प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का निहित भाव क्या है? - prastut gadyaansh mein lekhak ka nihit bhaav kya hai?

यूपी बोर्ड कक्षा 12 हिंदी राष्ट्र का स्वरूप गद्यांश पर आधारित प्रश्न उत्तर – कक्षा 12 हिंदी राष्ट्र का स्वरूप – UP Board class 12th Hindi Rashtra ka Swaroop mahatvpurn gadyansh

इस पोस्ट को मैंने यूपी बोर्ड कक्षा 12वीं सामान्य हिंदी के गद्यांश अध्याय 1 राष्ट्र के स्वरूप के सभी महत्वपूर्ण गद्यांश को बताया है यह गद्यांश पिछले साल यूपी बोर्ड परीक्षा में पूछे गए हैं अगर आप इन गद्यांशों को तैयार कर लेते हैं तो आप 10 नंबर आसानी से पा सकेंगे क्योंकि यूपी बोर्ड कक्षा 12वीं हिंदी के पेपर में राष्ट्र के स्वरूप  से 10 अंकों का गद्यांश बोर्ड परीक्षा में पूछ लिया जाता है इसलिए आप यहां पर बताए गए कक्षा बारहवीं हिंदी राष्ट्र के स्वरूपके सभी महत्वपूर्ण गद्यांशो को जरूर तैयार कर ले |

प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का निहित भाव क्या है? - prastut gadyaansh mein lekhak ka nihit bhaav kya hai?

कक्षा 12 हिंदी राष्ट्र का स्वरूप –

1. भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनन्तकाल से है। उसके भौतिक रूप, सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आवश्यक कर्त्तव्य है। भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे, उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी। यह पृथिवी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है। जो राष्ट्रीयता पृथिवी के साथ नहीं जुड़ी, वह निर्मूल होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथिवी में जितनी गहरी होंगी, उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा।इसलिए पृथिवी के भौतिक स्वरूप की आद्योपांत जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा को पहचानना आवश्यक धर्म है!    (2010,2015,2020,2022)(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए ।

उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी गद्य भाग में संकलित ‘राष्ट्र के स्वरूप’ शीर्षक से लिया गया है जिसके लेखक डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल जी हैं |

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए

उत्तर- डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार राष्ट्रीयता और पृथिवी का सम्बन्ध अटूट और अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसलिए पृथिवी के साथ राष्ट्रीयता का सम्बन्ध अथवा आधार जितना अधिक मजबूत होगा, उतना ही अधिक राष्ट्रीय भावनाओं का विकास भी सम्भव होगा। इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति का यह परम आवश्यक कर्तव्य एवं धर्म है कि वह पृथिवी के भौतिक स्वरूप से पूरी तरह से परिचित रहे। साथ ही उसके सौन्दर्य, उपयोगिता एवं महत्त्व की भी अधिकाधिक जानकारी रखे।

(iii) राष्ट्रभूमि के प्रति हमारा आवश्यक कर्त्तव्य क्या है ?

उत्तर- राष्ट्रभूमि के प्रति हमारा आवश्यक कर्त्तव्य यह है कि हम अपनी इस भूमि के रूप, सुन्दरता और समृद्धि के प्रति सचेत रहें और किसी भी दशा में इस भूमि के रूप एवं सौन्दर्य आदि को विकृत न होने दें।

(iv) किस प्रकार की राष्ट्रीयता को लेखक ने निर्मूल कहा है?

उत्तर-  लेखक के अनुसार जो राष्ट्रीयता पृथिवी के साथ नहीं जुड़ी होती, वह निर्मूल होती है।

(v) यह पृथिवी सच्चे अर्थों में क्या है ?

उत्तर- यह पृथिवी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है।

(vi) भूमि का निर्माण किसने किया है और कब से ?

उत्तर-  भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनन्तकाल से है।

(vii) भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति जागरूक रहने का क्या परिणाम होगा ?

