वीर नारायण से जंगल की ओर क्यों चले गए? - veer naaraayan se jangal kee or kyon chale gae?

17वी सदी में सोनाखान राज्य की स्थापना की गई थी। सोनाखान का प्राचीन नाम सिंहगढ़ था। वीर नारायण सिंह के पिताजी रामसाय ज़मींदार थे।जिन्होंने 1818 से 1819 के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसले राजाओं के विरुद्ध तलवार उठाई थी। हालांकि कैप्टन मैक्सन ने विद्रोह को दबा दिया। उस बिंझवार जमीदार के यहां जन्मे नारायण सिंह अपने पिता के समान ही दयावान, निडर, वीर, साहसी व न्याय प्रिय थे।

नारायण सिंह के पूर्वज गोंड जाति के थे। तथा बताया जाता है, कि उनके पूर्वज सारंगढ़ के जमीदार के वंश के थे। इनके पूर्वजों ने गोंड जाति से बिंझवार जात में जाति परिवर्तन किया।


  बिंझवार जमीदार  इष्ट देवता कुपाठ देव की पूजा करते थे। जो सोनाखान के पश्चिम में  स्थित कुर्रुपाट डोंगरी में निवास करते हैं। कुर्रुपाट डोंगरी से पूरा सोनाखान एक नक्शे के समान प्रतीत होता है। यहां एक स्थान ऐसा है, जहां 12 महीने पानी रहता है। स्थानी निवासियों के अनुसार आज भी दशहरा उत्सव के दिन गांव के लोग कुर्रुपाट में पूजा करते हैं। इसी पहाड़ी के बाजू में  जोंक नदी है।

कुछ साल बाद 1830 में पिताजी रामसाय जी की मृत्यु हो गई और 35 साल की उम्र में नारायण सिंह ने पिताजी की जमीदारी को संभला उनकी जमीदारी 70 गांव में थी। 



      छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी


 भारत देश ब्रिटिश शासन का गुलाम हो चुका था धीरे-धीरे साहूकारों एवं महाजनोंका शोषण भी ग्रामीण किसानों के ऊपर बढ़ता जा रहा था।

1854 में ब्रिटिश शासन द्वारा नए ढंग से  "टकोली "  लागू किया गया इसे नारायण सिंह ने जन-विरोधी एवं दमनकारी कहकर कड़ा विरोध किया तथा रायपुर के अंग्रेज़ी डिप्टी कमिश्नर इलियट के द्वारा नारायण सिंह का विरोध किया गया। इस वजह से नारायण सिंह अंग्रेजों के विरोधी हो गए।

1956 में आकाल व सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गई तथा ग्रामीण किसानों में भूखमरी के शिकार हो गए। वही साहूकारों एवं लालची महाजनों के लिए यह स्थिति अवसरवादी हो गई।

 जनता की भुखमरी और  परेशानियों को देख कर नारायण सिंह ने कसडोल के महाजन से अनाज मांगा तथा ब्याज देने व फसल होने पर वापसी की शर्त पर अपनी बात रखी किंतु अनाज देने से महा जनों ने साफ इनकार कर दिया! क्योंकि वो लोग अंग्रेजो के साथ थे।

         तब सभी गांवों की मुखिया को कुर्रुपाट में एकत्र कर नारायण सिंह ने सभी लोगों को लड़ाई करने के लिए तैयार किया तथा नारायण सिंह के नेतृत्व में सभी एक साथ अंग्रेजो के खिलाओ बगवात की।

वीर नारायण सिंह का कहते थे-


" भुखसे कोई नहीं मरेगा ,भले ही लड़ाई के मैदान में लड़कर मरेंगे!"


