथा पूर्ति परस्पर बराबर हो जाएँगे इसलिए OP संतुलित कीमत स्थापित होगी। यदि किसी कारण से वस्तु की कीमत कम होकर `OP_2` रह जाती है तो माँग, पूर्ति से अधिक होगी जिससे विक्रेताओं में प्रतियोगिता बढ़ जाएगी। इससे अतिरिक्त माँग की दशा उत्पन्न होगी इस कारण कीमत बढ़नी शुरू हो जाएगी तथा तब तक बढ़ती रहेगी जब तक वह OP नहीं हो जाती। इस दशा में फिर माँग तथा पूर्ति में संतुलन स्थापित हो जाएगा।

Solution : मूल्य-निर्धारण में समय का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। समय के दृष्टिकोण से मूल्य को प्राय: दो भागों में विभाजित किया जाता है-बाजार-मूल्य तथा सामान्य मूल्य। बाजार मूल्य अल्पकाल में निर्धारित मूल्य है, जिसके अंतर्गत वस्तु की पूर्ति लगभग निश्चित होती है। दूसरी ओर, सामान्य मूल्य दीर्घकालीन मूल्य होता है तथा इस अवधि में पूर्ति को पूर्णतया माँग के अनुरूप परिवर्तित किया जा सकता है। <br> (i) बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य की तुलना मूल्य-निर्धारण में समय के महत्त्व को अधिक स्पष्ट कर देती है। बाजार मूल्य और. सामान्य मूल्य में हम निम्नलिखित अंतर पाते हैं- <br> (i) बाजार-मूल्य अति अल्पकालीन मूल्य है। यह मांग और पूर्ति के अस्थायी संतुलन द्वारा निर्धारित होता है। इसके विपरीत, सामान्त मूल्य दीर्धकालीन मूल्य है तथा इसका निर्धारण माँग और पूर्ति के स्थायी संतुलन से होता है। <br> (ii) बाजार मूल्य के निर्धारण में पूर्ति की अपेक्षा माँग अधिक सक्रिय होती है। क्योंकि अति अल्पकाल में पूर्ति की मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, सामान्य मूल्य के निर्धारण में पूर्ति की प्रधानता रहती है, क्योंकि इसके अंतर्गत पूर्ति को आवश्यकतानुसार घटाया-बदाया जा सकता है। <br> (iii) बाजार मूल्य अत्यंत परिवर्तनशील होता है। यह प्रतिदिन या दिन में कई बार बदल सकता है। लेकिन, सामान्य मूल्य अधिक स्थायी होता है तथा इसमें बहुत कम परिवर्तन होते हैं। <br> (iv) बाजार-मूल्य अस्थायी कारणों तथा तात्कालिक घटनाओं से प्रभावित होता है, जबकि सामान्य मूल्य स्थायी तत्वों से नियंत्रित होता है। <br> (v) बाजार-मूल्य वास्तविक मूल्य है जो किसी विशेष समय में बाजार में प्रचलित रहता है। वस्तुओं या सेवाओं का क्रय-विक्रय इसी मूल्य पर होता है। परंतु, सामान्य मूल्य काल्पनिक या अमूर्त होता है जो वास्तविक जीवन में नहीं पाया जाता। सामान्य मूल्य वह है जो होना चाहिए या जो सामान्य अवस्थाओं में प्रचलित रहता है। लेकिन, व्यावहारिक जगत में परिस्थितियाँ कभी भी पूर्णत: सामान्य नहीं होती है। अत: सामान्य मूल्य भी वास्तविकता में नहीं बदल पाता। <br> (vi) बाजार मूल्य उत्पादन-व्यय से कम या अधिक दोनों हो सकता है। लेकिन, सामान्य मूल्य हमेशा उत्पादन-व्यय के बराबर होता है। <br> (vii) बाजार मूल्य सभी प्रकार की वस्तुओं का होता है चाहे उनका पुन: उत्पादन हो सकता हो या नहीं। किंतु, सामान्य मूल्य केवल उन्हीं वस्तुओं का होता है जिनका पुनरुत्पादन संभव हो।

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य विशेषताएँ (लक्षण) बताइए। [2006, 08, 12, 14, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता का क्या अर्थ है ? पूर्ण प्रतियोगी बाजार की विशेषताएँ बताइए। [2011, 12, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताओं को समझाइए। [2013]
या
पूर्ण प्रतियोगिता को परिभाषित कीजिए। इसकी किन्हीं चार विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ तथा परिभाषाएँ
पूर्ण प्रतियोगिता, बाजार की वह दशा होती है जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है। इसमें कोई भी एक क्रेता अथवा विक्रेता व्यक्तिगत रूप से वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। समस्त बाजार में वस्तु का एक ही मूल्य होता है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं।

