संगीत की कला में मुगलों का क्या योगदान था? - sangeet kee kala mein mugalon ka kya yogadaan tha?

मुगल सम्राटों ने संगीत के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने संगीत को राज्याश्रय देकर उसे प्रोत्साहित किया. चलिए जानते हैं कि मुगलकालीन संगीत कला का विभिन्न शासकों के समय क्या हाल-चाल था!

मुगलकालीन संगीत कला

बाबर स्वयं संगीत प्रेमी था. उसकी आत्मकथा (तुज्क-ए-बाबरी), में अनेक स्थलों पर संगीत गोष्ठियों का उल्लेख मिलता है. उसने स्वयं कई गीत लिखे जो उसकी मृत्यु के बाद भी प्रचलित रहे.

हुमायूं प्रत्येक सोमवार व बुधवार को संगीत सभा का आयोजन करके संगीत का आनन्द उठाया करता था.

अकबर के काल की सबसे बड़ी देन संगीत सम्राट तानसेन है. अकबरकालीन अनेक गायकों द्वारा रागों के नवीन प्रकार प्रचलित हुए व संस्कृत भाषा के संगीत से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया. अकबर के काल में कर्नाटक संगीत का प्रादर्भाव हुआ. तुराना, ठुमरी, गजल, कव्वाली आदि नये रागों का प्रचलन भी इसी युग में हुआ. और अधिक जानकारी के लिए पढ़ें > अकबरकालीन संगीतकला

जहांगीर के काल की विलास खां, हम्जा, खुर्रमदाद, मखू, परबीज-ए-दाद, छत्रखां इत्यादि प्रसिद्ध संगीतकार देन है.

शाहजहाँ के काल की संगीत के क्षेत्र में देन कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. उसके काल में “शम्सुल अस्वत” नामक संगीत से सम्बन्धित ग्रन्थ रचा गया. उसके काल में ही कवि रामदा’, दीरगखां, लालखां, जगन्नाथ, भाव भट्ट इत्यादि थे.

औरंगजेब के काल में इस कला का अन्त हो गया. वह संगीत आदि कला को इस्लाम के विरुद्ध मानता था. उसने अपने काल के सभी दरबारी संगीतकारों को निकाल दिया. संगीतकारों ने विवश होकर प्रान्तीय शासकों व नवाबों के पास शरण ली. लेकिन औरंगजेब की कट्टरता की आड़ में जो संगीत को गाड़ने के लिए जो कुछ कहा था उसके बारे में अनेक कहानियां हैं. आधुनिक अनुसंधान से मालूम हुआ है कि यह बात तो सत्य है कि औरंगजेब ने गायकों को अपने दरबार से बाहर निकाल दिया था लेकिन वाद्य संगीत पर उसने कोई नहीं रोक लगाई थी. यहां तक कि औरंगजेब स्वयं एक कुशल वीणावादक था. औरंगजेब के हरम की रानियों तथा उसका अनेक सरदारों ने भी सभी प्रकार के संगीत को बढ़ावा दिया. इसीलिए औरंगजेब के शासनकाल में भारतीय संगीत पर बड़ी संख्या में पुस्तकों को रचना हुई.

संगीत की कला में मुगलों का क्या योगदान था? - sangeet kee kala mein mugalon ka kya yogadaan tha?

  • हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन ( 7/9)
  • मुगलकाल में संगीत कला
  • बाबर – हुमायूँ
  • अकबर के शासनकाल में संगीत
  • जहाँगीरकाल में संगीत
  • शाहजहाँ काल में संगीत
  • औरंगजेब काल में संगीत

  1. वैदिक काल में संगीत- Music in Vaidik Kaal
  2. पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet
  3. उपनिषदों में संगीत – Upnishadon me Sangeet
  4. शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Sangeet
  5. महाकाव्य काल में संगीत- mahakavya sangeet
  6. मध्यकालीन संगीत का इतिहास – Madhyakalin Sangeet
  7. मुगलकाल में संगीत कला- Mughal kaal me Sangeet
  8. दक्षिण भारतीय संगीत कला का इतिहास – Sangeet kala
  9. आधुनिक काल में संगीत – Music in Modern Period

