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अपना बल-तेज जगाता है, सम्मान जगत से पाता है.सब देख उसे ललचाते हैं, कर विविध यत्न अपनाते हैं
कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैने हिम्मत से काम लियाअब वंश चकित भरमाया है, खुद मुझे ढूँडने आया है.
रण मे कुरूपति का विजय वरण, हे कृष्ण यही मति मेरी है, तीसरी नही गति मेरी है.
धिक्कार-योग्य होगा वह नर, जो पाकर भी ऐसा तरुवर,हो अलग खड़ा कटवाता है खुद आप नहीं कट जाता है.
उस पर न वार चलने दूँगा, कैसे कुठार चलने दूँगा,जीते जी उसे बचाऊँगा, या आप स्वयं कट जाऊँगा,
धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.उसको भी न्योछावर कर दूँ, कुरूपति के चरणों में धर दूँ.
यदि चले वज्र दुर्योधन पर, ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.कटवा दूँ उसके लिए गला, चाहिए मुझे क्या और भला?
लड़ना भर मेरा कम रहा, दुर्योधन का संग्राम रहा,मुझको न कहीं कुछ पाना है, केवल ऋण मात्र चुकाना है.
क्या नहीं आपने भी जाना? मुझको न आज तक पहचाना?जीवन का मूल्य समझता हूँ, धन को मैं धूल समझता हूँ.
भुजबल से कर संसार विजय, दे दिया मित्र दुर्योधन को, तृष्णा छू भी ना सकी मन को.
बस यही चाहता हूँ केवल, दान की देव सरिता निर्मल,करतल से झरती रहे सदा, निर्धन को भरती रहे सदा.
(तृतीय सर्ग) भाग 3 वर्षों तक वन में घूम-घूम, मैत्री की राह बताने को, ‘दो न्याय अगर तो आधा दो, दुर्योधन वह भी दे ना सका, हरि ने भीषण हुंकार किया, यह देख, गगन मुझमें लय है, ‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल, ‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, रचना : रामधारी सिंह ‘दिनकर’ सम्पूर्ण रश्मिरथी पढने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये. सम्पूर्ण रश्मिरथी पढने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये. रश्मिरथी का मूल उद्देश्य क्या है लिखें?'रश्मिरथी' का प्रयोजन या उद्देश्य तो सूर्य के प्रकाश या चांद की चादनी या फूलों की ख़ुश्बू या धन्वा की टंकार के समान इस काव्य के नायक महारथी महादानी कर्ण के शील संदेश और आदर्श में सन्निहित है।
रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग में किसका वर्णन किया गया है?'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है।
रश्मिरथी में कुल कितने सर्ग हैं?रश्मिरथी में कवि ने कर्ण को नायक बनाया है, अर्जुन गौणपात्र है। रश्मिरथी में सात सर्ग है। कथावस्तु: रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अथार्त सूर्य की किरणों का हो।
रश्मिरथी का प्रतिपाद्य क्या है प्रमाण सहित समझाइए?'रश्मिरथी' यह भी संदेश देता है कि जन्म-अवैधता से कर्म की वैधता नष्ट नहीं होती। अपने कर्मों से मनुष्य मृत्यु-पूर्व जन्म में ही एक और जन्म ले लेता है। अंततः मूल्यांकन योग्य मनुष्य का मूल्यांकन उसके वंश से नहीं, उसके आचरण और कर्म से ही किया जाना न्यायसंगत है।
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