बोल्डिंग के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता व्यापार की वह स्थिति है जिसमें प्रचुर संख्या में क्रेता और विक्रेता बिल्कुल एक ही प्रकार की वस्तु के क्रय-विक्रय में लगे होते हैं तथा जो एक-दूसरे के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आकर आपस में स्वतन्त्रतापूर्वक वस्तु का क्रय करते हैं।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, “जब प्रत्येक विक्रेता द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग पूर्ण रूप से लोचदार होती है तो विक्रेता की दृष्टि से प्रतियोगिता पूर्ण होती है। इसके लिए दो अवस्थाओं का होना अनिवार्य है। पहली-विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है। दूसरी – सभी ग्राहक प्रतियोगी विक्रेताओं के बीच चयन करने की दृष्टि से समान होते हैं, जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की आवश्यक विशेषताएँ या लक्षण
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, ताकि कोई एक क्रेता या विक्रेता वस्तु के मूल्य को प्रभावित न कर सके।
  2.  क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, अर्थात् उनको बाजार में उस वस्तु के मूल्य तथा एक-दूसरे के विषय में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए ताकि कोई विक्रेता बाजार मूल्य से अधिक मूल्य न ले सके और न ही कोई क्रेता अधिक मूल्य दे।
  3.  फर्मों द्वारा उत्पादित तथा बेची जाने वाली वस्तुएँ एकसमान गुण वाली होने के साथ ही अभिन्न भी होनी चाहिए, ताकि क्रेता बिना किसी प्रकार की शंका के उन्हें खरीद सके। साथ ही जब वस्तुएँ अभिन्न होंगी तब समस्त बाजार में उनकी कीमत भी एक रहेगी।
  4. पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में किसी समय-विशेष पर वस्तु की समस्त इकाइयों का मूल्य एक-समान होना चाहिए।
  5. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्मों का भाग लेना अथवा न लेना सरल व स्वतन्त्र होना चाहिए। उन पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए ताकि अधिक लाभ कमाने की इच्छा से ये एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से भाग ले सकें।
  6. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में क्रय-विक्रय की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए ताकि कोई भी क्रेता किसी भी स्थान से वस्तु खरीद सके तथा कोई भी विक्रेता किसी भी स्थान पर अपनी वस्तु बेच सके।
  7.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि मूल्य-नियन्त्रण के अभाव में ही माँग एवं सम्भरण (पूर्ति) शक्तियाँ प्रभावपूर्ण ढंग से । अपना कार्य करती हैं।

वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ नहीं पायी जाती हैं और यह विचार बिल्कुल काल्पनिक है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता के न पाये जाने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

  • सभी वस्तुओं की बिक्री में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक नहीं होती है। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हो सकती हैं जिनके उत्पादक थोड़ी संख्या में हों, और इसलिए, वे वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकते हैं। इसी प्रकार कुछ क्रेता भी बाजार में अत्यधिक प्रभावशाली हो सकते हैं।
  • अधिकतर बाजार में वस्तुओं में एकरूपता नहीं पायी जाती तथा वे एक जैसी नहीं होती हैं। इसके अतिरिक्त आज बाजारों में विज्ञापन, प्रचार, पैकिंग की भिन्नता आदि के द्वारा उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में वस्तु-विभेद उत्पन्न कर दिया जाता है और वे एक वस्तु को दूसरी की अपेक्षा प्राथमिकता देने लगते हैं।
  • क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। प्रायः उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि अन्य क्रेताओं और विक्रेताओं के द्वारा किस कीमत पर सौदे किये जा रहे हैं।
  • उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गतिशीलता नहीं पायी जाती है। श्रम, पूँजी तथा अन्य साधनों के आने-जाने में अनेक बाधाएँ आ सकती हैं, जिसके कारण उत्पत्ति के साधनों की गतिशीलता कम हो जाती है।
  • उद्योगों में फर्मों का प्रवेश स्वतन्त्र नहीं होता है और इस सम्बन्ध में बहुत-सी बाधाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण कैसे होता है ? स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता से आप क्या समझते हैं? इसके अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण किस प्रकार होता है, समझाइए। [2013, 16]
उत्तर:
(संकेत – पूर्ण प्रतियोगिता के अर्थ के अध्ययन हेतु उपर्युक्त विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का अध्ययन करें]

पूर्ण/प्रतियोगिता प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण
प्रो० मार्शल प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में माँग तथा पूर्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे मूल्य का आधुनिक सिद्धान्त भी कहते हैं। प्रो० मार्शल के अनुसार, यह वाद-विवाद व्यर्थ हैं कि मूल्य वस्तु की मॉग से निर्धारित होता है अथवा उसकी पूर्ति से। वास्तव में वह दोनों से निर्धारित होता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, माँग और पूर्ति की दोनों शक्तियाँ मूल्य को निर्धारित करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग ठीक उसकी पूर्ति के बराबर होती है। उपयोगिता माँग की शक्तियों के पीछे कार्य करती है और उत्पादन लागत पूर्ति की शक्तियों के पीछे। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय मिलता है। समयावधि जितनी अधिक लम्बी होती है उतना ही पूर्ति का प्रभाव अधिक होता है और समयावधि जितनी कम होती है उतना ही माँग का प्रभाव अधिक होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि किसी वस्तु की कीमत सब उपभोक्ताओं के द्वारा की जाने वाली माँग तभी सब फर्मों की पूर्ति से निर्धारित होती है।

वस्तु की मॉग – वस्तु की माँग उपभोक्ताओं के द्वारा की जाती है। उपभोक्ता किसी वस्तु का मूल्य देने के लिए इसलिए तैयार रहते हैं क्योंकि वस्तुओं में तुष्टिगुण होता है तथा साथ-ही-साथ वे दुर्लभ भी होती हैं। उपभोक्ता किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य उस वस्तु के सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर देने को तैयार होगा।

वस्तु की पूर्ति – वस्तु की पूर्ति उत्पादक (फर्मों) के द्वारा की जाती है। कोई भी विक्रेता या उत्पादक, वस्तु की दुर्लभता एवं उसकी उत्पादन लागत के कारण वस्तु का मूल्य माँगते हैं। कोई भी उत्पादक किसी वस्तु का मूल्य कम-से-कम उसकी सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होगा। उत्पादक अपनी वस्तु को उस पर आयी सीमान्त उत्पादन लागत से कुछ अधिक मूल्य पर ही बेचना चाहेगा।

