मेरे बचपन के दिनों में मैं अक्सर अपने दादा-दादी के घर उत्तर प्रदेश जाया करती थी. मैं देखती थी कि मेरी दादी सादी ज्वार-बाजरे की रोटी खी रही है. Show वो आटे में धीरे-धीरे पानी डालकर उसे गूथतीं और आटा तैयार कर लेने के बाद वो उसे छोटे-छोटे टुकड़े बना लेतीं. इसके बाद वो उन आटे की लोइयों को दोनों हाथों की हथेलियों के बीच में रखकर धीरे-धीरे थापतीं. चकला-बेलन के बिना वो दोनों हाथों की हथेलियों के बीच थाप-थाप कर गोल रोटियां तैयार कर लेतीं और फिर उसे मिट्टी के चूल्हे पर, लकड़ी की आंच पर सेंकती. जब वो मुझे रोटियां परोसती थीं, मैं अपनी नाक चढ़ा लेती थी. मुझे कभी समझ नहीं आता था कि आख़िर वो पतली, अधिक मुलायम और खाने में नरम रोटियों की जगह ज्वार-बाजरे जैसे मोटे अनाज की रोटी को इतनी तवज्जो क्यों देती हैं. लेकिन कुछ सालों पहले, मैंने भी वही सबकुछ खाना शुरू कर दिया जो मेरी दादी मां खाया करती थीं. मैंने अपने किचन से गेंहू का आटा हटाकर उसकी जगह बाजरे का आटा लाकर रख दिया. हालांकि अब रोटी खाने में मुझे ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन फिर भी मैं इसे छोड़ नहीं पायी क्योंकि कुछ दिनों तक ये रोटी खाने के बाद मुझे ख़ुद लगा कि यह ज़्यादा सेहतमंद है. इमेज कैप्शन, चूल्हे पर खाना बनाती एक महिला [सांकेतिक तस्वीर] बढ़ रहा है मोटे अनाज का चलनआटे की बजाय मोटे अनाज की रोटियां खाने वाली मैं अकेली नहीं. खेती-किसानी के जानकार बीते कुछ सालों से यह करते आए हैं. बीते कुछ सालों में कई ऐसी फसलें खेतों में और ऐसा खाना प्लेटों में लौट आया है जिन्हें कुछ वक्त पहले तक बिल्कुल भुला दिया गया था. इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फ़ॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स की डायरेक्टर जनरल डॉ. जैकलीन हॉग्स कहती हैं, "मोटे अनाज को खेत में और प्लेट में वापस लाने के लिए और इस पर लगे 'भूली हुई फसल' के टैग को हटाने के लिए ठोस वैश्विक प्रयास की ज़रूरत है." साल 2018 को भारत में 'ईयर ऑफ़ मिलेट्स' के रूप में मनाया गया. इसके अलावा भारत के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने साल 2023 को 'इंटरनेशनल ईयर ऑफ़ मिलेट्स' के रूप में मनाने का फ़ैसला किया है. इमेज स्रोत, L VIDYASAGAR/ICRISAT रिपोर्ट्स के मुताबिक़, इस साल लोगों को मोटे अनाज से होने वाले स्वास्थ्य लाभ के बारे में जागरुक किया जाएगा. साथ ही खेती के लिए उनकी उपयोगिता के बारे में भी लोगों को बताया जाएगा. मोटे अनाज ख़राब मिट्टी में भी उपज सकते हैं और उन्हें तुलनात्मक रूप से कीटनाशक की भी उतनी ज़रूरत नहीं होती है. इमेज स्रोत, P SRUJAN/ICRISAT हर तरह से अच्छे मोटे अनाजडॉ. हॉग्स के मुताबिक़, "मोटे अनाज तेज़ी से चलन में लौट रहे हैं. इन्हें स्मार्ट फ़ूड के तौर पर पहचाना जा रहा है क्योंकि वे धरती के लिए, किसानों के लिए और आपकी सेहत के लिए अच्छे हैं." वो कहती हैं, "इन्हें बहुत अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है और ये अधिक तापमान में आसानी से बढ़ते हैं. ये फसल किसानों के लिए अच्छी है क्योंकि इनकी पैदावार दूसरी फसलों की तुलना में आसान है और साथ ही ये कीट-पतंगों से होने वाले रोगों से भी