प्रत्यक्ष कर वो कर होता है जिसे जिस व्यक्ति पर आरोपित किया जाता है, उसी से उसे वसूला जाता है ! अर्थात वह कर जिसे आपसे सीधे तौर पर वसूला जाता है उसे प्रत्यक्ष कर कहते है ! इस ट्रिक के माध्यम से आप यह जान पाऐंगे कि कौन कौन से कर प्रत्यक्ष कर है ! Show
Trick:मृत्यु आया कृषि, व्यवसाय, धन, संपत्ति ,निगम, भू–पूंजी हार के Explanationमृत्यु – मृत्यु कर अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax)ऐसे कर को अप्रत्यक्ष कर कहा जाता है, जिसका मौद्रिक भार दूसरों पर डाला जाता है अर्थात कर का वास्तविक भार उस व्यक्ति पर नहीं पडता जो उसे अदा करता है ! इस ट्रिक के माध्यम से आप यह जान पाऐंगे कि कौन कौन से कर अप्रत्यक्ष कर है ! GK Tricks:EXCUSE ME SS (Shahrukh , Salman) “ ExplanationEX – Excise Tax (उत्पाद कर) Join Our telegram Channel:https://t.me/sscPadho for SSC with free Online test series https://t.me/RailwayJobPrepration Like our Facebook page: https://fb.com/padhobeta.2017 Follow On Twitter: https://twitter.com/Padhobeta_ G+: https://plus.google.com/102104965871999812654
कराधान का इतिहास 1922 से पहले कराधान का इतिहास "जिस प्रकार से सूर्य जमींन से नमीं को सोंख कर, इसे कई हजार गुणा करके वापस कर देता है। ठीक उसी प्रकार से राजा अपनी प्रजा से करों की वसूली करके, इसे अपनी प्रजा की भलाई पर ही व्यय कर देता है " ---रघुवंश में कालिदास राजा दलीप से कहते है । यह आम-धारणा है कि आय तथा सम्पत्ति पर करों की उत्पत्ति हाल ही में हुई है परंतु इस बात के पर्याप्त सबूत है कि आदिम तथा प्राचीन समुदायों में भी आय पर कर किसी न किसी रूप में लगाए जाते थे । 'कर' शब्द की उत्पत्ति 'कराधान' से हुई है जिससे तात्पर्य आंकलन से है। इसे माल या पशुधन की बिक्री या खरीद पर लगाया जाता था तथा समय समय पर बेतरतीब ढंग से एकत्र किया जाता था। लगभग 2000 वर्ष पहले, सीजर ऑगस्त्स ने एक आदेश जारी कर कहा था कि सारी दुनियां में कर लगाया जाना चाहिए। ग्रीस, जर्मनी और रोमन साम्राज्य में, करों को कभी कारोबार के आधार पर लगाया गया तथा कभी व्यवसाय के आधार पर लगाया गया। कई शताब्दियों तक, करों से प्राप्त आय सम्राट के पास जाती रही। उत्तरी इंग्लैंड में, जमीन तथा चल सम्पत्ति पर कर लगाए गए जैसाकि 1188 में सलादीन सिरनामें में कहा गया है। बाद में, इनके स्थान पर पूरक व्यक्ति-कर और अप्रत्यक्ष करों की शुरूआत हुई, जिन्हें 'प्राचीन-सीमा शुल्क' के नाम से जाना गया जिनमें ऊन, चमड़ें तथा खालों पर शुल्क लगाए गए थे। विभिन्न रूपों और विभिन्न वस्तुओं तथा व्यवसायों पर लगाई गई ये लेवी और कर, प्रजा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही नही, अपितु नागरिकों की आम जरूरतों को पूरा करने के लिए, सड़कों के रखरखाव, न्याय व्यवस्था और राज्य के इस तरह के अन्य कार्यों के साथ साथ सरकार द्वारा अपने सैन्य और नागरिक व्ययों को पूरा करने के लिए लगाये गये। भारत में भी, प्राचीन काल से वर्तमान प्रत्यक्ष कर प्रणाली किसी न किसी रूप में चलती आ रही है। मनु स्मृति और अर्थशास्त्र, दोनों में अनेक प्रकार के करों के संदर्भ मिलते है। प्राचीन मनीषी तथा