प्रदर्शन कला शिक्षा में एक अध्यापक की क्या भूमिका है - pradarshan kala shiksha mein ek adhyaapak kee kya bhoomika hai

भारतीय संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से भी पूर्व का है। पंडित शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर ग्रंथ मे भारतीय संगीत की परिभाषा गीतम,वादयम् तथा नृत्यं त्रयम संगीत मुच्यते कहा गया है।गायन, वाद्य वादन एवम् नृत्य तीनों कलाओं का समावेश संगीत शब्द में मानागया है।तीनो स्वतंत्र कला होते हुए भी एक दूसरे की पूरक है।भारतीय संगीत की दो प्रकार प्रचलित है प्रथम कर्नाटक संगीत, जो दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित है और हिन्दुस्तानी संगीत शेष भारत में लोकप्रिय है। भारतवर्ष की सारी सभ्यताओं में संगीत का बड़ा महत्व रहा है। धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं में संगीत का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है।इस रूप में, संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा मानी जाती है। वैदिक काल में अध्यात्मिक संगीत को मार्गी तथा लोक संगीत को देशी कहा जाता था कालांतर में यही शास्त्रीय और लोक संगीत के रूप में दिखता है।

भारतीय संगीत में विभिन्न प्रकार के धार्मिक, लोक (folk), लोकप्रिय (popular), पॉप (pop) और शास्त्रीय संगीत शामिल हैं भारतीय संगीत का सबसे पुराना संरक्षित उदाहरण है सामवेद की कुछ धुनें जो आज भी निश्चित वैदिक श्रोता (Shrauta) बलिदान में गाई जाती है भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा हिंदू ग्रंथों से काफी प्रभावित है। इसमें कर्नाटक और हिन्दुस्तानी संगीत और कई राग शामिल हैं . ये कई युगों के दौरान विकसित हुआ और इसका इतिहास एक सहस्राब्दी तक फैला हुआ है। यह हमेशा से धार्मिक प्रेरणा, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और शुद्ध मनोरंजन का साधन रहा है विशिष्ठ उपमहाद्वीप रूपों के साथ ही इसमें अन्य प्रकार के ओरिएंटल संगीत से भी कुछ समानताएं हैं

पुरंदरदास को कर्णाटक संगीत का पिता माना जाता है (कर्नाटक संगीता पितामह ). उन्होंने अपने गीतों का समापन भगवान पुरंदर विट्टल के वंदन के साथ किया और माना जात है की उन्होंने कन्नड़ भाषा में ४७५०००0 गीत रचे हालाँकि, केवल १००० के बारे में आज जाना जाता है।

नृत्य

भारतीय नृत्य (Indian dance) में भी लोक और शास्त्रीय रूपों में कई विविधताएं है जाने माने लोक नृत्यों (folk dances) में शामिल हैं पंजाब (Punjab) का भांगड़ा, असम का बिहू (bihu), झारखंड और उड़ीसा का छाऊ (chhau), राजस्थान का घूमर (ghoomar), गुजरात का डांडिया (dandiya) और गरबा (garba), कर्नाटक जा यक्षगान (Yakshagana), महाराष्ट्र का लावनी (lavani) और गोवा का देख्ननी (Dekhnni). भारत की संगीत, नृत्य और नाटक की राष्ट्रीय अकादमी द्वारा आठ नृत्य रूपों, कई कथा रूपों और पौराणिक (mythological) तत्व वाले कई रूपोंको शास्त्रीय नृत्य का दर्जा (classical dance status) दिया गया है। ये हैं: तमिलनाडु का भरतनाट्यम, उत्तर प्रदेश का कथक, केरल का कथककली (kathakali) और मोहिनीअट्टम, आंध्र प्रदेश का कुच्चीपुडी (kuchipudi), मणिपुर का मणिपुरी (manipuri), उड़ीसा का ओडिसी और असम का सत्त्रिया (sattriya).

संक्षिप्त रूप से कहें तो कलारिप्पयाट्टू (Kalarippayattu) या कलारी (Kalari) को दुनिया का सबसे पुराना मार्शल आर्ट (martial art) माना जाता है। यह मल्लपुराण जैसे ग्रंथों के रूप में संरक्षित है। कलारी और उसके साथ साथ उसके बीद आये मार्शल आर्ट के कुछ रूपों के बारे में ये भी माना जाता है की बौद्ध धर्म की तरह ये भी चीन तक पहुँच चूका है और अंततः इसी से कुंग-फु का विकास हुआ। बाद में आने वाली मार्शल आर्ट्स हैं- गतका, पहलवानी (Pehlwani) और मल्ल-युद्ध (Malla-yuddha) भारतीय मार्शल आर्ट्स को कई महान लोगों ने अपनाया था जिनमें शामिल हैं बोधिधर्मा जो भारतीय मार्शल आर्ट्स को चीन तक ले गए।

नाटक और रंगमंच

भारतीय संगीत और नृत्य के साथ साथ भारतीय नाटक और थियेटर का भी अपने लम्बा इतिहास है।कालिदास के नाटक शकुंतला (Shakuntala) और मेघदूत कुछ पुराने नाटक हैं, जिनके बाद भासा के नाटक आये.२००० साल पुरानी केरल की कुटियट्टम (Kutiyattam) विश्व की सबसे पुरानी जीवित थियेटर परम्पराओं में से एक है। यह सख्ती से नाट्य शास्त्र का पालन करती है कला के इस रूप में भासा के नाटक बहुत प्रसिद्द हैं।नाट्याचार्य (स्वर्गीय) पद्म श्री मणि माधव चकयार (Māni Mādhava Chākyār) - अविवादित रूप से कला के इस रूप और अभिनय (Abhinaya) के आचार्य - ने इस पुराणी नाट्य परंपरा को लुप्त होने से बचाया और इसे पुनर्जीवित किया। वो रस अभिनय (Rasa Abhinaya) में अपनी महारत के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कालिदास के नाटक अभिज्ञान शकुंतला (Abhijñānaśākuntala), विक्रमोर्वसिया (Vikramorvaśīya) और मालविकाग्निमित्र (Mālavikāgnimitra) भासा के स्वप्नवासवदत्ता (Swapnavāsavadatta) और पंचरात्र (Pancharātra) हर्ष के नगनान्दा (Nagananda) आदि नाटकों को कुटियट्टम रूप में प्रर्दशित करना शुरू किया

