छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कबीर पंथ का समागम स्थल? - chhatteesagadh ke prasiddh kabeer panth ka samaagam sthal?

अन्य धार्मिक सम्प्रदाय की तरह कबीर पंथ के भी अपने आचार-विचार और विधि विधान प्रचलित हैं। यद्यपि छत्तीसगढ़ में कोई मौलिकता नहीं है, बल्कि देश के अन्य भागों में प्रचलित रीति-नीतियों का ही पालन छत्तीसगढ़ के कबीर पंथी करते हैं।

मेले का आयोजन

कबीर पंथियों द्वारा समय-समय पर मेले का आयोजन किया जाता है। इन अवसरों पर कबीर-पंथी आचार्य प्रवचन करते हैं और कबीर के उपदेशों का प्रचार करते हैं।

छत्तीसगढ़ के निम्नलिखित स्थानों में बहुचर्चित मेलों का आयोजन होते हैं -

१.

रतनपुर

माघ पूर्णिमा

२.

खरसिया

बसंत पंचमी से पूर्णिमा तक

३.

दामाखेड़ा

माघ शुक्ल पक्ष दशमी से पूर्णिमा तक

बंदगी

कबीर-पंथ में बंदगी का बड़ा महत्व है। कबीर-पंथ में बंदगी के लिए समय भी निर्धारित कर दिया गया है। प्रात: काल शैया से उठते समय फिर नित्य कर्म से निवृत होकर और अंत में भोजनोपरांत बंदगी की जाती है। कबीर पंथी मानव शरीर को पंचतत्वों से निर्मित मानते हैं। ये पंच तत्वों से विजय प्राप्त करने के लिए पांच बार बंदगी करना अत्यंत आवश्यक समझते हैं।

दीक्षा, व्रत, उत्सव -

कबीर-पंथ में दीक्षा की प्रथा आज भी है जिसे "बरु' या कण्ठी धारणा करते हैं। महंत साहब के शिष्यगण तुलसी के डण्ठल से कण्ठी बनाते हैं। दीक्षा के लिए एक उत्सव का आयोजन किया जाता है, जिसमें घर वाले अपने समस्त मित्रों व सज्जनों को आमंत्रित करते हैं। गुरु (महंत) साहब उस कण्ठी को शिष्य के कण्ठ में बांधकर दीक्षा देते हैं।

व्रतों और उत्सवों का भी कबीर-पंथ में समान महत्व है। समस्त व्रतों में पूर्णिमा के व्रत का महत्व सबसे अधिक है। इस दिन प्रत्येक कबीर पंथी सात्विक जीवन व्यतीत करने का संकल्प करते हैं।

चौका विधान -

कबीर पंथियों में चौका विधान एक प्रमुख प्रक्रिया है, जिसे कबीर-पंथ के महंत संपन्न करते हैं। कबीर पंथी यह मानते हैं कि चौका विधान से मोक्ष संभव है। इसके चार प्रकार हैं -

आनंदी चौका

२.

जन्मौती या सहिल्सुत चौका

३.

चलावा या अष्ट प्रहरी चौका

४.

एकोत्तरी चौका

चौका विधान का महत्व -

कबीर पंथ में चौका विधान को त्रिदोप नाशक माना गया है। इन दोषों का नाश, कर्म, उपासना और ज्ञान से किया जा सकता है।

कुदुरमाल भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में स्थित एक छोटा सा गाँव है।[2] यह गाँव जिला मुख्यालय कोरबा से करीब 15 किमी दूर स्थित है। यह गाँव हासदेव नदी के किनारे बसा हुआ है और यहाँ की कुल जनसंख्या 1,514 (वर्ष 2011 की जनगणना अनुसार)[1] है। यहाँ का पिनकोड 495674 है।[3]

गाँव का महत्व संत कबीर के एक शिष्य कबीरपंथी लोगों के ऐतिहासिक समाधि स्थल हैl इसके अलावा, यहां एक मंदिर है, जिसे संकटमोचन हनुमान मंदिर कहते हैं।[2] यहाँ हर वर्ष (जनवरी और फरवरी) में माघ पूर्णिमा पर एक मेला लगता है। मंदिर के पास एक चट्टान के नीचे एक गुफा है जिसके बारे में माना जाता है कि यह श्रद्धालुओं द्वारा फेंके गए पत्थरों को अपनी ओर आकर्षित करती है।

