पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का भारत में क्या प्रभाव पड़ा? - pashchimee shiksha pranaalee ka bhaarat mein kya prabhaav pada?

ब्रिटिश शासन और भारत में पश्चिमी शिक्षा और आधुनिक विचार का प्रयोग

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पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का भारत में क्या प्रभाव पड़ा? - pashchimee shiksha pranaalee ka bhaarat mein kya prabhaav pada?



भारत में पश्चिमी शिक्षा और आधुनिक विचार का प्रयोग

पहला चरण ( 1758-1812 ) 

  • इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस काल में यहां के लोगों की शिक्षा के लिए बहुत कम रुचि दिखाई। इस काल में दो अपवादों के रूप में 1781 ई० में मुस्लिम कानून एवं उससे संबंधित विषयों के अध्ययन के लिए कलकत्ता में मदरसे की स्थापना हुई तथा 1792 ई० में हिंदू कानून तथा दर्शन के अध्ययन के लिए जॉनेथन डंकन द्वारा वाराणसी में संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की गई। इन दोनों संस्थाओं की स्थापना मुख्यतः कंपनी कोर्ट में कानून प्रशासन में सहायता के योग्य भारतीयों की नियुक्ति के लिए की गई।
  • एशियाटिक सोसाइटी-जनवरी 1784 ई० में सर विलियम जोन्स एवं तीस सदस्यों द्वारा इसकी स्थापना हुई जो कि एशियाटिक अध्ययन की अन्य शाखाओं से संबंधित थे। इसकी सदस्यता स्वैच्छिक थी परंतु 1829 ई० तक कोई भारतीय इसका सदस्य नहीं था। इसका प्रकाशन 1789 ई० में एशियाटिक रिसर्च के प्रथम भाग में प्रकाशित किया गया। इंग्लैंड एवं पश्चिम में भारत से संबंधित विभिन्न विषयों के अध्ययन के प्रसार का श्रेय एशियाटिक सोसाइटी को दिया जाता है।

दूसरा चरण ( 1813- 53 ) 

  • ईसाई मिशनरियों एवं कई मानवतावादियों (जिनमें कुछ भारतीय भी शामिल थे) के प्रयास से भारत में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 1813 ई० में चार्टर एक्ट में कंपनी को भारत में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान एवं शिक्षित भारतीयों को बढ़ावा देने के लिए प्रतिवर्ष 1 लाख रुपए खर्च करने को बाध्य किया गया। 
  • इस चरण के प्रथम भाग में शिक्षा की प्रकृति के बारे में दो विवाद सामने आए जो कि इस प्रकार थे प्रथम विवादआधुनिक पाश्चात्य शिक्षा या परंपरागत भारतीय शिक्षा प्रणाली के प्रसार के बीच था। द्वितीय विवाद, स्कूलों एवं कॉलेजों में भारतीय भाषा तथा अंग्रेजी को पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार के लिए शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए था।

मैकाले का शिक्षा विवरण ( मैकाले माइन्यूट ऑन एजूकेशन)

  • थॉमस वेविंगटन मैकाले शासकीय अनुदेशों की समिति का अध्यक्ष था। इसके द्वारा 2 फरवरी, 1835 ई० में एक शैक्षिक नीति प्रस्तुत की गई। यह भारत में कंपनी की शैक्षिक नीति की शुरुआत का आधार था। इससे तथाकथित 'आंग्लवादियों' एवं 'प्राच्यवादियों' के विवाद का अंत हुआ। एंग्लिसिस्ट एवं प्रगतिशील भारतीय अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत एवं लोकप्रियता के समर्थक थे जबकि 'प्राच्यवादियों प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति पर विश्वास रखते थे।
  • जनवरी 1835 ई० में समिति के दोनों पक्षों ' प्राच्यवादी' (जेम्स-सदरलैंड, जॉन शेक्सपीयर, जेम्स एवं हेनेरी प्रिंसेप बंधु और इलियट मैकनाथन) और आंग्लवादी (डब्लू० डब्लू० बर्ड, सी०बी०सॉडर्स, जी०ए० बुशबी, जे०आर० कॉल्विन, एवं सी० ई० ट्रेवेलियन) ने अपना-अपना तर्क सर्वोच्च परिषद के समक्ष रखा। 
  • 'प्राच्यवादियों' का यह तर्क था कि संस्कृत एवं अरबी अनुदेशों में किसी भी प्रकार की वास्तविक कमी चार्टर एक्ट 1813 के प्रतिकूल होगी। दूसरी तरफ मैकाले द्वारा समिति में आंग्लवादियों के विचारों का समर्थन किया गया। मैकाले प्रस्ताव आधार पर बेंटिंक ने शिक्षा कोष के समस्त धन को अंग्रेजी शिक्षा पर खर्च करने का आदेश दिया। अंततः मैकाले समस्त विवरण पर आधारित एक प्रस्ताव विलियम बेंटिंक की सरकार द्वारा7 मार्च, 1835 ई० में लागू किया गया जिसमें अंग्रेजी को भारत में सरकारी भाषा के रूप में प्रस्तुत किया गया।
  • मैकाले के अनुसार इस नई पद्धति से भारत में एक ऐसे समुदाय का उदय होगा जो देखने एवं खून से भारतीय होंगे परंतु उनके विचार, शिक्षा तथा प्रतिभा अंग्रेजों जैसी होगी। ये भारतीय न सिर्फ अंग्रेज शासकों तथा भारतीय जनता के बीच दुभाषियों का कार्य करेंगे बल्कि पाश्चात्य नामकरण पद्धति के वैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग कर स्थानीय भाषाओं को सुसंस्कृत कर उसे आम लोगों तक पहुंचाने में मदद करेंगे।
  • 1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग द्वारा भारतीय शिक्षकों को अंग्रेजी स्कूलों में सरकारी नौकरी देने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार अंग्रेजी शिक्षा को सफलता मिली और इसने बंगाल, बंबई तथा मद्रास की तीन प्रेसीडेंसियों में अच्छी सफलता प्राप्त की। इस तरह देश में 1813, 1853 के बीच कई स्कूल व कालेज खोल दिए गए। 