लोक थिएटर की परंपरा भारत के अधिकाँश भाषाई क्षेत्रों में लोकप्रिय है इसके अलावा, ग्रामीण भारत में कठपुतली थियेटर की समृद्ध परंपरा है जिसकी शुरुआत कम से कम दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व हुई थी इसका पाणिनि पर पतंजलि के वर्णन) में उल्लेख किया गया है समूह थियेटर भी शहरों में पनप रहा है, जिसकी शुरुआत गब्बी वीरंन्ना (Gubbi Veeranna), उत्पल दत्त (Utpal Dutt), ख्वाज़ा अहमद अब्बास (Khwaja Ahmad Abbas), के वी सुबन्ना (K. V. Subbanna) जैसे लोगों द्वारा की गई और जो आज भी नंदिकर (Nandikar), निनासम (Ninasam) और पृथ्वी थियेटर (Prithvi Theatre) जैसे समूहों द्वारा बरकरार राखी गई है

नाटक

नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है।

परिचयसंपादित करें

नाटक की गिनती काव्यों में है। काव्य दो प्रकार के मान गे हैं— श्रव्य और दृश्य। इसी दृश्य काव्य का एक भेद नाटक माना गया है। पर दृष्टि द्वारा मुख्य रूप से इसका ग्रहण होने के कारण दृश्य काव्य मात्र को नाटक कहने लगे हैं।

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है। अग्निपुराण में भी नाटक के लक्षण आदि का निरूपण है। उसमें एक प्रकार के काव्य का नाम प्रकीर्ण कहा गया है। इस प्रकीर्ण के दो भेद है— काव्य और अभिनेय। अग्निपुराण में दृश्य काव्य या रूपक के २७ भेद कहे गए हैं—

नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, विलासिका,

दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीनिगदित, नाटयरासक, रासक, उल्लाप्यक और प्रेक्षण।

साहित्यदर्पण में नाटक के लक्षण, भेद आदि अधिक स्पष्ट रूप से दिए हैं।

ऊपर लिखा जा चुका है कि दृश्य काव्य के एक भेद का नाम नाटक है। दृश्य काव्य के मुख्य दो विभाग हैं— रूपक और उपरूपक। रूपक के दस भेद हैं— रूपक, नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, ड़िम, ईहामृग, अंकवीथी और प्रहसन। उपरूपक के अठारह भेद हैं— नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिंपक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणिका, हल्लीशा और भणिका।

उपर्युक्त भेदों के अनुसार नाटक शब्द दृश्य काव्य मात्र के अर्थ में बोलते हैं। साहित्यदर्पण के अनुसार नाटक किसी ख्यात वृत्त (प्रसिद्ध आख्यान, कल्पित नहीं) की लेकर लिखाना चाहिए। वह बहुत प्रकार के विलास, सुख, दुःख, तथा अनेक रसों से युक्त होना चाहिए। उसमें पाँच से लेकर दस तक अंक होने चाहिए। नाटक का नायक धीरोदात्त तथा प्रख्यात वंश का कोई प्रतापी पुरुष या राजर्षि होना चाहिए। नाटक के प्रधान या अंगी रस शृंगार और वीर हैं। शेष रस गौण रूप से आते हैं। शांति, करुणा आदि जिस रुपक में में पधान हो वह नाटक नहीं कहला सकता। संधिस्थल में कोई विस्मयजनक व्यापार होना चाहिए। उपसंहार में मंगल ही दिखाया जाना चाहिए। वियोगांत नाटक संस्कृत अलंकार शास्त्र के विरुद्ध है।

नाटक शब्दावलीसंपादित करें

अभिनय आरंभ होने के पहले जो क्रिया (मंगलाचरण नांदी) होती है, उसे पूर्वरंग कहते हैं। पूर्वरंग, के उपरांत प्रधान नट या सूत्रधार, जिसे स्थापक भी कहते हैं, आकर सभा की प्रशंसा करता है फिर नट, नटी सूत्रधार इत्यादि परस्पर वार्तालाप करते हैं जिसमें खेले जानेवाले नाटक का प्रस्ताव, कवि-वंश-वर्णन आदि विषय आ जाते हैं। नाटक के इस अंश को प्रस्तावना कहते हैं। जिस इतिवृत्त को लेकर नाटक रचा जाता है उसे वस्तु कहते हैं। वस्तु दो प्रकार की होती है—आधिकारिक वस्तु और प्रासंगिक वस्तु। जो समस्त इतिवृत्त का प्रधान नायक होता है उसे अधिकारी कहते हैं। इस अधिकारी के संबंध में जो कुछ वर्णन किया जाता है उसे आधिकारिक बस्तु कहते हैं जैसे, रामलीला में राम का चरित्र। इस अधिकारी के उपकार के लिये या रसपुष्टि के लिये प्रसंगवश जिसका वर्णन आ जाता है उसे प्रासगिक वस्तु कहते हैं जैसे सुग्रीव, आदि का चरित्र। सामने लाने अर्थात् दृश्य संमुख उपस्थित करने को अभिनय कहते हैं। अतः अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वाँग का नाम ही अभिनय है। अभिनय चार प्रकार का होता है— आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। अंगों की चेष्टा से जो अभिनय किया जाता है उसे आंगिक, वचनों से जो किया जाता है उसे वाचिक, भैस बनाकर जो किया जाता हैं उसे आहार्य तथा भावों के उद्रेक से कंप, स्वेद आदि द्वारा जो होता है उसे सात्विक कहते हैं। नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पाँचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि होती है। जो बात मुँह से कहते ही चारों ओर फैल जाय और फलसिद्धि का प्रथम कारण हो उसे बीज कहते हैं, जैसे वेणीसंहार नाटक में भीम के क्रोध पर युधिष्ठिर का उत्साहवाक्य द्रौपदी के केशमोजन का कारण होने के कारण बीज है। कोई एक बात पूरी होने पर दूसरे वाक्य से उसका संबंध न रहने पर भी उसमें ऐसे वाक्य लाना जिनकी दूसरे वाक्य के साथ असंगति न हो बिंदु है। बिच में किसी व्यापक प्रसंग के वर्णन को पताका कहते हैं— जैसे उत्तरचरित में सुग्रीव का और अभिज्ञान- शांकुतल में विदूषक का चरित्रवर्णन। एक देश व्यापी चरित्रवर्णन को प्रकरी कहते हैं। आरंभ की हुई क्रिया की फलसिद्धि के लिये जो कुछ किया जाय उसे कार्य कहते हैं जैसे, रामलीला में रावण वध। किसी एक विषयकीचर्चा हो रही हो, इसी बीच में कोई दूसरा विषय उपस्थित होकर पहले विषय से मेल में मालूम हो वहाँ पताकास्थान होता है, जैसे, रामचरित् में राम सीता से कह रहे हैं—हे प्रिये तुम्हारी कोई बात मुझे असह्य नहीं, यदि असह्य है तो केवल तुम्हारा विरह, इसी वीच में प्रतिहारी आकर कहता है : देव दुर्मुख उपस्थित। यहाँ उपस्थित शब्द से विरह उपस्थित ऐसी प्रतीत होता है और एक प्रकार का चमत्कार मालूम होता है। संस्कृत साहित्य में नाटक संबंधी ऐसे ही अनेक कौशलों की उदभावना की गई है और अनेक प्रकार के विभेद दिखाए गए हैं।