कानून दाता मनु ने कहा है कि शास्त्रों के अनुसार राजा कर लगा सकता है। बुद्धिमान मनीषी ने सलाह दी थी कि करों का संबंध, प्रजा की आय तथा व्यय से होना चाहिए। हालांकि, उसने अत्यधिक कराधान के प्रति राजा को आगाह किया था तथा कहा था कि दोनों चरम सीमाओं अर्थात करों के पूर्ण अभाव और हद से अधिक कराधान से बचना चाहिए। उसके अनुसार, राजा को करों की वसूली की ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रजा करों की अदायगी करते समय कठिनाई महसूस न करें। उसने कहा था कि व्यापारियों तथा कारीगरों को चांदी और सोने के व्यापार में होने वाले अपने लाभ का पांचवां हिस्सा और किसानों को अपनी उपज का छठा, आठवां या दसवां हिस्सा, अपनी हालात के आधार पर, कर के रूप में भुगतान करना चाहिए। मनु द्वारा, इस विषय पर दिए गए विस्तृत विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्राचीन समय में भी एक सुनियोजित कराधान प्रणाली अस्तित्व में थी। केवल यही नहीं, अभिनेताओं, नर्तकों, गायकों और नाचने वाली लड़कियों जैसे विभिन्न वर्गों के लोगों पर भी कर लगाए जाते थे। करों की अदायगी, सोने के सिक्कों, पशुओं, अनाज, कच्चे माल के साथ साथ व्यक्तिगत सेवा प्रदान करके भी की जाती थी। प्राचीन भारत में कराधान प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध लेखक के बी सरकार ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत में सार्वजनिक वित्त' (1978 संस्करण) में लिखा है कि 'प्राचीन भारत के अधिकांश कर अत्याधिक उत्पादक थे। कर प्रणाली में प्रत्यक्ष करों के साथ अप्रत्यक्ष करों का मिश्रण सुरक्षित व लचीला था, हालांकि प्रत्यक्ष कर पर ज्यादा अधिक जोर था। यह कर प्रणाली का व्यापक आधार था और इस के तहत अधिकांश व्यक्ति आते थे। करों में विविधता थी और करों की व्यापक विविधता से बहुत बड़ी तथा मिश्रित आबादी की जीवन शैली परिलक्षित होती थी।' हालांकि, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, कराधान प्रणाली को वास्तविक, व्यापक और सुनियोजित व्यवस्था प्रदान की गई। जब मौर्य साम्राज्य की ख्याति वास्तव में अपने चरम पर थी, उस समय में, प्रसिद्ध ग्रन्थ 'राज्य शिल्प' को 300 ईसा पूर्व के आस पास लिख गया ताकि उस समय की सभ्यता का गहन अध्ययन किया जा सके और सुझाव प्राप्त हो सके, ताकि इनके आधार पर कोई राजा अपनी शासन व्यवस्था को कुशलतम तथा उपयोगी तरीके से चला सके। अर्थशास्त्र का बहुत बड़ा भाग कौटिल्य द्वारा वित्तीय प्रशासन सहित वित्तीय मामलों को समर्पित है। प्रसिद्ध राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार, मौर्यकालीन प्रणाली में, जहां तक कृषि का संबंध है, भूमि का स्वामित्व एक प्रकार से राज्य के पास था और भू-राजस्व की वसूली, राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत थी। राज्य द्वारा कृषि उत्पादन के एक हिस्से को, जोकि आम-तौर पर कृषि उपज का छठा हिस्सा था, ही वसूल नहीं किया जाता था अपितु जल कर, चुंगी कर, टोल तथा सीमा शुल्कों को भी लगाया जाता था। वानिक उपज तथा धातुओं आदि के खनन से भी करों की वसूली की जाती थी। नमक कर भी राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत था तथा इसकी वसूली, इसकी