राजपूतों की पराजय का सर्वप्रथम कारण भारत की राजनैतिक दुर्बलता थी। यहाँ राजनैतिक एकता की कमी थी। देश बहुत से छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था और वे राज्य आपस में एक-दूसरे से संघर्ष में लगे रहते थे। राजनैतिक एकता की कमी के कारण भारतीय राजपूत तुर्कों से मुकाबला करने में सफल न हो सके। Show
(2) सामाजिक कारणसामाजिक कारणों में कुछ लेखकों ने लिखा है कि हिन्दू समाज में छुआ-छूत, ऊंच-नीच की प्रथा एवं जाति व्यवस्था बहुत जटिल हो गयी थी। इस भेदभाव ने हिन्दू समाज को शिथिल कर दिया था और यह शिथिलता ही उनकी पराजय का कारण बनी। (3) सेना का संगठनएल्स्टिन, लेनपूल, स्मिथ आदि का मत है कि भारतीयों के पास अच्छे सैनिक न थे और दूसरी ओर आक्रमणकारी बहादुर जाति के और शीत प्रधान देश के निवासी थे वे मांसाहारी थे और हिन्दुओं की अपेक्षा बहुत अधिक बलवान थे। उनकी सेना एक सेनापति के अधीन होती थी जबकि राजपूतों की सेना अलग-अलग सामन्तों की अधीनता में रहती थी। (4) धार्मिक कारणहिन्दू धर्म अत्यधिक उदार धर्म है इनका युद्ध बहुत कुछ धर्मयुद्ध सा होता था। आतंक फैलाने के लिए अनेक निर्दोष असैनिक लोगों की हत्या करना उनके बस का नहीं था। वे समाज एवं मानव जाति को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते थे इसी धार्मिक संकीर्णता का लाभ तुर्कों ने उठाया तथा उदारवादी धर्म के कारण राजपूतों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। (5) कूटनीति एवं दूरदर्शिता की कमीराजपूत दूरदर्शी एवं कूटनीतिज्ञ न थे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि तुर्क आक्रमणकारी हमारे ऊपर आक्रमण कर यहाँ स्थायी रूप से बस कर तुर्क साम्राज्य की स्थापना करेंगे। छल-कपट की नीति न अपनाने के कारण भी राजपूतों की पराजय हुई। हर्ष की विजय (6) तुर्कों की सहसा आक्रमण नीतितुर्कों ने सहसा आक्रमण की नीति को अपनाया। आक्रमण की पहल सदैव वे ही करते थे। वे भारतीय जनता पर एकदम टूट पड़ते थे और बेहद लूटमार करते थे। राजपूत रक्षात्मक युद्ध करते थे, जो प्रायः घाटे का सौदा रहता था। राजपूतों के बारे में कहा जाता है कि यह काफी पराक्रमी और कुशल योद्धा होते थे. वे देश के लिए मर मिटने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. इतिहासकारों के मुताबिक राजपूत युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त करना अपना सौभाग्य समझते थे लेकिन इतने पराक्रमी होते हुए भी तुर्कों के आक्रमण के पश्चात राजपूतों का पतन होना शुरू हो गया.1. सैन्य कारणकिसी भी युद्ध में किसी राजा की जीत या हार का निर्णय उसकी सैन्य क्षमता और कार्यकुशलता ऊपर निर्भर करता है. तुर्कों की सैन्य शक्ति काफी सुदृढ़ थी. उनके पास कुशल सेनापति और प्रशिक्षित सैनिक होते थे. उम्दा किस्म के हथियार होते थे. इनके पास युद्ध में इस्तेमाल किए जाने वाले उच्च नस्ल के घोड़े होते थे. तुर्की योद्धा युद्ध कला में पूरी तरह निपुण थे. तुर्की सैनिक समय-समय पर युद्ध प्रणाली में बदलाव लाते थे. तथा नई-नई युद्ध प्रणाली विकसित करते थे. तुर्की सैनिक एक ही सेनापति के अधीन युद्ध करते थे. इसीलिए उसकी स्वामी भक्ति मजबूत होती थी. इसके विपरीत राजपूतों की सेना में बहुत सी ख़ामियाँ थी. इनके पास स्थाई सेना का अभाव था. राजपूत शासकों अपने सैन्य संगठन को कुशल और सुदृढ़ बनाने की ओर ध्यान नहीं देते थे. वे युद्ध में सामंतों की सेना का इस्तेमाल करते थे. सामंतों की सेना में युद्ध प्रशिक्षण और कार्यकुशलता का अभाव था. राजपूतों की सेना में अलग-अलग सामंतों की सेना होने के कारण उनमें देशभक्ति की भावना नहीं थी. वे केवल अपने स्वामी के प्रति ही भक्ति की भाव रखते थे. ऐसे भी सैनिकों के बीच आपसी तालमेल बन नहीं पाता था. राजपूत अपनी पुरानी युद्ध प्रणाली का ही इस्तेमाल करते थे. राजपूत सेना युद्ध में हाथियों का इस्तेमाल करते थे. जो कि युद्ध की स्थिति में कभी-कभी बिगड़ कर अपनी सेना को ही रौंदने लगते थे. राजपूतों में जातिगत भेदभाव के कारण कई हिन्दु तुर्कों के साथ मिल जाते थे जिसके कारण राजपूतों की एकता कमजोर हो जाती थी. इसके अलावा राजपूत रणभूमि में ही विजय को महत्व देते थे. वो छल-कपट जैसी नीतियों से दूर रहते थे. वहीं तुर्क युद्ध जीतने के लिए छल-कपट, धोखा आदि का भी सहारा लेते थे. वे गोरिल्ला युद्ध का भी सहारा लेते थे. ऐसी युद्ध नीतियों से राजपूत परिचित नहीं थे. इसके अलावा राजपूत हमेशा रक्षात्मक युद्ध नीति का प्रयोग करते थे और तुर्क हमेशा आक्रमक युद्ध नीति का प्रयोग करते थे. इसके अतिरिक्त तुर्क के पास अच्छी गुप्तचर व्यवस्था थी जो राजपूतों की कमियों और कमजोरियों का पता लगाती थी और राजपूतों के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी. 