हरित क्रांति के फलस्वरूप किस फसल की पैदावार सर्वाधिक बड़ी - harit kraanti ke phalasvaroop kis phasal kee paidaavaar sarvaadhik badee

Agriculture

कैसे आई हरित क्रांति?

पहले वर्ल्ड एग्रीकल्चर प्राइज से सम्मानित एमएस स्वामीनाथन हरित क्रांति के बीजाराेपण की कहानी बता रहे हैं

By M S Swaminathan
Published: Friday 26 October 2018

हरित क्रांति के फलस्वरूप किस फसल की पैदावार सर्वाधिक बड़ी - harit kraanti ke phalasvaroop kis phasal kee paidaavaar sarvaadhik badee
हरित क्रांति का अर्थ ऐसी स्थिति से है, जब अधिक उत्पादकता के जरिये उत्पादन में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया जाए। Credit: Getty Images

हरित क्रांति के फलस्वरूप किस फसल की पैदावार सर्वाधिक बड़ी - harit kraanti ke phalasvaroop kis phasal kee paidaavaar sarvaadhik badee

देश के जाने-माने कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को 26 अक्टूबर को दिल्ली के विज्ञान भवन में पहले वर्ल्ड एग्रीकल्चर प्राइज से नवाजा जा रहा है। इंडियन काउंसिल ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर (आईसीएफए) द्वारा दिया जाने वाला यह पुरस्कार कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए मिलता है। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू उन्हें यह पुरस्कार प्रदान करेंगे। पुरस्कार राशि के रूप में उन्हें एक लाख डॉलर की नगद राशि भेंट की जाएगी। 

एमएस स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक माना जाता है जिसने भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया था। स्वामीनाथन डाउन टू अर्थ पत्रिका में नियमित लिखते रहे हैं। डाउन टू अर्थ हिंदी के फरवरी 2017 की आवरण कथा में उन्होंने विस्तार से बताया था कि आखिर हरित क्रांति के जरिए आत्मनिर्भरता के बीज कैसे पड़े थे। पाठक स्वामीनाथन का वह लेख यहां पढ़ सकते हैं-

सन 1947 में देश को आजादी मिलने से पहले बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था, जिसमें बीस लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। इसलिए देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर कार्यभार संभालने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने उचित ही कहा,“बाकी सभी चीजों के लिए इंतजार किया जा सकता है, लेकिन कृषि के लिए नहीं।” तब हमारी आबादी 30 करोड़ से कुछ अधिक यानी सवा सौ करोड़ की वर्तमान आबादी का करीब 25 फीसदी थी। सन 1947 में किसी शादी-ब्याह में 30 से ज्यादा लोगों को नहीं खिलाया जा सकता था, जबकि आज तो जितना पैसा हो, उतने लोगों को दावत दी जा सकती है। पचास और साठ के दशक में हावी रही ‘शिप टू माउथ’ स्थिति के मुकाबले आज सरकारी गोदामों में करीब 5 करोड़ टन गेहूं और चावल का भंडार है। सवाल उठाता है, यह बदलाव आया कैसे?

अरस्तु के शब्दों में, “मिट्टी ही पौधे का पेट है।” 1947 में हमारी जमीन भूखी भी थी और प्यासी भी। उस समय खेती के मुश्किल से 10 फीसदी क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा थी और नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटेशियम (एनपीके) उर्वरकों का औसत इस्तेमाल एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था। गेहूं और धान की औसत पैदावार आठ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास थी। खनिज उर्वरकों का उपयोग ज्यादातर रोपण फसलों में किया जाता था। खाद्यान्न फसलों में किसान जितनी भी देसी खाद जुटा पाते थे, डाल देते थे। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं (1950-60) में सिंचित क्षेत्र के विस्तार व उर्वरकों का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया। पचास के दशक में वैज्ञानिकों ने धान और गेहूं की किस्मों पर उर्वरकों के असर को जानने के लिए प्रयोग करने शुरू कर दिए थे। उस समय बोयी जानी वाली किस्में लंबी और पतली पयाल वाली होती थीं। थोड़ा भी उर्वरक डालने से फसल गिर जाती थी। जल्द ही साफ हो गया कि खाद-पानी का फायदा उठाने के लिए हमें बौनी और कड़े पयाल वाली किस्मों की जरूरत है।