आजकल देशभाषाओं में जो नए नाटक लिखे जाते हैं उनमें संस्कृत नाटकों के सब नियमों का पालन या विषयों का समावेश अनावश्यक समझा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखते हैं—संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में उनका अनुसंधान करना या किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर नाटक लिखना व्यर्थ है क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा संपादन करने से उलटा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है।

नाटक के प्रमुख तत्वसंपादित करें

कथावस्तु

नाटक की कथावस्तु पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक हो सकती है।

पात्र

पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चरित्र ही नाटक की जान होता है। कथावस्तु के अनुरूप नायक धीरोदात्त, धीर ललित, धीर शांत या धीरोद्धत हो सकता है।

रस

नाटक में नवरसों में से आठ का ही परिपाक होता है। शांत रस नाटक के लिए निषिद्ध माना गया है। वीर या शृंगार में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है।

अभिनय

अभिनय भी नाटक का प्रमुख तत्व है। इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है। मुख्य प्रकार से अभिनय ४ प्रकार का होता हॅ।

१ - आंगिक अभिनय (शरीर से किया जाने वाला अभिनय),

२ - वाचिक अभिनय (संवाद का अभिनय [रेडियो नाटक ],

३ - आहार्य अभिनय (वेषभूषा, मेकअप, स्टेज विन्यास्, प्रकाश व्यवस्था आदि),

४ - सात्विक अभिनय (अंतरात्मा से किया गया अभिनय [ रस आदि ]।

नाटक का इतिहाससंपादित करें

मुख्य लेख : संस्कृत नाटकों का उद्भव एवं विकास

प्राचीन कालसंपादित करें

भारत में अभिनय-कला और रंगमंच का वैदिक काल में ही निर्माण हो चुका था। तत्पश्चात् संस्कृत रंगमंच तो अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था-भरत मुनि का नाट्यशास्त्र इसका प्रमाण है। बहुत प्राचीन समय में भारत में संस्कृत नाटक धार्मिक अवसरों, सांस्कृतिक पर्वों, सामाजिक समारोहों एवं राजकीय बोलचाल की भाषा नहीं रही तो संस्कृत नाटकों की मंचीकरण समाप्त-सा हो गया।

भारतवर्ष में नाटकों का प्रचार बहुत प्राचीन काल से हैं। भरत मुनि का नाटयशास्त्र बहुत पुराना है। रामायण, महाभारत, हरिवंश इत्यादि में नट और नाटक का उल्लेख है। पाणिनि ने शिलाली और कृशाश्व नामक दो नटसूत्रकारों के नाम लिए हैं। शिलाली का नाम शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण और सामवेदीय अनुपद सूत्र में मिलता हैं। विद्वानों ने ज्योतिष की गणना के अनुसार शतपथ ब्राह्मण को ४००० वर्ष से ऊपर का बतलाया है। अतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह राय कि ग्रीस या यूनान में ही सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भव हुआ, ठीक नहीं है। हरिवंश में लिखा है कि जब प्रद्यु्म्न, सांब आदि यादव राजकुमार वज्रनाभ के पुर में गए थे तब वहाँ उन्होंने रामजन्म और रंभाभिसार नाटक खेले थे। पहले उन्होंने नेपथ्य बाँधा था जिसके भीतर से स्त्रियों ने मधुर स्वर से गान किया था। शूर नामक यादव रावण बना था, मनोवती नाम की स्त्री रंभा बनी थी, प्रद्युम्न नलकूबर और सांब विदूषक बने थे। विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्पष्ट स्वीकार किया हैं कि हिंदुओं ने अपने यहाँ नाटक का प्रादुर्भाव अपने आप किया था। प्राचीन हिंदू राजा बडी बडी रंगशालाएँ बनवाते थे। मध्यप्रदेश में सरगुजा एक पहाड़ी स्थान है, वहाँ एक गुफा के भीतर इस प्रकार की एक रंगशाला के चिह्न पाए गए हैं। यह ठीक है कि यूनानियों के आने के पूर्व के संस्कृत नाटक आजकल नहीं मिलते हैं, पर इस बात से इनका अभाव, इतने प्रमाणों के रहते, नहीं माना जा सकता। संभव है, कलासंपन्न युनानी जाति से जब हिंदू जाति का मिलन हुआ हो तब जिस प्रकार कुछ और और बातें एक ने दूसरे की ग्रहण कीं इसी प्रकार नाटक के संबंध में कुछ बातें हिंदुओं ने भी अपने यहाँ ली हों। बाहयपटी का जवनिका (कभी कभी यवनिका) नाम देख कुछ लोग यवन संसर्ग सूचित करते हैं। अंकों में जो दृश्य संस्कृत नाटकों में आए हैं उनसे अनुमान होता है कि इन पटों पर चित्र बने रहते थे। अस्तु अधिक से अधिक इस विषय में यही कहा जा सकता है कि अत्यंत प्राचीन काल में जो अभिनय हुआ करते थे। उनमें चित्रपट काम में नहीं लाए जाते थे। सिकंदर के आने के पीछे उनका प्रचार हुआ। अब भी रामलीला, रासलीला बिना परदों के होती ही हैं।

