Show - गुड्डू कुमारपी एचडी शोधार्थी, अ.मु.वि, अलीगढ़ वैदिक संस्कृत में वीर शब्द शूर अथवा योद्धा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भाष्यकार आचार्य सायण ने वीर शब्द से संबोधित होने योग्य व्यक्ति के वांछनीय गुणों पर प्रकाश डालते हुए उसे सिर्फ ‘वीर विकांतान’ ही नहीं अपितु कर्म में समर्थ, यज्ञादि अनुष्ठानों में दक्ष एवं प्रेरक भी कहा है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अस्त्र-शस्त्र संचालन में कुशल, युद्धकला में पूर्ण , शौर्य-श्री-संपन्न, यज्ञ, दान, दया, धर्मादि कर्मों में दक्ष व्यक्ति वीर कहा जा सकता है। वीरों के गुण, स्वरुप और कार्यों का विवेचन वैदिक ऋषियों और पुराणकारों से लेकर परवर्ती कवि परंपरा तक हुआ है, इसलिए वीरों की प्रशस्ति, उनके युद्ध, दान, दया, धर्मादि के कर्मों का बखान, उनके शौर्य, सामर्थ्य और पराक्रम का वर्णन प्राचीन और अर्वाचीन काव्यों में समान रूप से विद्यमान है। इस संदर्भ में ‘वीरभोग्या वसुंधरा’ की उक्ति भी वीरों के सामर्थ्य से उद्भूत हुई है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। यह उत्साह ही वीरकर्मों की प्रेरक शक्ति का प्रतीक एवं उनके वीरतापूर्ण कार्यों का मूल उत्स है। रससिद्धांत के आचार्यों की भाषा में वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है, जो अनुभाव, विभाव, संचारी भावादि से भावित होकर वीर रस की निष्पत्ति का कारण होता है और वीरों को वीरतापूर्ण कार्यों के लिए प्रेरित करता है। अत: समस्त वीर भावात्मक काव्य वीरकाव्य के अंतर्गत आना चाहिए, किन्तु हिंदी साहित्य में अधिकाधिक विद्वानों ने दानवीर, धर्मवीर, और दयावीर संबंधित संपूर्ण साहित्य को धार्मिक साहित्य कहकर विशुद्ध साहित्य की श्रेणी से बाहर निकाल दिया है और केवल युद्धवीरों से संबंधित चरित-काव्य या घटना प्रसंग संबंधी वीर प्रशस्तियों को ही वीरकाव्य के अंतर्गत स्थान दिया है। फिर इन्हीं युद्धवीरों में दानवीर, धर्मवीर, और दयावीर निरुपित करते समय तत्संबंधी छंदों या काव्यांशों को भी वीरकाव्य के अंतर्गत बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लिया है। वीरकाव्य संबंधी यह धारणा न्यायसंगत नहीं है। रस का सैद्धांतिक विवेचन करते समय वीर रस को चतुर्विध मानकर तत्वसंबंधी चतुर्विध काव्य को वीरकाव्य मानना चाहिए। रस और रसानुभूति की दृष्टि से दानवीर, धर्मवीर और दयावीर संबंधी काव्य से उपलब्ध होनेवाली काव्यानुभूति विशुद्ध, अविकारी एवं अपरिवर्तनीय होती है। ऐसे काव्यों में शांत रस की प्रचुरता होती है। अत: रसों की विविधता यहाँ नहीं मिलती, जो युद्धवीर संबंधी काव्यों में दिखाई देती है। युद्धवीर विषयक काव्य में वीर रस की दशा में परिष्कार और परिवर्तन होता है। युद्धवीर का हृदयगत भाव ‘उत्साह’ क्रोधावेश में प्राय: रौद्र रस में बदल जाता है, इसीलिए युद्ध-भूमि में वीरों का चेहरा तमतमा उठता है और उनकी आखें रक्तवर्ण हो जाती है। वीर और रौद्र रस के संयोजन से वीरों में जोश की मात्रा और भी बढ़ जाती है। उत्साह की इस उद्दीप्त दशा में वीर युद्धभूमि में बड़े साहस से युद्ध करते हैं, जिसकी अंतिम परिणति वीभत्स रस में होती है। अतएव युद्ध संबंधी सभी काव्यों में रौद्र और वीभत्स रस की व्यंजना पाई जाती है। अत: रौद्र और वीभत्स रसों को वीर रस की विकासोन्मुख प्रक्रिया का सहायक कहा जाता है। वीरों के चरित्र में जब कभी भी युद्ध प्रेमावृत्ति से उत्पन्न हुआ है, कवियों ने श्रृंगार के संयोग और वियोग पक्ष के