सलीम अली साहब की जीवन साथी कौन थीं *? - saleem alee saahab kee jeevan saathee kaun theen *?

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भाग 2 
कक्षा /2 के लिए केन्द्रिक हिन्दी की पाठ्यपुस्तक 


अनिल विद्यालंकार 
शशिकुमार शर्मा 
अनिरुद्ध राय 





राष्ट्रीय शैक्षिव्क अनुस्येधान आऔर झशिश्षचण परिषद 
५/8॥08॥ (0(॥ध४0८॥ (7 ६€0।/॥.8॥।008/ 8£5£880(+ 8४५४0 ॥858॥9॥0॥5 


प्रथम संस्करण 
फरवरी 4990 
फाल्गुन 9] 
?9,0, 3587-४९ 


राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और ग्रशिक्षण परिषद्‌, 4990 


सकल सुरक्षित 


(८ प्रकाशक को पूर्व अनुपति के बितो इस प्रकाशन के किसों भाग का छापना तथा इलेक्ट्रॉनकी, प्रशीनी फोटो्प्रतीलिप स्करिडिंग 
अधंया किसी अन्य श्रिधि से पुतर प्रयोग पद्धति द्वारा उसका सम्रहण अधपया प्रस्तारण वर्जित है। 


[) इप पुलत की विक्की इस शर्म के साथ को गई है कि प्रकाश की पूर्ण अनुमति के बिना यश पुस्तक अपने फूल आशा] अथवा जिल्ट 


के अल्यता किसी अर प्रकार से व्यापार द्वारा उधारों पा पु्नर्विक्रय थे किए पर 3 दी जाएगी, ने खेचों जाएगी। 


[) इस प्रकाशन का भहं पृल्य इस पृष्ठ पर मुद्रित है । रबड़ की मुहर अथवा विपकाई गई प्चो (स्टिकार) या किसे अन्य र्खिधि द्वाग अंकित 
काई भी सशाधित मूल्य गलत है तथा मान्य नहों होगा । 





प्रकाशन सहयोग 


सी,एन. राव, अध्यक्ष, प्रकाशन विभाग 


प्रभाकर द्विवेदी मुख्य संप्रदक॑ यू. प्रभाकर राय मुख्य उत्पादन अधिकारी 
दिनेश सक्सेना सम्पादक॑ पुरेन्द्र कान्‍्त शर्मा उत्पादन अधिकारी 
नरेश यादवतस्पावत सहायक टी.टी, श्रीनिवासन सहायक उत्पादन अधिकारी 
कर्ण कुमार चड्ढा वरिष्ठ कलाकार 


आवरण 
सविता जोशी 


मूल्य ; रु, 6.00 


प्रकाशन विभाग में सचिव, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुप्तंधान और प्रशिक्षण परिषद्‌, 
श्री अरविंद मार्ग, नई दिल्‍ली 7006 द्वारा प्रकाशित तथा शगुन कम्पोजूर्स, 
92-8, कृष्णा नगर, गली नं, 4, सफदरजंग एन्कलेव, नई दिल्‍ली 0099 में 
लेजर टाइप सेट होकर, जे.र्के.ऑफेसेट,. जागो मण्जिद दिव्ली*।५0 006 में 
मुद्रित | 


आमुख 


राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्‌ के तत्वावधान में 
विद्यालय-स्तर पर विभिन्‍न शैक्षिक विषयों के पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों 
आवि के निर्माण का कार्य लगभग ढाई दशकों से हो रहा है | राष्ट्रीय 
शिक्षा नीति-986 के लागू होने के साथ ही ऐसी शिक्षण-सामग्री की, 
आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा जो नई शिक्षा वीति के 
उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो। इस वीति के अनुसार शिक्षा 
बाल-केद्धित होगी और छात्रों के सर्वागीण विकास पर बल दिया 
जाएगा। नई शिक्षा-बीति में भारत के राष्ट्रीय जीवत के लिए आवश्यक 
कुछ महत्त्वपूर्ण मूल्यों को केन्द्रिक शिक्षाक्रम के रूप में स्थात दिया गया 
है। यह एक दूरगामी शिक्षा वीति है और यदि इसका पालन सही ढंग से 
किया जाए तो भारत के नव-निर्माण में इससे महत्वपूर्ण योगवाव मिल 
सकता है। 


नई शिक्षा योजना की महत्वपूर्ण विशेषता उसकी बाहय सर॑चना का 
गठन नहीं है, अपितु वह परियोजना एवं दृष्टिकोण है जो शिक्षा का 
संबंध राष्ट्रीय विकास के साथ जोड़ने पर बल देता है। इस दृष्टि से नवीन 
पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में निम्नलिखित सिद्धांतों का विशेष रूप से 
समावेश किया गया है : 


. ऐसी पाठ्यसामग्री एवं शैक्षिक क्रियाओं का समावेश जिनसे 
बच्चों में राष्ट्रीय लक्ष्यों-जनतांत्रिकता, धर्मनिरपेक्षता, 
समाजवाद, सामाजिक व्याय तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति 
चेतना एवं आस्था उत्पन्त हो और उनमें तर्कसंगत वैज्ञानिक 
दृष्टिकोण का विकास हो। 


2. पाद्यचर्या एवं पाठ्यसामग्री भारत की जीवन-परिस्थितियों 
तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश पर आधारित हो 
और उनमें वांछित भावी विकास की विशा भी परिलक्षित 
हौ। 


8 । 


3, पाद्यपुस्तकें बच्चों के भावात्मक एवं बौद्धिक उत्कर्ष, 
चरित्र-निर्माण तथा स्वस्थ मवोवृत्ति के विकास की दृष्टि से 
प्रेरणादायी सिद्ध हों, उनके द्वारा छात्रों में स्वयं शिक्षा एवं 
अधिकाधिक ज्ञातार्जन की उत्कंठा जाग्रत हो और वे 
निर्धारित पाठयविषय तक ही सीमित न रहकर विशव्‌ एवं 
व्यापक अध्ययन के लिए जिज्ञासू तथा तत्पर बने रहें। 


4, नई शिक्षा वीति के आधारभूत तिद्धांतों को ध्यान में रखते 
. हुए पादय सामग्री के चयन में केन्द्रिक शिक्षाक्रम से संबंधित 
विषय सामग्री एवं जीवन-मूल्यों पर विशेष बल हो। 


5, सांप्रतिक एवं भावी जगत्‌ को सुखद सुंदर बनाने वाली 
. जीवन परिस्थितियों की ओर संकेत करने वाले पाठों का 
समावेश किया गया हो। 


उपर्युक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए विविध विषयों के पाठ्यक्रम 
एवं पाठ्यपुस्तक निर्माण की योजना तैयार की गई है। इस कार्य को सभी 
वृष्टियों से परिपूर्ण एवं प्रामाणिक बनाने के लिए राष्ट्रीय स्तर के 
विषय-विशेषज्ञों, अधिकारी विद्वानों एवं शिक्षकों का सहयोग प्राप्त किया 
गया है। इस संदर्भ में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद्‌ की हिन्दी समिति 
के अध्यक्ष डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव तथा अन्य सदस्यों के सहयोग के 
लिए मैं विशेष आभारी हूँ। 


परिषद्‌ के सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष 
डॉ, अनिल विद्यालंकार (अब अवकाश प्राप्त) और रीडर डॉ. 
शशिकुमार शर्मा (अब अवकाश प्राप्त) ने विभाग में अपने कार्यकाल के 
दौरात इस पुस्तक के संपादन का कार्य किया | विभाग के डॉ. अनिरुद्ध 
राय ने इसका अंतिम प्रारूप तैयार किया तथा बड़े परिश्रम से इसका 
संपादव किया। मैं अपने इन सभी सहयोगियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता 
शापित करता हूँ। 


जिन कृती लेखकों ने अपनी रचनाएँ इस पुस्तक में सम्मिलित करने 
वी अनुमति दी है, उनके प्रति हम विशेष रूप से अनुगद्दीत हैं। 


आशा है, छात्रों की भाषिक तथा साहित्यिक रुचियों के बिकास की 
दृष्टि से यह पुस्तक उपादेय सिद्ध होगी। इनके परिष्कार की दृष्टि से 
सुविज्ञजनों द्वारा भेजे गए सुझावों और परामर्शों का हम सदा स्वागत 
करेंगे| 


पी,एल,मल्होत्ा 
निवेशक 
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्‌ 


आभार 


इस पुस्तक के विर्माण में कृपापूर्ण योगदान के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक 
अनुप्तंधान और प्रशिक्षण परिषद्‌ निम्नलिखित विद्वानों के प्रति कृतज्ञता 
जञापित करती है- 


डॉ, रवीद्रनाथ श्रीवास्तव, अध्यक्ष, हिन्दी समिति, केन्नीय माध्यमिक 
शिक्षा बोर्ड, सुश्री कमल वासुदेव तथा डॉ. हरिश्चंद्र, सदस्य, केन्नीय 
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, श्री निरंजन कुमार सिंह, डॉ. आनंद प्रकाश व्यास, _ 
डॉ, कृषण्णदत्त पालीवाल, डॉ. मात सिंह वर्मा, डॉ. सुधांशु चतुर्वेदी, डॉ. 
एन. सुंदरम, डॉ. सुवास कुमार, डॉ. सब्विदातंद सिंह साथी, डॉ. कमल 
तत्यार्थी, डा, जयपाल सिंह तरंग, श्री भागीरथ भार्गव, डॉ, (श्रीमती) 
संतोष मादा, श्री कौस्तुभ प॑त, डॉ. श्याम बिहारी राय, श्री सुरेन्द्र पाल 
मित्तल | ञ 


हिन्दी का स्वरूप 


भारतेन्दु हरिएचंद्र ने सन्‌ 873 में अपनी डायरी कालचक्र में लिखा है; 
"हिन्दी नई चाल में ढली' | यह नई चाल की हिन्दी लगभग वही है 
जिसे हम आज भी लिखते-पढ़ते हैं, भले ही विकासक्रम में उप्तका रूप 
उत्तरोत्तर विखरता गया हो। हिन्दी की एक लंबी ऐतिहासिक परंपरा है. 
जिसमें भारतेद्ु के समय में परिवर्तन होते लगा था। यह परिवर्तन 
पर्ववर्ती परिवर्तनों से गुणात्मक रूप से काफी भिन्न था। 

काव्य-भाषा के रूप में हिन्दी की लगभग एक हज़ार वर्ष की बड़ी 
ही समृद्ध परंपरा है। गद्य के रूप में भी उसकी परंपरा कम पुरानी नहीं 
है| आधुनिक गद्य अथवा खड़ी बोली का गद्य तो हिन्दी की परिधि में 
आता ही है, विद्यापति की मैथिली, मीरा की राजस्थानी, जायसी और 
तुलसी की अवधी, सूर और बिहारी की ब्रजभाषा भी हिन्दी में ही 
शामिल है और उन भाषाओं में रचित साहित्य को हिन्दी-साहित्य ही 
माना जाता है। परवर्ती काल में जब-जीवत और युग की आवश्यकताओं 
के अनुकूल उसमें खड़ी बोली के साहित्यिक रूप का विकास हुआ और 
वही आज की हिन्दी है, भारतेन्दु की नई चाल वाली हिन्दी का निखरा 
हुआ रूप | इस लंबी ऐतिहासिक परंपरा ते हिन्दी को बहुत व्यापक 
आयाम प्रदान किया है| 

इस परंपरा का विस्तार आज भी विभिन्न जनपदीय बोलियों अथवा 
लोक भाषाओं के स्ताथ उसके घनिष्ठ और जीवंत संबंध में दिखाई पड़ता 
है। हिन्दी एक विशाल क्षेत्र की भाषा है। इस क्षेत्र में अनेक जनपदीय 
बोलियों हैं - पूरब में मैथिली, मगही, भोजपुरी आदि, मध्य में दुंदेली, 
छत्तीसगढ़ी, बघेली, निमाड़ी आदि, पश्चिम में मारवाड़ी, मेवाड़ी, 
हाड़ौती, दूँढडाणी, बाँगरू, कौरवी, हरियाणवी आदि और उत्तर में 
गढ़वाली, कुमायूँनी, हिमाचली आदि पहाड़ी बोलियाँ । ये बोलियाँ इन 


ञ्र पलल्‍्ज़व 


जनपदों की बोलचाल की भाषाएँ हैं। किंतु हिन्दी इन बोलियों के बीच 
एक संबंध सूत्र अथवा संपर्क-भाषा का काम करती है। यही नहीं, इस 
विशाल क्षेत्र में शिक्षा का माध्यम भी हिन्दी ही है, ये बोलियाँ नहीं। अतः 
हिन्दी ही जीवन के विविध क्षेत्रों- सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, 
राजतीतिक आदि से संबंधित समस्त क्रिया-कलापों के संबहन की भाषा 
है। इस प्रकार इन बोलियों से हिन्दी का बहुत ही जीवंत संबंध है। वह 
इनसे अपनी जीवन-शक्ति प्राप्त करती है। यह उनकी शब्द-संपदा, 
नए-नए प्रयोग, मुहावरे, कथन के अनूठे ढंग और भंगिमाएँ ग्रहण और 
आत्मसात करती चलती है। जिससे एक ओर तो उसका लोक-जीवन से 
सान्निध्य बना रहता है और दूसरी ओर उसकी अभिव्यंजना-शक्ति और 
सामर्थ्य का निरंतर विकास होता रहता है। 

जीवंत भाषा होने के साथ ही हिन्दी का विकास आधुनिक भाषा 
के रूप में हो रहा है। आधुनिक भाषा का सर्वप्रमुख लक्षण है -- आधुनिक 
जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप भावों और विचारों की अभिव्यक्ति 
की क्षमता। आज मानव-जीवन में बड़ी तीत्र गति से परिवर्तन और 
विकास हो रहा है। वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, प्राविधिक, मानविकी और 
समाजशास्त्रीय सभी क्षेत्रों में तूतत ज्ञान का संचार, नए-नए विचारों और 
वृष्टिकोणों का विकास इतनी तीत्रगति से हो रहा है कि उन्हें अभिव्यक्त 
करने के लिए उन्हीं के समानांतर भाषा का भी आधुनिकीकरण 
आवश्यक है। इस दृष्टि से हिन्दी आधुनिक और गतिशील भाषा सिद्ध हो 
चुकी है। विगत पचास वर्षों में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, प्रशासन 
आदि से संबंधित हिन्दी की शब्द-संपदा तीज्र गति से संवर्ध्धित हुईं है और 
नए शब्दों तथा नए पदों का निर्माण हुआ है। इस क्रम में पारिभाषिक 
शब्दावली का विशेष विकास हुआ है। हिन्दी ने अन्य भारतीय भाषाओं से 
ही नहीं, अपितु विदेशी भाषाओं के भी हजारों शब्दों को अपनाया है और 
अपनी प्रकृति के अनुसार उनका रूप बदल कर उन्हें पूर्णतः: आत्मसात 
कर लिया है। इस प्रकार वह क्रेवल कविता और साहित्य की ही भाषा 
नहीं है, वरन्‌ आज के समग्र जीवन की वाणी बन गई है।' 

शब्द-संपदा . के संवर्द्धन में शब्द-निर्माण की प्रक्रिया का विशेष 
महत्त्व है। इस प्रक्रिफ् के अनेक #ूप हो सकते हैं, जैसे -- कभी दूसरी 
भाषाओं के शब्दों को ज्यों-का-त्यों ग्रहण कर लेना, कभी मूल शब्द 


हिन्दी का स्वरूप श्र 


लेकर अपनी प्रकृति के अनुसार उसका रूप परिवर्तन कर लेना, कभी 
उपसर्ग और प्रत्यय द्वारा नए शब्द का निर्माण कर लेना, कभी जनपदीय 
बोलियों से शब्दों को ले लेना आदि | उदाहरणतः इस संकलन के पाठेों में 
कैंसर, एस्बेस्ट्स, डी.डी.टी., कॉस्टिक सोडा, सिल्ट, टिकट, कंकंरीट, 
रिपोर्ताज आदि अनेक शब्द अंग्रेज़ी भाषा से ज्यों के त्यों लिए गए हैं और 
अपने मूल रूप में ही प्रयुक्त हैं, जब कि गैसीय, कार्बनिक आदि में 
अंग्रेज़ी मूल शब्द के साथ हिन्दी प्रत्यय ईय' और इक' लगाकर उनके 
विशेषण रूप बताए गए हैं। प्रदूषण, आनुवंशिक, विकिरण आदि शब्द 
हिन्दी के ही हैं और उपसर्ग अथवा प्रत्ययों की सहायता से निर्मित हैं। 
पर्यावरण, रसायन, परावैद्युत बहि:स्राव आदि अनेक पारिभाषिक शब्दों 
का प्रयोग इन पाठों में हुआ है। 'रसायत और हमारा पर्यावरण" 
(एत.एल.रामानाथन) निबंध पढ़ने से वैज्ञानिक शब्द-संपदा तथा 
शब्द-निर्माण-प्रक्रिया को समझने में सहायता मिल सकती है। इसी प्रकार 
“उतरी स्वप्तपरी : हरित क्रांति” (फणीश्वरताथ रेणु) निबंध में 
आहार, पूरब, मुलुक, पैन-पुलिया आदि अनेक आंचलिक शब्दों के प्रयोग 
भिलेंगे। निस्संदेह इन सभी ग्रोतों से हिन्दी शब्द-संपदा निरंतर विकसित 
हो रही है और इससे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ हिन्दी का भी 
आधुनिक रूप विकसित हो रहा है। 

क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दृष्टि से हिन्दी के दो स्वरूप हैं -- एक ओर 
वह हिन्दी भाषी जनता की संस्कृति की वाणी है, यह उसका जातीय 
स्वरूप है। दूसरी ओर वह समग्र राष्ट्र की वाणी है। इस रूप में वह 
अंतरप्रांतीय संपर्क की भाषा का काम करती है और भारत की 
सामाजिक संस्कृति की संवाहिका है। अखिल भारतीय संपर्क भाषा के रूप 
में वह अन्य राष्ट्रीय भाषाओं से भी शब्द-संपदा और भाषिक प्रयोगों को 
ग्रहण करती है और समृद्धशाली बनती है। 

अखिल भारतीय स्तर पर भी हिन्दी के दो रूप हैं, लोक व्यवहार 
के स्तर पर हिन्दी का व्यवहार कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कोहिमा 
से कच्छ तक हम देखते हैं, विशेषतः तीर्थ-स्थानों, प्रमुख व्यापारिक और 
औद्योगिक केन्द्रों आदि स्थलों पर तथा फिल्म, रेडियो, दूरदर्शन आदि 
संचार माध्यमों द्वारा। यह सार्वदेशिकता तो हिन्दी की सहजात प्रकृति है। 
इसे भारतीय विद्वानों, विचारकों और संत-महात्माओं ने मध्यक्राल में ही 


जा पल्लव 


पहचान लिया था और इसी कारण दक्षिण के आचार्यों ने इसके माध्यम 
से संत-साहित्य के निर्माण पर बल दिया था। अपनी इसी सार्वदेशिक 
प्रकृति के कारण हिन्दी नवजागरण काल तथा स्वतंत्रता संग्राम में संपूर्ण 
देश की प्रतिनिधि भाषा बनी और राष्ट्रीय चेतना और जागृति की वाणी 
बतकर उसने संपूर्ण देश को स्वतंत्रता संघर्ष के लिए अनुप्राणित किया था | 


भारतीय संविधाव के अनुसार हिन्दी संघ की राजभाषा है और 
इस हैसियत से प्रशासनिक और कार्यात्रयीय प्रयोजनों की भाषा के रूप में 
भी उसका प्रयोग दितों विन बढ़ता जा रहा है। इस रूप में वह 
राजनीतिक दृष्टि से भी भारतीय एकता का मूल आधार बनी हुई है। 

इस प्रकार अपनी लंबी ऐतिहासिक परंपरा, जनपदीय बोलियों से 
लगाव, प्रकृतिगत जीवंतता, विकासशीलता और आधुनिकता, जातीय 
अस्मिता के साथ-साथ सार्वदेशिकता आदि विशेषताओं के कारण हिन्दी 
का बहुत ही व्यापक रूप है, जो राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अपितु 
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उसे गरिमा प्रदान करता है। 

हिन्दी की उपर्यक्त विविधता और व्यापकता का यह अर्थ नहीं है 
कि उसका कोई मानक रूप नहीं है| बल्कि इस वैविध्य और व्यापकता 
को सेंजोए हुए उसके मानक रूप का बहुत ही सुव्यवस्थित विकास हुआ 
है जिसका एक सुनिश्चित व्याकरण और अपनी शब्द-संपदा है। उसमें 
ध्वनि, उच्चारण, बुर्तती, पद, पदबंध, वाक्य-संरचना आदि भाषिक 
अवयवों के अपने नियम हैं। निश्चय ही यह उसका आदर्श रूप है। 
व्यवहार में इनका ध्यात रखना आवश्यक है। संग्रेषणीयता, बोधगम्यता 
और लोकमान्यता की वृष्टि से भाषा का मातक रूप आवश्यक होता है, 
तभी वह जीवन की वाणी बन पाती है। 


भाषा की शुद्धता और अशुद्धता की परख मानक रूप के ही 
आधार पर की जाती है। अतः व्यवहार में हिन्दी के मानक रूप का ध्यान 
रखना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है। 

मानक रूप का आशय भाषा की एकरूपता से नहीं है। देश, काल, 
पात्र, परिस्थिति और विषय के अनुसार मातक रूप की अनेक शैलियाँ 
मिलती हैं। कोई शैली आम बोलचाल की शब्दावली पर आधारित होती 
है तो कोई संस्कृतनिष्ठ शब्दावली पर। वैज्ञानिक, प्राविधिक, वाणिज्यिक 


हिन्दी का ख्रूप दर 


विषयों की शैली उनके अनुरूप ही प्रयुक्त होती है। प्रस्तुत संकलन में हम 
इन विविध शैलियों के उदाहरण भली-भाँति देख सकते हैं। 

“मैं कौन जजैनेन्र) निबंध में आम बोलचाल की भाषा, 
शब्वावली और भंगिमा को देखिए : 

“मुझ पर बहुतों की कृपा है, तब सोचता हूँ कि क्या करूँ, कहिए 
मैं आपकी क्‍या सेवा करूँ, ठंडाई मँँगाऊं।” “चोटी की बहस के मामले 
में मैं हारता हूँ। “तब नरक में ही मुझे झौर होगा” आदि आम 
बोलचाल की शैली के ही उदाहरण हैं| 

मुझ पर तरस ही नहीं किया, रोष ही किया। सामान्य रूप से 
'तरस खाना , प्रयोग है, पर लेखक ने उस्ते बदल दिया है। 

"मेरे यहाँ का जलपान उन्हें स्वीकार नहीं हुआ और वह मुझे तज 
कर चले गए।'” इस निबंध में स्थाव-स्थात पर लोक भाषा का सहज 
स्नेहिल रूप मिलता है। 

जैनेन्द्र जी ने नए शब्द भी गढ़े हैं -जो जैन नहीं वह अजैन है | 
इसी प्रकार असुधार्य, अभव्य, आशाशील आदि शब्द नए प्रयोग हैं। 

अतः इन विशेषताओं को ध्यान में रखकर इस निबंध की शैली 
को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। “नदी बहती रहे” निबंध 
में तत्सम शब्दाबली का प्रचुर प्रयोग मिलता है, जैसे - हमारा आर्थिक, 
सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन समृद्ध हुआ है। जिस प्रकार वनों का 
वृक्षों से, नदियों का जल से अहिकुंडलिनी संबंध है, उसी प्रकार नदियों 
का वनों से कदंबकोरक संबंध मानता चाहिए। नदियाँ स्वतः फूट पड़ती 
हैं, हमारी संस्कृति विच्छिन्न हो जाएगी, जीवन प्लोत सूख जाएगा, 
आदि-आदि। इस निबंध में स्थान-त्थान पर भाव प्रधान शैली का प्रयोग 
भी मिलता है, यथा-'जबऐसी महत्त्व की पुण्यतोया नदी का यह हाल हो 
रहा है तो औरों का क्या कहा जाए।” “इस देश की नदियाँ ही इसकी 
श्री रही हैं।' ऐसी स्थिति में न कश्मीर ही स्वर्ग रह गया और न 
काशी ही तीत लोक से न्यारी रह गई। जब गंगा गंगा व रही, तब काशी 
की कया स्थिति रहेगी।'' 

अद्भुत अपूर्व स्वप्न आत्माभिव्यंजक शैली में लिखा गया 
व्यंग्य-प्रधान निबंध है। भारतेन्चु हरिश्चंद्र के इस निबंध में अनेक स्थलों 
पर हिन्दी भाष। का प्रारंभिक रूप मिलता है। आज की मानक हिन्वी के 


शाप ; पल्लव 
विकाप्षक्रम को समझने की दृष्टि से इसके प्रारंभिक रूप, को जानना 
आवश्यक है। कुछ उदाहरण वेखिए, इस हेतु बहुत काल तक 
सोच-समझ प्रथम यह विचार '“*, फिर पड़े-पड़े पुस्तक रचने की सूझी।'* 
“परन्तु इस विचार में बड़े कॉटे निकले, क्योंकि बनाने में देर व होगी 
कि कीट क्रिटिक काट कर आधी से अधिक निगल जाएंगे |”, “इस हेतु 
आप आतुर व हृजिए। , किसी समय इस देश में इनकी बड़ी मानती 
थी।' ऐसे अनेक प्रयोग इस निबंध में मिलेंगे। इन शब्दों, पदों तथा 
वाक्यों का चयत और उनका वर्तमान मानक रूप जानना हिन्दी 
शिक्षार्थियों के लिए विशेष उपयोगी बात होगी। 

“भारत कोकिला ” संस्मरण है, जिसमें लेखक ने सरोजिनी तायडू 
के जीवन की कुछ घटनाओं का रोचक वर्णन करने के साथ-साथ उनके 
"माध्यम से उनके स्वभाव और चरित्रगत विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला 
है| 

“उतरी स्वप्तपरी : हरित क्रांति ” (फणीश्वरताथ रेणु”) निबंध 
में विविध शैलियों का अद्भुत सम्मिश्रण है। एक ओर आंचलिक शब्दों 
का प्रयोग वहाँ के जनजीवन से प्रभावित हैं : जैसे, 

. “कोसी जिधर से गुजरती धरती बाॉँझ हो जाती।' 

'प्ोना उपजाने वाली मिट्टी बालूचरों में बदल जाती हैं। 

धरती का उदाक्ष और मनहूस्त बादामी रंग, सुबह शाम धूसर 
और वीरान। 

इसी प्रकार नहर, आहर, पैन-पुलिया आवि आंचलिक शब्दों का 
प्रयोग हम पाएँगे| 

दुनके द्वारा लेखक ने स्थानीय जन-जीवन के साथ आत्मीयता 
स्थापित की है। 

इसी निबंध में हम संस्कृतनिष्ठ शैली की बानगी भी पाते हैं। 
पुण्यसलिता, छिन्नमस्ता आवि प्रयोग हमें पौराणिक संदर्भो से जोड़ते हैं। 

कागज पर रंग की लहरें लगाना, अमृत हास्य अंकित करना, 
आपके सुनहले स्वप्नों के अंडे कब फूटेंगे, सोने की चिड़िया कब 
चहचहाएगी, जिंदगी की बेल, दूधिया चमक, धरती का चप्पा-चप्पा हँस 
रहा है आदि प्रयोग काव्यात्मक शैली के अनूठे उदाहरण हैं, जों पाठक 


हिन्दी का स्वरूप ४५ 
की भावुकता को छूते चलते हैं। 

इसी प्रकार हम अन्य तिबंधो की भाषा और शब्दावली के 
आधार पर उनकी शैलीगत विशेषताओं को समझने का प्रयास करें तो 
इन निबंधों का अध्ययन सार्थक और उपयोगी प़रिद्ध होगा। 


हलक ८ हक. 
दर 

















गांधी जी का 


तुम्हें एक जन्तर देता हूं! जब भी तुम्हें सन्देहु 
हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे, 
तो यह कसौटी आजमाओ  : 

जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने 
देखा हो, उसकी शकल याद करो और अपने 
दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार 
कर रहें हो, वह उस आदमी के लिए कितना 
उपयोगी होगा । क्यों उससे उसे कुछ लाभ 
पहुंचेगा ? क्या उससे वह अपने ही जीवन और 
भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा ? यानि क्‍या 
उससे उन करोड़ों लोगों को स्व॒राज्य मिल 
सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है ? 

तब तुम देखोग कि तुम्हारा सन्देह मिट रहा 
हैं और अहम समाप्त होता जा रहा है। 


2 ए2 न अचच (०४ एओ जे ७3 ए॑७ $+ 


हनन 
५ 


| बा 
5 


विषय - सूची 


आमुख 

आभार 

गद्य का स्वरूप 
भारतेन्व हरिश्चेद्र 
जैनेद्र कुंमार 

रामधारी सिंह दिनकर 
रघुवीर सिंह 
फणीश्वरनाथ रेणू 
जयशंकर प्रसाद 
रामवृक्ष बेनीपुरी 
एन,एल.रामानाथन 
शरद जोशी 
सच्चिदानंद हीरानंद 
वात्स्यायन अज्नेय 
भगवतीशरण पिंह 
ग़ब्दार्थ एवं टिपणियाँ 


अद्भुत अपूर्व स्व्त 

मैं कौन? 

विजयी के आँसू 

फतहपुर सीकरी 

उतरी स्वप्नपरी : हरित क्रांति 
गुंडा 

नई संस्कृति की ओर 

रतायन और हमारा पर्यावरण 
जीप पर सवार इल्लियाँ 
भारत-कोकिला 


नदी बहती रहे 


भारतेन्द हरिएचंद्र 


(।850-85) 


“आधुनिक हिन्दी के निर्माता भारतेचु हरिश्वंद्र का जन्म वाराणसी में 
हुआ। 35 वर्ष की अल्पायु में इन्होंने साहित्य, प्माज तथा संस्कृति के 
क्षेत्र में जो कार्य किया, उसे देखकर दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ती है। इस 
अवधि में उन्होंने अनेक संस्थाएँ स्थापित और संचालित कीं, कई 
पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, समाज-सुधार और शिक्षा-प्रचार के अनेक 
कार्य किए तथा हिन्दी के प्रचार के साथ-साथ गद्य और पद्च में गुण और 
परिमाण दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की।| 

भारतेचु जी की प्रतिभा बहुमुख्ी थी। वे वाटककार थे, कवि थे, 
निबंधकार थे, पत्रकार थे, व्यंग्य लेखक थे, समालोचक थे और 
इतिहासकार थे। उतकी रचताओं का प्रकाशन काशी नागरी प्रचारिणी 
सभा ने तीन खंडों में किया है। इनमें प्रमुख नाटक हैं : ' वैदिकी हिंसा 
हिंसा न भवति”, चंद्रावली , “विषस्य विषमौषधम'', भारत 
वर्दशा , नील देवी”, अँधेर तगरी” और सत्य हरिएचंद्र | . 
उन्होंने कवि वचन सुधा, हरिश्वंद्र मैगजीन ', 'हरिश्चंद्र चंद्रिका'' 
और वाला बोधिनी नामक पत्रिकाएँ भी निकालीं और एक लेखक 
मंडल तैयार किया | 

भारतेत्ुु जी केवल साहित्यकार नहीं, एक अच्छे व्यवस्थापक भी 
थे। देश की ग़रीबी, पराधीनता, शोषण, अशिक्षा आदि पर न केवल 
उन्होंने स्वय॑ लिखा, बल्कि अपने अनेक साथियों को लिखने के लिए 
प्रेरित किया और इस प्रकार वे भारतीय नवजागरण के अग्रदूत बने | 
उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए विदृवत्‌ समाज ने उद्हें 'भारतेन्दु' 


2 पलल्‍लव 


की उपाधि से अलंकृत किया | 

भारतेन्दु ने अपने युग में भाषा का एक नवीन निखरा हुआ रूप 
उपस्थित किया | विषयानुसारी भाषा-प्रयोग में दक्ष थे। गंभीर विषयों के 
प्रतिपादन में भाषा संस्कृत पदावली की ओर झुकने लगती है और 
इतिहास, यात्रा आदि विषयों पर लिखते समय व्यावहारिक हो जाती है। 
भावपूर्ण प्रसंगों में शैली मधुर और मार्मिक बन जाती है। भाषा पाठक के 
साथ रागात्मक संबंध स्थापित करने में समर्थ है। मुहावरों और 
लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा और अधिक सजीव हो गई है। 

“अद्भुत अपूर्व स्व” भारतेन्चु जी का व्यंग्य प्रधात निबंध है। 
उन्होंने शिक्षक और शिक्षा को व्यवसाय बना देने वालों पर चोट की है। 
शिक्षकों के नामों से ही यह चोट व्यंजित हो जाती है। इस निबंध में 
हिन्दी गद्य के प्रारंभिक रूप के भी वर्शन होते हैं, जिसमें व्याकरण संबंधी 
शिथिल्नताएँ विश्मान थीं। सोते में सोचता हूँ कि इस चलायमान शरीर 
का कुछ ठीक नहीं, “ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ, जिसने हमारी ऐसी 
पुती ” आदि। उतकी व्यंग्य शैली के भी दर्शन होते हैं। यथा: ' हम अपने 
दृष्ट मित्रों की सहायता को कभी न भूलेंगे कि जिनकी कृपा से इतना 
द्रव्य आया कि पाठशाला का सब खर्च चल गया और दस पाँच पीढ़ी तक 
हमारी संतात के लिये बच रहा | 


. अद्भुत अपूर्व स्वप्न 


आज रात्रि को पर्यक पर जाते ही अचानक आँख लग गई। सोते में 
सोचता हूँ कि इस चलायमान शरीर का कुछ ठीक नहीं। इस संसार में 
नाम स्थिर रहने की कोई युक्ति तिक्न आवे तो अच्छा है, क्योंकि यहाँ 
की रीति देख मुझे पूरा विश्वास होता है कि इस चपल जीवन का क्षण 
भर का भरोसा नही। ऐसा कहा भी है : 
एवॉस-श्वॉस पर हरि भजो बृथा स्वॉस मति खोय | 
ता जानें या श्वास को आवन होय ने होये || 

देखो प्मय-सागर में एक दिन सब संसार अवश्य मस्त हो जाएगा। 
कालवश शशि-सूर्य भी नष्ट हो जाएँगे। आकाश में तारे भी कुछ काल 
पीछे दृष्टि न आवेंगे। केवल कीर्ति-कमल संसार सरोवर में भत्ते ही रह 
जावे। और प्ब तो एक न एक दिन तप्त तवे की दूँद हुए बैठे हैं। इस 
हेतु बहुत काल तक सोच-समझ प्रथम यह विचारा कि कोई देवालय 
बना कर छोड़ जाऊँ,परंतु थोड़ी ही देर में समझ में आ गया कि इन 
दिनों की सभ्यता के अनुसार इससे बड़ी कोई मूर्खता नहीं और वह तो 
मुझे भन्नी-भाँति मातम है कि यही अंग्रेजी शिक्षा रही तो मंदिर की ओर 
मुख फेरकर भी कोई न देखेगा | इस कारण इस विचार का परित्याग 
करना पड़ा | फिर पढ़े-पड़े पुस्तक रचने की सूझी। परन्तु इस विचार में 
बड़े कटे निकले, क्योंकि बनाने की देर न होगी कि कीट 'क्रिटिक' काट 
कर आधी से अधिक निगल जाएँगे। यश के स्थान, अपयश प्राप्त होगा। 
जब देखा कि अब टूटे-फूटे विचार से काम न चलेगा, तब लाड़ली नींद 
को दो रात पड़ोसियों घर भेज आँखें बंद कर शंभु की समाधि लगा गया। 
अंत में एक मित्र के बल से अति उत्तम बात की पूँछ हाथ में पड गई। 


