भोगी कुसुमायुध योगी में कौन सा अलंकार है? - bhogee kusumaayudh yogee mein kaun sa alankaar hai?

up board class 9th hindi | मैथिलीशरण गुप्त

                                    जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के जीवन-वृत्त एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर―जीवन-परिचय―भारतीय संस्कृति के अमर नायक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सन्

1886 ई० में झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता सेठ रामचरण गुप्त हिन्दी के

श्रेष्ठ कवि और विष्णुभक्त थे। पिता की काव्य-प्रतिभा और धार्मिक संस्कारों का प्रभाव इन पर भी

पड़ा। इनके छोटे भाई श्री सियारामशरण गुप्त भी हिन्दी के अच्छे कवि रहे। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर

ही हुई। घर का वातावरण साहित्यिक होने के कारण इनके मन में भी कविता के प्रति रुचि जाग्रत हुई।

गुप्त जी का स्वभाव, वेशभूषा और रहन-सहन सादा और सरल था। गाँधी जी के विचारों की इन पर

पर्याप्त छाप थी। इनके जीवन और राष्ट्रीय भावना की छाप इनकी कविता पर भी पड़ी। काव्य में राष्ट्रप्रेम की

अभिव्यक्ति होने के कारण इन्हें राष्ट्रकवि का सम्मान प्रदान किया गया। आगरा और प्रयाग विश्वविद्यालयों ने

इन्हें डी० लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया। ‘साकेत’ नामक महाकाव्य पर ‘हिन्दी साहित्य

सम्मेलन’ ने इनको ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया था। सन् 1954 ई० में भारत सरकार ने इनकी

साहित्यिक सेवाओं के लिए इनको ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। ये 12 वर्ष तक भारत के उच्च सदन

(राज्यसभा) के मनोनीत सदस्य भी रहे। 12 दिसम्बर,सन् 1964ई० में इस महान् साहित्यकार की मृत्यु हो

गयी।

रचनाएँ (कृतियाँ)―गुप्त जी खड़ी बोली के उन्नायक रहे। इन्होंने खड़ी बोली को काव्य के

अनुरूप बनाया और जन-रुचि को खड़ी बोली काव्य की ओर प्रवृत्त किया। इन्होंने

कुल मिलाक 45

काव्य-ग्रन्थों की रचना की, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं―

(1) साकेत―साकेत गुप्त जी का प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य है।

(2) यशोधरा―इसमें बुद्ध की पत्नी यशोधरा का मार्मिक चरित्र अंकित किया गया है।

(3) भारत-भारती―इस काव्य-रचना के कारण इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ होने का गौरव प्राप्त हुआ।

(4) किसान―इसमें गुप्त जी ने किसानों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठायी है।

(5) जयद्रथ वध―यह वीर और करुण रस की रचना है। यह चक्रव्यूह-भेदन और अर्जुन द्वारा

जयद्रथ के वध की घटना पर आधारित खण्डकाव्य है।

(6) द्वापर―इसमें गुप्त जी ने कृष्ण के द्वापर युद्ध के साथ आधुनिक समस्याओं को उद्घाटित किया

है।

(7) जयभारत―इसमें महाभारत की घटना को नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है।

(8) पंचवटी―इस खण्डकाव्य में गुप्त जी ने सुरम्य प्रकृति की पृष्ठभूमि के साथ लक्ष्मण के चरित्र

को उजागर किया है।

इनके अतिरिक्त ‘रंग में भंग’, ‘पृथ्वीपुत्र’, ‘हिन्दू’, ‘चन्द्रहास’, ‘विष्णुप्रिया’, ‘दिवोदास’, ‘मेघनाद

वध’, ‘सिद्धराज’, ‘कुणाल गीत’, ‘गुरुकुल’, ‘अनघ’, ‘झंकार’, ‘मंगल घट’, ‘नहुष’, ‘विरहिणी-ब्रजांगना’

आदि अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं।

साहित्य में स्थान―आधुनिक युग की समस्त काव्यधाराओं को अपनाने वाले तथा द्विवेदी युग के

प्रतिनिधि कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त का हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। देशभक्तिपूर्ण रचनाओं के कारण

गाँधीजी ने इनको राष्ट्रकवि की उपाधि दी थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “गुप्त जी निस्सन्देह