 नारायण सिंह ने कसडोल की व्यापारी माखन के अनाजों से भरे गोदाम का ताला तोड़ अनाज निकालकर ग्रामीणों में बटवा दिया यह था फिर व्यापारियों ने इसकी शिकायत डिप्टी कमिश्नर से कर दी तथा डिप्टी कमिश्नर ने गिरफ्तारी वारंट नारायण सिंह के लिए निकाल दी। बहुत दिन के जद्दो-जहद के बाद 24 अक्टूबर 1856 में  नारायण सिंह को संबलपुर से गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंद कर दिया गया।


फिर 1857 में देशभर में ब्रिटिश शासन के खिलाफ उग्र आंदोलन की शुरुआत हो गई। जिसमें झांसी की रानी ,तात्या टोपे ,नाना साहेब नेतृत्व कर रहे थे। इसी बीच विद्रोह की खबर रायपुर जेल तक पहुंची और वीर नारायण सिंह को आंदोलन में सम्मिलित करने के लिये हमारे कुछ देशभक्त अंग्रेजों एवं साहूकारों महाजनओं के शोषण से आजादी दिलाने के लिए जेल कर्मियों की मदद से कारागार के बाहर तक सुरंग से तीन साथियों के साथ नारायण सिंह को बाहर निकालने में कामयाब हो गए।


जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने 500 सैनिकों की एक बंदूकधारी सेना तैयार की तथा 20 अगस्त 1857 को सोनाखान में स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया।डिप्टी कमिश्नर एलियट ने स्मिथ के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी सोनाखान की और भेजी अंग्रेजों ने सोनाखान में घुसकर पूरे नगर को आग लगा दी नारायण सिंह ने कुर्रुपाट पहाड़ी में शरण ले ली गौरील्ला लडाई चलता रहा और वीर नारायण सिंह ने अपनी वीरता बहादुरी से अंग्रेजों का मुकाबला किया और अंग्रेजों को बहुत परेशान किया लेकिन अंग्रेजो के हाथ नहीं आते थे, फिर ज़मीनदारो से हाथ मिलाया।लेकिन संबलपुर के जमीदार सुरेंद्र साए को छोड़कर सभी जमीदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया तथा वीर नारायण के साथ गद्दारी कर दी जमीदारों की विश्वासघात के कारण इतने बड़े संघ को पराजय झेलना पड़ा अंग्रेज सिपाहियों से लड़ते लड़ते वीर नारायण का गोला-बारूद खत्म हो गया और वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया  उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और अंत में उन्हें मृत्युदंड सुनाया गया। 10 दिसंबर 1857 को रायपुर के चौराहे पर वीर नारायणसिंह को फांसी दे दी गई! बाद में उनके शव

को तोप से उड़ा दिया गया।महानदी की घाटी और छत्तीसगढ़ के माटी के महान सपूत शहीद वीर नारायण को राज्य का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी होने का गर्व प्राप्त है

 शहीद वीर नारायण सिंह छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहते है।


 चाहते तो अंग्रेजों के राज में भी आराम की जिंदगी बिताते किंतु उन्होंने आजादी को चुना और अंग्रेजों से बगावत की। पीड़ित जनता और देश की आजादी के लिए  सामंती शोषण और साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते लड़ते वीर नारायण सिंह शहीद हो गए।


महान योद्धा गोंड़वाना के वीर सपूत को 10 दिसम्बर सन् 1857 को रायपुर के चौराहे पर बाँधकर फॅासी दी गई।गोंड़वाना क्षेत्र में दहशत फैलाने की नियत से कई दिनों तक लाश को वैसे ही टंगाकर रखा गया यह दिखाने के लिये कि इसके बाद अब कोई ब्रिटिश हुकूमत से विद्रोह न कर सकें। 19 दिसम्बर 1857 को दसवें दिन लाश को परिवार वालों को सौंपा गया। सम्बलपुर के महान क्रांतिकारी सुरेन्द्र साय के मार्गदर्शन एवं सैनिक सहायता से मजबूत होकर वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविन्द सिंह नें अंग्रेजों का साथ देने वाले देवरी के जमींदार महाराज साय की गर्दन तलवार से एक ही वार में काट दी। बदले की तीव्र भावना से प्रेरित होकर अंग्रेजों ने सोनाखान के गाँवों को बुरी तरह से जला दिया


