भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख प्रत्यक्ष कारण क्या है? - bhaarat mein berojagaaree ka ek pramukh pratyaksh kaaran kya hai?

Solution : जाति-प्रथा के कारण लोग अरुचि से काम करने के लिए विवश होते हैं । अरुचि से किये गए कार्य में कुशलता आ नहीं पाती । इसलिए परवरिश के लायक आमदनी भी नहीं हो पाती । जाति आधारित रोजगार के कारण रुचि रहने पर भी लोग दूसरे-तीसरं धंधे को अपना नहीं पाते । फलतः बेरोजगारी के शिकार नवयुवक जीवन-जगत में भटकने के लिए मजबूर होते हैं। इस प्रकार जाति-प्रथा भारत के लिए बेरोजगारी का प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है

जातिप्रथा मनुष्य को जीवनभर के लिए एक ही पेशे में बांध देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया तथा तकनीक में निरंतर विकास और अकस्मात् परिवर्तन होने के कारण मनुष्य को पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है। किन्तु, भारतीय हिन्दू धर्म की जाति प्रथा व्यक्ति को पारंगत होने के बावजूद ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है जो उसका पैतृक पेशा न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?


जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे डॉ. अंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं:

- जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी कराती है। सभ्य समाज में श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में विभाजन अस्वाभाविक है। इसे नहीं माना जा सकता।

- जाति प्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा निजी क्षमता का विचार किए बिना किसी दूसरे के द्वारा उसके लिए पेशा निर्धारित कर दिया जाए।

- जाति प्रथा मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है, भले ही वह पेशा उसके लिए अनुपयुक्त या अपर्याप्त क्यों न हो। इससे उसके भूखों मरने की नौबत आ सकती है।

इस प्रकार डॉ. अंबेडकर के तर्क यह बताते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति प्रथा गंभीर दोषों से मुका है।

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जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?


जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी और भुखमरी का भी कारण बनती रही है। जब समाज किसी व्यक्ति को जाति के आधार पर किसी एक पेशे में बाँध देता है और यदि वह पेशा उस व्यक्ति के लिए अनुपयुक्त हो या अपर्याप्त हो तो उसके सामने भुखमरी की स्थिति खड़ी हो जाती है। जब जाति प्रथा के बंधन के कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं होती तब भला उसके सामने भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है। भारतीय समाज पैतृक पेशा अपनाने पर ही जोर देता है भले इस पेशे में वह पारंगत न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनती रही है।

आज इस स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। आज व्यक्ति को अपना पेशा चुनने या बदलने का अधिकार है। सरकार की आरक्षण नीति से भी स्थिति में बदलाव आया है। अब भारतीय समाज का उतना बंधन नहीं रह गया है।

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सही में डॉ. आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?


डॉ. आंबेडकर भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहते थे। जातिवाद की भावना भावनात्मक समता में बाधा उपस्थित करती है। भावनात्मक समता तभी प्रतिष्ठित हो पाएगी जब समान भौतिक स्थितियाँ व जीवन सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। जातिवाद के उन्मूलन होने पर ही यह संभव हो पाएगा। जातिवाद असमान व्यवहार को उचित ठहराता है। समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है तो यह तभी संभव है जब समाज के सभी सदस्यों को भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं को समान रूप से उपलब्ध कराया जाएगा। हाँ, हम सबसे सहमत हैं।

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लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?


लेखक के मतानुसार ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा यह है जिसमें किसी को इस प्रकार की स्वतंत्रता न देना कि वह अपना व्यवसाय चुन सके। इसका सीधा अर्थ उसे ‘दासता’ मे जकड़कर रखना होगा। ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नही कहा जाता, बल्कि दासता में वह स्थिति भी शामिल है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्त्तव्यो का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है।

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शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. अंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?


शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह इसलिए करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास का पूरा। अधिकार है। हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। समाज के सभी सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एव समान व्यवहार उपलब्ध कराये जाने चाहिए। व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। ‘समता’ यद्यपि काल्पनिक वस्तु है फिर भी सभी परिस्थितियो को दृष्टि में रखते हुए यही मार्ग (समता का) उचित है और व्यावहारिक भी है।

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