मुगलकाल में संगीतकला

मुगलकाल में संगीत कला – आरम्भ के राजनैतिक आन्तरिक विघटन के कारण मुगल काल ऐसा रहा कि हम अपने अस्तित्व को सुदृढ़ नहीं रख सके । 1526 ई . में बाबर की विजय हिन्दुस्तान के कुछ हिस्सों में हुई और लगातार यह वंश भारतीय सत्ता को हस्तगत करता चला गया । इसी प्रकार अपनी सफलता के बढ़ते हुए समय बाबर कदम के साथ संगीत व संस्कृति भी लगातार प्रचलित हो रही थी ।

बाबर – हुमायूँ

बाबर संगीत प्रेमी था । उसके दरबार में अनेक गायक एवं वादक थे । बाबर संगीत की महान् शक्ति को स्वीकार करता था । बाबर के काल में कल्लिनाथ प्रसिद्ध संगीतज्ञ हुए , जिन्होंने शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर की विस्तृत टीका लिखी ।

बाबर का पुत्र हुमायूँ भी संगीत प्रेमी था । इसके दरबार में अनेक गायक एवं वादक हुए । हुमायूँ को संगीत का आध्यात्मिक रूप पसन्द था । अपने के क्षणों में भी वह संगीत के द्वारा नवीन उत्साह प्राप्त करता था । एक युद्ध के दौरान बैजूबावरा हुमायूँ के आश्रय में पहुँच गए थे , बैजूबावरा के गायन से प्रभावित होकर हुमायूँ ने युद्ध रुकवा दिया , बाद में बैजूबावरा फिर बहादुरशाह जफर की सेवा में चले गए थे ।

हुमायूँ काल में नए – नए भजन निर्मित हुए । इन भजनों के द्वारा एक ओर संगीत का प्रचार – प्रसार हुआ तो दूसरी ओर आध्यात्मिक ज्ञान भी आमजन में प्रसारित हुआ । हुमायूँ के शासनकाल में कर्नाटक के प्रसिद्ध ग्रन्थ रामामात्य जी ने ‘ स्वरमेल ‘ कलानिधि की रचना की । इसी प्रकार अपनी सफलता के बढ़ते हुए कदमों के साथ 1557 ई . में अकबर के शासनकाल का प्रथम चरण तक आ पहुँचा ।

मुगलकाल का यह काल भारतीय संगीत , साहित्य एवं कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था । मुगलों के आक्रमण से भारतीय संगीत में भी कई सोपान बदले , किन्तु भारतीय संस्कृति की नींव गहरी व मजबूत होने के कारण आग निर्मित होने वाले सभी भवन इस पर आधारित हैं ।

हमें यह मानना पड़ेगा कि मुस्लिम संस्कृति से लेकर भारतीय संगीत में एक ऐसी मन्त्रमुग्धता आ गई , जिससे भारतीय संगीत की आकृष्ट शक्ति की अभिवृद्धि हुई , मुस्लिम सभ्यता ने भारतीय संगीत को एक ऐसा मोड़ दिया कि मुस्लिम युग में भारतीय संगीत के बाह्य ढाँचे में परिवर्तन विकास भी हुए , जिसके कारण नए राग – रागनियों तथा गायकियों का जन्म हुआ । अकबर का काल ललित कलाओं के विकास के लिए एक उज्ज्वल उदाहरण माना गया है ।

अकबर के शासनकाल में संगीत

मुगलकाल अकबर के शासनकाल में संगीत • अकबर के समय में ही संगीतज्ञ स्वामी हरिदास हुए , जो अपनी एकाग्रता और प्रतिभा के फलस्वरूप संगीत कला में आलौकिक अभूतपूर्व शक्तियों का सम्पादन कर सके । इनके शिष्यों में तानसेन , बैजूबावरा उल्लेखनीय हैं । इनके शिष्यों ने नवीन रागों और ध्रुपद , धमार , तिरवट , तराना , चतुरंग आदि भिन्न – भिन्न गीत प्रकारों की रचना की है ।

