दक्षिण के प्रमुख राज्य कौन कौन हैं? - dakshin ke pramukh raajy kaun kaun hain?

भारतीय इतिहास के मध्यकाल में हमारे विशाल देश के उत्तरी और दक्षिणी अर्ध भागों में निकट संपर्क था। विंध्य पर्वत श्रृंखला और दक्कन उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच संबंध स्थापित करने का साधन बन गई। यह कथन विशेष रूप से आगे लिखे तीन कारणों से स्पष्ट हो जाता है। पहला या के दक्षिण भारत के उत्तरी राज्यों ने अपने राज्य अधिकार को गंगा नदी की घाटी तक फैलाने का प्रयत्न किया। दूसरा यह कि दक्षिण भारत के धार्मिक आंदोलन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय बन गए और तीसरा यह कि उत्तर भारत के बहुत से ब्राह्मण दक्षिण भारत में बस जाने के लिए आमंत्रित किए गए और उनको भूमि प्रदान की गई। इस विशाल देश के राज्य अब एक दूसरे से  उस प्रकार अलग नहीं रहे जिस प्रकार वे प्राचीन काल में थे।

Table of Contents

  • प्रायद्वीप के राज्य
  • चोल शासक
  • चोल शासन – प्रणाली
  • समाज
  • मंदिर
  • शिक्षा
  • धर्म
  • परिभाषिक शब्द

प्रायद्वीप के राज्य

दक्षिणी प्रायद्वीप के राज्यों में उत्तर पश्चिम क्षेत्र का राष्ट्रकूट राज्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण राज्य था जिसने गंगा की घाटी के एक भाग  पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न किया। राष्ट्रकूट बार-बार दो शक्तिशाली वंशों – प्रतिहारों और बालों से कन्नौज और उसके आसपास के पश्चिम गंगा के मैदानी क्षेत्रों पर अधिकार पाने के लिए लड़ते रहते थे।  प्रतिहारों ने पश्चिमी और मध्य भारत में अपना राज्य स्थापित कर लिया था और बालों ने पूर्वी भारत में। किंतु राष्ट्रकूट को दक्षिण के शक्तिशाली चोल शासकों के विरुद्ध भी अनेक युद्ध करने पड़े थे।चोल राजाओं ने तंजौर के आसपास के क्षेत्र तमिलनाडु से अपना शासन आरंभ किया। धीरे-धीरे उन्होंने पल्लव वंश के शासक और अन्य स्थानीय शासकों को पराजित करके अपने को शक्तिशाली बना लिया। ईसा के 11वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण राज्य पुणे का था आधुनिक मदुरई क्षेत्र में चोल साम्राज्य के दक्षिण में पाण्ड्य  राज्य था। पश्चिमी किनारे पर आधुनिक केरल प्रांत में चेर वंश का राज्य था। 12वीं शताब्दी तक इन राज्यों में से कुछ का पतन हो गया और इन क्षेत्रों में नवीन राज्यों की स्थापना हुई। सातवीं शताब्दी के चालुक्य वंश से संबंध रखने वाले एक वंश ने राष्ट्रकूटों  के राज्य पर अधिकार कर लिया। इतिहासकारों में इस वंश को उत्तर चालुक्य वंश कहा है। बाद में यादव वंश के शासकों ने उत्तर चालुक्य वंश के शासकों को पराजित करके अपना राज्य स्थापित कर लिया और देवगिरी (महाराष्ट्र में आधुनिक दौलताबाद) से शासन किया। वारंगल( आधुनिक आंध्र प्रदेश) ने काकतीय वंश का शासन आरंभ हुआ और आधुनिक मैसूर के निकट द्वारसमुद्र में होयसल वंश ने अपना राज्य स्थापित कर लिया।चोल शासकों को अपनी शक्ति की रक्षा के लिए इन सभी राज्यों से युद्ध करने पर है । चोल शासक तेरहवीं शताब्दी तक अपनी महत्ता को दक्षिण भारत में स्थापित किए रहे।