निकासी के स्थान पर की जाती थी। कौटिल्य ने दूसरे देशों के साथ किए जा रहे व्यापार और वाणिज्य पर विस्तार से चर्चा की है और ऐसे व्यापार को बढ़ावा देने को मौर्य साम्राज्य की सक्रिय रुचि में बताया है। माल को चीन, श्रीलंका और अन्य देशों से आयात किया जाता था और देश में आयातित समस्त विदेशी माल पर वर्तनम के नाम से लेवी ली जाती थी। विदेशी माल का आयात करने वाले संबंधित व्यापारी द्वारा दर्वोदय नामक अन्य लेवी का भुगतान करना होता था। इसके अतिरिक्त, कर वसूली को बढ़ाने के लिए, सभी प्रकार की नौकाओं पर शुल्क लगाया गया था। आयकर संग्रह प्रणाली सुनियोजित थी और राज्य के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इससे आता था। इसका एक बड़ा भाग नर्तकों, संगीतकारों, अभिनेताओं और नाचने वाली लड़कियों आदि से आयकर के रूप में एकत्र किया जाता था। यह कराधान अस्थिर आय के प्रति प्रगामी न होकर, आय में उतार-चढ़ाव के समानुपाती था। अतिरिक्त लाभ कर को भी एकत्र किया जाता था। बिक्रियों पर सामान्य बिक्री कर भी लगाया जाता था। इमारतों की बिक्री तथा खरीद भी कर के अधीन थी। यहां तक कि जूआबाजी का संचालन भी केंद्रीकृत था और इन कार्यों पर भी कर की वसूली की जाती थी। तीर्थ यात्रियों पर भी यात्रावेतन नाम से कर लगाया हुआ था। यद्यपि, राजस्व सभी संभव स्रोतों से एकत्र किया जाता था परंतु, इसमें अन्तर्निहित धारणा लोगों का शोषण करना या अधिक कर थोपना नहीं था, अपितु, प्रजा के साथ-साथ शासन और राजा को बाहरी तथा आंतरिक खतरों के प्रतिरक्षा प्रदान करना था। इस तरीके से एकत्र राजस्व को सड़कें बनाने, शिक्षण संस्थानों की स्थापना, नए गांव बसाने और समुदाय के लिए लाभप्रद अन्य गतिविधियों जैसी सामाजिक सेवाओं पर खर्च किया जाता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में सार्वजनिक वित्त और कराधान प्रणाली को इतना महत्व क्यों दिया, इसका कारण तलाश करने के लिए ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। उसके अनुसार, सरकार की सत्ता, उसके राजकोष की मजबूती पर निर्भर करता है। उसके अनुसार "- सरकार के पास सत्ता राजकोष से आती है और पृथ्वी का आभूषण खजाना है जिसे राजकोष और सेना के माध्यम से अर्जित किया जाता है"। हालांकि, उसने राजस्व तथा करों को, शासन के द्वारा अपने व्यक्तियों को दी जा रही सेवाओं और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, शासक के लिए एक आय बताया गया है। कौटिल्य ने इस बात पर बल दिया कि भूमि का ट्रस्टी केवल राजा ही था और इसे बचाने तथा इसे अधिक से अधिक उपजाऊ बनाने का कर्तव्य राजा का है ताकि राज्य के आय के मुख्य स्रोत के रूप में भू-राजस्व एकत्रित किया जा सके। उसके अनुसार, कर का भुगतान, प्रजा द्वारा शासक को किया जाने वाला अनिवार्य योगदान नहीं था, परंतु यह संबंध धर्म पर आधारित था और एकत्र किए गए कर के मद्देनजर अपने नागरिकों की रक्षा करना, राजा का पवित्र कर्तव्य था और यदि राजा अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रहता है तो प्रजा को अधिकार है कि वह करों का भुगतान बंद कर दे और यहां तक कि भुगतान किए गए करों की वापसी की मांग करने का अधिकार था। कौटिल्य ने मौर्य साम्राज्य में कर प्रशासन