उत्तर-  भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे,हमारी राष्ट्रयता भी उतनी ही अधिक बलवती हो सकेगी।

2. माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथिवी पर बसने वाले जन बराबर हैं। उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृभूमि के उदय के साथ जुड़ा हुआ है, वह समान अधिकार का भागी है। पृथिवी पर निवास करने वाले जनों का विस्तार अनन्त है – नगर और जनपद, पुर और गाँव, जंगल और पर्वत नाना प्रकार के जनों से भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले और अनेक धर्मों को मानने वाले हैं. फिर भी ये मातृभूमि के पुत्र हैं और इस प्रकार उनका सौहार्द भाव अखंड है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक-दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनका जो सम्बन्ध है, उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथिवी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिए समान क्षेत्र हैं। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है। किसी जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। अतएव राष्ट्र के प्रत्येक अंग की सुध हमें लेनी होगी। (2010,2017,2021,2022)(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।

उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी गद्य भाग में संकलित ‘राष्ट्र के स्वरूप’ शीर्षक से लिया गया है जिसके लेखक डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल जी हैं |

(ii) पुत्र को समान भाव से कौन रखती है ?

उत्तर- पुत्र को समान भाव से पृथ्वी माता रखती हैं।

(iii) समान अधिकार का भागी कौन है?

उत्तर-  इस पृथ्वी पर निवास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति पृथ्वी पर अपने जन्म के समय से ही समान अधिकार का भागी है।

(iv) पृथ्वी पर किसका विस्तार अनन्त है ?

उत्तर- इस पृथ्वी पर निवास करने वाले व्यक्तियों का विस्तार अनन्त है। वे इस विस्तृत भूमि पर अरबों की संख्या में बसे हुए हैं।

(v) ‘अनन्त’ और ‘जनपद’ शब्द का अर्थ लिखिए।

उत्तर – ‘अनन्त’ का आशय है- ‘जिसका अन्त न हो’ अथवा ‘अन्तहीन’ | ‘जनपद’ जिले को कहा जाता है।

(vi) माता अपने सब पुत्रों को किस भाव से चाहती है ?

उत्तर- माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है।

(vii) राष्ट्र के प्रत्येक अंग की सुध हमे क्यों लेनी चाहिए।

उत्तर- राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति की सुध अर्थात् प्रत्येक सम्प्रदाय, जाति, वर्ग या किसी भी भू-भाग के व्यक्ति का ध्यान हमें इसलिए रखना चाहिए, क्योंकि किसी को भी पिछड़ी अवस्था में छोड़कर कोई राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता।

(viii) ‘सोहार्द’ और ‘प्रांगण’ शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- ‘सौहार्द’ का अर्थ मनुष्य की उस सद्भावना से है, जिसमें परस्पर सहयोग, प्रेम, सहानुभूति और बंधुता के भाव निहित हो। ‘प्रांगण’ शब्द का अर्थ धरती का आँगन, अर्थात् उसका विशाल और विस्तृत भू-भाग है।

(ix) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- मातृभूमि का विस्तार अनन्त है। यहाँ दूर-दूर तक मैदान, जंगल, पर्वत, नदी, समुद्र आदि का विस्तार देखने को मिलता है। इस विस्तृत पृथ्वी पर अथवा नदियों और समुद्रों के तटों पर, पर्वतों या बर्फीले स्थानों पर सब जगह मानव के निवास स्थान हैं। अनेक गाँव, कस्बे, नगर और जिले मानव-जन की आबादी से भरे पड़े , हैं। इस प्रकार इस अन्तहीन पृथ्वी के समान इस पर निवास करने वाले लोगों का विस्तार भी अनन्त है।

3. धरती माता की कोख में जो अमूल्य निधियों भरी हैं जिनके कारण वह वसुंधरा कहलाती है उससे कौन परिचित न होना चाहेगा? लाखों-करोड़ों वर्षों से अनेक प्रकार की धातुओं को पृथिवी के गर्भ में पोषण मिला है। दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों कोपीस पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथिवी की देह को सजाया है। हमारे भावी आर्थिक अभ्युदय के लिए इन सबकी जाँच-पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है। पृथिवी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कुशल शिल्पियों से संवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। नाना भाँति के अनगढ़ नग विन्ध्य की नदियों के प्रवाह में सूर्य की धूप से चिलकते रहते हैं, उनको जब चतुर कारीगर पहलदार कटाव पर लाते हैं तब उनके प्रत्येक घाट से नयी शोभा और सुन्दरता फूट पड़ती है। वे अनमोल हो जाते हैं। देश के नर-नारियों के रूप-मंडन और सौन्दर्य-प्रसाधन में इन छोटे पत्थरों का भी सदा से कितना भाग रहा है; अतएव हमें उनका ज्ञान होना भी आवश्यक है। (2012,2013,2020,2022)(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।

उत्तर-  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी गद्य भाग में संकलित ‘राष्ट्र के स्वरूप’ शीर्षक से लिया गया है जिसके लेखक डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल जी हैं |