चोल शासक

साम्राज्य की स्थापना करने वाले आरंभिक चोल शासकों में विजयालय (846 – 871) था, जिसने तंजौर को जीता। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण परांतक प्रथम ( 907 – 955 ) था जिसने पाण्ड्य राज्य को जीता और मदुरैकोंडवन  की उपाधि ग्रहण की जिसका अर्थ है – “मदुरई का विजेता” । परंतु परांतक को भी राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय ने पराजित कर दिया।  परांतक ने या अनुभव कर लिया कि वह तब तक युद्ध में सफल नहीं हो सकता जब तक वह अपने राज्य को शक्तिशाली नहीं बना लेता। वह यह भी जानता था कि उसका राज्य तभी शक्तिशाली होगा जब उसकी प्रजा को पर्याप्त भोजन मिलेगा, उसके जीवन की सभी आवश्यकता  पूर्ण होगी और उस पर अच्छा शासन होगा। इसलिए उसने अपने राज्य में कृषि को प्रोत्साहन दिया। कृषि कार्य अधिक सफल नहीं था, क्योंकि राज्य की  कुछ भूमि चट्टानी थी और उस पर फसलें नहीं उगाई जा सकती थी। इसके अतिरिक्त खेतों की सिंचाई की समस्या थी। नदी के पास के खेतों में तो सिंचाई के लिए नदी के जल का प्रयोग किया जा सकता था परंतु अन्य क्षेत्रों में केवल वर्षा जल पर ही निर्भर रहना पड़ता था। इसलिए बड़े बड़े तालाब खोजे गए जिनमें वर्षा के जल को एकत्र किया जा सकता था। तालाबों के जल को खेतों तक पहुंचने के लिए सिंचाई की नहरों का निर्माण किया गया।

चोल वंश के राजाओं में सबसे उल्लेखनीय राजराज प्रथम और उसका पुत्र राजेंद्र है। राजराज प्रथम (985 – 1016)  एक कुशल सेना संचालक था और उसने अनेक  दिशाओं में आक्रमण किए। उसने पांडेय और चेर वंश के राज्यों पर और मैसूर के कुछ भागों पर भी आक्रमण किए। उसने उत्तर की ओर आधुनिक आंध्र प्रदेश के वेंगी क्षेत्र पर आक्रमण किया ।चोल राज्य की सैनिक शक्ति को दूसरे राज्यों से अधिक श्रेष्ठ  करने के लिए उसने यह युद्ध लड़े । राजराज समुद्र पर अधिकार रखने के महत्व को भी समझता था। वह समझता था कि यदि वह दक्षिण भारत के समुद्र तट को भी अपने अधिकार में रखेगा तो चोल राज्य और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा। अतः वह एक सामुद्रिक विजय के लिए निकला और उसने लंका और मालदीव नमक द्वीपों पर आक्रमण कर दिया।  इस आक्रमण के अन्य कारण भी थे। केरल, लंका और मालदीव के व्यापारी समुद्र तटीय व्यापार से प्राप्त धन से बड़े धनवान बन गए थे। भारत से पश्चिम एशिया को वस्त्र, मसाले और बहुमूल्य रत्न आदि अनेक वस्तुएं भेजी जाती थी ।  अरब के व्यापारी इन वस्तुओं का व्यापार करने पश्चिम एशिया से भारत आते थे। उनमें से अनेक भारत के पश्चिमी समुद्र तट के नगरों में बस गए थे। वहां के स्थानीय स्त्रियों से विवाह करके शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे और अपने व्यापार में लगे रहते थे। चुकी वे भारतवासियों से मिलजुल कर रहते थे और अपने व्यापार से भारत में धन लाते थे, इसलिए उनका सम्मान किया जाता था और उनके साथ अच्छा व्यवहार होता था। चेर राज्य, मालदीव द्वीप समूह और लंका इस व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। इस प्रकार इन क्षेत्रों की विजय से पश्चिमी व्यापार से प्राप्त होने वाला धन चोल साम्राज्य में आने लगा। राज राज ने इन क्षेत्रों पर आक्रमण करके उनको अपने अधिकार में कर लिया पर बहुत अधिक समय तक वह उनको अपने नियंत्रण में नहीं रख सका।