2. राजनीतिक कारणतुर्कों में योग्य और श्रेष्ठ व्यक्ति को ही उच्च पद दिया जाता था. भारतीय शासक अपने अपने राज्य के विस्तार में लगे रहते थे और अपने पड़ोसी राज्यों पर हमले करते रहते थे. उनके युद्ध में व्यस्त रहने के कारण जनहित कार्यों में कोई विशेष ध्यान नहीं था. राजपूतों के पतन में राजनीतिक कारण का भी बहुत बड़ा कारण रहा है. 12 वीं शताब्दी तक भारतीय जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना का खत्म होती जा रही थी. भारतीय शासक इस समय अपने निजी स्वार्थ और आपसी झगड़ों में व्यस्त थे. इस कारण वह जनता पर कोई ध्यान नहीं देते थे. इस समय राजकीय सेवाओं में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को ही नियुक्त किया जाता था. उनका राज्य की अन्य जन साधारण लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था. इसके कारण शासकों को जनता का कोई सहयोग नहीं मिलता था. 3. सांस्कृतिक कारणतुर्कों में धार्मिक और सांस्कृतिक उत्साह हिन्दुओं से अधिक था. वे धर्म के लिए खुद को बलिदान करने के कभी हिचकते नहीं थे. इसके विपरीत इस समय राजपूत समाज में अंधविश्वास और पाखंड चरम पर था. शासक ज्योतिषियों की भविष्यवाणी पर विश्वास करते थे. वे कर्म से ज्यादा भाग्य पर विश्वास करते थे. विज्ञान की बातों पर तो यकीन ही नहीं करते थे. इसी वजह से नवीनतम आविष्कारों के विषय में कोई ज्ञान हासिल नहीं कर सके. जनता तंत्र-मन्त्र, जादू-टोने पर बहुत विश्वास करती थी. इस समय हिन्दू समाज चार वर्णों के अतिरिक्त अनेक छोटी-छोटी उपजातियों में बंटी हुई थी. इस वजह से कही एकता की सूत्र में बांध नहीं पाए. उनमें प्राय: आपसी वैमनस्य से लेकर बात राजनीतिक षड्यंत्रों तक पहुँच जाती थी. प्रत्येक जाति खुद को सर्वश्रेष्ठ मानती थी. इसी वजह से प्रत्येक जाति के लोग दूसरी अन्य जातियों से मेल-मिलाप, विवाह, खान-पान व अन्य प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रखती थी. इस सबके कारण समाज में ऊंच-नीच, छुआ – छूत जैसी भावनाएं विकसित होती चली गई. इन सबकी वजह से इनमें कभी एकता की भावना विकसित ही नहीं हुई. वर्णों में विभाजित होने के कारण तुर्क आक्रमण के दौरान उनका सामना करने का दयित्व केवल क्षत्रियों को हो दिया गया. इस वजह से तुर्क के मुकाबले ये कमजोर हो गए. इसके विपरीत तुर्कों में ऐसी कोई भावना जागृत नहीं हुई. उनमें अंधविश्वास भी नहीं था. 4. व्यक्तिगत कारणकिसी भी सेना की जीत या हार में राजा और सेनापति का बहुत बड़ी भूमिका होती है. यद्यपि जयपाल, भोज परमार, पृथ्वीराज चौहान जैसे राजपूत राजा कुशल सेना नायक थे, पर वे तुर्कों के समान दूरदर्शी नहीं थे. इसके अलावा कही भारतीय शासकों ने बहुत सी मूर्खतापूर्ण गलतियां की. ऐसे शासकों में सिंध का राजा दाहिर, पंजाब का शासक जयपाल आदि है. जयपाल हार से अपमानित होकर आत्महत्या करने के बजाय फिर से तैयारी करके युद्ध करता तो हो सकता वो विजय प्राप्त कर लेता. दूसरी ओर तुर्क सेना में महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी, कुतुबुद्दीन ऐबक जैसे उच्च कोटि के सेनानायक थे. इन सबको बहुत से युद्धों अनुभव प्राप्त था. 5. आकस्मिक कारणइसके अलावा तुर्कों का भारतीय शासकों के खिलाफ के जीत के लिए बहुत से आकस्मिक कारण भी जिम्मेवार थे. 986 ई. में जब सुबुक्तगीन और जयपाल के बीच युद्ध के दौरान अचानक भीषण वर्षा हुई जिसकी वजह जयपाल की सेना को काफी क्षति हुई. अतः तुर्क आसानी से जीत हासिल कर लिए और जयपाल को अपमानजनक संधि करने पर विवश होना पड़ा. इसी प्रकार महमूद गजनी और आनंदपाल के बीच युद्ध के दौरान आनंदपाल की सेना के हाथी के बिगड़ जाने के कारण आनंदपाल को हार का सामना करना पड़ा. चंदवार युद में जयचंद के आँख में तीर लग भी ऐसी ही एक घटना थी. इन बातों से यह स्पष्ट है कि भारत में तुर्कों की की सफलता के लिए भारतीय राजाओं की खामियां, तत्कालीन समाज की स्थिति और तत्कालीन परिस्थितियों ने अहम भूमिका निभाई थी. तुर्कों की सफलता ने भारत से राजपूतों की शासन का अंत कर दिया.
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