पत्रकारिता और साहित्य में क्या अंतर है? - patrakaarita aur saahity mein kya antar hai?

पत्रकारिता और साहित्य में क्या अंतर है? - patrakaarita aur saahity mein kya antar hai?
नई दिल्ली (इंविसंकें). विश्व पुस्तक मेले में “साहित्य और पत्रकारिता, कितने दूर कितने पास” विषय पर लेखक मंच में परिचर्चा की गयी. परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकार एवं समीक्षक अनंत विजय जी, चर्चित व्यंग्यकार डॉ. आलोक पुराणिक जी, प्रसिद्ध लेखक राजीव रंजन प्रसाद जी तथा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की निदेशक रीता चौधरी जी ने पत्रकारिता में साहित्य के महत्व पर चर्चा की. विषय वस्तु प्रस्तुतीकरण व मंच संचालन अनुराग पुनेठा जी ने किया.

अनंत विजय जी ने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता आपस में गुंथे हुए हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन में पत्रकारिता के आरम्भ काल में प्रसिद्ध साहित्यकारों ने ही पत्रकारिता आरम्भ कर भारत में समाचार पत्रों का संचालन किया था. लेकिन 1991 के बाद आए उदारीकरण ने पत्रकारिता और साहित्य के इस अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को तोड़ना आरम्भ किया. अच्छा साहित्य निर्माण में दक्ष पत्रकारों को पहले अधिक महत्व दिया जाता था, लेकिन टेलीविजन पर अनेकों चैनल आने तथा अब सोशल और डिजिटल मीडिया के दौर में समाचारों को जल्दी से जल्दी सनसनीखेज तरीके से पाठकों तक पहुँचाने को महत्व दिया जाता है. विज्ञापन, टीआरपी, हिट्स और लाइक को पैमाना बनाते हुए साहित्य में रुचि रखने वाले पत्रकार को हेय दृष्टि से देखा जाता है. जिसका परिणाम भाषा की अशुद्धता, मर्यादा और समाचार लेखन में संवेदनहीनता के रूप में दिखाई देता है. सोशल मीडिया में तो बगैर संपादक के अराजकता हावी है, फेसबुक में अधिकतर लेखक भाषा की असावधानी के साथ गुस्से में रहते हैं. यह पत्रकारिता नहीं अराजकता है. जबकि साहित्य एक दृष्टि देते हुए तरह-तरह के संस्कार पत्रकारों को देता है. इसलिए पत्रकारिता में साहित्य के प्रति रुचि और ज्ञान भाषा की मर्यादा के साथ-साथ स्वयं को तथा समाज को संस्कारित करने के लिए आवश्यक है.

पत्रकारिता और साहित्य में क्या अंतर है? - patrakaarita aur saahity mein kya antar hai?
आलोक पुराणिक जी ने कहा कि अब साहित्य और पत्रकारिता में रिश्ता नहीं है. साहित्य संवेदना, रचनात्मकता, कल्पनाशीलता से उपजता है. दूसरी ओर पत्रकारिता तथ्यों पर आधारित है. सन् 1980 तक साहित्यकार के लिए पत्रकारिता में अनुकूल स्थिति थी, 1986 में पत्रकारिता फीचर से हट कर तथ्यात्मक हो गयी. सन् 1990 में तो परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया. साहित्यकार पत्रकारिता में अप्रासंगिक हो गए. नई पीढ़ी में पत्रकारिता के अनेक खंड हो गए हैं. विज्ञापन को ध्यान में रखकर पाठकों को अलग-अलग वर्गों में बाँट दिया गया है. उच्च आय वर्ग को अमेरिका, मध्य आय वर्ग को मलेशिया तथा निम्न आय वर्ग को बांग्लादेश के रूप में देखा जाता है. इसलिये आर्थिक लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मीडिया को भारत में 20 प्रतिशत अमेरिका और मलेशिया ही दिखाई देता है. विज्ञापन उस 20 प्रतिशत से ही मिलना है, इसलिए 80 प्रतिशत भारत जो बांग्लादेश के सामान है, वह मीडिया की दृष्टि से उपेक्षित है.