राज राज का पुत्र राजेंद्र उससे भी अधिक महत्वाकांक्षी था। उसने सन 1044 ईस्वी तक दीर्घकालीन शासन किया। उसने अपने पिता की विजय नीति को जारी रखा और दक्षिण प्रायद्वीप में अनेक युद्ध लड़े। इनमें से दो युद्ध भरे हैं साहसिक और वीरता पूर्ण थे। एक तो वह जिसमें उसकी सेनाएं पूर्वी भारत के समुद्री तट से होकर उड़ीसा को पार करती हुई गंगा नदी तक पहुंच गई। दक्षिण लौटने से पूर्व उन्होंने बंगाल में शासन करने वाले पाल वंश के राजा को आतंकित किया। राजेंद्र का उत्तर भारत का यह युद्ध अभियान 700 वर्ष पूर्व किए गए समुद्रगुप्त के दक्षिण भारत के युद्ध अभियान के समान ही था।

राजेंद्र का दूसरा  साहस पूर्ण युद्ध दक्षिण – पूर्व एशिया में हुआ था जिसमें उसने सामुद्रिक अभियान किया था। अनेक शताब्दियों से भारत के व्यापारी दक्षिण – पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों से व्यापार करते आ रहे थे। यह व्यापार दक्षिण चीन तक फैल गया था। भारत की वस्तुएं जहाजों से दक्षिण चीन भेजी जाती थी और वे जहाज केवल चीन से ही नहीं, दक्षिण – पूर्वी एशिया के अन्य देशों से भी सामग्री लाते थे। भारतीय जहाजों को  मलक्का की जलसंधि ( जलडमरूमध्य ) से होकर गुजरना पड़ता था। उस समय इस पर श्रीविजय का अधिकार था। इस राज्य के अंतर्गत मलाया प्रायद्वीप और सुमात्रा का द्वीप भी था । श्रीविजय के व्यापारियों ने स्वाभाविक रूप  में यह अनुभव किया कि यदि वे इस व्यापार पर अधिकार कर लें तो इसका लाभ उनको प्राप्त होने लगे। इसलिए वे भारतीय जहाजों के मार्ग में कठिनाइयां उत्पन्न करने लगे। भारतीय व्यापारियों ने राजेंद्र चोल से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की और उसने एक विशाल जलसेना भेज दी। श्री विजय की पराजय हुई और उसने भारतीय जहाजों को उस जलमार्ग से सुरक्षा के साथ यात्रा करने की आज्ञा दे दी राजेंद्र इन व्यापारियों की सहायता करने के लिए इसलिए तैयार हो गया कि उनमें से अधिकतम चोल राज्य के निवासी थे और वे व्यापार में जो लाभ प्राप्त करते थे उससे चोल राज्य की आय में वृद्धि होती थी।

राजेंद्र प्रथम के उत्तराधिकारी यों ने अपनी शक्ति, समय और धान का बहुत बड़ा भाग प्रायद्वीप के अन्य राजाओं के साथ युद्ध करने में  खर्च कर दिए। इनमें से कुछ युद्ध में उन्हें सफलता भी मिली। धीरे-धीरे चोल राज्य शक्तिहीन हो गया और अन्य राज अधिक शक्तिशाली बन गए। तेरहवीं शताब्दी के अंत तक चोल राज्य का अंत हो गया ।

चोल शासन – प्रणाली

राज्य में राजा सबसे अधिक शक्तिशाली होता था। फिर भी आशा की जाती थी कि वह अपने मंत्री परिषद अपने पुरोहित की सलाह से शासन कार्य का संचालन करेगा। शासन के विभिन्न विभागों के विशेष अधिकारी होते थे। राज्य का प्रांतों में विभाजन किया गया था जिसको मंडलम कहते थे। प्रत्येक मंडलम को कोई वलनाड़ुओं में बांट दिया थगया था ।प्रत्येक वलनाड़ु मैं अनेक गांव होते थे। आरंभ में चोल राज्य की राजधानी तंजौर थी पर बाद में आधुनिक चेन्नई के निकट कांचीपुरम को राजधानी बनाया गया । कुछ समय तक गंगईकोंड – चोलपुरम की राजधानी बनाया गया था। नगर के नाम का अर्थ है –  “गंगा पर विजय पाने वालों का नगर” ।

