शिक्षित भारतीयों ने विद्रोहियों का साथ क्यों नहीं दिया - shikshit bhaarateeyon ne vidrohiyon ka saath kyon nahin diya

 1857 का विद्रोह

• भारत में अंग्रेजों की साम्राज्य विस्तार एवं आर्थिक शोषण की घृणित

नीतियों के परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न वर्गों में ब्रिटिश शासन के प्रति जनअसतोष उभर रहा था। भारतीयों का रोष विभिन स्थानों पर सैनिक विद्रोहों अथवा जन विद्रोहों के रूप में समय-समय पर दृ प्टिगोचर होता रहा। अंतत : यह असंतोष एक प्रचण्ड जनविद्रोह के रूप में सन 1857 में प्रकट हुआ। जो वस्तुत : ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध जनता की संचित शिकायतों एवं असंतोष की उपज था। इस विद्रोह ने ब्रिटिश शासन की जड़ों की हिला दिया। यद्यपि इसका

आरंभ सिपाही असंतोष से हुआ किन्तु शीय ही एक व्यापक क्षेत्र के लीग इसमें शामिल हो गए।

विद्रोह के कारण

• आर्थिक कारण: अंग्रेजों द्वारा ब्रिटिश व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के पक्ष में अपनाई जाने वाली आर्थिक व भू राजस्व नीतियों ने देश के पारंपरिक आर्थिक ढांचे का पूर्णतया विनाश कर दिया। इन नीतियों ने कृषकों दस्तकारों, हस्तशिल्पियों तथा बड़ी सखा में परम्परागत जमींदारों, मुखियों को निर्धन बना दिया।

• निचले स्तर पर फैले प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने आम आदमी को बुरी तरह प्रभावित किया। साथ ही जटिल न्याय प्रणाली के कारण गरीब लोग धनिकों के शोषण का शिकार बनते गए।

• एक नए आदेश के द्वारा सिंध या पंजाब में लड़ते समय सिपाहियों को विदेशी सेवा भला न दिए जाने को घोषणा ने उनमें असंतोष जत्यन कर दिया।

• अधिनियम बनाकर सिपाहियों को जाति एवं पद सम्बन्धी चिन्ह (चंदन, टीका, वाकी, पगड़ी) रखने से रोका गया एवं उन्हें समद पार जाकर काम करने को कहा गया। इसे सिपाहियों ने अपने धर्म में हस्तक्षेप माना।

• प्रथम अफगान युद्ध (1838) आगल-सिक्स युद्ध (1847) तथा को आक्रोशित कर दिया।

क्रीमिया के युद्ध में (1854-56)

• अंग्रेज सेनाजों की पराजय से लोगों को लगने लगा कि अब ब्रिटिश शासन के बहुत कम दिन रह गए है। एक एशियाई सेना भी डट कर लड़ अंग्रेजों को हटा सकती है।

• सिपाही कुछ भी हो भारतीय समाण के अंग चे इसलिए दूसरे भारतीयों पर जो कुछ गुजरती थी उसे ये भी कुछ हद तक महसूस कर दुखी होते थे। किसानों की आशाए, इच्छाएं एवं दुख दर्द इन सिपाहियों के बीच भी प्रतिबिम्बित होते थे। यह सिपाही दरजसल'

बीमारी किसान' ही था।

- तात्कालिक कारण : पुराने लोडे वाली बाउन बैस बंदूक के स्थान पर नई एनफील्ड रायफल के प्रयोग करने का ब्रिटिश सरकार ने निर्णय लिया जिसमें चिकनाई लगे कारतूसों को दांत से काटना पड़ता था। कतिपय परिस्थितियों में इन विकनाईयों में गोमांस और सूजर की चर्ची मिती होती थी इससे हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों को यह विश्वास हुआ कि सरकार जान बूझकर उनके धर्म को नष्ट करना चाह रही है।

विद्रोह का आरंभ एवं प्रसार:

• 25 फरवरी 1857 को बहरामपुर के सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। कनिग ने इस सैन्य हकडी को भंग कर दिया। फलत : जन्य हुकड़ियों में असंतोष फैला।

• 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सैनिक मंगल पाण्डे ने अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी। * फलत: उसे फांसी की सजा दी गई तथा सेना की उस हकडी को भंग कर दिया गया।