यही वजह थी कि प्रख्यात धान वैज्ञानिक के. रमैया ने 1950 में सुझाव दिया कि हमें जापान से लाई गई धान की किस्‍मों को अपनी देसी किस्‍मों के साथ मिलाना चाहिए। क्योंकि उस समय धान की जापानी किस्‍में प्रति हेक्टेयर पांच टन से भी ज्यादा पैदावार देती थीं, जबकि हमारी किस्मों की पैदावार एक से दो टन प्रति हेक्टेयर थी। इस तरह पचास के दशक की शुरुआत में कटक के सेंट्रल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में भारत-जापान धान संकरण कार्यक्रम की शुरुआत हुई। सन 1954 में थोड़े समय के लिए मैं भी इस कार्यक्रम से जुड़ा रहा। लेकिन साठ के दशक में फिलीपींस के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट और ताइवान से धान की अर्ध-बौनी किस्में विकसित करने के लिए जीन उपलब्ध होने के बाद यह कार्यक्रम अपनी प्राथमिकता खो बैठा।

कामयाबी

दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी वैज्ञानिक जापान में कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय खोजों की जांच-पड़ताल में लगे थे। सोलोमन नाम के एक जीव विज्ञानी, नोरीन एक्सपेरिमेंट स्टेशन में गोंजिरो इनाजुका द्वारा विकसित गेहूं की अर्ध-बौनी किस्‍म देखकर मंत्रमुग्ध हो गए थे। यह किस्म छोटी और मजबूत पयाल वाली थी, लेकिन पुष्प-गुच्छ लंबे होने से ज्यादा पैदावार की क्षमता रखती थी। सोलोमन ने नोरीन गेहूं के बीज वाशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के ओरविले वोगल को दिए जिन्होंने शीतकालीन गेहूं की अर्ध-बौनी गेंस किस्म विकसित की थी, जिसमें प्रति हेक्टेयर 10 टन से ज्यादा पैदावार की क्षमता थी।

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उस समय मैक्सिको में काम कर रहे नॉर्मन बोरलॉग ने ओरविले वोगल से कुछ बीज लिए, जिनमें नोरीन के बौने गेहूं वाले जीन मौजूद थे। इस तरह बोरलॉग ने मैक्सिको के प्रसिद्ध ‘बौना गेहूं प्रजनन कार्यक्रम’ की शुरुआत की। अमेिरका के शीतकालीन गेहूं हमारी जलवायु में अच्छा परिणाम नहीं देते हैं। जबकि बोरलॉग की सामग्री हमारे रबी सीजन के लिए उपयुक्त थी। इसलिए सन 1959 में मैंने बोरलॉग से संपर्क किया और उनसे अर्ध-बौने गेहूं की प्रजनन सामग्री देने को कहा। लेकिन वे पहले हमारी खेती की दशाओं को देखना चाहते थे। उनका भारत दौरा मार्च, 1963 में संभव हो पाया। उसी साल रबी सीजन में हमने उनकी सामग्री का उत्तर भारत में कई जगहों पर परीक्षण किया। इन परीक्षणों से हमें पता चला कि मैक्सिको मूल के अर्ध बौने गेहूं प्रति हेक्टेयर 4 से 5 टन पैदावार दे सकते हैं, जबकि हमारी लंबी किस्में करीब दो टन पैदावार देती थीं। खेती की तकदीर बदलने का सामान हमें मिल चुका था!