बहुत से गांवों में  शासन का संचालन राजकीय कर्मचारियों के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं ग्राम वासियों के द्वारा किया जाता था। इन  गांव वालों एक ग्राम परिषद होती थी जिसको उर  या सभा कहते थे। गांव के मंदिरों की दीवारों पर लंबे अभिलेख ( शिलालेख ) मिलते हैं जिनमें विस्तार के साथ वर्णन किया गया है कि उर  अथवा सभा किस प्रकार आयोजित की जाती थी। जिनके पास भूमि थी अथवा गांव के जो लोग ऊंची जाति के होते थे वह सभा के लिए लॉटरी द्वारा चुन लिए जाते थे। इन सभाओं में गांव के जीवन और वहां के कार्यों के संबंध में विचार किया जाता था। यह लोकप्रिय शक्ति का  स्रोत था क्योंकि गांव के लोग संगठित हो जाते थे। गांव की संपन्नता का उत्तरदायित्व गांव में रहने वाले लोगों पर भी आता था। यह सभा कभी-कभी  कई छोटी समितियों में विभाजित कर दी जाती थी और प्रत्येक समिति गांव के शासन के एक-एक अंग की देखरेख करती थी। उदाहरण के लिए एक गांव की सभा में एक तलाब समिति थी जिसका काम इस बात की देखभाल करना था कि गांव के तालाब में पानी रहता है या नहीं और  उस पानी का ठीक  वितरण ग्राम वासियों के लिए होता है या नहीं।

चोल राज्य को आय दो साधनों से प्राप्त होती थी –  भूमि और भूमि की उपज पर लगाए गए कर तथा व्यापार कर से । इस  लगान का एक भाग राजा के लिए रख दिया जाता था और शेष भाग सार्वजनिक निर्माण कार्यों , जैसे सड़क और तालाब बनाने, राज कर्मचारियों को वेतन देने, स्थल सेना और जल सेना का व्यय वहन  करने अथवा मंदिर निर्माण में खर्च किया जाता था । भूमि कर प्रायः ग्राम परिषद से एकत्र किया जाता था। भूमि के मालिक अधिकारियों को कर देते थे। व्यापार कर व्यापारियों से, जो प्रायः नगरों में रहते थे , वसूल किया जाता था।

समाज

राजा, राज दरबार और दरबारियों के अतिरिक्त दो अन्य श्रेणी के लोग थे जिनका समाज में अत्यधिक सम्मान किया जाता था यह ब्राह्मण और व्यापारी थे। ब्राह्मणों का इसलिए आदर किया जाता था कि वे धार्मिक कृत्यों को करते थे और विद्वान थे। वास्तव में जो ब्राह्मण बहुत बड़े विद्वान होते थे उनको राजा से भूमि और ग्राम उपहार के रूप में मिलते थे। यह ब्रह्मदेय उपहार कहलाते थे। इसलिए कुछ ब्राह्मण बड़े धनवान हो गए। उनकी संतान इस भूमि और इन गांव को उत्तराधिकार में प्राप्त करती थी और बड़े आराम का जीवन व्यतीत करती थी। कुछ ब्राह्मण तो इतने धनी हो गए कि वह अपना धान व्यापार में भी लगाने लगे।