• 24 अप्रैल 1857 को मेरठ छावनी में 85 सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया।

• अत: 9 मई को उन्हें बखास्त कर 10 साल कैद की सजा दी गई।

• 10 मई 1857 को मेरठ में तैनात भारतीय सेना ने विद्रोह कर दिया और 11 मई को मेरठ की विद्रोही सेना दिल्ली पहुंची। मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को भारत का समाट एवं अपना नेता घोषित किया और दिल्ली पर अधिकार किया। शीघ्र ही विद्रोह उत्तर भारत, मध्य भारत से लेकर पश्चिम में राजस्थान तक एक विस्तृत भू-भाग में फैल गया। दक्षिण में विद्रोह का सीमित प्रसार रहा।

• कानपुर में नाना साहब, झांसी में लक्ष्मीबाई, लखनऊ में बेगम हजरत महाल, जगदीशपुर में कुअर सिंह आदि ने इस विद्रोश का नेतृत्व किया।

• उत्तर एवं मध्य भारत में जगह-जगह सिपाही विद्रोह के साथ-साथ नागरिक विद्रोह भी हुए। किसानों, दस्तकारों, दुकानदारों, मजदूरों, छोटे जमींदारों, ग्रामीण जनता एवं साधारण निम्नवर्गीय जनता ने विद्रोह का समर्थन किया। आम जनता हथियार लेकर उठ बड़ी हुई और भालों तीर कमानों व देशी बंदुको के साथ लड़ती रही।

* किसानों, दस्तकारों, मजदूरों की व्यापक मागीदारी ऐसी चीज थी जिसने वित्रोत को वास्तविक शक्ति दी तथा इसे जन विद्रोह का चरित्र भी दिया।

* अनेक राजवाड़ों में शासक अंग्रेजों के प्रति वफादार बने रहे मगर उनकी फौज में विद्रोह भड़क उठा या भड़कने के करीब था।

विद्रोह असफल रहा, क्यों? (कारण)

-विद्रोह का विस्तार सीमित : विद्रोह परे देश के सभी मेनों में समान रूप से नहीं फैला। यह मुखत : उत्तरी एवं मध्य भारत के कुछ हिस्सों तक सीमित रहा। बंगाल, पंजाब, कश्मीर, दक्षिण भारत के अधिकांश भागा मैं इसका विस्तार नहीं हुआ। फलत : अंग्रेजों ने सीमित क्षेत्र में होने वाले इस विद्रोह की कुचल दिया।

• देशी नरेशों एवं सामंतों का असहयोग : भारतीयों सामंतों एवं नरेशों का एक बहुत बड़ा वर्ग न सिर्फ इस विद्रोह से अलग रहा बल्कि कईयों ने अंग्रेजों की मदद भी की। सिंधिया, होल्कर, निजाम, जोधपुर के राजा, पंजाब के सिकख सरदार तथा अनेक बड़े जमींदारों ने अंग्रेजों की सहायता की। भारतीय शासकों में 1 असे अधिक विद्रोह में शामिल नहीं हुए।

• जनसमर्थन का अभाव : भारतीय समाज का उच्च एवं मध्यम शिक्षित वर्ग तथा बनी तबके के लोग इससे अलग रहे। असंतुष्ट तथा बेदखल जमींदारों को छोड़कर उच्च एवं मध्य वर्ग के अधिकांश लोग विद्रोहियों के आलोचक थे। व्यापारी एवं सूदखोरों ने अंग्रेजों का साथ दिया। - योग्य नेतृत्व का अभाव : विद्रोही नेता एकजुट और संगठित होकर विद्रोहियों का नेतृत्व नहीं कर सके। इसके विपरीत अंग्रेजों को निकोस्सन, आउदम, देवलॉक, हडसन इत्यादि का योग्य नेतृत्व मिला।

• विद्रोहियों के सीमित साधन : विद्रोहियों के पास धन जन एवं शस्त्रों का अभाव था। इसके विपरीत कंपनी को अर्थ धन की कमी न थी। अंग्रेजों ने रेल, डाक-तार एवं सामुद्रिक मार्ग का भी लाभ उठाकर आवश्यकतानुसार सेना एक जगह से दूसरी जगह विद्रोहियों के दमन के लिए भेजी। विद्रोहियों को आवागमन के साट गनों एवं समाचार पहुंचाने के साधनों का अभाव था। अत: वे शीट  कोई कारवाई नहीं कर पाए।

