रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ Show
मुख्य प्रवृतियाँ – क) रीति- निरूपण ख) श्रृंगारिकता गौण प्रवृत्तियाँ – क) भक्ति ख) राज प्रशास्ति परक वीर काव्य ग) नीति मुख्य प्रवृतियाँ – क) रीति- निरूपण रीतिकाल में काव्य जीवन जगत के यथार्य से कट कर रीतिग्रंथो में बताए रूपो, भावो और नायिका भेद तक सीमित हो जाता है। ऐसा दरबारी जरूरतों की पूर्ति के लिए रचनाकारों के संस्कृत साहित्य के प्रति रूझान के कारण होता है। काव्य शास्त्रीय विवेचन और परिपाटी विहित काव्य रचना उस दौर के दरवारी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। काव्य शास्त्रीय विवेचन के भी कई आयाम है – 1 ग्रंथकार की दृष्टि से, 2 काव्यांग विवेचन की दृष्टि से और 3 निरूपण शैली की दृष्टि से। 1 ग्रंथकार की दृष्टि से रीति निरूपण के तीन प्रकार है:- (क) रीतिकर्म की दृष्टि से (ख) रीतिकर्म और कवि कर्म की दृष्टि से (ग) कवि कर्म की दृष्टि से (क) रीतिकर्म की दृष्टि से – वैसे आचार्य जिन्होंने काव्यशात्र पर पाठ्य पुस्तक तैयार किया, उन्हें कवि शिक्षक आचार्य कहा जाता है। इन कवि शिक्षक आचार्यों ने लक्षण स्वयं और अपनी भाषा में दिये लेकिन उदाहरण दूसरो की उपयोग की। जसवंत सिह के भाषा भूषण, रसिक सुमति के अलंकार चंद्रोदय इत्यादि को इस श्रेणी में रखा गया है। (ख) रीतिकर्म और कवि कर्म की दृष्टि से - इस वर्गीकरण में वैसे कवि आते हैं जो काव्य शास्त्र के ज्ञाता भी है और प्रकृति से कवि भी। उन्होंने काव्यांगों के लक्षण और उदाहरण स्वयं दिये। इनके उदाहरण सरस बन पड़े है। आचार्य केशवदास, चिंतामणि, भीखारीदास, मतिराम, पदमाकर, आचार्य देव, इस वर्ग के रचनाकार है। (ग) कवि कर्म की दृष्टि से - इस वर्गीकरण में वैसे कवि आते हैं जिन कवियों ने काव्य शास्त्रीय ग्रंथ नही लिखें। इन्होंने काव्यशास्त्र को आत्मशात कर कविताओं की रचाना की । कह सकते है कि उन्होंने कविता रूप में सिर्फ उदाहरण लिखे। बिहारी इस वर्ग के विशिष्ट कवि है। घनानंद, देव मतिराम, पदमाकर आदि की ढेर सारी कविताएँ इस वर्ग में आती हैं। 2 काव्यांग विवेचन की दृष्टि से रीतिनिरूपण के दो भेद है - (क) सर्वाग विवेचन और (ख) विशिष्टांग विवेचन (क) सर्वाग विवेचन - सर्वांग विवेचन के अन्तर्गत सभी काव्यांगो (छन्द, अलंकार, रस, शब्द-शक्ति, काव्य-गुण, काव्य-दोष) का विवेचन होता है। चिंतामणि का ‘कवि कुल कल्प तरू’, भिखारी दास का ‘ काव्य निर्णय’, देव का शब्द रसायन सर्वाग विवेचन के ग्रंथ है। (ख) विशिष्टांग विवेचन - विशिष्टांग विवेचन के अर्न्तगत रस, अलंकार, छंद में से किसी एक या दो या तीनो का विवेचन किया जाता है। अधिकांश रचनाकारों ने में श्रृंगार रस को ही अपने विवेचन के केन्द्र में रखा है। विशिष्टांग निरूपण के ग्रंथ हैं - रस प्रबोध, रस राज, पिंगल प्रकाश, छंद विलाश, अलंकार चंद्रोदय आदि। 3 निरूपण शैली की दृष्टि से तीन प्रकार की निरूपण शैलियाँ अपनाई गयी - पहली शैली के अन्तर्गत काव्यांगो के लक्षण उदाहरण देने के साथ-साथ उनकी व्याख्या भी की गयी। दूसरी निरूपण शैली के तहत एक ही छंद में काव्यांगों के लक्षण और उदाहरण दोनो दिए गए। तीसरी शैली के तहत लक्षण और उदाहरण अलग-अलग छंदो में दिए गए। लिहाजा कह सकते हैं कि हिन्दी के राति कवियों का रीति निरूपण बहुलांश में पिष्ट पेषण है। ख) श्रृंगारिकता रीतिकालिन श्रृंगार सामन्ती वर्गाधार लेकर आया। रचनाओं में प्रेम तत्व कम था, कामुक्ता और रसिकता आधिक थी। तीन प्रकार के कवियों ने श्रृंगारिक