सन्तुलन कीमत – किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। माँग की जाने वाली वस्तु की मात्रा तथा पूर्ति की मात्रा कीमत के साथ बदलती है। वह कीमत जो बाजार में रहने की प्रवृत्ति रखेगी, ऐसी कीमत होगी जिस पर वस्तु की माँग की मात्रा उसकी पूर्ति की मात्रा के बराबर होगी।

जिस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है। इस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं। इसलिए इसे सन्तुलन की स्थिति कहते हैं। यदि कीमत सन्तुलन कीमत से अधिक होती है तो वस्तु की पूर्ति उसकी माँग से अधिक होगी और विक्रेता अपने स्टॉक को बेचने के लिए कीमत को कम करना चाहेंगे, यदि कीमत सन्तुलन कीमत से कम होती है और वस्तु की माँग उसकी पूर्ति से अधिक होगी तो क्रेता उसकी अधिक कीमत देने को तैयार होंगे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सन्तुलन कीमत ही निर्धारित होने की प्रवृत्ति रखती है।

पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उसके सीमान्त तुष्टिगुण और सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर निर्धारित होता है। जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं। अत: वस्तु के मूल्य-निर्धारण में माँग और पूर्ति पक्ष दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

जिस प्रकार से कागज को काटने के लिए कैंची के दोनों ही फलों की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित करने के लिए माँग और पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं, जो एक सन्तुलन बिन्दु से आपस में जुड़ी रहते हैं। यह सन्तुलन बिन्दु ही वस्तु का मूल्य होता है। इस कथन को हम निम्नांकित सारणी तथा रेखाचित्र की सहायता से और अच्छी तरह से स्पष्ट कर सकते हैं

गेहूँ की पूर्ति (किंवटल में) कीमत (प्रति क्विटल ₹में) गेहूँ की माँग (किंवटल में)
100 1500 20
80 1350 40
50 1200 50
40 1000 80
20 850 1300

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि बाजार में केवल ₹1200 प्रति क्विटल का मूल्य ऐसा है जहाँ माँगी जाने वाली मात्रा (माँग) विक्रय हेतु प्रस्तुत मात्रा (पूर्ति) के बराबर है। दूसरे शब्दों में 50 क्विटल गेहूँ की माँग व पूर्ति की सन्तुलन मात्राएँ हैं और ₹1200 प्रति क्विटल का भाव ‘सन्तुलन मूल्य’ है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
उपर्युक्त तालिका के आधार पर मूल्य-निर्धारण संलग्न रेखाचित्र द्वारा दर्शाया गया है

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रेखाचित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में Ss’ पूर्ति वक्र तथा DD’ माँग वक्र है जो विभिन्न मूल्य पर माँग व पूर्ति की विभिन्न मात्राओं को प्रदर्शित करते हैं। माँग व पूर्ति वक्र परस्पर E बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते हैं; अतः बिन्दु E सन्तुलन बिन्दु है तथा ₹ 1,200 सन्तुलन कीमत है। अत: गेहूं को बाजार में हैं ₹1,200 पर बेचा जाएगा, क्योंकि इस कीमत पर 50 क्विटल गेहूँ की माँग की जा रही है और 50 क्विटल गेहूं की ही पूर्ति की जाती है। इससे ऊँची या नीची कीमत बाजार में नहीं रह सकती। अतः ₹1,200 गेहूं की सन्तुलन कीमत है।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत उद्योग द्वारा माँग तथा पूर्ति की मात्रा दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है ? चित्रों की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण
दीर्घकाल में इतना पर्याप्त समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुसार किया जा सकता है। इसमें पूर्ति परिवर्तनशील होती है, इसलिए कीमत-निर्धारण में पूर्ति का प्रभाव माँग की अपेक्षा अधिक होता है। वस्तु की पूर्ति उत्पादन लागत से प्रभावित होती है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से ऊपर अथवा बहुत नीचे नहीं रह सकती। यह कीमत माँग और पूर्ति के बीच स्थायी और स्थिर सन्तुलन (Permanent and Stable Equilibrium) का परिणाम होती है। दीर्घकाल में मूल्य की प्रवृत्ति सीमान्त उत्पादन लागत के बराबर होने की होती है।

सीमान्त लागत स्वयं इस बात पर निर्भर रहती है कि उद्योग में उत्पत्ति का कौन-सा नियम कार्यशील है। अतः कीमत-निर्धारण में उत्पत्ति के नियम भी सम्मिलित रहते हैं। उत्पादन के बढ़ने के साथ सामान्य मूल्य की प्रवृत्ति बढ़ने की, घटने की अथवा स्थिर रहने की होगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम, उत्पत्ति वृद्धि नियम अथवा उत्पत्ति समता नियम के अनुसार हो रहा है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया को उत्पत्ति के नियमों के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं

1. उत्पत्ति वृद्धि नियम या उद्योग द्वारा घटती हुई लागतों में कीमत निर्धारण – यदि कोई उद्योग उत्पत्ति वृद्धि नियम (लागत ह्रास नियम) के अन्तर्गत कार्य करता है तो उत्पादन में वृद्धि के साथ सीमान्त लागत क्रमशः घटती जाती है तथा उत्पादन में कमी होने पर वह क्रमशः बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के बढ़ने पर सामान्य कीमत घट जाएगी और घटने पर बढ़ जाएगी।