मध्यकालसंपादित करें

मध्यकाल में प्रादेशिक भाषाओं में लोकतंत्र का उदय हुआ। यह विचित्र संयोग है कि मुस्लिमकाल में जहाँ शासकों की धर्मकट्टता ने भारत की साहित्यिक रंग-परम्परा को तोड़ डाला वहाँ लोकभाषाओं में लोकमंच का अच्छा प्रसार हुआ। रासलीला, रामलीला तथा नौटंकी आदि के रूप में लोकधर्मी नाट्यमंच बना रहा। भक्तिकाल में एक ओर तो ब्रज प्रदेश में कृष्ण की रासलीलाओं का ब्रजभाषा में अत्यधिक प्रचलन हुआ और दूसरी और विजयदशमी के अवसर पर समूचे भारत के छोटे-बड़े नगरों में रामलीला बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी।

साहित्यिक दृष्टि से इस मध्यकाल में कुछ संस्कृत नाटकों के पद्यबद्ध हिन्दी छायानुवाद भी हुए, जैसे नेवाज कृत ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’, सोमनाथ कृत ‘मालती-माधव’, हृदयरामचरित ‘हनुमन्नाटक’ आदि कुछ मौलिक पद्यबद्ध संवादात्मक रचनाएँ भी हुईं, जैसे लछिराम कृत ‘करुणाभरण’, रघुराम नागर कृत ‘सभासार’ (नाटक), गणेश कवि कृत ‘प्रद्युम्नविजय’ आदि पर इनमें नाटकीय पद्धति का पूर्णतया निर्वाह नहीं हुआ। ये केवल संवादात्मक रचनाएँ ही कही जा सकती हैं।

इस प्रकार साहित्यिक दृष्टि तथा साहित्यिक रचनाओं के आभाव के कारण मध्यकाल में साहित्यिक रंगकर्म की ओर कोई प्रवृत्ति नहीं हुई। सच तो यह है कि आधुनिक काल में व्यावसायिक तथा साहित्यिक रंगमंच के उदय से पूर्व हमारे देश में रामलीला, नौटंकी आदि के लोकमंच ने ही चार-पाँच सौ वर्षों तक हिन्दी रंगमंच को जीवित रखा। यह लोकमंच-परम्परा आज तक विभिन्न रूपों में समूचे देश में वर्तमान है। उत्तर भारत में रामलीलाओं के अतिरिक्त महाभारत पर आधारित ‘वीर अभिमन्यु’, ‘सत्य हरिशचन्द्र’ आदि ड्रामे तथा ‘रूप-बसंत’, ‘हीर-राँझा’, ‘हकीकतराय’, ‘बिल्वामंगल’ आदि नौटंकियाँ आज तक प्रचलित हैं।

आधुनिक कालसंपादित करें

आधुनिक काल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ रंगमंच को प्रोत्साहन मिला। फलत: समूचे भीरत में व्यावसायिक नाटक मंडलियाँ स्थापित हुईं। नाट्यारंगन की प्रवृत्ति सर्वप्रथम बँगला में दिखाई दी। सन् 1835 ई. के आसपास कलकत्ता में कई अव्यावसायिक रंगशालाओं का निर्माण हुआ। कलकत्ता के कुछ सम्भ्रान्त परिवारों और रईसों ने इनके निर्माण में योग दिया था और दूसरी ओर व्यावयायिक नाटक मंडलियों के असाहित्यिक प्रयास से अलग था।

बँगला के इस नाट्य-सृजन और नाट्यारंगन का अध्ययन इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के रंगांदोलन को इसी से दशा, दिशा और प्रेरणा मिली थी। बँगला के इस आरम्भिक साहित्यिक प्रयास में जो नाटक रचे गए वे मूल संस्कृत या अंग्रेजी नाटकों के छायानुवाद या रूपान्तर थे। स्पष्ट है कि भारतेन्दु का आरम्भिक प्रायस भी संस्कृत नाटकों के छायानुवाद का ही था।

हिन्दी रंगमंचीय साहित्यिक नाटकों में सबसे पहला हिन्दी गीतिनाट्य अमानत कृत ‘इंदर सभा’ कहा जा सकता है जो सन् 1853 ई. में लखनऊ के नवाब वाजिद अलीशाह के दरबार में खेला गया था। इसमें उर्दू-शैली का वैसा ही प्रयोग था जैसा पारसी नाटक मंडलियों ने अपने नाटकों में अपनाया। सन् 1862 ई. में काशी में ‘जानकी मंगल’ नामक विशुद्ध हिन्दी नाटक खेला गया था।

उपर्युक्त साहित्यिक रंगमंच के उपर्युक्त छुटपुट प्रयास से बहुत आगे बढ़कर पारसी मंडलियों-ओरिजिनल विक्टोरिया, एम्प्रेस विक्टोरिया, एल्फिंस्टन थियेट्रिकल कम्पनी, अल्फ्रेड थियेट्रिकल तथा न्यू अलफ्रेड कम्पनी आदि-ने व्यावसायिक रंगमंच बनाया। सर्वप्रथम बंबई और बाद में हैदराबाद, लखनऊ, बनारस, दिल्ली लाहौर आदि कई केन्द्रों और स्थानों से ये कम्पनियाँ देश-भर में घूम-घूमकर हिन्दी नाटकों का प्रदर्शन करने लगीं। इन पारसी नाटक मंडलियों के लिए पहले-पहल नसरबानी खान साहब, रौनक बनारसी, विनायक प्रसाद ‘तालिब’, ‘अहसन’ आदि लेखकों ने नाटक लिखे। जनता का सस्ता मनोरंजन और धनोपार्जन ही इन कम्पनियों का मुख्य उद्देश्य था।

इसी से उच्चकोटि के साहित्यिक नाटकों से इनका विशेष प्रयोजन नहीं था। धार्मिक-पौराणिक तथा प्रेम-प्रधान नाटकों को ही ये अपने रंगमंच पर दिखाती थीं। सस्ते और अश्लील प्रदर्शन करने में इन्हें जरा भी संकोच नहीं था। इसी से जनता की रुचि भ्रष्ट करने का दोष इन पर लगाया जाता है। भ्रमण के कारण इन कम्पनियों का रंगमंच भी इनके साथ घूमता रहता था।