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए

उत्तर- विद्वान् लेखक ने कहा है कि धरने माता की कोख में अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। इन्हीं रत्नों के कारण पृथ्व का एक नाम वसुन्धरा (वसुओं रत्नों को धारण करने वाली) भी है। बहुमूल्य रत्न, धातुएँ व खनिज पदार्थ, अन्न, फल, जल और इस प्रकार की असंख्य अनमोल वस्तुओं, जिन्हें भूमि अपने आँचल में छिपाये रहती है, से हमारा प्रगाढ़ परिचय होना ही चाहिए।

(iii) दिन-रात बहने वाली नदियों ने किस प्रकार से पृथिवी की देह को सजाया है ?

उत्तर- दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथिवी की देह को सजाया है।

(iv) पृथिवी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कैसे सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं?

उत्तर- पृथिवी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कुशल शिल्पियों के सँवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं।

(v) लेखक ने हमें किनके योगदान के बारे में बताते हुए उनसे परिचित होने की प्रेरणा दी है ?

उत्तर- लेखक ने हमें छोटे-छोटे पत्थरों के योगदान के बारे में बताते हुए उन अमूल्य निधियों से परिचित होने की प्रेरणा दी है।

(vi) अमूल्य निधियाँ कहाँ भरी हैं ?

उत्तर- अमूल्य निधियों धरती माता की कोख में भरी है।

(vii) पृथ्वी को ‘वसुंधरा’ क्यों कहते हैं?

उत्तर- पृथिवी को वसुंधरा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि पृथिवी में विभिन्न प्रकार की मूल्यवान निधियाँ (वस्तुएँ) भरी हुई हैं।

(viii) पृथ्वी की देह को किसने सजाया है?

उत्तर- पृथिवी की देह को इस पर दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस पीसकर और असंख्य प्रकार की मिट्टियों से सजाया है।

4.  जन का प्रवाह अनन्त होता है। सहस्त्रों वर्षों से भूमि के साथ राष्ट्रीय जन ने तादात्म्य प्राप्त किया है। जब तक सूर्य की रश्मियाँ नित्य प्रातः काल भुवन को अमृत से भर देती हैं, तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर है। इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव पार करने के बाद भी राष्ट्र निवासी जन नई उठती लहरों से आगे बढ़ने के लिए अजर-अमर हैं। जन का संततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक घातों का निर्माण करना होता है।(2012, 15, 20,22)(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।

उत्तर-  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी गद्य भाग में संकलित ‘राष्ट्र के स्वरूप’ शीर्षक से लिया गया है जिसके लेखक डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल जी हैं।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- लेखक के अनुसार जब तक धरती पर सूर्य की रश्मियाँ प्रतिदिन धरती को अपने अमृत रस से जीवन प्रदान करती रहेंगी, तभी तक किसी राष्ट्र और वहाँ के जन का अस्तित्व भी बना रहेगा। जब तक राष्ट्र की प्रगति के फलस्वरूप उसका अस्तित्व रहेगा, तभी तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी बना रहेगा।

(iii) ‘जन का प्रवाह’ से क्या तात्पर्य है ?

उत्तर- ”जन का प्रवाह’ का तात्पर्य यह है कि जन का प्रवाह अन्तहीन होता है। प्रत्येक राष्ट्र में निरन्तर अनेक प्रकोर के परिवर्तन आते रहते हैं। इसके उपरान्त भी राष्ट्र के निवासियों की श्रृंखला निरन्तर अबाध गति से चलती रहती है।

(iv) राष्ट्र निवासी जन किसके समान आगे बढ़ने के लिए अजर-अमर हैं ?

उत्तर- हमारे राष्ट्र के इतिहास में उत्थान और पतन के अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं, परन्तु नदी की नई उठती लहरों के समान हमारे राष्ट्र के निवासियों को सतत् रूप से आगे बढ़ते रहने के लिए अनेक नवीन शक्तियाँ प्राप्त होती रही हैं। इनकी सहायता से वे पूरे उत्साह के साथ प्रगति करते रहे हैं और इस प्रकार सदैव से ही उनका अस्तित्व बना रहा है।

(v) उत्थान के घाटों का निर्माण कैसे होगा?