हिन्दी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं।”

                 पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)

◆ पंचवटी

(1) चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में,

      स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बर-तल में।

      पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,

      मानो झींम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

[चारु = सुन्दर। अवनि = पृथ्वी। अम्बर-तल = आकाश। पुलक = प्रसन्नता। हरित = हरे-भरे। तरु =

वृक्ष।]

सन्दर्भ―प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में ‘पंचवटी’ शीर्षक के

अन्तर्गत संकलित तथा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘पंचवटी’ खण्डकाव्य से उद्धृत है।

[संकेत―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाली सभी व्याख्याओं में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने चाँदनी रात में पंचवटी की प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन किया है।

व्याख्या―कवि कहता है कि सुन्दर चन्द्रमा की चंचल किरणें जल और थल सभी स्थानों पर क्रीड़ा

कर रही हैं। पृथ्वी से आकाश तक सभी जगह चन्द्रमा की स्वच्छ चाँदनी फैली हुई है, जिसे देखकर ऐसा

मालूम पड़ता है कि धरती और आकाश में कोई धुली हुई सफेद चादर बिछी हुई हो। पृथ्वी हरे घास के

तिनकों की नोंक के माध्यम से अपनी प्रसन्नता को व्यक्त कर रही है। तिनकों के रूप में उसका रोमांचित

होना दिखाई देता है; अर्थात् तिनकों की नोंक चाँदनी में चमकती है और उसी चमक से पृथ्वी की प्रसन्नता

व्यक्त हो रही है। मन्द सुगन्धित वायु बह रही है, जिसके कारण वृक्ष धीरे-धीरे हिल रहे हैं, तब ऐसा मालूम

पड़ता है मानो सुन्दर वातावरण को पाकर वृक्ष भी मस्ती में झूम रहे हों। तात्पर्य यह है कि सारी प्रकृति प्रसन्न

दिखाई दे रही है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) पंचवटी के सुरम्य वातावरण का मनोहारी चित्रण हुआ है। (2) प्रकृति का

चित्रण आलम्बन रूप में करते हुए उसका मानवीकरण किया गया है। (3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली।

(4) शैली―चित्रात्मक और भावात्मक। (5) रस―शृंगार व शान्ता (6) शब्द-शक्ति―व्यंजना।

(7) गुण―माधुर्य एवं प्रसाद। (8) छन्द―ताटक (वह छन्द, जिसके प्रत्येक चरण में तीस मात्राएँ होती

हैं।(9) अलंकार―अनुप्रास, उत्प्रेक्षा तथा मानवीकरण। (10) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं व्यंजना।

(2) पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,

      उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीक मना।

      जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन-भर सोता है?

      भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है।

[पर्ण-कुटीर = पत्तों की कुटिया। निर्भीक = निडर। भुवन = संसार। भोगी = सांसारिक सुखों में लिप्त।

कुसुमायुध = कामदेव। दृष्टिगत = दिखाई देना।]

प्रसंग―प्रस्तुत पद्यांश में कर्त्तव्यपालन के प्रति लक्ष्मण के व्यक्तित्व, निष्ठा एवं सतर्कता का सुन्दर

चित्रण हुआ है।

व्याख्या―पंचवटी में बनी हुई पर्णकुटी पर लक्ष्मण को पहरा देते हुए देखकर गुप्त जी कहते हैं कि

पंचवटी की छाया में पत्तों की एक सुन्दर कुटिया बनी हुई है। इस कुटिया के सामने एक साफ-सुथरी शिला

पर यह धैर्यवान्, वीर और निर्भय पुरुष कौन है, जो धनुष-बाण लिये बैठा है ? सारा संसार सो रहा है, पर

यह कौन धनुर्धारी वीर है, जो इतनी रात गये भी जाग रहा है ? उसके सुन्दर रूप-सौन्दर्य और तन्मयता

का देखकर ऐसा लगता है कि मानो भोगी कामदेव स्वयं योगी के रूप में यहाँ आकर बैठ गया हो।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) इन पंक्तियों में कवि ने लक्ष्मण के धैर्य, वीरता, निर्भयता और कामदेव जैसी

सुन्दरता को अंकित किया है। (2) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (3) शैली―भावात्मक और