चोल राज्य में व्यापारी संपन्न हो गए थे। उनका  चीन, दक्षिण – पूर्व एशिया और पश्चिम एशिया के साथ व्यापार होता था। इसके अतिरिक्त उनका विशाल भारत के अनेक प्रांतों से भी व्यापार होता था तथा उत्तरी – दक्षिणी राज्यों के बीच वस्तुओं का आदान – प्रदान होता था। कुछ व्यापारी मिलकर एक व्यापार मंडल बना लेते थे जिसको मणिग्रामम कहा जाता था । व्यापार मंडल प्रायः एक ही व्यवसाय में लगे हुए व्यक्तियों का संगठन होता है। ऐसी परिस्थिति में सभी व्यापारियों का धन मिलकर एक प्रकार का बैंक बन जाता था। हर व्यापारी अपने भाग का धन देता था। यह प्रणाली बड़ी उपयोगी थी क्योंकि मंडल के रूप में उनके पास अधिक धन हो जाता था और वह अकेले व्यापारी क्षेत्र से अधिक विस्तृत क्षेत्र में व्यापार कर सकते थे।हर एक व्यापार मंडल के पास सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाने के लिए अपना एक काफिला होता था। उनमें से कुछ के पास सशस्त्र सैनिक भी होते थे जो डाकुओं के आक्रमण से काफिले की रक्षा करने के लिए उनके साथ यात्रा करते थे।

 नगरों में नगर के व्यापार मंडल वही की बनी हुई वस्तुओं को एकत्र करके बेचते थे। व्यापार मंडल इन नगर मंडलों से वस्तुओं को खरीदते थे और स्थान को भेजते थे जहां उनकी मांग अधिक होती थी। वस्तुएं कभी तो अन्य वस्तुओं के बदले में दे दी जाती थी और कभी नकद बेची जाती थी। व्यापारियों की संपन्नता का अर्थ था नगर की संपन्नता। राजा भी चाहता था की व्यापार मंडल वैभव संपन्न बने क्योंकि यदि वह धनवान हुए और राज्य को उन्होंने अधिक कर प्रदान किया तो राजकोष में अधिक धन एकत्र होगा यह जानकर आश्चर्य होना चाहिए कि 1077 ईसवी में 72 व्यापारियों का एक राजदूत –  मंडल यह देखने के लिए चीन भेजा गया कि उस देश के साथ व्यापार बढ़ाने की और कौन सी संभावनाएं हैं।

प्रत्येक व्यक्ति धनी और वैभव संपन्न नहीं था। नगरों के मजदूर और गांवों के किसान पर आया बहुत गरीब होते थे पूर्णविराम उनको कठिन परिश्रम करना पड़ता था जिससे राजा और अन्य व्यक्ति विलासिता का जीवन व्यतीत कर सके। शूद्रों  को प्रायः बड़ी मुसीबत उठानी पड़ती थी। कुछ शूद्रों को मंदिर में जाने तक की मनाही थी।

मंदिर

मंदिरों के निर्माण और उनकी सुरक्षा के लिए राजा और धनी व्यक्ति उदारता से धन और भूमिका दान करते थे। प्रत्येक गांव और नगर में एक मंदिर बनाया जाता था किंतु कुछ बड़े – बड़े नगरों और धार्मिक स्थानों के मंदिर अन्य स्थानों के मंदिर से बड़े होते थे। चोल राजाओं के बनवाए हुए राजमंदिर बहुत वैभवशाली तथा भव्य थे, जैसे तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर।

पल्लव काल में मंदिर चट्टानों को काटकर बनाए गए थे। यह मंदिर बड़ी-बड़ी चट्टानों एवं पहाड़ियों को काटकर बनाए जाते थे। मद्रास के निकट महाबलीपुरम में इस प्रकार के मंदिर सबसे अधिक सुंदर हैं। धीरे-धीरे कलाकारों ने बाहरी चट्टानों को काटने की बजाय  बड़े-बड़े पत्थरों के टुकड़ों को काटकर मंदिर बनाने शुरू किए। कांचीपुरम नगर में इस प्रकार के अनेक प्राचीन मंदिर है। प्रारंभ के इन मंदिरों में एक तो देवता की मूर्ति का कमरा होता था और प्रवेश करने का और या बरामदा होता था। ज्यों-ज्यों धार्मिक कर्मकांड बढ़ने लगे और मंदिरों में अत्यधिक पूजा-पाठ और उत्सव होने लगे, त्यों-त्यों मंदिर के प्रांगण में अधिक कमरों और हॉल का बनाना आवश्यक हो गया। बाद में इस प्रांगण के चारों ओर चारदीवारी भी बनाई गई। मंदिर का प्रवेश द्वार गोपुरम कहलाता था।इस प्रांगण में बहुत से छोटे-छोटे मंदिर भी बनाए जाते थे जिनमें दूसरे देवता अथवा महात्माओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित की जाती थी और प्रायः इनकी भी पूजा की जाती थी। इसके अतिरिक्त केंद्रीय मंदिरों के ऊपर एक ऊंचा शिखर बनाया जाने लगा। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति जो मंदिर देखना चाहता था, जान  लेता था कि मंदिर का केंद्रीय गर्भ गृह कहां पर अवस्थित है ।