सोनाखान नाम से ही स्थान का परिचय हो जाता है कि सोने का भंडार धरती के गर्भ में भरा पड़ा हो।इस राज्य की नींव बिंझवार गोंड राजाओं ने लाँजीगढ़ पतन के बाद वहाँ से भागे हुए लोग सघन वनों से आच्छादित इलाके में अपना माल असवाब लेकर आश्रय के लिए भटक रहे थे।लाँजीगढ़ के तेकाम-नेताम राजाओं के सेनापति दरबारी लोग बिंझवार गोंड थे।इसी वंश ने 17वीं सदी में सोनाखान राज्य की स्थापना की थी।वंश एवं आगमन विषय पर मतभेद हो सकता है,पर उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वीर नारायण के पूर्वज गोंड जाती के थे।इनके पूर्वज सारंगढ़ के जमींदार के वंश के थे।इसी वंश ने 16वीं सदी में सोनाखान सूबा की स्थापना की थी। बहरहाल जो भी हो वर्तमान में छत्तीसगढ़ के प्रदेश मुख्यालय रायपुर से कसडोल होकर सोनाखान जाना पड़ता है।गोंड मारु के डर से इनके पूर्वजों ने गोंड से बिंझवार जाति में परिवर्तन किया तत्कालीन गैर लोग गोंड नाम बताने पर मार डालते थे।तब गोंडो ने अपने को बिंझवार बताया,इस नाम से आज भी गोंडमारु नामक गांव है।चूंकि उन दिनों दिल्ली के तख्त में मुस्लिम शासक विराजमान थे।वर्तमान सम्पूर्ण मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर,बिहार प्रान्त का रोहतासगढ़,अंशतः बंगाल दामोदर घाटी तक,उड़ीसा,तेलंगाना का आदिलाबाद,दक्षिण महाराष्ट्र गोदावरी तक विस्तृत भूभाग गोंड़वाना में आता था।विदर्भ के कुछ क्षेत्रों में नागपुर जहाँ नागवंशीयों का राज्य था।मुस्लिम सेनापति के आक्रमण के बाद कुछ गोंड राजाओं ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिये।धर्म-अपरिवर्तित गोंड राजाओं से दुश्मनी चली।धर्म परिवर्तित राजाओं के द्वारा बहुतायत अत्याचार किये गये।धर्म परिवर्तित राजा उन दिनों गोंडमारु के नाम से प्रसिद्ध थे। यदि हम तथ्यों पर नजर डाले तो उल्लेखनीय बातें दृष्टिगोचर होती है कि वीरनारायण के पूर्वज सारंगढ़ से आये बिशाही ठाकुर सोनाखान जमींदारी वंशज के थे।


सोनाखान गाँव का प्राचीन नाम सिंघगढ़ था।कालांतर में सिंघगढ़ से सोनाखान हुआ।वंशावली पत्र से ज्ञात होता है कि बिंझवार खानदान के दो राजपुत्र पर्यटन करने निकले।पहले फुलझर स्टेट में रहे उस समय रतनपुर के राजाओं की शानों शोकत की बातें सुनकर राज-दरबार रतनपुर आये।राजा से भेंट हुई तब राजपुत्र बिशाही ठाकुर को नौकरी में रख लिया।प्रशन ठाकुर फुलझर में रह गये।बिशाही ठाकुर रतनपुर के राजा के साथ रहे।सन् 1549 की एक घटना है कि बिशाही ठाकुर ने एक कटार से तीन बाघ मार डाले।एक बार युद्ध में बहादुरी दिखायी थीं जिससे रतनपुर के राजा बिशाही ठाकुर को लवन में जागीर दी।(1)बिशाही ठाकुर के बाद (2)लुकार वरिहा(3)संघिसाय वरिहा(4)धनक वरिहा एवं (5)माघो वरिहा हुए।माघो वरिहा ने लोहे की सख्त जंजीर को एक हाथ से तोड़ दिया था तब बहादुरी से खुश होकर रतनपुर के राजा ने इनाम में उन्हें एक तालुका दिया था।इसके बाद सन् 1663 में इन्हें 84 गाँवों का दीवान बना दिया गया।(6) बन्धन वरिहा(7)मुरारी वरिहा(8)सिन्धसाय वरिहा(9)गज प्रताप वरिहा(10)फत्तेसिंह वरिहा(11)चन्द्र साय दीवान(12)रुद्र साय दीवान (13)दलसाय दीवान (14)रामसाय दीवान।रामसाय दीवान वीर नारायण सिंह के पिता थे। वर्तमान में सोनाखान गाँव में अब जमींदार का महल नहीं है किन्तु अवशेष के रूप में केवल खंडहर है।