प्रबन्धा (4) रस―शान्त। (5) छन्द―ताटक। (6) गुण―प्रसाद। (7) अलंकार―‘भोगी कुसुमायुध

योगी-सा बना दृष्टिगत होता है’ में उपमा तथा अनुप्रास। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा। (9) भाव-

साम्य―कवि नागार्जुन ने भी किन्नरों की पर्णकुटी का एक ऐसा ही चित्र खींचा है―

                              शत-शत निर्झर-निर्झरिणी-कल

                              मुखरित देवदारु कानन में,

                              शोणित धवल भोज पत्तों से

                              छायी हुई कुटी के भीतर,

                              रंग-बिरंगे और सुगन्धित

                              फूलों से कुन्तल को साजे।

(3) किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,

     राजभोग के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।

     बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,

      जिसकी रक्षा में रत इसका तन है, मन है, जीवन है।।

[व्रत = नियम। व्रती = नियमनिष्ठ। विपिन = वन। विराग = संसार से उदासीनता, वैराग्य। प्रहरी =

पहरेदार। रत = लगा हुआ।]

प्रसंग―इस पद्य में उस समय का वर्णन है, जब वनवास के दिनों में श्रीराम और सीताजी पंचवटी की

कुटिया में सोये हुए हैं और लक्ष्मण रात को कुटिया के बाहर एक शिला पर बैठकर पहरा दे रहे हैं।

व्याख्या―लक्ष्मण को पहरा देते हुए देखकर कवि कहता है कि वीर व्रत धारण करने वाला यह

युवक अपनी नींद त्यागकर किस व्रत की साधना में लीन है? देखने से तो लगता है कि यह किसी राज्य का

सुख भोगने के योग्य है, पर यह तो वैराग्य धारण कर जंगल में बैठा है। आखिर इस कुटिया में ऐसा कौन-सा

धन है, जिसका यह युवक बड़ी तन्मयता से पहरा दे रहा है। यह इस कुटी की रक्षा के लिए शरीर की परवाह

नहीं कर रहा है अर्थात् अपने शरीर को भी विश्राम नहीं दे रहा है और सब प्रकार से अपने मन को इस कुटी

की रक्षा में लगाये हुए है। अवश्य ही इस कुटी में ऐसा कोई अमूल्य और अनुपम धन होना चाहिए, जिसकी

रक्षा में यह वीर अपने तन, मन और जीवन को ही समर्पित किये हुए है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) इन पंक्तियों में कवि ने लक्ष्मण की लगन, त्याग, कर्त्तव्यनिष्ठा, एकाग्रता

आदि गुणों पर प्रकाश डाला है। (2) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (3) शैली―भावात्मक और

प्रबन्धा (4) रस―शान्त। (5) छन्द―ताटंक। (6) गुण―प्रसाद। (7) अलंकार―‘किस व्रत में है

व्रती वीर यह’ तथा ‘तन है, मन है, जीवन है’ में अनुप्रास। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा और

व्यंजना।

(4) मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आयी है,

      तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनायी है।

      वीर वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी?

      विजन देश है, निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी।।

मर्त्यलोक-मालिन्य = संसार के पाप। लाज = मर्यादा। विजन = निर्जन। निशा शेष है = रात्रि व्यतीत

नही हुई है। निशाचरी = राक्षसों की।]

प्रसंग―इस पद्य में कवि ने उस अनुपम धन की महानता का वर्णन किया है, जिसकी रक्षा में वीरव्रती

लक्ष्मण एकाग्र मन से संलग्न हैं।

व्याख्या―वास्तव में इस कुटी के अन्दर ऐसा अनुपम धन है, जिसकी रक्षा एक वीर पुरुष ही कर

सकता है। तीनों लोकों की साक्षात् लक्ष्मी सीताजी इस कुटी के अन्दर अपने पति राम के साथ रह रही है।

मनुष्य लोक की बुराइयों को दूर करने के लिए वे अपने पति राम के साथ आयी हैं। वे वीरों के वंश रघुवंश

की प्रतिष्ठा हैं। यदि सीताजी की प्रतिष्ठा में कोई आँच आती है तो रघुकुल की प्रतिष्ठा पर भी धब्बा लगता है।

इसीलिए लक्ष्मण जैसे प्रहरी को यहाँ नियुक्त किया गया है। यह वन निर्जन है और रात भी अभी बहुत शेष है।

