Show
सतयुग से लेकर वर्तमान कलियुग तक बदरीनाथ ने कई बदलाव देखें हैं। अलग-अलग स्थानों पर इनका निवास बनता रहा है। और ऐसी मान्यता है कि कलियुग के अंत में वर्तमान बदरीनाथ का स्थान भी बदल जाएगा। इनकी पूजा भविष्य बदरी में होगी। लेकिन फिलहाल कोरोना संकट के कारण बदरीनाथ के कपाट खुलने को लेकर यह उलझन की स्थिति बनी हुई थी कि इस बार मंदिर के कपाट कौन खोलेगा क्योंकि परंपरा के अनुसार केरल के नंबूदरी ब्राह्मण परिवार के रावल ही कपाट खोलते हैं। लेकिन रावल शीतकाल में मंदिर के कपाट बंद होने के बाद से केरल में अपने मूल निवास पर हैं। ऐसे में लॉक डाउन के कारण उनका आना कैसे संभव होगा? इस उलझन की स्थिति में यह विकल्प सामने आया कि सरोला ब्रह्मचारी ब्राह्मण मंदिर के कपाट खोल सकते हैं। इससे पहले भी बदरीनाथ धाम के बीते 400 साल के इतिहास में करीब 4 बार ऐसा हो चुका है कि सरोला ब्रह्मचारी ब्राह्मण ने रावल की अनुपस्थिति में बदरीनाथ की पूजा की है। आइए जानते हैं कि सरोला ब्राह्मण कौन हैं और क्यों इन्हें बदरीनाथ में रावल के ना होने पर पूजा का अधिकार प्राप्त है। रावल के सहयोगी हैं सरोलासरोला ब्राह्मणों को रावल का सहयोगी माना जाता है। साल के छह महीने जब भारी हिमपात होता है तो बदरीनाथ धाम के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। उस समय रावल अपने घर केरल वापस चले जाते हैं। जब कपाट खुलने की तिथि आती है तो वह वापस आते हैं। यदि किसी कारणवश ये नहीं आ पाते तो इनके सहयोगी सरोला ब्राह्मण पूजा-पाठ करते हैं। Untold black magic story : शिव की तंत्र साधना का विकृत रूप है काला जादू इस समुदाय के होते हैं सरोलासरोला ब्राह्मण स्थानीय डिमरी समुदाय के होते हैं। जानकारी के अनुसार डिमरी भी मूलत: दक्षिण भारतीय ही हैं, जो शंकराचार्य के साथ ही सहायकों के तौर पर आए थे। लेकिन ये कभी भी यहां से वापस नहीं गए। कहा जाता है कि ये कर्णप्रयाग के पास स्थित डिम्मर गांव में निवास करने लगे। यही वजह थी कि इन्हें डिमरी समुदाय के नाम से जाना जाने लगा। बदरीनाथ धाम में भोग बनाने का अधिकार डिमरी ब्राह्मणों को ही दिया गया है। शंकराचार्य के वंशज हैं रावलबदरीनाथ और केदारनाथ के पुजारियों को रावल कहा जाता है। रावल शंकराचार्य के वंशज हैं। इसलिए पूजा का अधिकार भी उन्हीं के कुल को यानि की रावलों को दिया गया। यदि किसी कारण से वह उपस्थित न हो सकें तो डिमरी ब्राह्मण यह पूजा संपन्न कराते हैं। जानिए किस मजबूरी के चलते मंदोदरी ने किया था रावण से विवाह? पहाड़ पर पार्वती के रूप में पूजते हैं इन्हेंबदरीनाथ धाम में रावलों को भगवान के रूप में पूजा जाता है। उन्हें देवी पार्वती का स्वरूप भी मानते हैं। जिस दिन कपाट खुलते हैं उस दिन रावल माता पार्वती की तरह साड़ी पहन 16 श्रृंगार करके गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। कहा जाता है कि यह अनुष्ठान हर कोई नहीं देख सकता। इस दिन पहुंचेगे केरल से रावललॉकडाउन के कारण उलझन की स्थिति बनी हुई थी कि इस बार बदरीनाथ धाम के कपाट कौन खोलेगा। इस बात को लेकर सरोला ब्राह्मणों का नाम आगे आ रहा था। लेकिन अब स्थिति करीब साफ हो गई है कि परंपरागत तरीके से रावल ही कपाट खोलेंगे। रावल को केरल से लाने की व्यवस्था कर ली गई है। 