की प्रणाली का वर्णन भी काफी विस्तार से किया है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में प्रचलित कर प्रणाली, मौटे-तौर पर, आज से लगभग 2300 वर्ष पहले प्रचलित कराधान प्रणाली के समान ही है। अर्थशास्त्र में दिए गए अनुसार, प्रत्येक कर निर्दिष्ट था और मोल-भाव की कोई गुंजाइश नहीं थी। प्रत्येक भुगतान की अनुसूची में स्पष्टता थी और इसका समय, तरीका और मात्रा आदि सभी पूर्व निर्धारित थे। भू-राजस्व, उपज का छठा हिस्सा नियत था और आयात व निर्यात शुल्क यथामूल्य आधार पर निर्धारित था। विदेशी माल पर आयात शुल्क, उनके मूल्य का लगभग 20 प्रतिशत था। इसी तरह से टोल, सड़क उपकर, नौका-शुल्क और अन्य लेवी आदि सभी तय थे। कौटिल्य के कराधान की अवधारणा, कराधान की आधुनिक प्रणाली के लगभग समान थी। इस प्रणाली में कराधान में समानता और न्याय पर बल दिया गया था। अमीर व्यक्तियों को कम अमीर व्यक्तियों की तुलना में उच्च करों का भुगतान करना होता था। बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों या नाबालिगों और छात्रों को करों से छूट प्राप्त थी या उपयुक्त से छूट दी गई थी। राजस्व संग्रहकों द्वारा संग्रहण और छूट के अद्यतन रिकॉर्ड तैयार किए गए थे। राज्य के कुल राजस्व को, ऊपर दिए गए अनुसार, अनेक स्रोतों से एकत्र किया जाता था। अन्य स्रोतों से एकत्रित किए जाने वाले अन्य कर भी थे जिनमें टिकाउ भूमि से (सीता), धार्मिक कर (बाली) और नकद प्रदत्त कर (कार) शामिल थे। सड़कों और यातायात पर टोल कर के रूप में प्राप्त आय वणिकपथ भी था। उसने भू-राजस्व और वाणिज्य पर करों को कर राजस्व के तहत रखा। ये कर नियत थे और इन में भद्र, पडिक तथा वसन्तिका छमाही कर शामिल थे। सीमा शुल्क और बिक्री कर, व्यापार और व्यवसाय पर कर तथा प्रत्यक्ष कर, वाणिज्य पर करों में शामिल थे। बोई गई भूमि की उपज, तेल, गन्ना और पेय पदार्थों के निर्माण से होने वाला राज्य का लाभ और शासन द्वारा किए जाने वाले अन्य लेनदेन, गैर-कर राजस्व में शामिल थे। शादी के मौकों पर उपयोग की गई वस्तुओं, बलि समारोहों के लिए आवश्यक वस्तुओं और विशेष प्रकार के उपहारों पर कराधान से छूट प्राप्त थी। सभी प्रकार की शराब पर 5 प्रतिशत टोल लगाया जाता था। कर चोरों और अन्य अपराधियों पर 600 पणों तक का जुर्माना किया जाता था। कौटिल्य ने यह भी निर्धारित किया था युद्ध या अकाल या बाढ़ आदि जैसी आपात स्थिति में, कराधान प्रणाली को और अधिक कड़ा किया जाना चाहिए और राजा भी युद्ध हेतु ऋण ले सकता है। आपात स्थिति के दौरान भू-राजस्व को छठे हिस्से से बढ़ाकर चौथे हिस्से तक किया जा सकता है। युद्ध के लिए, वाणिज्य में लगे लोगों को अधिक राशि का भुगतान करना होता था। समग्र दृष्टिकोण पर विचार करने के बाद कहा जा सकता है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, इस देश में सार्वजनिक वित्त, प्रशासन और राजकोषीय कानूनों पर पहली बार आधिकारिक रूप से विषय वस्तु, बिना किसी विरोधाभास के प्रस्तुत की गई थी। कर-राजस्व और कर-राजस्व की उसकी अवधारणा, कर प्रशासन के क्षेत्र में एक अद्वितीय योगदान थी। यह कौटिल्य ही था जिसने शासन को चलाने में कर राजस्व को उचित स्थान दिया और साम्राज्य की समृद्धि और स्थिरता के लिए दूरगामी योगदान को प्रस्तुत किया। यह वास्तव में एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसमें आर्थिक और वित्तीय प्रशासन सहित राज्य शिल्प की कला को सटीक शब्दों में दिया गया है। 