• निश्चित उद्देश्य की कमी : इस विद्रोह के पीछे न कोई रचनात्मक विचारधारा थी, न कोई भविष्य के लिए योजना, न उच्चतर समाज व्यवस्था का कोई स्वप्न था, और न ही बेहतर राजपद्धति का। उनके सामने यह निश्चित नहीं था कि वे काति की सफलता के पश्चात क्या करेंगे।

- अंग्रेजों के अनुकल परिस्थिति : विद्रोह के समय अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति अंग्रेजों के सर्वथा अनुकूल थी। चीन एवं क्रीमिया के युद्ध समाप्त हो

ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शक्तिशाली पक्ष-  दुनिया भर में शक्ति के शिखर पर बैठा विकासमान पूजीवाची अर्थव्यवस्था से युक्त निर्दिश सामाज्यवाद भारत में अपना अधिकार बनाए रखने के लिए कटिबद्ध या। उन्होंने सारे सामान्य के साधनों का उपयोग किया जबकि भारतीय व्यक्तिगत कीरता एवं साहस के बल पर विरोध करते रहे उन्हें अपने राज्य के लिए भी पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हुए।

 1857 के विद्रोह के स्वरूप

 1857 के विद्रोह के स्वरूप के संबंध में इतिहासकारों के बीच गमन मतभेव की स्थिति रही है और यह मतभेद इस विद्रोह में शामिल लोग, विदोस का विस्तार, अपनाए गए तरीकों तथा विद्रोहियों के लक्स को लेकर है। वस्तुत : विदेशी सत्ता के प्रतीकों पर सामूहिक प्रहार किये गए, अंग्रेज छावनियों पर हमने हुए सरकारी खजाने लूटे गए और कैदियों को रिहा किया गया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों का साथ देने वाले तथा उसकी नीति का लाभ उठाकर समृद्ध होने वाले लोगों पर प्रहार किया गया। किंतु सरकार इस विद्रोह को दबाने में सफल हुपी और विद्रोह के पश्चात जारी सरकारी रिपोर्ट में इसे सनिक विद्रोह कहा गया। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड के विपक्षी नेता डिजरायली जैसे विचारकों को सरकार का यह स्पष्टीकरण तार्किक नहीं लगा। उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि कहीं ब्रिटिश सरकार भारत में रास्ट्रीय विद्रोह का मामना तो नहीं कर रही है। इसी के बाद विद्रोह के स्वरूप के संदर्भ में एक लॉबी बहस छिड़ गयी और झिन-भिन इतिहासकारों ने भिन-भिन प्रकार के स्वरूप निर्धारित किए।

1. सैनिक स्वरूप : जॉन लारेंस, सीले आदि के अनुसार यह पूर्णत: सैनिक विद्रोह था जिसमें भारतीय सेना ने अंग्रेजी शासन को समाप्त करने का प्रयत्न किया। यह विद्रोह सैनिक असंतोष से उपजा था। ब्रिटिश द्वारा इसे सैनिक विद्रोह मानने का कारण यह था कि वास्तव में भारत में ब्रिटिश शासन ने कोई गंभीर विरोध उत्चन नहीं किया है और यह महज कुछ सीमित असतोष के कारण घटी है। किंतु इसे सैनिक विद्रोह नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि सैनिकों के अलावा अन्य वर्गा की भागीदारी इसमें बी फिर अनेक भारतीय सैनिक भी इसमें शामिल नहीं थे बल्कि अनेकों ने अंग्रेजों का साथ दिया था।

2. धर्मयुद्धः रीज ने इसे वर्मयुद्ध कहा है। यह ईसाई धर्म के विरुद्ध भारतीयों द्वारा किया गया विद्रोह था किंतु यह मत मान्य नहीं है।

 3. हिंदु मुस्लिम षड्यंत्र : जम्म आजन्म एवं टेलर ने इसे हिन्दू मुस्लिम द्वारा पायंत्र कर ब्रिटिश के खिलाफ विनीत करवाया। यह विचार भी अमान्य है।

4. बर्बरता एवं सध्यता का सघर्ष : बी, आर, तोच से कहा कि भारतीयों ने अंग्रेजों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जबकि ब्रिटिश इन्हें सभ्य बना रहे थे। किंतु यस मत मी अमान्य है।

