पृथ्वी को घेरती हुई जितने स्थान में वायु रहती है उसे वायुमण्डल कहते हैं। वायुमंडल[1] के अतिरिक्त पृथ्वी का स्थलमण्डल ठोस पदार्थों से बना और जलमण्डल जल से बना हैं। वायुमंडल कितनी दूर तक फैला हुआ है, इसका ठीक पता हमें नहीं है, पर यह निश्चित है कि पृथ्वी के चतुर्दिक् कई सौ मीलों तक यह फैला हुआ है।[2] Show वायुमंडल के निचले भाग को (जो प्राय: चार से आठ मील तक फैला हुआ है) क्षोभमंडल, उसके ऊपर के भाग को समतापमण्डल और उसके और ऊपर के भाग को मध्य मण्डल और मध्य मण्डल से ऊपरी भाग को आयनमंडल कहते हैं। क्षोभमंडल और समतापमंडल के बीच के भाग को क्षोभसीमा और समतापमंडल और मध्यमंडल के बीच के भाग को समतापसीमा कहते हैं। साधारणतया ऊपर के तल बिलकुल शांत रहते हैं।[3] प्राणियों और पादपों के जीवनपोषण के लिए वायु अति अत्यावश्यक है। पृथ्वीतल के अपक्षय पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। नाना प्रकार की भौतिक और रासायनिक क्रियाएँ वायुमंडल की वायु के कारण ही संपन्न होती हैं। वायुमंडल के अनेक दृश्य, जैसे इंद्रधनुष, बिजली का चमकना और कड़कना, उत्तर ध्रुवीय ज्योति, दक्षिण ध्रुवीय ज्योति, प्रभामंडल, किरीट, मरीचिका इत्यादि प्रकाश या विद्युत के कारण ही उत्पन्न होते हैं। वायुमंडल का घनत्व एक सा नहीं रहता। समुद्रतल पर वायु का दबाव 760 मिलीमीटर पारे के स्तंभ के दाब के बराबर होता है। ऊपर उठने से दबाव में कमी होती जाती है। ताप या स्थान के परिवर्तन से भी दबाव में अंतर आ जाता है। सूर्य की लघुतरंग विकिरण ऊर्जा से पृथ्वी गरम होती है। पृथ्वी से दीर्घतरंग भौमिक ऊर्जा का विकिरण वायुमंडल में अवशोषित होता है। इससे वायुमंडल का ताप - 68 डिग्री सेल्सियस से 55 डिग्री सेल्सियस के बीच ही रहता है। 100 किमी के ऊपर पराबैंगनी प्रकाश से आक्सीजन अणु आयनों में परिणत हो जाते हैं और परमाणु इलेक्ट्रॉनों में। इसी से इस मंडल को आयनमंडल कहते हैं। रात्रि में ये आयन या इलेक्ट्रॉन फिर परस्पर मिलकर अणु या परमाणु में परिणत हो जाते हैं, जिससे रात्रि के प्रकाश के वर्णपट में हरी और लाल रेखाएँ दिखाई पड़ती हैं।[3] पृथ्वी के वातावरण के इकाई आयतन में गैसों की मात्रा पृथ्वी के चारों ओर सैकड़ो किमी की मोटाई में लपेटने वाले गैसीय आवरण को वायुमण्डल कहते हैं। वायुमण्डल विभिन्न गैसों का मिश्रण है जो पृथ्वी को चारो ओर से घेरे हुए है। निचले स्तरों में वायुमण्डल का संघटन अपेक्षाकृत एक समान रहता है। ऊँचाई में गैसों की आपेक्षिक मात्रा में परिवर्तन पाया जाता है। शुद्ध और शुष्क वायु में नाइट्रोजन 78 प्रतिशत, ऑक्सीजन, 21 प्रतिशत, आर्गन 0.93 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड 0.03 प्रतिशत तथा हाइड्रोजन, हीलियम, ओज़ोन, निऑन, जेनान, आदि अल्प मात्रा में उपस्थित रहती हैं। नम वायुमण्डल में जल वाष्प की मात्रा 5 प्रतिशत तक होती है। वायुमण्डीय जल वाष्प की प्राप्ति सागरों, जलाशयों, वनस्पतियों तथा मृदाओं के जल से होती है। जल वाष्प की मात्रा भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर घटती जाती है। जल वाष्प के कारण ही बादल, कोहरा, पाला, वर्षा, ओस, हिम, ओला, हिमपात आदि होता है। वायुमण्डल में ओजोन परत की