गांव के पश्चिम में एक छोटी पहाड़ी है जिसका नाम कुर्रुपाट डोंगरी हैं।सुरक्षित कुर्रुपाट ऐसा स्थान है जहाँ साधारणतया कोई जा नहीं सकता उसका रास्ता जान सकना कठिन था।यहाँ छोटी सी झील है जहाँ सदैव पानी रहता है,बहुत ही मनोरम है।कुर्रुपाट गोंड-बिंझवार राजाओं के देवता है।यह वही स्थल है जहां वीर नारायण कुर्रुपाट देवता की पूजा करते थे।कुर्रुपाट के उत्तरी छोर में बड़े तालाब राजा सागर तथा दक्षिण में एक तालाब मन्दसागर जिसे वीर नारायण के द्वारा खुदवाये गये थे।वे यहीं स्नान किया करते थे।आज की बस्ती नयी हैं,पुरानी बस्ती तालाब से लगीं हुई थी।माह दिसम्बर 1857 में इन्हीं बस्तियों पर ब्रितानियों ने हमला कर बर्बर अत्याचार किये थे।अंग्रेजों ने इन बस्तियों को तीनों ओर से घेर कर आग लगा दी थी तांडव मचा हुआ था।अंग्रेजों ने मासूम बच्चों को पकड़ कर धधकते आग में झौंक दिया था।अंधाधुंध गोलियां चलाकर सैकड़ों निर्दोष नर-नारियों को मौत की नींद सुला दिया था तथा भीषणतम अमानवीय अत्याचार करने से भी नहीं चूके थे,आसपास के बस्तियों के लोग संभावित भय से घर छोड़कर जंगलों की ओर भाग गये थे। 


कुर्रुपाट डोंगरी में युवराज नारायण सिंह के वीरगाथा का जिंदा इतिहास दफन हैं जहाँ पुरातत्व विभाग द्वारा कुछ खुदाई की गयी हैं।युवराज नारायण सिंह के पास एक घोड़ा था जो कि स्वामीभक्त था जिसका रंग कबरा था,वे घोड़े पर सवार होकर सूबे का भ्रमण किया करते थे।प्रजा के दुखदर्द सुना करते थे।सोनाखान इलाके में एक नरभक्षी शेर का आतंक फैला था।मनुष्यों एवं पालतू जानवरों को मारकर खा जाता था।प्रभावित क्षेत्र की प्रजा जमींदार नारायण सिंह से सुरक्षा की मांग करने लगे।बहादुर युवराज नारायण सिंह 35 वर्ष के हष्ट-पुष्ट,बलिष्ट सुदर्शन नौजवान थे।उनमें अपूर्व उत्साह था,प्रजा की सेवा करने हमेशा तत्पर रहा करते थे।उन्होंने दरिन्दे शेर को मार डालने की ठान ली।वे हमेशा बन्दूक लेकर नरभक्षी शेर को जंगल के बीहड़ों में खोजते रहे।बहुत दिनों तक शेर का पता नहीं लगा,अचानक एक दिन रायपुर के कस्बाई क्षेत्र में उत्पात मचाने लगा।युवराज नारायण सिंह मुकाबले के लिए शेर के सामने लगभग निहत्थे खड़े हो गये,शेर ने युवराज पर आक्रमण कर दिया,मुकाबला होने लगा,तब म्यान से तलवार निकाल कर शेर को मार डाला।शेर तो आखिर शेर ही था लेकिन वे सवा-शेर थे।वे सचमुच में गोंडवाना के शेर थे।