राजीव रंजन प्रसाद जी ने कहा कि छत्तीसगढ़ में बस्तर के स्थानीय पत्रों में जो छपता है, वह रायपुर और भोपाल के लोगों को नहीं पता चलता है. वहीं भोपाल और रायपुर के पत्रों में बस्तर के बारे में छपी ख़बरों का बस्तर वासियों को ज्ञान नहीं होता. बस्तर के जीवन, लोक परंपरा, सकारात्मक कार्यों के बारे में महानगर निवासियों को जानकारी नहीं है, मीडिया द्वारा बनाई गयी नक्सल प्रभावित, शोषित क्षेत्र की छवि के रूप में शेष भारत बस्तर को जानता है. वहां के आंचलिक रीति रिवाज, लोक कथाओं को मीडिया ने अनदेखा किया हुआ है. साहित्य में रुचि रखने वाला पत्रकार ऐसी सांस्कृतिक विरासत की अनदेखी नहीं कर सकता.

रीता चौधरी जी ने कहा कि साहित्य को भी पत्रकारिता की आवश्यकता है, एक लेखक को दिशा देने के लिए समाचार पत्रों की भी बड़ी भूमिका है, दोनों में सामंजस्य जरूरी है. परिचर्चा के समापन पर संजीव सिन्हा ने सभी का आभार व्यक्त किया.

पत्रकारिता और साहित्य में क्या अंतर है? - patrakaarita aur saahity mein kya antar hai?

पत्रकारिता और साहित्य में आवश्यक है लोकमंगल

‘कुलपति संवाद’ व्याख्यानमाला में ‘साहित्य और पत्रकारिता’ विषय पर प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने रखे विचार, 12 जून को शाम 4:00 बजे ‘मीडिया में स्त्री मुद्दे’ विषय पर डॉ. आशा शुक्ला का व्याख्यान

भोपाल, 11 जून 2020: माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित ‘कुलपति संवाद’ ऑनलाइन व्याख्यानमाला में प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने कहा कि साहित्य के बिना पत्रकारिता की बात और पत्रकारिता के बिना साहित्य का जिक्र करना बेमानी सा लगता है। पत्रकारिता अपने उद्भव से ही लोकमंगल का भाव लेकर चली है। साहित्य का भी यही भाव हमेशा रहा है। इसीलिए यह दोनों हमेशा साथ-साथ चले हैं।

‘साहित्य और पत्रकारिता’ विषय पर अपने उद्बोधन में सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु के कुलपति प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने कहा कि भारत में पत्रकारिता आधुनिकता के साथ आती है। यह आधुनिकता का विशेष उपहार है। पत्रकारिता के साथ ही भारत में पुनर्जागरण शुरू हुआ, इस पुनर्जागरण में कई साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। कुछ साहित्यकारों ने पत्रिकाओं का प्रकाशन कर राष्ट्रबोध कराने का प्रयास किया, तो कुछ साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश के लोगों को जगाने का प्रयास किया। इस दौर में पत्रकारिता और साहित्य का एक ही उद्देश्य था- पराधीनता से मुक्ति।

उन्होंने कहा कि पत्रकारिता अपनी शुरुआत से ही अन्याय, अनीति, अत्याचार एवं शासन के खिलाफ रही है। यही कारण था कि हिक्की के समाचार पत्र को प्रतिबंधित किया गया, क्योंकि वह अंग्रेज अधिकारियों के भ्रष्टाचार को उजागर करता था। पत्रकारिता हमेशा से ही बेहतर प्रतिपक्ष की भूमिका निभाती आई है।