५ .पल्लव 


स्वप्न ही में प्रभात होते ही पाठशाला बनाने का विचार दृढ़ किया | परंतु 
जब बड़ी यैली में हाथ डाला, तो केवल ग्यारह गाड़ी ही मोहरें निकलीं | 
आप जानते हैं कि इतने मे मेरी अपूर्व पाठशाला का एक कोना भी नहीं 
बन सकता था। निवान अपने दृष्ट मित्रों की सहायता लेनी पड़ी। ईश्वर 
को कोटि धन्यवाद देता हूँ, जिसने हमारी ऐसी सुनी। यदि ईटों की और 
मोहर चितवा लेते तब भी तो दस-पाँच रेल रुपये और खर्च पड़ते। 
होते-होते सब हरि-कृपा से बन कर ठीक हुआ। इसमें जितना समस्त 
व्यय हुआ वह तो मुझे स्मरण नहीं है, परतु इतना अपने मुंशी से मैंने 
सुना था कि एक का अंक और तीन सौ सत्तासी शून्य अकेले पानी में 
पड़े थे। बनने को तो एक क्षण में सब बन गया था, परंतु उसके काम 
जोड़ने में परे पैंतीस वर्ष लगे। जब हमारी अपूर्व पाठशाला बन कर ठीक 
हुई, उसी दिन हमने हिमालय की कंवराओं में से खोज-खोंजकर अनेक 
उद्दंड पंडित बुलवाए। इस पाठशाला में अगणित अध्यापक नियत किए 
गए। परंतु मुख्य केवल ये हैं- पंडित मुग्धमणि शास्त्रीः तर्कवाचस्पति, 
प्रथम अध्यापक। पाखंड -प्रिय धर्माधिकारी, अध्यापक धर्मशास्त्र| प्राणांतक 
प्रसाद वैद्यराज, अध्यापक वैद्यकशास्त्र | लुप्त-लोचन ज्योतिषाभरण, 
अध्यापक ज्योतिषशास्त्र। शीलदावानल नीतिदर्पण, अध्यापक आत्मविद्या। 
इन पूर्वोक्त पंडितों के आ जाने पर अर्धरात्रि गए पाठशाला 
खोलने बैठे | उस समय सब इष्ट-मित्रों के सम्मुख उस परमेश्वर को 
कोटि धन्यवाद दिया, जो संसार को बना कर क्षण भर में नष्ट कर देता 
है और जिसने विद्या, शील, बल के सिवाय मान, मूर्खता, परद्रोह, 
परनिंदा आदि परम गुणों से इस संसार को विभूषित किया है। हम कोटि 
धन्यवादपूर्वक. आज इस सभा के सम्मुख अपने स्वार्थरत चित्त की प्रशंसा 
करते हैं, जिनके प्रभाव से ऐसे उत्तम विद्यालय की नींव पड़ी। उस ईश्वर 
की ही अंगीकार था कि हमारा इस पृथ्वी पर कुछ नाम रहे,नहीं तो जब 
द्रव्य की खोज में समुद्र में डूबते-डबते बचे थे तब कौन जानता था कि 
हमारी कपोल-कल्पता सत्य हो जाएगी। परंतु ईश्वर के अनुग्रह से हमारे 
सब संकट दूर हुए और अंत समय हमारी अभिलाषा पूर्ण हुईं। हम अपने 
दृष्ट-मित्रों की सहायता को कभी न भूलेंगे कि जिनकी कृपा से इतना 
द्रव्य आया कि पाठशाला का सब खर्च चल गया और दस-पाँच पीढ़ी तक 


अद्भुत अपूर्व स्वप्न 5 


हमारी संतान के लिए बच रहा। हमारे पुत्र-परिवार के लोग चैन से हाथ 
पर हाथ धरे बैठे रहें। हें सज्जनों, यह तुम्हारी कृपा का विस्तार है कि 
तन-मन से आप इस धर्मकार्य में प्रवृत्त हुए,नहीं तो मैं दो हाथ-पैर वाला 
बेचारा मनुष्य कैसे ऐसे दुष्कर कर्म को कर लेता, यहाँ तो केवल घर की 
मूँछें ही मूँछें थीं। कुछ मेढ, कुछ गंगाजल, काम आपकी कंपा से 
भली-भाँति हो गया | मैं आज के दिन को नित्य का प्रथम दिन मानता हूँ 
जो औरों को अनेक साधत से भी मिलता दुर्लभ है। धन्य है उत्त परमात्मा 
को जिसने आज हमारे यश के डहडहे अंकुर फिर हरे किए हैं। हे सुजन 
शभवचिंतको ! संसार में पाठशाला अनेक हुई होंगी, परंतु हरि कृपा से जो 
आप लोगों की सकल-पूर्ण कामधेतु यह पाठशाला है वैसी अचरज नहीं 
कि आपने इस जन्म में न देखी हो | होतहार बलवान है, तहीं तो कलिकाल 
में ऐसी पाठशाला का बनाना कठिन था। देखिए यह हम लोगों के भाग्य 
का उदय है कि ये महामुनि मुग्धमणि शास्त्री बिना प्रयास हाथ लग गए, 
जिनको सतयुग के आदि में इंद्र अपनी पाठशाला के निमित्त समुद्र और 
वन-जंगलों में खोजता फिरा, अंत में हार मान बृहस्पति को रखना पड़ा। 
हम फिर भी कहते हैं कि यह हमारे भाग्य ही की महिमा थी कि वे ही 
पंडितराज मृगयाशील श्वान के मुख से शश के धोखे बद्रिकाश्नम की एक 
कंदरा में पड़ गए। इनकी बुद्धि और विद्या की प्रशंसा करते विन में 
सरस्वती भी लजाती है। इसमें संदेह नहीं कि इनके थोड़े ही परिश्रम से 
पंडित मूर्ख और अबोध पंडित हो जाएँगे। है मित्र | मेरे निकट जो 
महाशय बैठे हैं इनका नाम पंडित पाखंड प्रिय है। किसी समय इस मेरे 
देश में इनकी बड़ी मानता थी। सब स्थ्री-पुरुषों को इन्होंने मोह रखा था | 
परंतु अब कालचक्र के मारे अंग्रेजी पढ़े हिन्चुस्तानियों ते इनकी बड़ी 
दुर्वशा की। इस कारण प्राण बचा कर हिमालय की तराई में हरित दूर्वा 
पर संतोष कर अपना कालक्षेप करते थे। विपत्ति ईश्वर किसी पर न 
डाले। जब तक इनका राज था दृष्टि बचाकर भोग लगाया करते थे | 
कहाँ अब श्वान, श्रृगाल के संग दिन काटे पड़े, परंतु फिर भी इनकी 
बुद्धि पर पूरा विश्वास है कि एक कार्तिक मास भी इनको लोग स्थित 
रह जाने देंगे तो हरिकृपा से समस्त नवीन धर्मों पर चार-पाँच विन में 
पानी फेर देंगे | 

इनसे भिन्न पंडित प्राणांतक प्रसाद भी प्रशंसनीय पुरुष हैं। जब तक 


6 पल्लव 


इस घट में प्राण है तब तक न किसी पर इतकी प्रशंसा बत पड़ी, न बन 
पड़ेगी। ये महावैद्य के नाम से इस प्तमस्त संसार में विख्यात हैं। चिकित्सा 
में ऐसे कुशल हैं कि चिता पर चढ़ते-चढ़ते रोगी इनके उपकार का गुण 
नहीं भूलता। कितना ही रोग से पीड़ित क्‍यों न हो,क्षण भर में स्वर्ग के 
सुख को प्राप्त होता है। जब तक औषधि नहीं देते केवल उसी समय तक 
प्राणी को संसारी व्यथा लगी रहती है। आप लोग कुछ काल की अपेक्षा 
कीजिए, इनकी चिकित्सा और चतुराई अपने आप प्रकट हो जाएगी। 
यद्यपि आपके अमूल्य समय में बाधा हुईं, परंतु यह भी स्वदेश की भलाई 
का काम था, इस हेतु आप आतुर न हृजिए और शेष अध्यापकों की 
अमृतमय जीवन कहानी श्रवण कीजिए | 

ये लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण बड़े उद्दंड पंडित हैं। ज्योतिष विद्या 
में अति कुशल हैं, कूछ नवीन तारे भी गगन में जाकर ये ढूँढ़ आए हैं 
और कितने ही नवीन ग्रंथों की भी रचना कर डाली है। उनमें 
तामिम्रमकरालय' प्रसिद्ध और प्रशंसतीय है। यद्यपि इनको विशेष दृष्टि 
नहीं आती, परंतु तारे इनकी आँखों में भली-भाँति बैठ गए हैं। 

रहे पंडित शीलदावानल नीतिदर्पण | इनके गुण अपार हैं! समय 
थोड़ा है, इस हेतु थोड़ा-सा आप लोगों के आगे इनका वर्णन किया जाता 
है। ये महाशय बालब्रह्मचारी हैं। अपने आयु भर नीतिशास्त्र पढ़ते-पढ़ाते 
रहे हैं। इससे नीति तो बहुत से महात्माओं ने पढ़ी थी, परंतु वेणु, 
बाणासुर, रावण, दुर्योधत, शिशुपाल, कंस आदि इनके मुख्य शिष्य थे 
और अब भी कोई कठिन काम आकर पढ़ता है तो अंग्रेज़ी न्‍्यायकर्ता भी 
इनकी अनुमति लेकर आगे बढ़ते हैं। हम अपने भाग्य की कहाँ तक 
सराहना करें। ऐसा तो संयोग इस संसार में परम दुर्लभ है। अब आप 
सब सज्जनों से यही प्रार्थता है कि आप अपने-अपने लड़कों को भेजें और 
व्यय आदि की कुछ चिंता न करें क्योंकि प्रथम तो हम किसी अध्यापक 
को मासिक देंगे नहीं और दिया भी तो अभी दस-पॉच वर्ष पीछे देखा 
जाएगा। यदि हमको भोजन की श्रद्धा हुई तो भोजन का बंधान बाँध देगे, 
नहीं तो यह नियत कर देंगे कि जो पाठशाला संबंधी द्रव्य हो उसको वे 
सब मिलकर बॉट लिया करें। स्त्री शिक्षा का जो विचार था, वह आज 
रात को हम घर पूछ लें तब कहेंगे। 

अब जिस किसी को हमारी पाठशाला में पढ़ना अंगीकार हो, यह 


अद्भुत अपूर्व स्वप्न 7 


समाचार सुनने के प्रथम, तार में खबर दें। नाम उनका किताब में लिख 
लेंगे, पढ़े जाओ चाह्टे मत जाओ। 


४ 


प्रश्न- अभ्यास 


प्रस्तुत निबंध का मुख्य प्रयोजन क्या है ? दिए गए विकल्पों में से 

कीजिए: 

(क) एक उत्तम पाठशाला की विशेषताओं का वर्णन। 

(ख) शिक्षा को व्यवसाय माननेवालों पर चोट । 

(ग) लेखक द्वारा संसार में अपनी यश-स्थापना की कामना-पूर्ति। 

(घ) अंग्रेजी शिक्षा के कारण धार्मिक श्रद्धा-विश्वास के हास पर,लेखक ,की 
चिंता। 

(ड) समालोचकों की प्रवृत्ति पर व्यंग्य। 

लेखक के मन में आए अन्य निचारो को छोड़ पाठशाला बनाने के विचार को 

ही क्यों पसंद किया ? 

पाठशाला मे नियुक्त अध्यापकों के कार्यक्षेत्र के आधार पर उनके नामों की 

प्तार्थतता सिद्ध कीजिए। 

पाठ के कुछ व्यंग्य कथनो को चुनकर उनके आधार पर सिद्ध कीजिए कि यह 

व्यग्य-प्रधान निःघ है| 

आधुनिक हिन्दी और इस निबंध में प्रयुक्त हिन्दी के अंतर को शब्व-रूपों और 

वाक्य-विन्याप्तों की दृष्टि से सोदाहरण स्पष्ट कीजिए | 

निम्नांकित कथनों के आशय संदर्भ सहित स्पष्ट कीजिए : 

(क) परतु इत विचार में बड़े कॉटे निकले, क्योकि बनाने की देर न होगी 
कि कीट क्रिटिक आधी से अधिक निगल जाएँगे| 

(ख) अब कालचक्र के मारे अंग्रेजी पढ़े हिन्दुस्तानियों ने इनकी बड़ी दुर्दशा 
की | इस कारण प्राण बचाकर हिमालय की तराई में हरित दूर्वा पर 
संतोष कर अपना काल क्षेप करते थे। 

(ग) आप लोग कुछ काल की अपेक्षा कीजिए, इनकी चिकित्सा और 
चतुराई अपने आप प्रकट हो जाएगी। 

(घ) इनसे तो नीति तो बहुत महात्माओ ने पढ़ी थी, किन्तु वेणु, बाणासुर, 
रावण, दुर्योधन, शिशुपाल, कंस आदि इनके मुख्य शिष्य थे। 

अद्भुत अपूर्व स्वप्न शीर्षक के औचित्य पर सोदाहरण अपने विचार प्रकट 

कीजिए। 


जैनेंद्र कुमार 


; (4905-88) 


जैनेंद्र का जन्म अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज में हुआ था ।.उत्होने मैट्रिक 
'तक की शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल् भे प्राप्त की| उत्तके वाद उच्च 
शिक्षा के लिए उत्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, किंतु 
. गांधी जी के आह्वान पर वे अध्ययत छोड़कर असहयोग आंदोलन मे 
शामिल हो गए। वे गांधी जी के जीवन-दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए, 
जिप्तकी झलक उनकी रचनाओं में भी पाई जाती है। 
जैनेंद्र जी हिन्दी साहित्य में अपने कथा-साहित्य के कारण प्रपिद्ध हैं| 
एक रात, वातायन, दो चिड़ियोँ , नीलम देश की राजकन्या' आदि 
उतके प्रसिद्ध कहावी संग्रह हैं। सुवीता',, कल्याणी, त्यागपत्र, 
परद्ध, जयवर्धन' आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं| 
कथा-ताहित्य के साथ-साथ जैतेंद्र ने अनेक उत्कृष्ट विवंधों की 
रचना की है। जैनेंद्र के विचार, प्रस्तुत प्रश्व, 'संस्मरण, समय 
और हम', इतस्ततः आदि रचनाओं में जीवन की विविध समस्याओं 
पर विचारों और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में उनकी मौलिकता के दर्शन 
होते हैं| 
जैनेंद्र जी को उनके मुक्तिवोध' उपन्याप्त पर साहित्य अकादमी ने 
पुरस्कृत किया। उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी 
संस्थान ते 984 ई. में उन्हें ' भारत-भारती ” पुरस्कार द्वारा सम्मानित 
किया | 
प्रस्तुत निबंध में कौन जैनेंद्र जी का विचारात्मक निबंध है जो 
परिप्रेक्ष्य तामक रचता-संग्रह से लिया गया है। इसमें लेखक ने रोचक 
कथात्मक शैली द्वारा यह दिखाया है कि मनुष्य विभिन्न धर्मों और 


0 गे कोन 


संप्रदायो के बाह्य विधि-विधानों से बँधा हुआ वहीं है और इनसे परे रह 
कर सहज, स्वाशाविक गनुष्य के रूप में जीवन बिता सकता हैं| 
सनातनधर्मी, जैव धर्मी, आर्यस्नगाजी, मुस्लिग, ईसाई आदि धर्मावलंवियो 
से लेखक की बातचीत और उन मभी के प्रति विनग्रता और सदाशयता 
के भाव ने निबंध को मर्मस्प्शी और विचारोत्तेजक वना विया है। 


2, मैं कौन ? 


मुझ पर बहुतों की कृपा है। इसके लिए मैं परमात्मा का और उन सबका 
कृतज्ञ हूँ। पर उन सबको संतुष्ट कर पाऊँ ऐसा मुझसे नहीं बतता | तब 
सोचता हूँ कि क्या करूँ? हितैषियों की कृपा और सद्भाव से वंचित मैं 
अपने को नहीं बनाना चाहता | लेकिन अगर मैं आज्ञा का मान रखने में 
असमर्थ सिद्ध होता हूँ तो क्या आशा करूँ कि उनसे असहमत रहूँ फिर 
भी वे मुझ पर कृपालु रहेंगे ! 

काम के लिए मेज पर बैठा ही था कि एक प्तज्जन आए। कई बार 
सभाओं में उन्हें देखा था| अच्छे वक्ता थे, स्थावीय सनातन धर्म संस्था के 
स्तंभ थे | पर मेरा उनका यह परिचय नवीन था। 

उन्होंने कहा - उस दिन मैंने आपका भाषण सुता था। सोचा, में 
आपसे मिल लूँगा। आप तो सनातन धर्म के सिद्धांतों को मानने वाले 
मालूम होते हैं। फिर शिखासूत्र क्यों धारण नहीं करते ! 

मैंते कहा-क्या इसी के लिए आपने कष्ट उठाया है? इस समय मेरे 
शिखा मूत्र नहीं हैं, यह जानता हूँ। किंतु इस कारण अच्छा बनने में 
मुझमें कुछ अक्षमता रहती है, ऐसा भी बोध मुझे नहीं है। लेकिन, कहिए 
मैं आपकी क्या सेवा करूँ? ठंडाई मँगाऊं? 

बोले-भारतवर्ष में हिन्दू हैं अथवा अहिद्ू हैं। व्यक्ति को तय कर 
लेता होगा कि वह क्या है। शिखासूत्र उतके बीच की रेखा है। आप उससे 
उदाप्तीन नहीं रह सकते | 

किन्तु मुझमें तत्संबंधी विशेष जागृति नहीं हुई। मैंने चाहा कि 
बताइए मेरे लिए क्या आज्ञा है। सेवा के लिए मैं प्रस्तुत हूँ। चोटी की 
बहस के मासल्े में मैं हारता हूँ। क्या यह संभव हो सकेगा कि वह मुझे 
अपने अनुसार ही रहने देंगे? 

पर उनका भी मत स्पष्ट था! बिता शिखासूत्र मैं भ्रष्ट रहूँगा, 


मैं कौन? 4] 


म्लेच्छ रहँगा। तब नरक में ही मुझे ठौर होगा और वह मेरे संबंध में 
आशाशील हैं, मुझ पर स्नेह रखते हैं। कैसे वे अपनी आँखों के सामने यह 
सहन करें कि मैं वरक के योग्य रहूँ? उनके प्रेम का तकाजा है कि वह 
मेरा उद्धार करें। 

अब क्‍या उनकी चिंता और प्रेम के लिए मैं उनका ऋणी न बनूँ? 
किंतु करूँ क्या? मैंने कहा-महाराज, क्या और कुछ 'मेरे लिए सेवा का 
आदेश नहीं दे सकते जो गुझसे हो सके ? 

वह अत्यंत निस्वार्थ सज्जन थे। मेरा उपकार ही चाहते थे | पैसा 
उन्हें दरकार न था, मेरी श्रद्धा उन पर अटूट थी। पर अपने से इनकार 
कर दूँ इतना असत्य मुझसे न हो सका और प्रस्तुत विषय के संबंध में 
मैंने उससे यही चाहा कि वह मुझ पर ही छोड़ दें। 

मेंने अंत में पाया कि वह रुष्ट हो गए हैं। मेरे यहाँ का जलपान 
उन्हें स्वीकार न हुआ और वह मुझे तज कर चले गए। 

मैं अपने काम में लगने को झुका-- 

कुछ देर बाद एक और महाशय आए। बातचीत आरंभ करके 
बोले-तो क्या आप आर्यसमाजी नहीं हैं? | 

मैंने कहा - हूँ तो नहीं, पर कहिए। 

कहने लगे -- बड़े खेद की बात है! 

मैंने माना खेद की बात हो सकती है। पर मुझसे क्या और कोई 
सेवा लेने की आज्ञा वह कृपया मुझे नहीं देंगे ? पर वे सबसे पहले यह 
चाहते थे कि बहस करके मैं उन्हें बतला सकूँ कि समझवार होकर मैं 
किस प्रकार आर्यसमाजी होने से बच सकता हूँ। हाँ, उन्होंने कहा, जिद 
का इलाज उनके पास नहीं है। पर यह निश्चय है, यदि आर्यधर्मी मैं नहीं 
बन सकता हूँ, तो अब से मेरी समझदारी पर उन्हें शंका होगी। 

मेरे लिए अपनी समझदारी पर अहंकार का मौका नहीं है। पर 
अपनी अज्ञानता को जानकर भी अपने ही प्रति विरुद्ध और विरुद्धाचारी 
बनूँ इतना दंभ मुझमें तहीं है। 

” “आर्यसमाज धर्म कल्याणकर है। सत्य है और जो कुछ भी वह कह 
सकें सब है। उतके वक्तव्य में मेरे लिए आपत्ति का तनिक भी अवकाश 
नहीं है। पर अपनी असमर्थता का मैं क्या बना सकता हूँ। निवेदत करते 
को मेरे पास अपनी लाचारी ही थी और मैंने कहा -- एक कम 


4.2 पल्लव 
आर्यक्षमाजी भी रहा तो कितना दुनिया का नुकसान होगा, क्‍योंकि वह 
बहुत नहीं है, इसलिए वह उसे सह लें | 

पर उल्होंने भी मुझ पर तरस्ष नहीं किया, रोष ही किया, और 
जव मेरे संबंध में निरे निराश होकर वह चले गए,तब मैं भी तनिक खिन्न 
हुआ और मेज पर झुका कि- 

एक जैन विद्वान्‌ की कृपा-दृष्टि इन दिनों मुझ पर आ गई थी। 
कुछ देर बाद वे पधारे। उन्हें भरोसा था कि मैं जैन हूँ और अभव्य नहीं 
हूँ। वह चाहते थे कि जैनत्व में प्रगाढ़ता प्राप्त करूँ| 

किन्तु यही उनका मन्तव्य था। जैन धर्म ही तो धर्म है और मुझे 
उसे धारण रखना होगा और गौरव के साथ प्रकट करते रहना होगा कि 
मैं जैन हूँ। 

मैंने जानता चाहा कि अगर वैसा करने में अशक्त होऊँ तो फिर 
उनके पास मेरे लिए कहाँ जगह है? उन्होंने बताया कि जो जैन नहीं वह 
अजैन है, अर्थात्‌ मिथ्यात्वी है। जब तक वह नर तन में है, तब तक वह 
उसे कलंकित करता है। इस योनि से छूटकर फिर उसे नरक अथवा 
तिर्यग यीनि में ही स्थान मिलेगा। 

नरक में जाने से अथवा तिर्यगू योनि से डरकर, क्‍या मैं आज 
अपने साथ झूठा आचरण करूँ? मैंने यही पंडित जी से कहा, नरक 
आएगा तो झूठ बोल कर उससे मैं अपने को कैसे बचा लूँ? यह कहकर 
इस बारे में मैंने उनसे क्षमा चाही। 

किन्तु उन्हें मेरा अपकार किसी प्रकार स्वीकार न था। मानव देह 
पाकर मैं उसे जैन धर्म के अमृत से वंचित रखूँ,यह पंडित जी कभी न 
होने देंगे। प्रेम की ताक़त के अधिकार को भी वह क्यों न मेरे ऊपर बरतें 
और मुझे सन्मार्ग पर लावें ? मैंने चाहा कि वे अवश्य ऐंसा करें, किंतु 
निवेदत किया कि यवि मैं अंत तक असुधार्य ही रहा तो अपना स्नेह वह 
मुझ पर से उठा न लें। 

चर्चा खासी देर तक चली पर अपने भाग्य को क्‍या करूँ। वह 
बेहद गरम होकर गए। 

मैं फिर मेज पर झुका- 

उस दिन जान पड़ता है काम' होता ही न था। उसी रोज एक 
मुसलमात सेहरबात भी आए, ईसाई पिता भी आ गए। मैं भोजन के 


मैं कौन ? (3 


समय को लाँघकर उनके साथ ही बैठा रहा। उन सबकी शुभाकांक्षा का 
मूल्य जानता हूँ। उनकी कृपा को भी अपने बस कभी नहीं खो सकता | 
मैंने उतको कहा कि वे मेरे पूज्य हैं, मेरे प्रति अपने में वे क्षमा भाव शेष 
रहने दें | यदि उनकी आज्ञा को ज्यों-की-त्यों पालने में असमर्थ हूँ तो भी 
उनका कणी हूँ। उनके वक्तव्यों में मुझे आपत्ति की अथवा आलोचना की 
गुंजाइश नहीं है। न समझें, मैं मुसलमान होने का या ईसाई होने का 
कायल नहीं हूँ। पर कुछ कहलाया ही जाऊं और वही कहलाया जाऊं, 
इसका आकर्षण मुझे नहीं है। पर इस कारण मुझे वह अपने से दूर 
बिल्कुल न मान लें। 

पर वे लोग भी अतिशय अप्रसन्‍ होकर ही यहाँ से गए और मैं 
फिर - 

अभी वे सब गए हैं। मैं नहीं जानता कि क्‍या मुझे हक़ है कि मैं 
उत सबकी सत्‌-अभिलाषाओं को वापस कर दूँ। लेकित, क्‍या कहूँ? खैर 
अब बारह बज गए हैं, मुझे इजाजत दीजिए कि मैं जरा स्वस्थ हो लूँ। 


भश्न-अभ्यास 


4. किसी भी मतावलंबी की बात लेखक स्वीकार नहीं करता | इससे लेखक की 
निम्नलिखित में से कौन-सी मनोवृत्ति प्रकट होती है : 
(क) धार्मिक मतों के प्रति अविश्वास 
(ख) अहंकार 
(ग) असमर्थता 
(घ) हठधर्मिता 
(3) मानवतावादी विचारधारा | 

2. क्या भनुष्य के लिए किसी घर्म के बाहय विधि-विध्ानों को अपनाना आवश्यक 
है? इस पाठ के आधार पर अपने विचार प्रकट कीजिए। 

3. सनातनधर्मी तथा आर्यसमाजी सज्जनों ने क्या-क्या तर्क देकर लेखक को 
प्रभावित करना चाहा? 

4. मुझ पर बहुतों की कृपा है। यह मानते हुए भी लेखक विभिन्न लोगों का 
कृपापात्र क्यों नहीं बन पाया ? 

5. यह निबंध विचार-प्रधान निबंध की कसौटी पर कहाँ तक खरा उतरता है ? 


पल्त़्व 


6, इस निबंध में सामान्य प्रचलित भाषा से हटकर कुछ नए प्रयोग किए गए हैं, 
जैसे- जो जैन नहीं वह अगैन है या “मुझ पर तरस नही किया'”| इस 
तरह के प्रयोगों का चयन कीजिए और उनका मानक रूप लिखिए। 

7. जैनेंद्र जी के वाक्य-विन्यास की किन्‍्हीं दो विशेषताओं का स्तोदाहरण उल्सेख 


कीजिए।| 


रामधारी सिंह 'दितकर' 


(4908-74) 


रामधारी पिंह दिनकर का जन्म बिहार राज्य के मुंगेर जिले के 
सिमरिया ग्राम में हुआ था। प्रतिष्ठा (आनर्स) के साथ बी.ए. करने के 
बाद उन्होंने कुछ दिनों के लिए एक उच्च विद्यालय में प्रधावाध्यापक के 
पद पर कार्य किया। उसके बाद वे प्रचार विभाग में अवर-निबंधक और 
उपनिदेशक के पदों पर स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तक कार्यरत रहे | कुछ 
प्तमय तक वे बिहार विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी रहे | 
!952 ई. में वे भारतीय संसद के पदस्थ निर्वाचित हुए। कुछ समय 
भागलपुर विश्वविद्यालय के उप-कुल्षपति भी रहे। भारत प्रकार के 
हिन्दी सलाहकार के रूप में एक लंबे अरसे तक हिन्दी के संवर्धन एवं 
प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करते रहे। संस्कृति के चार अध्याय" वामक 
पुस्तक पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और उर्वशी पर उतको ज्ञानपीठ 
पुरस्कार मिल्ा। भारत सरकार ते उन्हें पद्मभूषण' से तम्मानित 
किया | 

दिनकर' की प्रत्तिद्धि का मुख्य आधार उनका काव्य है और वे 
देश-विदेश में मुख्यतया कवि-रूप में ही प्रसिद्ध हैं। लेकिन वे गद्य -लेखन 
में भी अप्रतिम रहे और अनेक अनमोल ग्रंथ लिख कर उन्होंने: हिन्दी 
साहित्य की श्रीवृद्धि की। उनके गद्य में विषयों की विविधता और ऐशैज्ञी 
की प्रांजलता के दर्शन सर्वत्र होते हैं। उनका गद्य काव्य की भाँति ही 
अत्यंत सजीव एवं स्फूर्तिमय है। उन्होंने काव्य, संस्कृति, तामाजिक 
जीवन आदि विषयों पर बहुत ही मर्मस्पर्शी लेख लिखे हैं। उनकी प्रमुख 
रचनाएँ हैं : 


6 पल्लव 


काग्य कृतियाँ : रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, 
'रश्मिरथी,, सामधेनी, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हारे को 
हरिनामा आदि। 

गद्य कृतियाँ: पंस्कृति के चार अध्याय, मिट्टी की ओर, शुद्ध 
कविता की खोज, साहित्य मुखी, काव्य की भूमिका, 
अर्दनारीश्वर, उजली आग, देश-विदेश आदि।| 

इस पाठ में लेखक ने बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप में युधिष्ठिर के 
अनुताप का वर्णन किया है| विजयी होने पर भी हस्तिनापुर का हृदय 
विदारक दृश्य उनसे देखा नहीं जाता। इसी संदर्भ में लेखक युद्ध और 
हिंसा की भर्तता करता है और हिंसा को धर्म तथा संस्कृति के विनाश 
का कारण भी घोषित करता है| 


3. विजयी के आँसू 


(महाभारत के अनंतर महाराज युध्निष्ठिर के परिताप की कल्पना) 


कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो गया | लड़ाई के पहले वीरों की श्रेणी में जो 
भी गिते जाने के योग्य थे, वे प्राय: सब-के-सब युद्धभूमि में सो गए। 
जिस भूखंड पर कौरवों और पांडवों की मुठभेड़ हुई थी, वह आज लहू से 
लथपथ और ढंड-गुंडों से भयातक हो उठा है। भयानकता के बीच केवल 
भीष्म हैं जो शरशय्या पर जाग रहे हैं| 

अठारह अक्षौहिणी सेता की लाशों पर से रथ दौड़ाता हुआ मैं 
हस्तिनापुर की राजधानी मे आ गया हूँ, किंतु यह राजधानी वही नहीं है 
जिसमें दुर्योधत अपने भाइयों और मित्रों के साथ विवास करता था 
अथवा जहाँ हमने भी आनंद के कुछ वर्ष ब्रिताए थे। फूल सूख गए, 
हरियाली जल कर खाक हो गई, शाखाएँ और टहतियाँ खंड-खंड होकर 
नीचे पड़ी हैं और पत्तों का कहीं पता भी नहीं है। जो शेष है वह वाटिका 
नहीं, वाटिका का कंकाल है और यही कंकाल, उपवन की यही ठठरी, 
मेरे भाग्य में बदी थी जो विजय के हाथों मुझे पुरस्कार में मिली है| 

जब भीम की गदा की चोट खाकर नर-्व्याप्र दुर्योधत धराशायी 
हुआ, उसने मूच्छित होते-होते ललकार कर मुझसे कहा था, युधिष्ठिर ! 
वीरों को लेकर तो मैं स्वर्ग चला, अब विधवाओं को लेकर तुम राज 
करो। दुर्योधत की इस उक्ति की वेधकता उस समय मुझ पर प्रकट नहीं 
हुई थी। हम सबने स्तोचा था कि निराशा के अतिरेक से व्याकुल होकर 
दुर्योधन व्यंग्ववाण का सहारा ले रहा है, किन्तु आज मुझे स्ष्ट दीख रहा 
है कि उतने तनिक भी अत्युक्ति नहीं की थी। सचमुच ही भारत के सभी 
शूरमा विदा हो गए, जो विदा होते से बचकर पीछे रह गया है वह 
विधवाओं और निपूती माताओं का देश है। और यही वह देश है जिम 


।8 पल्‍लव 


पर विजेताओं को राज करता है। 

आज हस्तिनापुर की छत पर चढ़कर जब मैने चारो ओर दृष्टि 
डाली, तब ऐसा लगा, मानो मै किसी महाश्मशान में खड़ा हूँ। जिसकी 
कुरूप शांति मन में कॉटे चुभोती है और जिसका भीषण सुतसान दूर से 
भी भयानक लगता है। और इस सुनसान में मरघट की शांति के भीतर 
से एक आवाज उठती है जो मुझसे पूछना चाहती है कि युधिष्ठिर ! क्‍या 
तुम इसी शांति के लिए लड़ाई लड़ने नहीं गए थे? मेरे अपने ही कर्म 
व्यंग्य बनकर मुझ पर लोट रहे है। मेरी अपनी ही इच्छा और आकांक्षा 
तीर बन कर मुझे विदीर्ण कर. रही है। ऐसा लगता है कि गैने जो कुछ 
सोचा, सब गलत था, जो कुछ किया, सब दुष्कर्म था। शकुनि के साथ 
जुए की बाजी हार कर भी मन से मै हारा नहीं था, किंतु आज तो 
इतनी बड़ी लड़ाई जीतकर भी अनुभव होता है कि मैं सब कुछ हार 
चुका हूँ और पराजय की इस व्यथा का कोई निराकरण भी है, इसकी 
थोड़ी भी आशा नही दीखती। 

हस्तिनापुर में आज ऐसा कोई घर नहीं जिसमें बच्चों की 
किलकारियों की गज हो, जिसमें युवतियाँ हर्ष और उल्लास के गीत्त 
गाती हों और युवक आनंद के अट्ट्हास उठा रहे हों | राजधानी में अगर 
कोई आवाज सुनाई देती है तो वह चूड़ियों के टूटने की आवाज है, वह 
बिलख-बिलखकर रोने वाली निपूती माताओं की आवाज है, वह सिर 
और छाती पीटकर चीखती हुईं बहनों और विधवा पत्तियों की आवाज 
है| 

और जो हाल राजधानी का है, वही सारे देश का। अभी तक 
जहॉँ-जहाँ से समाचार आए हैं, उनसे तो यही ज्ञात होता है कि देश में 
शायद ही ऐसा कोई घर हो, जिसके दो-एक लाल इस महासंग्राम में बलि 
नहीं हुए हों। युद्ध के ताग ने प्रत्येक परिवार को डा है। महानाश की 
चितगारी हर एक छपर पर पड़ी है। हर एक घर से शोक का धुओँ उठ 
रहा है। 

भारतवर्ष को अपने महारथियों का बड़ा अभिमान था और आज 
से बीस-बाईस दिन पूर्व तक इस देश में जितने महारथी एक साथ 
विद्यमान थे, उतने तो इतिहास में और कभी, कदाचित्‌ ही, वर्तमान रहे 
होंगे। भीष्म, द्रोण और अश्वत्यामा, कर्ण, दुर्योधन और जयद्रथ तथा 


विजयी के आलू -? 


कृपाचार्य, कृतवर्मा, शल्य और भूरिश्रवा, सात्यकि, उत्तमौजा और 
युधामन्यु, द्रपद, विराठ, ध्ृष्टय्युम्म और चेकितान तथा घटोत्कच और 
कुंतिभोज-- इनके जोड़ के अतिरथी अब आगे शायद ही उत्पन्न हों। किंतु 
काल ने किसी को भी नही छोड़ा। सब युद्ध में उतरे और सव-के-सब 
उसी में विलीन हो गए। विधि-संयोग से युद्ध ने जिन्हें निगलने से इनकार 
कर दिया, उनगें पांडव-पक्ष के सात्यकि और श्रीकृष्ण तथा कौरव-पक्ष 
के कृतवर्मा, कृपाचार्थ और अश्वत्यामा-ये पाँच ही वीर शेष हैं। 

जब तक युद्ध चल रहा था, हम संग्राम की मादकता में विभोर थे 
और हमें यह सोचने का अवकाश ही नहीं था कि हम क्या कर रहे हैं । 
किंतु युद्ध के समाप्त होते ही यह स्पष्ट हो गया है कि हम जिम्न कर्म गे 
इतने उत्साह से लगे हुए थे, वह असल में अत्यंत गहित कर्म था और 
उसे धर्म का 'विशेषण देना धर्म का नितांत अपमान करना है। 

यह सत्य है कि दोनों पक्षों के वीर इस युद्ध को धर्मयुद्ध माव कर 
लड़ रहे थे, किंतु धर्म पर दोनों में से कोई भी अडिग नहीं रह सका | 
लक्ष्य प्राप्त हो चाहे न हो, किंतु हम कुमार्ग पर पाँव नहीं. रखेगे' इस 
निष्ठा की अवहेलना दोनों ओर से हुई और दोनों पक्षों के सामने साध्य 
प्रमुख और साधन गौण हो गया। प्यारे अभिमन्यु की हत्या पाप से की 
गई तो भीष्म, द्रोण, भूरिश्नवा और स्वयं दुर्योधन का वध भी पुण्य से 
नहीं हुआ | जिस युद्ध में भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण वर्तमान हों, उस युद्ध 
में भी धर्म का पालन नहीं हो सके, इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है 
कि युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता | हिंसा का 
आदि भी अधर्म है, मध्य भी अधर्म है और अंत भी अधर्म है। जिसवी 
आँखों पर लोभ की पट्टी नही बँधी है, जो क्रोध, आवेश अथवा स्वार्थ मे 
जाकर अपने कर्तव्य को भूल नहीं गया है, जिसकी ऑख साधना वी 
अनिवार्यता से हटकर साध्य पर ही. केंद्रित नहीं हो गई है, वह युद्ध जैसे 
मलिन कर्म में कभी भी प्रदृत्त नहीं होगा। युद्ध में प्रवृत्त होता ही इस 
बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने रागों का वास बन गया है। फिर जो 
रागों की दासता करता है, वह उनका नियंत्रण कैसे करेगा? 