1922 के बाद कराधान का इतिहास1. प्रारंभिक:पिछले दशकों के दौरान प्रत्यक्ष करों के प्रशासन में तेजी से हुए बदलाव, भारत में सामाजिक-आर्थिक सोच के इतिहास को दर्शाते हैं। 1922 से आज तक, प्रत्यक्ष कर कानूनों में हुए परिवर्तन इतनी तेजी से हुए है कि आयकर अधिनियम 1922 की आरंभिक रूपरेखा के सिवाय, अद्यतन संशोधित 1961 के अधिनियम में, शायद ही अन्यथा कुछ दिखाई दे। यह स्वाभाविक ही है कि इस विभाग की स्थापना में केवल विस्तार ही नहीं हुआ है, अपितु इसकी संरचना में भी परिवर्तन हुए है। 2. विभाग की स्थापना के बाद से इसके प्रशासनिक ढ़ांचे में परिवर्तन :आय कर विभाग का संगठनात्मक इतिहास सन् 1922 से आरंभ होता है। आय कर अधिनियम, 1922 में विभिन्न आय कर प्राधिकारियों को पहली बार एक विशिष्ट नामकरण दिया गया। इस प्रकार से, प्रशासन की उचित प्रणाली की नींव रखी गई थी। सन् 1924 में, राजस्व अधिनियम के केंद्रीय बोर्ड को सांविधिक निकाय के रूप में गठित किया गया जिसका दायित्व, आयकर अधिनियम के प्रशासन के कार्यों को देखना था। प्रत्येक प्रांत के लिए अलग से आयकर आयुक्त नियुक्त किए गए और इसके अधीन सहायक आयुक्त और आयकर अधिकारियों को दिया गया। सन् 1939 में किए गए आयकर अधिनियम में संशोधन में, दो महत्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन किए (i) अपीलीय कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से अलग किया गया, इस प्रकार से अपीलीय सहायक आयुक्तों के रूप में जाना जाने वाले अधिकारियों का एक वर्ग अस्तित्व में आया, और (ii) बम्बई में एक केंद्रीय प्रभारी बनाया गया। भारत-भर में आयकर विभाग के कार्य की प्रगति और निरीक्षण कार्य पर प्रभावी नियंत्रण के उद्देश्य से, बोर्ड के पहले संबद्ध कार्यालय, निरीक्षण निदेशालय (आय कर) – का सृजन किया गया। कार्यकारी तथा न्यायिक कार्यों के अलग किए जाने के कारण सन् 1941 में अपीलीय न्यायाधिकरण अस्तित्व में आया। इसी वर्ष में, कलकत्ता में भी एक नए प्रभारी की नियुक्ति की गई। 2.1 दूसरे विश्व युद्ध से व्यवसायियों को असामान्य लाभ हुआ। 1940 से 1947 के दौरान, अतिरिक्त लाभ कर और व्यवसाय लाभ कर शुरू किए गए और इसको प्रशासन (इन्हें बाद में क्रमश: 1946 और 1949 में निरस्त कर दिया गया) विभाग को सौंप दिया गया। सन् 1951 में पहली स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना लाई गई। सन् 1946 में, इसी अवधि के दौरान ही 'ए' वर्ग के कुछ अधिकारियों की सीधी भर्ती की गई। बाद में सन् 1953 में, समूह 'ए' सेवा से ही औपचारिक रूप से 'भारतीय राजस्व सेवा' का गठन किया गया। 2.2 इस युग की विशेषता यह रही कि इस युग में जांच तकनीकों के अपग्रेडेशन पर काफी बल दिया गया। सन् 1947 में, आय पर कराधान (अन्वेषण) आयोग की स्थापना की गई जिसे सन् 1956 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अधिकारहीन घोषित कर दिया, परंतु तब तक गहरी जांच की आवश्यकता की जाने लगी थी। सन् 1952 में, निरीक्षण निदेशालय (अन्वेषण) का गठन किया गया। इसी वर्ष में ही, आयकर के निरीक्षकों का एक नया संवर्ग बनाया गया। 