5. पुर्नस्थापनावादी स्वरूप : विदोही चूकि पूर्व ब्रिटिश व्यवस्था में लौटना चाहते थे क्योंकि उस व्यवस्था में बाह्य शक्ति द्वारा शोषण नहीं हो रहा या तो दूसरी बात कि विद्रोहियों ने ब्रिटिश सामाजिक सांस्कृतिक नीति के विरुद्ध आवाज उठायी और अपने परंपरागत रीति-रिवाज एवं प्रचाओं को बनाए रखने पर बल दिया। ये विद्रोही पुरातन व्यवस्था को स्थापित करने के क्रम में मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को अपना नेता व सामार घोषित करते है। वस्तुत : विद्रोही उन परिवर्तन के विरोधी थे जिन्हें ब्रिटिश ने किया था और जिसमें उनका शोषण हो रहा था। इस दृष्टि से पुर्नस्थापना की इच्छा भी विद्रोह का उतना ही महान उदश्य था जितना परिवर्तन की इच्छा।

6. किसान विदोह के रूप में : इन विद्रोह में किसानों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था, क्योंकि वे ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था से पीड़ित थे। फलत : ब्रिटिश नीतियों से शोषण के फलस्वरूप उनमें असंतोष होना स्वभाविक था और जगह-जगह उन्होंने इस असंतोष को व्यक्त मी किया। किंतु इसे केवल किसान विद्रोह मानना एकपक्षीय होगा किसानों के असंतोष का शिकार जमींदार नहीं बल्कि सरकार थी। अधिकतर उन्हीं जींदारों पर प्रहार किया गया जिन्होंने ब्रिटिश लगान व्यवस्था में कानूनों का लाभ उठाकर अपनी स्थित मजबूत कर ली थी, जबकि किसानों की सहानुभूति उन जमीदारों के साथ बनी रही जिन्हें कम्पनी के लगान बदोबस्त का शिकार होना पड़ा था। कई स्थानों पर तो किसानों ने स्वत : ही भूमि जमींदार। को लौटा दी थी, वह भूमि जिसे बेदखल कर सरकार ने किसानों को दी थी। इस दृष्टि से यह किसान विद्रोह की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है।

• राष्ट्रीय आंदोलन के रूप : इंग्लैण्ड के शीर्ष नेता डिजरायली, भारतीय नेता वी, डी, सावरकर और अशोक मेहता ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह माना। इनका कहना था कि विद्रोह का प्रधान उद्देश्य अंग्रेजों को हटाकर पुन : सत्ता प्राप्त करना था और विद्रोह में एक व्यापक क्षेत्र एवं व्यापक जनसखा की भागीदारी थी।

• विद्रोह का विस्तार संपूर्ण भारत में नहीं था और जनता के सभी वर्गा ने इसमें हिस्सा नहीं लिया था। आधुनिक शिक्षा प्राप्त वर्ग मध्य एवं उच्च वर्ग सपत्तिशाली वर्ग इस आंदोलन से अलग रहे। इस काल में राष्ट्रीय भावना का अभाच मा और विद्रोही भी अपनी-अपनी समस्याओं के कारण एकजुट हुए थे। जातीय और धार्मिक विभेद भी मौजूद थे। हैदराबाद के मुसलमान मराठो से नफरत करने के कारण शोल्कर एवं सिविया से पुरज करने को तत्पर थे। स्पष्ट है कि एकता की भावना मौजूद नहीं थी और राष्ट्र निर्माण इस विद्रोह का उद्देश्य नहीं था।

• यह सही है कि विमोह के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रवृत्तियाँ विद्यमान थी। विद्रोह का तात्कालिक स्वरूप क्षेत्रीयता लिये देता है। हुए था और विद्रोह में जनमानस के अन्य वर्ग तटस्थ रहे, लेकिन यह भी सत्य की कि जब क्षेत्रीयता अपना व्यापक स्वरूप ग्रहण करती है अर्थात क्षेत्र एक दूसरे से एकता के सूत्र में बंध जाते हैं, तभी एक सप होने की भौगोलिक राजनीतिक सास्कृति अर्हताएं पूरी होती है। * इस दृष्टि से 1857 विद्रोह भारत के विभिन्न क्षेत्रों को अंग्रेजी शासन के खिलाफ एकजुट होने की अपील करता है। अद्याप तपानीकी परिभाषा के आधार पर यह विद्रोह राष्ट्रीयता की कोटि में नहीं आता किंतु राष्ट्रीयता की अवधारणा के विकास में इसने एक प्रेरक तच की भूमिका निभाई।