किसी स्थायी रंगमंच की स्थापना इनके द्वारा भी संभव नहीं थी। रंगमंच का ढाँचा बल्लियों द्वारा निर्मित किया जाता था और स्टेज पर चित्र-विचित्र पर्दे लटका दिए जाते थे। भड़कीली-चटकीली वेशभूषा, पर्दों की नई-नई चित्रकारी तथा चमत्कारपूर्ण दृश्य-विधान की ओर इनका अधिक ध्यान रहता था। पर्दों को दृश्यों के अनुसार उठाया-गिराया जाता था। संगीत-वाद्य का आयोजन स्टेज के अगले भाग में होता था। गंभीर दृश्यों के बीच-बीच में भी भद्दे हास्यपूर्ण दृश्य जानबूझकर रखे जाते थे। बीच-बीच में शायरी, गजलें और तुकबन्दी खूब चलती थी। भाषा उर्दू-हिन्दी का मिश्रित रूप थी। संवाद पद्य-रूप तथा तुकपूर्ण खूब होते थे।

राधेश्याम कथावाचक, नारायणप्रसाद बेताब, आगाहश्र कश्मीरी, हरिकृष्ण जौहर आदि कुछ ऐसे नाटककार भी हुए हैं जिन्होंने पारसी रंगमंच को कुछ साहित्यिक पुट देकर सुधारने का प्रयत्न किया है और हिन्दी को इस व्यावसायिक रंगमंच पर लाने की चेष्टा की। पर व्यावसायिक वृत्ति के कारण संभवत: इस रंगमंच पर सुधार संभव नहीं था। इसी से इन नाटककारों को भी व्यावसायिक बन जाना पड़ा। इस प्रकार पारसी रंगमंच न विकसित हो सका, न स्थायी ही बन सका।

हिन्दी नाटकसंपादित करें

मुख्य लेख : हिन्दी नाटक

हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। उस काल के भारतेन्दु तथा उनके समकालीन नाटककारों ने लोक चेतना के विकास के लिए नाटकों की रचना की इसलिए उस समय की सामाजिक समस्याओं को नाटकों में अभिव्यक्त होने का अच्छा अवसर मिला।

जैसाकि कहा जा चुका है, हिन्दी में अव्यावसायिक साहित्यिक रंगमंच के निर्माण का श्रीगणेश आगाहसन ‘अमानत’ लखनवी के ‘इंदर सभा’ नामक गीति-रूपक से माना जा सकता है। पर सच तो यह है कि ‘इंदर सभा’ की वास्तव में रंगमंचीय कृति नहीं थी। इसमें शामियाने के नीचे खुला स्टेज रहता था। नौटंकी की तरह तीन ओर दर्शक बैठते थे, एक ओर तख्त पर राजा इंदर का आसन लगा दिया जाता था, साथ में परियों के लिए कुर्सियाँ रखी जाती थीं। साजिंदों के पीछे एक लाल रंग का पर्दा लटका दिया जाता था। इसी के पीछे से पात्रों का प्रवेश कराया जाता था। राजा इंदर, परियाँ आदि पात्र एक बार आकर वहीं उपस्थित रहते थे। वे अपने संवाद बोलकर वापस नहीं जाते थे।

उस समय नाट्यारंगन इतना लोकप्रिय हुआ कि अमानत की ‘इंदर सभा’ के अनुकरण पर कई सभाएँ रची गई, जैसे ‘मदारीलाल की इंदर सभा’, ‘दर्याई इंदर सभा’, ‘हवाई इंदर सभा’ आदि। पारसी नाटक मंडलियों ने भी इन सभाओं और मजलिसेपरिस्तान को अपनाया। ये रचनाएँ नाटक नहीं थी और न ही इनसे हिन्दी का रंगमंच निर्मित हुआ। इसी से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इनको नाटकाभास कहते थे। उन्होंने इनकी पैरोडी के रूप में ‘बंदर सभा’ लिखी थी।

लोक नाटकसंपादित करें

मुख्य लेख : लोकनाट्य

संस्कृत नाटकों का युग ढलने लगा तब चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवी शताब्दी तक उनका स्थान विभिन्न भारतीय भाषाओं में लोक नाटकों (folk theatre) ने लिया। आज अलग-अलग प्रदेशों मे लोक नाटक भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।

रामलीला - उत्तरी भारत में

जात्रा - बंगाल, उडीसा, पूर्वी बिहार

तमाशा - महाराष्ट्र

नौटंकी - उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब

भवई - गुजरात

यक्षगान - कर्णाटक

थेरुबुट्टू - तमिलनाडु

नाचा - छत्तीसगढ

रंगमंच

न्यूयॉर्क स्टेट थिएटर के अन्दर का दृष्य

रंगमंच (थिएटर) वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों। रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है। दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, या नाट्यशाला (या नृत्यशाला) कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम दिया जाता है।

आविर्भावसंपादित करें

ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटकों के विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया है:

नाट्यकला की उत्पत्ति दैवी है, अर्थात् दु:खरहित सत्ययुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने स्रष्टा ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की जिससे देवता लोग अपना दु:ख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलत: उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर, नाटक का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया आदि आदि।

नाटकों का विकास चाहे जिस प्रकार हुआ हो, संस्कृत साहित्य में नाट्य ग्रंथ और तत्संबंधी अनेक शास्त्रीय ग्रंथ लिखे गए और साहित्य में नाटक लिखने की परिपाटी संस्कृत आदि से होती हुई हिंदी को भी प्राप्त हुई। संस्कृत नाटक उत्कृष्ट कोटि के हैं और वे अधिकतर अभिनय करने के उद्देश्य से लिखे जाते थे। अभिनीत भी होते थे, बल्कि नाट्यकला प्राचीन भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी, ऐसा संस्कृत तथा पालि ग्रंथों के अन्वेषण से ज्ञात होता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से तो ऐसा ज्ञात होता है कि नागरिक जीवन के इस अंग पर राज्य को नियंत्रण करने की आवश्यकता पड़ गई थी। उसमें नाट्यगृह का एक प्राचीन वर्णन प्राप्त होता है। अग्निपुराण, शिल्परत्न, काव्यमीमांसा तथा संगीतमार्तंड में भी राजप्रसाद के नाट्यमंडपों के विवरण प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार महाभारत में रंगशाला का उल्लेख है और हरिवंश पुराण तथा रामायण में नाटक खेले जाने का वर्णन है।