कबीरपंथी सतगुरु के तीन मजार[संपादित करें]

इस स्मारक को कबीरपंथी सतगुरु के तीन मजार के नाम से जाना जाता है। स्थल का महत्व पुरातात्विक होने की बजाय धार्मिक अधिक है। माना जाता है कि इन समाधि स्थलों (मजारों) का निर्माण 16वीं-17वीं सदी में कभी हुआ था। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा इन्हें राज्य संरक्षित स्मारक का दर्ज़ा दिया गया है।[4]

कुदुरमाल में छत्तीसगढ़ शाखा के धर्मदास साहेब तथा वंशगद्दी के नाम से कबीरपंथ की एक प्रमुख शाखा है जिसके संस्थापक मुक्तामणि नाम साहेब थे।[5]

दामाखेड़ा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के समीप कबीरपंथियों की एक तीर्थस्थल है। यह रायपुर-बिलासपुर सड़क मार्ग पर सिमगा से १० किमी की दूरी पर स्थित एक छोटा सा ग्राम है। यह कबीरपंथियों के आस्था का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता है। यहां देश-दुनिया से श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। [1]

ऐसा मान जाता है कि आज से १०० वर्ष पहले यहाँ कबीरपन्थ के १२वें गुरु गुरु उग्रनाम साहब द्वारा कबीर मठ की स्थापना की गयी थी। समाधि स्थल के समीप ही कबीर कुटिया एवं भवन निर्माण किया गया है। इनमे कविताएं, दोहे एवं चौपाई आदि बड़े ही कलात्मक रूप से लिखे गए हैं।

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कबीर चौरा, अमरकंटक

कबीर पंथ एवं गुरु गद्दी परम्परा : छत्तीसगढ़

hukum June 5, 2020 इतिहास, ॠषि परम्परा Leave a comment 23,500 Views

संत कबीर मध्यबिंदु के सन्देश वाहक थे क्योंकि प्रवृति एवं निवृति मार्ग के मध्यबिंदु को समाज जीवन में श्रेष्ठ माना जाता है।| छत्तीसगढ़ भौगोलिक कारणों से प्राचीनकाल से संस्कृति संगम का क्षेत्र रहा है। भारत के मध्य में होने के कारण चारों दिशाओं की सभ्यताओं का आगमन इस क्षेत्र में होते रहा है, जिसका प्रभाव जनमानस में चिन्हित होता है। बताया जाता है कि 8 वीं – 9 वीं सदी में इंद्रभूति नामक सबर (वर्तमान में सांवरा जनजाति) राजा सिरपुर-शिवरीनारायण क्षेत्र के राजा थे तथा इनके राज्य को ” उड्डियान ” भी कहा जाता था। राजा इंद्रभूति वज्रयान के प्रवर्तक थे तथा इनके पुत्र / शिष्य पद्मसंभव ‘लामा संप्रदाय’ तथा इनकी पुत्री / शिष्या लक्ष्मींकरा ‘सहजयान’ की प्रणेता थी।

मराठों के छत्तीसगढ़ आगमन / आक्रमण के पूर्व (सन 1741) वनांचलों में जनजातीय संस्कृति तथा मैदानी क्षेत्र में संत कबीर के निर्गुण भक्ति का बोलबाला था। छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों वर्षों से रतनपुर के कलचुरी राजाओं का राजत्व था जो उत्तर भारतीय राजपूत होने के बाद भी उदार, समावेशी और सामाजिक समरसता के ध्वजाधारी थे। इनके राज्य में समाज के वंचित – उपेक्षित समुदाय को भी सामाजिक श्रेष्ठता के प्रदर्शन का सामान अधिकार प्राप्त था। रायपुर शाखा के कलचुरियों की 14 वीं सदी में कुछ वर्षों राजधानी रही खल्लारी (खल्वाटिका) में देवपाल चर्मकार द्वारा निर्मित “नारायण ( विष्णु ) मंदिर” इसका जीवंत उदाहरण है। संस्कृति संगम के प्रतिफल से निर्मित संतमना जनमानस में संत कबीर के निर्गुण भक्ति को पल्लवित-पुष्पित होने के लिए ऊर्वरा भूमि का काम किया था इसलिए एक तिहाई से अधिक आबादी संत कबीर की अनुयायी बनी।

छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के फैलाव का श्रेय धनी धर्मदास जी उर्फ़ जुड़ावन साहू को है जो बांधवगढ़ के समृद्ध व्यापारी मनमहेश साहू एवं सुधर्मावती के पुत्र थे। इनका जन्म संत कबीर से ढाई वर्ष पूर्व विक्रम संवत 1452 अर्थात सन 1395 ई. में हुआ था। इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणावती था। धनी धर्मदास नीमावत वैष्णव पंथ के अनुयायी थे। संत कबीर से संवत 1520 में दीक्षा उपरांत जुड़ावन साहू से धर्मदास एवं इनकी पत्नी आमीन माता कहलायी। इन्होंने अपने 56 करोड़ की संपत्ति पंथ की स्थापना एवं प्रचार में समर्पित कर दी थी।

दामाखेड़ा कबीर आश्रम से प्रकाशित साहित्यों के अनुसार संत कबीर ने भारत में पंथ स्थापना के लिए चारों दिशाओं में चार गुरु नियुक्त किये थे -: 1-उत्तर दिशा में बांधवगढ़ मुख्यालय के लिए धनी धर्मदास-42 वंश, 2-दक्षिण दिशा के लिए कर्णाटक मुख्यालय चतुर्भुज साहेब-16 वंश, 3-पूर्व दिशा के लिए दरभंगा मुख्यालय में बँके जी-27 वंश तथा पश्चिम दिशा के लिए मानकपुर मुख्यालय सहते जी बाला -7 वंश।

संत कबीर ने इन्हें गुरुवाई सौंपते हुए भविष्यवाणी की थी कि कलयुग के 5505 वर्ष बीतने के उपरांत अर्थात सन 2404 ई तक घर-घर में पंथ का प्रचार हो जाएगा तथा सत्य प्रमाणित भी होगा।

धनी धर्मदास एवं संत कबीर संवत 1569 में जगन्नाथ पूरी की यात्रा पर गए थे जहाँ धर्मदास फाल्गुन पूर्णिमा के दिन समाधि लेकर सतलोक गमन किये। संत कबीर संवत 1570 में बांधवगढ़ लौटे और धर्मदास के पुत्र चूड़ामणि उर्फ़ मुक्तामणि नाम साहेब को चैत्र पूर्णिमा के दिन बांधवगढ़ की गुरुवाई सौंपे। संत कबीर ने धर्मदास के बिंद वंश को 42 पीढ़ियों तक गुरुवाई करने की भविष्यवाणी करते हुए नामों की घोषणा भी की थी। जो इस प्रकार हैं – 1-सुदर्शन नाम साहेब, 2-कुलपति नाम साहेब, 3-प्रमोध गुरु नाम साहेब, 4-केवल नाम साहेब, 5-अमोल नाम साहेब, 6-सूरत सनेही नाम साहेब, 7-हक्क नाम साहेब, 8-पाक नाम साहेब, 9-प्रगट नाम साहेब, 10-धीरज नाम साहेब, 11-उग्र नाम साहेब, 12-दया नाम साहेब, 13-गृन्धमुनि नाम साहेब, 14-प्रकाशमुनि नाम साहेब, (वर्तमान पंथाचार्य) 15-उदितमुनि नाम साहेब, 16-मुकुंद मुनि नाम साहेब, 17-अर्ध नाम साहेब, 18-उदय नाम साहेब, 19-ज्ञाननाम साहेब, 20-हंसमणि नाम साहेब, 21-सुकृतनाम साहेब, 22-अग्रमणि नाम साहेब, 23-रस नाम साहेब, 24-गंगमणि नाम साहेब, 25-पारस नाम साहेब, 26-जाग्रत नाम साहेब, 27-भृंगमणि नाम साहेब, 28-अकह नाम साहेब, 29-कंठमणि नाम साहेब, 30-संतोषमणि नाम साहेब, 31-चात्रिक नाम साहेब, 32-आदि नाम साहेब, 33- नेह नाम साहेब, 34-अज्र नाम साहेब, 35-महा नाम साहेब, 36- निज नाम साहेब, 37-साहेब नाम साहेब, 38-उदय नाम साहेब, 39-करुणा नाम साहेब, 40-उर्ध्व नाम साहेब, 41-दीर्घ नाम साहेब तथा 42-महामणि नाम साहेब ।