जुलाई 1964 में जब सी. सुब्रह्मण्यम देश के खाद्य एवं कृषि मंत्री बने तो उन्होंने सिंचाई और खनिज उर्वरकों के साथ-साथ ज्यादा पैदावार वाली किस्मों के विस्तार को अपना भरपूर समर्थन दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मैक्सिको से गेहूं के बीजों के आयात की मंजूरी दी और इसे ‘समय की मांग’ करार दिया। इन सभी प्रयासों के चलते बौने गेहूं का क्षेत्र 1964 में महज 4 हेक्टेयर से बढ़कर 1970 में 40 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया। सन 1968 में हमारे किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया, जबकि इससे पहले सर्वाधिक 120 लाख टन उत्पादन 1964 में हुआ था। पैदावार और उत्पादन में आए इस उछाल को देखते हुए जुलाई, 1968 में इंदिरा गांधी ने गेहूं क्रांति के आगाज का ऐलान कर दिया।

गेहूं और धान की पैदावार में बढ़ोतरी के साथ-साथ हमारे वैज्ञानिकों ने रॉकफेलर फाउंडेशन के साथ मिलकर मक्का, ज्वार और बाजरे की संकर किस्में तैयार कीं, जिन्होंने इन फसलों की पैदावार और उत्पादन में बढ़ोतरी के नए रास्ते खोल दिए। इसी से प्रेरित होकर भारत सरकार ने 1967 में गेहूं, धान, मक्का, बाजरा और ज्वार में उच्च उपज वाली किस्मों का कार्यक्रम शुरू किया। स्वतंत्र भारत में पहली बार किसानों में पैदावार को लेकर जागरूकता आई। परिणाम यह हुआ कि किसानों ने ऐसा क्लब बनाया, जिसका सदस्य बनने के लिए खाद्यान्न का न्यूनतम निर्धारित उत्पादन करना जरूरी होता था। अक्टूबर, 1968 में अमेरिका के विलियम गुआड ने खाद्य फसलों की पैदावार में हमारी इस क्रांतिकारी प्रगति को ‘हरित क्रांति’ का नाम दिया।

हरित क्रांति का अर्थ ऐसी स्थिति से है, जब अधिक उत्पादकता के जरिये उत्पादन में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया जाए। हरित क्रांति के लिए सरकारी नीतियों, नई तकनीक, सेवाओं और किसानों के उत्साह के बीच समन्वय होना जरूरी है। हमारे किसानों, खासकर पंजाब के किसानों ने एक छोटे से सरकारी कार्यक्रम को जन आंदोलन में बदल दिया था। उनका उत्साह हरित क्रांति का प्रतीक बन गया।

खनिज उर्वरकों और रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के जरिये पैदावार बढ़ाने वाली तकनीक पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है, इस आधार पर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हरित क्रांति की आलोचना की थी। इसी तरह कुछ अर्थशास्त्रियों को लगा कि छोटे व सीमांत किसान नई तकनीक से अछूते रह जाएंगे। यही कारण था कि मैंने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर पैदावार में निरंतर वृद्धि पर जोर देने के लिए ‘एवरग्रीन रेवलूशन’ यानी ‘सदाबहार क्रांति’ की बात कही थी।

भविष्य की ओर देखें तो भारतीय कृषि की स्वर्णिम संभावना उत्पादन में वृद्धि की भारी गुंजाइश पर टिकी हैं। उदाहरण के तौर पर, फिलहाल चीन में खाद्यान्न की पैदावार 5,332 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि भारत में यह 1,909 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इस भारी अंतर को पाटने के लिए तुरंत एक अभियान छिड़ना चाहिए। पर्यावरण और अर्थव्यवस्था भारतीय कृषि की चुनौतियां हैं। भूजल के अत्यधिक दोहन और खारापन बढ़ने की वजह से हरित क्रांति के गढ़ रहे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी आज भीषण पर्यावरण संकट झेल रहे हैं। अगर ग्लोबल वार्मिंग की वजह से औसत तापमान 1 से 2 ड‍िग्री° सेल्सियस बढ़ता है तो उससे भी यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। पर्यावरण के खतरों से निपटने में जलवायु अनुरूप खेती कारगर साबित होगी।