व्यास और भीष्म तथा स्वयं श्रीकृष्ण भी मुझे बार-बार समझा रहे 
हैं कि मेरी यह वेदता व्यर्थ है, मेरा यह अनुताप आधारविहीन है, क्योकि 
युद्ध को निमंत्रण हमने नहीं दिया, वह बरबस हमः पर थोपा गया थ!। 


20 पल्‍लव 
अत्याचार दुर्योधन ने मचा रखा था, हम उसका निराकरण खोजते हुए 
अपनी इच्छा के विरुद्ध युद्ध में आ मिरे। किंतु यह मेरी शंकाओं का 
समाधान नहीं है। जीवन की सार्थकता किसी भी ध्येय की प्राप्ति में नहीं, 
उसकी ओर निरंतर सम्मार्ग पर चलते रहने में है। हमारे पाँय कहाँ पहुँच 
रहे हैं यह प्रश्त मुख्य नहीं हो सकता, मुख्य बात तो यही है कि हमारे 
पाँव किस मार्ग पर पड़ रहे हैं।और अगर यह कहिए कि विजय के लिए 
युद्ध अवश्यंभावी है, तो विजय को मैं कोई बड़ा ध्येय नहीं मान सकता | 
जिस ध्येय की प्राप्ति धर्म के मार्ग से नहीं की जा सकती, वह या तो 
बड़ा ध्येय नहीं है अथवा अगर है तो फिर उसे पाप के मार्ग से पाने का 
प्रयास व्यर्थ है। संग्राम के कोलाहल में चाहे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा हो, 
किंतु आज मैं अपनी आत्मा की इस पुकार को स्पष्ट सुन रहा हूँ कि 
युधिष्ठिर | तुम जो चाहते थे वह वस्तु तुम्हें नहीं मिली| एक-एक कर 
तुम्हारे सारे शत्रु विनष्ट हो गए किंतु स्वयं नष्ठ होते-होते उन्होंने उस 
दुनिया को भी भली-भाति बरबाद कर दिया, जिस पर तुम राज करना 
चाहते थे। इस जर्जर और विषण्ण विश्व की वेदना उनके लिए नहीं है 
जो मर चुके हैं, बल्कि उतके लिए है जिन्हें मृत्यु ने उगल दिया है। 
लड़ाई से पहले तुम वुःखी थे किंतु लड़ाई के बाद तुम और दुःखी रहोगे। 
इस प्रकार यह विजय असल में तुम्हारी दोहरी हार है। 

अर्जुन, श्रीकृष्ण और अन्य बहुतेरे लोग तन से जीवित किंतु मन 
से निर्जीव, इस युधिष्ठिर को खीचकर सिंहासन के पास ले आए हैं। किंतु 
मुझे अब तक यह नहीं सूझता है कि अपने पश्चाताप को कहाँ छिपाऊँ ? 
और क्या करूँ कि देश के अगणित नर-नारियो के ऑसू शीघ्र-से-शीघ्र 
सूख जाएँ और उतके अधरों की लुप्त मुसकान एक बार फिर से लौट 
आए। केवल भीष्य ही नहीं, मुझे लगता है, भारत की विशाल संस्कृति 
ही आज शरशसय्या पर सोई हुई है। कौन है वह उपाय जिससे यह संस्कृति 
मृत्यु के गुख में पड़ते से बचाई जा सकती है? मेरी सबसे बड़ी चिंता यह 
है कि संग्राम तो जैसे-तैसे समाप्त हो गया कित्तु उससे देश भर में 
मार-काट की जो मानसिकता फैली है, उसका क्‍या होगा 2 क्‍या लोग 
हिंसा के इस खेल को दुहराते जाएँगे अथवा यह विचार कर शांति से 


काम लेगे कि शत्रुओं का भी मस्तक उतारना बर्बरता और जंगलीपन का 
काम हैं| 


[जी के आम ) 


एप 


धण अचय 


किया 


प्रश्न-अभ्यात्त 


, युधिष्ठिर के संताप के विभिन्न कारणों को दृष्टि में रखते हुए उसकी 


विशेषताओं पर प्रकाश डालिए । 
'युप्रिष्िर ! वीरो को लेकर तो मैं स्वर्ग चला, अब विधवाआं को लेकर तुम 
राज करो, यह उक्ति किसकी है ? इसमें छुपे व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए। 


, युद्ध की समाप्ति के बाद हस्तिनापुर की राजघानी के हुदय विदारक दृश्य को 


अपने शब्दों में लिखिए। 


. हम जिस कर्म में इतने उत्साह से लगे हुए थे, वह असल मे गहित कर्म था 


और उसे धर्म का विशेषण देना धर्म का नितांत अपमान करना है।'' उपर्युक्त 
कथन की व्याख्या कीजिए। 


. “दोनो पक्षों के सामने साध्य प्रमुख और साधन गीण हो गए।” कथन का 


तात्पर्य ध्ष्ट कीजिए। 


, निम्नांकित उक्तियों का आशय घ्ष्ट कीजिए : 


(क) हिंसा का आदि भी अधर्म है, मध्य भी अधर्म है और अंत भी अपर्म 
है।' 

(ख) जीवन की सार्थकता किसी भी ध्येय की प्राप्ति मे नही, उत्तकी ओर 
निरंतर सन्‍्मार्ग पर चलते रहने गे है।' 

(ग) भारत की विशाल संस्कृति ही आज शरशय्या पर सोई हई है।' 


, यह विजय असल मे तुम्हारी दोहरी हार है।' युधिष्ठिर ने ऐसा क्यों कहा ? 
, युधिष्ठिर के परिताप से विश्व शांति के लिए कया संदेश उभरकर सामने आता 


है ? 


, युद्ध के पूर्व और युद्ध के उपरांत युध्रिष्ठिर की मतःस्थिति की तुलना कीजिए। 
0, 


'पारे अभिमन्यु की हत्या पाप से की गई तो भीष्म, द्रोण, भूरिश्रवा और खय॑ 
दुर्षोाधन का वध भी प्रृण्य से नहीं हुआ। इन लोगों का वध्च किप्त अनीति से 
हुआ, अध्यापक की सहायता पे जानकारी प्राप्त कीजिए। 
बुद्ध कभी भी धर्म के पथ १९ रहकर लड़ा नहीं जा सकता।'” इस विषय पर 
वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित कीजिए! 


रघुवीर सिंह 
(908 ई.) 


रघृवीर सिंह का जन्म पतीतामऊ (मध्यप्रदेश) में हुआ था। उनके पिता 
सीतामऊ रियासत के महाराजा थे | उतकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई 
और उच्च शिक्षा होलकर कॉलेज, इंदौर तथा आगरा विश्वविद्यालय में 
हुईं। “मालवा में युगांतरँ नामक शोध-ग्रंथ पर उतको आगरा 
विश्वविद्यालय से डी. लिंट, की उपाधि प्राप्त हुई| इतिहास के अच्छे 
विद्वान्‌ होने के स्ताथ-साथ वे अच्छे हिन्दी गद्य लेखक भी हैं। उनकी 
रचनाएँ निम्नलिखित हैं- 

रर्व मध्यकाल्लीत भारत , मालवा में युगांतर , पूर्व आधुनिक 
राजप््यान (इतिहास ग्रंथ), शेष स्मृतियाँ , सप्तदीप, बिखरे फूल , 
जीवन-कंण (साहित्यिक कृतियाँ) | 

रघुवीर पिंह की साहित्यिक रचताओं का आधार भी इतिहास ही 
है किंतु इतिहास के शुष्क तथ्यों को उनकी लेखती ने सजीव और रोचक 
बना दिया है। भाषा में खड़ी बोली का प्रॉंजल रूप विद्यमान है। भाषा 
और एब्दों के प्रति इनका कोई आग्रह नहीं है। कहीं भाषा यदि 
मृस्कृत-निष्ठ हो गई है तो कहीं उर्दू-बहुल और कहीं-कहीं उसमें 
बोलचाल का रस भी मिलता है। प्राचीन भारतीय इतिहास पर लिखते 
समय भाषा का संस्कृत-निष्ठ होना तथा मध्यकालीन बादशाहों-इमारतों 
करा वर्णन करते हुए उर्दू-वहुल हो जाता स्वाभाविक है| 

उनके निबंधों को भावात्गक शैल्ली के निबंधों की कीटि में रखा 
जाता है। तिदंधों में रोचकता, चित्रात्मकता तथा अलंकारिता उनकी 
शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्त्र के शब्दों में 
“ उतके भावात्मक प्रद॑ंधों की शैली बहुत हीं भार्मिक एवं अनूठी है।' 


फतहपुर सीकरी 23 


'फतहपुर सीकरी' निबंध उनकी प्रसिद्ध पुस्तक शेष स्मृतियाँ 
से लिगा गया है। इसमें लेखक ने फतहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे को 
विजय तोरण न कहकर अकबर का स्वप्न-स्मारक कहा है। बुलंद दरवाजे 
से जुड़ी मुगुलकालीन इतिहास की अनेक घटनाओं का वर्णन करते हुए 
लेखक ने अकबर की महानता फा परिचय भी दिया है। 


4. फतहपुर सीकरी 


संतौर का सबसे बड़ा विजय-तोरण, वह बुलंव दरवाजा, छाती विकाले 
दक्षिण की ओर देख रहा है। इसने उन मुग़ल योद्धाओं को देखा होगा जो 
सर्वप्रथम मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के लिए वक्षिण की ओर बढ़े थे । 
इसने विद्रोही औरंगजेब की उमड़ती हुईं सेना को धूरा होगा, और पाम्त 
ही पराजित दारा के स्वरूप में अकबर के आदर्शों का पतन भी इसे 
देखना पड़ा होगा। अंतिम मुग़लों की सेनाएँ भी इसी के सामने होकर 
निकली होंगी। वे प्ेताएँ जिनमें नर्तकियाँ और ज़ियाँ भी रणक्षेत्र पर 
जाती थीं और रणक्षेत्र को भी विज्ञासभूमि में परिणत कर देती थी। यदि 
आज यह दरवाजा अपने संस्मरण कहने लगे, पत्थरों का यह ढेर बोल 
उठे, तो भारत के न जाने कितने अज्ञात इतिहास का पता लग जाए 
और न जाने कितनी ऐतिहासिक त्रुटियाँ ठीक की जा सकें | 

यह एक विजय-तोरण है, खानदेश की विजय का स्मारक | किंतु 
यदि देखा जाए तो यह दरवाजा अकबर द्वारा भारतीय सभ्यता पर प्राप्त 
की गई विजय का ही एक महान्‌ स्मारक है। अकबर ने अपने हृदय की 
विशालता को इस दरवाजे की विशालता में व्यक्त किया है: 

यह संसार एक पुलिया है, इसके ऊपर से निकल जा, किंतु इस 
पर घर बनाने का विचार मन में न ला। जो यहाँ एक घंटा भर भी 
ठहरने का इरादा करेगा,वह चिरकाल तक यहाँ ही ठहरने को उत्सुक हो 
जाएगा। प्ांस्तारिक जीवन तो एक घड़ी भर का ही है, उसे ईएवर-स्मरण 
तथा भगवत्‌शक्ति में बिता, ईश्वरोपासता के अतिरिक्त सब कुछ व्यर्थ 
है, सब कुछ असार है।' 

सांसारिक जीवन की असारता संबंधी इन पंक्तियों को एक विजय 
तोरण पर वेखकर कृतृहल होता है। अकबर मानव जीवन के रहस्य को 
ढूँढ़ निकालने तथा दो पूर्णतया भिन्न सभ्येताओं का मिश्रण करने निकला 


फतहपुर सीकरी 25 


था, किंतु वह वास्तविक वस्तु तक नहीं पहुँच पाया, गशृगतृष्णा के जल 
की नाई उन्हें ढूँढ़ता रहा और उसे अंत तक उनका पता न मिल्ला। जीवन 
भर अकबर भारतीय तथा मुस्लिम सभ्यताओं के सम्मिश्रण का स्वप्न 
देखता रहा। यह एक सुखद स्वप्त था। अतः जब अकबर के उस 
मानव-जीवन-स्वप्न का अंत हुआ तब सभ्यता की यह स्वष्निल विजय भी 
नष्ट हो गई और वह सम्मिश्रण केवल एक स्वप्न-वार्ता तानी की एक 
कहानी मात्र बन गया। बुलंद दरवाजा उसी सुखद स्वप्न की एक स्पृति 
है, एवं इसे विजय-तोरण न कहकर स्वप्न ध्मारक कहना अधिक 
उपयुक्त होगा। 

उस दरवाजे में होकर, उस स्वप्न को याद करते हुए, हम एक 
ऑगन में जा पहुँचते हैं, सामने ही दिखाई पड़ती है एक सुंदर श्वेत कब्र | 
यह उस साधु की समाधि है जिसने अपने पुण्य को देकर मुगल घराने को 
आरंभ में ही नष्ट होने से बचाया था |* अपनी सुंदरता के लिए, अपनी 
कला की दृष्टि से, यह एक अनुपम अद्वितीय कृति है। समस्त उत्तरी 
भारत के भिन्न-भिन्न धर्मातुयायी हिन्चू-मुसलमान आदि प्रति वर्ष दस कृब्र 
पर खिंचे चले आते हैं, वे सोचते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीते जी अकबर 
को भिक्षा दी, क्या उसी व्यक्ति की आत्मा स्वर्ग में बैठी उनकी छोटी-सी 
इच्छा भी पूर्ण न कर सकेगी ? 

और, सामने ही है वह मस्जिद, जो यद्यपि पूर्णतया मुस्लिम ढंग 
की है और जो अपनी सुंदरता के लिए भी बहुत प्रख्यात नही है, तथापि 
वह एक ऐसी विशेषता के लिए विख्यात है जो किसी दूसरे स्थान को 
प्राप्त नही हुई। इसी मस्जिद ने एक भारतीय मुसल्मान सम्राट को 
उपदेशक के स्थान पर खड़ा होकर प्रार्थना करते देखा था। भारतीय 
मुस्लिम साम्राज्य के इतिहास में यह एक अनोखी-अद्वितीय घटना थी, 
और वह घटना इसी मस्जिद में घटी थी । 

अकबर को सूझी थी कि इस्लाम धर्म की असहिष्णुता को मिटा दे, 
उसकी कठोरता को भारतीय सहिष्णुता की सहायता से कम कर दे। क्यों 
न वह भी प्रारंभिक खलीफाओ के समान स्वयं धर्माधिकारी के उच्चासन 


* प्रसिद्ध है कि शेख सलीम चिश्ती नामक एक सूफी फकीर के आशीष से अकबर को पुत्र की प्राप्ति 
हुईं थी। फकीर के नाम पर अकबर ने उस पुत्र का नाम सलीम रखा जो बाद मे जहॉगीर नाम ऐ 
बादशाह बना | 


26 पतलबव 


पर खड़ा होकर सच्चे मानव धर्म का प्रचार करे। उसके.साथ अबुल फूज़ल 
और फैजी ने उसके आदर्श को सराहा | और उस दिन जब पूरी-पूरी 
तैयारियाँ हो गईं तब अकबर पूर्ण उत्साह के साथ उस उच्चासन पर 
चढ़कर प्रार्थता करने लगा : 

“उस जगत्‌-पिता ने मुझे साम्राज्य दिया | उसने मुझे बुद्धिमान, 
वीर और शक्तिशाली बनाया | उसने मुझे दया और धर्म का मार्ग सुझाया 
और उसी की कृपा से मेरे हृदय में सत्य के प्रति प्रेम का सागर हिलोरें 
भरने लगा | कोई भी मानवीय जिह॒ग़ा उस परमपिता के स्वरूप, गुणों 
आदि का पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकती | अल्लाहो अकबर ! ईश्वर 
महात्‌ है! 

अकबर ने स्वप्त देखा था, जिसमें वह एक महात्मा तथा नवीन 
धर्म-प्रचारकत की तरह खड़ा उपदेश दे रहा था और उसकी समस्त प्रजा 
स्तब्ध खड़ी उसके उपदेश को एकाग्रचित्त हो सुन रही थी। किन्तु जीवन 
की वास्तविकता की टक्कर खाकर उसका वह स्वप्न भंग हो गया, उसे 
प्रथम बार ज्ञात हुआ कि स्वप्नलोक भौतिक संसार से दूर एक ऐसा स्थान 
है, जहाँ मनुष्य अपनी इच्छाओं तथा आकांक्षाओं के साथ स्वच्छंदतापूर्वक 
खेल सकता है, किन्तु उन इच्छाओं का भौतिक जगत्‌ मे कुछ भी स्थान 
नहीं है| 

और, यह है उस अकबर का दीवान-ए-खास | बाहर से तो एक 
साधारण दुमंजिला मकान बीख पड़ता है, कित्तु सचमुच में यह भारतीय 
कला का एक अदवूभुत नसूना है। एक ही स्तंभ पर सारी ऊपरी मंजिल 
खड़ी है। उसे निर्माण करने में भारतीय कारीगरों ने बहुत बुद्धि लगाई 
होगी। अकबर के समय इस मकान में क्या होता था ? इस विषय पर 
इतिहासकारों में मतभेद है कि यहीं धार्मिक वाद-विवाद होते थे या नहीं 
कुछ का कथन है कि इसी महान्‌ स्तंभ पर बैठकर अकबर विभिन्न 
धर्मानुयायियों के कथन सुवा करता था और वे धर्मातुयायी नीचे चारों 
ओर बैठे बारी-बारी से अपने-अपने धर्म की व्याख्या करते थे | 

अकबर का मस्तिष्क विश्व-बंधुत्व तथा मानव-प्रातृत्व के विचारों 
का पूर्ण आगार था । भिन्न-भिन्न धर्मों का भीषण संघर्ष देखकर उसके इन 
विचारों को भयंकर ठेस लगती थी, कठोर आघात पहुँचता था। कुछ ऐसे 
मूल तत्त्वों का संग्रह कर वह एक ऐसे मत को प्रारंभ करना चाहता था, 


फतहपुर सीकरी 27 


जहाँ किसी भी प्रकार का वैषम्य न हो, जिसमें कोई धार्मिक संकीर्णता न 
पाई जाए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह विभिन्न धर्मानुयायियों के 
कथन सुना करता था। उस महान्‌ स्तंभ की ही तरह “ईश्वर एक है ' 
इस एक सत्य पर ही अकबर ने दीन-ए-इलाही का महान्‌ भवन-निर्माण 
किया। ज्यों-ज्यों यह स्तंभ ऊपर चढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसका आकार 
बढ़ता जाता है और अंत में ऊपर पहुँचकर एक ऐसा स्थान आता है, 
जहाँ पर धर्मातुयायी समान अवस्था में भाई-भाई की तरह मिन्न सकें । 
उस महान्‌ धर्म दीन-ए-इलाही में जा पहुँचने के लिये अकबर ने चार 
राहें बनाई जो हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाइयों को सीधे 
विश्वबंधुत्व की उस्त विशद्‌ परिधि में लें जा सकें | 

यह दीवान-ए-खास एक तरह से अकबर के दीन-ए-इलाही का 
मूर्तिमात स्वरूप है। बाहय दृष्टि से यह एक साधारण वस्तु दीख पड़ती 
है, किन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाए तो यह अपने ढंग का निराला ही है। इसी 
भवन में दीन-ए-इलाही का प्रारंभ हुआ था और दीन-ए-इलाही' के समान 
ही यह भवन एक परित्यक्त, उपेक्षित तथापि एक संपूर्ण आदर्श है। 

दीवान-ए-खास के पास ही वह चौकोर चबूतरा है, जहाँ बादशाह 
अपनी साम्राज्ञियों तथा अपने प्रेमी मित्रों के साथ जीवित गोटों का चौसर 
खेला करते थे। प्रत्येक गोट के स्थान पर एक सुंदर दासी खड़ी रहती 
थी। पूर्णिमा की रात को जब समस्त संसार पर शीतल चाँदनी छिटकी 
होती, उस समय उस स्थान पर चौसर का वह खेल कितना मादक रहा 
होगा। 

इस स्वप्नलोक में एक स्थान वह भी है, जहाँ अकबर अपनी सारी 
श्रेष्ता, अपने सारे सयानेपत को भूलकर कुछ समय के लिए 
आँखमिचौनी खेलते लगता था। अकबर के वक्षस्थल में भी एक छोटा-पा 
हृदय धड़कता था। अपने महान्‌ उच्चपद की महत्ता का भार निरंतर 
वहन करते-करते कई बार वह शैथिल्य का अनुभव करता। आखणझों पहर 
सम्नाट रहकर मानव जीवन से दूर गौरव और उच्च पद के ऊपर 
रेगिस्तान में पड़ा-पड़ा अकबर तड़पता था। उसका हृदय उन कृत्रिम 
बंधतों से जकड़ा हुआ फड़फड़ाता था। इसी कारण जब उस भावुक हृदय 
में विद्रोहागेत धधक उठती थी, तब कुछ समय के लिए अपने पद की 
महत्ता तथा गौरव को एक ओर रखकर वह सम्राट भी बालकों के उस 


20 पल्ल१५ 


सुखपूर्ण भोले-भाले संसार में घुस पड़ता था, जहाँ मनुष्य मात्र, चाहे वह 
राजा हो या रंक, एकसमान हैं और सब साथ ही खेलते हैं। बालकों के 
साथ उतके उस अनोखे लोक में विचर कर अकबर वह जीवन-रस पीता 
था, जिसके बिना साम्राज्य के उस गुरुतम भार से दब कर वह कभी का 
इस संसार से विदा हो गया होता | 

सीकरी का सीकर सूख गया, उसके साथ ही मुस्लिम साम्राज्य का 
विशाल वृक्ष भी भीतर ही भीतर खोखला होने लगा। करोड़ों पीड़ितों के 
तपतपाए आँसुओं से सींचे जाकर उस विशाल वृक्ष की जड़ें मुर्दा होकर 
ढीली हो गई थीं, अतः जब अराजकता, विद्रोह तथा आक्रमण की भीषण 
आँधियाँ चलने लगीं, युद्ध की चमचमाती हुईं चपला चमकी, पराजय 
रूपी वज्पात होने लगे तब तो यह साम्राज्य रूपी वृक्ष उखड़कर गिर 
पड़ा, टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया और उसके अवशेष, विलास और 
ऐश्वर्य का वह भव्य ईंधन, असहायों के विश्वासों तथा शहीदों की भीषण 
फुंकारों से जलकर भस्म हो गए। जहाँ एक सुंदर वृक्ष खड़ा था, जो 
संसार में एक अतुपम वस्तु थी, वहाँ कुछ ही शताब्दियों में रह गए 
गंभीर गहवर, उस वृक्ष के कुछ अधजले झुलसे हुए यत्र-तत्र बिखरे टुकड़े 
तथा उस विशाल वृक्ष की मुट्ठी भर भस्म ! सीकरी के खंडहर उसी 
भस्म को रमाए छड़े हैं। 

सब कुछ सपना ही तो था . . . देखते ही देखते विल्लीन हो गया । 
दो आँखों की यह सारी करामात थी। एकाएक झोंका आया, अकबर 
मानो सोते से जग पड़ा। स्वनलोक को छोड़कर भौतिक संसार में लौट 
आया | स्वष्न भंग हो गया और साथ ही स्वप्न लोक भी उजड़ गया , . . 
और तब रह गई उतकी एकमात्र शेष स्मृति | किन्तु दो आँखें - अकबर 
की ही आऑँखें- ऐसी थीं जिन्होंने यह सारा स्वप्न देखा था, जिनके सामने 
ही इस स्वप्न का सारा नाठक कुछ काल के लिए ही क्यों न हो -- एक 
सुंदर मनोहारी नाटक खेला गया था, , . . जिसमें अकबर स्वयं एक पातऋ 
था, उस स्वप्नलोक के रंगमंच पर पूरी शात और अदा के साथ अपना 
पार्ट खेलता था। उन दो आँखों के फिरते ही, उनके बंद होने के बाद उस 
स्वप्न की रही सही स्मृतियां भी लुप्त हो गईं। जो एक समय सच्ष्ची घटना 
थी, जो बाद में स्वप्ममारत्र रह गया था, आज उसका कुछ भी शेष न 
रहा। अगर कुछ बाकी बच। है तो केवल वह सुनसान भग्न रंगमंच, ० हाँ 


फतहपुर सॉकरा 29 


यह दिव्य स्वप्म आया था, जहाँ जीवन का यह अदूभुत रूपक खेला गया 
था, जहाँ कुछ काल के लिए वह महान्‌ भारत विजयी सम्राट अपनी 
महत्ता को भूल कर, अपने गौरव को ताक पर रखकर, एक साधारण 
मानव बन जाता था, रंगरेलियाँ करता था, बालक की तरह उछलता 
था, जीवन के साथ ऑखमिचोनी खेलता था और अमरत्व के सपने 
देखता था। सीकरी ही वह स्थान है जिसे देखकर मालूम होता है कि 
मनुष्य कितना ही महान्‌ और बड़ा क्‍यों न हो जाए, उसकी भी छाती में 
एक कोमल भावुक हृदय धड़कता है, उस दिल में भी अनेक बार 
आकांक्षाओं के भीषण संग्राम होते. हैं, ऐसे पुरुष को भी मानवी दुःख-दर्द, 
सांसारिक कामनाएँ तथा भौतिक वासनाएँ सताती हैं। 

शताब्दियों बीत गईं और आज भी सीकरी के वे सुंदर रंगीले 
खंडहर खड़े हैं। उस नवजात शिशु नगरी ने केवल पन्द्रह वर्ष ही श्रृंगार 
किया, और फिर उसके प्रेमी ने उसे त्याग दिया, उसने उसे ऐसा भुला 
दिया कि कभी भूल से भी लौटकर मुँह नहीं विखाया। अकबर के समय 
में ही उसने वैभव को त्यागकर विधवा-वेश पहिन लिया था। और 
अकबर की मृत्यु होते ही तो सब कुछ लुट गया, हृदय विदीर्ण हो गया। 
भारत-विजेता, मुग़ल-साम्राज्य के निर्माता, महान्‌ अकबर की प्यारी 
नगरी का वह निर्जीव शरीर शताब्दियों से पड़ा धूल-धूसरित हो रहा है। 


प्रश्त-अभ्यास! 


. बुलंद दरवाजे से जुड़ी मुगलकालीन इतिहास की किन घटनाओं की ओर 
लेखक ने संकेत किया है ? 

2. अकबर ने विजय-तोरण पर संसार की असारता को प्रकट करनेवाक्ली 
पेक्तियाँ क्यों अंकित कराई। उन पंक्तियों में निहित विचारों को भी स्पष्ट 
कीजिए | 

3. लेखक की दृष्टि में बुलंद दरवाज़े को विजय-तोरण न कहकर स्वणस्मारक 
कहना क्‍यों अधिक उपयुक्त है ? 

4. अकबर का स्वप्न क्या था ? वह कैसे भंग हो गया ? 

5. प्रस्तुत पाठ के आधार पर अकबर के घ॒र्म संबंधी विचारों पर प्रकाश डालिए। 
भारत की वर्तमान परिस्थितियों मे उनकी उपयोगिता पर विचार कीजिए। 


पलल्‍लव 


मनुष्य कितना भी बड़ा और महान्‌ क्यों न हो जाए उसकी भी छाती में एक 
कोमल भावुक हृदय धड़कता है। अकबर की प्रकृति का परिचय देते हुए 
लेखक के इस्त कपन की व्याख्या कीजिए। 

फतहपुर प्तीकरी की वास्तुकला की कुछ विशेषताएँ बताइए। 

जिस शैली में यह पाठ लिखा गया है उस्ती शैली मे किसी अन्य ऐतहिसिफ 
इमारत का वर्णन कीजिए। 


. अवधारक भी' का प्रयोग किप्त दशा में होता है ? लेखक ने प्रथम अनुच्छेद 


में इसका कितनी बार प्रयोग किया है और किस्त उद्देश्य से ! 

लेखक ने अपनी शैली को प्रभावशाली बनाने के लिए निम्नांकित युक्तियाँ 
अपनाई हैं। इस पाठ में पे प्रत्येक के दो-दो उदाहरण दीजिए: 

(क) विशेषणों का प्टीक प्रयोग | 

(ख) शब्दक्रम का विपर्यय। 

(ग) नए अर्थों की अभिव्यक्ति के निए शब्दों का भावात्मक प्रयोग | 

(घ) संयोजकों से वाक्यारंभ | 


फणीश्वरनाथ 'रेणु' 


(92-77) 


फणीश्वरताथ रेणु' का जन्म बिहार के पूर्णिया ज़िले के औराही हिंगता 
तामक गाँव में हुआ था। उन्होंने 942 ई. के भारत छोड़ो ' 
धवाधीनता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया | नेपाल के राणाशाही विरोधी 
आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वे राजनीति में प्रगतिशील 
विचारधारा के समर्थक थे। 953 ई. में वे साहित्य-सृजन के क्षेत्र में 
आए और उत्होंने कहानी, उपन्यास तथा निबंध आदि विविध साहित्यिक 
विधाओं में मौलिक रचनाएँ प्रस्तुत कीं । 

रेणः हिन्दी के प्रथम आंचलिक कथाकार हैं। उन्होंने 
अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं का आधार बताकर, आचलिक 
शब्दावली और मुहावरों का सहारा लेते हुए,वहाँ के जीवत और 
वातावरण का चित्रण किया है| अपनी गहरी मानवीय संवेदना के कारण 
वे अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते-से लगते हैं। किंतु इस 
तंवेददशीलता के साथ यह विश्वास अवश्य जुड़ा है कि आज के त्स्त 
मनुष्य में अपनी जीवन-दशा को बदल लेने की शक्ति भी है। 

उनके प्रसिद्ध कहानी-पंग्रह हैं - ठुमरी',, अगिनखोर , आदिम 

रात्रि की महक। तीसरी कप्तम उर्फ सारे गए गुलफार्मा कहानी पर 
फिल्म भी बन चुकी है। 'मैला आँचल और 'परती प्ररिकथा' उनके 
उल्लेखनीय उपन्यास हैं| 

रेणु मूलतः कहानीकार तथा उपन्यात्कार हैं, किंतु उन्होंने 
अनेक मर्मस्र्शी निबंध भी लिखे हैं। उतके निबंधों में भी उतके कथाकार 


की तजीवता और रोचकता बनी हुई है और यथाप्रसंग आंचलिक हृदय 
भी संदित हो उठता है। 


32 पल्‍लव 


रेणु' का प्रस्तुत निबंध उतरी स्वप्तपरी : हरित क्रांति उनके 
श्रुत-अश्रुत पर्व! नामक रचना-संग्रह से लिया गया है, जिसमें उनके 
वैयक्तिक निबंध, संस्मरण और रिपोर्ताज आदि संकलित हैं। इस लेख का 
भी मूल स्वर आत्माभिव्यंजक है। भावात्मक और चित्रात्मक भाषा के 
कारण यह निबंध और भी मर्मस्पर्शी बन गया है। बिहार की कोसी वदी 
के भिन्न-भिन्न रूप हैं। यह एक ओर मैया तो दूसरी ओर डायन' 
भी है। किन्तु स्वतंत्रता के उपरांत किए गए प्रयासों ने यह आशा बँधाई 
कि कोसी का यह भयानक रूप अब अधिक दिन नहीं रहेगा, शीघ्र ही 
धरती के दिन फिरेंगे और सचमुच ही इस प्रयास के बाद कोसी अन्नपूर्णा 
ही नहीं, परिपूर्णा बत गई और उत्त अंचल में स्वपनलोक की परी उतर 
आईं| 


5, उत्तरी स्वप्नपरी : हरित क्रांति 


कोसी या उसके किसी अंचल के संबंध में जब भी कुछ कहते या लिखने 
बैठता हूँ बात बहुत हद तक व्यक्तिगत हो जाती है, ऐसा होता 
स्वाभाविक भी है। क्योंकि कोसी हमारे लिए नदी ही नहीं, माई भी है। 
पुण्यसलिला, छिन्नमस्ता, भीमा, भयानका भी, प्रभावती-कोसी मैया !! 

हम कोसी के उस्त अंचल के वाी हैं, जिससे होकर करीब 
तीन-चार सौ वर्ष पहले कोसी बहा करती थी। और यह तो सर्वविदित है 
कि कोसी जिधर से गुजरती है धरती बाँश हो जाती। सोवा उपजाने 
वाली काली मिट्टी सफेद बालूचरों में बदल जाती। लाखो एकड़ बंध्या 
धरती उत्तर नेपाल की तराई से शुरू होकर दक्षिण गंगा के किनारे तक 
फैली हुईं परती-पूर्णिया के नक्शे को दो असम भागों में बॉटती हुई। 


इस 'परती के उदास और मनहूस बादामी रंग को बचपन से 
ही देखता आया हू-दूर तक फैली प्ताकार उदासी। जिस पर बरसात के 
मौसम भें क्षणिक आशा की तरह कुछ दिनों के लिए हरियाली छा 
जाती-वरना बारहों महीने दिन-रात, सुबह-शाम धूसर और वीरान,.. | 


और इस मैरी हुईं.मिट्टी पर बसे हुए इनसान ' 

मलेरिया और कालाजार से जर-जर शरीर, रक्त मांसहीन 
चलते-फिरते गरकंकालों के समूह, जिनकी ज़िंदगी में न रप्त और न कोई 
रंग; रोने और कराहने के सिवा कुछ नहीं जानते थे- त हँसना ने 
मुस़कराना। जिनके चेहरों पर हमेशा आतंक की रेखाएँ छाई रहतीं और 
आँखों में दुतिया भर की उदासी। ऐसी आँखों में रंगीन और सुतहल्ले 
सपने कैसे पल सकते हैं? 

बचपत के उन दिनों की याद आती है| हर साल हमारे ए-, दर्जन 
ताथी हमजोली हमसे बिछड़ जाते . , . , हमारे साथ पढ़नेवाले, साथ 


34 पल्‍लव 


खेलनेवाले | और, हर ऐसे मौके पर हमें यह एहसास होता -- शायव, 
अगले साल हम भी नहीं रहेंगे। अगले साल क्या, अगले महीने या दूसरे 
ही दित अथवा घड़ी में घड़ा फूट सकता है। हमने मैलेग्नेण्ट-मलेरिया से 
मरते हुए लोगों को देखा था-डेढ़ घंटे में ही मृत्यु ! 

किन्तु विधाण की सृष्टि में मानव ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यह 
निराशा के घोर अंधकार में भी नन्‍हीं आशा का टिमटिमाता हुआ वीप 
लेकर आगे बढ़ता रहा है। अंधकार से लड़ता रहा है। 

मैंने शुरू में ही कह दिया है कि कोसी के किसी अंचल पर कुछ 
कहते समय मेरी बात बहुत हद तक व्यक्तिगत हो जाया करती है| आज 
ही नहीं बीस-पच्चीस साल पहले से ही . . . !! 