गर्भ गृह में देवी या देवता की मूर्ति स्थापित की जाती थी । यह मूर्तियों या तो पत्थर की बनी होती थी या काँसे की । काँसे  की बनी हुई मूर्तियां विशेष रुप से सुंदर है और अपने सौंदर्य के लिए संसार भर में प्रसिद्ध है।

चोल राज्य का मंदिर समाजिक कार्यों का केंद्र भी बन गया था। केवल पूजा करने का धार्मिक स्थान ही नहीं था बल्कि ऐसा स्थान था जहां लोग मिलते जुलते थे । शिक्षकों और धार्मिक त्योहारों पर आसपास के क्षेत्रों के लोग के एकत्र होने का स्थान मंदिर ही था। धनवान लोग मंदिरों को धन और बहुमूल्य वस्तुओं की भेंट देते थे। इस धन का कुछ भाग मंदिर को सजाने में लगाया जाता था। दीवारों को मूर्तियों से सजाया जाता था। इन मूर्तियों के द्वारा देवता और मनुष्य दोनों के दृश्य चित्रित किए जाते थे। दीवारों पर बने हुए इन दृश्यों में राजदरबार, युद्ध, पूजा-उपासना तथा संगीत और नृत्य के दृश्य होते थे।देवताओं की पत्थर और काँसे  की मूर्तियों को बड़ी  भक्ति से बनाया जाता था।उत्सवों और त्यौहारों के दिन उनको मूल्यवान रेशमी वस्त्रों और सोने के आभूषणों से सजाया जाता था और बड़े-बड़े लकड़ी के रथों में उन का जुलूस निकाला जाता था। मंदिर केवल एक सुंदर भवन ही नहीं होता था बल्कि मूल्यवान वस्तुओं का एक संग्रहालय भी था।

शिक्षा

जैसा कि हम देख चुके हैं मंदिर पूजा का स्थान तो था ही, साथ ही परस्पर एकत्र होने का स्थान भी था। मंदिर में ही गांव सभाएं अपनी बैठक है किया करती थी। व्यापार पर होने वाले विचार – विमर्श को मंदिर की दीवारों पर अंकित कर दिया जाता था। मंदिर के पुजारी स्थानीय अध्यापक भी होते थे क्योंकि वहां कोई अच्छा विद्यालय नहीं होता था। मंदिर के प्रांगण में ही विद्यालय लगता था। विद्यार्थी प्रायः ब्राह्मण होते थे और वे दो भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे जिनमें एक भाषा संस्कृत होती थी। अधिकतर धार्मिक शिक्षा संस्कृत भाषा के माध्यम से दी जाती थी क्योंकि वेद आदि धार्मिक ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था। विद्यार्थी चोल राज्य के विस्तृत क्षेत्र में बोली जाने वाली तमिल भाषा भी पढ़ते थे। संस्कृत भाषा का प्रयोग किए जाने के पहले भी भारत के इस भाग में तमिल भाषा बोली जाती थी। कंबन की रामायण जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ जब तमीज में रूपांतरित किए गए तब संस्कृत के बहुत से साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथ लोकप्रिय हो गए। चोल राजाओं के अनेक शिलालेख संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में लिखे हुए हैं। इस काल में प्रसिद्ध कवियों और नाटककारों के द्वारा तमिल भाषा में काव्य ग्रंथों तथा नाटकों की भी रचना की गई।