पृथ्वी और उस पर रहने वाले जीवों के लिए बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह परत सूर्य से आने वाली उच्च आवृत्ति की पराबैंगनी प्रकाश (किरणों) को अवशोषित कर लेती है, जो पृथ्वी पर जीवन के लिये हानिकारक है। ओजोन की परत की खोज 1913 में फ़्राँस के भौतिकविद फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। पृथ्वीतल पर की शुष्क वायु का औसत संगठन इस प्रकार है- वायुमण्डल गर्मी को रोककर रखने में एक विशाल 'कांच घर' का काम करता है, जो लघु तरंगों (short waves) और विकिरण को पृथ्वी के धरातल पर आने देता है, परंतु पृथ्वी से विकसित होने वाली तरंगों को बाहर जाने से रोकता है। इस प्रकार वायुमण्डल पृथ्वी पर सम तापमान बनाए रखता है। वायुमण्डल में जलवाष्प एवं गैसों के अतिरिक्त सूक्ष्म ठोस कण भी उपस्थित हैं।[3] वायुमंडलीय आर्द्रता वायु में उपस्थित जलवाष्प के ऊपर निर्भर करती है। यह जलवाष्प वायुमंडल के निचले स्तरों में रहता है। इसकी मात्रा सभी स्थानों में तथा सदैव एक सी नहीं रहती। समयानुसार उसमें अंतर होते रहते हैं। यह जलवाष्प नदी, तालाब, झील, सागर आदि के जल के वाष्पीकरण से बनता है। वायुमंडलीय आर्द्रता में दो बातों पर ध्यान देना चाहिए:
वायुमंडलीय आर्द्रता को मुख्यत: दो प्रकार के मापियों से मापते हैं:
वायुमंडलीय ताप का मूलस्रोत सूर्य है। वायु को सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी के संस्पर्श से अधिक ऊष्मा मिलती है, क्योंकि उसपर धूलिकणों का प्रभाव पड़ता है। ये धूलिकण, जो ऊष्मा के कुचालक होते हैं, भूपृष्ठ पर एवं उसके निकट अधिक होते हैं और वायुमंडल में ऊँचाई के अनुसार कम होते जाते हैं। अत: प्रारंभ में सूर्य की किरणें धरातल को गरम करती हैं। फिर वही ऊष्मा संचालन (conduction) द्वारा क्रमश: वायुमंडल के निचले स्तर से ऊपरी स्तर की ओर फैलती जाती है। इसके अतिरिक्त गरम होकर वायु ऊपर उठती है, रिक्त स्थान की पूर्ति अपेक्षाकृत ठंढी वायु करती है; फिर वह भी गरम होकर ऊपर उठती है। फलत: संवाहन धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं। अत: ऊष्मा के ऊपर फैलने में संचालन और संवाहन काम करते हैं। उंचाई के साथ वायुमण्डल के घनत्व तथा तापमान का परिवर्तन वायुमंडलीय दबाव अथवा वायुदाब किसी स्थान के इकाई क्षेत्रफल पर वायुमंडल के स्तंभ का भार होता है। किसी भी समतल पर वायुमंडल दबाव उसके ऊपर की वायु का भार होता है। यह दबाव भूपृष्ठ के निकट ऊँचाई के साथ शीघ्रता से, तथा वायुमंडल में अधिक ऊंचाई पर धीरे धीरे, घटता है। परंतु किसी भी स्थान पर वायु की ऊँचाई के सापेक्ष स्थिर नहीं रहता है। मौसम और ऋतुओं के परिवर्तन के साथ इसमें अंतर होते रहते हैं। वायुमंडलीय दबाव विभिन्न वायुदाबमापियों (बैरोमीटरों) द्वारा नापा जाता है। सागर तल पर वायुमंडलीय दबाव 760 मिमि पारास्तम्भ के दाब के बराबर होता है। वायु दाब मापने की इकाई मिलीबार है। समुंद्री तल पर औसत वायुमंडलीय दाब 1013.25 मिलीबार(MB) होता है । इनका अर्थ एक ही है। इसके आधार पर मानचित्र पर इसे समदाब रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इन्हीं पर वायु-भार-पेटियाँ, हवाओं की दिशा, वेग, दिशा परिवर्तन आदि निर्भर करते हैं।[4] वायुमण्डल की विभिन्न परतों में क्या-क्या उपस्थित हैं वायुमण्डल का घनत्व ऊंचाई के साथ-साथ घटता जाता है। वायुमण्डल को 5 विभिन्न परतों में विभाजित किया गया है।