21 अप्रैल को रावल जोशीमठ पहुंचेंगे। हालांकि 14 दिनों तक वह क्वांरटाइन में ही रहेंगे। बता दें कि परंपराओं के मुताबिक भी रावल जब अपने राज्य से बाहर जाते हैं तो सेल्फ आइसोलेशन में ही रहते हैं। जानें किस तरह खुलेंगे गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरी, केदार के कपाट26 अप्रैल अक्षय तृतीया के दिन चार धाम की यात्रा का आरंभ हो जाएगा। सीमित संख्या में लोगों की मौजूदगी मे गंगोत्री के कपाट खोले जाएंगे। 27 अप्रैल को यमुनोत्री के कपाट खुलेंगे इसके बाद 29 अप्रैल को बदरीनाथ के और 30 को केदारनाथ के कपाट खोले जाएंगे। जानिए क्यों गांधारी ने पुत्र दुर्योधन को नग्नावस्था में बुलाया अपने समीप? Navbharat Times News App: देश-दुनिया की खबरें, आपके शहर का हाल, एजुकेशन और बिज़नेस अपडेट्स, फिल्म और खेल की दुनिया की हलचल, वायरल न्यूज़ और धर्म-कर्म... पाएँ हिंदी की ताज़ा खबरें डाउनलोड करें NBT ऐप लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने के लिए NBT फेसबुकपेज लाइक करें
बद्रीनाथ धाम में पुजारी केरल के ब्राह्मण होते हैं. मंदिर में पूजा करने का अधिकार सिर्फ़ इन्हें ही होता है. हिमालय के मंदिर में सुदूर दक्षिण के पुजारी को नियुक्त करने की ये परंपरा शंकराचार्य ने डाली थी जो आज तक अबाध रूप से चली आ रही है. बर्फीली चोटियों पर हिंदी और गढ़वाली बोली में बात करते गोरे पहाड़ी चेहरों के बीच बद्रीनाथ धाम में जब टूटी-फूटी हिंदी में बात करते माथे पर तिलक लगाए एक दक्षिण भारतीय पुरोहित से सामना होता है तो क्षणभर के लिए कोई भी ठिठक सकता है. कोई भी सोच सकता है कि समुद्र तट के किसी इलाक़े से आए इस ब्राह्मण का आखिर यहां क्या काम. लेकिन सच तो ये है कि भगवान बद्रीनारायण की पूजा अर्चना के मुख्य अधिकारी सिर्फ़ केरल के ये नंबूदरीपाद ब्राह्मण ही हैं. इन्हें शंकराचार्य का वंशज माना जाता है और ये रावल कहलाते हैं. आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में जिन चार धामों की स्थापना की थी बद्रीनाथ उनमें से एक हैं. शंकराचार्य खुद केरल के कालडी गांव के थे जहां से उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ पूरे देश में वैदिक धर्म के उत्थान और प्रचार का अलख जगाया. परंपरा बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल कहते हैं,'' हिंदू धर्म के पुनरूत्थान और हिंदू धर्मावलंबियों को एकजुट करने के लिए शंकराचार्य ने ये व्यवस्था की थी कि उत्तर भारत के मंदिर में दक्षिण का पुजारी हो और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर का हो, जैसे कि रामेश्वरम में उत्तर के ब्राह्मण ही नियुक्त होते हैं.''