• स्वतंत्रता संग्राम के रूप में : सावरकर, डॉ सैन आदि विद्वानों ने जियोह को स्वतंत्रता संग्राम माना है। किसी संघर्ष को स्वतंत्रता संघर्ष के रूप में इस अर्थ में स्वीकार किया जा सकता है जब देश के लोग विदेशियों को बाहर निकालने के लिए संघर्ष छेड़ दे। यहाँ विद्रोहियों एवं जनसाधारण का लक्य अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना था। दूसरी बात यह कि देशभक्ति की भावना संघर्ष में निहित यी यदि विद्रोहियों में देशभक्ति की भावना न होती तो एक वर्ष से ज्यादा लंबे समय तक वे युद्धरत कैसे रहते? भले ही अपरिपक्य अवस्था में हो किंतु देशभक्ति की भावना तो उनमें थी ही।

• जहाँ तक स्वतंत्रता संग्राम में सभी नागरिकों के भाग लेने की बात है तो यह समझ लेना चाहिए कि स्वतंत्रता संग्राम में नागरिकों का अल्पांश ही सक्रिय रहता है। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम तथा फ्रांसीसी क्राति में भी यही स्थिति थी। अनेक अमेरिकन अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। भारत में भी इसी तरह अनेक भारतीय अंग्रेजों के साथ थे। * जहां तक स्वतंत्रता संग्राम में संपूर्ण जनसंखा की भागीदारी की बात है तो क्या भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी देश के समस्त 40 करोड़ जनसखा ने भाग लिया था। क्या उस समय जई कोई अंग्रेज 1857 भक्त नहीं था। ये सभी बाते तो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी मिलती है किंतु मूल बात तो यह है कि 1857 विद्रोह में जनभावना निस्संदेह अंग्रेजों के विरुद्र थी। विद्रोहियों को संगटित करने वाला मुख तत्त्व था विदेशी शासन को समाप्त करने की भावना। इस संदर्भ में विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम मानना अनुचित न होगा किसी भी क्रांति का स्वरूप केवल उस क्रांति के आरंभ करने वाले लक्यों से निधारित नहीं होता बल्कि इससे निर्धारित होता है कि उस क्रांति ने अपनी छाप क्या छोड़ी। इस दृष्टि से 1857 का संघर्ष भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में तथा उसके स्वतंत्र करने की राह में एक दीपक की ली की भाति सदैव मौजूद रहा।

1857 के विद्रोह का परिणाम/प्रभाव

यद्यपि विद्रोह पूर्णत: बबा दिया गया परन्तु इसने ब्रिटिश शासन के प्रतिरोध की शानदार स्थानीय परम्पराएं कायम की तथा भावी स्वार नता संग्राम में भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का एक असुण्ण स्वौत प्रदान किया।

- 1857 के विद्रोह के पश्चात भारत में अंग्रेजी शासनकाल का एक युग समाप्त और दूसरा युग प्रारंभ होता है। आगे आने वाले समय में अंग्रेजों ने प्रशासन, सेना, भारतीय नरेशों के प्रति नीति, सामाजिक परिवर्तन, शिक्षा नीति आदि सभा में गंभीर परिवर्तन किए जिसके कारण माना जा सकता है कि विद्रोह के पश्चात् भारत में अंग्रेजी शासन का एक नवीन युग प्रारंभ हुआ। संवैधानिक दृष्टि से मुगल सामान्य हमेशा के लिए समाप्त हो गया। भारत में एक शताब्दी से शासन करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति हो गई और भारत में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया बानी ब्रिटिश का उनका सीधा शासन स्थापित हो गया।

1. प्रशासनिक परिवर्तन : -1 नवम्बर 1858 ई. को महारानी विक्टोरिया की घोषणा हुई जिसे 1858 के अधिनियम द्वारा व्यावहारिक रूप दिया गया। इसके अनुसार समुर्ण प्रशासनिक व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर भारत का शासन ब्रिटिश काउन के हाथो में दे दिया गया।