अंतर्गत नायिका की नखशिख वर्णन, षड्ऋतु वर्णन, प्रकृति चित्रण आदि के लिए भी जगह निकाल लिया है; और ऐसी स्थति में वीरकाव्यों के अंतर्गत श्रृंगार, वीर, रौद्र और वीभत्स रसों का समावेश हो जाता है। सामान्यत: वीरों का व्यक्तित्व, दान, दया, धर्म, युद्ध एवं उनके विविध उत्साहवर्धक कार्य ही वीरकाव्य के आलंबन हैं। इस दृष्टि से वीरों का चरित्र-चित्रण, वीरगाथाएँ, प्रशस्तियाँ, युद्ध वर्णन और वीरों के कार्यकलाप संबंधी विविध प्रसंगों का वर्णन वीरकाव्य के अंतर्गत आता है; जिसमें श्रृंगार, रौद्र और वीभत्स रस वीर रस के सहयोगी के रूप में उपलब्ध होते हैं। प्राय: समस्त भारतीय वीरकाव्यों में यह विशेषताएँ पाई जाती हैं। निष्कर्षत: वीरों के ऐतिहासिक चरित्र एवं उनकी वीरतापूर्ण कार्यों से संबंधित काव्य वीरकाव्य कहलाता है। हिंदी वीरकाव्य का संबंध भारतीय इतिहास से है। हिंदी साहित्य के आरंभिक अवस्था में भारत छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य-रजवाड़ों में विभक्त था। इन राज्य-रजवाड़ों में सत्ता-लोलुपता तथा अन्य कई कारणों से भी आपसी मतभेद थे। इसी समय में भारत की उत्तरी-पश्चिमी भाग मुस्लिम शासकों के आक्रमण से आक्रांत था। अत: भारतीय नरेशों का ध्यान आपसी फूटों के साथ-साथ मुस्लिम शासकों के आक्रमण की ओर भी टिका था। आपसी फूट और बाहरी आक्रमण से अपने-अपने राज्य की रक्षा के लिए अक्सर लड़ाइयाँ होती रहती थीं। इसी आवेशपूर्ण वातावरण में राज्य-रजवाड़ों के दरबारी कवि अपने आश्रयदाता के शौर्य, पराक्रम आदि का गुणगान करते थे। आरंभिक हिंदी साहित्य का यही गुणगान वीर-प्रशस्ति या वीरकाव्य के नाम से उपलब्ध है। हिंदी साहित्य में वीर रस के कविता का उत्थान तीन रूपों में मिलता है। प्रथम उत्थान आदिकालीन वीर प्रशस्तियों का है। द्वितीय उत्थान छत्रपति शिवाजी, महाराज छत्रसाल जैसे वीर नायकों के उत्थान के साथ होता है। इस उत्थान की कविताओं में वीर और प्रीति का मिश्रण नहीं है। यहाँ ऐतिहासिक वीरकाव्य ही है। तृतीय उत्थान स्वतंत्रता की लहर के साथ हुआ था। इस उत्थान की कविता का लक्ष्य विदेशी शासन की निंदा और आत्मगौरव का उत्थान है। इस उत्थान की कविताओं में प्राचीन वीरों पर भी कविताएँ हुई, पर उनका भी लक्ष्य राष्ट्रीय भावना से ही प्रेरित था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वीर रस पूर्ण की कवितायें लिखी जाती रही हैं। इन कविताओं का विषय भी राष्ट्र-प्रेम ही हैं। आदिकालीन हिंदी वीरकाव्य के अंतर्गत जो प्रवृतियाँ विकसित हुई, उसमें अशान्तिपूर्ण वातावरण का चित्रण है। विविध हिन्दू राजाओं के दरबारों में कवियों और चारणों ने उनके उत्साहवर्द्धन तथा गुणगान के रूप में अनेक काव्यों की रचना की। ये काव्य दो रूपों में मिलते हैं-पहला प्रबंधात्मक रूप में और दूसरा वीरगीतों के रूप में। प्रबंधात्मक रूप के काव्यों में खुमान रासो, पृथ्वीराज रासो आदि प्रमुख हैं। वीरगीतों में परमाल रासो, बीसलदेव रासो आदि प्रमुख हैं। इस दोनों काव्य रूपों को रासो काव्य के नाम से भी जाना जाता है। इस काव्य में विभिन्न कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के यश, युद्ध, प्रयाण और शौर्य से युक्त कार्यकलापों का चित्रण किया है। इसमें वीर नायकों का युद्ध अधिकतर नायिका के रूप-लावण्य पर मुग्ध होने के कारण हुआ है। जहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से युद्ध के मूल में कोई कामिनी नहीं है वहाँ भी वैसी ही कल्पना कर ली गई है। तात्पर्य यह है कि शौर्य अधिकतर