  • संगीत की शब्दावली Vocabulary – bani, giti, alptva, nyas, gamak

• अकबर के नवरत्नों में तानसेन ने अपनी प्रखर आभा द्वारा संगीत के प्रेम व शाश्वतता का संबल लेकर संगीत जगत में क्रान्ति उत्पन्न की । अनेक चमत्कारिक घटनाएँ भी इसी समय हुईं ; जैसे – संगीत द्वारा पानी बरसना , दीप प्रज्वलित करना , जंगली पशु – पक्षियों को बुलाना , रोगी को स्वस्थ करना आदि ।।

• मुगलकाल के इस काल में ख्याल गायकी व ध्रुपद गायिकी दोनों का प्रचार हुआ । उन्होंने कई नए राग बनाए ; जैसे – मियाँ मल्हार , दरबारी इत्यादि । संगीत कला तथा भक्ति काव्य के समन्वय की दृष्टि से भी यह काल महत्त्वपूर्ण रहा , जिसके द्वारा भारतीय संगीत की दार्शनिक पृष्ठभूमि का विकास व प्रचार सम्भव हुआ । इसी काल में सूरदास जी के पद सर्वसाधारण में बहुत प्रचलित थे । इनके पदों में भारतीय संगीत की पवित्रता पूर्व रूप से विद्यमान थी ।

सूरदास जी ने अपनी रचनाओं में सूर सागर तथा भ्रमर गीत द्वारा संगीत की सेवा की । ये रचनाएँ अपने माधुर्य के कारण आज तक प्रचलित हैं । सूर के संगीतमय पदों में संगीत की ध्रुपद भजन , कीर्तन आदि विभिन्न शैलियाँ दृष्टिगोचर होती है । इसके अतिरिक्त नाद , श्रुति , स्वर , ग्राम , मूर्च्छना , तान आलाप , राग , नृत्य , वाद्य आदि का वर्णन मिलता है । इनके पदों में सारंग , नटनारायण , गौरी , मल्हार आदि रोगों का बार – बार उल्लेख मिलता है , बिलावल इनका सर्वप्रिय राग रहा है ।

सूरदास ने सूरमल्हार , षटमंजरी , सूरसारंग आदि रागों की रचना की । इनकी रचना सूरसागर में लगभग 87 हजार राग – रागिनियाँ दृष्टिगोचर होती हैं ।

• गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘ रामचरितमानस ‘ , ‘ दोहावली ‘ , ‘ गीतावली ‘ व ‘ विनयपत्रिका ‘ आदि अमूल्य ग्रन्थों की रचना की । विनयपत्रिका एवं गीतावली मे गेय पद्य हैं , जो संगीत के क्षेत्र में अपना बहुमूल्य स्थान रखते है । इन्होंने अपने काव्य की नीव संगीत पर रखी । इनको राग एवं इसके सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान था , इसी कारण इन्होंने करुण भाव दर्शाने के लिए जयति श्री , नट , केदार , आसावरी आदि व शृंगार भाव के लिए । राग बसन्त आदि व वीर रस के लिए धनाश्री आदि रागों का प्रयोग किया ।

• तत्कालीन उदयपुर के राणा की पत्नी मीराबाई भी कवयित्री एवं संगीतज्ञा थी । उनकी लोकप्रियता का कारण उनमें भावना एवं सांगीतिक उपादानों का सार्थक समन्वय था । मीरा के संगीत काव्य ने भारतीय नारियों के नारीत्व की उच्च गौरव गरिमा को जाग्रत किया तथा भारतीय संगीत के शुद्ध रूप को अपने दैनिक कार्यकलापों का एक आवश्यक अंग बना लिया । मीराबाई द्वारा महत्त्वपूर्ण काव्य के प्रचार से संगीत कला भगवत श्रव्य का साधन बनकर उच्चतम शिखर पर पहुँची ।

• आज भी लोग मीराबाई के संगीत को सुनकर झूम उठते हैं । मीरा संगीत के तीनो अंगो गायन , वादन व नृत्य से मुक्त होकर अपने इष्ट श्रीकृष्ण की साधना में लीन हो जाती थीं , इन्होंने अपने पदों में अनेक राग – रागिनियों का प्रयोग किया । उनकी गायन शैली में शास्त्रीय संगीत की राग – रागिनियों व लोकगीतों की धुनों का अद्भुत सम्मिश्रण हुआ है । “