इस बहादुरी से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने वीर की पदवी से सम्मानित किया तब से उनके नाम के आगे वीर जुड़ गया और वीर नारायण सिंह नाम से जाने जाते है। अपने अतीत पर अपने इतिहास पर हमें गर्व है।किन्तु अपने गौरव से परिपूर्ण अतीत के गौरव गाथा को गोंड़वाना भूभाग के कितने लोग जानते है।गोंड़वाना के शूरवीरों में वीर नारायण सिंह का नाम प्रथम पंक्ति में आता है।वीर नारायण सिंह डरपोक आदमी को पसंद नहीं करते थे।जैसा नाम वैसा काम था।प्रकृति का प्रकोप कहें सन् 1856 में इलाके में सूखे के कारण भयानक अकाल पड़ा।सूबे की प्रजा दाना पानी के अभाव से विचलित हुई।इलाके में ब्रिटिश साम्राज्य को पैर पसारे तीन साल हुए थे।अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट और कैप्टन स्मिथ थे।कसडोल गाँव के मिश्र परिवार पर अंग्रेजों की विशेष कृपादृष्टि थी,चूंकि उस समय आला दर्जे के शोषकों एवं जमाखोरों में उनकी गिनती होती थी।ब्रिटिश उपनिवेशवाद देशी रियासतों के राजा एवं जमींदारों पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।सभी राजाओं जमींदारों को अपना शत्रु बनाना चाहती थी।


साम्राज्यवाद की एक नयी चाल एक नये वर्ग का उदय करना जो उसी देश के देशद्रोही को ढूंढ निकालना था,यह वर्ग था सूदखोर,जमाखोर,शोषक वर्ग।साहूकारों ने ब्रिटिशों की कृपा से समूचे गोंड़वाना में अपना तंत्र बिछा दिया।जमाख़ोरी और ब्याज का धंधा आदि से महाजन वर्ग को आसमान छूने में देरी नहीं लगीं।पहले देहात में अन्न पर्याप्त मात्रा में इकट्ठा रहता पर जमाखोरों के चलते अन्न गायब होना स्वाभाविक था।सूखे की आड़ लेकर यह वर्ग लोगों को शोषण का शिकार बना रहे थे।इनके आगमन से देहात में दरिद्रता प्रारंभ हो चुकी थी।किसान भूख से तडफने लगे थे।कसडोल गाँव का मिश्रा परिवार भी इन्हीं साहूकारों में से एक था।इलाका दुर्गम होने के बावजूद शोषण का जाल फैलाने में इनके करिन्दे भरपूर श्रम करते थे।उपज होते ही करिन्दे औनेपौने भाव से अन्न खरीद लिया करतें थे।ब्याज का व्यवसाय भी चालू किया।भांडे-बर्तन,गहने-जेवर,भूमि इत्यादि रखकर चक्रवृद्धि ब्याज से चन्द समय में प्रथम श्रेणी के शोषक हो गये थे। राज्य की प्रजा बिना अन्नजल की भयावह संकट से चिंतित होकर सोनाखान में वीर नारायण सिंह की बैठक में इकट्ठे हुए।चर्चा में तय हुआ कि कसडोल वाले मिश्रा महाजन से अन्न कर्ज में लिया जावे जिसे ब्याज भी दिया जावेगा।राज्य में सूखे से उत्पन्न अकाल की समस्या से प्रसन्न हो रहे मिश्रा परिवार ज्यादा ब्याज तथा अधिक लाभ के लालच में वीर नारायण सिंह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।कुर्रुपाट वीर नारायण सिंह का डेरा था।