इस प्रकार मुक्तामणि नाम साहेब से धनी धर्मदास जी का बिंदवंश प्रारम्भ हुआ। मुक्तामणि नाम साहेब बांधवगढ़ से हसदेव नदी के निकट कोरबा आये और वहां के तोमरवंशी राजपूत शासक को अपना शिष्य बनाये तत्पश्चात कोरबा से कुदुरमाल जाकर गुरु गद्दी स्थापित किये। वे 60 वर्ष की उम्र तक गुरुगद्दी का सञ्चालन करते रहे तत्पश्चात अपने पुत्र सुदर्शन नाम साहेब को गद्दी सौंप कर सतलोक गमन किये।

बिंदवंश के प्रथम गुरु सुदर्शन नाम साहेब कुछ वर्ष उपरांत गुरुगद्दी को रतनपुर ले आये और 60 वर्ष की आयु तक पंथ संचालन कर संवत 1690 में अपने पुत्र कुलपति नाम साहेब को गद्दी सौंप कर सतलोक गमन किये। कुलपति नाम साहेब गुरुगद्दी को रतनपुर से पुनः कुदुरमाल ले गए और वे भी 60 वर्ष की आयु तक पंथ सञ्चालन करते हुए अपने पुत्र प्रमोध गुरु को गद्दी सौंप कर संवत 1750 में सतलोक गमन किये।

बिंदवंश के चौथे प्रमोध गुरु मुग़ल बादशाह बहादुरशाह के समकालीन थे। बादशाह ने इनकी विद्वता एवं अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर इन्हें “बालापीर” कहा था इसलिए ये प्रमोध गुरु बालापीर कहलाये थे। वे संवत 1775 तक पंथ सञ्चालन कर अपने पुत्र केवल नाम साहेब को गद्दी सौंपकर महाप्रयाण किये।

पांचवे गुरु केवल नाम साहेब का मुख्यालय मंडला था। वे पंथ प्रचार करते हुए धमधा पहुंचे और गुरुगद्दी स्थापित कर 25 वर्ष तक सञ्चालन कर अपने पुत्र अमोल साहेब को संवत 1800 में गुरुगद्दी सौंपे। अमोल नाम साहेब भी 25 वर्ष सञ्चालन कर अपने पूत्र सुरति सनेही साहेब को गुरुगद्दी सौंपे।

सुरति सनेही नाम साहेब का मुख्यालय भी मंडला था जहाँ से वे गद्दी को छिंदवाड़ा के सिंघोड़ी ग्राम ले गए जहां संवत 1853 में सतलोक गमन किये।

सुरति सनेही साहेब की पत्नी शूद्र कुल की थी जिनसे हंसदास (हक्क नाम साहेब) का जन्म हुआ था। हक्क नाम साहेब को गुरुगद्दी देने के लिए विवाद हुआ था तब मध्यस्थता के लिए नागपुर से मराठा राजा अप्पा साहेब भोंसले को आमंत्रित किया गया था। अंततः हक्क नाम साहेब पंथाचार्य घोषित किये गए। हक़्क़नाम साहेब पंथ प्रचार करते हुए सकरी नदी के तट पर डेरा जमाये थे, उस स्थान को कबीरधाम कहा गया जो अब कवर्धा कहलाता है।

हक्क नाम साहेब के बाद उनके पुत्र पाक नाम साहेब गुरु हुए और वे 22 वर्षों तक गुरुवाई करते हुए संवत 1912 में सतलोक गमन किये। इनके बाद इनके पुत्र प्रगट नाम साहेब पंथाचार्य हुए। तब तक पंथ का प्रचार अफ्रीका, मारीशस, फिलीपींस , त्रिनिदाद इत्यादि तक हो चूका था।

