भावार्थ : संजय ने कहा - इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरे हुए व्याकुल नेत्रों वाले, शोकग्रस्त अर्जुन को देखकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह शब्द कहे। (१) श्रीभगवानुवाच Show भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस विपरीत स्थिति पर तेरे मन में यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ? न तो इसका जीवन के मूल्यों को जानने वाले मनुष्यों द्वारा आचरण किया गया है, और न ही इससे स्वर्ग की और न ही यश की प्राप्ति होती है। (२) क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू नपुंसकता को प्राप्त मत हो, यह तुझे शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो। (३) अर्जुन उवाच भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! हे शत्रुहन्ता! मैं युद्धभूमि में किस प्रकार भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे पूज्यनीय व्यक्तियों पर बाण कैसे चलाऊँगा? (४) गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । भावार्थ : ऎसे महापुरुषों को जो कि मेरे गुरु हैं, इन्हे मार कर जीने की अपेक्षा मैं इस संसार में भिक्षा माँग कर खाना श्रेयस्कर समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मार कर भी तो इस संसार में खून से सने हुए सुख रूप भोग ही तो भोगने को मिलेंगे। (५) न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः । भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना, और यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे ही जीतेंगे, धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हम जीना भी नहीं चाहते, फ़िर भी वे हमारे सामने युद्ध-भूमि में खड़े हैं। (६) कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । भावार्थ : कृपण और दुर्बल स्वभाव के कारण अपने कर्तव्य के विषय में मोहित हुआ, मैं आपसे पूछता हूँ कि वह साधन जो मेरे लिये श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित करके कहिए, अब मैं आपका शिष्य हूँ, और आपके शरणागत हूँ, कृपया मुझे उपदेश दीजिये। (७) न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । भावार्थ : मुझे ऎसा कोई साधन नही दिखता जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके, स्वर्ग में धनधान्य-सम्पन्न देवताओं के सर्वोच्च इन्द्र-पद और पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य को प्राप्त करके भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ। (८) संजय उवाच भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! निद्रा को जीतने वाला अर्जुन ने इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण से कहा "हे गोविंद मैं युद्ध नहीं करूँगा" और चुप हो गया। (९) तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । भावार्थ : हे भरतवंशी! इस समय दोनों सेनाओं के बीच शोक-ग्रस्त अर्जुन से इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने हँसते हुए से यह शब्द कहे। (१०) (सांख्ययोग का विषय) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! तू उनके लिये शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं है और पण्डितों की तरह बातें करता है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिये और न ही मृत प्राणी के लिये शोक करते। (११) न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । भावार्थ : ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। (१२) देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । भावार्थ : जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। (१३) मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! सुख-दुःख को देने वाले विषयों के क्षणिक संयोग तो केवल इन्द्रिय-बोध से उत्पन्न होने वाले सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के समान आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भरतवंशी! तू अविचल भाव से उनको सहन करने का प्रयत्न कर। (१४) यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । भावार्थ : हे पुरुष श्रेष्ठ! जो मनुष्य दुःख तथा सुख में कभी विचलित नहीं होता है, दोनों परिस्थितियों में सम-भाव रखता है, ऎसा धीर-पुरुष निश्चित रुप से मुक्ति के योग्य होता है। (१५) नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । भावार्थ : तत्वदर्शीयों के द्वारा निष्कर्ष निकाल कर देखा गया है कि असत् वस्तु (शरीर) का कोई अस्तित्व नहीं होता है और सत् वस्तु (आत्मा) में कोई परिवर्तन नही होता है। (१६) अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । भावार्थ : जो सभी शरीरों में व्याप्त है उस आत्मा को ही तू अविनाशी समझ, इसको नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। (१७) अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । भावार्थ : इस अविनाशी, अमाप, नित्य-स्वरूप आत्मा के ये सब शरीर नष्ट होने वाले हैं, अत: हे भरतवंशी! तू युद्ध कर। (१८) य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । भावार्थ : जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी है, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है। (१९) न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेता है और न मरता है और न ही जन्म लेगा, यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जा सकता है। (२०) वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह मनुष्य किसी को कैसे मार सकता है या किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है? (२१) वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को धारण करता है। (२२) नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । भावार्थ : यह आत्मा न तो शस्त्र द्वारा काटा सकता है, न ही आग के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। (२३) अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । भावार्थ : यह आत्मा न तो तोडा़ जा सकता है, न ही जलाया जा सकता है, न इसे घुलाया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है, यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है। (२४) अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । भावार्थ : यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय, और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, इस प्रकार आत्मा को अच्छी तरह जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है। (२५) अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् । भावार्थ : हे महाबाहु! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है। (२६) जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । भावार्थ : जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है। (२७) अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । भावार्थ : हे भरतवंशी! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते है और मरने के बाद भी अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही इन्हे देखा जा सकता हैं, अत: शोक करने की कोई आवश्यकता नही है? (२८) आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । भावार्थ : कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई-कोई तो इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाता है। (२९) देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । भावार्थ : हे भरतवंशी! इस आत्मा का शरीर में कभी वध नहीं किया जा सकता है, अत: तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। (३०) (धर्म के अनुसार युद्ध का निरूपण) भावार्थ : हे अर्जुन! क्षत्रिय होने के कारण अपने धर्म का विचार करके भी तू संकोच करने योग्य नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म के लिये युद्ध करने के अलावा अन्य कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं है। (३१) यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् । भावार्थ : हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यवान है जिन्हे ऎसॆ युद्ध के अवसर अपने-आप प्राप्त होते है जिससे उनके लिये स्वर्ग के द्वार खुल जाते है। (३२) अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि । भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्म के लिये युद्ध नहीं करेगा तो अपनी कीर्ति को खोकर कर्तव्य-कर्म की उपेक्षा करने पर पाप को प्राप्त होगा। (३३) अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । भावार्थ : लोग सदैव तेरी बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है। (३४) भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । भावार्थ : जिन-जिन योद्धाओं की दृष्टि में तू पहले सम्मानित हुआ है, वे महारथी लोग तुझे डर के कारण युद्ध-भूमि से हटा हुआ समझ कर तुच्छ मानेंगे। (३५) अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । भावार्थ : तेरे शत्रु तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से कटु वचन भी कहेंगे, तेरे लिये इससे अधिक दु:खदायी और क्या हो सकता है? (३६) हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अत: तू दृढ-संकल्प करके खड़ा हो जा और युद्ध कर। (३७) सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । भावार्थ : सुख या दुख, हानि या लाभ और विजय या पराजय का विचार त्याग कर युद्ध करने के लिये ही युद्ध कर, ऎसा करने से तू पाप को प्राप्त नही होगा। (३८) (कर्मयोग का विषय) भावार्थ : हे पृथापुत्र! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान-योग (सांख्य-योग) के विषय में कही गई और अब तू इसको निष्काम कर्म-योग के विषय में सुन, जिससे तू इस बुद्धि से कर्म करेगा तो तू कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकेगा। (३९) यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते । भावार्थ : इस प्रकार कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और न ही फल-रूप दोष लगता है, अपितु इस निष्काम कर्म-योग की थोडी़-सी भी प्रगति जन्म-मृत्यु के महान भय से रक्षा करती है। (४०) व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । भावार्थ : हे कुरुनन्दन! इस निष्काम कर्म-योग में दृड़-प्रतिज्ञ बुद्धि एक ही होती है, किन्तु जो दृड़-प्रतिज्ञ नही है उनकी बुद्धि अनन्त शाखाओं में विभक्त रहती हैं। (४१) यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः । भावार्थ : हे पृथापुत्र! अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते है, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऎश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक सकाम कर्म-फ़ल की विविध क्रियाओं का वर्णन करते है, इन्द्रिय-तृप्ति और ऎश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण वे कहते है कि इससे वढ़कर और कुछ नही है। (४२-४३) भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् । भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है। (४४) त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । भावार्थ : हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन। (४५) यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । भावार्थ : सभी तरफ़ से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय के प्रति मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (४६) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में तेरी आसक्ति भी न हो। (४७) योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । भावार्थ : हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऎसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है। (४८) दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय । भावार्थ : हे धनंजय! इस समत्व बुद्धि-योग के द्वारा समस्त निन्दनीय कर्म से दूर रहकर उसी भाव से ऎसी चेतना (परमात्मा) की शरण-ग्रहण कर, सकाम कर्म के फलों को चाहने वाले मनुष्य अत्यन्त कंजूस होते है। (४९) बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । भावार्थ : समत्व बुद्धि-योग के द्वारा मनुष्य इसी जीवन में अपने-आप को पुण्य और पाप कर्मों से मुक्त कर लेता है। अत: तू इसी योग में लग जा, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य कुशलता-पूर्वक पूर्ण होते है। (५०) कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । भावार्थ : इस समत्व बुद्धि-योग से ऋषि-मुनि तथा भक्त सकाम-कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम-पद को