प्रो. दुबे ने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता का जो अन्योन्याश्रित संबंध है वह भारतेंदु हरिश्चंद्र युग की पत्रकारिता में देखा जा सकता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने साहित्य को पत्रकारिता का माध्यम बनाते हैं और लोकमंगल की भावना से पत्रकारिता की शुरुआत करते हैं। भारतेंदु युग में ही राष्ट्रीय प्रेम से ओत-प्रोत कविताओं का भी आग्रह हुआ, साथ ही इसी समय स्वदेशी का आवाह्न भी हुआ। उस समय स्वदेशी के आवाह्न में कहा गया कि हम यह प्रतिज्ञा करें कि हम अब विलायती वस्त्र मोल नहीं खरीदेंगे, लेकिन जो वस्त्र पहले से मोल लिया है उसे जीर्ण होने तक पहनेंगे। राष्ट्रबोध के ऐसे कई प्रयास उस समय के साहित्यकारों ने पत्रिकाओं के माध्यम से ही किये थे। साहित्य, समाज और राष्ट्रप्रेम एक दूसरे में बंधे हुए हैं इसलिए भारतेंदु कहते हैं कि ऐसे साहित्य की रचना करना चाहिए जिसमें राष्ट्रप्रेम का भाव छुपा हो।

उन्होंने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता का यह अभेद नाता महावीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा समझा जा सकता है। उनके विषय में यह तय करना कठिन है कि वे एक अच्छे साहित्यकार थे या अच्छे पत्रकार, दोनों ही विधाओं को उन्होंने साथ-साथ आगे बढ़ाया। साहित्य और पत्रकारिता का संबंध बताते हुए प्रो. दुबे ने बताया कि प्रायः सभी साहित्यकार कहीं ना कहीं पत्रकार ही होते हैं। वह अपनी रचनाओं को प्रकाशित कराते हैं, लोगों तक पहुंचाते हैं, साहित्य से समाज में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं। यही पत्रकारिता के भी कार्य हैं।

अपने उद्बोधन में प्रो. दुबे ने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता ने अपनी विकास यात्रा लगभग एक साथ ही तय की है। वीणा, सरस्वती, मतवाला आदि कई पत्रिकाओं ने कई बड़े साहित्यकारों को जन्म दिया है, तो वही कई साहित्यकारों ने सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया है। ऐसे में साहित्य और पत्रकारिता दोनों ही समाज को जागृत करने का प्रयास सदैव करते रहे हैं।

आज मीडिया में स्त्री मुद्दे विषय पर व्याख्यान:

‘कुलपति संवाद’ ऑनलाइन व्याख्यानमाला के अंतर्गत 12 जून, शुक्रवार को शाम 4:00 बजे ‘मीडिया में स्त्री मुद्दे’ विषय पर डॉ. बीआर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, महू, इंदौर (मध्यप्रदेश) की कुलपति डॉ. आशा शुक्ला व्याख्यान देंगी। उनका व्याख्यान एमसीयू के फेसबुक पेज पर लाइव रहेगा।

विश्वविद्यालय फेसबुक पेज का लिंक – https://www.facebook.com/mcnujc91

पत्रकारिता और साहित्य में क्या अंतर है? - patrakaarita aur saahity mein kya antar hai?

साहित्य और पत्रकारिता में क्या अंतर है?

साहित्य संवेदना, रचनात्मकता, कल्पनाशीलता से उपजता है. दूसरी ओर पत्रकारिता तथ्यों पर आधारित है. सन् 1980 तक साहित्यकार के लिए पत्रकारिता में अनुकूल स्थिति थी, 1986 में पत्रकारिता फीचर से हट कर तथ्यात्मक हो गयी.

साहित्य और पत्रकारिता से आप क्या समझते हैं?

पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से युग-प्रवृत्तियों का प्रवर्तन हुआ है, विभिन्न विचारधाराओं का उन्मेश हुआ है और विशिष्‍ट प्रतिबाओं की खोज हुई है। वस्तुतः साहित्य और पत्रकारिता परस्पर पूरक और पर्याय जैसे हैं। शायद इसीलिए लोग पत्रकारिता को ”जल्दी में लिखा हुआ साहित्य” और साहित्य को ”पत्रकारिता का श्रेष्‍ठतम रूप” भी कहते हैं

हिंदी साहित्य का मतलब क्या होता है?

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। साहित्य - स+हित+य के योग से बना है।

साहित्य और पत्रकारिता पुस्तक के लेखक कौन है?

धर्मवीर भारती (जन्म-25 दिसंबर, 1926 – मृत्यु-4 सितंबर, 1997) आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी रहे।