इतना सब होते हुए भी यह निश्चित रूप से पता नहीं लगता कि वे नाटक किस प्रकार के नाट्यमंडपों में खेले जाते थे तथा उन मंडपों के क्या रूप थे। अभी तक की खोज के फलस्वरूप सीतावंगा गुफा को छोड़कर कोई ऐसा गृह नहीं मिला जिसे साधिकार नाट्यमंडप कहा जा सके।

पाश्चात्य विद्वानों की भी धारणा है कि धार्मिक कृत्यों से ही नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ। इससे रंगस्थली (यदि वास्तव में उसे रंगस्थली की संज्ञा दी जा सके) के प्रारंभिक स्वरूप की कल्पना की जा सकती है कि वह वृत्ताकर रही होगी। धीरे-धीरे जब दर्शनीयता की ओर अधिक ध्यान दिया गया होगा, तब यह अनुभव किया गया होगा कि इस वृत्ताकार रंगस्थली में केवल आगे के कुछ दर्शक की दृश्य का पूरा आनंद उठा सकते हैं, पीछे बैठनेवालों को सिर उठाने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से कटोरानुमा स्थान रंगस्थली के लिए अधिक उपयुक्त समझा जाने लगा होगा। धार्मिक कृत्यों और नृत्य आदि के लिए यह उत्तम प्रबंध था। धीरे-धीरे जब नाटकों का रूप अधिक विकसित हुआ, तब यह अनुभव हुआ होगा कि कथाकार और अभिनेताओं के सामने की ओर बैठनेवालों को ही देखने और सुनने की अच्छी सुविधा होती है। इसके लिए पर्वतीय स्थानों में घाटी बहुत उपयुक्त प्रतीत हुई होगी, जिसमें ढाल पर बैठे दर्शक नीचे अभिनेताओं को भली भाँति देख सुन सकते थे और उनके पीछे फैला हुआ विस्तृत भूखंड सहज सुंदर चित्रित प्राकृतिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता था। शायद इसी का अनुकरण अपर्वतीय पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता था। शायद इसी का अनुकरण अपर्वतीय स्थानों में कृत्रिम रंगशालाएँ बनाकर किया गया, जिनमें वृत्ताकार दीवार के अंदर सीढ़ीनुमा स्थान दर्शकों के बैठने के लिए होता था, जो भीतर बने ऊँचे चबूतरे को तीन ओर से घेरे रहता था। चौथी ओर सीधी दीवार होती थी, जिसमें सुंदर चित्रकारी होती थी। इसके पीछे नेपथ्य होता था। जहाँ अभिनेताओं के उठने बैठने और उनकी रूपसज्जा का प्रबंध रहता था। उपर्युक्त चिरप्रतिष्ठित रंगशाला के प्राचीन रूपों में धीरे-धीरे सुधार होता गया। कालांतर में प्रेक्षास्थान तीन ओर के बजाय केवल एक ओर, सामने ही सामने रह गया। सारा विन्यास गोल से बदलकर चौकोर हो गया और नाट्यशाला का आधा, या इससे भी अधिक स्थान घेरने लगा।

भारत के रंगमंचसंपादित करें

देखें :

मुख्य लेख : भारतीय रंगमंच

पाश्चात्य रंगमंचसंपादित करें

यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यता में हम चौथी शती ई. पूर्व में रंगमंच होने की कल्पना कर सकते हैं। इतिहास प्रसिद्ध डायोनीसन का थिएटर एथेंस में आज भी उस काल की याद दिलाता है। एक अन्य थिएटर एपिडारस में है, जिसका नृत्यमंच गोल है। ३६४ ई. पूर्व रोमवाले इट्रस्कन अभिनेताओं की एक मंडली अपने नगर में लाए और उनके लिए सर्कस मैक्सियस में पहला रोमन रंगमंच तैयार किया। इससे कल्पना की जाती है कि इट्रूरियावालों से ही (जिनका उद्गम विवादग्रस्त है) नाट्यकला और फलत: रंगमंच का प्रारंभिक रूप रोम में आया। सीज़र (कैसर) आगस्टस (दूसरी शती ई.पू.) ने रोम को बहुत उन्नत किया। पांपेई का शानदार थिएटर तथा एक अन्य (पत्थर का) थिएटर उसी के बनवाए बताए जाते हैं।

प्रमुख चरण:

१. रोमीय परंपरावाला विसेंजा रंगमंच (१५८०-८५ ई.), जिसमें बाद के दीवार के पीछे वीथिकाएँ जोड़ दी गई थीं

२. सैवियोनेटा में स्कमोज़ी ने इन वीथिकाओं को मुख्य रंगमंच से मिला दिया (१५८८ ई.)

३. इमिगो जोंस ने बाद में इन्हें रंगमंच ही बना दिया तथा

४. आगे चलकर (१६१८-१९ ई.), परमा थियेटर में, रंगमंच पीछे हो गया और पृष्ठभूमि की चित्रित दीवार आगे आ गई।

लगभग दूसरी शती ईसवी में रंगमंच कामदेव का स्थान माना जाने लगा। ईसाइयत के जन्म लेते ही पादरियों ने नाट्यकला को ही हेय मान लिया। गिरजाघर ने थिएटर का ऐसा गला घोटा कि वह आठ शताब्दियों तक न पनप सका। कुछ उत्साही पादरियों ने तो यहाँ तक फतवा दिया कि रोमन साम्राज्य के पतन का कारण थिएटर ही है। रोमन रंगमंच का अंतिम सन्दर्भ ५३३ ई. का मिलता है। किंतु धर्म जनसामान्य की आनंद मनाने की भावना को न दबा सका और लोकनृत्य तथा लोकनाट्य, छिपे छिपे ही सही, पनपते रहे। जब ईसाइयों ने इतर जातियों पर आधिपत्य कर लिया, तो एक मध्यम मार्ग अपनाना पड़ा। रीति रिवाजों में फिर से इस कला का प्रवेश हुआ। बहुत दिनों तक गिरजाघर ही नाट्यशाला का काम देता रहा और वेदी ही रंगमंच बनी। १० वीं से १३ वीं शताब्दी तक बाइबिल की कथाएँ ही प्रमुखत: अभिनय का आधार बनीं, फिर धीरे-धीरे अन्य कथाएँ भी आईं, किंतु ये नाटक स्वतंत्र ही रहे। चिर प्रतिष्ठित रंगमंच, जो यूरोप भर में जगह जगह टूटे फूटे पड़े थे, फिर न अपनाए गए।