उत्तर- नदी का प्रवाह निरन्तर प्रवाहित रहने के कारण बीच-बीच में डेल्टा छोड़ता जाता है। इसी प्रकार राष्ट्र के जन भी अपने कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक प्रतीक अवशेष अथवा पदचिह्न छोड़ते हुए निरन्तर आगे बढ़ते जाएँगे।

(vi) राष्ट्रीय जन ने किसके साथ तादात्म्य प्राप्त किया है?

उत्तर- राष्ट्रीय जन ने हजारों वर्षों से भूमि को अपनी माता के समान मानकर उसके साथ अपना तादात्म्य बनाए रखा है।

(vii) राष्ट्रीय जन का जीवन भी कब तक अमर है?

उत्तर- राष्ट्रीय जन का जीवन भी तब तक अमर है, जब तक सूर्य की रश्मियाँ धरती पर पड़ती रहेगी और समस्त प्रकृति एवं जीवों के लिए जीवनदायी अथवा अमृत के समान सिद्ध होती रहेंगी।

5. साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद, अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनंद-भाव है, वह इन विविध रूपों में साकार होता है। यद्यपि बाह्य रूप की दृष्टि से संस्कृति के ये बाहरी लक्षण अनेक दिखायी पड़ते हैं, किन्तु आन्तरिक आनंद की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। जो व्यक्ति सह्रदय है, वह प्रत्येक संस्कृति के आनंद-पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनंदित होता है। इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यकर है। (2015,2018,2019,2020)(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।

उत्तर-  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी गद्य भाग में संकलित ‘राष्ट्र के स्वरूप’ शीर्षक से लिया गया है जिसके लेखक डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल जी हैं।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- लेखक कहते हैं कि एक ही राष्ट्र के भीतर अनेकानेक उपसंस्कृतियाँ फलती-फूलती हैं। इन संस्कृतियों के अनुयायी नाना प्रकार के आमोद-प्रमोदों में अपने हृदय के उल्लास को प्रकट किया करते हैं। साहित्य, कला, नृत्य, गीत इत्यादि संस्कृति के विविध अंग हैं। इनका प्रस्तुतीकरण उस आनन्द की भावना को व्यक्त करने के लिए किया जाता है, जो सम्पूर्ण विश्व की आत्माओं में विद्यमान है।

(iii) किन रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं?

उत्तर- साहित्य, कला, नृत्य, आमोद-प्रमोद, अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं।

(iv) सहृदय व्यक्ति किसको स्वीकार करते हुए आनंदित होता है ?

उत्तर- सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के आनन्द-पक्ष को स्वीकार करते हुए उससे आनन्दित होता है।

(v) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने राष्ट्र के किस स्वरूप पर प्रकाश डाला है?

उत्तर- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने विविध संस्कृति वाले राष्ट्र की एकसूत्रता और उसके एकीकृत स्वरूप पर प्रकाश डाला है।

(vi) प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को कौन स्वीकार करता है?

उत्तर- सहृदय व्यक्ति ही प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को स्वीकार करता

(vii) ‘विश्वव्यापी’ और ‘आंतरिक आनन्द’ का क्या अर्थ है ?

उत्तर- ‘विश्वव्यापी’ का अर्थ है— जो समस्त संसार में किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है। ‘आंतरिक आनन्द’ वह है, जिसकी अनुभूति हमें अपने मन में होती है।

6. राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबंधमात्र है: संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरम में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। (2014,2015,2021,2022)(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।

उत्तर-  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी गद्य भाग में संकलित ‘राष्ट्र के स्वरूप’ शीर्षक से लिया गया है जिसके लेखक डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल जी हैं।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- वास्तव में संस्कृति मनुष्य का मस्तिष्क है और मनुष्य के जीवन में मस्तिष्क सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है,क्योंकि मानव शरीर का संचालन और नियन्त्रण उसी से होता है। जिस प्रकार से मस्तिष्क से रहित धड़ को व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। अर्थात् मस्तिष्क के बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार संस्कृति के बिना भी मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसलिए संस्कृति के विकास और उसकी उन्नति में ही किसी राष्ट्र का विकास, उन्नति और समृद्धि निहित है।

(iii) राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ किसका महत्त्वपूर्ण स्थान है?

अथवा भूमि और जन के अतिरिक्त राष्ट्र में और क्या महत्त्वपूर्ण है?

उत्तर- राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(iv) संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में क्या अन्तर्निहित है ?

उत्तर- संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है।

(v) राष्ट्र की वृद्धि कैसे सम्भव है?

उत्तर- संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है।