याद है, बीस-बाईस साल पहले --- डायन कोसी शीर्षक से मेरा 
एक रिपोर्ताज “जवता में प्रकाशित हुआ था। जिसका अंत आशा भरे 
इन शब्दों में हुआ था -- परती के दिन फिरेंगे। . . , प्राणों में घुले रंग 
धरती पर फैल जाएँगे।' 

इस रिपोर्ताज ने मेरे दोस्तों को एक मसाला दिया। वे अक्सर मुझे 
चिढ़ाने के लिए कहा करते, “क्यों, आपके प्राणों में घुले हुए रंग धरती 
पर फैल गए कया ? . . . . जनाब|आपके सुनहले सपनों के अंडे कब 
फूटेंगे-- सोने की चिड़ियाँ कब चहचहाएँगी ?*' 

मैं पहले थोड़ा अप्रतिभ हो जाता। फिर हँसकर दृढतापूर्वक 
जवाब देता, आजादी की पहली सुबह , . .।*' 

आजादी के बाव इसी अंचल की पृष्ठभूमिः में मेरा पहला उपन्यास 
प्रकाशित हुआ, जिसका एक प्रमुख़ पात्र जो मलेरिया और कालाजार 
उन्मूलन में लगा हुआ है। इसी इलाके से अपने एक प्रियजन को पत्र 
लिखता है-- यहाँ की मिट्टी में बिखरे, लाखों-लाख इनसानों की जिन्दगी 
के सुनहरे सपनों और अधूरे अरमानों को बटोरकर यहाँ के प्राणियों के 
जीव-कोष में भर देने की कल्पना मैंने की थी। मैवे कल्पना की थी-- 
हजारों स्वस्थ इनसान-हिमालय की कंदराओं में अरुण-तिमुर-सुण-कोसी 
के संगग पर-- एक विशाल ''डैम” बनाने के लिए पर्वत-तोड़ परिश्रम 
कर रहे हैं . . . लाखों एकड़ बंध्या धरती, कोसी-कवलित, मरी हुई 
मिट्टी शस्य-श्यामला हो उठेगी। कफत-जैसे सफ़ेद, बालू-भरे मैदानों में 
धाती रंग की जिंदगी की बेल लग जाएँगी | मकई के खेतों में घास गढ़ती 


उतरी स्वप्नपरी : हरित क्रांति १5 


हुई औरते बेवजह हँस पड़ेगी। मोती -जैसे सफेद दातों की दृधिया 
चमक ...! 

और, तब मेरे दोस्तों को मजाक के लिए - “ धानी रंग, ज़िन्दगी 
की बेल, मकई के खेत और बवृधिया चमक जैसे कई शब्द मिल गए। 
समय-अस्मय मेरे इन शब्दों के व्यंग्यवाण से मुझे ही मर्माहत करने का 
अवसर वे नहीं खोते। और, मैं हमेशा पूर्ववत्‌ हंस कर कभी आशा भरी 
कोई बहुत बड़ी बात अथवा किसी श्लोक या किसी पच्च की ऐसी ही पंक्ति 
-- नर हो न निराश करो मन को गाने लगता। इसलिए, जब सचमुच 
एक दित कोसी-योजना का आयोजन होने लगा-- मैं अपने को जब्त नहीं 
रख सका | दूने उत्साह से अपने दूसरे उपन्यास 'परती परिकथा में 
हाथ लगा दिया। उपन्यास लिखने के दौरान पहाड़ों की कंदराओं में 
तपस्या में लीन देवगणों को बार-बार जाकर देख आता | मेरा वया तीर्थ 
बराहक्षेत्र, जहाँ आदमी लड़ रहे थे। बड़े-बड़े टनेल में पहाड़ काटने वाले 
पहाड़ी जवानों से बातें करके धत्म हो जाता। अरुण तिमुर और 
सुणकोसी के संगम पर बैठकर पानी मापने वाले, सिल्ट की परीक्षा 
करनेवाले विशेषज्ञों को श्रद्धा तथा भक्ति से प्रणाम करके लौठ आता | 
हर बार नई आशा की रंगीन किरण लेकर लौटता | 

मेरा उपन्यास समाप्त हुआ, फिर प्रकाशित हुआ। किन्तु उस 
समय कोसी प्रोजेक्ट परीक्षा-निरीक्षा के स्तर पर ही चल रहा था | अतः 
मेरे कृपालु मित्रों को इस बार मजाक का ही नहीं, बहस का भी विषय 
मिला | 

'धूसर, वीरान अंतहीन-प्रांतर। पतिता-भूमि, परती-जमीन, 
बंध्या धरती, धरती नहीं, धरती की लाश। जिस पर कफुन की तरह 
फैली हुई हैं-- बालूचरों की पंक्तियाँ . . .। परती: परिकथा का प्रारंभ 
इन्ही शब्दों से हुआ है। 

और, अंत हुआ है इन पंक्तियों से -- पर्दे पर धीरे-धीरे बादामी 
छाया छा जाती है। वीरान धरती का रंग बदल रहा है और धीरे-धीरे 
हरा, लाल, पीला, बैंगनी। हरे-भरे खेत | परती पर रंग की लहरें बाँसुरी 
का सुर प्रदात कर रही हैं। अमृत-हास्य परती पर अंकित हो रहा है . . . 
आसननप्रसवा परती हँसकर करवट लेती है!'' 

बाद में मुझे भी लगने लगा कि मैंने अतिरिक्त उत्साह में संभवतः 


36 पल्लब 


बहुत बढ़-चढ़कर बातें कह दी हैं। मित्रों की बातें मेरे कानों के पास 
रह-रहकर गूँज जातीं -- “भाई साहब ! कागज पर रंग की लहरें 
लहराना और अमृत हास्य अंकित करना बहुत आसान है, परती पर 
नहीं। अभी कोसी प्रोजेक्ट का “क” भी नहीं शुरू हुआ और आप 
हरे-भरे खेत देखने लग गए? सावन के अंधे को हरियाली-ही- हरियाली 
सूझती है। ऐसा भी तो हो सकता है कि डैम बनने और बनाने के 
बावज़्द इस परती-धरती को सींचकर भी खेती संभव नहीं हो ? तब, 
आपकी करवट लेती इस आमसन्नप्रसवा धरती के स्वप्न का क्‍या होगा! 
आपके वे सपने मिट्टी में बिखरे ही बिखरे रह जाएँगे | 

किन्तु इन सारी निराश वाणियों के बावज़्द अंततः मेरे मन के 
कोने में प्रतिष्ठित वृढ़ विश्वास का स्वर कवि चंडीदास के सुर में मुखरित 
होता : 

''सुन रे मानिस भाव | 

सबरि ऊपर मानुस सत्य तार ऊपर किछू वाय। 

तीन साल पहले की बात है। गाँव पहुँचकर एक नई और 
दिलचस्प कहाती सुनने को मिली। हमारे गाँव का एक कर्मठ आदमी 
दस-बारह साल पहले गाँव छोड़कर प्रब-मुलुक बंगाल की ओर कमाने 
लगा | पहले तो वह छठे-छमाहे, होली-दिवाली में गाव आता भी था 
लेकिन, पिछले आठ साल से वह गाँव नहीं आया था, उधर ही बस गया 
था। गाँव में एक डेढ़ बीघे जमीन थी, उसी को देखने के लिए वह आठ 
साल के बाद आया। स्टेशन पर उतरकर उसने अपने गाँव की पगडंडी 
पकड़ी | कुछ दूर जाने के बाद उसने अपने गाँव की ओर निगाह दौड़ाई। 
विशाल परती के उस छोर पर उसका गाँव . . . लेकिन, यह क्‍या , . , 
यहाँ परती कहाँ है ? उसे लगा, वह रास्ता भूल कर दूसरी ओर आ गया 
है-- जहाँ तक नजर जाती है, धान के खेत लहरा रहे हैं-- चारों ओर 
हरियाली है| वहर, आहर और पैन-पुलिया और बाँध-- यह कहाँ आ 
गया वह ? उसको विश्वास हो गया कि वह नींद में ऊँचता हुआ किस्ती 
दूसरे स्टेशन पर उतर गया है। वह स्टेशन लौट आया और चिंतित होकर 
पूछने लगा कि क्या यह वही स्टेशन है और अगर यह वही स्टेशन है तो 
उसका गाँव कहाँ चला गया, किधर चला गया ? 

इसीलिए, गाँव के लड़कों ने इस आदमी को नया नाम दिया है- 


उतरी स्वप्मपरी : हरित क्रांति 37 


“सुदामा | उसको देखते ही लोग गुनगुनाने लगते हैं --' सुदामा मंदिर 
देखि डर्‌यो । हि। 

सो, गाँव को हमेशा छोड़कर पूरब-मुलुक बंगाल में बस जाने वाले 
सुदामा जी ने तब जमीन बेचने का इरावा बदल दिया। बंगाल में बसे 
परिवार को उठाकर फिर गाँव ले आए। पिछली बार डेढ़ बीघे मकई और 
मकई के बाद आइ-आर एड्ट धान | 

इस अभिनव सुदामा चरित्र के बाद इस अंचल की प्रगति और 
परिवर्तन के बारे में और क्‍या कहा जाए ? जिस धरती पर कभी हरी 
दूब भी नहीं होती थी वहाँ धान और गेहूँ की बालियाँ झूमती हैं . . . . 
नहरों के जाल बिछ गए हैं . , . . परती का चप्पा-चप्पा हँस रहा है। 
सिंचाई, रासायनिक खाद और उन्नत बीज की महिमा से बंध्या धरती 
अन्नपूर्णा ही नहीं परिपूर्णा हो गई है। . . . जिस दिन हमारे खलिहान पर 
गेहूँ की पहली फूसल कटकर आई - मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया । 
मैंने बालियों को सिर से छुआकर मूल मंत्र का जाप किया। फिर, अपने 
दोनों उपन्यासों की निजी प्रतियाँ निकाल लाया और उनके अंतिम पृष्ठों 
पर लिख दिया -- 

“लाखों एकड़ कोसी-कवलित, भरी हुई मिट्टी शस्य श्यामला हो 
उठी है। कफून जैसे सफेद बालू-भरे मैदान में धानी रंग की जिन्दगी के 
बेल लग गए हैं। मकई के खेतों में घास गढ़ती औरतें सचमुच हँस पड़ती 
हैं, सारी धरती मानो इंद्रधतुषी हो गई है।” दिन फिरे हैं किसानों के । 
खेतों में ट्रैक्टर चल रहे हैं। सब मिलाकर एक स्वप्नलोक की सृष्टि 
साकार हो गई है।चारों ओर अमृतहास्य |. एक हरित क्रांति अपनी पहली 
मंजिल पर पहुँचकर सफल हुई है। सपने सच्चे भी होते हैं और अपने 
भी।... 

जिन्हें विश्वास न हो, वे स्वयं आकर देख जाएँ-प्राणों में घुले हुए 
रंग धरती पर किस तरह फैल रहे हैं- फैलते जा रहे हैं | 


प्रश्त-अभ्यास 


4. कोसी या उसके किसी अंचल के संबंध में जब भी कुछ कहने या लिखते 


आए 


न्गी३ 


पा. एफा 


््च्च 


पह्लव ' 


बैठता हूँ तो बात बहुत हद तक व्यक्तिगत हो जाती है| लेखक की झू 
स्वीकारोक्ति की पुष्टि पाठ से उपयुक्त वर्णन छॉटकर कीजिए। 


,क्ोप्ती का अभावशापित अंचल कब और किप्त प्रकार सवप्मपरी के रूप में 


परिवर्तित हो गया ( 


. कोप्ती के विनाशक और मनमोहक दोनों रूपों का वर्णन अपने शब्दों में 


कीजिए। 


, “'परती के दिन फिरेंगे लेखक ने यह भविष्यवाणी किम्त विश्वास के आधार 


पर की ? 


, बच्चों द्वारा सुदामा नामकरण की उपगयुक्तता बताइए। 
, निमनत्रिखित अंशों का प्रप्रत्ग भाव स्पष्ट कीजिए : 


(क) इस धरती के उदातत और मनहृप्त बादामी रंग को बचपन से ही देखता 
आया हूँ- दूर तक फैली साकार उदासी | 

(ख) अगले सात्र क्या,अगले महीने या दूसरे ही दिन अथवा पड़ी में घड़ा 
फूट सकता है! 

(ग) कोसी हमारे लिए नदी ही नहीं, माई भी है। 

(घ) अभी कोसी प्रोजेक्ट का 'क भी नहीं शुरू हुआ आप हरे-भरे खेत 
देखने लग गए। 


. निम्नलिखित मुहावरों और लोकोक्तियों के अर्थ बताते हुए उनका अपने वाक्यों 


में प्रयोग कीजिए | 

(क) गूलर का फूल होना, सावन के अंधे को हरा ही हरा दीखना, रंगीन 
मुनहले सपने पालना, आशा का दीप, पर्वत-तोड़ परिश्रम, हाथ 
लगाना, बढ़-चढ़ कर बातें करता, मिट॒टी में बिखरना, जाल बिछना, 
रोम-रोम पुलकित हो उठना, दिन फिरना, प्षपने सच होना। 

(ख) निम्नलिखित शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए : 
नदी, विध्राता, धरती, यात्री| 


. चित्रात्मक और काद्यात्मक वर्णनों के विशिष्ट नमूनों को पाठ से छॉटकर 


उनकी विशेषत्ताएँ दर्शाइए। 


जयशंकर प्रसाद 


(888-937) 


जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के सुविख्यात सुँधनी साहू परिवार में 
हुआ। उनके पिता देवीप्रसाद जी का निधन उनके बाल्यकाल में ही हो 
गया था | फलतः प्रसाद जी विद्यालयी शिक्षा केवल आठवीं कक्षा तक 
प्राप्त कर सके। किन्तु स्वाध्याय द्वारा उन्होंने संस्कृत, पाली, उर्दू और 
अंग्रेजी भाषाओं तथा साहित्य का गहन अध्ययन किया | इतिहास, 
दर्शन, धर्म शात्र और प्रातत्त्व के वे प्रकांड विद्वान थे | 

प्रसाद जी अच्यंत सौम्य, शांत एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे | वे 
परनिंदा एवं आत्मस्तुति दोनों परे सदा दूर रहते थे | सांसारिक विज्ञापन 
और यशोलिप्सा से तटस्थ रह कर वे अध्ययत और मतन में लीन रहते 
थे | 

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार थे । वे मूलतः कवि थे, 
लेकिन उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि अनेक साहित्यिक 
विधाओं में उच्चकोटि की रचनाओं का सृजन किया। 

प्रसाद-साहित्य में राष्ट्रीय जागरण का स्वर प्रमुख है। संपूर्ण 
साहित्य में विशेषकर नाटकों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के गौरव के 
माध्यम से प्रसाद! जी ने यह काम किया। उतकी कहातियों में भारतीय 
पंस्कृति और जीवन मूल्यों की झलक मिलती है। उत्होंने मूलतः 
आदर्शवावी कहानियों की रचना की है, निनमें ऐतिहासिक वातावरण का 
सजीव चित्रण हुआ है। कवि हृदय होने के कारण उनकी कहावियों में 
छायावाद की भावुकतापूर्ण कल्पना का अद्भुत समावेश है। उन्होंने सभी 
कहानियों में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया है | उतकी भाषा-शैली 
का उनके कई समकालीन एवं परवर्ती कहानीकारों पर 'इतना अधिक 


49 पल्तव 


प्रभाव पढ़ा कि कहाती-माहित्य में प्रसाद शैली के नाम से एक पृथक 
धारा विश्यात हो गई। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं : 

नाठक : अजातशत्रु, ंदगुर्ता, पंद्रगुत, राजश्री, 
धवस्वामिनी आदि | 


उपन्यात्त: कंकाल, तितज्ञी , इरावती (अपूर्ण) | 


कहानी संग्रह : ऑधी, इंद्रगाल, छाया, प्रतिश्ननिं' और 
आकाशदीप | 


निबंध ग्रह: काव्य और कला तथा अन्य तिव॑ध | 


(शा 


कविताएँ : भरा, ऑपू, लहर, कामायती, कातत 
कृपुम प्रमपधिक 
कषपुम , प्रमपधिक | 


गुंडा कहाती अठारहवीं, गताब्वी के अंतिम वर्षों की अस्त-थस्‍्त 
राजनीतिक एवं त्ामाजिक व्यवस्था पर आधारित है। तन्हकू सिंह शासक 
वर्ग में गुंडा के रुप में प्रद्मात है, शेकित यक्तिगत सुब्र-दुःख की चिंता 
छोड़कर वह प्रमाज के दत्षित-पीड़ित लोगों की सहायता में हमेशा तत्यर 
रहता है और अंत में अस्हयय और असुरक्षित राज-परिवार के सम्मान 
की रक्षा के लिए अपने जीवन की बल्ति दे देता है। 


6, गुंडा 


वह पचास वर्ष से ऊपर था | तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ 
था | चमड़े पर शुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की 
छाया में, कड़कती हुई जैठ की धूप में, नंगे शरीर धूमने में वह सुख 
मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें, बिच्छु के डंक की तरह देखने वालों की 
आँखों में चुभती थीं। उसका सॉवला रंग साँप की तरह घिकता और 
चमकीला था | उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किवारा दूर से भी 
ध्यान आकर्षित करता | कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें प्तीप 
की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुघराले बालों पर मुनहले 
पत्ते के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता | ऊँचे कंधे पर 
टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह थी उसकी धज । पंजों के बल 
जब वह चलता, तो उसकी नछ्तें चटाचट बोलती थीं | वह गुंडा था | 
ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वही काशी नहीं रह 
गई थी, जिसमें उपतिषद्‌ के अजातशत्रु की परिषद्‌ में ब्रह्मविद्या सीखने 
के लिए विद्वान्‌ ब्रह्मचारी आते थे | गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के 
धर्म-दर्शन के वाद-विवाव कई शताद्वियों से लगातार मंविरों और मों 
के धंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बंद-से हो गए थे । यहाँ 
तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव धर्म भी उस विश्वृंखलता 
में, तवागंतुक धर्मोत्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अधोर रूप 
धारण कर रहा था | उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को 
शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और विराश 
तोगरिक जीवन ने, एक नवीन संप्रदाय की सृष्टि की, वीरता जिसका 
धर्म था। अपनी बात पर मिटता, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, 
प्राण-भिक्षा माँगने वाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वंदी पर 
शस्ध व उठावा, सताए हुए निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण 


42 पल्लव 


प्राणों को हथेली पर लिए घुृमता उसका बाना था | उसे लोग काशी में 
गुंडा कहते थे | 

जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वंचित होकर जैसे प्रायः 
लोग विरक्त हो जाते हैं, ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल 
होकर एक प्रतिष्ठित जुमींदार का पुत्र होने पर भी, ननन्‍्हकू सिंह मुंडा हो 
गया था । दोनों हाथों से उसने अपनी संपत्ति लुटाई। नन्‍्हकू सिंह ने बहुत 
सा रुपया खर्च करके जैसा स्वॉग खेला था, उसे काशी वाले बहुत दिनों 
तक नहीं भूल सके | वसंत ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के 
लिए उत दितों प्रचुर धन, बल, तिर्भकता और उच्छृंखलता की 
आवश्यकता होती थी। एक बार नन्हकू सिंह ने भी एक पैर में नूपुर, एक 
हाथ में तोड़ा, एक आँख में काजल, एक कान में हजारों के मोती तथा 
दूसरे में फटे जूते का पल्‍ला लटकाकर, एक हाथ में जड़ाऊ मूठ की. 
तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभितय करनेवाली प्रेमिका के 
कंधे पर रखकर गाया था - 

“कहीं बैंगनवाली मिले तो बुला देता । 

प्रायः बतारप्त के बाहर की हरियालियों में, अच्छे पानी वाले कुओं 
पर, गंगा की धारा में मचलती हुईं डोंगी पर,वह दिखलाई पड़ता था। 
कभी-कभी जुआखाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी 
की रँगीली वेश्याएँ मुसकराकर उसका स्वागत करतीं और उसके दृढ़ 
शरीर को सस्पृह देखतीं। वह तमोली की ही दुकान पर बैठकर उनके 
गीत सुतता, ऊपर कभी नहीं जाता था | जुए की जीत का रुपया 
मुट्ठियों में भरकर, उनकी खिड़की में वह इस तरह उछालता कि 
कभी-कभी समाजी लोग अपता सिर सहलाने लगते | तब वह ठठाकर 
हँस देता | जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह 
उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता | 

वह अभी वंशी के जुएखाने से तिकला था। आज उसकी कौड़ी ने 
साथ न दिया। सोलह परियों के नृत्य में उसका मत तन लगा। मन्‍्लू 
तमोली की दुकान पर बैठते हुए उसने कहा -- “आज सायत अच्छी नहीं 
रही, मन्नू| 

'क्यों मालिक ! चिंता किस बात की है | हम लोग किस दिन के 
लिए हैं। सब आप ही का तो है।'' 


गुंडा 43 


“अरे बुद्ध ही रहे तुम | नन्‍्हकू सिंह जिस दिन किसी से लेकर 
जुआ खेलने लगे, उसी दिन समझना, वह मर गए। तुम जानते नहीं कि 
मैं जुआ खेलने कब जाता हूँ | जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता, उस 
दिन ताल पर पहुँचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हैँ 
और फिर वही दाँव आता भी है। बाबा कीनाराम का यह वरदान है।' 

“तब आज क्‍यों मालिक ? 

“पहला दाँव तो आया ही, फिर दो-चार बढ़ने पर सब निकल 
गया, तब भी लो, यह पाँच रुपए बचे हैं। एक रुपया तो पान के लिए 
रख लो | और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने 
के लिए कह दे । हाँ, वही एक गीत -' बलम विदेस रहे | 

नन्‍हकू की बात सुतते ही मलूकी, जो अभी गाँजे की चिल्मम पर 
रखते के लिए अंगारा चूर कर रहा था, पबराकर उठ खड़ा हुआ। वह 
सीढ़ियों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया । चित्रम को देखते। ही ऊपर चढ़ा, 
इसीलिए उसे चोट भी लगी, पर नन्‍्हकू की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें 
कहाँ। उसे ननन्‍्हकू सिंह की वह मूर्ति न भूली थी जब इसी पान की दुकान 
पर जुएखाने से जीता हुआ, रुपए से भरा तोड़ा लिए वह बैठा था | 
नन्‍हकू ने पूछा - “यह किसकी बारात है ?'' 

ठाकुर बोधी सिंह के लड़के की | - मन्‍्नू के इतना कहते ही 
नन्‍्हकू के ओठ फड़कने लगे। उसने कहा - “'मन्तू ! यह नहीं हो सकता। 

आज इधर से बारात न जाएगी । बोधी सिंह हमसे निपट केर तब 
बारात इधर से ले जा सकेंगे।'' 

मन्तू ने कहा - “तब मालिक, मैं क्‍या करूँ?'' 

नन्‍हकू गँड़ासा कंधे पर से और ऊँचा करके मलूकी से बोला- 
“मलुकिया, वेखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे कि बाबू ननन्‍्हकू सिंह 
आज यहीं दाँव लगाने के लिए खड़े हैं। समझकर आवें, लड़के की बारात 
है । | रु 

मलुकिया काँपता हुआ ठाकुर बोधी सिंह के पास गया | बोधी 
सिंह का नन्‍हकू से पॉच वर्ष से सामना नहीं हुआ है। किसी दिन नाल पर 
कुछ बातों में ही कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था । फिर 
सामना नहीं हो सका था | आज ननन्‍्हकू जान पर खेलकर अकेले खड़ा है। 
बोधी सिंह भी उस आन को समझते थे । उन्होंने मलूकी से कहा, जा 


4१4 पल्लव 


बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि बाबू साहब वहाँ खड़े हैं। जब वह हैं 
हीं, तो दो समधी जाने का क्‍या काम है। 

बोधी सिंह लौट गए और मलूकी के कंधे पर तोड़ा लादकर बाजे 
के आगे नन्‍्हकू सिंह बारात लेकर गए, ब्याह में जो कुछ लगा, खर्च 
किया । ब्याह कराकर तब दूसरे दिन इसी दुकान तक आकर रुक गए। 
लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया | 

मलूकी को भी दस रुपया मिला था उस दिन | फिर नन्हकू सिंह 
की बात सुनकर बैठे रहता और यम को न्योता वेना एक ही बात थी । 
उसने जाकर दुलारी से कहा -- हम ठेका लगा रहे हैं, तुम गाओ, तब 
तक बल्लू सारंगीवाला पानी पीकर आता है।' 

“बाप रे। कोई आफत आई है क्‍या बाबू साहब ? सलाम !-_ 
कहकर दुलारी ने खिड़की से मुसकराकर झाँका था कि ननन्‍्हकू सिंह उसके 
सलाम का जवाब देकर, दूसरे एक आने वाले को देखने लगे । 

हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुँह में पान, 
मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफेद जड़ें दिखलाई पड़ रही थीं, 
कुब्बेदार टोपी, छैकलिया अँगरखा और साथ में लेसवार परतले वाले दो 
सिपाही। कोई मौलवी साहब हैं। तन्‍्हकू हँस पड़ा | नन्‍्हकू की ओर बिना 
देखे ही मौलवी ने एक सिपाही से कहा. -- जाओ, दुलारी से कह दो कि 
आज रेजिडेंट साहब की कोठी पर मुजरा करना होगा, अभी चले । देखो, 
तब तक हम जानअली से कुछ इन्र ले रहे हैं।'' 

सिपाही ऊपर चढ़ रहा था | और मौलवी दूसरी ओर चले थे कि 
तन्‍्हकू ने ललकार कर कहा -- दुलारी | हम कब तक यहाँ बैठे रहें ? 
क्या अभी सारंगिया नहीं आया ?* 

दुलारी ने कहा -' वाह बाबू साहब ! आप ही के लिए तो मैं यहाँ 
आ बैठी हूँ | सुनिए न ! आप तो कभी ऊपर , , . . ... मौलवी जल 
उठा । उसने कड़ककर कहा - चौबदार ! अभी वह सुअर की बच्ची 
उतरी नहीं ? जाओ कोतवाल के पास मेरा नाम लेकर कहो कि मौलवी 
अलाउद्दीन कुबरा ने बुलाया है। आकर इसकी मरम्मत करे | देखता हूँ, 
जब से नवाबी गई, इन काफिरों की मस्ती बढ़ गई है।'' 

कुबरा मौलवी । बाप रे -- तमोली अपनी दुकान सँभालने लगा | 
पास ही एक दुकान पर बैठकर ऊँचता हुआ बजाज चौंककर सिर में चोट 


मुंडा 45 
खा गया | इसी मौलवी ने तो महाराज चेतसिंह से साढ़े तीन सेर चींटी 
के सिर का तेल माँगा था | मौलवी अलाउदूदीन कुबरा | बाजार में 
हलचल मच गई। नन्‍्हकू सिंह ने मन्तू सिंह से कहा - क्यों, चुपचाप 
बैठोगे नहीं ?  दुलारी से कहा -' वहीं से बाई जी | इधर-उधर हिलते 
का काम नहीं | तुम गाओ । हमने ऐसे घसियारे बहुत से देखे हैं। अभी 
कल रमल के पाँसे फेककर अधेला-अघेला माँगता था, आज चला रोब 
गॉठते | 

अब कुबरा ने घूमकर उसकी ओर देख कर कहा -'कौन है यह 
पाजी| 

' तुम्हारे चाचा बाबू नन्‍्हकू सिंह। इसके साथ ही पूरा बनारसी 
झापड़ पड़ा | कुबरा का सिर घूम गया | सिपाही दूसरी ओर भाग चले 
और मौलवी साहब चौंधियाकर जानअली की दुकान पर लड़खड़ाते, 
गिरते-पड़ते किसी तरह पहुँच गए। 

जानअली ने मौलवी से कहा- मौलवी साहब ! भल्रा आप भी 
उस गुंडे के मुँह लगने लगे | यह कहिए कि उसने गँड़ासा नहीं तोल 
दिया।” कुबरा के मूँह से बोली नहीं निकल रही थी।-'बलम विदेस 
रहे -- गाना पूरा हुआ, कोई आया-गया नहीं! तब नन्‍्हक्‌ सिंह धीरे-धीरे 
टहलता हुआ दूसरी ओर चला गया । थोड़ी देर में एक डोली रेशमी 
कपड़े से ढकी हुई आई। साथ में एक चोबदार था । उसने दुलारी को 
राजमाता की आज्ञा सुनाई। 

दुलारी चुपचाप डोली पर जा बैठी। डोली-धूल और संध्या-काल 
के धुएँ से भरी हुई बनारस की तंग गलियों से होकर शिवालय घाट की 
ओर चली | 

श्रावण का अंतिम सोमवार था | राजमाता पन्ना शिवालय में 
बैठकर पूजन कर रही थीं। दुलारी बाहर बैठी, कुछ अन्य गानेवालियों के 
साथ भजन गा रही थी। आरती हो जाने पर, फूलों की अंजलि बिखेर 
कर पन्ना ने भक्ति-भाव से देवता के चरणों में प्रणाम किया | फिर प्रसाद 
लेकर बाहर आते ही उन्होंने दुलारी को देखा | उसने खड़ी होकर हाथ 
जोड़ते हुए कहा - मैं पहले ही पहुँच जाती। क्‍या करूँ, वह कुबरा 
मौलवी निगोड़ा आकर रेजिडेंट की कोठी पर ले जाने लगा । घंटों इसी 
झंझट मे बीत गया सरकार। 


40 पल्लव 


“कुबरा मौलवी | जहाँ सुनती हूँ, उसी का नाम, सुवा है कि 
उसने यहाँ भी आकर कुछ . . . फिर न जाने क्‍या सोचकर बात 
बदलते हुए पन्ना ने कहा - “हाँ, तब फिर क्‍या हुआ ? तुम कैसे यहाँ आ 
सकीं ?' 

“बाबू नन्‍्हकू सिंह उधर से आ गए। मैंने कहा - सरकार की पूजा 
पर मुझे भजन गाने को जाना है और यह जाने नहीं दे रहा है। उन्होंने 
मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया कि सबकी हेकड़ी भूल गई और तब 
जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आने की छुट्टी मिली। 

“कौन बाबू नत्हक्‌ सिंह? ' 

दुलारी ने सिर तीचा करके कहा -+ अरे, क्‍या सरकार को नहीं 
मालूम ? बाबू निरंजन सिंह के लड़के। उस दिन जब मैं बहुत छोटी थी, 
आपकी बारी में झूला झूल रही थी। जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ 
गया था, बाबू निरंजन सिंह के कुँवर ने ही तो उस दिन हम लोगों की 
रक्षा की थी। 

राजमाता का मुख उस प्राचीत घटना को स्मरण करके न जाने 
क्यों विवर्ण हो गया | फिर अपने को सँभालकर उन्होंने पूछा -- तो बाबू 
नन्‍हकू सिंह उधर कैसे आ गए ?' 

दुलारी ने मुसकराकर सिर नीचा कर लिया। दुलारी राजमाता 
पन्ना के पिता की जमींवारी में रहने वाली वेश्या की लड़की थी। उसके 
साथ ही कितनी बार झूले-हिंडोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी। 
वह बचपन से गाने में सुरीली थी। सुंदरी होते पर चंचल भी थी । पन्ना 
जब काशीराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली 
थी। राजमहल में उसका गाता-बजातना छुआ ही करता । महाराज 
बलवंत सिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का आवश्र ८ अंग था| 
हाँ, तब प्रेम, दुःद और दर्द भरी विरह कल्पना के गीत का ओर अधिक 
रुचि थी। अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था । राजमाता पज्ना का 
वैधव्य से दीप्त शांत मुख-मंडल कुछ मलीन हो गया | 

बड़ी रानी की सापत्य ज्वाला बलवंत सिंह के मर जाने पर भी 
नहीं बुझी। अंतःपुर कलह का रंग्रमंच बना रहता | इसी से प्रायः पन्ना 
काशी के राजमंदिर में आकर पूजा-पाठ में अपना मन लगाती। रामनगर 
में उसे चैत नहीं मिलता | नई रानी होने के कारण बलवंत सिंह की 


गुंडा 47 
प्रेयसी होते का गौरव तो उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का 
सौभाग्य भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय 
को व्यथित किया करता। उसे अपने ब्याह की आरंभिक चर्चा का स्मरण 
हो आया। 

छोटे-से मंच पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुईं धारा को पन्ना अन्य- 
मनस्क होकर देखने लगी। उस बात को, जो अतीत में एक बार, हाथ से 
अनजाने में खिसक जाने वाली वस्तु की तरह लुप्त हो गई हो, सोचने का 
कोई कारण नहीं |उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं, परंतु मानव 
स्वभाव हिसाब रखते की प्रथानुसार कभी-कभी कह ही बैठता है, कि 
यदि वह बात हो गई होती तो ?” ठीक उसी तरह पन्ना भी राजा 
बलवंत सिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनाई जाने के पहले की एक संभावना 
को सोचने लगी थी, सो भी बाबू ननन्‍्हकू सिंह का नाम सुत लेने पर । 
गेंदा मुँह लगी दासी थी | वह पन्ना के साथ उसी दिन से है, जिस दिन से 
पन्ना बलवंत सिंह की प्रेयसी हुईं। राज्य भर का अनुसंधान उसी के द्वारा 
मिला करता और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी । उसने दुलारी 
का रंग उखाड़ने के लिए कुछ कहता आवश्यक समझा | 

“महारानी ! नन्‍्हकू सिंह अपनी सब जमींदारी स्वाँग, भैंसों की 
लड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर अब डाकू हो गया है। जितने 
ख़ून होते हैं, सबमें उसी का हाथ रहता है। जितनी . . ,. “ उसे 
रोककर दुलारी ने कहा“ यह झूठ है | बाबू साहब के जैसा धर्मात्मा तो 
कोई है ही नहीं। कितनी विधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन 
ढकती हैं, कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है, कितने सताए हुए 
लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है। 

रानी पन्ना के हृदय में एक तरलता उद्वेलित हुईं । उन्होंने हँस 
कर कहा-' दुलारी, वे तेरे यहाँ आते है न ? इसी से तू उनकी 
बड़ाई... ? 

“नहीं सरकाराशपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्‍्हकू सिंह ने 
आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा | 

राजमाता न जाने क्‍यों इस अदूभुत व्यक्ति को समझने के लिए 
चंचल हो उठी थीं। तब भी उसने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए 
तीखी दृष्टि से देखा | वह चुप हो गई। पहले पहर की शहनाई बजने 


48 पल्लव्‌ 


लगी। दुलारी छुट्टी माँगकर डोली पर बैठ गई। तब गेंदा ने कहा - 
"प्रकार ! आजकल नगर की वशा बड़ी बुरी है। दिन-दहाड़े लोग लूट 
लिए जाते हैं। सैकड़ों जगह वाल पर जुए में लोग अपना सर्वस्त गँवाते हैं।. 
बच्चे फुसलाए जाते हैं। गलियों में लाठियों और छुरे चलने के लिए टेढ़ी 
भौहें कारण बन जाती हैं। उधर रेजिडेंट, साहब से महाराज की अनबन 
चल रही है।' राजमाता चुप रहीं। 

वूसरे दिन राणा चेतसिंह के पास रेजिडेंट मार्कहैम की चिट्ठी 
आई, जिसमें नगर की दुर्व्यवस्था की कड़ी आलोचना थी। डाकुओं और 
गुंडों को पकड़ने के लिये उन पर कड़ा नियंत्रण रखने की सम्मति भी थी। 
कुबरा मौलवी वाली घटना का उल्लेख था । उधर हेस्टिंग्स के आने की 
भी सूचना थी | शिवालय घाद और रामनगर में हलचल मच गई। 
कोतवाल हिम्मत प्िंह पागल की तरह जिसके हाथ में लाठी, लोहांग, 
गेंड़ासा, बिछुआ और करौली देखते उसी को पकड़ने लगे। 

एक दिन तन्हकू सिंह सुम्भा के नाले के संगम पर, ऊँचे से टीले 
की घनी हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ दूधिया छान रहे थे। 
गंगा में उनकी पतली डोंगी बड़ की जटा से बँधी थी। कथको का गाना 
हो रहा था। चार उलाँकी इक्के कप्ते-कसताए खड़े थे। 

। गनन्‍्हकू सिंह ने अकस्मात्‌ कहा - मलूकी ! गाना जमता नहीं है। 
उलाँकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ |” मलूकी वहाँ 
मजीरा बजा रहा था | वह दौड़कर इक्के पर जा बैठा, आज नन्‍्हकू सिंह 
का मन उखड़ा था । बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं। एक घंटे में 
वुलारी सामने आ गईं। उसने मुसकराकर पूछा - क्या हुक्म है बाबू 
साहब ? 