इतालवी पुनर्जागरण के साथ वर्तमान रंगमंच का जन्म हुआ, किंतु उस समय जहाँ सारे यूरोप में अन्य सभी कलाओं का पुनरुद्वार हुआ, रंगमंच का पुन: अपना शैशव देखना पड़ा। १४ वीं शताब्दी में फिर से नाट्यकला का जन्म हुआ और लगभग १६ वीं शताब्दी में उसे प्रौढ़ता प्राप्त हुई। शाही महलों की अत्यंत सजी धजी नृत्यशालाएँ नाटकीय रंगमंच में परिणत हो गईं। बाद में उद्यानों में भी रंगशालाएँ बनीं, जिनमें अनेक दीवारों के स्थान पर वृक्षावली या झाड़बंदी ही हुआ करती थी।

रंगमंच का विकास विसेंजा और परमा में बनी हुई रंगशालाओं से स्पष्ट परिलक्षित होता है। विसेंजा की ओलिंपियन अकादमी में एक सुंदर रंगशाला सन् १५८०-८५ में बनी, जिसपर छत भी थी। इसमें पीछे की ओर वीथिकाओं जैसे अनेक कक्ष बढ़ाए गए। सन् १५८८ में सैवियोनेटा में स्कमोज़ी ने इन कक्षों को मुख्य रंगमंच से मिला दिया और धीरे-धीरे बाद में वे भी रंगमंच ही हो गए। आगे चलकर सन् १६१८-१९ में परमा थिएटर में समूचा रंगमंच ही पीछे कर दिया गया और पृष्ठभूमि की चित्रित दीवार आगे आ गई, जिसपर बीच में बने एक बड़े द्वार से ही नाटक देखा जा सकता है। इस द्वार पर पर्दा लगाया जाने लगा। पर्दा उठने पर दृश्य किसी फ्रेम में जड़ी तस्वीर जैसा दिखाई पड़ता है। रंगमंच में भी दृश्यों के अनुकूल प्रभाव उत्पन्न करने के लिए अनेक पर्दें लगाए जाने लगे। मिलन का ला स्काला ऑपेरा हाउस १८ वीं - १९ वीं शती में रंगमंच के विकास का आदर्श माना जाता है। इसमें पखवाइयाँ लगाने के लिए बगलों में स्थान बने हैं।

पुनर्जागरण सारे यूरोप में फैलता हुआ एलिज़बेथ काल में इंग्लैंड पहुँचा। सन् १५७४ तक वहाँ एक भी थिएटर न था। लगभग ५० वर्ष में ही वहाँ रंगमंच स्थापित होकर चरम विकास को प्राप्त हुआ। इस कला की प्रगति की ज्योति इटली से फ्रांस, स्पेन और वहाँ से इंग्लैंड पहुँची। रानी एलिज़वेथ को आर्डबर और तड़क भड़क से प्रेम था। इससे रंगमंच को भी प्रोत्साहन मिला। १५९० से १६२० ई. तक शेक्सपियर का बोलबाला रहा। रंगमंच विशिष्ट वर्ग का ही नहीं, जनसामान्य के मनोरंजन का साधन बना। किंतु प्रोटेस्टैट संप्रदाय द्वारा इसका विरोध भी हुआ और फलस्वरूप १६४२ ई. में नाट्य कला पर रोक लग गई। धीरे-धीरे दरबारियों और जनता का आग्रह प्रबल हुआ और रोक हटानी पड़ी। मार्लो, शेक्सपियर तथा जॉनसन आदि के विश्वविश्रुत नाटक पुन: प्रकाश में आए। ग्लोब थिएटर एलिज़बेथ कालीन रंगमंच का प्रतिनिधि है। इसमें पुरानी धर्मशालाओं का स्वरूप परिलक्षित होता है, जहाँ पहले नाटक खेले जाते थे। प्रांगण के बीच में रंगमंच होता था और चारों ओर तथा छज्जों में दर्शकों के बैठने का स्थान रहता था।

जब सारे यूरोप के रंगमंच लोकतंत्र की ओर अग्रसर हो रहे थे, संयुक्त राज्य, अमरीका, में अपनी ही किस्म के जीवन का स्वतंत्र विकास हो रहा था। चार्ल्सटन, फिलाडेल्फ़िया, न्यूयॉर्क और बोस्टन के रंगमंचों पर लंदन का प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ा। फिर भी अमरीकी रंगमंचों में कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं थीं। उनके सामान्य रंगमंच घुमंतू कंपनियों के से ही होते थे। किंतु १८ वीं शती के अंत तक अनेक उत्कृष्ट काटि के भिएटर बन गए, जिनमें फ़िलाडेल्फ़िया का चेस्टनट स्ट्रीट थिएटर (१७९४ ई.) और न्यूयॉर्क का पार्क थिएटर (१७९८ ई.) उल्लेखनीय हैं। इनमें सुंदर प्रेक्षागृह बने और कुछ यूरोपीय प्रभाव भी आ गया। तदनंतर २०-२५ वर्ष में ही अमरकी रंगमंच यूरोपीय रंगमंच के समकक्ष, बल्कि उससे भी उत्कृष्ट हो गया।

आधुनिक रंगमंचसंपादित करें

आधुनिक रंगमंच का वास्तविक विकास १९वीं शती के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ और विन्यास तथा आकल्पन में प्रति वर्ष नए नए सुधार होते रहे हैं यहाँ तक कि १० वर्ष पहले के थिएटर पुराने पड़ जाते रहे और २० वर्ष पहले के अविकसित और अप्रचलित समझे जाने लगे। निर्माण की दृष्टि से लोहे के ढाँचोंवाली रचना, विज्ञान की प्रगति, विद्युत् प्रकाश की संभावनाएँ और निर्माण संबंधी नियमों का अनिवार्य पालन ही मुख्यत: इस प्रगति के मूल कारण हैं। सामाजिक और आर्थिक दशा में परिवर्तन होने से भी कुछ सुधार हुआ है। अभी कुछ ही वर्ष पहले के थिएटर, जिनमें अनिवार्यत: खंभे, छज्जे और दीर्घाएँ हुआ करती थीं, अब प्राचीन माने जाते हैं।