'अधिक आय' के मामलों में वृद्धि होने के कारण विभागीय अधिकारियों द्वारा किए गए कार्य की जाँच जरूरी हो गई। इस प्रकार से सन् 1954 में, आंतरिक लेखा परीक्षा योजना को आयकर विभाग में आरंभ किया गया। 2.3 जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सन् 1946 में पहली बार विभाग में कुछ समूह ए के अधिकारियों की भर्ती की गई। उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना आवश्यक था। इन नए भर्ती किए गए अधिकारियों को मुंबई और कोलकाता भेज कर प्रशिक्षण दिया गया हालांकि ऐसा संगठित तरीके से न हो सका। सन् 1957 में, भारतीय राजस्व सेवा (I।R।S) (प्रत्यक्ष कर) स्टाफ कॉलेज ने नागपुर में कार्य करना शुरू कर दिया। आज बोर्ड से सबद्ध यह कार्यालय महानिदेशक के तहत कार्य कर रहा है। इसे राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी कहा जाता है। सन् 1963 तक, आयकर विभाग के पास सम्पत्ति कर, सामान्य कर, प्रवर्तन निदेशालय, जैसे कई अन्य प्रशासनिक कार्य थे। आज इसका विस्तार इतना अधिक हो गया है कि आयकर विभाग को एक अलग बोर्ड के तहत लाना अनिवार्य हो गया था। परिणाम स्वरूप, राजस्व अधिनियम केंद्रीय बोर्ड, 1963 को पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड का गठन किया गया। 2.4 देश की अर्थव्यवस्था की विकासशील प्रकृति के कारण करों तथा काली आय अर्थात दोनों करों में, कई गुना वृदि्ध हुई। सन् 1965 में, स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना का अनुसरण 1975 में प्रकटीकरण योजना द्वारा किया गया। अंत में स्थायी निपटान तंत्र की आवश्यकता होने के कारण निपटान आयोग का गठन किया गया। 2.5 इस अवधि के दौरान, एक अति महत्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन हुआ। कर की बकाया राशि की वसूली, जोकि 1970 तक राज्य प्राधिकारियों के पास थी, वह विभागीय अधिकारियों के पास आ गई। अधिकारियों की एक पूरी नई विंग - टैक्स वसूली अधिकारी बनाई गई और 1-1-1972 से कर वसूली आयुक्तों का एक नया संवर्ग बनाया गया। 2.6 कार्य की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए, 1977 में एक नया संवर्ग आईएसी (मूल्यांकन) और सन् 1978 में एक अन्य संवर्ग, जिसे सीआईटी (अपील) कहा जाता था, बनाया गया। आयुक्तों के संवर्ग का पुनर्गठन किया गया और सन् 1981 में, मुख्य आयुक्त (प्रशासन) के पांच पद सृजित किए गए। 2.7 कर सुधार : पिछले कुछ वर्षों के दौरान किए गए कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत तथा प्रशासनिक सुधार निम्न है:- (क) नीतिगत सुधारों में निम्न शामिल है :-
(ख) प्रशासनिक सुधारों में निम्न शामिल है :-