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संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी हैं। चित्र में SS पूर्ति की वक्र रेखा है। जो उत्पत्ति वृद्धि नियम के अन्तर्गत कार्य कर रही है। यह ऊपर से नीचे गिरती हुई इस बात को प्रकट करती है कि जैसे-जैसे उत्पादन की मात्रा बढ़ती जाती है, प्रति इकाई उत्पादन लागत घटती जाती है । तथा घटने के साथ बढ़ती है। DD वस्तु का माँग वक्र है जो पूर्ति वक्र SS को E बिन्दु पर काटता है और इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि वस्तु की

माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत घटकर OP1 हो जाएगी और यदि माँग घटकर D2D2 रह जाती है तो सामान्य कीमत बढ़कर OP2 हो जाएगी। इस प्रकार उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत घटती है तथा घटने पर बढ़ती है।

2. उत्पत्ति ह्रास नियम या उद्योग द्वारा बढ़ती हुई लागतों में मूल्य-निर्धारण – किसी उद्योग में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होने पर उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ती जाती है, तब वस्तु की सामान्य कीमत माँग और पूर्ति के बढ़ने पर बढ़ती है तथा घटने पर घटती है।

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चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी है। चित्र में ss रेखा उत्पत्ति ह्रास नियम के अन्तर्गत कार्य करने वाले उद्योग की पूर्ति रेखा है। जो इस बात को दिखाती है कि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन व्यय बढ़ता जाता है। DD वस्तु की माँग रेखा है जो Ss पूर्ति रेखा को E बिन्दु पर काटती है; अत: OP सामान्य कीमत है। यदि वस्तु की माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो वस्तु का उत्पादन OM से बढ़कर OM1 हो जाता है तथा उसकी सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ जाती है। सामान्य कीमत OP से बढ़कर OP1 हो जाती वस्तु की माँग एवं पूर्ति है। इसके विपरीत, यदि माँग घटकर D2D2 हो। उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण जाती है तो उत्पादन लागत पहले की अपेक्षा कम हो जाती है और सामान्य कीमत घटकर OP2 रह जाएगी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने की दशा में उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत बढ़ जाती है और घटने पर घट जाती है।

3. उत्पत्ति समता नियम या उद्योग द्वारा स्थिर लागतों के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण – यदि उद्योग में स्थिर लागत का नियम क्रियाशील है तब उत्पादन के घटने या बढ़ने पर सीमान्त उत्पादन । लागत अपरिवर्तित रहती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के घटने-बढ़ने का सामान्य कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

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संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र है, जो उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत काम कर रहा है। इस वक्र की प्रवृत्ति इस बात की ओर संकेत करती है कि उत्पादन स्तर कुछ भी हो, सीमान्त उत्पादन लागत वही रहती है। उद्योग का माँग वक्र DD है जो पूर्ति वक्र ss को E बिन्दु पर काटता है, इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत OP1 है जो OP के बराबर है। इस प्रकार माँग एवं पूर्ति माँग और पूर्ति के बढ़ने अथवा घटने पर सामान्य कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होता।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कार्य करती हुई कोई फर्म अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अपना उत्पादन तथा कीमत किस प्रकार निर्धारित करती है? चित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए। [2013, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन आरेख सहित समझाइए। [2009]
या
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्म के अल्पकाल में सन्तुलनों की व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगी बाजार में एक फर्म का दीर्घकालीन सन्तुलन चित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2012]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म की दीर्घकालीन स्थिति (सन्तुलन) का वर्णन कीजिए। [2014]
या
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म की संस्थिति को समझाइए।[2015]
या
दीर्घकालिक पूर्ण प्रतियोगी बाजार में किसी फर्म के सन्तुलन को दर्शाइए। [2015]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी फर्म का अल्पकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में किसी फर्म के पास अल्पकाल में इतना पर्याप्त समय नहीं होता है कि वह माँग में वृद्धि होने पर माँग के अनुरूप पूर्ति को बढ़ा सके। इस कारण अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण में माँग का प्रभाव पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है। अल्पकाल में फर्म के पास केवल इतना समय होता है कि उत्पत्ति के परिवर्तनशील साधनों को विभिन्न मात्राओं में प्रयोग किया जा सके जिससे कि अधिकतम लाभ हो, किन्तु स्थिर साधनों की मात्रा को नहीं बदला जा सकता। अल्पकालीन बाजार में पूर्ति को पर्याप्त मात्रा में बदलना सम्भव नहीं होता, इसलिए उसे माँग के
साथ पूर्ण रूप में समायोजित नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में फर्म को लाभ, शून्य लाभ या हानि भी हो सकती है। इन तीनों स्थितियों की भिन्न-भिन्न व्याख्या निम्नवत् है

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1. अल्पकाल में सामान्य लाभ से अधिक की स्थिति – लाभ कुल आय और कुल लागत के बीच का अन्तर होता है। इसलिए फमैं उतनी ही मात्रा में उत्पादन करती हैं जो इस अन्तर को अधिकतम करने वाली हो। उत्पत्ति नियमों की क्रियाशीलता के कारण प्रारम्भ में उत्पादन बढ़ता है तथा लागतें कम होती हैं। धीरे-धीरे उत्पादन स्थिर रहकर घटना प्रारम्भ होता है और लागतें बढ़ने लगती हैं। अतः फर्म अधिकतम लाभ ऐसे बिन्दु पर प्राप्त करेगी जहाँ उसकी सीमान्त आय, सीमान्त लागत के बराबर हो।