यहाँ पर राक्षस लोग चारों ओर घूम रहे हैं। वे अपनी माया का जाल फैलाकर कोई भी विपत्ति खड़ी का

सकते हैं; अत: रात्रि के समय निर्जन प्रदेश में मायावी राक्षसों से बचने के लिए लक्ष्मण जैसा वीर ही उपयुक्त

पहरेदार है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने वीर लक्ष्मण को उपयुक्त पहरेदार के रूप में चित्रित किया है।

(2) गुप्त जी ने सीता के प्रति अपनी अतिशय श्रद्धा व्यक्त की है। (3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली।

(4) शैली―चित्रात्मक एवं प्रबन्ध। (5) रस―शान्त। (6) छन्द―ताटंक। (7) गुण―प्रसाद।

(8) अलंकार―‘मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने’ में अनुप्रास व रूपक तथा ‘वीरवंश की लाज यही है में

अनुप्रास व रूपक । (9) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। (10) भाव-साम्य―नारी के प्रति

सम्मान व्यक्त करते हुए किसी कवि ने कहा है―

                 गृहलक्ष्मी तुम लाज वंश की, तुम अमूल्य निधि अति पावन।

                 तुम जननी तुम सृष्टिधारिणी, विश्वहर्ष तुम मनभावन ॥

(5) क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा,

     है स्वच्छन्द-सुमन्द, गन्धवह, निरानन्द है कौन दिशा?

     बन्ध नहीं, अब भी चलते हैं नियति-नटी के कार्य-कलाप,

     पर कितने एकान्त भाव से कितने शान्त और चुपचाप।

[निस्तब्ध = शान्त। स्वच्छन्द = स्वतन्त्र। सुमन्द = मन्द-मन्द । गन्धवह = हवा, वायु। निरानन्द =

आनन्दरहित। नियति = प्रकृति का विधान । नटी = नर्तकी। कार्य-कलाप = क्रियाकलाप, कार्य]]

प्रसंग―प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्रकृति के सौन्दर्य, क्रियाशीलता, शान्ति और सात्विकता का सुन्दर

वर्णन किया है।

व्याख्या―पंचवटी के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए लक्ष्मण अपने मन में सोचते हैं कि यहाँ

कितनी स्वच्छ और चमकीली चाँदनी है और रात्रि भी बहुत शान्त है। स्वच्छ, सुगन्धित वायु मन्द-मन्द बह

रही है। पंचवटी में किस ओर आनन्द नहीं है ? इस समय चारों ओर पूर्ण शान्ति है तथा सभी लोग सो रहे हैं;

फिर भी नियतिरूपी नटी अपने कार्य-कलाप बहुत शान्त भाव से और चुपचाप पूरा करने में तल्लीन है।

तात्पर्य यह है कि नियति रूपी नर्तकी अपने क्रिया-कलापों को बहुत ही शान्ति से सम्पन्न कर रही है और वह

अकेले ही अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह किये जा रही है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने पंचवटी के शान्त-प्राकृतिक सौन्दर्य का हृदयग्राही वर्णन

किया है। (2) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (3) शैली―भावात्मक और चित्रात्मका

(4) रस―शान्ता (5) गुण―प्रसाद। (6) छन्द―ताटंक। (7) अलंकार―अनुप्रास व रूपका

(8) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं व्यंजना। (9) नियति-नटी के अज्ञात क्रिया-कलापों की ओर संकेत करके

कवि ने राम, सीता और लक्ष्मण के भाग्य-चक्र का संकेत भी दे दिया है। (10) भाव-साम्य―जंगलों की

शान्त-प्रकृति का ऐसा ही वर्णन भवानीप्रसाद मिश्र ने कुछ इस प्रकार किया है―

                            झाड़ ऊँचे और नीचे

                            चुप खड़े हैं आँख मींचे

                            घाँस चुप है कास चुप है

                            मूक शाल पलाश चुप है…।

(6) है बिखेर देती वसुन्धरा, मोती सबके सोने पर,

     रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।

    और विरामदायिनी अपनी, सन्ध्या को दे जाता है,

    शून्य श्याम तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।।

[वसुन्धरा = पृथ्वी। विरामदायिनी = विश्राम देने वाली। शून्य = आकाश। तनु = शरीर।]