कविताएँ की - रीतिवद्ध, रीति सिद्ध और रीतिमुक्त । रीतिवद्ध रीतिवद्ध कवि दो प्रयोजन - कवि शिक्षण और अर्थलाभ से कविता कर रहे थे। इन्होंने सिर्फ प्रेम के वाह्य पक्ष का चित्रण किया। ये कवि श्रृंगारिक उदाहरणों को ही दरवार में सुनाकर पुरस्कार पाते थें। अतः राजाओं के कामवासना के लिए ही कविताएँ इन कवियों द्वारा की गयी। केशवदास, मतिराम, चिंतामणि इस धारा के प्रमुख उदाहरण हैं। नायिका के रूप वर्णन में केशव की कला को देखा जा सकता हैः- गोरो गात पातरी न लोचन समात मुख, उर उरजातन की बात अवरोहिये। रीतिसिद्ध रीतिसिद्ध कवि है बिहारी। उन्होंने श्रृंगार चित्रण की अत्यंत संक्षिप्त एवं प्रभावोत्पादक शैली अपनायी। भाव के साथ-साथ भाषा की भी नक्कासी है। गुरूजनों के बीच बैठे नाय-नायिका के बीच आँखों ही आँखों में प्रेम संवाद जैसे बड़े विषय को भी बिहारी ने एक दोहे में बांध दिया है। कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात। भरे भौन में करत हैं, नैननु हीं सब बात।। बिहारी की रचनाएँ कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति के समन्वय का बेजोड़ नमुना है। वस्तुतः बिहारी का प्रत्येक दोहा अपने आप में एक पूरी तस्वीर है। उनकी बनाई तस्वीरें बड़ी साफ है, जिसमें नायिका की भिन्न-भिन्न भंगिमाओं, उनके अंगों के बाँकपन और उठान, उसकी एक-एक अदा और खूबी को देखा जा सकता है:- बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय। सौंह करै भौंहनि हँसै दैन कहै नटि जाय।। पद्माकर और देव की श्रृंगारिक कविताएँ रीतिकालिन श्रृंगार में नया कुछ जोड़ती है। पद्माकर श्रृंगार के प्रसंगो को ऋतुओं एवं पर्व त्योहारों से जोड़कर उत्सव पूर्ण बना देते है।। फागु के भीर अभीरन ते गहि गोविन्द लै गयी भीतर गोरी। भाय करी मन की पदमाकर ऊपर नाय अबीर की झोरी। छीन पितम्बर कंमर ते, सु विदा दई मोड़ि कपोलन रोरी। नैन नचाई कह्यौ मुसक्याइ लला ! फिर खेलन आइयो होरी। रीतिवद्ध और रीतिसिद्ध कवियों का प्रेम उपभोक्ता मूलक संस्कृति की देन है। सारी नायिकाएँ एक सी है। नायिकाएँ मात्र उपभोग की वस्तु है। काम अंधाकरी जगत में लखै न रूप करूप। ताते कामिनी एक ही कहन सुनन को भेद। रीति मुक्त रीतिकाल में रीति मुक्त कवियों का प्रेम चित्रण उस दौर के प्रेम काव्य को गरिमा देता है। रीति मुक्त कवि भाव पक्ष पर जोड़ देते है। रीति मुक्त कवियों को कविता ही बना जाती है। घनानंद कहते हैं - लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरो कवित बनावत। ये कवि आंतरिक प्रेम के दबाव मे कविता करते हैं। इनका प्रेम एक तरफा और दर्दीला है। दूती विधान इनकी कविताओं में अनिवार्य है। इनकी कविताओं में वियोग श्रृंगार का अधिक चित्रण है। संयोग का क्षण भी इनके लिए सुखद नहीं होता क्योकि हमेशा वियोग में आ जाने की चिंता बनी रहती है। घनानंद कहते है - ‘यह कैसो संयोग न बूझि परै, कि वियोग न क्यों हूं विछोहत है।’ रीतिमुक्त कवियों के प्रेम में स्मृतियों का बड़ा मोल है। ये स्मृतियाँ ही उन्हें प्रियपात्र के प्रति एकनिष्ठ बनाती है। ये रूप लोभी आँखे ही हैं जिन्होने हृदय को गिरवी रखा है। ये आँखे संयोग में तो छक कर रूप पान करती है । वियोग में आँखों का हाल काफी खराब हो जाता है, दिन प्रिय की राह देखते गूजर जाती है और रात प्रतीक्षा करते । घनानंद की पंक्ति - जिन आँखिन रूप-चिन्हार भई, तिनको नित निन्दहि जागनि है। रीति मुक्त कवियो के प्रेम चित्रण में फारसी प्रेम पद्धति का प्रभाव है। यहाँ भी वियोग में वैसी