क्षोभमण्डल वायुमंडल की सबसे निचली परत है। यह मण्डल जैव मण्डलीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मौसम संबंधी सारी घटनाएं इसी में घटित होती हैं। प्रति 165 मीटर की ऊंचाई पर वायु का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस की औसत दर से घटता है। इसे सामान्य ताप पतन दर कहते है। इसकी ऊँचाई ध्रुवो पर 8 से 10 कि॰मी॰ तथा विषुवत रेखा पर लगभग 18 से 20 कि॰मी॰ होती है। इस मंडल को संवहन मंडल,अधो मंडल और वायु मंडल की सबसे छोटी परत भी कहा जाता हैं। और निम्न स्तर का परत भी कहा जाता है।
यह वायुमंडल की तीसरी परत है जो समताप सीमा के ऊपर स्थित है। इसकी ऊंचाई लगभग 80 किलोमीटर तक है। अंतरिक्ष से आने वाले उल्का पिंड इसी परत में जलते है। इस मंडल में ऊंचाई के साथ तापमान में पुनः गिरावट होने लगती है।[5] इस मण्डल में ऊंचाई के साथ ताप में तेजी से वृद्धि होती है। तापमण्डल को पुनः दो उपमण्डलों 'आयन मण्डल' तथा 'आयनसीमा मण्डल' में विभाजित किया गया है। आयन मण्डल, तापमण्डल का निचला भाग है जिसमें विद्युत आवेशित कण होते हैं जिन्हें आयन कहते हैं। ये कण रेडियो तरंगों को भूपृष्ठ पर परावर्तित करते हैं और बेहतर संचार को संभव बनाते हैं। तापमण्डल के ऊपरी भाग आयनसीमा मण्डल की कोई सुस्पष्ट ऊपरी सीमा नहीं है। इसके बाद अन्तरिक्ष का विस्तार है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण परत है। तापमंडल के निचले हिस्से में आयनमण्डल नामक परत पाई जाती है। यह परत 80 से 500 किलोमीटर की ऊंचाई तक विस्तृत है। आयन मंडल की निचली सिमा में ताप प्रायः कम होता है जो ऊंचाई के साथ बढ़ते जाता है जो 250 किमी० में 700℃ हो जाता है। इस मंडल में सूर्य के अत्यधिक ताप के कारण गैसें अपने आयनों में टुट जाती हैं। इस लेयर से रेडियो वेब रिटर्न होती है धरातल से 500 से 1000 किमी० के मध्य बहिर्मंडल पाया जाता है, कुछ विद्वान इसको 1600 किमी० तक मानते है। इस परत का विशेष अध्ययन लैमेन स्पिट्जर ने किया था। इसमें हीलियम तथा हाइड्रोजन गैसों की अधिकता है।[3] पृथ्वी के निचली परत कौन सी है?क्षोभ मंडल-
इसे पृथ्वी के वायुमंडल की सबसे निचली परत माना जाता है। क्षोभमंडल पृथ्वी की सतह पर शुरू होता है और 7 से 20 किमी की ऊँचाई तक जाता है।
पृथ्वी के निचले परत को क्या कहते हैं?कोर पृथ्वी की सबसे निचली परत कहलाती है.
पृथ्वी के परत को क्या कहते हैं?पृथ्वी की सबसे बाहरी परत को क्रस्ट यानि भूपर्पटी कहते हैं।
क्रस्ट वह परत है जो पृथ्वी की सतह को बनाती है और यह एक सख्त परत के ऊपर स्थित होती है, जिसे मेंटल कहा जाता है। क्रस्ट और ऊपरी मेंटल मिलकर पृथ्वी के बाहरी आवरण का निर्माण करते हैं।
पृथ्वी के तीन परत क्या है?भूपर्पटी, भूप्रवार, और क्रोड़ पृथ्वी की तीन परते हैं| पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत एक ठोस परत है, मध्यवर्ती परत अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य क्रोड तरल तथा आतंरिक क्रोड ठोस अवस्था में है।
|