दुलारी ! आज गाना सुनने का मत कर रहा है | 
' इस जंगल में क्यों ? -- उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से 
पूछा | 
तुम किसी तरह का खटका न करो, -- नन्‍्हक्‌ सिंह ने हँस कर 
कहां | ै 
यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आई।'' 
क्या, किससे ?' 
' राजमाता पत्ना देवी से।' -- फिर उस दिन गाना नहीं जमा [ 


गुंडा » 49 


दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि बातों में नन्‍्हक्‌ू सिंह की आँखें तर हो 
जाती हैं। गाना-बजाना समाप्त हो गया था । वर्षा की रात में झिल्लियों 
का स्वर उस झुरमुट में गज रहा था | मंदिर के समीप ही छोटे-से कमरे 
में नन्‍्हकू सिंह चिंता में निमग्न बैठा था | आँखों में नींद नहीं और सब 
लोग तो सोने लगे थे। दुलारी जाग रही थी। वह भी कुछ सोच रही थी। 
आज, उसे अपने को रोकने के लिये कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था, 
कित्तु असफल होकर वह उठी और नन्‍हकू सिंह के समीप धीरे-धीरे चली 
आई। कुछ आहट पाते ही चौंककर उन्होंने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा 
ली | तब तक हँसकर दुलारी ते कहा -- ' बाबू साहब, यह क्‍या ? स्त्रियों 
पर भी तलवार चलाई जाती है? ' 

छोटे-से दीपक के प्रकाश में रमणी का मुख देखकर नन्‍्हकू हँस 
पड़ा। उसने कहा-' क्यो बाई जी! क्या इसी समय आते की पड़ी है? 
मौलवी ने फिर बुलाया है क्या?” दुलारी नन्हकू के पास बैठ गई। 
नन्‍्हकू ने कहा- 

। “क्या तुमको डर लग रहा है ?' 

नहीं, मैं कुछ पूछते आई हूँ।' 

क्या रै' 

“क्या... यही कि . . . . कभी तुम्हारे हृदय में . . . . 

“उसे न पूछो दुलारी | हृदय को बेकार ही तो समझकर उसे हाथ 
में लिए फिर रहा हूँ | कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछलता। 
मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मर नहीं पाता | 

“मरते के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है। आपको काशी 
का हाल कया मालूम ! न मालूम घड़ी भर में क्‍या हो जाए 
उलट-पलट होने वाला है क्या, बनारस की गलियाँ जैसे काटने दौड़ती 
हैं।'' 

“कोई नई बात इधर हुई है क्या ?' 

“कोई हेस्टिंग्स साहब आया है। सुना है कि उसने शिवालय घाट 
पर तिलंगों की कंपनी का पहरा बैठा दिया है | राजा चेतसिंह और 
राजमाता पन्ना वहीं हैं। कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर 
कलकत्ता भेजने . . .'' 

“क्या पन्ना भी . . . . रतवास भी वहीं है |” - नन्‍हकू अधीर 


50 पल्‍लव 


हो उठा था | 

“क्यों बाबू साहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी 
आँखों में आँसू क्‍यों आ गए ? 

सहसा ननन्‍हकू का मुख भयानक हो उठा । उसने कहा - “चुप 
रहो, तुम उसको जानकर क्या करोगी। बह उठ खड़ा हुआ | उद्विग्न 
की तरह न जाने क्या खोजने लगा | फिर स्थिर होकर उसने कहा - 
“दुलारी ! जीवन में आज यह पहला ही दिन है कि एकांत रात में एक 
स्त्री मेरे पलंग पर आकर बैठ गई है। मैं चिरकुमार अपनी एक प्रतिज्ञा 
का निर्वाह करने के लिए सैकड़ों असत्य, अपराध करता फिरता रहा हूँ 
क्यों ? तुम जानती हो ? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ | और पन्ना . . . 
किन्तु उसका क्‍या अपराध? उसे पकड़कर गोरे कलकत्ते भेज देंगे ॥ 
नहीं ...। 

नन्‍हकू सिंह उन्मत्त हो उठा था | दुलारी ने देखा, नन्‍्हकू अंधकार 
में ही वटवृक्ष के तीचे पहुँचा और गंगा की उमड़ती हुई धारा में डोंगी 
खोल दी-“उसी घने अंधकार में, दुलारी का हृदय काँप उठा । 

6 अगस्त, सन्‌ 784 को काशी डाँवाडोल हो रही थी। शिवालय 
घाट में राजा चेत सिंह लेफ्टिनेंट इस्टाकर के पहरे में थे | नगर में 
आतंक था | दुकानें बंद थीं। घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते थे -“माँ, 
आज हलुएवाला नहीं आया | वह कहती - “चुप बैटे। ' --. सड़कें सूती 
पड़ी थीं। तिलंगों की कंपनी के आगे-आगे कुबरा मौलवी कभी-कभी 
आता-जाता दिखलाई पड़ता था | उप्त समय झुली हुईं खिड़कियाँ भी बंद 
हो जाती थीं। भय और सनत्नाटे का राज्य था | चौक में चिथरू सिंहं की 
हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बंदी किए कोतवाली का 
अभिनय कर रही थी। इसी समय किसी ने पुकारा - ' हिम्मत सिंह।' 

छिड़की में से सिर निकाल कर हिम्मत सिंह ते पूछा --/ कौन ?'' 

बाबू नन्‍्हकू सिंह।' 

अच्छा, तुम अब तक बाहर ही रहे ?'' 

पागल ! राजा कैद हो गए हैं। छोड़ दो इन सब बहादुरों को । 
हम एक बार इनको लेकर शिवालय घाट पर जाएँ ।'' 

ठहरो'” -- कहकर हिम्मत सिंह ने कुछ आज्ञा दी । सिपाही 
बाहर निकले | नन्‍्हकू ने कहा -- 'तमकहरामी। चूड़ियाँ पहन लो॥।' 


गुंडा के 


लोगों के देखते-देखते नन्‍्हकू सिह चला गया । कोतचासी-के सामने फिर 
सन्‍नाटा हो गया | 

नन्‍हक्‌ू में उन्‍्माद था | उसके थोड़े-से साथी उसकी आज्ञा पर जान 
देने के लिए तुले थे | वह नहीं जानता था कि राजा चेतसिंह का रुक्‍्का 
राजनीतिक अपराध मचाने के लिए भेज दिया। इधर अपनी डोंगी लेकर 
शिवालय की खिड़की के नीचे धारा काटता हुआ पहुँचा । किसी तरह 
निकले हुए पत्थर में रस्सी अटकाकर उस चंचल डोंगी को उसने स्थिर 
किया और बंदर की तरह उछलकर खिड़की के भीतर हो रहा। उस 
समय वहाँ राजमाता पन्ना और युवक राजा चेतसिंह से बाबू मनियार 
सिंह कह रहे थे ++ आपके यहाँ रहने से, हम लोग क्या करें? यह समझ 
में नहीं आता । पूजा-पाठ समाप्त करके रामनगर चली गई होतीं, तो 
यह 

तेजस्विती पन्ना ने कहा /& अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊे? 

मनियार सिंह दुःखी होकर बोले ,--' कैसे बताऊँ? मेरे सिपाही तो 
बंदी हैं? 

इतने में फाटक ;पर कोलाहल मचा - राज-परिवार अपनी मंत्रणा 
में ड्बा था कि नन्‍्हकू सिंह का आना उन्हें मालूम हुआ । सामने का द्वार 
बंद था | नन्हक्‌ सिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा &$ उसमें एक 
नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी। वह प्रसन्‍न हो उठा। 
इसकी प्रतीक्षा में वह रुका था। उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा 
- महारानी कहाँ है !' 

सबने घूमकर देखा-एक अपरिचित वीरमूर्ति |।शस्त्रों से लदा हुआ 
पूरा देव! 

चेतसिंह ने पूछा -/ तुम कौन हो ? 

राज-परिवार का एक बिना दाम का सेवक | 

पन्ना के मूँह से हलकी-सी एक साँस निकलकर रह गई। उसने 
पहचान लिया । इतने वर्षों के बाद ([)वही नन्हकू सिंह ! 

मनियार सिंह ने पूछा तुम क्या कर सकते हो ? 

"मैं मर सकता हूँ। पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए। नीचे 
दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं। फिर बात कीजिए।” भनियार सिंह ने 
देखा, जनानी ड्योढ़ी का दारोगा राजा की एक डोंगी पर चार मल्लाहों 


52 पल्लव्‌ 


के साथ खिड़की से नाव सठाकर प्रतीक्षा में है। उन्होंने पन्ना से कहा - 
'चलिए मैं साथ चलता हूँ। 

'भेरे , .. . ' चैतसिंह को देखकर, पुत्र-वत्सला ने संकेत से एक 
प्रश्न किया। उप्तका उत्तर किस्ती के पास न था। मनियार सिंह ने कहा-- 
// तब मैं यहीं ?” ननन्‍हकू ने हँसकर कहा -- मेरे मालिक आप नाव पर 
बैठें | जब तक राजा भी नाव पर न बैठ जाएँगे, तब तक सत्रह गोली 
खाकर भी नन्हकू सिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है।' 

पन्ना ने नन्‍्हकू को देखा | एक क्षण के लिए चारों आँखें मिर्ली, 
जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था | फाटक 
बलपूर्वक खोला जा रहा था | ननन्‍्हकू ने उन्मत्त होकर कहा - ' मालिक, 
जल्दी कीजिए। 

दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और ननन्‍हकू सिंह फाटक पर इस्टा- 
कर के साथ | चेतराम ने आकर एक चिट्ठी मनियार सिंह के हाथ में 
दी। लेफ्टिनेंट ते कहा + “आपके आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं। अब मैं 
अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता।*' 

“मेरे सिपाही यहाँ कहाँ हैं साहब ?” -मनियार सिंह ने हँसकर - 
कहा | बाहर कोलाहल बढ़ने लगा था । 

चेतराम ने कहा - ' पहले चेतसिंह को कैद कीजिए।*' 

“कौन ऐसी हिम्मत करता है?” -- कड़ककर कहते हुए बाबू 
मनियार सिंह ने तलवार खींच ली । अभी बात पूरी न हो सकी थी कि 
कुबरा मौलवी वहाँ पहुँचा | यहाँ मौलवी साहब की कलम नहीं चल 
सकती थी और न ये बाहर ही जा सकते थे । उन्होंते कहा - ' देखते 
क्या हो चेतराम [ 

चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही था कि ननन्‍्हकू के सघे हुए 
हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी | इस्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहब 
चिल्लाने लगे | नन्‍्हकू सिंह ने देखते-देखते इस्टाकर और उसके कई 
साधियों को धराशायी किया, फिर मौलवी साहब कैसे बचते ? 

नन्‍्हकू सिंह ते कहा - क्यों, उस दिन के झापड़ ने तुमको 
समझाया नहीं? ले पाजी। कहकर ऐसा साफ जतेवा मारा कि कुंबरा 
ढेर हो गया | कुछ ही क्षणों में यह भीषण घटना हो गई, जिसके लिए 
अभी कोई प्रस्तुत न था। 


(भृंडा 53 


नन्‍हकू सिंह ने ललकार कर चेतसिंह से कहा - आप देखते क्‍या 
हैं? उतरिए डोंगी पर । उसके घावों से रक्त के फब्चारे छूट रहे थे | 
उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेतसिंह ने खिड़की से 
उतरते हुए देखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचल खड़ा 
होकर तलवार चला रहा है। नन्‍्हकू के चट्टान सदृश शरीर से गैरिक की 
तरह रक्त की धारा बह रही है। गुंडे का एक-एक अंग कटकर वहीं 
गिरते लगा | 

वह काशी का गुंडा था | 


प्रश्त-अभ्यात्त 


!. लेखक ने नन्हकू सिंह का जो रुप-स्वरूप अंकित किया है उसे केवल एक 
वाक्य में प्रस्तुत कीजिए| 

2. प्राचीन काशी और अठरहवीं शताब्दी के अंत की काशी में लेखक ने क्या 
अंतर बताया है ? यह विवरण कथानक से किस्र॒ प्रकार संबंधित है और उसे 
आगे बढ़ाने में टिप्न प्रकार सहायक है ? 

3. नन्हकू सिंह किन विषम परिस्थितियों में गुंडा बनने को विवश हुआ ? इस पाठ 
से संकेत ग्रहण करते हुए वर्णन कीजिए। 

4... बोधी सिंह लौट गए और मलूकी के कंधे पर तोड़ा लादकर बाजे के आगे 
नन्‍्हकू सिंह बारात लेकर गए, ब्याह में जो कुछ लगा, खर्चे किया। 
उपर्युक्त वाक्य से बोघी सिंह की चतुराई और ननन्‍्हकू सिंह की उदारता किस 


प्रकार व्यक्त होती है? 
5. कुबरा मौलवी! जहाँ सुनती हूँ, उसी का नाम, सुना है कि उसने यहाँ भी 
आकर कुछ . . . “ फिर न जाने क्‍या सोचकर, बात बदलते हुए पन्ना ने 


कहा, हाँ, तब फिर क्या हुआ ? 
उक्त पंक्तियों पे राजमाता पन्ना की किस्त मानसिक दशा का संकेत मिलता 
है? 

6. राजमाता का मुख किस घटना का स्मरण करके विवर्ण हो गया ? इस कहानी 
से प्राप्त संकेतों के आधार पर पूरी घटना का वर्णन कीजिए। 

7. राजमाता और दुलारी में क्या संबंध थे ? दोनों में हुई बातों का सारांश अपने 
शब्दों में लिखिए। 

8, बाबू नन्‍्हकू सिंह के चरित्र को गुंडे के रूप में प्रस्तुत करने में और उसे महिमा 


54 


पल्लव 
मंडित बनाने में कहानी के किन पात्रों और घटनाओं का योगदान है ? 


, कहानी के किन्ही दक्ष विशिष्ट प्रयोगों का चयन कीजिए ।| 


जैसे गँड़सा तोलना, खटका करना | 

इस कहानी के भावुकतापूर्ण स्पल्नों का चयन कीजिए और बताइए कि उनते 
कहानी में क्या विशेषताएँ आ गई हैं? 

प्रसाद जी ने मुख्य रूप से आदर्शवादी कहानियों की रचना की है जिनमें 
ऐतिहासिक वातावरण के सजीव चित्रण की ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया है।' 


उक्त कघन के संदर्भ में इस कहानी की समीक्षा कीजिए। 


रामवृक्ष बेनीपुरी 


(!902-68) 


रामवृक्ष बेतीपुरी का जन्म बिहार के मुज॒फ्फर नगर जिले के बेनीपुर 
तामक ग्राम में हुआ था | बचपन में ही उनके माता-पिता का निधन हो 
गया था। उत्होंने कष्ट सहकर मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की। 920 ई,. में 
गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन प्रारंभ होने पर वे अध्ययन 
छोड़कर राष्ट्रसेवा में लग गए। राष्ट्रीय सवतंत्रता-संग्राम में भाग लेने के 
कारण उनको दस बार जेल जाता पड़ा | । 

उनके जीवन में राजनीति, साहित्य और संस्कृति की त्रिवेणी 
प्रवाहित है। उनका साहित्य गहन अनुभूतियों और उच्च कल्पनाओं का 
स्पष्ट प्रतिबिंब उपस्यित करता है। उतकी भाषा ओजपूर्ण, रोचक और 
सशक्त है। 

बेनीपुरी 5 वर्ष की आयु से ही पत्र-पत्रिकाओं में लेख आदि 
लिखने लगे थे। उन्होंने तरुण भारत, किसान, मित्र, बालक , 
युवक, योगी, जनता, जनवाणी, तई धारा आदि अनेक 
साप्ताहिक तथा मासिक पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक संपादद कर एक 
सुयोग्य पत्रकार एवं लोकप्रिय संपादक का यश अर्जित किया। 

उपन्यास, ताटक, कहानी, यात्रावृत्त, संस्सरण, रेखाचित्र, निबंध 
आदि सभी गद्य-विधाओं में बेनीपुरी ने रचना की। उनकी कुछ रचताओं 
का प्रकाशन बेतीपुरी-ग्रंथावली वाम से दो भागों में हुआ है। उनके प्रसिद्ध 
ग्रंथ हैं: 'पतितों के देश में! (उपन्यास), चिता के फूल' (कहानी), 
भाटी की मूरतें (रेखाचित्र), अंबपाली (वाठक), गेहूँ और गुलाब' 
(निबंध और रेखाचित्र), पैरों में पंख बाँधकर (यात्रा वृत्तांत), जंजीरें 
और दीवारें? (संस्मरण) | 


१6 पललव 


प्रस्तुत पाठ में लेखक ने भारत में नई संस्कृति के विकास की ओर 
पाठकों का ध्याव आकृष्ट किया है। उसने संस्कृति को समाज रूपी वृक्ष 
का फूल भावा है और तए समाज की हर विकास योजना को अधूरा 
भाना है जिसमें नई संस्कृति के लिए स्थान नहीं है। इस नई संस्कृति के 
आधार तत्त्व होंगे - स्वतंत्रता, समता और माववता के आधार पर 
समाजिक जीवन का पुनर्गठत, सौन्दर्य और आनंद का पूर्ण विकास | इस 
संस्कृति के निर्माण में लेखकों, कवियों और कलाकारों का विशेष 
गोगदान अपेक्षित है। 


7. नई संस्कृति की ओर 


हिचुस्तान आजाद हो गया।हिनुस्तान का ध्यान एक नए प्माज के 
निर्माण की ओर केद्धित हो रहा है| यह नया समाज कैप्ता हो - उत्तका 
मूत्न आधार कैसा हो, उम्तका विकास किस्त प्रकार किया जाए - 
हिन्दुस्तान का हर देशभक्त इन प्रश्नों पर सोच-विचार कर रहा है| 

समाज को अगर एक वृक्ष मान लिया जाए, तो अर्थनीति उम्तकी 
जड़ है, राजनीति आधार, विज्ञाव आदि उसके तने हैं और संस्कृति 
उसके फूल | इसलिए नए समाज की अर्थनीति या राजनीति आदि पर 
ही हमें ध्यात देता नहीं है, बल्कि उसकी संस्कृति की ओर सबसे अधिक 
ध्यान देता है, क्योंकि भूल और तने की सार्थकता तो उसके फूल में ही 
है| 

फिर इन तीनों का संबंध परस्पर इतना गहरा है कि आप इल्हें 
अलग-अलग कर भी नहीं सकते | नई अर्थतीति और राजनीति के स्षाथ 
एक नई संस्कृति का विकाप्त हमारी आँखों के स़्ामते हो रहा है - भले ही 
हम उसे देख न पाएँ या उसकी ओर से अपनी आँखें मूँद लें। 

अब्य क्षेत्रों में हमारी पंच-वार्षिक योजनाएँ आ रही हैं, किंतु क्या 
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि स्ष॑स्कृति के विकास में प्रगति देने के 
लिए एक भी व्यापक योजना हमारे समाने नहीं आ रही है ! 

गत पचास वर्षों के राजवीतिक-आर्थिक संघर्षों ने हमारे दिमाग़ 
की इतना भोधरा बना दिया है कि संस्कृति की सुकुमार दुनिया हमारी 
पथराई आँखों के सामने आकर भी नहीं आ पाती। 

गेहूँ हमारी आँखों पर इस कृदर छाया हुआ है कि गुलाब को हम 
देखकर भी नहीं देख पाते। गेहूँ के सवाल को हल कीजिए, और जरूर 
हल कीजिए, किन्तु किसलिए )? आदमी सिर्फ चारा या दाना खाने वाला 
जानवर तहीं है। गेहूँ तक आदमी और जाववर में फूर्क नहीं है-आदमी 


58 - पलल्‍लेव 


को आदमी बताया गुलाब ने | 

समाज की सारी साधनाओं की परिपाटी उसकी संस्कृति में है। 
जड़ में खाद-पानी दीजिए, तनों की रक्षा कीजिए, किन्तु नजर रखिए 
फल पर, फूल पर, गुलाब पर, संस्कृति पर ! 

नए समाज की वह हर नई योजना अधूरी है, जिसमें नई संस्कृति 
के लिए स्थान नहीं | 

मै ६०३ ऊ 

"सूरज डूबने जा रहा था, उसने कहा--कौन मेरे पीछे इस संसार 
को आलोक देगा ? 

चाँद थे, सितारे थे- सब चुप रहे। छोटा-सा मिट्टी का दीया ! 
उसने बढ़कर कहा - देवता, यह भारी बोझ है मेरे दुर्बल कंधों पर !' 

कविगुरु रवीद्रनाथ ठाकुर की कविता की यह एक कड़ी है। 

जब राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्रज्ञ दूसरी बड़ी-बड़ी योजनाओं में लगे 
हैं, ओ कलाकारों, चलो, हम अपनी परिमित शक्ति से इस क्षेत्र में कुछ 
काम कर दिखाएँ! आखिर यह क्षेत्र भी तो हमारा ही है। गुलाब की 
खेती के माली तो हम ही हैं, फूलों के संसार के भौरे तो हम ही हैं। हम 
न करेंगे, तो करेगा कौन ! 

हमारी यह गुलाब की दुनिया, फूलों की दुनिया -रंगों की दुनिया, 
सुगंधों की वुनिया -- इतनी सुकुमार, इतनी नाजुक दुनिया है कि कहीं 
अर्थशास्त्रियों के हथौड़े, राजनीतिज्ञों के कुल्हाड़े उसका सर्वनाश न कर 
दें, या प्रेमचंद के शब्दों में रक्षा में हृत्या' न हो जाए ! इसलिए हमें ही 
यह करना है, उन्हें कुछ दूर-वूर ही रखना है, 

नई संस्कृति ' नए समाज के लिए नई संस्कृति! किंतु इसका 
मतलब यह नहीं कि हम पुरानी संस्कृति के निंदक या शत्रु हैं। पुरानी 
संस्कृति की सरजमीन पर ही तो नई संस्कृति की अटटालिका खड़ी करनी 
है हमें ! पुरानी संस्कृति से हम प्रेरणा लेंगे, पाठ लेंगे। वह हमारी 
विरासत है, हम उसे क्‍यों छोड़ेंगे ? 

किन्तु पुरानी संस्कृति नष्ट हो रही है, क्योंकि उसमें सड़त आ गई 
है घुन लगा हुआ है| इसलिए नई संस्कृति की रूपरेखा नई होगी ही, 
नए साधतों की अपनाने से भी हम न हिचकेंगे। 

हमारा उद्देश्य होगा -० संस्कृति और जीवन के सांस्कृतिक पहलू 


नई संस्कृति की ओर 59, 


का इस प्रकार विकास करना कि हमारा सामाजिक जीवन स्वतंत्रता, 
समता और मानवता के आधार पर पुत्र: संगठित हो और वह सौन्दर्य एवं 
आनंद को पूर्ण रूप से विकसित कर सके | 

हाँ, स्वतंत्रता, समता, मानवता ! नई संस्कृति के आधार तो यही 
हो सकते हैं| किन्तु इसका अर्थ हम सिर्फ राजनीतिक और आर्थिक अर्थों 
में वहीं लगाते | तीसरा शब्द मानवता हमारे उद्देश्य को स्पष्ट और पुष्ट 
कर देता है। हम सारी दासताओं से,सारी विषमताओं से मानवों को मुक्त 
कर उनके परस्पर के संबंध को विशुद्ध मानवता पर प्रतिष्ठित करना 
चाहते हैं। क्योंकि हम मानते हैं कि तभी आदमी अपने जीवन में सौन्दर्य 
और आनंद की उपलब्धि कर पाएगा। 

सौन्दर्य! आनंद! नई संस्कृति को इसी ओर चलना है, बढ़ना है! 
आज के समाज में कुरूपता ही कुरूपता है, पीड़ाओं की विविधता है, 
बहुलता है। हम इसे सुंदर बनाएँगे-हम इसे सुखी बनाएँगे। लेखकों को, 
कवियों को, पत्रकारों को हम इकटूठा करेंगे ताकि वे परस्पर 
विचार-विनिमय करके जनता के जीवन के अभावों और अभागों का सही 
चित्रण करें और साहित्य को उस पथ से ले चलें जिसके द्वारा जनता 
स्वतंत्र और पूर्ण जीवन का उपभोग कर सके | क्‍ 

इतना ही नहीं, जो कलाकार नाटक, संगीत, नृत्य और चित्रकारी 
में लगे हैं, उन्हें भी एकत्र करेंगे और उच्हें प्रोत्साहित करेंगे, ताकि वे 
अपनी कलाकृतियों में जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं की 
प्रतिफलित होने दें और जीवन को सौन्दर्यमय बताकर उसे आनंद से 
परिपूरित करें। 

इस तरह हम उन सभी कलाकारों का आह्वान कर रहे हैं जो 
अपनी लेखनी, कूँची, वाणी या यंत्रों द्वारा समाज को सत्यं-शिवं-सुंदरम्‌ 
की ओर ले जाने में लगे हैं, किन्तु एक व्यापक संगठन नहीं होने के 
कारण, जिनकी साधनाएँ इच्छित फल नहीं दे पा रही हैं। 

इनका संगठन करके हम शहरों और गाँवों में ऐसे सांस्कृतिक केंद्र 
खोलता चाहते हैं, जिनमें उनकी कलाकृतियों का णरदर्शन हो सके और 
जहाँ से नई संस्कृति का संदेश भिन्न-भिन्न साधनों द्वारा हम देश के 
कोने-कोने में फैला सकें | 


ऊ पं $ >> 


60 पलल्‍्लव 


हम बार-बार जनता पर जोर दे रहे हैं, क्योंकि हमने देखा है और 
दुःख के साथ अनुभव किया है कि आज की संस्कृति कुछ अभिजात्य 
लोगों तक ही सीमित और परिमित है। 

नया समाज जनता का समाज होगा, नई संस्कृति को भी जनता 
की संस्कृति होनी है। 

नए समाज का भविष्य महान्‌ है! नई संस्कृति का भविष्य महान्‌ 
है! 

अब तक की पतस्कृति मानवता के सैकड़ों में एक का भी सही 
प्रतिनिधित्व नहीं कर पाती थी, यह सौ में त्ौ का प्रतिनिधित्व करेगी, 
यह कितनी बड़ी चीज होगी: कल्पना कीजिए [ 

कितनी बड़ी चीज, कितनी रंग-बिरंगी चीज ! 

सौ में सी की इच्छा, आकांक्षा, हर्ष-उल्लास, मिलन-विरह, 
शौर्य-बलिदान, दया-क्रोध, पीर-रुदत का वह चित्रण और उनकी ही 
कलम या कूची, वाणी या यंत्र द्वारा ! 

सदियों से अवरुद्ध निर्शीरिणी जब यकायक शैलशूंग से फूट पड़ेगी, 
युगों से पिंजरबद्ध विहगी जन-वन-विटपी का फुनगी पर, पर खोलते हुए 
कलरव कर उठेगी। 


प्रश्त- अभ्यास 


!. प्रस्तुत पाठ में लेखक ने किस प्रकार के भारतीय समाज की अपेक्षा की है ? 

2. समाज-वृक्ष के रूपक को स्पष्ट कीजिए| 

3. सांस्कृतिक उत्थान के बिना आर्थिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति के होने पर 
भी हमारा विकास अधूरा रह जाएगा, इस कथन की सार्थकता सिद्ध 
कीजिए। 

4. मा उत्थान के लिए लेखक कलाकारों को ही उपयुक्त क्‍यों समझता 


5. लेखक ने पुरानी और नई संस्कृति में क्या सामंजस्य स्थापित किया है ? 

6. नई संस्कृति के किन विधायक तत्त्वों की ओर लेखक ने संकेत किया है ? 

7. नए समाज की वह हर नई योजना अधूरी है, जिसमें नई संस्कृति के लिए 
स्थान नही” आशय स्पष्ट कीजिए। 


नई संस्कृति की ओर 6] 


8. जनता स्वतंत्र और पूर्ण जीवन का उपयोग कर सके, इसके लिए लेखक ने 
क्या उपाय सुझाया है ! 
9, नई संस्कृति के निर्माण में लेखक प्ामान्य जनता को भी स्रहभागी क्यों बनाना 
चाहता है ? 
0. इस पाठ के आधार पर रामवृक्ष बेनीपुरी की भाषा-शैली की तीन विशेषताएँ 
सोदाहरण लिखिए। 
!. सप्रसंग व्याख्या कीजिए : 
(क) गेहूँ हमारी आँखों पर . . , , . , . आदमी बनाया गुलाब ने | 
(ख) समाज की सारी साधनाओं , . , . . संस्कृति पर | 
(ग) हमारी यह गुलाब . . . . . . दूर-दूर ही रखना है | 


एत०एल० रामानाथत 


(4927-83) 


कल 


एत०एल० रामाताथन ने कोचीन (केरल) में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने 
के बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से 949 ई. में भौतिकी में 
एम०एस-सी, की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाव उन्होंने डाक्टर 
के०एस० कृष्णन जैसे प्रतिद्ध वैज्ञानिक के मार्गदर्शन में भारतीय विज्ञान 
संध्यान, बंगलौर में अनुमधानकर्ता के रूप में कार्य किया | थोड़े ही विनों 
बाद उन्होंने अखिल भारतीय स्वास्थ्य विशञात और जनस्वास्थ्य संस्थान, 
कलकत्ता में अनुप्तंधात-विज्ञानी के रूप में पदभार ग्रहण किया और 
औद्योगिक स्वास्थ्य, वायु-प्रदूषण, पर्यावरण, शारीरिक विज्ञान और 
सास्थ्य भौतिकी जैसे तए विषयों में भहत्त्वपर्ण कार्य किए। उन्होंने 
जादवपुर विश्वविद्यालय से पर्यावरण में पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त 
की और 968 ई., में वे राष्ट्रीय व्यावत्तायिक स्वास्थ्य संस्थान, 
अहमदाबाद में आ गए और इस नए संस्थात के निर्माण में महत्त्वपूर्ण 
भूमिका अदा की। यहाँ उन्होंने वायु प्रदूषण, औद्योगिक स्वास्थ्य और 
भारी धातुओं द्वारा पर्यावरण प्रवृषण के संबंध में अनुसंधान परियोजनाएँ 
चलाईं| 

डा० रामानाथव एक वर्ष के लिए फैलो के रूप में सं०रा० 
अमरीका गए। वहाँ उन्हें अमरीकी औद्योगिक स्वास्थ्य संगठन के द्वारा 
973 ई. के वार्षिक सम्मेलन में सर्वोत्तम अनुसंधान-पत्र के लिए 
सम्मानित किया गया | 98! ई. में उल्हें व्यावज्ञायिक स्वास्थ्य में की गई 
पेवाओं के लिए पर अरदेशिर दलाल मेमोरियल गोल्ड मेडल प्रदात किया 
गया। उन्होंने 982 ई. में औद्योगिक स्वास्थ्य के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 
डा, रामाताथन ते 75 पे अधिक मौलिक अनुसंधान पत्र लिखे जो मूल 


रपायन और हमारा पर्यावरण 63 


और अनुवाद के रूप में भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 
हुए। मूल अनुसंधान पत्रों में नवीन खोजों और अध्ययनों की जानकारी 
परल एवं रोचक शैल्ली में प्रस्तुत की गई है। डा" रामानाथन ने भारत 
सरकार द्वारा नव स्थापित पर्यावरण विभाग में निदेशक के रूप में 976 
ई, में कार्य-भार भग्रहण किया । यहाँ उन्होंने पर्यावरण प्रबंध ,पर्यावरण 
शिक्षा, पर्यावरण नीति आवि विषयों पर अनुसंधान कार्यक्रम चलाए। 
पर्यावरण अनुसंधात समिति के सचिव के रूप में उनके द्वारा की गई 
सेवाएँ आज भी याद की जाती हैं। 2 अक्तूबर 983 ईं, को उनका 
निधन हुआ | 

प्रस्तुत लेख रसायन और हमारा पर्यावरण में लेखक ने मानव 
जीवन में रसायन के महत्त्त और आवश्यकता का उल्लेख करते हुए 
स्पष्ट करना चाहा है कि रसायनों का अनुचित तथा अत्यधिक उपयोग 
हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए अनिष्टकारी सिद्ध हो सकता है। 
इसलिए उनका आग्रह है कि हमें रप्तायतों का उपयोग, उतसे होने वाली 
सभी हानियों को पूरी तरह समझते हुए, पूरे विवेक के साथ करना 
चाहिए। 


8, रसायत और हमारा पर्यावरण 


दुनिया रसायनों से ही चल रही है। जीवन, रासायनिक प्रक्रियाओं में गुँगा 
है। वास्तव में जीवन की प्रक्रियाएँ, क्रमिक रासायनिक अभिक्रियाओं का 
ही परिणाम है। हर साँस, हर प्रयत्म, पसीने की हर बूँद अथवा पेट में 
भूख की ऐंठत-सभी का कारण रासायनिक अभिक्रियाएँ हैं। 

हम रतायतों के युग में रह रहे हैं। हमारे पर्यावरण की सारी 
वस्तुएँ और हम सब, रासायनिक यौगिकों के बने हैं। हवा, मिट्टी, 
पानी, खाता, वतस्पति और जीव-जंतु ये सब अजूबे जीवन की 
रासायनिक सच्चाई ने पैदा किए हैं। प्रकृति में पैकड़ों-हजारों रासायनिक 
पदार्थ हैं। रसायन ते होते तो धरती पर जीवन भी नहीं होता | पानी, जो 
जीवन का आधार है, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना एक रासायनिक 
यौगिक है। मधुर-मीठी चीनी, कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बनी 
है। कोयला और तेल, बीमारियों से मुक्ति दिलाने वाली औषधियाँ, 
एंटीबायोटिक्स, एसश्रीत और पेतिसिलित, अनाज, सबह्जियाँ, फल और 
मेवे-सभी तो रसायन हैं। 

आज रसायन विज्ञान काफी आगे बढ़ चुका है। गैसे-जैसे हमारी 
रतायन संबंधी क्षमता बढ़ी है, उनके जीव वैज्ञानिक प्रभावों के प्रति 
हमारी चिंता भी बढ़ी है। रसायनों का जुरूरत से अधि. और गलत 
उपयोग हमारे पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हो 
सकता है। जीवन के प्भी क्षेत्रों में रप्तायतों के खतरों के प्रति बार-बार 
प्रश्न उठ रहे हैं। विन-ब-दिन रसायनों के अकल्पित और अप्रत्याशित 
प्रभाव सामने आ रहे हैं। इतकी मारक शक्ति, आनुवंशिक, अनिष्टकर 
और क्षयकारी प्रभाव-सचमुच में सभी गंभीर चिंता के विषय हैं| 

जीवन जोखिम से भंरा है, गुफा-मावव ने जब भी आग जताई, 
उसने जल्न जाते का ख़तरा उठाया। जीवनयापन के आधुनिक तरीकों ने 


रक्षायन और हमारा पर्यावरण 65 


कुछ ख़तरों को कम किया है, पर कुछ ख़तरे अनेक गुना बढ़ गए हैं। ये 
ख़तरे नुकसान और शारीरिक चोट के रूप में हैं। हम सभी अपने दैनिक 
जीवन में जोखिम उठाते हैं। जैसे जब हम सड़क पार करते हैं, स्टोव 
जलाते हैं, कार" में बैठते हैं, खेलते हैं, पालतू जानवरों को दुलारते हैं, 
घरेलू कामकाज करते हैं या केवल पेड़ के नीचे बैठे होते हैं, तो हम 
जोखिम उठा रहे होते हैं। इन जोखिमों में से कुछ तात्कालिक हैं, जैसे 
जलने का, गिस्ने, का या अपने ऊपर कुछ गिर जाने का ख़तरा। कुछ 
ख़तरे ऐसे हैं जिनके प्रभाव लंबे समय के बाद सामने आते हैं। जैसे लंबे 
समय तक शोर-गुल वाले पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों की 
श्रवणशक्ति कम ही सकती है। 