चुनौती  

आज भी ग्रामीण भारत में 70 फीसदी आबादी 35 साल से कम उम्र के महिला-पुरुषों की है। एनएसएसओ का सर्वे बताता है कि अगर आजीविका को कोई दूसरा जरिया हो तो 45 फीसदी किसान खेती छोड़ना पसंद करेंगे। नौजवानों को खेती की तरफ आकर्षित करना और उन्हें खेती में रोके रखना एक बड़ी चुनौती बना गया है। यही वजह है कि कृषि में तकनीकी सुधार और आजीविका के विभिन्न साधनों की अहमियत बढ़ जाती है। हमें खेती को आर्थिक रूप से फायदेमंद बनाना ही होगा। इसके ल‍िए हमारे परंपरागत ज्ञान और पर्यावरण चेतना को जैव प्रौद्योगिकी, सूचना एवं संचार की अग्रणी तकनीकों से जोड़ने की आवश्यकता है।

हमें खेतीहर परिवारों में जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से निपटने की क्षमता भी बढ़ानी होगी। इसके लिए पंचायत के कम से कम एक महिला और एक पुरुष सदस्य को जलवायु जोखि‍म प्रबंधनकों के तौर पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। जलवायु प्रबंधन की कला एवं विज्ञान से वे अच्छी तरह वाकिफ होने चाहिए। छोटे कृषि मौसम विज्ञान स्टेशनों के राष्ट्रीय ग्रिड के जरिये ‘सबके लिए मौसम की जानकारी’ का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

कुल मिलाकर भारतीय कृषि एक चौराहे पर है। वर्ष 2050 तक हमारी आबादी 1.75 करोड़ तक पहुंच जाएगी। तब प्रति व्यक्ति कृषि भूमि 0.089 हेक्टेयर होगी और प्रति व्यक्ति ताजे पानी की सालाना आपूर्ति 1190 घन मीटर रहेगी। हमारा खाद्यान्न उत्पादन दोगुना होना ही चाहिए जबकि सिंचाई का दायरा वर्तमान 6 करोड़ हेक्टेयर से बढ़कर साल 2050 तक 11.4 करोड़ हेक्टेयर तक बढ़ना चाहिए। खराब होती मृदा में भी सुधार जरूरी है। सवाल यही है कि सबके लिए पर्याप्त अन्न पैदा करने के ल‍िए हम अपनी आबादी और क्षमताओं के बीच कैसे तालमेल बैठा पाते हैं?

(लेखक जाने-माने कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के पुरोधा माने जाते हैं)

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भारत में कौन सी फसल ज्यादा पैदावार के लिए हरित क्रांति से संबंधित थी?

भारत में हरित क्रांति मोटे तौर पर गेहूंँ क्रांति है क्योंकि वर्ष 1967-68 और वर्ष 2003-04 के मध्य गेहूंँ के उत्पादन में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई, जबकि अनाजों के उत्पादन में कुल वृद्धि केवल दो गुना थी

हरित क्रांति की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है?

हरित क्रांति की उपलब्धियां हैं : गेहूं और चावल के लिए उच्च उपज वाले विभिन्न बीजों के उपयोग के माध्यम से खाद्यान्नों के उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि लाई गई। बाजार में खाद्यान्न का एक अनुपात बेचा गया, जिससे अन्य उपभोग की तुलना में खाद्यान्न के मूल्य स्तर में गिरावट आई। निम्न आय समूहों को दिए गए मूल्य स्तर से लाभ हुआ।

हरित क्रांति का जनक देश कौन सा है?

नॉर्मन बोरलॉग को विश्व में हरित क्रांति के जनक के रूप में जाना जाता है और उन्हें वर्ष 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। हरित क्रांति का जन्मस्थान और कब्रगाह मेक्सिको है क्योंकि नॉर्मन बोरलॉग मेक्सिको के मूल निवासी थे। भारत में, डॉ एम एस स्वामीनाथन को हरित क्रांति के पिता के रूप में जाना जाता है।

हरित क्रांति का उत्प्रेरक कौन है?

डॉक्टर एम. एस. स्वामीनाथन भारत के मशहूर कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के जनक हैं. एम. एस. स्वामीनाथन जन्‍म 7 अगस्‍त, 1925 को हुआ था.