लोक कल्याण राज्य से आप क्या समझते हैं? - lok kalyaan raajy se aap kya samajhate hain?

लोक-कल्याणकारी राज्य
लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा वर्तमान युग की देन है। सामान्य शब्दों में, लोककल्याणकारी राज्य एक ऐसा राज्य है जो व्यक्ति के विकास व उसकी उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है।
विभिन्न विद्वानों द्वारा लोक-कल्याणकारी राज्य का अर्थ विभिन्न परिभाषाओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं-
⦁    केण्ट के अनुसार, “लोक-कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज-सेवाओं की व्यवस्था करता है।
⦁    पण्डित नेहरू के शब्दों में, “सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराना, अमीरों व गरीबों के बीच का अन्तर मिटाना, जीवन-स्तर को ऊपर उठाना, लोक-कल्याणकारी राज्य के आधारभूत – ‘तत्त्व हैं।”
⦁    अब्राहम लिंकन के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था का संचालन आय के अधिकाधिक समान उद्देश्य के वितरण से करता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि “जो राज्य आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में जनता के कल्याण के लिए अधिक-से-अधिक कार्य करता है, उसे लोक-कल्याणकारी राज्य कहते हैं। एक लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों की स्वतन्त्रता और समानता का पोषक होता है। वह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और समानता के बीच सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होता है तथा पारस्परिक सहयोग को महत्त्व प्रदान करता है।”

लोक-कल्याणकारी राज्य के लक्षण या विशेषताएँ या उद्देश्य
लोक-कल्याणकारी राज्य की उपर्युक्त धारणा को दृष्टि में रखते हुए इस प्रकार के राज्य के प्रमुख रूप से निम्नलिखित लक्षण बताये जा सकते हैं-
1. आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था – लोक-कल्याणकारी राज्ये प्रमुख रूप से आर्थिक सुरक्षा के विचार पर आधारित है। हमारा अब तक का अनुभव स्पष्ट करता है कि शासन का रूप चाहे कुछ भी हो, व्यवहार में राजनीतिक शक्ति उन्हीं लोगों के हाथों में केन्द्रित होती है, जो आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली होते हैं। अतः राजनीतिक शक्ति को जनसाधारण में निहित करने और जनसाधारण के हित में इसका प्रयोग करने के लिए आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था नितान्त आवश्यक है। लोक-कल्याणकारी राज्य के सन्दर्भ में आर्थिक सुरक्षा का तात्पर्य निम्नलिखित तीन बातों से लिया जा सकता है-
(i) सभी व्यक्तियों को रोजगार – ऐसे सभी व्यक्तियों को, जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कार्य करने की क्षमता रखते हैं, राज्य के द्वारा उनकी योग्यतानुसार उन्हें किसीन-किसी प्रकार का कार्य अवश्य ही दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ हैं या राज्य जिन्हें कार्य प्रदान नहीं कर सका है, उनके जीवनयापन के लिए राज्य द्वारा बेरोजगार बीमे की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(ii) न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी – एक व्यक्ति को अपने कार्य के बदले में इतना पारिश्रमिक अवश्य ही मिलना चाहिए कि उसके द्वारा न्यूनतम आर्थिक स्तर की प्राप्ति की जा सके। न्यूनतम जीवन-स्तर से आशय है-भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ। लोक-कल्याणकारी राज्य में किसी एक के लिए अधिकता के पूर्व सबके लिए पर्याप्तता की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(iii) अधिकतम समानता की स्थापना – सम्पत्ति और आय की पूर्ण समानता न तो सम्भव है और न ही वांछनीय; तथापि आर्थिक न्यूनतम के पश्चात् होने वाली व्यक्ति की आय का उसके समाज सेवा सम्बन्धी कार्य से उचित अनुपात होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, व्यक्तियों की आय के न्यूनतम और अधिकतम स्तर में अत्यधिक अन्तर नहीं होना चाहिए। इस सीमा तक आय की समानता तो स्थापित की ही जानी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति अपने धन के आधार पर दूसरे का शोषण न कर सके।

2. राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था – लोक-कल्याणकारी राज्य की दूसरी विशेषता राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था कही जा सकती है। इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि राजनीतिक शक्ति सभी व्यक्तियों में निहित हो और ये अपने विवेक के आधार पर इस राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर सकें। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-
(i) लोकतन्त्रीय शासन-लोक – कल्याणकारी राज्य में व्यक्ति के राजनीतिक हितों की साधना को भी आर्थिक हितों की साधना के समान ही आवश्यक समझा जाता है; अतः एक लोकतन्त्रीय शासन-व्यवस्था वाला राज्य ही लोक-कल्याणकारी राज्य हो सकता है।
(ii) नागरिक स्वतन्त्रताएँ – संविधान द्वारा लोकतन्त्रीय शासन की स्थापना कर देने से ही राजनीतिक सुरक्षा प्राप्त नहीं हो जाती। व्यवहार में राजनीतिक सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नागरिक स्वतन्त्रता का वातावरण होना चाहिए, अर्थात् नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति और राजनीतिक दलों के संगठन की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। इन स्वतन्त्रताओं के अभाव में लोकहित की साधना नहीं हो सकती और लोकहित की साधना के बिना लोक-कल्याणकारी राज्य, आत्मा के बिना शरीर के समान होगा।
पूर्व सोवियत संघ और वर्तमान चीन आदि साम्यवादी राज्यों में नागरिकों के लिए नागरिक स्वतन्त्रताओं और परिणामतः राजनीतिक सुरक्षा का अभाव होने के कारण उन्हें लोक कल्याणकारी राज्य नहीं कहा जा सकता।

3. सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था – सामाजिक सुरक्षा का तात्पर्य सामाजिक समानता से है। और इस सामाजिक समानता की स्थापना के लिए आवश्यक है कि धर्म, जाति, वंश, रंग और सम्पत्ति के आधार पर उत्पन्न भेदों का अन्त करके व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में महत्त्व प्रदान किया जाए। डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में, “सामाजिक समानता का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति के सुख का महत्त्व हो सकता है तथा किसी को भी अन्य किसी के सुख का साधनमात्र नहीं समझा जा सकता है। वस्तुत: लोक-कल्याणकारी राज्य में जीवन के सभी पक्षों में समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए।
4. राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि – लोक कल्याणकारी राज्य का सिद्धान्त व्यक्तिवादी विचार के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है और इस मान्यता पर आधारित है कि राज्य को वे सभी जनहितकारी कार्य करने चाहिए, जिनके करने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट या कम नहीं होती। इसके द्वारा न केवल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था वरन् जैसा कि हॉब्सन ने कहा है, “डॉक्टर, नर्स, शिक्षक, व्यापारी, उत्पादक, बीमा कम्पनी के एजेण्ट, मकान बनाने वाले, रेलवे नियन्त्रक तथा अन्य सैकड़ों रूपों में कार्य किया जाना चाहिए।”
5. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना – इन सबके अतिरिक्त एक लोक-कल्याणकारी राज्य, अपने राज्य विशेष के हितों से ही सम्बन्ध न रखकर सम्पूर्ण मानवता के हितों से सम्बन्ध रखता है और इसका स्वरूप राष्ट्रीय न होकर अन्तर्राष्ट्रीय होता है। एक लोक-कल्याणकारी राज्य तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् ‘सम्पूर्ण विश्व ही मेरा कुटुम्ब है’ के विचार पर आधारित होता है।लोक-कल्याणकारी राज्य के कार्य
परम्परागत विचारधारा राज्य के कार्यों को दो वर्गों (अनिवार्य और ऐच्छिक) में विभाजित करने की रही है और यह माना जाता रहा है कि अनिवार्य कार्य तो राज्य के अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए किये जाने जरूरी हैं, किन्तु ऐच्छिक कार्य राज्य की जनता के हित में होते हुए भी राज्य के द्वारा उनका किया जाना तत्कालीन समय की. विशेष परिस्थितियों और शासन के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, लेकिन लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा के विकास के परिणामस्वरूप अनिवार्य और ऐच्छिक कार्यों की यह सीमा रेखा समाप्त हो गयी है और यह माना जाने लगा है। कि परम्परागत रूप में ऐच्छिक कहे जाने वाले कार्य भी राज्य के लिए उतने ही आवश्यक हैं जितने कि अनिवार्य समझे जाने वाले कार्य। लोक-कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
1. आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था करना – राज्य की आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। राज्य में नागरिकों को घूमने-फिरने, सभा करने, मिलने-जुलने, आजीविका प्राप्त करने इत्यादि के अनेक अधिकार होते हैं, परन्तु समाज में अनेक ऐसे व्यक्ति होते हैं जो इन अधिकारों के प्रयोग में बाधा उत्पन्न करते हैं। इससे लोगों का जीवन में सम्पत्ति खतरे में पड़ जाती है। ऐसे असामाजिक तत्वों का दमन कर शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना राज्य का प्रधान कर्त्तव्य है, इसीलिए राज्य पुलिस और सेना की सहायता से समाज में शान्ति और व्यवस्था का प्रबन्ध करता है। राज्य अपराधों, उपद्रव, लूटमार, चोरी-डकैती, विद्रोह आदि को रोकता है।
2. देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना – कभी-कभी एक राज्य दूसरे राज्य पर आक्रमण कर उस पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करता है। आत्म-रक्षा प्रत्येक राज्य का प्रमुख कार्य होता है। बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने की दृष्टि से राज्य शक्तिशाली जल, थल तथा वायु सेना आदि रखता है। इस प्रकार बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करना राज्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसके अभाव में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।
3. न्याय और दण्ड की व्यवस्था करना – समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए। न्याय की उत्तम व्यवस्था का होना भी अनिवार्य है। न्याय की समुचित व्यवस्था से ही दुर्बल और असहाय व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित रह पाएँगे और प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करेगा। इसलिए न्याय का प्रबन्ध करना भी राज्य का अनिवार्य कार्य है। न्याय के साथ दण्ड भी सम्बद्ध है। दण्ड का उद्देश्य प्रतिशोध नहीं होना चाहिए, उसका उद्देश्य अपराधी का सुधार होना चाहिए।
4. वैदेशिक सम्बन्धों का संचालन – आज के युग में प्रत्येक देश दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करता है। वह दूसरे देशों में अपने राजदूत भेजता है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रखता है। आपसी झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने का प्रयत्न करता है। दूसरे देशों के साथ सांस्कृतिक एवं आर्थिक समझौते करके राज्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है। इस कार्य का महत्त्व आजकल इतना अधिक हो गया है कि प्रत्येक राज्य में इसके लिए एक पृथक् विभाग की स्थापना हो गयी है।
5. मुद्रा का प्रबन्ध करना – गैटिल तथा कुछ अन्य विचारकों ने राज्य के आवश्यक कार्यों के अन्तर्गत मुद्रा प्रबन्ध को भी स्थान दिया है। वास्तव में मुद्रा विनिमय का सर्वोत्तम माध्यम, है। मुद्रा के द्वारा ही राज्य अपनी आर्थिक नीति को सुनियोजित करता है। मुद्रा के द्वारा ही आन्तरिक तथा वैदेशिक व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है; अतः राज्य उचित व प्रगतिशील मुद्रा-प्रणाली की व्यवस्था करता है।
6. कर लगाना.एवं वसूल करना – राज्य की आय के अनेक स्रोत होते हैं। इन स्रोतों में कर संग्रह प्रमुख है। राज्य करों की रूपरेखा, उनका अनुपात तथा दरें निश्चित करता है। वह निर्धारित करता है कि किससे कितना कर लेना चाहिए। कर-निर्धारण तथा कर (संग्रह) का सम्पादन किन लोगों द्वारा किस रूप में होना चाहिए, यह कार्य भी राज्य द्वारा निश्चित किया जाता है।
7. शिक्षा का प्रबन्ध करना – शिक्षा राष्ट्रीय विकास की आधारशिला होती है। शिक्षा की इस महत्ता के कारण सभी सभ्य राज्य शिक्षा, विकास तथा संगठन का प्रयास करते हैं। इस कार्य की पूर्ति के लिए राज्य विद्यालय, प्रयोगशाला, शोधशाला, वाचनालय, संग्रहालय इत्यादि की व्यवस्था करता है। इसके लिए राज्य स्वतः शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करता है, उनका संचालन करता है तथा राज्य के नागरिकों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देता है।
8. स्वास्थ्य-रक्षा एवं सफाई का प्रबन्ध करना – राष्ट्र के पूर्ण विकास के लिए उसके नागरिकों को स्वस्थ होना परम आवश्यक है। जिस राज्य के नागरिक स्वस्थ नहीं होते, उस राज्य का विकास नहीं हो पाता। अतः राज्य नागरिकों के स्वास्थ्य एवं सफाई की ओर पूरा ध्यान देता है। यह बीमारियों की रोकथाम करता है, खाद्य-पदार्थों में मिलावट को रोकता है। एवं हानिकारक वस्तुओं के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाता है। एक अच्छे राज्य का यह कर्तव्य है। कि वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की ओर पूरा ध्यान दे। अच्छे चिकित्सालयों की स्थापना करे, जहाँ नि:शुल्क उपचार और चिकित्सा की व्यवस्था हो।
9. सामाजिक कुरीतियों का निवारण करना – प्राय: प्रत्येक समाज में अनेक कुरीतियाँ प्रचलित होती हैं। ये समाज के स्वरूप को विकृत कर देती हैं। इनके कारण सामाजिक प्रगति में बाधा पहुँचती है। राज्य को इन कुरीतियों के उन्मूलन का प्रयास करना चाहिए। स्वाधीन भारत की सरकार ने भारतीय समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियों; जैसे-बाल-विवाह, सती–प्रथा, दहेज-प्रथा, छुआछूत आदि को कानून द्वारा दूर करने का अच्छा प्रयास किया है।