प्रसंग―प्रस्तुत पद्य-पंक्तियों में कवि ने पंचवटी के प्राकृतिक सौन्दर्य का मनोहारी वर्णन लक्ष्मण

के माध्यम से कराया है।

व्याख्या―लक्ष्मण पंचवटी में पर्णकुटी के बाहर एक स्वच्छ शिला पर बैठकर प्रकृति रूपी नटी के

कार्य-कलापों के विषय में सोच रहे हैं कि जब संसार के समस्त प्राणी रात में सो जाते हैं, उस समय यह

रत्नगर्भा पृथ्वी प्रसन्न होकर छोटे-छोटे ओस कणों के रूप में सर्वत्र मोतियों का खजाना बिखेर देती है।

तात्पर्य यह है कि ये ओस के कण मोतियों के समान दिखाई देते हैं। प्रात:काल हो जाने पर सूर्य अपने

किरणरूपी हाथों से उन मोतियों को समेट लेता है। तात्पर्य यह है कि मोती के समान चमकने वाले ओस के

कण सूर्य की किरणों के ताप से सूख जाते हैं। सूर्य दिनभर आकाश के विस्तृत मार्ग में गमन करता हुआ थक

जाता है और सन्ध्या समय उसे विश्राम मिलता है। अतः सूर्य प्रात:काल के समय बटोरे गये ओस-कणरूपी

मोतियों को, विश्राम देने वाली सन्ध्यारूपी नायिका को उपहार रूप में देकर अस्त हो जाता है। सन्ध्याकाल में

अन्धकार छा जाने के कारण सन्ध्या का शरीर श्याम-वर्ण का होता है। सन्ध्या सुन्दरी उन मोतियों से अपना

रूप-श्रृंगार करती है, जिससे उसके साँवले शरीर में एक नया सौन्दर्य उत्पन्न हो जाता है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ प्रात:कालीन धरती और सायंकालीन आकाश का मनोरम व

आलंकारिक चित्रण किया गया है। (2) प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। (3) इस पद में असंख्य तारों से

जगमगाते नीले आकाश की शोभा की ओर संकेत किया गया है। आकाश में निकले हुए तारों को सूर्य द्वारा

सन्ध्या को भेंट किये गये मोती के रूप में दर्शाकर कवि ने अपनी मौलिक सूझ का परिचय दिया है।

(4) भाषा-शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (5) शैली-प्रबन्ध, चित्रात्मक और भावात्मक। (6) रस―

शृंगार। (7) गुण―माधुर्य। (8) छन्द―ताटंक। (9) अलंकार―है बिखेर देती वसुन्धरा, मोती सबके सोने

पर’ में मानवीकरण, अनुप्रास तथा रूपक। (10) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।

(7) सरल तरल जिन तुहिन कणों से हँसती हर्षित होती है,

     अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।

     अनजानी भूलों पर भी वह अदय दण्ड तो देती है,

      पर बूढों को भी बच्चों-सा सदय भाव से सेती है।

[तरल = द्रव, बहने वाले। तुहिन कण = ओस की बूंदें। अनजानी = अज्ञात। अदय =

कठोरतापूर्वक। सदय = दया भाव से। सेती है = रक्षा करती है।]

प्रसंग―प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने लक्ष्मण के मन में उठ रहे विचारों का सुन्दर चित्रण किया है।

लक्ष्मण को प्रकृति एक ओर हर्ष और उल्लास प्रकट करती हुई प्रतीत होती है तो दूसरी ओर अपने शोक-

भावों को भी व्यक्त करती है।

व्याख्या―लक्ष्मण अपने मन में विचार करते हैं कि जो सुन्दर और चंचल ओस की बूंँदें प्रकृति की

प्रसन्नता और शोभा की प्रतीक हैं, उन्हीं ओस की बूंदों से वह आत्मीय प्रकृति दुःख की घड़ी में हमारे साथ

रोती हुई-सी प्रतीत होती है, जब कि सुख के क्षणों में इन्हीं ओस की बूंदों के माध्यम से वह अपना हर्ष प्रकट

करती है। यह प्रकृति हमारी अनजाने में की गयी भूलों पर कठोरतापूर्वक दण्ड देती है, किन्तु कभी-कभी