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फर्म का अधिकतम लाभ = (सीमान्त आय – औसत आय = सीमान्त लागंत)
सीमान्त आय संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है।
चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर सीमान्त फर्म की हानि की स्थिति लागत व सीमान्त आय बराबर हैं। ES = बिक्री की मात्रा है। अतः फर्म अधिकतम लाभ अर्जित कर रही है।

2. अल्पकाल में हानि की स्थिति – पूर्ण प्रतियोगिता में यह भी सम्भव है कि फर्म लाभ अर्जित न कर, हानि की स्थिति में आ जाए। ऐसी स्थिति में फर्म अपनी हानि को न्यूनतम करने का प्रयास करेगी। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म को हानि तब होती है जब फर्म की औसत लागत, औसत आय से अधिक नै हो।
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन। बिक्री की मात्रा । तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है (क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय व सीमान्त लागत बराबर हैं)। चित्र में औसत लागत वक्र औसत आय AR से अधिक है, क्योंकि वह किसी भी स्थान पर औसत आय वक्र को स्पर्श नहीं कर रहा है; इसलिए फर्म हानि की स्थिति में है।

3. अल्पकाल में सामान्य या शून्य लाभ की स्थिति – अल्पकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत जब फर्म की औसत आय, औसत लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य या सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

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संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर उत्पादन बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय और सीमान्त लागत बराबर हैं। OS उत्पादन/बिक्री की मात्रा, OP उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत, SEE औसत लागत तथा औसत आय है। यह स्थिति सामान्य लाभ या शून्य लाभ को प्रदर्शित करती है। इस स्थिति में फर्म को साम्य उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त लागत, औसत लागत, सीमान्त आय और औसत आय चारों बराबर होते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
दीर्घकाल में फर्म के पास इतना समय होता है कि वे अपने उत्पादन को पूर्णतया माँग में होने वाले परिवर्तनों के साथ समायोजित कर सकती है। दीर्घकाल में फर्म अपने सभी उत्पत्ति के साधनों में परिवर्तन कर उत्पादन को माँग में होने वाले परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित करती है। दीर्घकाल में फर्मे न तो लाभ अर्जित करती हैं और न हानि उठाती हैं, केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है। लाभ की स्थिति में अन्य फर्म उद्योग में प्रवेश कर जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा तथा कीमत कम हो जाएगी। हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़ जाएगी, उत्पादन कम होगा तथा कीमत बढ़ जाएगी। दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त कर सकती है।

इस प्रकार दीर्घकाल में फर्म सन्तुलन के लिए दो दशाएँ पूरी होनी चाहिए

  1.  सीमान्त आय (MR) = सीमान्त लागत (MC)
  2.  औसत आय (AR) = औसत लागत (AC)

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन
संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री तथा OY-अक्ष पर कीमत दिखायी गयी है। चित्र में, AC फर्म का दीर्घकालीन औसत वक्र है तथा MC दीर्घकालीन सीमान्त लागत वक्र है। PAM फर्म की AR = MR रेखा है, e सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि इस बिन्दु पर MC वक्र, MR वक्र को नीचे से काटता है। इस बिन्दु पर MC = MR है, क्योंकि AR = MR रेखा AC वक्र पर उसके सबसे नीचे बिन्दु पर स्पर्श रेखा (Tangent) है; इसलिए कीमत दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर है और फर्म केवल सामान्य लाभ प्राप्त कर रही है।

बाजार में कीमत कैसे निर्धारित होती है - baajaar mein keemat kaise nirdhaarit hotee hai

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
एक चित्र की सहायता से पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में कीमत-निर्धारण को समझाइए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग द्वारा कीमत-निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग व फर्म दो अलग-अलग इकाइयाँ होती हैं। उद्योग वृहत् इकाई होती है। तथा फर्म छोटी इकाई। कीमत-निर्धारण की उद्योग तथा फर्मों में भिन्न प्रक्रियाएँ हैं।
प्रो० मार्शल के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत या पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में उद्योगों में कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियाँ मिलकर करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग उसकी पूर्ति के बराबर होती है। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय दिया जाता है।

अल्पकाल में मूल्य का निर्धारण
अल्पकाले उस स्थिति को बताता है जिसमें वस्तुएँ पहले से ही उत्पन्न कर ली गयी होती हैं और समय इतना कम होता है कि उन्हें और अधिक उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में पूर्ति लगभग स्थिर होती है। उसे माँग के अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता। केवल अल्पकाल में परिवर्तनशील साधन; जैसे – कच्चा माल, शक्ति के साधनों आदि की मात्रा में वृद्धि करके कुछ वृद्धि की जा सकती है; परन्तु उसे माँग के बराबर नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि मशीनों की उत्पादन क्षमता निश्चित होती है।

और इतने कम समय में नई ‘फर्मे भी उद्योगों में प्रवेश नहीं कर सकतीं। अत: अल्पकाल में कीमत के निर्धारण में मुख्य प्रभाव माँग का रहता है। माँग में वृद्धि होने पर कीमत बढ़ जाती है तथा माँग कम होने पर कीमत कम हो जाती है। अल्पकाल में कीमत माँग और पूर्ति के अस्थायी और अस्थिर सन्तुलन का परिणाम होती है। वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं – (1) शीघ्र नष्ट होने वाली तथा (2) टिकाऊ। शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं की कीमत के निर्धारण में माँग का महत्त्व टिकाऊ वस्तुओं की अपेक्षा अधिक होता है। दोनों ही दशाओं में माँग का महत्त्व पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है।