इन्हीं के समकालीन कबीर समाज के निम्न वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में जाने थे , जिन्होंने भक्ति एवं ज्ञान को एक नया रूप देकर जन – जीवन के एक मंगलमय दार्शनिक क्रान्ति का शुभारम्भ किया । कबीर की सधुक्कड़ी भाषा में जिस प्रकार सभी प्रान्तीय भाषाओं में कहीं अधिकता व कहीं न्यूनता है , उसी प्रकार उसमें भी स्वर व तालों की स्पष्ट विभिन्नताएँ विद्यमान हैं । वास्तव में , कबीर ने संगीत की शिल्पज्ञता के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया , लेकिन संगीत के भाव पक्ष को उत्कृष्ट बनाने में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया ।

• इनके अतिरिक्त कवियों , वैष्णव , सम्प्रदाय के भक्त कवियों आदि ने भी संगीत को अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने का मुख्य साधन बनाया । भजन व कीर्तन के रूप में संगीत की आत्मा पवित्र होती गई । इस प्रकार भक्ति धारा के अनेक सन्त संगीतज्ञों ने इस धरती को पावन किया तथा अपनी निश्छल सेवा से संगीत को पुनः शिखर पर पहुँचाया ।

• इन्हीं के समकालीन ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर संगीत प्रेमी शासक थे । इन्होंने मानकुतूहल नामक ग्रन्थ का संकलन किया । फकरिल्ला ने फारसी में इसका अनुवाद ‘ राग दर्पण ‘ नाम से किया । मानसिंह तोमर ने ध्रुपद शैली का विकास किया ।

इसी काल में बैजूबावरा नामक संगीतज्ञ हुए , जिन्होंने राजा मानसिंह तोमर की पत्नी मृगनयनी के नाम से गुर्जरी – तोड़ी तथा मंगल गुर्जरी राग बनाए । मृगनयनी गुर्जर जाति की कन्या थी ।

इसी काल में पण्डित पुण्डरीक विट्ठल ने सम्प्रदायरागचन्द्रोदय , रागमाला , रागमंजरी व नर्तन निर्णय नामक ग्रन्थ लिखे । पण्डित पुण्डरीक विट्ठल ने भुखारी को अपना शुद्ध स्वर सप्तक माना । अकबर के काल में वीणा की अपेक्षा सितार वादन का प्रचार बढ़ रहा था ।

जहाँगीरकाल में संगीत

जहाँगीरकाल में संगीत अकबर के बाद जहाँगीर ( 1605-1626 ) का शासन था । वह भी संगीत का प्रेमी था । ये गजल लिखते थे तथा हिन्दी गीतों को सुनने के शौकीन थे , परन्तु इसके समय में शृंगारिक संगीत अधिक विकसित हुआ । इनके दरबार में उच्च गायक एवं सुन्दर नृत्यांगनाओं को आश्रय प्राप्त था । इस काल में भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धान्तों की रक्षा की गई तथा इनका पर्याप्त प्रसार किया गया । इनके दरबार में जहाँगीरदाद , मक्खू , परवेजदाद , खुर्रमदाद एवं हमजान जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ रहते थे ।

• इसी काल में पण्डित सोमनाथ ने ‘ राग – विबोध ‘ नामक ग्रन्थ लिखा , इस ग्रन्थ में राग ध्यान भी दिए गए हैं । जहाँगीर सितार वादक भी थे । उनके समय में अकबर के काल की तरह ही हिन्दू – मुस्लिम संस्कृतियों का आदान – प्रदान होता था ।

शाहजहाँ काल में संगीत

शाहजहाँ काल में संगीत जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र शाहजहाँ के शासनकाल में संगीत की रीति परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ । शाहजहाँ स्वयं भी एक मधुर एवं हृदयग्राही गायक था तथा सितार वादन में प्रवीण था । इनके दरबार में संगीत सम्मेलन , प्रतियोगिता आदि का आयोजन करके समय – समय पर कुशल कलाकारों को सम्मानित किया जाता था । इस काल में ध्रुपद शैली का प्रचार था पर साथ ही फारसी एवं अरबी ध्वनियों के मिश्रण से भारतीय संगीत में कई नवीन गीत प्रकारों का विकास भी हुआ ।