प्रगट नाम साहेब के पुत्र धीरज नाम साहेब तथा उनके पुत्र मुकुंददास पंथाचार्य हुए। मुकुंददास साहेब ही उग्रनाम साहेब कहलाये जो संवत 1940 में कवर्धा की गुरुगद्दी सम्हाले। इन्होंने पंथ की एकता के लिए कठिन परिश्रम किया और इनके कुछ शिष्य दामाखेड़ा गाँव को ख़रीदे जहाँ संवत 1961 (सन 1903) में उग्रनाम साहेब ने गुरुगद्दी स्थापित की। उग्रनाम साहेब संवत 1971 में सतलोक गमन किये थे।

उग्रनाम साहेब के बाद उनके पुत्र दया नाम साहेब पंथाचार्य हुए जिनका 28 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इनके कोई पुत्र नहीं थे इसलिए गुरुगद्दी रिक्त हो गयी। शिष्यों और गुरु माता कलाप देवी ने महंत काशीदास को देख-रेख के लिए दीवान नियुक्त किया। महंत काशीनाथ अपने कुछ साथी साधुओं के साथ सन 1934 में दामाखेड़ा छोड़कर खरसिया में पृथक गद्दी स्थापित कर लिया। महंत के चले जाने के बाद दयानाम साहेब के चरण-पादुका को गद्दी में स्थापित कर गुरू माता द्वारा पंथ सञ्चालन किया जाने लगा। गुरुमाता कलाप देवी ने कवर्धा गद्दी के वंशज साहेब दास के बालक पुत्र गृन्धमुनि नाम को गोद लेकर ढाई वर्ष की उम्र बालक को सन 1938 में गुरुगद्दी में बैठाया गया।

गृन्धमुनि नाम साहेब युवा होकर पंथ के कर्मठ विद्वान बने और अनेक सत्संग-सभाओं के आयोजन के साथ साहित्य संकलन एवं प्रकाशन किये। वे स्वयं अच्छे साहित्यकार भी थे। सन 1992 में वे सतलोक गमन किये। उनके बाद से उनके पुत्र 14 वें गुरु प्रकाशमुनि नाम साहेब पंथाचार्य हैं। दामाखेड़ा आश्रम द्वारा ” कबीर मंशूर ” नामक वृहद् ग्रन्थ का संकलन एवं प्रकाशन किया गया है |

कबीर पंथ में भी वंशपंथी, नादपंथी, वचनपंथी, रामकबीरपंथी, पारखपंथी, सारशब्दपंथी आदि फिरके हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में मुख्यतः दामाखेड़ा में वंशपंथी, नादिया में नादपंथी, नवापारा गोबरा में पारखपंथी आश्रम हैं। धनी धर्मदास जी के बड़े पुत्र नारायण साहेब ने भी धमतरी के हाटकेश्वर में गद्दी स्थापित की थी। बताया जाता है कि वर्तमान में मुक्तामणि नाम साहेब की दूसरी पत्नी के वंशज यहाँ निवासरत हैं । इस आश्रम में गुरु परंपरा नहीं है ।

नादिया ग्राम में सुरति सनेही साहेब के समय में ज्ञान साहेब विरक्त संत थे और उनके शिष्य सेवा साहेब हुए जिन्होंने वि. संवत 1837 में नादवंशी गद्दी की स्थापना की थी। इस मठ की गुरु परंपरा में – 1 – सेवा साहेब 2 – ध्यान साहेब 3 – चरण साहेब 4 – भावतन साहेब 5 – तुलसी साहेब 6 – बालकृष्ण साहेब 7 – लौटन साहेब 8 – रामरतन साहेब 9 – गोपाल साहेब 10 – भूप साहेब 11 – हनुमान साहेब 12 – गंगा साहेब 13 – महेश साहेब हैं।

खरसिया मठ की गुरु परम्परा भी विरक्त संतों की है जो इस प्रकार हैं – 1 काशी साहेब 2 – विचार साहेब 3 – उदित नाम साहेब 4- मनोहर साहेब।| इस पीठ में स्वामी युगलानन्द बिहारी संत हुए जिन्होंने कबीर सागर नामक वृहद् ग्रन्थ का संकलन किया था।

छत्तीसगढ़ में पनिका जाति जो सामान्यतः मानिकपुरी उपनाम लिखते हैं शत-प्रतिशत कबीर पंथी है। साहू, कुर्मी, मरार, यादव, सतनामी समाज में कबीर पंथ का व्यापक प्रभाव है। नदिया मठ की स्थापना में राजपूत परिवार की बड़ी भूमिका थी।

