अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य भामह हैं। हलांकि आचार्य भरत मुनि ने अलंकार संबंधी कई स्थापनाएं प्रस्तुत किया परंतु उन्होंने रस सिद्धांत को ही प्रमुखता दिया इसीलिए अलंकार सिद्धांत के प्रवर्तक भामह को माना जाता है। जहाँ तक भरतमुनि की बात है उन्होंने 4 अलंकारों (उपमा, रूपक, दीपक, यमक) का उल्लेख किया है। भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में उपमा के 5 भेद (प्रशंसा, निंदा, कल्पिता, सहशी, किंचित्सदृशी) और यमक के 10 भेद किया है। Show अलंकार सिद्धांत के प्रमुख आचार्यअलंकार संप्रदाय के प्रमुख आचार्य या व्याख्याता भामह (छठी शताब्दी का पूर्वार्ध), दंडी (सातवीं शताब्दी), उद्भट (आठवीं शताब्दी) तथा रुद्रट (नवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) हैं। भामह का अनुकरण दंडी ने किया और भामह तथा दंडी का उद्भट ने। उपरोक्त सभी आचार्य अलंकार को ही ‘काव्य की आत्मा’ मानते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में यही संप्रदाय सबसे प्राचीन माना जाता है। अलंकार सिद्धांत के आचार्यों की मूल स्थापनाएं1. आचार्य भामह (aacharya bhamah)भामह कश्मीर के निवासी थे तथा इनके पिता का नाम रक्रिल गोमी था। बलदेव उपाध्याय ने भामह का समय छठी शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया है। सर्वप्रथम भामह ने ही अलंकार को नाट्यशास्त्र की परतन्त्रता से मुक्त कर एक स्वतंत्र शास्त्र या सम्पदाय के रूप में प्रस्तुत किया और अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व घोषित किया। भामह के अनुसार ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’ अर्थात शब्द और अर्थ दोनों का सहभाव काव्य है। इन्होंने ‘काव्यालंकार’ (भामहालंकार) नामक ग्रन्थ की रचना की, जो छह परिच्छेदों में विभक्त है। भामह के ‘काव्यालंकार’ में परिच्छेदानुसार निरूपित विषयों की तालिका इस प्रकार है- भामह ने अलंकार को काव्य का एक आवश्यक आभूषक तत्व मानते हुए कहा है- ‘न कान्तमपि विभूषणं विभाति वनिता मुखम्।’ अर्थात् बिना अलंकारों के काव्य उसी प्रकार शोभित नहीं हो सकता जिस प्रकार किसी सुंदर स्त्री का मुख बिना अलंकारों के शोभा नहीं पाता। इन्होंने 38 अलंकारों का वर्णन किया है जिसमें दो शब्दालंकार (अनुप्रास और यमक) तथा 36 अर्थालंकार हैं। भामह ने अलंकार का मूल (प्राण) वक्रोक्ति को माना है। भामह ने ‘रीति’ को न मानकर काव्य गुणों का विवेचना किया है, भरत मुनि द्वारा वर्णित दस गुणों के स्थान पर तीन गुणों (माधुर्य, ओज तथा प्रसाद) का वर्णन किया है। भामह को आभाववादी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने काव्य में ध्वनि की सत्ता को स्वीकार नहीं किया। 2. आचार्य दंडी (acharya dandi)
आचार्य दंडी ने अलंकार शब्द को परिभाषित करते हुए लिखा कि काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं- ‘काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारन् प्रचक्षते।’ दंडी ने 39 अलंकारों का वर्णन किया है जिसमें 4 शब्दालंकार (अनुप्रास, यमक, चित्र, प्रहेलिका) और 35 अर्थालंकार है। दंडी ने अतिशयोक्ति को पृथक अलंकार निरूपित किया है। दंडी प्रबंध काव्य को ‘भाविक’ अलंकार मानते हैं। बलदेव उपाध्याय दंडी को रीति सम्प्रदाय का मार्गदर्शक मानते हैं। 3. आचार्य उद्भट (acharya udbhat)
4. आचार्य रुद्रट (acharya rudrat)
भारतीय काव्यशास्त्र के अन्य आचार्यों का अलंकार संबंधी विचार-गैर अलंकारवादी आचार्यों ने भी अलंकार सिद्धात पर अपना मत व्यक्त किया है, जिसमें प्रमुख आचार्यों के विचार निम्नलिखित हैं- आचार्य दंडी कौन थे?दंडी संस्कृत के प्रसिद्ध साहित्यकार थे, जो छ्ठी शताब्दी के अंत और सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में सक्रिय थे। संस्कृत श्रृंगारिक गद्य के लेखक और काव्यशास्त्र के व्याख्याकार के रूप में उनकी दो महत्त्वपूर्ण रचनाएँ सामान्यत: निश्चित रुप से उनकी मानी जाती हैं।
आचार्य दंडी के पिता का क्या नाम था?अतः दामोदर दण्डी के प्रपितामह थे, भारवि नहीं।
दंडी ने काव्य के कितने भेद माने हैं?कवि द्ण्डी ने काव्य के तीन भेद माने हैं, गद्य, पद्य एवं मिश्र। कवि दंडी संस्कृत भाषा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे, जिनका जन्म 550 से 650 ईस्वी के मध्य माना जाता है, हालांकि उनके जन्म और जन्म स्थान के विषय में कोई प्रमाणिक स्रोत उपलब्ध नहीं है।
आचार्य दंडी ने शब्द को क्या कहा है?इसके उन्होंने दो भेद किये है, जिनमें से प्रथम के अन्तर्गत आख्यायिका तथा द्वितीय के अन्तर्गत कथा का उल्लेख किया है । ६ आख्यादिका और कथा का लक्षण स्पष्ट करते हुए दंडी ने बताया है ... दंडी साधु तो दंड के कारण ही दंडी के नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं तो समभता हूं मीनाक्षी !
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