ही तरप और बेचैनी है। गौण प्रवृत्तियाँ क) भक्ति - रीतिकाल में भक्तिकालीन चारो धाराएँ मिलती है। इस काल में संत काव्य धारा के प्रमुख रचनाकार हैं - यारी साहब, दरिया साहब, पलटू साहब। प्रेमाख्याणक काव्य धारा के प्रमुख रचनाकार हैं - कासीम शाह, मुहम्मद शेख। कृष्ण भक्ति काव्य धारा के प्रमुख रचनाकार हैं - ब्रजवासी दास, नरोत्तम दास । राम काव्य परम्परा में रामचरण दास जी ने पत्नी भाव से राम की आराधना कर स्वसुखी सम्प्रदाय बनाया तथा जीवाराम ने सखी भाव से राम की आराधना कर तत्सुखी सम्प्रदाय गठित किया। दरवारी कवियों ने भी मंगला चरण के रूप में भक्ति परक कविताएँ लिखी। अपने भक्ति पदों में भी ये रीति कवि अपने चमत्कार वाली प्रवृति से मुक्त नहीं हो पाते है। इनकी भक्ति श्रृंगार का ही विस्तार है। बिहारी मेरी भवबाधा हरौ राधा नागरि सोइ। जा तन की झाँई परैं स्याम हरित-दुति होइ।। ख) राज प्रशास्ति परक वीर काव्य रीति कवियों के आश्रयदाता मुगल शासक के खिलाफ लड़ रहे थे। इनका विद्रोह तत्कालिन मुगल शासन की दमनकारी साम्प्रदायिक नीति के खिलाफ था। इस काल के कवियों की हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रीयता, आज के राष्ट्रीय परिवेश में भले ही साम्प्रदायिक लगे लेकिन तत्कालिन ऐतिहासिक परिस्थितियों में इनका काव्य जातीय अभिमान को जागने वाला है। इस काल में भूषण, लाल कवि, सूदन, बांकीदास आदि ने प्रबंध या मुक्त में वीर रस पर कविताएँ लिखी। भूषण साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि, सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है। ग) नीति - रीति काल में नीति कविता का उसी तरह विषय है जिस तरह कोई अन्य विषय। नीतिकारों ने अनौपचारिक शिक्षा का एक सरल रास्ता तैयार किया । ये सद् गृहस्थों के सलाहकार है। इनके नीति के पदों को पाँच उपवर्गो- धर्माचार, समाज व्यावहार, राजनीति, सामान्य ज्ञान और शुकुन में बाँटा जा सकता है। गिरीधर की कुँडलियाँ रीतिकाल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति कौन सी है?रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृतियाँ | reetikal. लक्षण ग्रंथों की प्रधानता. श्रृंगारिकता. आलंकारिकता. आश्रयदाताओं की प्रशंसा/राजप्रशस्ति. चमत्कार प्रदर्शन एवं बहुज्ञता. उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण. ब्रजभाषा की प्रधानता. भक्ति और नीति. रीतिकाल के दो प्रमुख विशेषताएं क्या है?(1) आचार्यत्व प्रदर्शन की प्रवृत्ति- यह इस काल की मुख्य विशेषता कही जा सकती है। इस काल के प्रायः सभी कवि आचार्य पहले थे और कवि बाद में । उनकी कविता पांडित्य के भार में दबी हुई है। (2) श्रृंगारप्रियता-यह इस काल की दूसरी मुख्य प्रवृत्ति है।
रीतिकाल की विशेषता कौन कौन सी है?रीतिकाल की विशेषताएं. आचार्यत्व प्रदर्शन की प्रवृत्ति यह रातिकाल की मुख्य विशेषता है। इस काल के प्रायः सभी कवि आचार्य पहले थे और कवि बाद मे। ... . श्रृंगारप्रियता यह इस काल की दूसरी विशेषता है। सभी कवियों ने श्रंगार मे अतिशय रूचि दिखायी। ... . अलंकारप्रियता अलंकारप्रियता या चमत्कार प्रदर्शन इस काल की तीसरी विशेषता है।. रीतिकाल की प्रमुख साहित्यिक भाषा कौन सी हैं?रीतिकाल की मुख्य काव्यभाषा ब्रजभाषा के प्रयोग की व्यापकता और सीमा का ज्ञान । शास्त्रीयता के परिप्रेक्ष्य में भाषा - प्रयोग की कलात्मकता का ज्ञान । भाषिक चमत्कार तथा ऊहात्मक प्रयोग की जानकारी ।
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