• लॉर्ड कैनिंग की भारत में पुननियुक्ति हुई और उसे शासन का सर्वोच्च अधिकारी बनाया गया तथा उसे वायसराय कहा जाने लगा।

•(बोर्ड ऑफ कंट्रोल ) को समाप्त कर दिया गया और भारत मंत्री के नए पद का सजन किया गया जो ब्रिटिश मत्रिमंडल का सदस्य होता था। भारत सचिव को सलाह देने के लिए 15 सदस्यीय इंडिया, कांउसिल का गठन हुआ।

• भारतीय विधान परिषद् अधिनियम 1861 पारित किया गया। जिसके तहत् प्रतिनिधित्व प्रजली का आरंभ हुओं।

2 सैन्य व्यवस्था में परिवर्तन :

• भारतीय सेना का पुनर्गठन बिभाजन एवं प्रतितोलन की नीति पर किया गया।

• सैनिक पुनर्गठन के लिए पील कमीशन की नियुक्ति हुई जिसकी सिफारिश पर सेना में भारतीयों को सखा घटा दी गई और यूरोपीय सैनिकों की संख्या में बढ़ा दी गई।

• भारतीयों को दो वर्गो सैनिक व गैर सैनिक में बांट दिया गया तथा जाति धर्म और क्षेत्र के नाम पर रेजीमेंटों का गठन किया गया।

• सैनिक वर्ग के लोग जिनमें सिक्स, गोरखे, पठान इत्यादि प्रमुख थे और जिन्होंने विद्रोह के दमन में कंपनी की सहायता की थी उन्हें सेना में प्रमुख स्थान दिया गया जबकि गैर सैनिक वर्ग के लोगों (अवध, बिहार, मध्य प्रदेश, भारत आदि जिन्होनें विद्रोहों में भाग लिया था ) को कम स्थान दिए गए।

• उच्च पदों पर भारतीय सैनिकों की नियुक्ति बंद कर दी गई तथा तोपखाना यूरोपीयों के संरक्षण में दे दिया गया।

• बंगाल प्रेसीडेंसी में यूरोपीय व भारतीय सैनिकों का अनुपात । रखा गया जबकि बम्बई, महास में 2 रखा गया।

3. देशी रियासतों के प्रति नीति में परिवर्तन:-

 1857 से पूर्व अंग्रेजों द्वारा भारतीय रल्पो को सपने का कोई अवसर नहीं छोला गया। किन्तु 1857 के विद्योग के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय रियासतों के प्रति अपनी नीति बदल दी। इसका कारण यह था कि अनेक भारतीय शासक अगेजों के वफादार ही नाटी नहे देवकि विटोह को कुचलने में उनकी सक्रिय रूप से सहायता भी की थी। जैसा कि वायसराय कौनग ने कहा कि इन शासकों ने ' तूफान में तगारोप को' का काम किया था।

 * अब अधीनस्थ संघ की नीति शुरू की गई। जिसके तहत देशी रियासतों की अधीनस्थ स्थिति को और इसके साथ-साथ ब्रिटिश परमसत्ता की अवधारणा को जीपचारिक रूप में स्थापित किया गया। वेशी रियासतों को उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार को मान्यता दी गई

+देशी रियासतों के अधिग्रहण की नीति का त्याग कर दिया गया।

• 1876 में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटेन की सत्ता पर जोर देने के लिए रानी विक्टोरिया ने भारत की सामाजी की पद संभाल लिया और अंग्रेजों ने सर्वोपरि शक्ति के रूप में राजवाड़ों के आतरिक शासन पर निगरानी के अधिकार का भी दावा किया।

4. सार्वजनिक सेवाओं के प्रति नीति में परिवर्तन :

1857 के पश्चात ब्रिटिश नागरिक सेवाओं को भारतीयों के लिए और कटोर बनाया गया। 1857 के नियम में खुली प्रतियोगिता की आयु घटाकर 23 से 22 वर्ष कर घई गइन और चुने हुए छात्रों को 1 वर्ष इंग्लैंड - में प्रोबेशन पर रहने की बात कही गई।

-1866 में वह आयु पुन : घटाकर 21 वर्ष कर दी गई। इसी तरह प्रशासन के दूसरे विभागों जैसे पुलिस, सार्वजनिक निर्माण, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कस्टम, रेलवे और बड़े और अधिक वेतन पाने वाले पद ब्रिटिश नागरिकों के लिए सुरक्षित रखे जाते थे।