प्राप्त हो जाते हैं। (५१) यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । भावार्थ : जिस समय में तेरी बुद्धि मोह रूपी दलदल को भली-भाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने योग्य सभी भोगों से विरक्ति को प्राप्त हो जाएगा। (५२) श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । भावार्थ : वेदिक ज्ञान के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जाएगी, तब तू आत्म-साक्षात्कार करके उस दिव्य चेतना रुप परमात्मा को प्राप्त हो जाएगा। (५३) (स्थिर-प्रज्ञ पुरुष के लक्षण) भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे केशव! अध्यात्म में लीन स्थिर-बुद्धि वाले मनुष्य का क्या लक्षण है? वह स्थिर-बुद्धि मनुष्य कैसे बोलता है, किस तरह बैठता है और किस प्रकार चलता है? (५४) श्रीभगवानुवाच भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा - हे पार्थ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय-तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं परित्याग कर देता है जब विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में ही सन्तोष प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य विशुद्ध चेतना में स्थित (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है। (५५) दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । भावार्थ : दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसका मन विचलित नहीं होता है, सुखों की प्राप्ति की इच्छा नही रखता है, जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त हैं, ऐसा स्थिर मन वाला मुनि कहा जाता है। (५६) यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । भावार्थ : इस संसार में जो मनुष्य न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर द्वेष करता है, ऎसी बुद्धि वाला पूर्ण ज्ञान मे स्थिर होता है। (५७) यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः । भावार्थ : जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में स्थिर होता है। (५८) विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । भावार्थ : इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति बनी रहती है, ऎसे स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके मिट जाती है। (५९) यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । भावार्थ : हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो मनुष्य इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बल-पूर्वक हर लेतीं है। (६०) तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वही मनुष्य स्थिर-बुद्धि वाला कहलाता है। (६१) ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । भावार्थ : इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। (६२) क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मरण-शक्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है। (६३) रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । भावार्थ : किन्तु सभी राग-द्वेष से मुक्त रहने वाला मनुष्य अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा मन को वश करके भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है। (६४) प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । भावार्थ : इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से सम्पूर्ण दुःखों का अन्त हो जाता है तब उस प्रसन्न-चित्त मन वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही एक परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है। (६५) नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । भावार्थ : जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती है उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही शान्ति प्राप्त होती है उस शान्ति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है? (६६) इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । भावार्थ : जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है। (६७) तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । भावार्थ : हे महाबाहु! जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है। (६८) या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । भावार्थ : जो सभी प्राणीयों के लिये रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिये जागने का समय होता है और जो समस्त प्राणीयों के लिये जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है। (६९) आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । भावार्थ : जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किए बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छायें स्थित-प्रज्ञ मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न किए ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति को प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला। (७०) विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । भावार्थ : जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है। (७१) एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । भावार्थ : हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है। (७२) ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गीतासार-योगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ गीता के द्वितीय अध्याय का क्या महत्व है?गीता के दूसरे अध्याय का महत्व
वहां एक देव सुशर्मा बड़ा धनवान रहता था, वह साधु सेवा करता था। जब साधु सेवा करते हुए बहुत दिन बीते, तब एक बाल नाम ब्रह्मचारी आया। जिसकी सुशर्मा ने बहुत सेवा की और विनय किया कि हे संतजी! कृपा मुझे श्री नारायण जी के पाने का ज्ञानोपदेश करो।
गीता के दूसरे अध्याय में क्या है?भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥
भगवत गीता द्वितीय अध्याय के अनुसार मोक्ष के लिए कौन योग्य होता है?गीता द्वितीय अध्याय श्लोक – १५
२-१५॥ क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य हो जाता है॥
गीता के 2 अध्याय का नाम क्या है?१. पहला अध्याय- 'अर्जुन विषाद योग'. २. दूसरा अध्याय- 'सांख्य योग'.
|