कुर्रुपाट का जल हाथ में लेकर प्रमुखों ने कसम खायी अब हम महाजनों को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे।प्रमुख साथियों से वीर नारायण सिंह ने पूछा आप लोग लड़ेंगे कि नहीं,सभी ने एक साथ बुलंद आवाज में कहा लड़ेंगे तब वीर नारायण के नेतृत्व में हजारों की तादाद में किसान भाई कसडोल गाँव की ओर चल पड़े।वीर नारायण अपने कबरे घोड़े पर सवार होकर कसडोल पहुंचे।पुनः कर्ज के बतौर अन्न देने का आग्रह किया किंतु जमाखोरों पर जूँ तक नहीं रेंगा,अंततः वीर नारायण से रहा नहीं गया,जमाखोरों के अनाज के गोदामों पर धावा बोलकर अपने कब्जे में कर लिया और गाँव के लोगों के बीच जरुरत के हिसाब से बाँट दिया।सन् 1856 की यह क्रांतिकारी घटना थी।दाने-दाने को मोहताज लोगों के लिए संघर्ष की यह मिसाल अनुकरणीय था।राज्य का स्वामी और प्रजा का सेवक की भूमिका एक प्रकृति पुत्र होने के नाते दायित्व का निर्वाह बखूबी किया।इस घटना की सूचना उन्होंने स्वयं अंग्रेजों को दी।महाजनों ने अपना शिकायती पत्र डिप्टी कमिश्नर को भेजा। कसडोल का मिश्रा परिवार अंग्रेजों का चमचा था।इस कारण रिपोर्ट दर्ज होते ही डिप्टी कमिश्नर इलियट ने 24 अक्तूबर सन् 1856 को फौज की टुकड़ी वीर नारायण की गिरफ्तारी वारंट लेकर भेज दिया।उन्हें पता था इतने सहज गिरफ्त में नहीं आने वाले हैं।


धोखा देकर देशद्रोही,लुटेरा आदि के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर रायपुर ले जाने में सफल हुए। वीर नारायण सिंह की गिरफ्तारी से राज्य की प्रजा में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग सुलगने लगी।वे इधर मौके का फायदा उठाकर एक दिन बंदीगृह से भाग निकले।प्रजा को जब इस बात का पता चला कि वीर नारायण सिंह बंदीगृह से बाहर आ गये हैं तो उनमें अपूर्व उत्साह था।वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में गोंड,कंवर,धनुहर,बिंझवार,किसानों और नौजवानों ने बंदूकें,तीर-धनुष,भाला,बरछी एवं तलवार से लैस होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम में कूद पड़े थे।सन् 1856 में सम्पूर्ण गोंड़वाना में चिंगारी सुलग चुकी थी।राजा शंकरशाह-रघुनाथ शाह,जमींदार बापूराव शेंडमाके,अत्मूरी सीतार रम्यैया गदर की आग से खेल रहे थे।प्रत्येक लड़ाइयों में अंग्रेजों ने फूट या छल का सहारा लिया।अधिकांश महाजन वर्ग ने,सामंतशाही वर्ग को अपने साथ कर लिया।एकमात्र सम्बलपुर के क्रांतिकारी सुरेन्द्रसाय को छोड़कर बाकी सभी जमींदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया।देवरी के जमींदार ने वीर नारायण सिंह के सगे बहनोई होने के बावजूद अंग्रेजों का साथ दिया,बिलासपुर के जमींदार ने अंग्रेजों को फौजी सहायता की।


बिलाईगढ़ एवं भटगाँव के जमींदारों ने भी अंग्रेजों को अनेक तरह से मदद की।अंग्रेजों के पैर के तलुवे चाटने वाले मराठे जमींदारों के विश्वासघात के कारण इतने बड़े संघर्ष को पराजय झेलनी पड़ी।महाजन तथा सामंती वर्ग के खिलाफ तीव्र घृणा के परिणामस्वरूप कोटगढ़ एवं खरौद जाकर अंग्रेजों के दलाल मिश्रा परिवार के लोगों को खत्म कर दिया।एक गर्भवती महिला एवं उसका एक पुत्र बच गये थे। वीर नारायण सिंह अपने बहादुर सैनिकों के साथ ब्रिटिश सैनिकों पर गौरिल्ला हमला किया करते थे।वीर नारायण कुर्रुपाट में विश्राम कर रहे थे।सुरक्षित कुर्रुपाट का मार्ग जन सकना कठिन था परंतु रात में जासूसों द्वारा बताये मार्ग से होकर पहुंचे ब्रिटिश सिपाहियों ने हमला कर वीर नारायण को घेरकर बंदी बना लिया,वह ब्रिटिश गाड़ी में नहीं बैठें अपने कबरे घोड़े पर सवार होकर रायपुर पहुंचे।उन पर पहिले से ही बंदीगृह से भागने का आरोप था दूसरा विद्रोह का,ब्रिटिश हुकूमत इतनी भयभीत हो चुकी थी कि अब वह पुनः बंदीगृह में रखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी।


डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स-इलियट के कोर्ट में पेश किया गया।वीर नारायण सिंह पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें प्राणदंड की सजा दी गई। स्वाधीनता आंदोलन के महान योद्धा गोंड़वाना के वीर सपूत को 10 दिसम्बर सन् 1857 को रायपुर के चौराहे पर बाँधकर फॅासी दी गई।गोंड़वाना क्षेत्र में दहशत फैलाने की नियत से कई दिनों तक लाश को वैसे ही टंगाकर रखा गया यह दिखाने के लिये कि इसके बाद अब कोई ब्रिटिश हुकूमत से विद्रोह न कर सकें। 19 दिसम्बर 1857 को दसवें दिन लाश को परिवार वालों को सौंपा गया। सम्बलपुर के महान क्रांतिकारी सुरेन्द्र साय के मार्गदर्शन एवं सैनिक सहायता से मजबूत होकर वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविन्द सिंह नें अंग्रेजों का साथ देने वाले देवरी के जमींदार महाराज साय की गर्दन तलवार से एक ही वार में काट दी। बदले की तीव्र भावना से प्रेरित होकर अंग्रेजों ने सोनाखान के गाँवों को बुरी तरह से जला दिया।वीर नारायण सिंह के सुपुत्र गोविन्द सिंह परिवार के लोगों के साथ पद्मपुर की तरफ निकल पड़े।मार्ग में अनेक गाँवों को पार करते हुए कष्टप्रद लम्बी यात्रा कर फुलझर जमींदार के यहाँ पहुँचे।उन्हें रोजमर्रे के गुजर-बसर के लिये जमींदार ने जीने लायक काफी जमीन दी। गोंड़वाना के मातृ-पितृ शक्तियों ने स्वाधीनता की लंबी लड़ाई में अपने राजपाट एवं स्वयं को दांव में लगा दिया था।

वीर नारायण सिंह को फांसी की सजा क्यों दी गई?

पाठ्यपुस्तकों में बताया गया है कि अनाज का गोदाम लूटने के आरोप में उन्हें फांसी की सजा दी गई थी। ऐसा नहीं है। उन्होंने भूखी जनता के लिए गोदाम जरूर लूटा था, लेकिन उन्हें फांसी की सजा आजादी की पहली लड़ाई में शामिल होने पर दी गई थी।

वीर नारायण सिंह का नारा क्या था?

वीर शहीदों की जय... शहीद वीरनारायण सिंह अमर रहे... के नारों से पूरा वातावरण गूंज उठा। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद वीरनारायण सिंह के शहादत दिवस पर नूतन स्कूल टिकरापारा में कार्यक्रम आयोजित किया गया। छात्र-छात्राओं ने गगन भेदी नारे लगाये।

छत्तीसगढ़ की जनता के बीच वीर नारायण सिंह की लोकप्रियता के कारण क्या?

छत्तीसगढ़ की जनता के बीच वीर नारायण सिंह की लोकप्रियता के मुख्य कारण इस प्रकार हैं... वीर नारायण सिंह एक ईमानदार एवं सच्चे नेता थे। वे बेहद विनम्र और नेकदिल व्यक्ति थे, इसी कारण छत्तीसगढ़ की जनता उन्हें बेहद पसंद करती थी। जमींदार होने के बावजूद भी वीर नारायण सिंह आम लोगों की समस्याएं सुनते थे।

शहीद वीर नारायण सिंह से हमें क्या प्रेरणा मिलती है?

आदिवासी नेता, जो उनका फायदा उठाकर उन्हें याद तक नहीं करते, उन्हें यह बात नहीं भूलना चाहिए कि अपने समाज के लोगों के बिना वे एक तिनके के बराबर भी नहीं हैं। हमें भी यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अब शहीद वीर नारायण सिंह जैसे व्यक्ति हमें नहीं मिलेंगे।