छत्तीसगढ़ के दामाखेड़ा में बिंदवंश ही नहीं अन्य शाखाओं का भी प्रचार है। कबीर पंथियों में प्रकाशमुनि साहेब, अभिलाष दास साहेब, पंचमदास साहेब, स्वामी मंगल साहेब, हुजूर अर्धनाम साहेब, ज्योति स्वामी साहेब, असंग साहेब, उदित नाम साहेब इत्यादि की प्रतिष्ठा स्थापित है।

अभिलाष दास साहेब “संत कबीर पारख संस्थान” के विद्वान् थे जिनके सैंकड़ों साहित्य प्रकाशित हुए हैं। अभिलाष साहेब के सतलोक गमन के बाद संस्थान के प्रमुख धर्मेंद्र साहेब हैं जो मूलतः आरंग के निकट चपरीद गाँव के हैं। पाटन के निकट सेलूद गाँव के कबीर आश्रम के प्रमुख सुकृतदास साहेब है जो अच्छे प्रवचनकार के रूप में ख्यातिनाम हैं।

छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ के विभिन्न शाखाओं के 121 कबीर आश्रम संचालित हैं जिसमें से 28 आश्रमों के आचार्य पद पर नारियां आसीन हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ –
1-यथार्थ कबीर पंथ का रहस्य प्रकाशक श्री सदगुरु कबीर धर्मदास साहेब वंशावली प्रतिनिधि सभा दामाखेड़ा
2- कबीर दर्शन – अभिलाष साहेब कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद
3- कबीर ग्रंथावली – प्रो श्याम सुन्दर दास

आलेख

छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कबीर पंथ का समागम स्थल? - chhatteesagadh ke prasiddh kabeer panth ka samaagam sthal?
डॉ.घनाराम साहू, रायपुर
छत्तीसगढ़ी संस्कृति एवं इतिहास के अध्येता

छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ का उद्भव?

कबीर के सत्य, ज्ञान, तथा मानवतावादी सिंद्धांतों पर आधारित दामाखेड़ा में कबीर मठ की स्थापना 1903 में कबीरपंथ के 12वें गुरु अग्रनाम साहब ने की थी. तब से दामाखेड़ा कबीर पंथियों के तीर्थ स्थलों के रूप में प्रसिद्ध है. मध्य प्रदेश के जिला उमरिया के करीब बांधवगढ़ में रहने वाले संत धर्मदास कबीर के प्रमुख शिष्य थे.

छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ के प्रथम आचार्य कौन है?

धनी धरमदास जी सिरी सद्गुरु कबीर साहेब के परमुख सिस्य रहिन। कबीर पंथ के बडे साखा-छत्तीसगढ के संस्थापक घलो रहिन। कबीर साहेब के पद के संकलन अउ संरकछन करे के काम ल धनी धरमदासजी ह करे रहिन। धनी धरमदासजी के जनम बछर 1472 माने 1416 ई.

छत्तीसगढ़ राज्य का कबीर पंथ का तीर्थ स्थल दामाखेड़ा स्थापना करने वाले गुरु परंपरा के अनुसार किस पीढ़ी के गुरु हैं?

यह रायपुर-बिलासपुर सड़क मार्ग पर सिमगा से १० किमी की दूरी पर स्थित एक छोटा सा ग्राम है। यह कबीरपंथियों के आस्था का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता है। यहां देश-दुनिया से श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। ऐसा मान जाता है कि आज से १०० वर्ष पहले यहाँ कबीरपन्थ के १२वें गुरु गुरु उग्रनाम साहब द्वारा कबीर मठ की स्थापना की गयी थी।

कबीर साहब के 12 पंथ कौन कौन से हैं?

नारायण दास जी का पंथ ( इसे चुडामणीजी का पंथ माना जाता है क्योंकि नारायण दास जी ने तो कबीर पंथ को स्वीकारा ही नहीं किया था)।.
यागौदास (जागू) पंथ.
सूरत गोपाल पंथ.
मूल निरंजन पंथ.
टकसार पंथ.
भगवान दास (ब्रह्म) पंथ.
सत्यनामी पंथ कमाली (कमाल का) पंथ राम कबीर पंथ प्रेम धाम (परम धाम) की वाणी पंथ जीवा पंथ.