बचे रहते हैं. मोटे अनाज स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं क्योंकि इनमें पौष्टिक तत्व अधिक मात्रा में होते हैं. अध्ययनों के मुताबिक़, बाजरे से मधुमेह को नियंत्रित करने में मदद मिलती है और कोलेस्ट्रॉल लेवल में सुधार होता है. ये कैल्शियम, ज़िंक और आयरन की कमी को दूर करता है. और सबसे ज़रूरी बात यह कि यह ग्लूटेन-फ्री होता है." इस बात में अचरज नहीं है कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ मोटे अनाजों को लेकर दिलचस्पी दिखा रहे हैं. भारत में क़रीब 8 करोड़ डायबिटीज़ के मरीज़ हैं. हर साल क़रीब 1.7 करोड़ लोग हृदय रोग के कारण दम तोड़ देते हैं और देश में 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिनमें आधे से अधिक गंभीर रूप से कुपोषित हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक संबोधन में देश से कुपोषण को ख़त्म करने के लिए 'मिलेट रवोल्यूशन' की बात कही थी. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के लिए यह असंभव काम नहीं होगा क्योंकि सालों से मोटा अनाज भारतीयों के लिए भोजन का मुख्य स्रोत रहा है. सदियों से रहा है भोजन का मुख्य स्रोतइंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मिलेट रिसर्च के निदेशक विलास टोनपी के मुताबिक़, मानव जाति को पुराने वक्त से जिन खाद्यान्नों के बारे में जानकारी रही है वो जौ और बाजरा जैसे मोटे अनाज हैं. वह कहते हैं, "सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान भी बाजरे आदि की पैदावार होती थी. 21 राज्यों में इसकी खेती की जाती है और हर राज्य और क्षेत्र के अपने क़िस्म के अनाज हैं जो ना सिर्फ़ उनकी खाद्य संस्कृति का हिस्सा हैं बल्कि उनके धार्मिक अनुष्ठानों का भी हिस्सा हैं." भारत प्रतिवर्ष क़रीब 1.4 करोड़ टन बाजरे की पैदावार करता है. इतना ही नहीं भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजरा उत्पादक देश भी है. विलास टोनपी के मुताबिक़, "लेकिन बीते 50 सालों में कृषि योग्य भूमि घटकर 3.8 करोड़ हेक्टेयर से 1.3 करोड़ हेक्टेयर ही रह गयी है और इसी के साथ 1960 के दशक में होने वाले बाजरे की पैदावार घटकर के मुक़ाबले आज पैदावार 6 फ़ीसद पर आ गयी है." डॉक्टर टोनपी के अनुसार देश में बाजरे की पैदावार में गिरावट 1969-70 के समय में शुरू हुई थी. विलास टोनपी बताते हैं, "उस समय तक भारत खाद्य सहायता प्राप्त कर रहा था और अपनी एक बड़ी आबादी के पोषण के लिए अनाज का आयात करता था. खाद्य क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के लिए और कुपोषण पर काबू पाने के लिए भारत में हरित क्रांति हुई और उसके परिणामस्वरूप चावल और गेंहूं की अधिक पैदावार वाली किस्मों को उगाया जाना शुरू किया गया." भारत में 1960 और 2015 के बीच, गेंहू का उत्पादन तीन गुना से भी अधिक हो गया और चावल के उत्पादन में 800 फ़ीसद की वृद्धि हुई. लेकिन इस दौरान बाजरा जैसे मोटे अनाजों का उत्पादन कम ही बना रहा. डॉ. हॉग्स कहती है, "बीते सालों में चावल और गेहूं की उपज बढ़ाने पर बहुत अधिक ज़ोर दिया गया और इस दौरान बाजरा और कई दूसरे पारंपरिक खाद्य की उपेक्षा हुई और जिसकी वजह से उनका उत्पादन प्रभावित हुआ." वह कहती