शाहजहाँ के दरबार में संगीतज्ञों में दिरंग खाँ , लाल खाँ , बिरराम खाँ इत्यादि हुए , जिन्हें उसने ‘ गुण समुद्र ‘ की उपाधियों से पुरस्कृत किया था तथा पण्डित जगन्नाथ को ‘ कविराज ‘ की उपाधि से सम्मानित किया गया था , इस काल में कत्थक नृत्य का प्रादुर्भाव हो चुका था तथा उसका प्रचार कृष्ण नृत्य के परिवर्तित रूप में दरबारी ढंग से हो रहा था । इसी समय में चतुरंग की प्रथा चली , इसमें आलाप , गीत – तराना तथा पखावज के बोल आदि सम्मिलित थे ।

इस समय के रचित ग्रन्थों में मुख्य रूप से चतुर्दण्ड प्रकाशिका , हृदय कौतुक , हृदय प्रकाश एवं संगीत पारिजात आदि थे । इस काल में नृत्य – गायन गणिकाओं के सम्पर्क में अधिक होने के कारण पतन की ओर अग्रसर होने लगा था । कलाकारों का चरित्र भी संयमी न होकर विलासितापूर्ण हो गया था ।

औरंगजेब काल में संगीत

औरंगजेब काल में संगीत की स्थिति- इसके बाद औरंगजेब राजा बना , इसका समय ( 1658-1707 ) तक रहा , यह संगीत अकबर , जहाँगीर व शाहजहाँ की भाँति औरंगजेब की प्रशंसा में का महान् विरोधी भी अनेक ध्रुपद मिलते थे । अपने प्रारम्भिक काल में औरंगजेब को संगीत से चिढ़ नहीं थी । खुशहाल खाँ , हयात , सरस , नैन सुखी सेन इत्यादि कलावन्तों का यह सम्मान करते थे ।

1664 ई . में ‘ फखरुल्लाह ‘ द्वारा रागदर्पण नामक ग्रन्थ लिखा गया , जिसमें औरंगजेब के संगीत प्रेम का वर्णन मिलता है । औरंगजेब मुख्य रूप से दो कारणों से संगीत से घृणा करता था प्रथम राजनीतिक कारणों से , क्योंकि उसके पिता शाहजहाँ ने संगीत के वशीभूत होकर एक आज्ञा – पत्र पर बिना पढ़े ही हस्ताक्षर कर दिए थे । दूसरा कारण यह था कि औरंगजेब के समय में संगीत अपनी प्राचीन पवित्रता पूर्ण रूप से खो चुका था । तत्कालीन संगीत मनुष्य को पतन की ओर ले जा रहा था ।

• • यद्यपि राज दरबारों से इस कला को प्रोत्साहन नहीं मिला । फिर भी संगीत की चर्चा एवं प्रचार अवरुद्ध नहीं हुआ । तत्कालीन काव्यधारा में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए । हिन्दी के महान् कवि भूषण को ओजपूर्ण संगीतमय काव्यधारा के प्रचार का श्रेय दिया जा सकता है ।

औरंगजेब का शासनकाल यद्यपि बहुत अतिशयोक्तिमय रहा , पर संगीतशास्त्र के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना हुई , जिसमें पण्डित भावभट्ट के तीन ग्रन्थ अनूप विलास , अनुपांकुश एवं अनूप संगीत रत्नाकर हैं । पण्डित भावभट्ट बीकानेर राज्य के राज गायक थे , ये औरंगजेब के समकालीन राजा अनूप सिंह के दरबार में थे तथा राजा ने इनको ‘ अनुष्टुप चक्रवर्ती ‘ संगीत राम की उपाधि से विभूषित किया । श्रीकण्ठ की कौमुदी भी इसी काल की रचना हुई ।

