ध्यान हिन्दू धर्म, भारत की प्राचीन शैली और विद्या के सन्दर्भ में महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित योगसूत्र में वर्णित अष्टांगयोग का एक अंग है[1]। ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि है। ध्यान का अर्थ किसी भी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है। मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, ईश्वर का अनुसंधान, मन को निर्विचार करना, मन पर काबू पाना जैसे कई उद्दयेशों के साथ ध्यान किया जाता है। ध्यान का प्रयोग भारत में प्राचीनकाल से किया जाता है। Show
ध्यान की पद्धति[संपादित करें]ध्यान करने के लिए व्यक्ति की रुचि के अनुसार अनेक प्रकार की पद्धति है जिसमें से कुछ पद्धतियाँ निम्न प्रकार की है:- मुख्य पद्धति[संपादित करें]ध्यान करने के लिए स्वच्छ जगह पर स्वच्छ आसन पे बैठकर साधक अपनी आँखे बंध करके अपने मन को दूसरे सभी संकल्प-विकल्पो से हटाकर शांत कर देता है। और ईश्वर, गुरु, मूर्ति, आत्मा, निराकार परब्रह्म या किसी की भी धारणा करके उसमे अपने मन को स्थिर करके उसमें ही लीन हो जाता है। जिसमें ईश्वर या किसीकी धारणा की जाती है उसे साकार ध्यान और किसी की भी धारणा का आधार लिए बिना ही कुशल साधक अपने मन को स्थिर करके लीन होता है उसे योग की भाषा में निराकार ध्यान कहा जाता है। गीता के अध्याय-६ में श्रीकृष्ण द्वारा ध्यान की पद्धति का वर्णन किया गया है। ध्यान करने के लिए पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठा जा सकता है। शांत और चित्त को प्रसन्न करने वाला स्थल ध्यान के लिए अनुकूल है। रात्रि, प्रात:काल या संध्या का समय भी ध्यान के लिए अनुकूल है। ध्यान के साथ मन को एकाग्र करने के लिए प्राणायाम, नामस्मरण (जप), त्राटक का भी सहारा लिया जा सकता है। ध्यान में ह्रदय पर ध्यान केन्द्रित करना, ललाट के बीच अग्र भाग में ध्यान केन्द्रित करना, स्वास-उच्छवास की क्रिया पे ध्यान केन्द्रित करना, इष्टदेव या गुरु की धारणा करके उसमे ध्यान केन्द्रित करना, मन को निर्विचार करना, आत्मा पे ध्यान केन्द्रित करना जैसी कई पद्धतियाँ है। ध्यान के साथ प्रार्थना भी कर सकते है। साधक अपने गुरु के मार्गदर्शन और अपनी रुचि के अनुसार कोई भी पद्धति अपनाकर ध्यान कर सकता है। ध्यान के अभ्यास के प्रारंभ में मन की अस्थिरता और एक ही स्थान पर एकांत में लंबे समय तक बैठने की अक्षमता जैसी परेशानीयों का सामना करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास के बाद मन को स्थिर किया जा सकता है और एक ही आसन में बैठने के अभ्यास से ये समस्या का समाधान हो जाता है। सदाचार, सद्विचार, यम, नियम का पालन और सात्विक भोजन से भी ध्यान में सरलता प्राप्त होती है। ध्यान का अभ्यास आगे बढ़ने के साथ मन शांत हो जाता है जिसको योग की भाषा में चित्तशुद्धि कहा जाता है। ध्यान में साधक अपने शरीर, वातावरण को भी भूल जाता है और समय का भान भी नहीं रहता। उसके बाद समाधिदशा की प्राप्ति होती है। योगग्रंथो के अनुसार ध्यान से कुंडलिनी शक्ति को जागृत किया जा सकता है और साधक को कई प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है। पतंजलि योग में मुख्य आठ प्रकार की शक्तियों का वर्णन किया गया है। सन्दर्भ[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं: १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधिपरिचय[संपादित करें]महर्षि पतञ्जलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है (योगश्चितवृत्तिनिरोधः)। इसकी स्थिति और सिद्धि के निमित्त कतिपय उपाय आवश्यक होते हैं जिन्हें 'अंग' कहते हैं और जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' नाम से प्रसिद्ध हैं। बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है। 'यम' और 'नियम' वस्तुतः शील और तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना), (घ) ब्रह्मचर्य, तथा अपरिगृह। इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्) जो देहस्थिरता की साधना है। आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम 'प्रत्याहार' है। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)। अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना 'धारणा' कहलाता है (देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1)। ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे 'ध्यान' कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परन्तु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम 'संयम' है जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है। योग के अष्टाङ्गों का परिचय[संपादित करें]यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोsष्टावङ्गानि ॥यम[संपादित करें]अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहाः यमा ॥ पांच सामाजिक नैतिकता (क) अहिंसा - अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्निधौ वैरत्याग: ॥ पातंजलयोगदर्शन 2/35॥ अर्थात अहिंसा से प्रतिष्ठित हो जाने पर उस योगी पास वैरभाव छूट जाता है । शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना (ख) सत्य -सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफ़लाश्रययत्वम् ॥ पातंजलयोगदर्शन 2/36 ॥ अर्थात सत्य से प्रतिष्ठित (वितर्क शून्यता स्थिर) हो जाने पर उस साधक में क्रियाओं और उनके फलों की आश्रयता आ जाती है । अर्थात जब साधक सत्य की साधना में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके किए गए कर्म उत्तम फल देने वाले होते हैं और इस सत्य आचरण का प्रभाव अन्य प्राणियों पर कल्याणकारी होता है । विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना (ग) अस्तेय - अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।। पातंजलयोगदर्शन 2/37 ।। अर्थात अस्तेय के प्रतिष्ठित हो जाने पर सभी रत्नों की उपस्थति हो जाती है । अस्तेय अर्थात चोर-प्रवृति का न होना (घ) ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/ 38 ।। अर्थात ब्रह्मचर्य के प्रतिष्ठित हो जाने पर वीर्य(सामर्थ्य) का लाभ होता है । ब्रह्मचर्य दो अर्थ हैं- चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करनासभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना(च) अपरिग्रह - अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध :।। पातंजलयोगदर्शन 2/ 39।। अर्थात अपरिग्रह स्थिर होने पर (बहुत, वर्तमान और भविष्य के ) जन्मों तथा उनके प्रकार का संज्ञान होता है । अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना नियम[संपादित करें]शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/32 ।। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - नियम कहे जाते हैं । पाँच व्यक्तिगत नैतिकता (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना (ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना (घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना (ड़) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए आसन[संपादित करें]योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रणआसन शरीर को साधने का तरीका है।पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है (स्थिरसुखमासनम् ॥४६॥)।[1] पतंजलि के योगसूत्र में आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। लेकिन परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे सम्बंधित ‘हठयोगप्रदीपिका’ ‘घेरण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद’ में विस्तार से वर्णन मिलता है। प्राणायाम[संपादित करें]तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/49 ।। उस ( आसन) के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है । योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है। प्रत्याहार[संपादित करें]इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं। धारणा[संपादित करें]मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है। किसी एक विषय को ध्यान में बनाए रखना। ध्यान[संपादित करें]किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती। समाधि[संपादित करें]यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं : सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। षडंग योग[संपादित करें]षडङ्ग योग- अर्थात "छः अंगों वाला योग"। इसका वर्णन मैत्रायणी उपनिषद् में आता है। ये छः अंग हैं - प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, तर्क और समाधि। प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोsथ धारणा ।तर्कश्चैत्र समाधिश्च षडङ्गो योग उच्यते ॥ध्यातव्य है कि इसमें अष्टाङ्ग योग के यम, नियम और आसन को स्थान नहीं दिया गया है। बल्कि 'तर्क' नाम से एक अंग को इसमें समाहित किया गया है। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
संदर्भ ग्रंथ[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
ध्यान योग कौन सा अंग है?ध्यान हिन्दू धर्म, भारत की प्राचीन शैली और विद्या के सन्दर्भ में महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित योगसूत्र में वर्णित अष्टांगयोग का एक अंग है। ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि है। ध्यान का अर्थ किसी भी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है।
ध्यान आसन कितने प्रकार के होते हैं?यह ध्यान तीन प्रकार का होता है- 1.
स्थूल ध्यान, 2. ज्योतिर्ध्यान और 3. सूक्ष्म ध्यान।
ध्यान की कितनी विधियां हैं?भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान की 112 विधियां बताई थी जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं।
ध्यान योग कैसे करना चाहिए?ध्यान के लिए एक ऐसा नीरव एवं शांत स्थान ढूँढे जहाँ आप अलग से बैठकर निर्बाधित रूप से ध्यान कर सकें। अपने लिए एक ऐसा पवित्र स्थान बनायें जो मात्र आपके ध्यान के अभ्यास के लिए ही हो। ... . प्रभावपूर्ण ध्यान करने के लिए आसन के विषय में निर्देश. ध्यान के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है — उचित आसन। मेरुदंड सीधा होना चाहिए।. |