तमिल यद्यपि दक्षिण भारत की सबसे प्राचीन भाषा है पर इस काल में दक्षिण भारत में केवल इसी एक भाषा का प्रयोग नहीं होता था। आंध्र प्रदेश में स्थानीय जनसमुदाय द्वारा तेलुगु भाषा का प्रयोग किया जाता था। तेलुगु भाषा मैं भी रामायण और महाभारत की कथाओं को लिखा गया। कुछ अन्य साहित्य भी इस भाषा में लिखा गया जो लोकप्रिय रहा। महाभारत के कुछ कथाओं को लेकर श्रेष्ठ रचना करने वाले नन्नय्या का आज भी स्मरण किया जाता है। आगे चलकर कभी तिक्कन्ना और यरन्ना ने उसकी रचनाओं में अपनी रचनाओं को भी जोड़ दिया। आधुनिक मैसूर के चारों ओर के क्षेत्र मैं अधिक संख्या में लोग कन्नड़ भाषा बोलते थे जैसे कि आज भी उस क्षेत्र में वही भाषा बोली जाती है। अपनी श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं के कारण कवि पंप, पौन्न, और रन्न कन्नड़ साहित्य के तीन रत्न कह जाते हैं । धार्मिक उपदेशों का एक दल जिसको लिंगायत कहते थे अपने धार्मिक उपदेश संस्कृत में नहीं देकर कन्नड़ भाषा में देता था। इस कारण कन्नड़ भाषा लोकप्रिय हो गई।  तमिल आलवार और नायन्नार प्राचीन काल में संस्कृत के स्थान पर तमिल भाषा के प्रयोग को अधिक पसंद करते थे और उसी का उन्होंने प्रयोग अपनी कविताओं और भजनों को लिखने में भी किया। लिंगायत महात्माओं ने कन्नड़ का प्रयोग इसलिए किया कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह धनी हो या गरीब, उनकी भाषा को समझ सके और यह जान सके कि लिंगायत महात्मा किस प्रकार की शिक्षा देते थे। यदि उन्होंने संस्कृत में उपदेश दिए होते तो केवल कुछ सीमित वर्ग के शिक्षित व्यक्ति हैं उनके उपदेशों को समझ सकते थे।

धर्म

इस काल में दक्षिण भारत में कुछ लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन ही आरंभ हुए। इनमें से कुछ तो आलवारों और नायनारों की दी हुई शिक्षाओं को लेकर चल रहे थे। अन्य ने नवीन विचारों का प्रचार आरंभ किया। इनमें से अनेक ने यह उपदेश दिया कि केवल मूर्तियों की पूजा तथा पुजारियों की गाई हुई प्रार्थनाओं को दोहराना ही  धर्म नहीं है। उन्होंने कहा कि ईश्वर से प्रेम करना और मनुष्यों के प्रति अपने हृदय  में दया की भावना जागृत करना धर्म है।वे यह नहीं चाहते थे कि समाज का वर्णन  और जातियों में विभाजन किया जाए क्योंकि उनका विश्वास था कि सभी मनुष्य समान है। इन संप्रदायों में सबसे महत्वपूर्ण संप्रदाय था लिंगायत, जिसका संस्थापक बासव  12 वीं शताब्दी में हुआ।

 इस काल में अनेक विद्वानों ने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा दिखलाई। प्रसिद्ध दार्शनिकों ने दक्षिण भारत में अपने दार्शनिक सिद्धांतों का प्रचार किया पर उनके सिद्धांतों का ज्ञान भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों को हो गया। अनेक धार्मिक महात्मा दक्षिण भारत से उत्तर में आए यज्ञ दी बाद में उत्तर भारत में भी कुछ धार्मिक महात्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने भी अपने सिद्धांतों का प्रचार किया।

 इन महात्माओं में शंकर और रामानुज सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। शंकर जो आठवीं शताब्दी में हुए थे, केरल के रहने वाले थे। उनका दर्शन अद्वैत सिद्धांत कहलाता है जिसका अर्थ है विश्व में केवल एक सत्ता  है, उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है।उन्होंने ज्ञान मार्ग का उपदेश दिया। उनका कहना था कि केवल ज्ञान प्राप्त करके ही ईश्वर की उपासना की जा सकती है। शंकर ने अपने दर्शन के जिज्ञासु को शिक्षा देते हुए संपूर्ण भारत की यात्रा की। उन्होंने अन्य विद्वानों, दार्शनिकों और उपदेशको से शास्त्रार्थ किया। उन्होंने दर्शनशास्त्र के अनेक केंद्र स्थापित किए।