बड़ी दयालु होकर बूढ़ों की भी बच्चों के समान सेवा करती है। इस प्रकार प्रकृति के कठोर और कोमल दोनों

रूप हमारे सम्मुख प्रकट होते हैं। यहाँ प्रकृति में आत्मीयता और संरक्षण का भाव व्यक्त हुआ है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) सुखी व्यक्ति ओस-कणों के रूप में प्रकृति को अपने साथ हँसता हुआ

प्रसन्न मुद्रा में देखता है, जब कि दुःखी व्यक्ति उन्हीं ओस-कणों को प्रकृति के आँसू जानकर उसे अपने

साथ रोता हुआ अनुभव करता है। (2) सुखी व्यक्ति प्रकृति के प्रत्येक क्रिया-कलाप में सुख का अनुभव

करता है और दुःखी अवस्था में वह उन्हीं क्रिया-कलापों में दुःख का अनुभव करता है। इस बात की सार्थक

अभिव्यक्ति की गयी है। (3) ‘अनजानी भूलों पर भी वह अदय दण्ड तो देती है’ के माध्यम से प्रकृति के साथ

छेड़छाड़ न करने की चेतावनी दी गयी है। (4) भाषा―संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली। (5) शैली―प्रबन्ध तथा

भावात्मका (6) रस―शान्त एवं शृंगार। (7) गुण―प्रसाद एवं माधुर्य। (8) छन्द―ताटंक। (9) अलंकार―

रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास और मानवीकरण। (10) शब्द-शक्ति―लक्षणा।

(8) तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,

      वन को आते देख हमें जब, आर्त अचेत हुए थे तात।

     अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की,

     किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की?

[व्यतीत हो चुके = बीत गये। आर्त = दुःखी। अचेत = चेतनाशून्य, बेहोश। तात = पिता। अवधि =

निर्धारित समय। इस जन को = मुझे (लक्ष्मण)।]

प्रसंग―पंचवटी पर पहरा देते हुए लक्ष्मण अपने अतीत का स्मरण कर रहे हैं। प्रस्तुत अंश में इसी

का वर्णन किया गया है।

व्याख्या―पंचवटी पर पहरा देते हुए लक्ष्मण सोच रहे हैं कि हमें वन में निवास करते हुए तेरह वर्ष

बीत चुके हैं, परन्तु यह बात वैसी प्रतीत होती है, जैसे कल की बात हो। जब कि हमारे पिताजी हमें वन में

आते देखकर व्याकुल और अचेत हो गये थे। अब वह समय बहुत निकट है, जब वनवास की अवधि पूरी हो

जाएगी और हम अयोध्या लौट जाएंगे, किन्तु मझे श्रीराम और सीताजी की सेवा करने से जो आनन्द यहाँ

मिल रहा है, वह अयोध्या के समृद्ध राज्य में कहाँ मिल पाएगा? तात्पर्य यह है कि मुझे भ्रातृ-भक्तिरूपी जो

यह सर्वश्रेष्ठ और महान् धन यहाँ प्राप्त हो रहा है, अयोध्या में वह दुर्लभ है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) लक्ष्मण की पवित्र भ्रातृ-भक्ति की भावना को अभिव्यक्त करने में कवि

पूर्णरूपेण सफल हुए हैं। भ्रातृ-भक्ति की ऐसी भावना भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है। (2) समय

बीतते देर नहीं लगती, इस बात को बड़े ही मनौवैज्ञानिक रूप में दर्शाया गया है। (3) भाषा―शुद्ध साहित्यिक

खड़ी बोली। (4) शैली―प्रबन्ध तथा भावात्मक। (5) रस―शान्त। (6) गुण―प्रसाद। (7) छन्द―ताटंक।

(8) अलंकार―उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति तथा रूपक। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।

(9) और आर्य को? राज्य-भार तो वे प्रजार्थ ही धारेंगे,

      व्यस्त रहेंगे, हम सबको भी मानो विवश बिसारेंगे।

      कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक,

      पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक?