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संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की मात्रा, पूर्ति एवं माँग तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। अल्पकाल में पूर्ति निश्चित रहती है, इसलिए पूर्ति वक्र एक सीधी खड़ी रेखा (Vertical Straight Line) होगी। माँग वक्र DD पूर्ति वक्र ss’ को बिन्दु पर काटता है। यह सन्तुलन बिन्दु है। इस स्थिति में सन्तुलन कीमत OP होगी। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है, तो सन्तुलन कीमत OP बढ़कर OP1 हो जाएगी, यदि माँग घटकर D2D2 जाती है तो सन्तुलन कीमत गिरकर OP2 रह जाएगी।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं के अन्तर्गत किसी फर्म की कीमत एवं उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार होता है ? उपयुक्त रेखाचित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में फर्म की अपनी कोई कीमत-नीति नहीं होती। वह केवल उत्पादन का समायोजन करने वाली होती है। अतः पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं। उद्योग द्वारा माँग व पूर्ति के आधार पर कीमत निर्धारित होती है और उस कीमत को उद्योग के अन्तर्गत कार्य करने वाली सभी फर्मे दिया हुआ मान लेती हैं। बाजार में असंख्य फर्म होने के कारण कोई भी व्यक्तिगत फर्म अपनी क्रियाओं द्वारा निर्धारित कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। बाजार में वस्तु की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित कीमत को फर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है और फर्म उस कीमत के आधार पर अपने उत्पादन का समायोजन करती है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म का माँग वक्र एक समानान्तर सीधी रेखा (Horizontal straight line) होती है। यह निर्धारित मूल्य फर्म की औसत आय व सीमान्त आय होती है तथा एक ही रेखा द्वारा प्रदर्शित की जाती है।
निम्नांकित चित्र में उद्योगों द्वारा कीमत का निर्धारण दिखाया गया है तथा फर्म उस कीमत को ग्रहण कर रही है। उद्योग को माँग और पूर्ति का साम्य बिन्दु E तथा कीमत OP है। इसी OP कीमत को फर्म ग्रहण कर लेती है। उद्योग की माँग में वृद्धि हो जाने पर साम्य बिन्दु E1 तथा कीमत बढ़कर OP1 हो

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जाती है, जिसे फर्म को स्वीकार करना पड़ता है तथा फर्म भी OP1 कीमत ग्रहण कर लेती है। अब फर्म की औसत आय तथा सीमान्त आय रेखा P1AM1 हो जाती है। इसी प्रकार माँग में कमी होने पर नया मॉग वक्र D2D2 और कीमत घटकर OP2 हो जाती है। यही कीमत फर्म भी ग्रहण कर लेती है तथा फर्म की औसत व सीमान्त आय रेखा P2AM2 हो जाती है।

स्पष्ट है कि पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कोई फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत के आधार पर अपनी उत्पादन व बिक्री का कार्य करती है। फर्म अधिकतम लाभ अर्जित करने का प्रयत्न करती है। कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो। इस स्थिति में ही फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। यदि औसत लागत में सामान्य लाभ सम्मिलित हो तो कीमत के औसत लागत के बराबर होने की दशा में फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करेगी।
पूर्ण प्रतियोगिता में एकमात्र स्थिति, जिसमें फर्म सन्तुलन में हो और सामान्य लाभ प्राप्त कर रही हो, वह है जब औसत लागत वक्र, सीमान्त आगम वक़ पर स्पर्श रेखा हो। इस स्थिति में ही औसत आय कीमत के बराबर होती है और फर्म अपनी सब लागतों को पूरा कर लेती है तथा केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

फर्म का सन्तुलन या अधिकतम लाभ – संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन तथा OY-अक्ष पर सीमान्त आय वे सीमान्त लागत दर्शायी गयी है। चित्र में E1 बिन्दु सन्तुलन बिन्दु हैं। इस बिन्दु पर सीमान्त आय सीमान्त लागत के बराबर है तथा फर्म अधिकतम उत्पादन कर रही हैं।

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सीमान्त आय रेखा RR के नीचे का क्षेत्र फर्म के लाभ को प्रदर्शित करता है, क्योंकि इस क्षेत्र में सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक है। इसके विपरीत सीमान्त आय रेखा RR से ऊपर का क्षेत्र जहाँ सीमान्त लागत सीमान्त आय से अधिक है, में फर्म को हानि उठानी पड़ेगी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
‘पूर्ण प्रतियोगिता एक कल्पनामात्र है, व्यावहारिक नहीं।’ विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के लिए जिन आवश्यक तत्त्वों या दशाओं का वर्णन किया गया है वे किसी भी दशा में व्यावहारिक नहीं हैं। यह आवश्यक नहीं है कि एक ही प्रकार की वस्तुओं में समानता हो अर्थात् वस्तुएँ एकसमान नहीं होती हैं। वस्तुओं का क्रय-विक्रय सामान्यत: प्रतिबन्धित होता है। उत्पत्ति के साधन पूर्ण गतिशील नहीं होते। क्रेता-विक्रेता को बाजार की दशाओं का पूर्ण ज्ञान नहीं होने के कारण बाजार में प्रचलित वस्तु के मूल्य में भिन्नता होती है। विज्ञापन, माल की पैकिंग, उधार बिक्री, घर तक माल पहुँचाने की सुविधा तथा छूट आदि सुविधाओं के कारण वस्तु-विभेद एवं मूल्य-विभेद की स्थिति सदा बनी रहती है। उपर्युक्त अनेक कारणों से हम देखते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता वाला बाजार अपूर्ण प्रतियोगिता का बाजार बनकर रह गया है, पूर्ण प्रतियोगिता तो मात्र एक कल्पना बनकर रह गयी है।
पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक दशाओं में अनेक कमियाँ होने के बावजूद भी अर्थशास्त्र में पूर्ण प्रतियोगिता के अध्ययन का महत्त्व है, क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता द्वारा ही आर्थिक समस्याओं का अध्ययन सुविधापूर्वक सम्पन्न हो सकता है।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में औसत आय और सीमान्त आय का चित्र बनाइए। [2010]
उत्तर:

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प्रश्न 3
नीचे दिये गये रेखाचित्र में दी गयी वक्र रेखाओं के नाम लिखिए।

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उत्तर:
बाजार में कीमत कैसे निर्धारित होती है - baajaar mein keemat kaise nirdhaarit hotee hai

प्रश्न 4
संक्षिप्त व्याख्या करें-पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ।
उत्तर:
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ–पूर्ण प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत अल्पकाल या दीर्घकाल में कोई भी फर्म मात्र सामान्य लाभ या शून्य लाभ ही प्राप्त करती है।
जब फर्म की औसत आय सीमान्त लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य लाभ या सामान्य लाभ प्राप्त करती है। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म की हानि की स्थिति तब होगी जब कि फर्म की औसत लागत औसत आय से अधिक हो; परन्तु हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़कर चली जाती है, परिणामस्वरूप पूर्ति कम हो जाएगी और कीमत (औसत आय) बढ़कर औसत लागत के बराबर हो जाएगी और फर्म पुनः सामान्य लाभ प्राप्त करेगा।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता की कोई चार विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत देखें।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशासियों का है ?
उत्तर:
एडम स्मिथ और रिका।

प्रश्न 2
“वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का है?
उत्तर:
वालरा और जेवेन्स का।

प्रश्न 3
माँग तथा पूर्ति का मूल्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 4
मूल्य-निर्धारण में माँग कब निष्क्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है, किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तो माँग निष्क्रिय रहती है।

प्रश्न 5
पूर्ति कब सक्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तब पूर्ति सक्रिय होती है।

प्रश्न 6
सन्तुलन कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वह कीमत जिस पर माँग और पूर्ति बराबर होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है।

प्रश्न 7
मूल्य सिद्धान्त में सर्वप्रथम समय के महत्त्व पर किसे अर्थशास्त्री ने बल दिया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 8
सुरक्षित कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत वह न्यूनतम कीमत होती है, जिस पर कोई उत्पादक अपनी वस्तु की माँग स्वयं करने लगते हैं और उसे बेचने से मना करते हैं।

प्रश्न 9
सुरक्षित कीमत किस प्रकार के बाजार में पायी जाती है ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत अल्पकालीन बाजार में होती है।

प्रश्न 10
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार के दो लक्षण (विशेषताएँ) लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 14, 16]
उत्तर:
(1) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या तथा
(2) बाजार को पूर्ण ज्ञान होना।

प्रश्न 11
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ कितने प्रकार की मानी गयी हैं ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ दो प्रकार की मानी गयी हैं

  1. शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ तथा
  2.  टिकाऊ या दीर्घकाल तक बनी रहने वाली वस्तुएँ।

प्रश्न 12
क्रेता या उपभोक्ता वस्तु-विशेष की माँग क्यों करते हैं ?
उत्तर:
विभिन्न वस्तुओं में पृथक्-पृथक् आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने का गुण या क्षमता होती है। इस कारण किसी वस्तु-विशेष की माँग उसमें निहित तुष्टिगुण के कारण होती है।

प्रश्न 13
कोई फर्म सन्तुलन की स्थिति में कब होती है ?
उत्तर:
कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में ही अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। अत: किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के मूल्य का निर्धारण किसके द्वारा होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है।

प्रश्न 15
क्या पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव है ?
उत्तर:
नहीं, पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव नहीं है।

प्रश्न 16
बाजार की किस दशा में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में दीर्घकाल में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है।

प्रश्न 17
अर्थशास्त्र में ‘अल्पकाल’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अल्पकाल से हमारा अभिप्राय उस समयावधि से है, जिसमें केवल विद्यमान साधनों का अधिक अथवा कम प्रयोग करके पूर्ति को घटाया या बढ़ाया तो जा सकता हो, परन्तु साधनों की उत्पादन क्षमता में कोई परिवर्तन न किया जा सकता हो।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को प्राप्त होता है केवल
(क) सामान्य लाभ
(ख) असामान्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सामान्य लाभ।

प्रश्न 2
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को होता है [2011]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ।।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन होता है
(क) विषम रूप वस्तुओं का
(ख) एक रूप वस्तुओं को
(ग) (क) व (ख)
(घ) किसी का भी नहीं
उत्तर:
(ख) एक रूप वस्तुओं का।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में एक वस्तु का सम्पूर्ण बाजार मूल्य होता है
(क) एक ही
(ख) अलग-अलग
(ग) सामान्य
(घ) ये सभी
उत्तर:
(क) एक ही।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता पाये जाते हैं
(क) कम संख्या में
(ख) बराबर
(ग) अधिक संख्या में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) अधिक संख्या में।