 रामानुज का जन्म 11वीं शताब्दी में हुआ। उन्होंने उपदेश दिया कि व्यक्ति को भक्ति भाव से अपने को पूर्ण रूप से ईश्वर की शरण में छोड़कर उसकी उपासना करनी चाहिए। अतः उनका मत शंकर के मत के अनुकूल नहीं था । उनका कहना था कि ईश्वर की उपासना ज्ञान  की अपेक्षा प्रेम और भक्ति भाव से की जानी चाहिए। रामानुज को इसकी भी चिंता हुई कि कुछ लोग को मंदिर में इस कारण प्रवेश नहीं करने दिया जाता कि वह नीची जाति के हैं। उनकी दृष्टि में ऊंच-नीच का कुछ अर्थ नहीं था।  क्योंकि वह सभी मनुष्यों को समान समझते थे। दूसरे धार्मिक महात्मा मध्व थे  जिनके बहुत से अनुयायी थे।यह तेरहवीं शताब्दी के महात्मा थे। उनके विचार और उनकी शिक्षा बहुत कुछ रामानुज के विचारों और  शिक्षाओ  के समान थी । 

इस प्रकार चोल शासनकाल का भारतीय संस्कृति को अच्छा योगदान रहा। चोल राजाओं की राजनीतिक शक्ति ने अनेक राज्यों को दक्षिण का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया। कुछ समय तक उनका राज्य इस विशाल देश के सबसे अधिक शक्तिशाली राज्यों में रहा। इस काल के व्यापार से राज्य के व्यापारी धनवान हो गए और चोल राज्य कोष की भी  वृद्धि हुई। तमिल, तेलुगू और कन्नड़ कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषाओं में अनेक ग्रंथों की रचना की। भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया। लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन ने भक्ति भावना का प्रचार किया और हिंदू धर्म में नवीन विचारों का समावेश किया। इस काल के दार्शनिक ने भारतीय दर्शन को अपने विचारों से अधिक पुष्ट किया । इन परिवर्तनों का प्रभाव केवल दक्षिण भारत के ही जीवन पर नहीं संपूर्ण भारत के अनेक क्षेत्रों की जनता के जीवन पर भी पड़ा। 

दक्षिण के प्रमुख राज्य कौन कौन से हैं?

प्राचीन दक्षिण भारत में विभिन्न समयों तथा क्षेत्रों में विभिन्न शासकों तथा राजवंशों ने राज किया। सातवाहन, चेर, चोल, पांड्य, चालुक्य, पल्लव, होयसल, राष्ट्रकूट आदि ऐसे ही कुछ राजवंश हैं। मध्यकालीन युग के आरंभिक मध्य में क्षेत्र मुस्लिम शासन तथा प्रभाव के अधीन रहा। सबसे पहले तुगलकों ने दक्षिण में अपना प्रभाव बढ़ाया।

2 दक्षिण के प्रमुख राज्य कौन कौन थे ?`?

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दक्षिण के प्रमुख राज्य है:.
पल्लव वंश: इस राज्य की राजधानी कैंची थी जो तमिलनाडु में स्तिथ है संस्थापन इनके सिंघविष्णु थे ये वंश कृष्णानदी के दक्षिण में था और इनकी राज भाषा संस्कृत थी.

भारत में दक्षिण में कौन सा देश स्थित है?

श्रीलंका (Sri Lanka) : श्रीलंका पहले सीलोन के नाम से जाना जाता था भारत के दक्षिण में स्थित इस देश की दूरी भारत से मात्र ३१ किलोमीटर ही है।

दक्षिण भारत क्यों प्रसिद्ध है?

दक्षिण भारत अपनी दस्तकारी व समुंद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।