क्या रसायन भी जोखिम उत्पन्न करते हैं? स्पष्ट है कि कुछ 
अवश्य करते हैं। उनमें से अनेक बहुत अधिक जहरीले हैं, कुछ प्रचंड 
विस्फोट करते हैं और कुछ अन्य अचानक आग पकड़ लेते हैं, ये रसायनों 
के कुछ तात्कालिक उग्र” ख़तरे हैं। रसायनों से कुछ दीर्घकालिक 
खतरे भी होते हैं, क्योंकि कुछ रसायनों के संपर्क में अधिक समय तक 
रहने पर, चाहे उन रसायनों का स्तर लेशमात्र क्‍यों न हो, शरीर में 
बीमारियाँ पैदा हो सकती हैं। 

मनुष्य और रसायन उद्योग ने रसायन के तात्कालिक उम्र ख़तरों 
को पहचानने की दिशा में अच्छा काम किया है और जनता तथा उन 
कर्मचारियों को, जो काम के दौरान रसायनों के संपर्क में रहते हैं, 
रसायनों के कुप्रभाव से बचाने के लिए आवश्यक एहतियाती कर्म उठाए 
गए हैं। वास्तव में रसायनों के बारे में यह कहना शायद गलत न हो कि 
जो रसायन जितता अधिक जहरीला या ख़तरनाक होता है, उसका 
उपयोग आज उतना ही सुरक्षित है, क्योंकि लोग उसके बारे में पहले से 
सावधान होते हैं और इसलिए उन्हें इस्तेमाल करते वक्त काफी सतर्क 
रहते हैं। 

लेकिन अपेक्षाकृत कम जहरीले रसायनों के बारे में यही बात नहीं 
कही जा सकती है। रसायनों के लंबे समय के बाद उजागर होने वाले 
प्रभाव, दीर्घकालिक ख़तरे, अभी हाल ही में पहचानी गई समस्या है। 
कुछ रसायन उस पीढ़ी को तो प्रभावित नहीं करते; जो उसके सप्की में 
रहती है या उनके प्रति उद्भासित होती है,पर उनके प्रभाव अगली था 


66 पल्‍लव 


उससे भी अगली पीढ़ी को झेलने पड़ते हैं। थैलीडोमाइड से हमें इस 
बारे में सबक मिला है। ऐस्बेस्टस ने, जिसे हमने एक सुरक्षित. पदार्थ 
समझा था और जो अग्नि को भी सह सकता है, अपने कैंसर पैदा करने 
के अवगुण से हमें आश्चर्य में डाल दिया | पौलीक्लोरीनेटिड बाइफेनिल, 
जो अपने पराचैद्युत (डाईइलेक्ट्रिक) गुण के कारण जाने जाते हैं, 
वातावरण में धीरे-धीरे इकट्ठे होते जाते हैं और एक लंबे समय के 
बाद जीवों, मछलियों और यहाँ तक कि मनुष्यों के लिए भी ख़तरा 
उत्पन्न कर देते हैं। एक अन्य गज़ब के रसायन, डी.डी.टी. को तब 
ख़तरनाक करार विया गया जब रचैल कार्सन ने-अपनी पुस्तक ' साइलेंट 
स््रिंग ” में इसके अवगुण बखते। कास्टिक सोडे के उत्पादन में काम 
आने वाली मरकरी सेल प्रौद्योगिकी दो दशक पहले तक बड़े मजे से 
इस्तेमाल की जाती रही, जब तके कि विश्व के सामने जापान में 
मितामाठा की मछली खाने वाली आबादी में, अपंग बना देने वाला और 
आमतौर पर घातक सिद्ध होने वाला स्तायु रोग फैलने की घटना सामने 
नहीं आई। यह रोग पानी में बहिःज्राव के रूप में बहाए जाने वाले 
मरकरी के कारण फैल रहा था। इसका मैथिल मरकरी में जैविक 
परिवर्तन हो रहा था और मछलियाँ उसे मनुष्य में पहुँचा रही थीं। 
हमारा आधुनिक औद्योगिक अनुभव, प्रतिदिन इस्तेमाल होने वाले 
रसायनों के दीर्घकालिक ख़तरों से भरा पड़ा है, इन रसायनों में भारी 
धातुएँ, कार्बनिक विलायक, डाइ इंटरमीडिएट, जहरीली वाष्प और 
गैस्तीय उत्सर्जक शामिल हैं। इनमें से अनेक प्रदूषकों को हम भोजन और 
पानी के साथ अपने पेट में अथवा साँस के साथ अपने फेफड़ों में ले जाते 
हैं। दुर्भाग्य से वायु प्रदूषण एक घरेलू शब्द बन गया है। कुछ ऐसे रसायन 
भी मौजूद हैं जो हमारी सही सलामत खाल से होते हुए हमारे शरीर में 
प्रवेश कर जाते हैं| 
सीसा याती लेड एक सर्वव्यापी विष है। सल्‍्फर डाइऑक्साइड सब 
जगह पाई जाती है। हमारे लगभग सभी खाद्य पदार्थों में कीट-नाशक 
दवाइयों के अवशेष पहुँच चुके हैं। इनमें से अधिकतर रसायनों के 
जहरीलेपन के बारे में हमें जातकारी है, पर फिर भी उतसे जुड़े ख़तरों 
के बारे में अनेक ऐसे प्रश्त हैं जिनका उत्तर हमें मालूम नहीं हैं। इन 
प्रश्नों के बारे में वैज्ञानिकों की अलग-अलग राय है, पर इस बात से 


रप्तायन और हमारा पर्यावरण 67 


सभी सहमत हैं कि रसायनों के संपर्क में रह कर काम करने वाले 
कर्मचारियों को उनसे सुरक्षा प्रदान करमे और आम जनता तथा 
पर्यावरण को निम्नस्तरीय प्रदूषण से बचाने के लिए कदम उठाए जाने 
चाहिए। रासायनिक उत्पादों से निश्चित सुरक्षा पोने और पर्यावरण को 
प्रदूषित होने से बचाने के लिए हमें और अधिक जानकारी हासिल करने 
की जृरूरत है। 

सबसे पहले यह जृरूरी है कि ख़तरों को पहचाना जाए। इसवे, 
बाद हमें अपने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के वर्तमान ज्ञान के आधार पर 
उन्हें निम्नततम स्तर तक कम करना चाहिए। किन्तु ज्ञान का कितना भी 
ऊँचा स्तर अथवा सरकारी कानूत इन जोखिमों को पूरी तरह दूर नही 
कर सकते। क्‍या कोई दुनिया की उस स्थिति की कल्पना कर सकता है 
जिसमें सभी संभाव्य ख़तरताक रसायनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया हो? 
ऐसा कुछ भी तो नहीं है जिससे हानि हो सकने की संभावना न हो। एक 
पुरानी कहावत है जिसका आशय है “अति से तो अमृत भी जहर बन 
जाता है! 

हमें जोखिमों पर अपने निर्णय खतरे की संभाव्यता के आधार पर 
जोखिम-लाभ विश्लेषण की संकल्पना को ध्यान में रखकर लेने होंगे । 
यह कोई ऐसा मामला नहीं है जिसमें काले को विशुद्ध काला और सफ़ेद 
की विशुद्ध सफ़ेद बतलाया जा सके अथवा स्पष्ट “हॉ या ता कहा 
जा सके | यह किया कैसे जाए ? और क्‍या यह किया जाना आवश्यक है 
भी ? इस बारे में लोगों की रायों में बहुत अंतर होता है। इसलिए 
“ग्राहय जोखिम और “अग्राहय जोखिम” शब्दों का इस्तेमाल होने 
लगा है। 

खेती में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशी मनुष्य के लिए किसी हृद 
तक ज़हरीले हैं, इन्हें पर्नावरण में जानबूझ कर छिड़का जाता है, किन्तु 
इसके लिए इन्हें भलीं-भाँति परखा जाता है और इस्तेमाल की अनुगति 
दी जाती है। कारण, इससे फसल की वृद्धि के रूप में अधिक लाभ प्राप्त 
होता है। रासायनिक कीटनाशियों के इस तरह से नियंत्रित इस्तेमाल के 
ख़तरे ग्राहय जोखिम हैं लेकिन जोखिम का मूल्यांकग समय अथवा 
परिस्थितियों के साथ बदल सकता है। विकसित देशों में सन्‌ 4972 ई, 
के बाद डी. डी. टी. पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, किंतु विकासशील 


90 पलल्‍लव 


देश डी.डी.टी. के लगातार इस्तेमाल में आज भी लाभ देख रहे हैं। 

कुछ रसायन जो अपने आप में सुरक्षित हैं, उस समय हाति 
पहुँचाते हैं जब वे अन्य पदार्थों से क्रिया कर लेते हैं या फिर जब वे 
अन्य पवार्थों के स्ताथ मिलने के बाद अपना जहरीलापन छोड़ देते हैं। 
सोडियम और क्लोरीन दोनों ख़तरनाक हैं, किंतु साधारण नमक, 
सोडियम क्लोराइड जीवन के लिए जरूरी है। वूसरी ओर समुद्र का पावी 
पीने की दृष्टि से अत्यंत जहरीला है और लंबे समय तक नमक का सेवन 
रक्तचाप बढ़ने का कारण बन जाता है, जो एक दीर्घकालिक जोखिम है। 
यहाँ पर, मात्रा और जृहरीलापन-दोनों तथ्य जोखिम के अर्थ को 
प्रभावित करते हैं| 

कैंसर सबसे भयावक रोग है। कहा जाता है कि कैंसर अधिकतर 
पर्यावरणीय रसायनों के प्रति उद्भासन के कारण होता है। यह तथ्य है 
या यूँ ही उड़ाई गई बात ? कैंसर से संबंधित आँकड़े आज अविश्वसनीय 
हैं। ऐसी रिपोर्ट भी मौजूद है जो संकेत देती है कि कैंसर के मामले बढ़ 
रहे हैं,!किन्तु अन्य रिपोर्टों के अनुसार कैंसर के मामले कम होते जा रहे 
हैं, पिछले 25 वर्षों में पेट के कैंसर के मामलों में कमी आईं है किंतु 
फेफड़ों का कैंसर बढ़ा है| 

आमतौर पर यह बताया जाता है कि कैंसर के 80 प्रतिशत 
मामले पर्यावरणीय कारकों से संबंधित हैं। इसका अर्थ यह लगा लिया 
जाता है कि सारा दोष संश्लेषित रसायनों और वायु प्रदूषण का है। तथ्य 
जबकि यह है कि ये आँकड़े केवल अर्ध अनुमान-आधारित हैं, इतमें उत 
सभी कैंसर के मामलों को भी गिना जाता है जो आनुवंशिक नहीं हैं। 
पर्यावरणीय कारकों में तंबाकू, भोजन, शराब, सूरज की रोशनी, 
पार्श्शवर्ती विकिरण और स्वच्छता भी शामिल हैं और प्रदूषण भी | 
प्रत्यक्ष रूप से काम-काज के वातावरण के कारण उत्पन्न कैंसर, कुल 
कैंसरों के मामलों का एक से पाँच प्रतिशत है। 

रसायनों के बारे में, समाज के प्रति उसके लाभों और ख़तरों के 
बारे में निर्णय कौन करे ? इस संबंध में व्यक्तिगत और सामाजिक 
दृष्टिकोण हैं। जो आदमी सिगरेट पीता है या शराब का सेवन करता है 
और अपनी सेहत के प्रति लापरवाह है, जोखिमों के संबंध में वह अपना 
ही निर्णय ले रहा है। दूसरी ओर, सामाजिक निर्णय सरकार को नेने होते 


रसायन और हमारा पर्यावरण 69 


हैं। किंतु सरकार विज्ञान से लेकर सामान्य बुद्धि तक, सभी उपलब्ध 
सूचनाओं का उपयोग करके यह निर्णय किस प्रकार ले? रप़तायनों के 
इस्तेमाल पर सरकारी निर्णय, कानून और नियम बढ़ते जा रहे हैं क्योंकि 
जनता के स्वास्थ्य की सुरक्षा सरकार का कानूनी उत्तरबायित्व है। 

रसायनों के संबंध में सूचताओं का विश्लेषण आसान नहीं है। 
आदमियों से लेकर विधिवेत्ताओं तक, स्रभी प्रकार के लोगों का इस 
सूचना संग्रह में योगदान होता है। इनमें अक्सर असहमतियाँ होती हैं। 
मोटर गाड़ियों की गति-सीमा कितनी होनी चाहिए ? कोई रसायन 
कारखाना रोजगार, उत्पादन और सेवाएँ उपलब्ध करने के लिए बताया 
जाता चाहिए या उसे इसलिए नहीं बताया जाता चाहिए क्योंकि वह 
प्रदूषण फैलाता है ? ये सब रोज के प्रश्न हैं। हमारे निर्णय पर भावनाएँ 
और आशंकाएँ हावी हो जाती हैं। सही वैज्ञानिक तथ्य अधिकतर मौजूद 
नहीं होते या पर्याप्त नहीं होते। रसायनों के जोखिम के प्रति निर्णय लेना 
कभी भी आसान नहीं है, किन्तु आवश्यक हमेशा है।-जोखिमों और लाभों 
के बारे में निर्णय लेते वाले तो हम सब ही हैं। 

रसायत हमारी आश्यकता है | ये हमारे पर्यावरण में हमेशा मौजूद 
हैं, इनकी सूक्षर अथवा लेश मात्रा भी “अर्थपूर्ण” हो सकती है। इन लेश 
रसायनों के बारे में हमें और अधिक जानने की जरूरत है। हमें इस बारे 
में भी और जानकारी हासिल करनी है कि इतसे क्या हो सकता है। जब 
तक कोई रसायन बिना किसी संदिग्धता के गैरजरूरी और हानिकर 
सिद्ध न हो जाए, तब तक उसका इस्तेमाल जारी रहने देना चाहिए। 
लेकिन यह इस्तेमाल सुरक्षित ढंग से और सुरक्षित मात्रा में होता 
चाहिए। तात्पर्य यह है कि संभावी लाभकारी पदार्थों का इस्तेमाल, उनके 
गलत इस्तेमाल से हो सकने वाली सभी हानियों को पूरी तरह जानते- 
समझते हुए, पूरे विवेक के साथ किया जाना चाहिए। प्रश्व उठता है कि 
क्या हम ऐसा करने में' सफल हो सकते हैं? बहुत से मामलों में ऐसा 
किया जा चुका है और यदि हम कोशिश करें तो ऐसा अवश्य क़र सकते 
हैं। इसमें शक नहीं, हमें लगातार सतर्क रहता होगा। रासायनिक सुरक्षा 
को प्रतिदिन का कार्य मान लिया जाना चाहिए। 


+श्शव 


प्रश/-भभ्यातत 


., रतायन हमारे जीवन की आवश्यकता है और पर्यावरणीय प्रदूषण का कारण 


भी ”- इस कंपन को झष्ट कीजिए। 


, रसायन विज्ञान की प्रगति हमारी चिंता का कारण क्यों बन रही है ? 
, भपेक्षाकृत कम ज़हरीले रसायनों का उपयोग उतना सुरक्षित क्यों नहीं है 


जितना कि अधिक जहरीले रसायनों का ! 


। रसायन पे उत्पन्न दीर्घकालिक खतरों और तात्कालिक खतरों का अंतर 


पोदाहरण सष्ट कीजिए। 


. कुछ रासायनिक पदार्थ प्रारंभ में सुरक्षित और बाद में त्याज्य क्यों माने जाने 


तगते हैं! 


. प्रकार द्वारा जनता को मिगरेट आदि पदार्थों से उत्पन्न ख़तरों के प्रति केवन्न 


तावधान करना पर्याप्त क्यों नहीं है ? 


. रमायनों के जोम्िम के प्रति निर्णय लेना कभी भी आम्ान नहीं है किन्तु 


आवश्यक हमेशा है इस कथन से आप क्षह्ँ तक सहमत हैं! 


, समायनों के ब्तरों के संबंध में वैज्ञानिक, सरकार तथा आम यक्ति की 


भूमिकाओं पर प्रकाश डालिए| 


, आशय सष्ट वीजए : 


(क) ' रप्तायन ते होते तो धरती पर जीवन भी नहीं होता। 

() 'जीवनयापन के आधुनिक तरीकों ने कुछ ख़तरों को कम किया पर 
कुछ ख़तरे अनेक गुना बढ़ गए हैं।' 

(ग) 'भति में तो अमृत भी जहर बन जाता है।' 

पर्यावरणीय प्रदूषण से बचने के लेखक ने क्या उपाय बताए हैं? 


शरद जोशी 


(4934) 


शरद जोशी का जन्म उज्जैन (मध्य प्रदेश) में हुआ। पिता के तबादले 
होते रहने के कारण उन्होंने मध्य प्रदेश के कई तगरों के विद्यालयों में 
शिक्षा प्राप्त की | 

शरद जोशी ने प्रारंभिक वर्षों में पत्रकार के रूप में कार्य किया | 
आकाशवाणी तथा अन्य सरकारी कार्यात्रयों में नौकरी की, लेकित बाद 
में तीकरी छोड़कर स्वतंत्र-लेखन को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया | 
सतंत्र-लेखन में उन्होंने साहित्य की व्यंग्य-विधा को अपना विषोष क्षेत्र 
बनाया और सफतता भी प्राप्त की। अनेक पत्न-पत्रिकाओं में उनकी 
रचनाएँ समय-समय पर प्रकाशित होती रहती हैं। 

धर्म-अध्यात्म, राजनीति, स्लामाजिक जीवन, व्यक्तिगत आचरण 
कुछ भी उतकी पैनी दृष्टि से बच नहीं पाया है और सभी क्षेत्रों में पाईं 
जाने वाली विस्तंगतियों का ऐसा मार्मिक उद्घाटन किया है कि पाठक 
चकित होकर उन पर सोचने के लिए विवश हो जाता है। 

शरद जोशी की भाषा अत्यंत सरल एवं सहज है। स्थान-स्थान पर 
मुहावरों एवं हास-परिहास का हलका स्पर्श देकर उन्होंने रचना को 
अधिक रोचक बताया है| उतकी प्रपिद्ध व्यंग्य पुस्तके हैं : 'रहा किनारे 
बैठ , किसी बहाने, परिक्रमा, तिलस्म॑, दो व्यंग्य नाटक, पिछले 
दिनों में', जीप पर सवार इल्लियाँ आदि | 

प्रस्तुत तिबंधः जीप पर, सवार इल्लियाँ व्यंग्य की दृष्टि से एक 
सफल रचना है। लेखक ने आज की शासन-व्यवस्था पर करारी चोट की 
है। लोकहित की रक्षा और देश के विकास की जिभोदारी अपने कंधों पर 
ढोने वाले व्यक्ति देश की चिंता त्यागकर केवल अपवी स्वार्थपूर्ति में लिप्त 


/2 पल्लव 


हैं। वे देश के विकास की खेती की उप्ती तरह चाट रहे हैं, जिस प्रकार 
फसल को इल्लियाँ चाट जाती हैं। 


9. जीप पर सवार इल्लियाँ 


इतना मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि चने के पौधे होते हैं, पेड़ 
नहीं होते। चने का जंगल नहीं होता, खेत होते हैं। यदि खेत नहीं होते 
तो बताइए यह गीत कैसे बता है कि ' समधन तेरी घोड़ी चने के खेत 
में”, यह पुष्ट प्रमाण है कि चने के खेत होते हैं। चने के झाड़ पर चढ़ने 
वाली बात सरास्र गलत है, कपोल-कल्पना है। इससे आगे चने के बारे 
में मेरी जानकारी उतंती ही है जितनी हर बेसन खाने वाले की होती है 
कि वाह ! क्‍या बात है, आदि | मुझसे यदि चने पर भाषण देने के लिए 
कहा जाए, तो मैं कुछ यों शुरू करूँगा - भाइयो ! जिस तरह सूर्य मेरे 
मकान के इस बाजू उगकर उस बाजू डूब जाता है, उस्ती तरह चना भी 
खेत में उग कर आदमी अथवा घोड़े के मुँह में डब जाता है। इतना कह 
कर मैं अपना स्थान ग्रहण कर लूँगा। यह भय बताकर कि समय अधिक 
हो रहा है। बात यह है कि मुँह में पानी आ जाने के कारण अधिक बोल 
तहीं सकूगा | चता मेरी कमजोरी है। यह कमजोरी मुझे ताकत देती है। 
सिर्फ खाते समय, बोलते समय नहीं। 

पर इधर शहर के अखबारों में चने की चर्चा जरा जोर पर है| इन 
दिनों मौसम खराब रहा | हम तो घर में घुप्ते रहे। पर पता लगा कि 
बाहर पानी गिरा और ठंड बढ़ गई। इसका नतीजा यह हुआ कि शहर के 
आसपात्त चने के खेत में इल्ली लग गई। अखबारों में शोर हुआ कि चने 
में इल्ली लग गई है और सरकार सो रही है, वगैरह | एक अखबार ने 
चने के पौधे पर बैठी इल्ली की तस्वीर भी छापी, जिसमें सचमुच में 
इल्ली सुंदर ल्रग रही थी। चता हमने भी कम नहीं खाया, पर देखिए 
पक्षपात कि तस्वीर इल्ली की छपी है। 

मैं इलली के विषय में कुछ नहीं जानता। कभी परिचय का 
सौभाग्य तहीं प्राप्त हुआ | इल्ली से बिल्ली और दिल्‍ली की तुक मिला 


/4 पलल्‍्लव 


कर एक बच्चों की कविता लिख देने के सिवाय मेरी समझ में नहीं आ 
रहा था कि क्‍या करूँ, पर लोग थे कि इल्ली का जिक्र ऐसे इत्मीनान से 
करते थे जैसे पड़ोस में रहती हो! 

मेरे एक मित्र हैं। ज्ञानी हैं, यानी पुरानी पोथियाँ पढ़े हुए हैं! मित्रों 
में एकाध मित्र बुद्धिमान होना चाहिए। इस नियम को मानकर मैं उनसे 
मित्रता बनाए हुए हूँ। एक बार विद्वत्ता की झोंक में उन्होंने बताया था 
कि एक नाम “इला'' | कह रहे थे कि अन्न की अधिष्ठात्री देवी है इला 
यानी पृथ्वी। मुझे बात याद रह गई। जब इल्ली लगने की खबरें चलीं, 
तो मैं सोचने लगा कि इस “इला' का 'इल्ली ' से क्‍या संबंध ? इला 
अन्न की अधिष्ठात्री देवी है और इल्ली अन्न की नष्टार्थी देवी | धन्य है। ये 
इल्लियाँ इसी इला की पुत्रियाँ हैं। अपनी ममी मादाम इला की कमाई 
खाकर अखबारों में पब्लिसिटी लूट रही हैं। में अपने इस इला-इल्ली ज्ञान 
से प्रभावित हो गया और तोचने लगा कि कोई विचार-गोष्ठी हो, तो मैं 
अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करूँ। पर ये कृषि-विभाग वाले अपनी गोष्ठी में 
हमें क्‍यों बुलाने लगे। इधर मैं अपने ज्ञानी मित्र से इल्ली के विषय में 
आवक जानने हेतु मिलते को उतावला होने लगा। मेरी पुत्री ने तभी 
इल्ली संबंधी अपने ज्ञात का परिचय देते हुए अपना प्राकृतिक विज्ञान : 
भाग चार देख कर कहा कि इल्ली से तितली बनती है। तितली जो 
फूलों पर मेंडराती है, रस पीती, उड़ जाती है। मेरे अंतर में एक कवि 
है, जो काफी हूटठ होने के बाद सुप्त हो गया है। तितली का नाम सुनते 
ही वह चौंक उठा और इल्ली के समर्थन में भाषण देने लगा कि यह तो 
बाग की शोभा है | मैंने कहा अबे गोभी के बिग फूल, तैने कभी अखबार 
पढ़ा, ये इल्लियाँ चने के खेत खा रही हैं और अगले वर्ष भुजिए और 
बेसन के लड्डू महँगे होने की संभावना है, मूर्ख, चुप रह | कबि चुप क्‍यों 
रहने लगा ? मैंने दुबारा बुलाने का आश्वास़त दिया, तब माइक से हटा | 

जब अखबारों ने शोर मचाया, तो नेताओं ने भी भाषण शुरू किए 
या शायद नेताओं ने भाषण दिए, तब अखबारों ने शोर मचाया। पता 
नहीं पहले क्‍या हुआ ! खैर, सरकार जागी, मंत्री जागे, अफुप्तर जागे, 
फाइल उदित हुई, बैठकें चहचहाई, नींद में सोए चपरासी कैंटीन की ओर 
चाय लेने चल पड़े। वक्तव्यों की झाड़ुएँ सड़कों पर फिरने लगीं। 
कार्यकर्ताओं ने पंख फड़फड़ाए और वे गाँवों की ओर उड़ चले। सुबह 


जीप पर सवार इल्लिय। 7५ 


रेंगती हुई रिपोर्ट ने राजधानी को घेर लिया और हड़बड़ा कर आदेश 
निकले | जीपें गुर्राई। तार तानकर इल्ली का मामला दिल्ली तक गया 
और ठेठ हिन्दी के ठाठ में कार्यवाहियाँ हुईं और खेतों पर हवाई जहाज 
सन्‍नाकर दवाइयाँ छिड़कने लगे। हेलीकॉप्टर मँडराने लगे। किसान दंग 
रह गए। फसल बची या नहीं क्या मालूम, पर वोट मजबूत हुए। इस 
बात को विरोधियों ने भी स्वीकार किया कि अगर ऐसे ही हवाईजहाज 
खेतों पर दवा छिड़कते रहे, तो अपनी जड़ें साफ हो जाएँगी। शहर के 
आस-पास यह होता रहा, पर बंदा अपना छह पृष्ठ का अखबार पढ़ता 
यहीं बैठा रहा। स्मरण रहे आलसियों की यथार्थवाद पर पकड़ हमेशा 
मजबूत रहती है। 

एक दित एक कृषि-अधिकारी ने कहा, चलो इल्ली उन्मूलन की 
प्रगति देखने खेतों में चलें। तुम भी बैठो हमारी जीप में | मैंने सोचा चलो 
इसी बहाने पता लग जाएगा कि चने के पौधे हैं या झाड़, और मैं जीप में 
सवार हो लिया। रास्ते भर उसके विभाग के अन्य अफूसरों की बुराइयाँ 
करता उसका मनोरंजन करता रहा। कोई डेढ़ घंटे बाद हम एक ऐसी 
जगह पहुँच गए जहाँ चारों तरफ खेत थे। वहाँ एक छोटा अफूसर खड़ा 
इस बड़े अफूसर का इंतजार कर रहा था। हम उतर गए। मैने गौर से 
देखा चने के पौधे होते हैं, खेत होते हैं, यानी समधन की धोड़ी कोई 
ग़लत नहीं खड़ी थी। वह वहीं खड़ी थी, जहाँ हमारी जीप खड़ी थी। 

हम पैदल चलने लगे। चारों ओर खेत थे, मैंने एक किसान से 
पूछा, “तुम जब खेतों में खोदते हो तो क्या निकलता है? ' 

वह समझा नहीं | फिर बोला “मिट्टी निकलती है।' 

“इसका मतलब है प्राचीनकाल में भी यहाँ खेत ही थे, मैंने 
कहा | मेरी जरा इतिहास में रुचि है। खुदाई करने से इतिहास का पता 
लगता है। अगर खुदाई करने से नगर निकले, तो समझना चाहिए कि 
यहाँ प्राचीवकाल में नगर था और यदि सिर्फ़ मिट्टी निकले तो समझना 
चाहिए कि यहाँ प्राचीनकाल में खेत थे। और यदि मिट्टी भी नहीं निकले 
तो समझना चाहिए कि खेत नहीं थे | 

आगे-आगे बड़ा अफूसर छोटे अफसर से बातें करता जा रहा था | 

“इस जेत में तो इल्लियाँ नहीं हैं ?” बड़े अफूसर ने पूछा | 

“जी नहीं हैं।' छोटा अफुसर बोला। 


76 


पल्लव्‌ 


"कुछ नजर तो आ रही हैं। ' 

जी हाँ, कुछ तो ही 

। कुछ तो हमेशा रहती हैं [! । 

“जी हाँ, कुछ तो हमेशा रहती हैं।'' 

“द्वास नुकसात तहीं करती। 

“जी, खास नुकसात नहीं करतीं। 

“फिर भी ख़तरा है। 

“खतरा तो है। 

“कभी भी बढ़ सकती हैं।'' 

“जी हाँ, बढ़ सकती हैं। 

“सुता सारा खेत साफ कर देती हैं। 
'बिल्कूल साफ कर देती हैं। 

“इस खेत पर छिड़काव हो जाना चाहिए।' 
“जी हाँ, हो जाना चाहिए।*' 

“तुम्हारा क्या ख्याल है? ' 

“जैप्ता आप फरमाएँ।” छोटे अफुप्तर ने नम्नता से कहा । फिर वे 


दोनों चुपचाप चलने लगे । 


दो। 


कहा 


््मक 


“जैसी पोजीशन हो मुझे बताता, मैं हुक्म कर दूँगा।' 

“मैं जैसी पोजीशन होगी आपके सामने पेश कर दूँगा।' 

“और सुनो। 

॥ जो, हुक्म |  ) 

“मुझे चना चाहिए, हरा बूट। घर ले जाना है। जीप में रखवा 


“अभी रखवाता हूँ।' 

छोटा अफूसर किसान की तरफ़ लपका। 

“ओए, क्या नाम है तेरा ? 

किसान भागकर पास आया। छोटे अफूसर ने उससे घुड़ककर 
“अबे तेरे खेत में इल्ली है? ' 

“नहीं है हुजूर। - 

“अबे थी ना, वो कहाँ गई ? ' 

“हजूर पता नहीं कहाँ गई। 


जीपु पर सवार इल्लियाँ 77 


'अबे बता कहाँ गई सब इल्ली ? 

किसान हाथ जोड़ काँपने लगा। उसे लगा इस अपराध में उसका 
खेत जब्त हों जाएगा। छोटे अफूस्तर ने क्रोध से सारे खेत की ओर देखा 
और फिर बोला, “अच्छा खैर, जरा हरा-भरा चना छाँटकर साहब की 
जीप में रखवा दे | चल जरा जल्दी कर! 

किसान खेत से चने के पौधे उखाड़ने लगा। छोटा अफूसर उसके 
सर पर तना खड़ा था। इधर मैं और वह बड़ा अफुसर चहलकदमी करते 
रहे, वह बोला, मुझे खेतों में अच्छा लगता है। यहाँ सचमुच जीवन है 
शांति है, सुख है।” वह जाने क्या-क्या बोलने लगा। उसने मुझे 
मैथिलीशरण गुप्त की “ग्राम - जीवन” पर लिखी कविता सुनाई जो 
उसने कभी आठवीं कक्षा में रटी थी! कहने लगा, मेरे मन में जब यह 
कविता उठती है, मैं जीप पर सवार हो खेतों में चला आता हूँ। मैं बूट 
तोड़ते किसान की ओर देखता सोचने लगा.- गुप्तजी को क्‍या पता था 
कि वे कविता लिखकर क्या नुकसान करवा देंगे। 

कुछ देर बाद हम लोग जीपः पर सवार हो आगे बढ़ गए। किसान 
ने हमें जाते देख राहत की साँस ली। जीप में काफी हरा चना पड़ा था । 
मैं खाते लगा | वे लोग भी खाने लगे | एकाएक मुझे लगा कि जीप पर 
तीत इल्लियाँ सवार हैं, जो खेतों की ओर चली जा रही हैं। तीन 
बड़ी-बड़ी इल्लियाँ, सिर्फ तीन ही नहीं, ऐसी हजारों इल्लियाँ हैं, लाखों 
इल्लियाँ हैं, वे सिर्फ़ चता ही नहीं खा रहीं, सब कुछ खाती हैं और 
निःशंक जीपों पर सवार चली जा रही हैं। 


प्रशतन-अभ्यास 


. इस पाठ में किन पर व्यंग्य किया गया है और क्‍यों ? 

2, लेखक को चने में इल्ली लगने का समाचार कैसे मिला? 

3. लेखक ने इल्ली का संबंध इला से किस प्रकार स्थापित किया है? इला का 
सही अर्थ देते हुए अपना उत्तर लिखिए। 

4. इल्ली के संबंध में बुद्धि-प्रदर्शन के लिए लेखक क्‍यों उतावला हो उठा ? 

5. बड़े अफसर के साथ छोटे अफूसर की बातचीत का वर्णन अपनी भाषा में 


६.१ 


जज 


(छ एू॑ए० 


स्तर 


कीजिए और बताइए कि छोटे अफ़प्तर द्वारा बड़े अफुपर की ही ढात का 
प्मर्थन कहाँ तक उचित था ! 


, छोटा अफसर बड़े अफ़तर की हर बात का प्मर्थन क्यों कर रहा था ? एही 


उत्तर को (/ चिह्नित कीजिए। 

(क) बढ़े अफ़प्तर के प्रति आदर भाव प्रकट करने के लिए। 

(व) सरकारी कर्मचारी के रूप में अपने बड़े अधिकारी की आज्ञा-पालन करने 
के तिए| 

(ग) बड़े अफ़सतर को हर स्थिति में खुश रखने और जी हुजूरी के लिए। 

(ध) बड़े अफ़पतर के विचारों से अपने विचारों की प्मानता प्रकट करने के 
ल्षिए| 


, नीचे लिखे कथनों में निहित व्यंग्य को स्ष्ट क्रीजिए! 


(क)', . ,, इक्ली के समर्थन में भाषण देने लगा कि यह तो बाग की शोभा 
है! 