वर्त्तमान रावल बद्रप्रसाद नंबूदरी को इस बात का गर्व है कि वो सैकड़ों साल पुरानी इस परंपरा के वाहक हैं,'' ये सहिष्णुता और सदाशयता का प्रतीक है.मुझे विश्वास है कि जब तक वैदिक धर्म रहेगा ये वयवस्था भी बनी रहेगी.'' केरल के नंबूदरीपाद ब्राह्मणों में से रावल का चयन बद्रीनाथ मंदिर समिति ही करती है. इनकी न्यूनतम योग्यता ये है कि इन्हें वहां के वेद-वेदांग विद्यालय का स्नातक और कम से कम शास्त्री की उपाधि होने के साथ ब्रह्मचारी भी होना चाहिए. नये रावल की नियुक्ति में त्रावणकोर के राजा की सहमति भी ली जाती है. साल के छह महीने जब भारी हिमपात के कारण मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते हैं तब रावल वापस अपने घर केरल चले जाते हैं और कपाट खुलने की तिथि आते ही वापस बद्रीनाथ आ जाते हैं. बद्रीनाथ में पूजा जहां केरल के ये रावल करते हैं वहीं स्थानीय डिमरी समुदाय के ब्राह्मण इनके सहायक होते हैं. पंडित बच्चीराम डिमरी बताते हैं,'' दरअसल डिमरी भी मूल रूप से दक्षिण भारतीय ही हैं जो शंकराचार्य के साथ ही सहायक अर्चक के तौर पर आए थे लेकिन यहां से वापस नहीं गये और कर्णप्रयाग के पास डिम्मर गांव में रहने लगे इसलिए डिमरी कहलाए. बद्रीनाथ में भोग बनाने का अधिकार सिर्फ़ इन डिमरी पंडितों को ही होता है.'' लगभग 1200 साल पुराना बद्रीनारायण का मंदिर कई बार उजड़ा और कई बार बना लेकिन इस परंपरा पर आज तक आंच नहीं आई है. न ही कभी स्थानीय पुरोहितों से इसे चुनौती मिली. बद्रीनाथ में वेदपाठी ब्राह्मण भुवनचंद नौटियाल कहते हैं,'' पहाड़ में रावल को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उन्हें पार्वती का रूप भी माना जाता है.'' इस मान्यता की वजह से ही बद्रीनाथ में एक अनोखा धार्मिक संस्कार भी होता है.जिस दिन कपाट खुलते हैं उस दिन रावल साड़ी पहन पार्वती का श्रृंगार करके गर्भगृह में प्रवेश करते हैं. हालांकि ये अनुष्ठान सभी नहीं देख सकते हैं. बद्रीनाथ के पुजारी को क्या कहते हैं?बदरीनाथ और केदारनाथ के पुजारियों को रावल कहा जाता है। रावल शंकराचार्य के वंशज हैं।
केदारनाथ के पुजारी को क्या कहा जाता है?केदारनाथ मंदिर के पुजारियों को 'रावल' कहा जाता है जो मैसूर के जंगम ब्राह्मण होते हैं और जिनका निवास स्थान 'ऊखीमठ' है।
बद्रीनाथ में कौन से देवता की पूजा होती है?बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। यहाँ उनकी १ मीटर (३.३ फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने ८वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था।
बद्रीनाथ में शंख क्यों नहीं बताया जाता है?धार्मिक मान्यता -
शास्त्रों के अनुसार एक बार मां लक्ष्मी बद्रीनाथ में बने तुलसी भवन में ध्यान लगा रही थीं। तभी भगवान विष्णु ने शंखचूर्ण नाम के एक राक्षस का वध किया था। चूंकि हिन्दू धर्म में जीत पर शंखनाद किया जाता है, लेकिन विष्णु जी लक्ष्मी जी के ध्यान में विघ्न नहीं डालने चाहते थे, इसलिए उन्होंने शंख नहीं बजाया।
|