आधुनिक रंगशाला में एक तल फर्श से नीचे होता है, जिसे वादित्र कक्ष कहते हैं। ऊपर एक ढालू बालकनी होती है। कभी कभी इस बालकनी और फर्श के बीच में एक छोटी बालकनी और होती है। प्रेक्षागृह में बैठे प्रत्येक दर्शक को रंगमंच तक सीधे देखने की सुविधा होनी चाहिए, इसलिए उसमें उपयुक्त ढाल का विशेष ध्यान रखा जाता है। ध्वनि उपचार भी उच्च स्तर का होना चाहिए। समय की कमी के कारण आजकल नाटक बहुधा अधिक लंबे नहीं होते और एक दूसरे के बाद क्रम से अनेक खेल होते हैं। इसलिए दर्शकों के आने जाने के लिए सीढ़ियाँ, गलियारे, टिकटघर आदि सुविधाजनक स्थानों पर होने चाहिए, जिससे अव्यवस्था न फैले।

१८९० ई. तक रंगमंच से चित्रकारी को दूर करने की कोई कल्पना भी न कर सकता था, किंतु आधुनिक रंगमंचों में रंग, कपड़ों, पर्दों और प्रकाश तक ही सीमित रह गया है। रंगमंच की रंगाछुही और सज्जा पूर्णतया लुप्त हो गई है। सादगी और गंभीरता ने उसका स्थान ले लिया है, ताकि दर्शकों का ध्यान बँट न जाए। विद्युत् प्रकाश के नियंत्रण द्वारा रंगमंच में वह प्रभाव उत्पन्न किया जाता है जो कभी चित्रित पर्दों द्वारा किया जाता था। प्रकाश से ही विविध दृश्यों का, उनकी दूरी और निकटता का और उनके प्रकट और लुप्त होने का आभास कराया जाता है।

विभिन्न दृश्यों के परिवर्तन में अभिनेताओं के आने जाने में जो समय लगता है, उसमें दर्शकों का ध्यान आकर्षित रखने के लिए कुछ अवकाश गीत आदि कराने की आवश्यकता होती थी, जिनका खेल से प्राय: कोई संबंध न होता था। अब परिभ्रामी रंगमंच बनने लगे हैं, जिनमें एक दृश्य समाप्त होते ही, रंगमंच घूम जाता है और दूसरा दृश्य जो उसमें अन्यत्र पहले से ही सजा तैयार रहती है, समने आ जाता है। इसमें कुछ क्षण ही लगते हैं।

चित्रपट और रंगमंचसंपादित करें

चित्रपट (सिनेमा) के आ जाने से रंगमंच का स्थान बहुत संकीर्ण हो गया है। विशाल प्रेक्षागृहों में, केवल एक छोटा सा रंगमंच जिसपर कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर छोटे माटे नृत्य, या एकांकी आदि खेले जा सकें, बना देना पर्याप्त समझा जाता है। पृष्ठभूमि पर रजतपट रहता है : आवश्यकतानुसार एक दो पर्दे भी लगाए जा सकते हैं। वादित्र के लिए रंगमंच के सामने एक गढ़े में थोड़ा सा स्थान रहता है। दर्शकों के लिए अधिक स्थान होने के कारण उपयुक्त संवातन, ध्वनिनियंत्रण, एवं अन्य व्यवस्थाओं की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। अब तो पाँच छह हजार दर्शकों के लिए स्थानवाले, बड़ी सुखप्रद कुर्सियों से युक्त प्रेक्षागृह सभी बड़े नगरों में बनते हैं।

सिनेमा का आकर्षण अधिक होने पर भी, नाटकों के लिए उपयुक्त रंगमंच बनाने का पाश्चात्य देशों में काफी प्रयास हो रहा है। मनोरंजन की दृष्टि से कम, शिक्षा की दृष्टि से इनकी उपयोगिता अधिक समझी गई है। शैक्षणिक रंगमंच में अमरीका संसार में अग्रणी है। अमरीकी शैक्षणिक रंगमंच की शाखाएँ बहुत से विश्वविद्यालयों में खुली हैं।

भारत में भी सिनेमा का प्रचार दिन दिन बढ़ रहा है। किंतु यहाँ देहात अधिक होने के कारण रंगमंच के लिए अब भी पर्याप्त क्षेत्र है और प्रोत्साहन मिलने पर यह सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग बना रहेगा। इस दृष्टि से रंगमंच के पति केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों की अनुभूति बढ़ती रही है और वे सक्रिय सहायता भी देती हैं।

Padam padam Shetti Sanskriti Prati Manav ke liye sandal mein kis Prakar Sahayak hai udaharan ke sath bataen

Pradarshan Kala paramparaen Kshetriya Sanskriti Pratima no sandrbh mein kis Prakar Sahayak Hai udaharan De

Kom... Sharma on 12-05-2019

प्रदर्शन कला से क्या अभिप्राय है?

1. प्रदर्शन कला (Performing Arts): दृश्य कला से इतर प्रदर्शन कला, कला का वह प्रकार है जिसमे शारीरिक भाव भंगिमा, आवाज, संवादों एवं शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से किसी विचार अथवा भाव को अभिव्यक्त किया जाता है।

प्रदर्शन कला के उदाहरण क्या है?

प्रदर्शन संभाषण,इशारों, संगीत, नृत्य आदि के द्वारा किया जाता है। साधारण रूप से रंगमंच द्वारा प्रदर्शन में मूल रूप से संवाद को अधिक महत्त्व दिया जाता है। रंगमंच एकांकी, संगीतसभा, नृत्य, इन्द्रजाल, जादू, मूककला, शास्त्रीय नृत्य, स्टांड अप कामेडी, आदि रूप में प्रदर्शित किया जाता है।

कला का क्या महत्व है?

कला ही आत्मिक शान्ति का माध्‍यम है। यह ‍कठिन तपस्‍या है, साधना है। इसी के माध्‍यम से कलाकार सुनहरी और इन्‍द्रधनुषी आत्‍मा से स्‍वप्निल विचारों को साकार रूप देता है। कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्‍थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्‍य केवल मनुष्‍य रह जाता है।

कला की अवधारणा से क्या आशय है?

कल्पना की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति का नाम ही कला है। कल्पना की अभिव्यक्ति भिन्न - भिन्न प्रकार से एवम् विभिन्न माध्यमों द्वारा हो सकती है। यह अभिव्यक्ति जिस भी माध्यम एवम् जिस भी प्रकार से हो वही कला का पर्याय कहलाती है।