श्रृंगार का सहकारी बनकर आया है। करुणा को भंग करके वीरता का जैसा प्रदर्शन वीरकाव्यों में उपयुक्त हो सकता था, वैसा नहीं हुआ है। जिस रमणी के करुण-क्रंदन पर वीर-नायक प्रतिपक्षी से युद्ध मोल लेता है, वह अंत में उसकी वीरता-शरणता पर रीझकर उसे ही आत्मसमर्पण कर देती है। इसका आभास भी किसी-किसी वीरगाथात्मक साहित्य में मिलता है। रासो काव्य के रचयिता चारण या भाट थे। इनका स्थान राजपुताना था। ये डिंगल और पिंगल नामक दो प्रकार की भाषा में कविताएँ किया करते थे। राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंश डिंगल और ब्रज मिश्रित अपभ्रंश पिंगल कहलाती थी। वीर प्रशस्तियों में से प्रबंधात्मक वीरकाव्य अधिकांशत: पिंगल भाषा में है। हिन्दू राजदरबारों की भांति मुस्लिम शासक भी अपने दरबारों में राजकवि रखते थे। मुग़ल दरबार में गंग, शिरोमणि भट्ट, चिंतामणि, कालिदास त्रिवेदी आदि प्रमुख थे। इन्होंने भी
प्रशस्ति काव्य की रचना की है। 1. ऐतिहासिक वीरकाव्य 2. रासो-पद्धति का श्रृंगार मिश्रित वीरकाव्य 3. भक्ति भावित वीरकाव्य (वीर-देव-काव्य) 4. अनूदित वीरकाव्य (रामायण- महाभारत जैसे पौराणिक काव्यों का अनुवाद ) 5. दरबारी कवियों का प्रकीर्ण वीरकाव्य हिंदी साहित्य के आधुनिककाल में वीर रस की भी कविताएँ हुई हैं। इस युग की वीररसात्मक कविताएँ राष्ट्र कल्याण की भावना से संप्रेषित हैं। इस काव्य धारा की झलक भारतेंदु युग से मिलने लगती है। आगे चलकर कांग्रेस की स्थापना और देश में राजनीतिक हलचल से राष्ट्रीय कविता अधिक मात्रा में लिखी जाने लगी। इस काल की अधिकांश कविताएँ ऐतिहासिक, पौराणिक काव्य को आधार बनाकर लिखे गये हैं। इन ऐतिहासिक पौराणिक वीरकाव्यों के नायकों को आधुनिक स्थिति-परिस्थिति के साँचे में ढाला गया है; तथा भारतीय जनता को उत्साहित किया गया है कि वे राष्ट्र की स्वतंत्रता हेतु अपने प्राण की बलि देने को हमेशा तत्पर रहें। अत: आधुनिककालीन वीररसात्मक कविता वह ओजस्वी कविता है जिसमें राष्ट्र कल्याण की भावना प्रबल हो गई हैं। संदर्भ ग्रंथ सूची - वीर काव्य से क्या तात्पर्य?निष्कर्षत: वीरों के ऐतिहासिक चरित्र एवं उनकी वीरतापूर्ण कार्यों से संबंधित काव्य वीरकाव्य कहलाता है। हिंदी वीरकाव्य का संबंध भारतीय इतिहास से है। हिंदी साहित्य के आरंभिक अवस्था में भारत छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य-रजवाड़ों में विभक्त था। इन राज्य-रजवाड़ों में सत्ता-लोलुपता तथा अन्य कई कारणों से भी आपसी मतभेद थे।
वीर रस के कवि कौन है?महाकवि भूषण (१६१३ - १७१५) रीतिकाल के तीन प्रमुख हिन्दी कवियों में से एक हैं, अन्य दो कवि हैं बिहारी तथा शृंगार रस में रचना कर रहे थे, वीर रस में प्रमुखता से रचना कर भूषण ने अपने को सबसे अलग साबित किया।
रीतिकालीन कवि भूषण के काव्य के नायक कौन है?तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इसका असल नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीर-काव्य के नायक हुए, छत्रपति महाराज-शिवाजी-मिले।
काव्य भाषा क्या है?काव्य भाषा विश्व साहित्य में हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है। यूनानी विचारकों ने भी कवि कर्म में भाषा को ही प्रधानता दी है और भारतीय काव्यशास्त्र में भाषा को साहित्य में बहुत महत्व दिया है। आम बोलचाल की भाषा में निरन्तर परिवर्तन के कारण जब परिनिष्ठित और मानक रूप ग्रहण कर लेती है तब वह काव्य भाषा बन जाती है।
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