हैं, "इन्हें पकाना इतना आसान नहीं है और आज के समय में किसी के पास इतना वक़्त भी नहीं है. दशकों से इनका बेहद कम इस्तेमाल किया जा रहा है. बाज़ार ने भी इनकी उपेक्षा ही की है. लेकिन आपको ये जानना चाहिए कि आपकी प्लेट में अलग-अलग स्वाद और अलग-अलग तरह के पोषक तत्वों होना बहुत ज़रूरी है." वह कहती हैं, "ऐसा करने के लिए जिन फसलों को भुला दिया गया उन पर भी चावल-गेंहूं और दूसरी व्यवसायिक फसलों की तरह ही ध्यान देना होगा." हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं ज्वार-बाजरा अब धीरे-धीरे चलन में लौट रहे हैं. बाजरे की मांग बढ़ाने की कोशिशेंकृषि वैज्ञानिकों इन मोटे अनाज को दोबारा से चलन में लाने के लिए कई तरह के उपाय सुझाए थे और उनकी सुझाए रणनीति के परिणाम भी अब दिखने भी लगे हैं. डॉ. टोनपी के अनुसार, पिछले दो सालों में बाजरे की मांग में 146 फ़ीसद की वृद्धि दर्ज की गयी है. मोटे अनाज जैसे बाजरा आदि से बने कुकीज़, चिप्स, पफ़ और दूसरी चीज़ें सुपरमार्केट और ऑनलाइन स्टोर्स में बेचे जा रहे हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लाखों लोगों को एक रुपये प्रति किलो की दर से बाजरा और मोटा अनाज दिया जा रहा है. कुछ राज्यों में दोपहर के खाने में में भी इन मोटे अनाजों से बने व्यंजन परोसे जा रहे हैं. मोटे अनाज के लिए लोगों में बढ़ा दिलचस्पी तेलंगाना राज्य के आदिवासियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है. वीडियो कैप्शन, क्या टेक्नोलॉजी बदल देगी खाने-पीने का ढंग पी आइला, असिफ़ाबाद की 10 महिलाओं के उस समूह में से एक हैं जिन्हें इक्रीसैट ने रूरल-डे केयर सेंटर में बच्चों को दिए जाने वाला भोजन बनाने की ट्रेनिंग दी है. अपने गांव से फ़ोन पर मुझसे बात करते हुए उन्होंने बताया कि वह खाना बनाने में लगने वाली हर ज़रूरी चीज़ की लिस्ट बनाती है और मसालों के बारे में लिखती हैं. वह बताती हैं कि अगस्त में उन्होंने मोटे अनाज से बना 12 टन मीठा और नमकीन व्यंजन बेचा है. आइला कहती हैं कि उन्हें यह नहीं पता कि लोगों का चाव मोटे अनाज के प्रति क्यों बढ़ रहा है लेकिन वह इस बात से खुश हैं कि जिस अनाज को वह जीवन भर अपने मुख्य आहार के रूप में लेती रहीं उसे अब और लोग भी पसंद कर रहे हैं. रोटियाँ कौन कौन से अनाजों से बनती हैं?गेहूं के अलावा ज्वार, बाजरा, चावल, कोदो, कुटकी, चना, मूंग इत्यादि की रोटी भी बनती है।
गेहूं के आटे में क्या मिला होना चाहिए?गेहूं का आटा में अनाज के सभी भाग (चोकर, अंकुर और एन्डोस्पर्म) का प्रयोग किया जाता है और आटा बनाते समय पौषण तत्व नहीं निकलते। सफेद मैदा की तुलना में केवल इस आटे में एन्डोस्पर्म होता है। संपूर्ण गेहूँ का आटा भुरे रंग का होता है और यह संपूर्ण गेहूँ से बनता है। इसका भी स्वाद मीठा मेवेदार होता है।
आटे में क्या मिला होना चाहिए?मल्टीग्रेन आटा बनाने के लिए सबसे पहले एक किलो गेहूं, चना 50 ग्राम, मक्का 50 ग्राम, जौ 50 ग्राम, रागी 25 ग्राम, सोयाबीन 25 ग्राम, बाजरा 25 ग्राम, ज्वार 25 ग्राम चाहिए. सभी सामग्री को मिलाकर घर पर आटा ब्लेंडर में पीस सकते हैं या फिर आटा चक्की में पीसने के लिए दिया जा सकता है.
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