5. मुसलमानों के प्रति नीति में परिवर्तन :

• 1857 के विद्रोह में हिन्दु-मुसलमानों ने एकजुट होकर भाग लिया था। अत:57 के पश्चात अंगेज सरकार ने इस संबंध को अलग करने की नीति पर विशेष ध्यान दिया।

• अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति घृणा की नीति अपनाई, मुसलमानों का दमन करना और बड़े पैमाने पर उनकी जमीन जायदाद जला करना प्रारंभ कर दिया। यह नीति 1870 तक स्पष्ट रूप से रही और आगे उलट दी गई तथा उच्च एवं मध्यवर्गीय मुसलमानों को राष्ट्रवादी आंदोलन के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की गई।

मुस्लिमों के प्रति अपनाई गई यह नीति बाटी और राज करो की नीति का अंग थी।

6. शिक्षित भारतीयों के प्रति नीति में परिवर्तन :-

• 1857 के विद्रोह में शिक्षित भारतीय वर्ग की तटस्थता से अंग्रेज अधिकारियों ने उनकी प्रशंसा की थी, किन्तु शीप ही यह अनुकूल सरकारी दृष्टिकोण उलट गया क्योंकि अनेक शिक्षित भारतीय ब्रिटिश साम्राज्यवादी चरित्र का विश्लेषण करने लगे, प्रशासन में भारतीयों की भागीवारी की मांग रखी और जनता के बीच राष्ट्रवादी आदोलन के संगठन का आधार तैयार करने का प्रयास शुरू किया। अब सरकारी अधिकारी उच्च शिक्षा के पके दुश्मन बन बैठे।

7, जमींचारों के प्रति नीति :- जमींदारों और मू स्वामियों के प्रति मित्रता का साथ बढ़ाया गया। अवध के अधिकांश ताकाकेदारों को उनकी जमीने लौटा दी गई।

• जमींदारों और भू-स्वामियों को भारतीय जनता के परम्परागत और स्वाभाविक" नेता कह कर उछाला गया। किसानों के हितों के खिलाफ जमीन पर उनके अधिकार को सुरक्षा दी गई और राक्वादी रूझान वाले शिक्षित वर्ग के खिलाफ उनका इस्तेमाल किया जाने लगा।

8. समाज सुधार के प्रति नीति : अंग्रेजों ने समाज सुधार (सती प्रथा उन्मूलन, विधवा विवाह आदि) को 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख कारण माना। इसलिए धीरे-धीरे विदेश ने दिलवायाएं का पक्ष लेना आरंभ कर दिया तथा समाज सुधारक का समर्थन बंद कर दिया।

9. नक्तीय भेदभाव की नीति : 1857 के विद्रोह के पश्चात् अग्रेजों में जातीय उच्चता की भावना तथा भारतीयों के प्रति मृणा, तिरस्कार और अलगाव की भावना बढ़ी।

• केवल यूरोपीय के लिए आरक्षित रेलों के डिब्बे, पार्क होटल, क्लब आदि इस नस्तबाद के स्पष्ट उदाहरण थे। वे गोरों लोगों का भारतीयों पर स्वाभाविक से अधिकार का सिद्धांत भी प्रचलित करते वे वे इसे Whitemans Burdon को संज्ञा देते थे। प्रेस के प्रति नीति :

•1857 के विदोह में देशी पत्र-पत्रिकाओं की भी महती भूमिका रही। 'दिल्ली अखबार १, सुल्लान-उल-अखबार आदि प्रमुख पत्र थे।

• लॉर्ड कैनिंग ने स्वीकार किया कि "मुझे संदेह है कि इस बात को लोग अच्छी तरह समझते हैं या' हैं या नहीं कि भारत देश की जनता के स्दय में प्रेस ने किस खतरनाक हद तक राजद्रोह का विष फैलाया है, स्पष्ट है कि इसमें पेशी परों का हाथ है।"

• अत : सरकार ने देशी समाचार पत्रों के प्रति दमन की नीति अपनाई 1887 के पंजीकरण अधिनियम के अन्तर्गत प्रेस संबंधी स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई और इसी संदर्भ में 1878 का पारित हुआ।