• 18 वीं शताब्दी से मुगलों का राज्य धीरे – धीरे समाप्त होने लगा और अंग्रेजों का प्रभुत्व बढ़ने लगा । फलस्वरूप भारतीय संगीत की धारा कुछ अवरुद्ध – सी हो गई , केवल रियासतों में संगीत की साधना चलती । औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् अलग – अलग छोटी – छोटी रियासतें बन गईं । इन रियासतों के राजाओं में से जिनको संगीत कला से प्रेम था , उन्होंने संगीत कलाकारों को आश्रय दिया । अब इन कलाकारों का कार्य अपने आश्रयदाताओं का गुणगान करना मात्र रह गया था और ये कलाकार खानदानी कलाकार कहलाए जाने लगे और इसी से घराना परम्परा की नींव पड़ी ।

मोहम्मदशाह रंगीले को संगीत से विशेष अनुराग था , जिस कारण इन्हें रंगीले कहा जाने लगा । अत : इस समय ख्याल पद्धति का पुनरुत्थान हुआ । इनके दरबार में अदारंग तथा सदारंग नामक प्रसिद्ध संगीतज्ञ हुए , जिन्होंने अनेक ध्रुपदों व प्रसिद्ध ख्यालों की इत्यादि आश्रित कलाकार थे । रचना की । हुसैन खाँ पखावजी , रसूल खाँ , मुहम्मद रंग , उमर बेगम , कासम अली

• इसी काल में सदारंग के छोटे भाई खुसरो खाँ ने सितार नामक प्रसिद्ध वाद्य का प्रचार किया । इसी समय गुलाम नबी शोरी ने टप्पे नामक एक नई गीत शैली का आविष्कार किया , जिनका उपनाम मियाँगौरी था । टप्पे चंचल प्रकृति वाले रागों में होते हैं । यह प्रायः हास्य तथा शृंगार रस प्रधान होते हैं ।

• 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तंजौर के महाराजा तुलाजीराव भोसले ने ‘ संगीत सारामृत ‘ नामक पुस्तक लिखी । इसमें दक्षिणी संगीत पद्धति का वर्णन है । 21 मेल व 110 रागों का वर्णन है । इसी काल में श्रीनिवास ने रागतत्त्व विबोध नामक पुस्तक लिखी । संगीतज्ञ नियामत खाँ भी इसी काल में हुए , जिनका उपनाम ‘ सदा रंगीले ‘ हुआ । मोहम्मद रजा द्वारा रचित ‘ नगमाते आसफी ‘ श्रीकृष्ण नन्द व्यास ने ‘ संगीत राग कल्पद्रुम ‘ तथा कृष्ण बनर्जी ने ‘ गीत सूत्राधार ‘ नामक पुस्तक लिखी ।

मुगलकाल में संगीत कला ” यह हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन का सांतवा अध्याय था , आगे बने रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ । धन्यवाद , हाँ इसे अपने मित्रों के साथ शेयरकरना, साथ ही साथ सब्सक्राइब करना न भूलें ।

कौन से मुगल शासक संगीत और कला के अनुयायी थे?

अकबर ने संगीत कला में गहरी रुचि ली। वह स्वयं संगीत का अच्छा पारखी था। उसके दरबार में 36 प्रसिद्ध गायक थे, जिनमें तानसेन और बाज बहादुर विशेष प्रसिद्ध थे। इस समय के अन्य प्रसिद्ध गायक बाबा रामदास, बैजू बावरा आदि थे

मुगल कला की क्या विशेषता है?

मुगल कला की एक मौलिक विशेषता पांडुलिपि-रोशनी थी। एक उल्लेखनीय उदाहरण फारसी लघु चित्रकला है। ऐसी पेंटिंग में से एक अकबर की एक छोटी सी आकृति को दर्शाता है, एक फूल को पकड़े हुए और उसकी तरफ से एक तलवार ले जाता है। फूल और तलवार की उपस्थिति बहुत प्रतीकात्मक है।

अकबर के संगीतज्ञ?

Solution : मियाँ तानसेन को अकबर द्वारा 1562 में दरबारी संगीतकार के रूप में नियुक्त किया गया था।

मुग़ल काल में संगीत का सबसे बड़ा केंद्र कौन सा था?

मुगल बादशाहों में अकबर (1556-1605 ई.) ने संगीत को सबसे अधिक प्रोत्साहन दिया। इस काल में वृंदावन में स्वामी हरिदास संगीत के बहुत ही प्रख्यात आचार्य थे। कहा जाता है, तानसेन ने संगीत में शिक्षा पाई थी।