2.8 कम्पयूटीकरण : आयकर विभाग में कम्प्यूटीकरण की शुरूआत सन् 1981 में आयकर प्रणाली निदेशालय की स्थापना के साथ हुई। आरंभ में, चालानों के संसाधन के कार्य का कम्प्यूटीकरण किया गया। इसके लिए, 1984-85 में तीन कंप्यूटर केंद्रों पर 73 कम्पयूटरों का उपयोग, महानगरों में पहली बार किया गया। बाद में सन् 1989 में इसे बढ़ाकर 33 प्रमुख शहरों कर दिया गया। तदुपरांत, कम्प्यूटरीकृत गतिविधियों को प्रयोग, पुरानी श्रृंखला के तहत स्थायी खाता संख्या (PAN), टैन संख्या (TAN) और पे-रोल लेखांकन में किया गया। इन कंप्यूटर केंद्रों का उपयोग डाटा प्रविष्टि हेतु अवाक् (dumb) टर्मिनलों पर बैच प्रक्रिया के लिए किया गया। सन 1993 में, सरकार द्वारा विभाग का कम्प्यूटीकरण करने के लिए एक कार्य समूह की स्थापना की गई। कार्य समूह की रिपोर्ट के आधार पर, सरकार द्वारा अक्टूबर 1993 में, एक व्यापक कम्प्यूटीकरण योजना अनुमोदित की गई। इस समूह की रिपोर्ट के आधार पर, पर सन् 1994-95 में, दिल्ली, मुम्बई तथा चेन्नई में क्षेत्रीय कम्प्यूटर केन्द्रों की स्थापना, RS59 / 6000H सर्वर के साथ की गई। इन शहरों में चरणों में पहले अधिकारियों को पी सी प्रदान किये गए। योजना में सभी प्रयोक्ताओं को लैन/वैन (LAN/WAN) के द्वारा नेटवर्किंग पर लाना था। तदनुसार, सन 1994-95 के दौरान पहले चरण में दिल्ली, मुम्बई तथा चेन्नई में लीज्ड डाटा सर्किटों के साथ नेटवर्क की स्थापना की गई। 1996-97 के दौरान, दिल्ली में राष्ट्रीय कम्प्यूटर केंद्र की स्थापना की गई। 1997-99 के दौरान एक एकीकृत अनुप्रयोग सॉफ्टवेयर विकसित तथा नियोजित किया गया। तत्पश्चात्, 1996-97 में विभिन्न प्रमुख शहरों में 33 अन्य कम्प्यूटर केंद्रों में RS प्रकार 6000 के मिड रेंज सर्वर प्रदान किये गये। इन्हें पट्टे की लाइनों के माध्यम से राष्ट्रीय कम्प्यूटर केन्द्र से जोड़ा गया। सन् 1997 और 1999 के दौरान आयकर अधिकारी के स्तर तक के अधिकारियों को, चरणों में पी सी प्रदान किए गए। दूसरे चरण में, 57 शहरों के कार्यालयों को नेटवर्क पर लाया गया तथा इन्हें आरसीसी और एनसीसी के साथ जोड़ा गया। 2.9 आयकर विभाग का पुनर्गठन : 31-8-2000 को आयोजित मंत्रिमण्डल की बैठक में, निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, आयकर विभाग का पुनर्गठन करने का अनुमोदन किया गया : -
विभाग द्वारा उक्त उल्लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति निम्न बहु-आयामी नीति द्वारा पाई जाएगी:
3. आयकर विभाग के प्रशासनिक ढांचे को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं :
प्रत्यक्ष कर में कौन सी कर शामिल होते हैं?प्रत्यक्ष कर में आयकर, कॉर्पोरेट कर, संपत्ति कर, भाग कर, और उपहार कर शामिल हैं।
प्रत्यक्ष कर कितने प्रकार के होते हैं?प्रत्यक्ष कर के प्रकार. धन कर:. नोट: वित्त वर्ष 2017 के बजट में इस कर को समाप्त कर दिया गया था और इसे एक वित्तीय वर्ष में 1 करोड़ या उससे अधिक की कर योग्य आय वाले व्यक्तियों पर 2% के अतिरिक्त अधिभार के साथ बदल दिया गया था।. उपहार कर:. पूंजी लाभ कर:. सिक्योरिटीज ट्रांसक्शन टैक्स (STT):. लाभांश कर:. कॉर्पोरेट कर:. प्रत्यक्ष कर का उदाहरण क्या है?उदाहरण के लिए, आयकर प्रत्यक्ष कर है, जबकि जीएसटी अप्रत्यक्ष कर है।
प्रत्यक्ष कर के गुण कौन कौन से हैं?प्रत्यक्ष करों के गुण (लाभ). न्यायपूर्ण – प्रत्यक्ष कर न्यायपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये कर व्यक्तियों की करदान क्षमता के आधार पर लगाये जाते हैं। ... . मितव्ययिता – प्रत्यक्ष करों में मितव्ययिता पायी जाती है, क्योंकि इन करों को वसूल करने में राज्य को अधिक व्यय नहीं करना पड़ता है।. |