[आर्य = बड़े भाई राम। प्रजार्थ = प्रजा के लिए। धारेंगे = धारण करेंगे। बिसारेंगे = भूल जाएंगे।

लोकोपकार = संसार की भलाई। नरलोक = मनुष्यों की दुनिया।]

प्रसंग―पंचवटी में स्थित कुटिया का प्रहरी बने लक्ष्मण सोच रहे हैं कि एक वर्ष पश्चात् जब हम

लोग अयोध्या लौट जाएँगे, तब रामचन्द्र प्रजा के हित के लिए राज्य-भार को धारण करेंगे। प्रस्तुत पद्य में इसी

का वर्णन किया गया है।

व्याख्या―वनवास की अवधि पूरी करके जब हम लोग अयोध्या लौटेंगे तो बड़े भाई राम को क्या

मिलेगा? लक्ष्मण स्वयं उत्तर देते हुए कहते हैं कि वे राज्यभार संभाल लेंगे, किन्तु यह भार तो वह प्रजा के

हित के लिए ही धारण करेंगे। तब वे राज्य के कार्य में इतने व्यस्त रहेंगे कि विवश होकर हम लोगों को

भी भूल जाएँगे, किन्तु यह सोचकर कि वे लोगों के उपकार में लगे हैं, हमें दुःख नहीं होगा। लक्ष्मण के मन

में यह प्रश्न उठता है कि इस दुनिया के लोग अपना हित स्वयं क्यों नहीं कर सकते ? वे अपनी सुख-सुविधा

के लिए राजा पर ही निर्भर क्यों रहते हैं ? यदि लोग अपना तथा दूसरों का भला स्वयं ही करने लगे और

इसके लिए दूसरों का मुँह न देखें तो यह संसार कितना सुन्दर और सुखद हो जाएगा।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने इस तथ्य को दर्शाया है कि राजा का कर्तव्य निरन्तर प्रजाहित

में निरत रहना ही है। (2) कवि ने लक्ष्मण के मन के भावों के माध्यम से स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्परा की

भावना को सहज अभिव्यक्ति प्रदान की है। (3) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―

भावात्मक। (5) रस―शान्त। (6) गुण―प्रसाद। (7) छन्द―ताटंक। (8) अलंकार―अनुप्रास तथा

उत्प्रेक्षा। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।

        काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न

प्रश्न 1  निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों का नाम सहित स्पष्टीकरण दीजिए―

(क) चारु चन्द्र की चंचल किरणें,खेल रही हैं जल-थल में।

(ख) मानो झींम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से।

(ग) भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है।

उत्तर― (क) ‘च’ तथा ‘ल’ वर्गों की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास, किरणों के खेलने में मानव-

व्यापार के आरोपित होने के कारण मानवीकरण अलंकार है।

(ख) तरुओं के झूमने की सम्भावना के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।

(ग) कुसुमायुध-योगी से तुलना के कारण उपमा अलंकार है।

प्रश्न 2 निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए―

           तरंग, सागर, चन्द्र, कुटीर, निशा।

उत्तर― तरंग―लहर, ऊर्मि, वीचि, हिलोर।

           सागर―समुद्र, सिन्धु, रत्नाकर, उदधि, जलधि।

           चन्द्र―निशाकर, हिमांशु, राकेश, निशिपति।

          कुटीर―कुटिया, झोपड़ी, कुटी।

          निशा―यामिनी, विभावरी, रात्रि, निशि।

प्रश्न 3 निम्नलिखित पदों में सविग्रह समास-नाम लिखिए―

उत्तर―समस्त पद           समास-विग्रह                 समास-नाम

          सभय                 भय के साथ                   अव्ययीभाव

          कुसुमायुध           कुसुम का                      आयुधषष्ठी तत्पुरुष

          अदय                 बिना दया का                   नञ् तत्पुरुष

          राम जानकी        राम और जानकी               द्वन्द्व

         पंचवटी             पाँच वृक्षों का समाहार           द्विगु

         वसुन्धरा          वसुओं को धारण करने वाली    बहुव्रीहि

प्रश्न 4 निम्नलिखित शब्दों में नियम-निर्देशपूर्वक सन्धि-विच्छेद कीजिए―

उत्तर― शब्द               सन्धि-विच्छेद                   नियम

         धनुर्धर              धनु: + धर                       :  + ध = र्ध

         कुसुमायुध         कुसुम + आयुध               अ + आ = आ

         निरानन्द            निर् + आनन्द                  र् + आ = रा

         लोकोपकार        लोक + उपकार               अ + उ  = ओ