(खि) जब अजबारों नें शोर मचाया, तो नेताओं ने भी भाषण शुरू किए या 
शायद नेताओं ने भाषण दिए, तब अखबारों ने शोर मचाया।' 

(ग) इप्त बात को विरोधियों ने भी स्वीकार किया कि अगर ऐसे ही हवाई 
जहाज देतों पर दवा छिड़कते रहे तो अपने जड़ें साफ हो जाएँगी 

(घ) ' एक्ाएक मुझे लगा कि जीप पर तीन इल्लियाँ सवार हैं।'' 

(3.) ' ऐप्ती हजारों इल्लियाँ है, लाखों इल्लियाँ, वे प्ि्फ़ बना ही नहीं खा 
रहीं, सब कुछ खाती हैं और निशंक जीपों पर सवार चली जा रही 
है|'' 


., गीप पर सवार तीनों व्यक्तियों को इल्लियाँ क्यों कहा गया है! 
. अपनी रचना को दिल्लचसस बनाने के लिए लेखक ने जिन युक्तियों का प्रहार 


लिया है उनमें पे किन्हीं तीन का प्लोदाहरण उल्लेख कीजिए| 


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय' 


(9[-87) 


अज्नैय जी का जन्म कसया (कुप्तीनगर), उत्तर प्रदेश में हुआ था| उनका 
बचपन अधिकतर लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्गराप्त में बीता। उनकी 
शिक्षा मद्रात्त और लाहौर में हुई जहाँ उनके विद्वात्‌ पिता सेवारत थे | 
सत्‌ 929 ई. में पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने बी.एप-सी. की परीक्षा 
पाप्त की और अंग्रेजी विषय में एम.ए. की पढ़ाई करते समय दिल्ली 
पड़यंत्र तथा अन्य अभियोग के सिलप़िले में फरार हुए किंतु बाद में 
पकड़े गए और दो वर्ष नज़रबंद रहे। उन्होंने किप्तात आंदोलन में भी 
सक्रिय भाग लिया। सैनिक”, विशाल भारत, प्रतीक, 
“दितमान और वा (अंग्रेजी त्रैमाप्तिक)आदि पत्रिकाओं का उत्होंने 
बड़ी कुशलता से संपादन किया | कुछ वर्ष आकाशवाणी में सलाहकार के 
पद पर भी कार्य किया। सन्‌ !943 से 946 तक के अपने जीवन के 3 
वर्ष उन्होंने सेवा में भी बिताएं। सत्‌ 955 से 956 तक यूरोप की और 
तन्‌ 957 से 958 तक पूर्वेशिया की यात्राएँ कीं। इसके बाद अनेक 
बार भ्रमण और अध्यापन के सिलसिले भें अज्ञेय जी विदेश गए हैं। विक्रम 
विश्वविद्यालय, उज्जैव ने डी. लिटू, की मानद उपाधि से अज्ञेय जी को 
विभूषित किया | 

अगैय जी एक सफल कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, निर्बंधकार 
और आल्लोचक हैं और इत भी क्षेत्रों में शीर्षस्थ हैं। छायावाद और 
रहस्थवाद के युग के बाद हिन्दी कविता को नई दिशा देने में अज्नैय जी 
का सबसे बड़ा हाथ है। हिन्दी के अनेक नए कवियों के लिए अनज्नैय जी 
प्रेरणा-प्ोत और मार्गवर्शक रहे हैं। उतकी रचनाओं का मूल स्वर 
दार्शनिक और चिंतन-प्रधान है। 


80 पल्लव 


अज्ञेय जी की प्रमुख प्रकाशित रचनाएँ हैं - हरी घास पर क्षण 
भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौदे हुए ये , सुनहले शैवाल , कितनी 
नावों में कितनी बार, सागर मुद्रां आदि (कविता), शैखर: एक 
जीवनी', नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी (उपन्यास),अरे यायावर 
रहेगा याद) एक ईूँद सहसा उछली [यात्रा वृत्तांत), त्रिशंकु, आत्मते 

(निबंध), 'विपथंगा,, परंपरा', कोठरी की बात, 'शरणार्थी' 
जयदोल , ये तेरे प्रतिरृप (कहानी संग्रह) 

प्रस्तुत पाठ में लेखक ने संस्मरणात्मक शैली में सरोजिनी नायडू 
के व्यक्तित्व की अनेक विशेषताओं पर प्रकाश डाला है, जैसे ख़तंत्रता 
संग्राम में उतकी सक्रिय भागीदारी, उतकी संस्कारिता, तेजख़िता, 
प्रभावशाली वक्‍तृत्व कला, निर्भकेता, गर्वभरी मुद्रा, सष्टवादिता, 
अंग्रेज़ी और हिन्दुस्तावी भाषा पर समान अधिकार, हाजिर जवाबी, 
परिस्थितियों को सँभाल लेते तथा उस पर हावी होने की अद्भुत शक्ति 
आदि | लेखक ने श्रीमती वायडू के जीवन की अनेक घटनाओं और प्रस॑ंगों 
का उल्लेख करते हुए उपर्युक्त गुणों और विशेषताओं का विवरण बहुत 
ही सजीव, रोचक और प्रभावपूर्ण बना दिया है। 


0. भारत-कोकिला 


भारत-कोकिला' का विरुद श्रीमती सरोजिनी नायडू को दिया गया था 
तो अंग्रेजी उपाधि नाइंटिंगेल ऑफ़ इंडिया के प्रभाव में ही। अंग्रेज़ी में 
कविता करके उन्होंने विदेश में ख्याति पाई थी और विदेशी ख्याति का 
इस देश में बड़ा महत्त्व था (आज भी है), बड़ा दिखाने वाले मुकुर में 
जैसे बिंव पे प्रतिबिंब बड़ा दीखने लगता है, वैसे ही अंग्रेजी में लिखने 
वाले भारतीय की प्रतिभासित देशी छवि भी बहुत बड़ी दीखने लगती है| 
पर 'नाइटिंगेल अथवा कोकिल्ा उन्हें केवल कवि होने के नाते नहीं कहा 
गया था। उतके स्वर में भी एक जादू था जो अंग्रेज़ी ही नहीं, हिन्दी-उर्द 
में भी पतिर पर चढ़कर बोलता था। निजी बातचीत में भी उनकी भाषा 
की पंस्कारिता और उनके स्वर की मधुर तेजस्विता से लोग प्रभावित 
होते थे।और जिल्हें उनका व्याख्यान सुनने का अवसर मिलता था, उनके 
लिए तो वह एक चिरस्मरणीय अनुभव हो जाता था | 
लाहौर में ब्रेडलॉं हाल के बाहर कांग्रेस का सम्मेलन था। इससे 
पूर्व कांग्रेस ने अपना लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य' से बदलकर पूर्ण 
स्वराज्य' घोषित कर दिया था और उसके बाद 26 जनवरी को रावी 
के किनारे आजादी की शपथ ली जा चुकी थी। नए उद्देश्य के व्यापक 
प्रचार का आंदोलन करने के लिए जो नेता ब्रेडलॉ हाल की प्रभा भें आने 
वाले थे उनमें श्रीमती स्तरोजिती नायडू प्रमुख थीं। हाल के सामने के 
चौक में इतनी बड़ी भीड़ पहले कभी नहीं देखी गई थी : स्य॑ 
संयोजक-मंडली आहलादित होने के सताथ-प्ताथ कुछ सहमी हुईं भी थी। 
लगभग डेढ़ लाख जतता उत्साह और पघैर्य दोनों के मिश्रण से भरी 
प्रतीक्षा कर रही थी। भारत-कोकिला के आते ही पहले तालियों की 
गड़ंगड़ाहट हुई और फिर क्षण भर में ही एक तवा हुआ सन्नाटा छा गया। 
श्रीमती वायडू ने सबसे पहले बोलता स्वीकार किया था बल्कि पसंद 


82 पल्‍्लव 


किया था | संयोजकों ने भी सोचा कि इससे सभा पर बहुत अच्छा प्रभाव 
पड़ेगा जिससे दूसरे वक्‍ता लाभ उठा सकेंगे। 

श्रीमती नायडू आगे आकर खड़ी हुईं तो किसी ने माइक उनके 
सामने रख दिया। जनसभाओं में माइक और लाउडस्पीकर की व्यवस्था 
उन दिनों नई-नई चीज थी। वक्‍तुृत्व शैली पर उसका प्रभाव अभी नहीं 
पड़ा था, लेकिन बहुत-से लोग उसे उपयोगी मानने लगे थे - खास कर 
कम समर्थ वक्ता ! इतनी बड़ी सभा को माइक के बिना संबोधित करते 
का साहस करनेवाले तो दो-चार ही नेता देश में थे | 

माइक को देखकर श्रीमती नायडू की त्योरियाँ चढ़ गईं। राजसिक 
गर्व-भरी मुद्रा से माइक को मेज पर ठेलकर नीचे गिराते और सबको 
सकते में डालते हुए उन्होंने बोलना आरंभ किया तो उनके पहले ही 
शब्दों से सारी सभा में एक सवसनी-सी दौड़ गई। एक सन्‍नाठा और 
उसके बाद डेढ़ लाख जनता तक प्रयासरहित सहजता से पहुँचने वाले 
पहले ही शब्द - मेरी आवाज़ - मेरी आवाज़ भारत की लाख-लाख 
जनता तक किसी यंत्र के सहारे के बिना ही पहुँचेगी! माइक को उठा 
फेंकने की सफाई अंग्रेजी में देकर उन्होंते सभा को एक बार फिर अचरज 
में डालते हुए हिन्दुस्ताती में बोलना आरंभ किया। 

श्रीमती नायडू जन्मता बंगाली थीं, विवाह से दक्षिण भारतीय, 
लेकिन हैदराबाद के जीवन में उन्होंने सरल उर्दू का जो अभ्यास किया था 
वह बड़े-बड़े वक्‍ताओं और साहित्यकारों के लिए भी गर्व की चीज हो 
सकती है। आज तो शायद ही कोई नेता होंगा जो खिचड़ी के सिवा' कोई 
भाषा बोलता हो, लेकिन भारत-कोकिला अंग्रेजी अथवा हिन्दुस्तानी में 
'समान अधिकार और प्रभविष्णुता के साथ बोल सकती थीं: और दोनों ही 
में संस्कारी साधु शब्दावली का व्यवहार करते हुए। 

उतका भाषण सुनने का मेरे लिए वह पहला अवसर था। लेकिन 
वैसे स्मरणीय अवसर दूसरों के संदर्भ में मुझे कम ही मिले। इसके बाद 
उनके तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व के दूसरे पक्ष देखने या सुनने के 
अवसर मुझे मिले और ये भी अपने ढंग से अद्वितीय और अविस्मरणीय 
अवसर रहे | 

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर विश्वभारती (शांतिनिकेतन) के लिए 
चंदा जुटाते हुए लाहौर पधारे थे। लाहौर में उनके भक्तों की कमी नहीं 


भारत-कोकिला 83 


थी, यद्यपि कुछ में जितनी श्रद्धा थी उतना काव्य-विवेक अथवा रसज्ञान 
नहीं था|! एक परम श्रद्धालु समृद्ध, नागरिक ने, जिनका जूतों का 
देशव्यापी कारोबार था, विश्वभारती के लिए चंदे की मोटी रकम दी थी 
और साथ ही यह भी अरदास की थी कि गुरुदेव के आतिथ्य का पुण्य 
अवसर भी उन्हें ही दिया जाए। लाहौर के बाहर एकांत स्थान में उन्होंने 
नई कोठी बनवाई थी जो उन्होंने इस काम के लिए खाली कर दी। श्रद्धा 
और तत्परतता के इस योग से प्रभावित होकर उनका आतिषथ्य स्वीकार 
कर लिया गया। यह आश्वासन उनसे ले लिया गया कि कवि-गुरु की 
शांति में कोई बाधा नहीं डाली जाएगी। 
आतिथेय अपनी समझ से अपनी प्रतिज्ञा का पूरा पालत कर रहे थे | 

वहाँ जो भी दर्शनार्थी आते उन्हें बाहर ही कड़ा आदेश दिया जाता कि वे 
केवल दूर से दर्शन करेंगे, एक शब्द भी नहीं बोलेंगे जिससे कि महाकवि 
की शांति में बाधा न पड़े। गुरुदेव जहाँ भी होते दर्शनार्थियों को उनके 
कमरे के द्वार (या कभी-कभी खिड़की) तक ले जाया जाता और परदा 
हटाकर वर्शन करा विए जाते.... वहीं से नमस्कार करके वे लौट जाते। 
लेकिन आतिथेय चाहे जो समझते रहे हों, गुरुदेव को दिन-भर में सौ-दो 
सौ बार इस प्रकार झाँकी दिखाना असहय था पर बेचारे कह भी क्या 
सकते थे ? 

ऐसे ही में श्रीमती सरोजिती तायडू उनसे मिलने गईं। उनकी 
लड़की लीलामणि नायडू उन दिनों लाहौर के ही एक कॉलेज में 
अध्यापिका थीं और उनसे मेरा परिचय भी था। उसका फायदा उठाते 
हुए मैं भी श्रीमती नायडू के साथ हो लिया था। श्रीमती .नायडू की बोली 
की तरह उनकी चाल में भी एक राजसिक ठसक धी। गुरुदेव की बैठक 
में प्रवेश करते और परदा हटाते हुए उन्होंने द्वार से ही आवाज दी, 
बैल, गुरुदेव, एंड हाउ आर यू'” (कहिए, गुरुदेव, क्या हाल है?) : 

गुरुदेव भरे बैठे थे। आराम-कुर्सी से उठकर नाटकीय ढंग से बॉहें 
फैलाकर सरोजिनी की ओर बढ़ते हुए उन्होंने व्यथा-भरे स्वर में कहा, 
ओह, सरोजिती, आई म डाइईंग। (सरोजिनी. मैं मर रहा हूँ!) 

सरोजिनी जहाँ थीं वहीं ठिठक गईं। फिर मधुर लत्॒कार-भरे स्वर 
में बोलीं, वेल, देन, गुरुदेव, वील मीट इन हेवन! (तो ठीक है 
गुरुदेव स्वर्ग में ही मुलाकात होगी।) 


84 १९७३ 


यह हँसी भी थी और एक प्रकार का व्यंग्य भी, गुरुदेव कुछ 
सकते -से में आ जहाँ के तहाँ रुक गए, फिर कुछ सँभलकर उन्होंने 
तरोजिनी को बिठाया और दूसरी बातें करने लगे- आतिथेय के रवैये 
की शिकायत उन्होंने दहीं की। 

एक निडर बल्कि दबंग स्वभाव और उसके साथ ही एक 
आश्चर्यजनक हाजिरजगबी, और इन दोनों के साथ सार्वजनिक जीवन के 
उत्तरवायित्वों का एक गहरा बोध - यह उनके चरित्र की विशेषता थी, 
जिसके कारण वह परिस्थितियों को न केवल सँभाल लेती थीं बल्कि 
आश्चर्यजनक रूप से स्वयं उत पर हावी हो जाती थीं और दूसरे ताकते 
रह जाते थे | ऐसी ही एक घटना का ब्योरा मैंने सुता था जिसका साझा 
समाज से करना उचित है। 

लंदन में गोलमेज सम्मेलन का अवसर था। भारत के प्रतिनिधि के 
रूप में केवल हमारा नंगा फ़कीर' जा रहा था। चर्चित द्वारा प्रयुक्त यह 
विशेषण सारे संप्तार में गूज चुका था। लंदन में तो बच्चा-बच्चा इसे 
जातता था | गांधी जी जिस मोटर में बैठकर सम्मेलन के लिए रवाना हुए 
उसमें सरोजिती तायडू उनके साथ थीं। दर्शकों की भीड़ का कोई ठिकाना 
तहीं था, गाड़ी को बार-बार रुकता पड़ता था। लंदन के ढीठ छीौकरे भी 
कार की खिड़की से झाँक-झाँककर गांधी जी को देख रहे-थे। एकाएक 
ऐसा ही एक छोकरा झॉँककर लंदन की खास बोली में अपने साथी से 
बोला : से, एंट ई, फ़नी! (यार,है न अजूबा !) 

श्रीमती नायडू ने सुत लिया और तुरंत बाहर झाँककर उसी भाषा 
में, उसी लहजे में बोलीं, जस्ट लाइक मिकी माउस, नॉट आर्फ (ठीक 
मिकी माउस जैसा - तेरी कसम!) छोकरे थोड़े खिसिया गए, लेकित 
सरोजिती तायडू की हाजिरजवाबी की जो धाक जमी' उसकी प्रतिक्रिया 
भारत के पक्ष में ही गई। 

निर्भीक स्पष्टवादिता और विनोद के ये गुण श्रीमती नायडू से 
विरासत में उतकी पुत्रियों को भी मिले थे, विशेष रूप से लीलामणि की 
जबान से तो लोग घर-घर काँपते थे | यहाँ उनकी हाजिरजवाबी का भी 
एक संस्मरण उद्धृत करने का लोभ होता है| 

साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का निश्चय हुआ था, लेकित 
कुछ लोग कमीशन के सामने बयान देने गए थे। लाहौर में पंजाब 


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भारत-कोकिला 85 


विश्वविद्यालय के सेनेट हाल में कमीशन की बैठक हो रही थी। 
विश्वविद्यालय के कुछ व्यक्तियों को गैलरी में बैठने की अनुमति मिली 
थी, इनमें लीलामणि भी थीं। गवाहों के बयान पर वह लगातार 
व्यंग्य-भरी टिप्पणियाँ करती जाती थीं, जिसमें हम सब रस से रहे थे | 
साइमन साहब का चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। वह बार-बार नजर 
उठाकर गैलरी की ओर घूरते और फिर इसलिए सब्र कर लेते कि बाधा 
देने वाली एक स्त्री है। इससे लोगों को और मजा आता, इधर लीलामणि 
की छींटाकशी भी और तीखी होती जाती | 

अंत में जब साइमन साहब से नहीं रहा गया तब उन्होंने गैलरी में 
लीलामणि की ओर देखते हुए पूछा, क्‍या यही शिक्षित भारतीय नारी 
का नमूना है ?' 

नीचे कुछ लोग होठ दबाकर मुसकरा दिए। लेकिन गैलरी से 
कड़कती हुई आवाज आईं, जी नहीं मैं ऑक्सफोर्ड की फर्स्ट क्लास 
ग्रेजुएट हूँ। 

साइमन साहब ने कॉलर में उँगली डालकर गला ढीला किया 
मानो साँस घुटने लगी हो, पर इसके बाद बोले नहीं और गवाहियाँ 
जैसे-तैसे चलती .हीं। 

भारत-कोकिला कविता अंग्रेजी में लिखती थीं और आरंभ में 
उसका पूरा संस्कार भी विदेशी था - संवेदन विदेशी, बिंब, 
कवि-अभिप्राय, समय तक सब विदेशी। एक अंग्रेज कवि 
आलोचक-अध्यांपक के उत्तेजक प्रश्न की प्रेरणा से ही उनकी अंग्रेज़ी 
कविता ने एक गहरा भारतीय संस्कार अपनाया | बात संस्कार पाने की 
नहीं, केवल अपनाने और सहज होकर अभिव्यक्त करने की थी। भारतीय 
काव्य-दृष्टि तो सरोजिती की परिचित थी ही और काव्य के ही नहीं, 
कवि के बारे में उनकी धारणाएँ काव्यशाल्त्र-सम्मत थीं 

मेरा उससे मिलता एकाधिक बार हो चुका था, लैकित संदर्भ 
पत्रकारिता का ही रहा था, यह बात उन्हें नहीं मालूम थी कि मैं कविता 
भी लिखता हूँ। एक बार जब मैं एक संवाददाता के नाते एक 
चुनाव-अभियान में यात्रा कर रहा था, तो कांग्रेसी उम्मीदवार ने श्रीमती 
नायडू से मेरा फिर से परिचय कराते हुए उनसे कहा, ये हिन्दी के अच्छे 
कवि भी हैं।' श्रीमती नायडू ने कुछ आश्चर्य से मेरी ओर देखा (उस 


86 पल्शव 


आश्चर्य में शायद इस बात का भी योग रहा कि कांग्रेसी उम्मीदवार 
महाशय का कविता से कोई खास वास्ता नहीं था!)-और मुसकराकर मेरा 
कंधा थपथपाते हुए बोलीं, हाँ, यह बात हुईं न ! कवि की कवि जैसा 
विखना चाहिए। फिर मुँह बिचकाकर और हाथों से एक विचिन्न और 
हास्यास्पद इशारा करते हुए बोलीं, वह क्या तुम्हारे मरथिल्ले से और 
बाल बढ़ाए हुए लोग आ जाते हैं और कहते हैं कि मैं कवि हूँ। स्वस्थ 
और सुरूप नहीं होगा तो कहाँ का कवि!” फिर थोड़ा रुककर उन्होंने 
कहा, अब तक हिन्दी का एक कवि मेरा परिचित था- बालकृष्ण शर्मा 
नवीन”, आज दूसरा देखा, बाकी सब तो . . . फिर मुँह बिचकाकर 
उन्होंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। मैं पूछता चाह रहा था कि क्या 
निराला” को भी उन्होंने देखा है या नहीं, पर चुनाव सभा के मंच पर के 
क्षणिक साक्षात्कार में उसका मौका ही नहीं बना | 

जिस भी गुण की उन्होंने प्रशस्ति की थी उसका श्रेय तो मेरा नहीं 
है। हाँ, उनके प्रसाद से कविता अभी तक लिखता आया हूँ। और कवि 
स्वस्थ, सुरूप और देह से समर्थ हो यह मुझे भी अच्छा लगता है, भले ही 
यह नहीं कहूँगा कि इसके बिना कवि नहीं हो सकता | 


प्रश्न-अभ्यात्त 


।, लेखक ने श्रीमती सरोजिनी नायडू के व्यक्तित्व के किन-किन पक्षों पर प्रकाश 
डाला है? 

2. श्रीमती सरोजिनी नायडू की किन विशेषताओं के कारण उन्हें भारत- 

कोकिला का विरुद दिया गया ? 

3, लाहौर के ब्रेडलों हाल के बाहर आयोजित सभा में माइक से न बोलने में 
श्रीमती नायडू का कौन-सा मनोभाव प्रकट होता है ? 

4. लाहौर में गुरुदेव से श्रीमती नायडू की मुलाकात के प्रसंग में लेखक ने कहा 
है, यह हँसी भी थी और एक प्रकार-का व्यंग्य भी।[ इस व्यंग्य को स्पष्ट 
कीजिए। 

5. लंदन में अंग्रेज बालक द्वारा गांधी जी की वेश-भूषा पर की गई टिप्पणी का 
उत्तर सरोजिनी नायडू ने किस प्रकार दिया? 

6. अपने किन गणों के कारण श्रीमती नायडू विपरीत परिस्थितियों को सँभालने 


भारत-कोकिला 87 


(0, 


और उन पर हावी हो जाने में समर्थ हो जाती थीं। 

लेखक ने लीलामणि की हाज़िर्जवाबी का संस्मरण किस उद्देश्य से जोड़ा 
है? 

प्रारंभ में सरोजिनी नायडू की कविता किन बातों से प्रभावित थी? बाद में 
भारतीय संस्कार अपनाने पर उनकी कविता में क्या परिवर्तन आ गए ? 
अज्ञेय का कवि के रूप में परिचय मिलने पर हिन्दी कवियों के प्रति श्रीमती 
नायडू की धारणा में क्या परिवर्तन हुआ ? 

प्रस्तुत पाठ की साहित्यिक विधा क्‍या है ? 

(क) जीवनी 

(ख) संस्मरण 

(ग) रेखाचित्र 

(घ) वर्णनात्मक निबंध | 


भगवतीशरण सिंह 


(499-88) 


भगवतीशरण प़िंह का जन्म वाराणसी में हुआ था | उनकी उच्च शिक्षा 
वाराणसी तथा इलाहाबाद में हुईं। भारत सरकार की प्रशासनिक सेवा में 
उतका चयन हुआ और उन्होंने उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा भारत 
प्रकार की केंद्रीय सेवा में अनेक उच्च पदों पर कार्य किया। उत्होंने 
977 ई, में उत्तर प्रदेश शासव-सेवा में आयुक्त तथा सचिव पद से 
अवकाश ग्रहण किया। 

अपने प्रशासनिक दायित्व को पूरा करते हुए उन्होंने हिन्दी भाषा 
और साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदाव दिया। उन्होंने नागरी 
लिपि सुधार समिति के सदस्य सचिव, वैज्ञानिका शब्वावली समिति के 
सचिव, उत्तर प्रदेश सूचना विभाग के निदेशक, स्वतंत्रता संग्राम 
इतिहास-लेखन सलाहकार समिति के सदस्य तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी 
समिति के प्चिव आदि पदों पर रहकर स्वयं को हिन्दी-साहित्य से जोड़े 
रखा | 

उतका लेखन-कार्य सन्‌ 938 में कहानी-लेखन और वैयक्तिक 
निबंधों से शुरू हुआ | वे सदैव हिन्दी-साहित्य की अधुनातन प्रवृत्तियों से 
जुड़े रहे और अनेक विधाओं में साहित्य का सृजन करते रहे | उनकी 
लगभग बीस पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं जिनमें अपराजिता , जंगल 
और जानवर (कहानी संग्र&), मातव के मूल में , साहित्य : पहचान 
और पहुँच' (निबंध संग्रह), हिमनील, वन पाहुन (प्रकृति और वन) 
विशेष उल्लेखनीय हैं। 

उनका लेखन आज के युग की पहचान करने में समर्थ है। आज 

के भारतीय गाँव और शहर के परिवेश तथा उनकी समस्याओं का ज्ञान 


नदी बहती रहे 89 


और उनके निराकरण के संकेत में लेखक को सूक्ष्म एवं अंतर्भदिनी दृष्टि 
के वर्शन किए जा सकते हैं। प्रकृति, पर्यावरण और वन आदि से लेखक 
का गहरा लगाव रहा है। 

नदी बहती रहे निबंध उनकी ' बन पाहुन पुस्तक से लिया 
गया है। इस तिबंध में लेखक ने भारत की नदियों का देश कहा है और 
बतलाया है कि नदियाँ किस प्रकार भारत की आर्थिक, सामाजिक और 
आध्यात्मिक जीवन की समृद्धि में अपना योगवान करती रही' हैं। 
वत-पर्वत और नदी के अट्ूठ पारस्परिक संबंध को स्पष्ट करते हुए वनों 
की महत्ता को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है और वन-व्यवस्था 
के सुधार के लिए कुछ मौलिक सुझाव भी दिए गए हैं। पर्यावरण प्रदूषण, 
निरंतर होनेवाले जल प्रदूषण से लेखक दुःखी है और चाहता है कि वव 
उगते रहें, फूलते और फलते रहें, पर्वत वनस्पति से ढेँके रहें और नदी 
निरंतर बहती रहे। 


4. नदी बहती रहे 


भारत नदियों का देश रहा है।इसलिए नहीं कि इस देश में नदियों की ही 
अधिकता है बल्कि इसलिए कि इस देश में नदियों का विशेष रूप से 
सम्मान हुआ है। वे हमारे जीवन में बहुत महत्त्व रखती रही हैं। उनसे 
हमारा आर्थिक, त्तामाजिक और आध्यात्मिक जीवन समृद्ध हुआ है। आज 
वे अपता प्राचीन महत्त्व खोती जा रही हैं। प्राचीन ग्रंथों में विशेषकर 
वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में हमारे वनों, पर्वतों और नदियों के बारे 
में प्रचुर सामग्री मिलती है| वदियों के कितारे व केवल ग्राम, नगर और 
राजधानियाँ बसी थीं और वे त केवल्न यातायात का साधन थीं वर 
उनमें मनुष्य और पशु समान रूप से विहार करते थे | हाथी का वारण 
ताम केवल इस कारण पड़ा कि वह वारि में, जल में विहार करता रहता 
है| 

नदियों को देवियों का स्वरूप प्रदात किया गया | 'उनकी देवता 
शक्ति की पहचानकर उच्हें संस्कारों में स्थान दिया गया | हर संकल्प में 
जिम जंबूद्ीपे भरत-खंडे' का उच्चारण प्रत्येक भारतीय सुनता रहता है, 
वह वदियों का यह आवाहन भी सुतता रहता है- गंगा चे यमुना चैव 
गोदावरी सरस्वती। नर्मदा-सिंधु कावेरी जलेस्मित्‌ सलिधिं कुरु। इत 
तामों को सुतने वाला भारतीय न केवल सात प्रमुख नवियों का नाम 
जानता रहता है,वरन्‌ उसे भारत की एकता का भी ज्ञान होता रहता है| 
इनके अतिरिक्त भी अनेकानेक नदियाँ अपने नए-पुराते नामों में आज भी 
जानी जाती हैं और भारत को शस्य-श्यामल बनाने का प्रयत्न करती 
रहती हैं। 

जिस प्रकार वनों का वृक्षों से, नदियों का जल से अहिकुंडलिती 
संबंध है, उसी प्रकार नदियों का वनों से भी कदंबकोरक संबंध मानना 
चाहिए। वनों के रहते नवियाँ स्वतः फूट पड़ती हैं, प्रवाहित होती रहती 


नदी बहती रहे 9] 


हैं। वन नही रहेंगे तो वदियाँ नहीं रहेंगी। नदियों के न रहने पर हमारी 
संस्कृति विच्छिन्न हो जाएगी। हमारा जीवन-प्लोत ही सूख जाएगा। अतः 
वनों की आवश्यकता और महत्ता को अस्वीकार करके न तो हम 
आर्थिक उन्‍नति के सोपान गढ़ सकते हैं और न स्वास्थ्य और सुख की 
कल्पना ही कर सकते हैं। 

आदमी की ज़िंदगी अपने-आप में बहुत ही अकेली और नीरस 
होती है| आवमी-आदमी के रिश्ते-ताते उसका बहुत दूर तक साथ' नहीं 
देते। पर जब वह इनसे आगे बढ़कर एक व्यापक संबंध कायम करने की 
कोशिश करता है, तो उसके साथ वन, पर्वत, नदी आदि सब चल पड़ते 
हैं। तब वह अकेला नहीं रह जाता। आज वह वनस्पतियों और पानी के 
रिश्ते को भूलकर अपने को भी" अकेला बना रहा है और उनके आपसी 
संबंधों का भी विच्छेद करता जा रहा है। गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा 
और कावेरी आज भी भारत में बह रही हैं पर अब वे मोक्षदायिनी नहीं 
रह गई हैं। वही गंगा जिसे हम विष्णुपदी, जाहनवी, मंदाकिती और 
भागीरथी आदि नामों से जानते थे और जो कभी बिंदुसर, कभी 
पद्महलद और कभी अनोतत्त झील से विकलती हुई जानी जाकर उत्तर 
भारत को सिंचित करती थी, उसी गंगा के अब गढ़वाल क्षेत्र में गंगोत्री 
के समीप ही दर्शन होते हैं। देवप्रयाग में अलकनंदा मिलती है। देवप्रयाग 
लक आने वाली भागीरथी देवप्रयाग से आगे गंगा नाम धारणकर हरिद्वार 
या गंगाद्वार के आगे बुलंदशहर तक दक्षिण की ओर बढ़ती चलती है। 
उसके आगे यह प्रयाग तक दक्षिण-से-पूर्व की ओर बहती हुई अपने में 
यमुना को समेटती है। तीर्थराज प्रयाग से आगे, काशीं को छोड़कर जहाँ 
यह पुनः उत्तरवाहिनी होती है, प्रायः पूर्व की ओर बढ़ती चली जाती है | 
गंगासागर कभी तीर्थ था। 

गंगा की उननीस प्रमुख सहायक नदियाँ बताई गई हैं, जिनमें से 
गंगा के ऊपरी प्रवाह में अलकनंदा, जो मंदाकिनी के जल से, जिसे काली 
गंगा भी कहा गया है, आपूरित होकर इसमें मिल चुकी होती है। 
फर्रुखाबाद में इसमें नुत नदी मिलती है। फिर तो रामगंगा, गोमती, 
धूतपापा, तमसा, सरयू (घाघरा), गंडकी, कमला, कौशिकी (कोसी) , 
शोण आदि नदियाँ अपने जल में नागर क्षेत्रों का मल एकत्र करती हुई, 
बड़े-बड़े कल-कारखानों का उच्छिष्ट बटोंरती हल्दिया के पास सागर 


!92' पल्‍लव 


संगस करती हैं। भागीरथी और पद्मा के अतिरिक्त उसमें कई अन्य 
नदियों का भी जल मिलता है। फिर भी पानी के बहाव की कमी के 
कारण वहाँ इसमें बड़े-बड़े सिकतामेरु बन जाते हैं जो जहाजों को आतेः 
'से रोकते रहते हैं। जब ऐसी महत्त्व की पुण्यतोया नदी का यह हाल हो 
रहा है तो औरों का क्‍या कहा जाए। ग्रीक-लैटिन लेखकों ने गंगा को 
सिंधु से भी अधिक महत्त्व दिया है जबकि सिंधु और सैंधव प्रदेश आयों 
का आविदेश भी मात्रा गया और वही आर्य संस्कृति आज भारतीय 
संस्कृति के रूप में जानी जा रही है। 

“गंगा के डेल्टा के समुद्रांत छोर ने वनाच्छादित एक विस्तृत 
दलदली क्षेत्र को घेर रखा है जिसे सुंदरवन कहा जाता है।” इस 
सुंदरवन की दर्दनाक दशा की ख़बरें आए विन अखबारों में छपती रहती 
हैं। अब सुंदरवन भी सुंदर नहीं रह गया | गंगा का जो महत्त्व बहुत थोड़े 
में ऊपर बताया गया, वंह केवल पौराणिक महत्त्व ही नहीं है। उसे आज 
के संदर्भ में भी देखता होगा | 

यही हाल यमुना का भी है। यह गंगा की पहली तथा बड़ी 
पश्चिमी सहायक नदी है। यह हिमालय पर्वतामाला में कामेत पर्वत के 
आगे से तिकलती है। यमुतोत्री आज की कुरसौली से 2 किलोमीटर दूर 
है| पाली भाष्यों में अनोतत्त झील को ही गंगा के साथ यमुना और 
अचिरावती, सरयू तथा मही ,तामक नवियों का भी उद्गम मानता गया है। . 
शुर-चिंग-यू के अनुसार, अनोतत्त अर्थात्‌ अनवतप्त झील हिमालय के 
शीर्ष पर स्थित है और इसी से पूर्व की ओर गंगा, दक्षिण की ओर सिंधु, 
पश्चिम की ओर वं॑क्षु और उत्तर की ओर सीता नामक चार नदियाँ 
तिकली थीं। गंगा-यमुना के बीच के प्रदेश को अंतर्वेद कहा गया है। 
गंगो-यमुता के इसी संगम पर रामायणकालीन भारद्वाज ऋषि का 
आश्रम था। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार, “गंगा एवं यमुना के बीच 
में रहते वाले विशेष रूप से सम्मानित होते थे।*' 

जरा-सा भी ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सारा 
भारत आज भी प्रमुख नदियों के समूह में बँटा हुआ है। मध्य देश मे 
गंगा-यमुना समूह, पूर्व में द्रह्मपुत्र-मेघना समूह, पश्चिम में नर्मदा-ताप्ती 
समूह, दक्षिण-पूर्व (उड़ीसा) में महातवी समूह हैं। दक्षिण भारत में कृष्ण 
तदी-समूह और कावेरी नदी-समूह। सिंधु नदी-समूह की बात अब नं 


नवी बहती रहे 93' 


की जा सकती। इसी प्रकार ब्रह्मपुत्र-मेघता समूह से सिंचित अधिकांश 
क्षेत्र अब बंगलादेश ही है। पर सरस्वती-दृषद्वती समूह से अनुप्राणित 
भू-भाग अभी भी भारत में ही हैं | कुछ नदियों के विस्तृत विवरण भी 
दिए हुए हैं, जिनके सहारे प्राचीन भारत के इतिहास पर विशेषकर उसके 
सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। इन नवियों के 
किनारे बसे नगर या तो विशाल एवं शक्तिशाली राज्यों की' राजधानियाँ 
थे अथवा शिक्षा और व्यवसाय के केन्द्र | मंदिरों की भी स्थापना इनके 
किनारे हुई। इस कारण ये हमारी स्थापत्यकला की भी स्मृतियाँ जगाती 
रहती हैं। इन मंदिरों का प्रश्नय पाकर जिस प्रकार संगीत, नृत्य और 
नाट्य-कला की सुष्टि और संवर्धन हुआ उसमें भी इन नदियों का महत्त्व 
अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अकेले नर्मदा के महत्त्व को प्रदर्शित 
करने में मत्स्य पुराण के लगभग नौ अध्याय लिखे गए। फिर यह तो एक 
पुराण की बात हुईं। सारा पुराण साहित्य, प्राचीन संस्कृति साहित्य, सभी 
इनके उद्धरणों से भरे पड़े हैं। 

भारतीय-भू-भौगोलिक स्थिति को ठीक-ठाक समझने के लिए यहाँ 
के पर्वत-समूहों और नदी-समूहों का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। खेद 
है कि आजकल जिस प्रकार का भूगोल स्कूलों आदि में पढ़ाया जाता है, 
वह नीरस और भारतीय जीवन-धारा तथा उसके इतिहास और संस्कृति 
से कटा हुआ है। इन पर्वत और नदी समूहों के परिप्रेक्ष्य में भी भारत का 
पूरा चित्र बतता ही नहीं, जब तक उसकी वन राजि को सम्मिलित न 
किया जाए। कालिदास के समय तक भी इस देश का अधिकांश भाग 
जंगलों से आवृत्त था। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि 
छठी शताब्दी ईसापूर्व तक इस देश में स्वयंजात वर्न की स्थिति बनी 
रही | इसके उदाहरणस्वरूप कुरुप्रदेश के कुरुजंगल वन्य क्षेत्र को 
उपस्थित किया जा सकता है। साकेत में अंजनवन तथा वैशाली और 
कपिलवस्तु में महावन प्राकृतिक (स्वयंजात) वन थे। वैशाली नगर के 
बाहर महावन निरंतर हिमालय तक फैला हुआ था। कपिलवस्तु के 
महावन की भी यही दशा थी। कौशांबी से कुछ दूर और श्रावस्ती के तट 
में पारिलेण्यकवन था, जिसमें हाथी रहते थे। रोहिणी नदी के तट पर 
स्थित लुंबिनी वत भी एक प्राकृतिक जंगल था। इस प्रकार यह देश 
नदियों, पर्वतों और वनों से भरा-पूरा संसार के देशों में अतुलनीय था। 


94 पलल्‍लव 


पर मानव आबादी कम थी। 

आज स्थिति कुछ वूसरी ही है। भारत की विशाल और बढ़ रही 
आबादी के लिए पानी की माँग, घरेलू उपयोग, कृषि, उद्योग, 
मछली-पालन उद्योग, वौवहन, विद्युत उत्पादन के लिए पूरी की जानी है 
और साथ ही नागरिकों, उद्योगों और खेती-बाड़ी की गंदगी दूर करने के 
लिए भी पाती की आवश्यकता होती है। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि 
सारे देश में जल-प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहे हैं। इस संबंध में 
पाती से उत्पन्न होनेवाली', छूत की बीमारियों जैसे हैजा, पीलिया, 
टाइफाइड तथा दूषित पानी से मछलियों और कृषि उपज को हो रही 
हानि का उल्लेख किया जा सकता है। उत्तर में डल झील से लेकर 
दक्षिण में पेरियार और यालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर और 
हुगली से लेकर पश्चिम में थाणा की सेकरी खाड़ियों तक, सब ज॑गह 
जल-प्रवूषण की स्थिति चिंता का विषय बनी हुई है। यहाँ तक कि गंगा 
जैसी बारह-मासी नवियाँ भी जल-प्रवृूषण से बहुत अधिक ग्रस्त हैं। मानव 
बस्तियों और उद्योगों का गंदा पानी सीधे जल-प्रवाह में मिल जाता है जो 
अधिकांश रूप से उपयोग करने लायक नहीं रह जाता। रोजाना जिस 
प्रकार गंदा पानी छोड़ा जा रहा है उससे प्राकृतिक जल, जैसे-नवियों, 
खाड़ियों और समुद्र तटवर्ती पानी को खतरा पैदा हो गया है। अतः ऐसी 
स्थिति में न कश्मीर ही स्वर्ग रह गया और न काशी हीं तीन लोक से 
न्यारी रह गई। जब गंगा गंगा न रही, तब काशी की क्या स्थिति रहेगी? 

