जब कभी हम अपनी सामाजिक जीवन के अनसुलझे सवालों के जवाब खोजते हैं।और यह खोज पूर्णरूपेण प्रबन्धित व क्रमबद्ध होती है।जब ऐसा प्रयास किया जाता है। तो इस संपूर्ण प्रक्रिया को ही सामाजिक शोध कहते हैं। सामाजिक शोध को अन्य कई नामों से भी नवाजा जाता है। जैसे अनुसंधान(RESEARCH),खोज या अन्वेषण। Show
सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं, जिसके सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक उद्देश्य होते हैं। शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध चरणों से गुजरती हुई पूर्ण होती है। वस्तुनिष्ठता से युक्त सामाजिक शोध से न केवल विषय की समझ विकसित होती है, बल्कि नए ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ यह सामाजिक नियन्त्रण, समाज कल्याण, सामाजिक-आर्थिक प्रगति, नीति-निर्माण इत्यादि ने भी सहायक होता है। सामाजिक शोध का अर्थकिसी क्षेत्र में नए ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का दुबारा परीक्षण या दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नए तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है। यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। वैज्ञानिक विधियों से आशय यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूरा करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के कई पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है। सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये। सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- (i) क्या हो रहा है? और (ii) क्यों हो रहा है? अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि को उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। ‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नहीं होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी इकट्ठा करने तक सीमित हो सकता है। अधिकतर ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में इकट्ठा की गयी सामग्री बाद में सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’ सामाजिक शोध की परिभाषासामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं।पी.ण्वी. यंग (1960:44) के अनुसार, ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नए तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’ सामाजिक शोध का उद्देश्यसामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है। इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री को समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है। बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है।सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं एवं असमानताओं में होती है। गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट किया है। गुडे तथा हाट (1952) का कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नए तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को एकीकृत करना है। व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीति निर्धारण हेतु आवश्यक सुधार प्रदान करना होता है। सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्यसामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नए तथ्यों को उद्घाटित करना, विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है। सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं।सामाजिक शोध के चरणशोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में एकमत नहीं है। इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से किया है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर को दुष्प्रभाव नही पड़ता है।कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का उल्लेख करेंगे, सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तक में सामाजिक शोध के चरणों को प्रस्तुत किया गया है।
सी. आर. कोठारी (2005:12) ने शोध प्रक्रिया के ग्यारह चरणों का उल्लेख किया है-
शोध के विविध चरणों को हम इस रूप से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं। 1. प्रथम चरणशोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि सबसे पहले आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य किया जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का प्रथम चरण होता है। शोध विषय का चयन सरल कार्य नहीं होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो और विषय न केवल आपकी रुचि का हो बल्कि समसामयिक हो। इस तरह आपके द्वारा चयनित एक सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के रूप में निर्मित कर दिया जाता है।शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- प्रथम शोध समस्या को गहन एवं व्यापक रूप से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में अर्थपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करना।
विद्वानों ने अपने शोध विषय के चयन के तर्कों पर काफी कुछ लिखा है। हम यहाँ उनके तर्कों को प्रस्तुत नहीं करेंगे बल्कि मात्र बनार्ड (1994) के उस सुझाव का उल्लेख करगे जिसमें उसने शोधकर्ताओं को यह सुझाव दिया है कि वे स्वयं से ये प्रश्न पूछें-
2. द्वितीय चरणयह तय हो जाने के बाद कि किस विषय पर शोध कार्य किया जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) किया जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन किया जाता है, ताकि चयनित विषय के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि पश्चात।ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’ (इग्नु 2006 : पृ. 33) यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है कि बिना 7 विषय के बारे में कुछ पढ़े को कैसे अध्ययन समस्या का निर्धारण कर सकता है? विशेषकर तब जब आप यह अपेक्षा रखते हैं कि शोधकर्ता शोध के प्रथम चरण में ही अध्ययन की समस्या को निर्धारित निर्मित, एवं परिभाषित करें तथा उसके शोध प्रश्नों एवं उद्देश्यों को अभिव्यक्त करें। समस्या का चयन एवं उसका निर्धारण शोधकर्ता के व्यापक ज्ञान के आधार पर हो सकता है। तत्पश्चात् उसे उक्त विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक तथा विविध विद्वानों द्वारा किये गये आनुभविक अध्ययनों से सम्बन्धित सामग्री का अध्ययन करना चाहिए। ऐसा करने से उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्बन्धित विषय पर किन-किन दृष्टियों से, किन-किन विद्वानों ने विचार किया है और विविध अध्ययनों के उद्देश्य, उपकल्पनाएं, कार्यविधिकी क्या-क्या रही है।’’ साथ ही साथ विविध विद्वानों के क्या निष्कर्ष रहे हैं। इतना ही नहीं उन विद्वानों द्वारा झेली गयी समस्याओं या उसके द्वारा भविष्य के अध्ययन किये जाने वाले सुझाये विषयों की भी जानकारी प्राप्त हो जाती है। ये समस्त ज्ञान एवं जानकारियाँ किसी भी शोधकर्ता के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं। 3. तृतीय चरणसम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता एवं गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुरूप तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण।यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और एकत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति एवं नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’ (इग्नु 2006 : 33-34) है। 4. चतुर्थ चरणशोध के उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की जरुरत है। यह उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए।इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का एक चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है। इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता प्रथम शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए। उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह एक उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है। उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), एक दैव आनुभविक भटकाव होता है। उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा। 5. पंचम चरणसमग्र एवं निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध किया जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम किसी विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने 9 जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे। इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी। चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी नष्ट होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है।इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी सभी इकायों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकायों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हु इकायों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकायों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है। यंग (1960 : 302) के शब्दों में कहा जाये तो कह सकते हैं कि, ‘‘एक सांख्यकीय निदर्शन उस सम्पूर्ण समूह अथवा योग का एक अतिलघु चित्र या ‘क्रास सेक्शन’ है, जिससे निदर्शन लिया गया है।’’ इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं, निदर्शन (सैम्पल) ही है। गुडे और हाट (1952 रू 209) का कहना है कि, ‘‘एक निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’ इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकायों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं। 6. छठवाँ चरणप्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं। उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की आवश्यकता, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक एवं प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें। प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ एवं तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं। शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं। शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक रूप से सोच-समझकर इनमें से किसी एक तकनीक (तथ्य एकत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है। कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गाड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है। स्पष्टता के लिए यहाँ उल्लेखनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम एकत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है। इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ उल्लेखनीय हैं। 7. सप्तम चरणप्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों एवं तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुरूप निर्माण हो जाता है, तो उसके पश्चात् क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है। कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के पहले पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण किया जाता है।यदि को प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या को प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की आवश्यकता पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है। सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल एवं सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह एक अत्यन्त दुरुह एवं महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये। उल्लेखनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है। उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के अनुसार ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है। यथासम्भव घनिष्ठता बढ़ाने के लिए (संदेह दूर 11 करने एवं सहयोग प्राप्त करने के लिए) प्रयास करना चाहिए। तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है। 8. अष्ठम चरणआठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों एवं प्रविधियों के माध्यम से एकत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक रूप देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, आवश्यकतानुसार सम्पादित किया जाता है, तत्पश्चात् सारिणी में गणनात्मक स्वरूप (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित किया जाता है। कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण एकत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता एक-एक केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था। आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक रूप से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से सभी प्रकार की सारणियाँ (सरल एवं जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं।एस.पी.एस.एस. (स्टैटिस्टिकल पैकेज फार सोशल साइंसेज) एक ऐसा ही प्रोग्राम है, जिसका प्रचलन तेजी से बढ़ा है। समाजवैज्ञानिक शोधों में एस.पी.एस.एस. द्वारा सारिणीयाँ बनायी जा रही हैं। विविध परिवत्र्यों में सह-सम्बन्ध तथा सांख्यकीय परीक्षण इसके द्वारा अत्यन्त सरल हो गया है।
अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि सभी शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि क चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं। गेराल्ड आर. लेस्ली 13 (1994:38) तथा अन्य का कहना है कि, ‘‘यह विविधता समाजशास्त्र को मजबूती प्रदान करती है और अपने द्वारा अध्ययन की जाने वाली समस्याओं के विस्तार को बढ़ाती है।’’ सामाजिक शोध का अध्ययन क्षेत्र एवं सार्थकतासमाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। स्वाभाविक है कि सामाजिक शोध का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक होता है। सामाजिक शोध के विस्तृत क्षेत्र को कार्ल पियर्सन (1937 : 16) के इस कथन से आसानी से समझा जा सकता है कि, ‘‘सामाजिक शोध का क्षेत्र वस्तुत: असीमित है, और शोध की सामग्री अन्तहीन। सामाजिक घटनाओं का प्रत्येक समूह सामाजिक जीवन का प्रत्येक पहलू, पूर्व और वर्तमान विकास का प्रत्येक चरण सामाजिक वैज्ञानिक के लिए सामग्री है।’’ पी.वी. यंग (1977 : 34-98) ने सामाजिक शोध के क्षेत्र की व्यापक विवेचना करते हुए विविध विद्वानों के अध्ययनों यथा कूले, मीड थामस, नैनकी, पार्क, बर्गेस, लिण्डस्, सी. राट मिल्स, एंगेल, कोमोरोस्की, मर्डाल, स्टॉफर, मर्डोक, मर्टन, गौर्डन, आलपोर्ट, ब्लूमर, बेल्स, मैज का विवरण प्रस्तुत किया है।एक समाजशास्त्री सामाजिक जीवन की किसी विशिष्ट अथवा सामान्य घटना को शोध हेतु चयन कर सकता है। सामाजिक शोध के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत मानव समाज व मानव जीवन के सभी पक्ष आते हैं। समाजशास्त्र की विविध विशेषीकृत शाखाओं यथा- ग्रामीण समाजशास्त्र, नगरीय समाजशास्त्र, औद्योगिक समाजशास्त्र, वृद्धावस्था का समाजशास्त्र, युवाओं का समाजशास्त्र, चिकित्सा का समाजशास्त्र, विचलन का समाजशास्त्र, सामाजिक आन्दोलन, सामाजिक वहिष्करण, सामाजिक परिवर्तन, विकास का समाजशास्त्र, जेण्डर स्टडीज, कानून का समाजशास्त्र, दलित अध्ययन, शिक्षा का समाजशास्त्र, परिवार एवं विवाह का समाजशास्त्र इत्यादि-इत्यादि से सामाजिक शोध का व्यापक क्षेत्र स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है। सामाजिक शोध के उपरोक्त विस्तृत क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में यह कहना कदापि गलत न होगा कि एक विस्तृत सामाजिक क्षेत्र के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करके सामाजिक शोध अज्ञानता का विनाश करता है। जब हम वृद्धों की समस्याओं, मजदूरों के शोषण और उनकी शोचनीय कार्यदशाओं, बाल मजदूरी, महिला कामगारों की समस्याओं, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, बेकारी इत्यादि पर सामाजिक शोध करते हैं, तो उसके प्राप्त परिणामों से न केवल समाज कल्याण के क्षेत्र में सहायता प्राप्त होती है अपितु सामाजिक नीतियों के निर्माण के लिए भी आधार उपलब्ध होता है। विविध सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित शोध कार्य कानून निर्माण की दिशा में भी योगदान करते हैं। सामाजिक शोध से सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक समझ विकसित होती है, कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात होते हैं और अन्तत: विषय की उन्नति होती है। सामाजिक शोध न केवल सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होता है, अपितु सामाजिक शोध साामाजिक-आर्थिक प्रगति में भी सहायक होता है। सूचना क्रान्ति के इस युग में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने समाजशास्त्रीय शोध के क्षेत्र को बढ़ा दिया है। पुराने विचार और सिद्धान्त अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। नवीन परिस्थितियों ने जटिल सामाजिक यथार्थ को नये सिद्धान्तों एवं विचारों से समझने के लिए बाध्य कर दिया है। सामाजिक शोध के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक महत्व का ही परिणाम है कि आज नीति निर्माता, कानूनविद्, पत्रकारिता जगत, प्रशासक, समाज सुधारक, स्वैच्छिक संगठन, बौद्धिक वर्ग के लोग इससे विशेष अपेक्षा रखते हैं। सामाजिक अनुसंधान के उद्देश्य क्या हैं?वास्तव में, सामाजिक शोध मानव के सामाजिक जीवन, सामाजिक घटनाओं एवं सामाजिक जटिलताओं के सम्बन्ध में अन्वेषण का एक वैज्ञानिक प्रयास है जिसका उद्देश्य नवीन ज्ञान प्राप्त करना अथवा / तथा विद्यमान ज्ञान का परिष्कार करना है।
सामाजिक अनुसंधान के उद्देश्य और स्रोत क्या है?samajik anusandhan का संबंध सामाजिक वास्तविकता से है, इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक वास्तविकता को क्रमबद्ध व वस्तुनिष्ठ रूप से समझना है इसके अतिरिक्त इसका उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ ज्ञान को व्यवहारिक जीवन में पाई जाने वाली समस्याओं के समाधान के लिए प्रयुक्त करना भी है।
अनुसंधान के क्या उद्देश्य है कोई चार उद्देश्य बताइए?शोध या अनुसन्धान का उद्देश्य. सत्य की खोज करना। ... . नवीन तथ्यों की खोज करना या नवीन ज्ञान की प्राप्ति करना।. किसी घटना के बारे में नई जानकारी प्राप्त करना,. किसी विशेष स्थिति का सही वर्णन प्रस्तुत करना।. समस्याओं का निदान या समाधान करना।. वैज्ञानिक कार्यविधि के उपयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना।. सामाजिक अनुसंधान क्या है सामाजिक अनुसंधान के महत्व का वर्णन कीजिए?संक्षेप में," सामाजिक अनुसंधान वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक घटनाओं और सामाजिक समस्याओं के कारण इनके अन्तःसम्बन्धों का ज्ञान, उनमें निहित प्रक्रियाओं का अध्ययन, विश्लेषण और तदनुसार परिणामों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।" समाज में अनेक प्रकार की समस्याएँ होती हैं, हम इन समस्याओं का निदान करना चाहते हैं।
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