प्रश्न 6
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म [2011, 12]
(क) हानि वहन करती है।
(ख) असामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(घ) कीमत् परिवर्तित कर देती है।
उत्तर:
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

प्रश्न 7
पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय रेखा और औसत आय रेखा का स्वरूप होता है
(क) नीचे गिरती हुई।
(ख) ऊपर उठती हुई।
(ग) बराबर व क्षैतिज
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) बराबर व क्षैतिज।

प्रश्न 8
पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म असामान्य लाभ प्राप्त करती है, जब [2012]
(क) औसत आय > औसत लागत
(ख) सीमान्त आय < सीमान्त लागत
(ग) औसतं आय > सीमान्त आय ।
(घ) सीमान्त आय > औसत आय
उत्तर:
(क) औसत आय > औसत लागत।

प्रश्न 9
यदि पूर्ति वक्र ऊर्ध्व रेखा के रूप में हो, तो वह किस बाजार का पूर्ति वक्र है?
(क) अल्पकाल का
(ख) अति-अल्पकाल का
(ग) दीर्घकाल का।
(घ) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर:
(ख) अति अल्पकाल का।

प्रश्न 10
दीर्घकाल में सामान्य लाभ बाजार की किस दशा में प्राप्त होता है?  [2006]
(क) अपूर्ण प्रतियोगिता
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता
(ग) एकाधिकार
(घ) अल्पाधिकार
उत्तर:
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता।

प्रश्न 11
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किस फर्म की माँग रेखा होती है? [2006]
(क) कम लोचदार
(ख) अधिक लोचदार
(ग) पूर्णत: लोचदार
(घ) पूर्णतः बेलोचदार
उत्तर:
(ग) पूर्णत: लोचदार।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सी पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषता नहीं है? [2006, 14]
(क) क्रेताओं की अधिक संख्या
(ख) विक्रेताओं की अधिक संख्या
(ग) बाजार का पूर्ण ज्ञान
(घ) वस्तु-विभेद
उत्तर:
(घ) वस्तु-विभेद।

प्रश्न 13
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तुएँ होती हैं [2012]
(क) समरूप
(ख) विभेदित
(ग) निकृष्ट
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में [2014]
(क) केवल एक फर्म होती है।
(ख) कीमत विभेद होता है।
(ग) वस्तु विभेद होता है।
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।
उत्तर:
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।

प्रश्न 15
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत सभी फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ [2014]
(क) समरूप होती हैं
(ख) विभेदित होती हैं
(ग) पूरक होती हैं
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप होती हैं।

प्रश्न 16
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण होता है [2014, 16]
(क) क्रेताओं की माँग के द्वारा
(ख) विक्रेताओं की पूर्ति के द्वारा
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा
(घ) फर्मों की लागतों के द्वारा
उत्तर:
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा।

प्रश्न 17
पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म का माँग वक्र होता है [2014, 16]
(क) क्षैतिज
(ख) लम्बवत्
(ग) ऋणात्मक ढाल
(घ) धनात्मक ढाल
उत्तर:
(क) क्षैतिज।

प्रश्न 18
दीर्घकाल में एक एकाधिकारी फर्म अर्जित करती है केवल [2016]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ
(ग) हानि
(घ) न्यूनतम लाभ
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ।

19. पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करती है [2016]
(क) सीमान्त आय = सीमान्त लागत = औसत आय = औसत लागत
(ख) औसत आय = औसत लागत
(ग) औसत आय = सीमान्त लागत
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ख) औसत आय = औसत लागत

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बाजार में मूल्य का निर्धारण कैसे होता है व्याख्या करें?

मूल्य-निर्धारण यह निर्धारित करने की प्रक्रिया है कि कंपनी अपने उत्पादों के बदले क्या हासिल करेगी. मूल्य-निर्धारण के घटक हैं निर्माण लागत, बाज़ार, प्रतियोगिता, बाजार स्थिति और उत्पाद की गुणवत्ता. मूल्य-निर्धारण व्यष्टि-अर्थशास्त्र मूल्य आबंटन सिद्धांत में भी एक महत्वपूर्ण प्रभावित करने वाला कारक है।

पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में कीमत कैसे निर्धारित होती है?

पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उसके सीमान्त तुष्टिगुण और सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर निर्धारित होता है। जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं। अत: वस्तु के मूल्य-निर्धारण में माँग और पूर्ति पक्ष दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

बाजार की कीमत क्या है?

बाजार कीमत (Market Price) अर्थ (Meaning)-बाजार कीमत वह कीमत है जो किसी निश्चित समय पर किसी वस्तु की माँग तथा सम्मरण (पूर्ति) की अन्तर्किया द्वारा निर्धारित होती है। दूसरे शब्दों में बाजार कीमत (मूल्य) वह कीमत होती है जो समय-विशेष पर बाजार में वास्तव में प्रचलित होती है।

बाजार कीमत और सामान्य कीमत में क्या अंतर है?

बाजार मूल्य अल्पकाल में निर्धारित मूल्य है, जिसके अंतर्गत वस्तु की पूर्ति लगभग निश्चित होती है। दूसरी ओर, सामान्य मूल्य दीर्घकालीन मूल्य होता है तथा इस अवधि में पूर्ति को पूर्णतया माँग के अनुरूप परिवर्तित किया जा सकता है।