इस देश की नदियाँ ही इसकी श्री रही हैं। जिस देश की 80 
प्रतिशत जनसंख्या नदियों के घाटी-क्षेत्र में निवास कर रही हो, उसे जब 
पुराणों में असंख्य नदियों का देश कहा गया तो अतिशयोक्ति नहीं थी। 
जब यह तथ्य सामने आ गया है तो आवश्यकता इस बात की है कि 
प्रदेशों के कृषि-विभाग और वन-विभाग तथा सिंचाई आदि विभागों की 
अलग-अलग अमलदारी समाप्त कर दी जाए। हर प्रदेश में जलागम-द्षेत्र 
अधिकरणों की स्थापना करके विकास की योजनाएँ एक ही अधिकरण के 
अधीन इस प्रकार समन्वित करके चलाई जाएँ कि देश के स्वास्थ्य, सुख 
और समृद्धि की समग्रता सदा आँख के सामने बनी रहे और ऐसा न होने 
पाए कि एक ही शरीर का एक हाथ दूसरे हाथ को काटता रहे और 
शरीर भी नष्ट होता रहे। जाहिर है कि वतों और नवियों का बड़ा 


नदी बहती रहे | 95 


घनिष्ठ संबंध है और वन नदियों को न केवल उथली होने से बचाते हैं 
वरन्‌ भूमिगत जल को सुरक्षित रखकर नदी के पानी की कमी को भी 
पूरा करते रहते हैं। भारत में वनों से आच्छादित भूमि का अभाव इसी 
तरह से स्पष्ट हो जाता है कि वन भूमि के रूप में वर्गीकृत 750 लाख 
हैक्टेयर भूमि के आधे से भी कम भूमि में वास्तव में समुचित मात्रा में 
वृक्ष हैं। इसके अतिरिक्त यह भी अनुमान है कि लगभग 200 लाख 
हैक्टेयर तक की वन-भूमि भी भू-अपरदन से प्रभावित है। वास्तव में देश 
के भू-धरातल की 42 प्रतिशत से अधिक भूमि समुचित रूप से वृक्षों में 
आच्छादित नहीं है जबकि वर्ष 952 की राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार, 
33 प्रतिशत का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। 

भारत में वन्य पशुओं और पक्षियों, वनस्पतियों और जलाशयों की 
विविधता और बहुलता को सभी मानते रहे हैं। आज जब इनके पर्यवेक्षण 
और सर्वेक्षण के नवीन वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध हो गए हैं तो इनके 
बारे में जो कहा जाएगा, निश्चय ही वह यदा-कदा साँचे में ढली हुई 
काव्य-शैली में वर्ण्य-विषय के समान नहीं होगा। इस संबंध में योजना 
आयोग का उद्धरण आवश्यक जान पड़ता है -“भारत पशु तथा 
प्राणी-संपदा से भरपूर होने के कारण प्राकृतिक जीवित संसाधनों की 
विपुल विविधता से संपन्न देश है, जिस पर लाखों व्यक्ति अपने निर्वाह के 
लिए आश्रित हैं तथा जल-भूमि के उचित प्रबंध द्वारा जहाँ देश की 
मूलभूत जैविक उत्पादकता का संरक्षण पारिस्थितिकीय दृष्टि से 
अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, वहाँ इसकी आनुवंशिक विविधता की रक्षा तथा 
उसकी प्रजातियों और पारिस्थितिकीय व्यवस्था का संरक्षण केवल उन्हें 
लगातार उपयोग में लाने की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि हमारे लोगों के 
भावी अस्तित्व तथा विकास के लिए भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। निरंतर 
तेजी से बढ़ती जा रही जनसंख्या के दबाव के कारण लुप्त होती जा रही 
प्रजातियों तथा पारिस्थितिकीय व्यवस्थाओं के फलस्वरूप तथा प्राकृतिक 
पर्यावरण के योजनाविहीन विकास के कारण हमारी प्रजातियों के 
प्राकृतिक आवास शीघ्रता से समाप्त अथवा कुछ बदलते जा रहे हैं।" 

भारत सरकार को पता है कि चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों के स्वयंजात 
वन नष्ट हो गए हैं, जहाँ-जहाँ भी दुर्लभ जाति के पशु-पक्षी और 
वनस्पतियाँ मिलती हैं वे सब प्रायः पहाड़ी क्षेत्र हैं और बढ़ती हुई आबादी 


96 पत्ज़व 


के कारण चूँकि इनका नाश रोकना संभव नहीं है अतः इनकी किस्मों की 
रक्षा अब राष्ट्रीय उद्यानों में ही संभव है। राष्ट्रीय उद्यान इन प्रजातियों 
की नुमाइश तो कर सकते हैं, इन्हें इनकी प्रकृत वास-भूमि नही देख 
सकते। खेती बढ़ती ही जाएगी और जमीन अनुपजाऊ और चटियल 
होकर रहेगी। पर यहाँ क्‍योंकि यह सत्य योजना-आयोग को मालूम है 
और वह उसके कारणों को जानकर उनके निवारण के प्रति सचेष्ट जान 
पड़ता है, अतः यह आशा की जानी चाहिए कि उसके बार-बार आग्रह 
करते रहने पर भारत सरकार का ध्यान इस ओर जाएगा और वह 
'उष्ण कटिबंधीय वर्षा वर्तों' की रक्षा का पूरा प्रयत्न करेगी। साथ ही 
इस बात की भी आवश्यकता है कि वन-विभाग स्वयंजात वनों में 
उगनेवाली वनस्पतियों की वनीकरण की नीति में विशेष स्थान दे, 
खासकर ऐसी दशा में जबकि यह स्वीकार कर लिया गया है कि वनों का 
मुख्य उद्देश्य राजस्व में वृद्धि करना नहीं है। वन जिस समृद्धि की रक्षा 
करते रहे हैं और जो वह कर सकते हैं,उसके बारे में भी योजना आयोग 
का मत स्पष्ट है: “वे हमारे लोगों के भावी अस्तित्व तथा विकास के 
लिए भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं[ 
ऊपर के उद्धरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वनों, पर्वतों 
और नवियों का बहुत नज़दीकी रिश्ता है। ये तीनों ही एक साथ रहते हैं 
और एक साथ वन और नदियाँ मैदानों में उतरती हैं। लेकिन जिस प्रकार 
की वन-व्यवस्था आज है उसमें न तो वतस्पतियों, न वन पणओं और न 
ही नवियों की रक्षा संभव है। वनों का उपयोग उद्योग और व्यापार में 
होगा। इससे विरत नहीं हुआ जा सकता | पर आयोग स्वयं मानता है 
कि सरकारी वनों को बिकाऊ लकड़ी और लुगवी उत्पादन के लिए 
संकृचित दृष्टि से देखा गया है। उनपर तेजी से सागौन, वीड़ और 
यूकलिप्टस के पौधे उगाए गए।” आवश्यकता इसी “संकुचित दृष्टि 
को छोड़ने की है। वनों की उपयोगिता मानव की समग्र समृद्धि के लिए 
है। समृद्धि की इस समग्रता में उसकी आर्थिक, सामाजिक और 
आध्यात्मिक समृद्धियाँ शामिल हैं। ऐसी समग्र समृद्धि को देनेवाले वन, 
वन्य पशुओं, पक्षियों और नदियों से विहीत नहीं रह सकते। 
देशी पौधों की बात करना और उनकी पहचान में घूमता अब 
पागलपन में गिना जाने लगा है | पढ़े-लिखे और तथाकथित शिक्षित लोग 


नदी बहती रहे 9/7 


ऐसी बातों को उपहासास्पद मातते हैं और उन पर बात करना समय का 
अपव्यय मानते हैं। अब साहित्य में भी उनकी चर्चा नहीं आती। शाल, 
वेणु, धव, अश्वत्थ, तिंदुक, ईंगुद, पलाश, अर्जुत, अरिष्ट, तिनिश, 
लोध, पद्चमक, प्रियाल, ताल, पुन्नाग, पक्ष आदि के नाम और उनकी 
पहचान सब जगह से खो गई। वनस्पति शास्त्र की किताबों में भी अगर 
ये वृक्ष हैं तो अपने वैज्ञानिक नामों से ही जाते जा सकते हैं। इनके देशज 
अथवा संस्कृत नाम तो समाप्त ही हो गए। स्वयंजात वतों के न रहने पर 
वनस्पतियों का वह भंडार स्तमाप्त हो गया जिसकी ओर आयोग ने संकेत 
किया है। कभी हमें अपने यहाँ उगनेवाली वतस्पतियों की अच्छी पहचान 
थी | हम पृथ्वी को भी पहचानते थे और प्रथ्वी और वनस्पति के साथ 
जल को भी जानते थे। उनकी मर्यादा की रक्षा के लिए भारतीयों ने उन्हें 
अच्छे-अच्छे नाम विए और अपने साहित्य में उन्हें अच्छा स्थान दिया | 
शतपथ ब्राह्मण में एक कथा है। विष्णु को लिटाकर नब देवों ने असुरों से 
संग्राम में हारकर भी छल से सारी पृथ्वी अपने लिए ले ली तो" उन्होंने 
औषधियों (वनस्पतियों) के मूल में यज्ञ को पाया|क्योंकि औषधियाँ पृथ्वी 
पर थीं और उन्होंने वहाँ यज्ञ को पाया था अतः पृथ्वी का नाम वेदि' भी 
पड़ गया। जब पृथ्वी को वेदि कहा तो उसे सूक्ष्मा (अच्छी भूमि) और 
शिवा (कल्याणमयी) भी कहा। दूसरे शब्दों में भारतीयों की यह पुरानी 
मर्यादा रही है कि वह पृथ्वी को अपनी माता मानकर उसे सूक्ष्म और 
शिवा के रूप में देखते रहे हैं। इसमें भी उनका मन नहीं भरा तो फिर 
' उसे स्योता और सुषदा भी कहा, अर्थात्‌ सुख देने वाले अच्छे आसन के 
रूप में देखा। फिर भी मत नहीं मावा तो कहा- तू ऊर्जस्वती और 
पयस्वती है। इस प्रकार भूमि को रसवती-जल से आसिक्त और 
वनस्पतियों से पूर्ण बसते योग्य बना रखा था। 

आज इसकी पहले से कहीं अधिक जरूरत है कि हम अपनी 
जमीन को पहचानें, उस पर वनस्पतियों की रक्षा करे और नदियों से 
स्वच्छ जल प्रवाहित होने दे। 


98 


५ 


प्रए्न-अभ्यास 


“इस्त देश की नदियाँ ही इसकी श्री रही हैं। भारतीय जीवन के आर्थिक एवं 
सांस्कृतिक पहलुओं के संदर्भ में इस कथन की विवेचना कीजिए। 

“वनों की महत्ता और आवश्यकता को अस्वीकार करके न हम आर्थिक 
उनलति के सोपान गढ़ सकते है और न स्वास्थ्य और सुख की कल्पना कर 
सकते हैं।' लेखक के इस कथन का औचित्य स्तमझाइए। 


, भारत के कुछ प्रसिद्ध स्वयंजात वनों के उदाहरण वीजिए। 
, नदियों के आधार पर भारत के भौगोलिक विभाजन पर प्रकाश डालिए। 
, इस पाठ का आधार लेते हुए गंगा-यमुना नदियों के पौराणिक एवं सांस्कृतिक 


महत्त्व पर अपने विचार प्रकट कीजिए। 


, आज का मनुष्य बनस्तति और पानी के रिश्ते को भूलकर अपने को अकेला 


कैसे बना रहा है ? 


. वन-पर्वत और नदी के पारस्परिक अटूट संबंध को स्पष्ट कीजिए। 


8, प्रथ्वी को वेदि' क्‍यों कहा गया है ? पाठ में प्रयक्त पृथ्वी के अन्य पर्यायों की 


4, 
है 
५ 


उपयुक्तता बताइए। 


. जल्न-प्रदूषण में निरंतर वृद्धि क्‍यों हो रही है ? इससे क्या हानियोँ हैं? 
' 0. 


इस पाठ में भारत की वन-व्यवस्था संबंधी विकास-योजनाओं के संबंध में क्या 
सुझाव दिए गए हैं ? आप उनसे कहाँ तक सहमत हैं ? 

नदी. वनस्पति और जमीन के प्रति आज हमारा कया कर्तव्य है? 
अहिकूंडली और कदंबकोरकसंबंधों से क्या तात्पर्य है ? 

"विश्व में निरंतर बढ़ता प्रदूषण विषय पर कक्षा में एक परिचर्चा का 
आयोजन कीजिए। 


पर्यक 
युक्ति 
चपल 


काल वश ४ 


परित्याग 
अपयश 
निदान 
कोटि 
कंदरा 
उद्दंड 
पूर्वक्‍्त 
सम्मुख 
द्रोह 
परनिंदा 
विभूषित 
स्वार्थरत 
अंगीकार 
अनुग्रह 
प्रवृत्त 
कामधेनु 


हरित दूर्वा : 


कालक्षेप 
आतुर 


शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ 


अद्भुत अ्पूर्व स्वप्न 


पलंग 
तरकीब 
चंचल 
समय के प्रभाव से 
छोड़ देना 
बदनामी 
आधषिरकार 
करोड़ 
गुफा 
निरिंकुश, शैतात 
पहले कहा गया 
सामने 
बैर 
दूसरे की निंदा 
सज्जित 


स्वार्थ में लीन 


स्वीकार करना 
कृपा 
लगा हुआ 
देवताओं की गाय जो मतोवांछित फल 
देती है | 
हरी घास 
समय व्यतीत करता 
व्याकूल 


400 


हितैची 
वंचित 
शिखासूत्र 
अक्षमता 
तक़ाजा 
अहंकार दंभ 
विरुद्धाचारी 
अभव्य 
प्रगाढता 
असुधार्य 
तिर्यग्‌ योनि 


परिताप 
अनंतर 

रुंड - मुंड 
शर - शय्या 
अक्षीहिणी 


नर- व्याप्न 
बेधकता 


अतिरेक 
अत्युक्ति 


पल्लव 


मैं कौन ? 


भला चाहने वाला 

रहित 

चोटी और जनेऊ 
असमर्थता 

बार-बार माँगता 

घमंड, अभिमान 

विरुद्ध आचरण करनेवाला 
अशोभनीय 

घनिष्ठता 

जो सुधारा न जा सके 
मानवेतर योनि, कीट - पतंगों के रूप में 
जन्म | 


विजयी के आँसू 
पश्चाताप 
पश्चात्‌ 
कटे हुए सिर और धड़ 
तीरों से निर्मित शय्या 
चतुरंगिणी सेना का एक परिमाण 
([09350 पैदल, 65640 घोड़े, 2।870 
रथ और इतने ही हाथी) 
व्याप्र के सदृश फुर्तीला और शक्तिशाली 
पुरुष | 
बेधने का भाव 
अधिकता 


बढ़ा - चढ़ाकर कहना 


शब्दाथे एवं टिप्पणियाँ, 


विदीर्ण 
अतिरथी 
विधि - संयोग 
विभोर 
गर्हित 

प्रवृत्त 
अनुताप 
निराकरण 
विषण्ण 


विजय तोरण 
बुलंद 
विलासभूमि 
परिणत 
भृगत॒ष्णा 
अद्वितीय कृति 
स्वणितर 
सहिष्णुता 
धर्मानुपायी 
वेषम्य 

संकीर्णता 

विशद 

परिधि 
परित्यक्त 
गहवर 

विदीर्ण 


अबुल फजल और फैजी: 


40] 


आहत, फट जाना 

रथ पर सवार होकर युद्ध करने में वीर | 
भाग्यवश 

लीन 

घृणित कार्य 

उन्मुख होना, लीन होता 

पश्चाताप 

हल, समाधान 

वुःखी 


फतहपुर सीकरी 


विजय द्वार 

बड़ा, ऊँचा 

सुख सुविधा का स्थान 

परिणाम या अंतिम रूप को प्राप्त | 
छलावा 

ऐसी कृति जिसकी तुलना में दूसरी न हो। 
स्वप्न सा, स्वत का 

सहनशीलता 

धर्म को माननेवाले 

अप्तमान,'जटिलिता 

तंगी, क्षुद्रता 

बड़ा 

घेरा 

त्यागा हुआ 

गड्ढा 

पाड़ा हुआ, टूटा हुआ 

दो भाई, जो अकबर के मित्र और उनके 
दरबार के नवरत्नों में अन्यतम थे | 


दीन - ए - इलाही 


पल्लव 


अकबर द्वारा प्रवर्तित एक समन्वयात्मक 
धर्म | 


'. उतरी स्वप्नपरी : हरित क्रांति 


छिन्नमस्ता 


बालूचर 

बंध्या 

परती 

धूसर 

मरककाल 

अप्रतिभ 

मर्माहत 

कोसी कवलित 

शस्य श्यामला 

ट्नेल (अं) 

सिल्ट (अं) 

अंतहीन प्रांतर 
आसतम्न प्रसवा 

आहर 

पैत : 
मैलेग्नेण्ट मलेरिया : 


अरुण तिमुर सुण कोसी : 


बलिष्ठ 
पूस की रात 


जिसका मस्तक कटा हुआ हो, दुर्गा का 
एक रूप | 
रेत का टीला 
बॉझ 
ऐसी धरती जिसमें फसल न बोई गई हो | 
मटमैला 
हड्डियों का ढाँचा 
स्तब्ध, उदास 
दिल पर चोट लगना 
कोसी द्वारा निगली हुई 
हरीः- भरी 
सुरंग 
मिट॒टी की तलछट 
अतिविस्तृत भूभाग 
जिसका प्रसव निकठ हो 
छोटा तालाब 
ताली (आंचलिक शब्द) 
मलेरिया बुखार का एक खतरनाक रूप | 
उत्तरी बिहार की नदियों के नाम-।. 


गुंडा 


मजबूत | 
पौष के महीने की ठंडी रात । 


शब्दार्थ एव टि : था 


सेल्हा 
ब्रद्मविद्या 


ध्वंस 
विश्वंखलता 
नंवागंतुक 
धर्मोन्माद 
अघोर रूप 


बुद्धिवाद 
विछिन्न 
सिंह- वृत्ति 
प्रतिद्वंद्दी 
अलभधभ्य 
विरिक्त 
स्वॉग 


प्रहस्त 


उच्छुंखलता 
ससरपह . 
तमोली 
सायत 
विवर्ण 
वैधव्य 


सापत्य ज्वाला : 


असवर्णता 
व्यापीत 
अन्यमनस्क 


।03 


एक प्रकार का वस्त्र 

आत्मा - परमात्मा के ज्ञान से संबंधित 
विद्या | 

नष्ट होना 

श्रेंखलता रहित, बिखरा हुआ 

अतिथि, मेहमान 

धर्म का उन्माद, धार्मिक कट्टरता, 
शिव का एक रूप, जो घोर या भयानक 
रूप न हो | 

बुद्धि या तर्क को प्रमाण मानने वाला पंथ। 
विभक्त, काटकर अलग किया हुआ | 
शौर्य या पराक्रम की प्रवृत्ति | 

प्रतियोगी 

अप्राप्य 

उदासीन, अनासक्त 

हँसी -मजाक का खेल या तमाशा, 

हँसी -मजाक या धोखा देने के लिए बनाया 
हुआ रूप | 

परिहास, दिल्‍लगी, हास--परिहास प्रधान 
ख्पक | 

स्वच्छेदता, अनुशासन व गातना 

ईर्ष्या से अभिलाषापूर्ण 

पात वाला 

मुहूर्त 

बदरंग', वर्णहीन 

विधूर होने का भाव 

सौतिया डाह। 

अछूत 

दुःखी 

उदासी, भत न लगते का भाव 


304 


अनुसंधान 
उदवेलित 
निमग्न 
तिलंगा 
मंत्रणा 


सार्थकता 
भोथरा 
पथराई 
परिपाटी 
आलोक 
उक्ति 
परिमित 
नाज़ुक 
निन्दक 
सरजमीन 
अट्टालिका 
विरासत 


घुत 


उपलब्धि 
बहुलता 


प्रतिफलित 
आभिजात्य 
शौर्य - बलिदान 
पीर 


विचार - विनिमय : 


पल्‍लव 
गवेषणा, खोज 
भावाकुलता, उफना हुआ, उछलता हुआ 
लीन 
अंग्रेज सिपाही 
सलाह, मशविरा 


नई संस्कृति की और 


अर्थपूर्णता, उपयोगिता 

जिसकी धार कुंद (खराब) हो गई हो 
शुष्क या निर्जीव होना 

परंपरा 

प्रकाश 

कथन 

सीमित 

कोमल 

निंदा करनेवाला 

देश, राज्य 

ऊँचे भवन 

पूर्वजों से प्राप्त 

धीरे- धीरे नष्ट होना, एक प्रकार का 
कीड़ा जो अनाज और लकड़ी को 
धीरे-धीरे नष्ट करता है | 

प्राप्ति 

अधिकता 

विचारों का आदानः- प्रदान 
परिणाम या फल रूप में प्राप्त 
कुलीन 

वीरता एवं त्याग 

पीड़ा, कष्ट 


शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ 


अवरुद्ध 
निर्शरिणी 
यकायक 
शैलश्रंंग 
पिजरबद्ध 
विटपी 
कलरव 
उल्लास 
विहगी 


फुनगी 


405 
रुका हुआ 

झरने से निकलनेवाली नदी 
अचानक 

पर्वत की चोटी 

पिंजरे में बंद 

लता 

जल के प्रवाह से उत्पन्न ध्वनि 
प्रसत्तता 

पक्षी 

शाखा का सिरा 


रसायन और हमारा पर्यावरण 


अप्रत्याशित 
आनुवंशिक 

क्षयकारी 

उद्भासित 

बहि:स्राव 

विधिवेत्ता 

संजाल : 
रासायनिक अभिक्रिया: 


रासायनिक यौगिक : 


जिसकी आशा न की गई हो। 

वेश परंपरा से आया हुआ। 

नाश करनेवाली 

प्रकाशित 

बाहर निकलना 

कानून के विद्वान्‌ 

समूह 

जब दो या दो से अधिक पदार्थ मिलकर 
एक नया पदवार्थ बनाते है तो उस क्रिया 
को रासायनिक अभिक्रिया कहते हैं। 
जैसे-हाइड्रोजज गैस ऑक्सीजन की 
उपस्थिति में जलकर पानी बनाती है| 
वह पदार्थ जो दो या दो से अधिक 
तत्त्वों के रासायनिक अभिक्रिया से 
बनते हैं उसे रासायतिक यौगिक कहते 
हैं। जैसे सोडियम क्लोराइड, पानी, 
चीनी आदि। 


06 


अक्सीकरण 


फार्बतिक विलायक 


पैलीडोमाइड 


ऐस्त्रेस्टस 


पौलीक्लोरीनेटिड-वाइफे - : 


निल 
परावैद्युत 


(हाईइलेक्ट्रिक) 


मरकरी सेल प्रौद्योगिकी : 


स्‍्तायुरोग 


मिनामाटा 
डाइ इंटरमीडिएट 


गैसीय सत्सर्जक 
कीटनाशी 


पल्लब 


ऑक्सीकरण ऐसी अभिक्रिया को कहते 
हैं जिसमें ऑक्सीजन किसी पदार्थ से 
संयोग करती है या हाइड्रोजन गैस 
निकालती है । जैसे मैग्नीशियम 
ऑक्सीजन से मिलकर मैग्नीशियम 
ऑकक्‍्साइड बनाता है | 

वह कार्बनेक यौगिक जिसका उपयोग 
विलायक के रूप में किया जाता है | 
जैसे क्लोरोपा में, कार्बन टेट्राक्लोराइड 
कार्बन डाइसल्फाइड आदि कार्बनिक 
विलायक हैं| 

एक कार्बनिक यौगिक जिसका उपयोग 
दवाओं में होता है। 

एक यौगिक जिससे छत बनाने की 
चादर बनती है। 

एक कार्बनिक यौगिक जिससे कीटनाशी 
दवाई बनाई जाती है। 

पदार्थ का ऐसा गुण जिससे इसकी 
विलयन क्षमता शक्ति बढ़ जाती है। 
कास्टिक सोडा बनाने के लिए वह 
प्रौद्योगिकी जिसमें पारा इस्तेमाल किया 
जाता है। 

संवेदना स्थानों को प्रभावित करनेवाले 
रोग 

जापान का एक द्वीप 

वह कार्बनिक यौगिक जो रंग बनाने के 
काम आते हैं। 

गैस छोड़ते या निकालनेवाला 

जहरीली दवाएँ जो पौधों के कीड़ों को 
मारने के काम आती हैं। 


शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ 


इल्ली 
उन्मूलन 
वक्तव्य 
अधिष्छात्री 
निःशंक 


विरुद 
ताइटिंगेल ऑफ इंडिया 


ुकुर 
प्रतिभासित 
संस्कारिता 
आहलादित 
राजसिक 
प्रभविष्णुता 
अविस्मरणीय 
काव्य विवेक 
रसज्ञान 
समृद्ध 
अरदास 
नंगा फकीर 


विरासत 
साइमन कमीशन 


30; 


जीप पर सवार इल्लियाँ 


फसल को नुकसान पहुँचाने वाला कीड़ा 
जड़ से उखाड़ना, समाप्त करता 

भाषण 

नियामिका 

बिना किसी शंका के 


भारत-कोकिला 


यश, कीर्ति , 

भारत कोकिला | इस शब्द का 
शाब्दिक अनुवाव भारत की बुलबुल 
है| किन्तु भारतीय साहित्यिक 
परिवेश में भारत - कोकिला कहा 
जाता है, जो अधिक समीचीन भी है। 
दर्पण 

प्रकाशित, आभासित 

परिशोधित, निखरा हुआ रूप 

आनंदित 

राजसी, उच्च कुलीनता 

प्रभावपूर्णता, प्रभावशीलता 


न भूलने योग्य 

काव्य सौन्दर्य समझने की बुद्धि 
काव्य-रसों का ज्ञान 

धनी 

प्रार्थना, विनती 

नंगा रहने वाला फकीर (गांधी जी के 
लिए प्रयुक्त शब्द) 

उत्तराधिकार 

ब्रिटिश सरकार ने सन्‌ 4928 में भारत 
की राजनैतिक स्थिति की जाँच के लिए 


एक कमीशन की स्थापना की थी 


08 


संवेदन 
कवि अभिप्राय समय 


मरथिल्ले 


समृद्ध 
विहार 


आवाहन 


गंगा च यमुना 
चेवगोदावरी सरस्वती। 
नर्मदा-सिंधु कावेरी 
जलेस्मिन्‌ सन्निधिं कुरु| 
शस्य-श्यामल 
अहि-कुंडली कदंबकोरक 
संबंध 


विच्छिन्त 

मोक्षदायिनी 

विष्णुपदी, जाहनवी; 
मंदाकिती और भगीरथी 


पल्लथ 
जिसके सभी सदस्य अंग्रेज़ थे | साइमन 
उसके अध्यक्ष थे, इसलिए इस कमीशन 
को साइमन कमीशन कहा गया | 
राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसके बहिष्कार का 
निश्चय किया था। 
भावानुभूति 
काल्पनिक होते हुए भी अनेक बातों को 
कवियों ने सत्य मान लिया है और 
कविता में उतका प्रयोग किया जाता 
है| 
दुबले-पतले, मरे हुए से। 


तदी बहती रहे 


उन्नत, खूब बढ़ा हुआ 

क्रीड़ा करना, विचरण, घूम फिर कर 
मनोरंजन 

बुलाना, पूजा में किसी देवता को मंत्र 
द्वारा बुलाना। 

गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, 
तर्मदा, सिंधु कावेरी नदियों के जल से 
समीपता प्राप्त करें । 


अनाज आदि से हरा-भरा। 

अभिन्न रूप से जुड़े रहना, जिस प्रकार 
साँप कुंडली के साथ अभिन्न रूप से 
संबद्ध है और कदंब अपनी नई उगी 
पत्तियों के साथ | 

अलग होना 

मुक्ति देने वाली 

गंगा के पर्यायवाची शब्द 


शब्दार्थ एवं टिपणिया 
बिंदुसार, पद्महलद 
अनोतत्त 

गंगोत्री 


आपूरित 
उच्चछिष्ट 
सिकतामेरु 
पुण्यतोया 
समुद्रांत 
वनाच्छादित 
यमुनोत्री 
उदगम 
अनुप्राणित 
प्रचुर 
स्थापत्यकला 
संवर्धन 
जलागम क्षेत्र अधिकरण 
परिप्रेक्ष्य 
आवृत्त 
स्वयंजात वन 
समन्वित 
समग्रता 
पर्यवेक्षण 
सर्वेक्षण 
वर्ण्य-विषय 
आनुवंशिक 
परिस्थितिकीय 
उपहासास्पद 
ऊर्जस्वती 
पयस्वती 


१09 
झीलों के नाम 


हिमालय में वह स्थान जहाँ से गंगा 
निकलती है। 

युक्त, भरी-पूरी 

जूठन, कूड़ा-कर्कट 

बालू के पहाड़ 

पवित्र जल वाली वदी 

समुद्र के अंत तक 

तनों से घिरी 

यमुना का जन्म स्थल 

निकास 

प्रेरित, पोषित 

पर्याप्त 

भवन-निर्माण की कला 

वृद्धि-विकास 

जलसंचय क्षेत्र से संबंधित विभाग। 
संदर्भ 

ढका हुआ 

प्राकृतिक वन 

मिला हुआ 

पूर्णता 

चारों तरफ देखना 

आदि से अंत तक भली प्रकार देखना 
जिस विषय का वर्णन किया गया हो 
वंश परंपरा से प्राप्त 

परिस्थिति और पर्यावरण से संबंधित | 
उपहास करने-योग्य. 

तेजवाली " *,गाँतों | 

जल से यक्त, नबी?) 


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क्‍ | -8पए३४० (५50ए]३७०प | पघ०ए३एच-००घ४। प्रण॒ु+षश्णफ्छ क्‍ ७07६5 | 859]]05 | 5प्राप>एछव, | 


वव्धज5एपएशक छेम-एं । 870०० पू० ६ 




















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हब (दााप्४४ | >पूग्ध। *थ्पू०ए९४ 6 44 एाध०७2 | िएफ्र | ०३४४प्य6 हि कह |०ठ एचडए १०८ 
िघुए38३३ धरएव३ उ०ए०३० हम 27 कर कि कक १ छउपणापफाउउर || | सी पक 


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आज आऋ | है कक ० 

| ही ऋण गपल नी फल कगजि कक हानाक।. वयनिा.. परम कलर किन न अल मा कर सन नीयत न मनन बने भी. >स->नक सनम व कीट शा ४ छे नशे है है | ते | 28982 
| # किस 5 तक जलन नल >> 
[ ध् ८ | ५7 , +प०७ छापछ3 ५०७ । 

कलर कि अर जल रे हम है _ न किला चर 
| 5 | "आए आधा कब « 4७५ ८७0 ६ हे. 2 न “रब प-+-.-.3२3२०७००.. वन धरा ााात 
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इचएनयथदानता “सनचाया//पाजामयथक बम. खरा ४ पा व अर : “57 नश्यक पा. >मपोपा » वैदरिफा पा अपाफ॑. जरवशिशेलवण- अऑफरक धयत अदा फिकिपध्थाकत, नर्नीय न प्रसार धिलस अत पलक ० यू अक्का 0७ है "जाय आया 2 अब्जका घकजट #नपडाद २०धरकफााल ॒ 2०» लाना >जमयुपपणए.. बे... 'ऑ४27*फपपरक३. 23 पृ डे, :--+अर्वा-म0: पवक मे कम. «का इकाक. बिरे ०० “वार कक अफरि > 
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क्र ६ रे | 
४7४० ४ के 
) 8 पल लक 
मी ]0. ० आज] 
इातकनाओआ ब्दु ६ मूष्ए. हो / हम व छः 2. 2. 
१ ४ 
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5५ (्‌प हि ।8॥ 2 _। ।300$ | . (] हि /॑ ह ] 8, ञ पट ! ( (जे जि है 
१ कक न्ज्ण पड नि ( 5 7१ शा 
| 5 क मं 4 व 8 मल गा ॥] 
पर 4 का ही तर ध है 
जे मिनी 4 के 3 के के 25 तक 0 6 


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हाफ बचत कृछ, बम. «न बमया क गांस्स देकू. + छाया 7९. हतातों मर कफ. हज बबथा छपी (जल ७ शफक ७०४७. सिर बन का १५ 


छ. ब७ द्जय २>ब्० ७ $ #पए ६ बणफे ५2 एज. पंएज बाज ब्रपय ख्थिए मह का एच ७ ७ 
॥ | ध््‌ न्‍ | । है [ कर । न आर भ.म 
| ह् । 2 । है! ] कि । | |) त 8, |. / ॥॥ !_| ञ (ही ७:5१ 
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77 00080 00॥7॥ 


अनाज व 
'अल्कनम-ट 


उन मम्मी परकीनिनानमीम का नपन्‍ता. न 
० २०९७७ नम "० वन टीन )+ बनी: अजीज ++ जनक 
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सलीम अली साहब की जीवन साथी कौन थीं?

उत्तरः जीवनसाथी (पत्नी) के रूप में तहमीना अली जी के जीवन में शामिल थी। उन्होंने पक्षी विज्ञान क्षेत्र में सालिम अली की काफी मदद की थी। इसीलिये तहमीना का सालिम अली के जीवन में विशेष स्थान था।

सालिम अली की पत्नी जीवनसाथी का क्या नाम था?

सलिम अली के प्रारंभिक सर्वेक्षणों में उनकी पत्नी तहमीना का साथ और समर्थन दोनों प्राप्त हुआ और एक मामूली सर्जरी के बाद 1939 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद वे एकदम टूट गए।

सलीम अली का पूरा नाम क्या है?

Salim Ali Biography: डॉ सलीम मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली, जिन्हें 'बर्डमैन ऑफ इंडिया' के नाम से जाना जाता है। एक भारतीय पक्षी विज्ञानी, वन्यजीव संरक्षणवादी और प्रकृतिवादी थे। पक्षियों के बारे में अध्ययन में उनका योगदान उल्लेखनीय है।

सलीम अली का जीवन लगभग कितने वर्ष लंबा रहा?

भरतपुर पक्षी अभयारण्य केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना और साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान को समाप्त होने से बचाने में सलीम अली का बहुत बड़ा योगदान रहा. 27 जुलाई 1987 के दिन ९१ वर्ष की आयु में भारत के इस पक्षी प्रेमी का देहावसान हो गया. उनका सपना था कि भारत में एक पक्षी शोध एवं अध्ययन केंद्र की स्थापना हो.