लोक कल्याणकारी राज्य से आप क्या समझते हैं?

लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के सम्बन्ध में इंसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेस के विचार हैं: “लोककल्याणकारी राज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जो अपने सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन रत्तर प्रदान करना अपना अनिवार्य उत्तरदायित्व समझता है ।” प्रो॰ एच॰जे॰ लास्की के अनुसार: “लोककल्याणकारी राज्य लोगों का ऐसा संगठन है, जिसमें ...

लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य क्या है?

इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य जनता के संपूर्ण विकास तथा सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय की स्थापना करते हुए अवसर तथा प्रतिष्ठा की समानता स्थापित करना है। यह व्यवस्था समाज आधारित व्यवस्था है जहां व्यक्ति नहीं बल्कि समाज लोकनीति के केंद्र में होता है।

क्या भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है?

जहाँ तक भारत का प्रश्न है सामाजिक प्रशासन या कल्याण प्रशासन की मूल प्रकृति जनहितकारी ही है लोक कल्याणकारी राज्य में राज्य के दायित्व बहुत गम्भीर तथा व्यापक होते हैं क्योंकि ऐसा राज्य उन पिछड़े, दीन हीन, पतित अक्षम, नि:शक्त तथा प्रताड़ित किये गये व्यक्तियों का विकास, पुनर्वास तथा सुरक्षा सुनिश्चित करता है, जो समाज की ...

लोक कल्याणकारी राज्य का लक्षण क्या है?

लोक कल्याणकारी राज्य की विशेषताएं या लक्षण शासन का यह प्रथम कर्तव्य होता है कि वह कानून और व्यवस्था को बनाए रखे। लोक कल्याणकारी राज्य आर्थिक शक्ति को एक वर्ग के हाथों मे केन्द्रीत होने के पक्ष मे नही है क्योंकि आर्थिक शक्ति के केन्द्रीत होने से आम जनता का शोषण और उत्पीड़न प्रारंभ हो जाता है।