इस चरण में तीन अन्य विकास हुए-

  • मिशनरियों के कार्य में वृद्धि; जिन्होंने आधुनिक शिक्षा के लगभग सभी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण कार्य किए। 
  • मेडिकल, इंजीनियरिंग और लॉ कॉलेजों की स्थापना। 
  • इस तरह व्यावसायिक शिक्षा की शुरुआत हुई। लड़कियों की शिक्षा को आधिकारिक स्वीकृति दी गई। (लॉर्ड डलहौजी ने इस क्षेत्र में सरकारी समर्थन दिया)

अधोगामी निस्पंदन सिद्धांत (Downward filtration theory)

  • बड़ी संख्या में प्राथमिक स्कूलों के बदले कुछ अंग्रेजी स्कूल एवं कॉलेजों को खोलने की सरकारी नीति, जनसमुदाय की शिक्षा के प्रति उपेक्षा थी, क्योंकि सरकार शिक्षा पर एक निश्चित रकम ही खर्च करना चाहती थी। अपनी इन नीतियों की कमी को पूरा करने के लिए अंग्रेजों ने अधोगामी निस्पंदन सिद्धांत  (Downward filtration theory) का सहारा लिया। जिसके अंतर्गत यह माना गया कि शिक्षा एवं आधुनिक विचार ऊपरी वर्ग से नीचे की तरफ निस्पंदित होगा। 
  • दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह था कि कुछ उच्च एवं मध्यमवर्गीय शिक्षित लोग विचार को फैलाने एवं जनसमुदाय को शिक्षित करने का कार्यभार लेंगे। यह सिद्धांत व्यावहारिक तौर पर ब्रिटिश शासनकाल के लगभग अंत तक लागू रहा जबकि आधिकारिक रूप से इसे 1854 ई० में ही समाप्त कर दिया गया था।

तीसरा चरण ( 1854-1900 ) 

 1854 ई० का एजुकेशन डिस्पैच जिसे वुड्स डिसपैच के नाम से जाना जाता है, को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना कार्टा के रूप में माना जाता है। 

  • यह विज्ञप्ति (Dispatch) उस समय के निदेशक मंडल के अध्यक्ष एवं बाद में भारत के प्रथम राज्य सचिव (Secretary of state) द्वारा उद्घोषित की गयी थी । इसे भारत में आधुनिक शिक्षा के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना के रूप में माना जाता है। यह एक व्यापक कार्यक्रम था, जिससे बाद में भारत में शैक्षिक व्यवस्था के आधार पर पूर्ति हुई । इस विज्ञप्ति में निस्पंदित सिद्धांत को अस्वीकृत करते हुए जनसमुदाय की शिक्षा, महिलाओं की शिक्षा, बोल-चाल की भाषा में सुधार, शिक्षा का लौकिकीकरण कर इसे प्राथमिक स्तर से उच्चतम स्तर तक जोड़ने की व्यवस्था पर बल दिया । उन्नीसवीं शताब्दी का दूसरा भाग 1854 ई० की विज्ञप्ति की नीतियों को धीरे-धीरे लागू करने की पुष्टि करता है।
  • 1855 ई० में बंबई, मद्रास, बंगाल, पंजाब एवं उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में एवं बाद में नए प्रांतों में भी शैक्षिक विभागों का सृजन हुआ। वरिष्ठ पदों को पूरा करने के लिए 1897 ई० में इंडियन एजुकेशन सर्विस को संगठित किया गया। इस समय शैक्षिक विकास की अन्य उपलब्धियों को पूरा करने के लिए - कलकत्ता (जनवरी 1857), बंबई (जुलाई 1857), मद्रास ( सितम्बर 1857), पंजाब (1882) एवं इलाहाबाद (1887) विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।
  • 1882 ई० में लॉर्ड रिपन द्वारा इंडियन एजुकेशन कमीशन जिसे ' हंटर कमीशन' के नाम से भी जाना जाता है, को नियुक्त किया गया जिसमें 1854 की विज्ञप्ति के सिद्धांतों को लागू किए जाने के ढंग की जांच करने एवं प्राथमिक शिक्षा में आवश्यक सुझाव देने का कार्य प्रारंभ हुआ। इस समिति ने प्राथमिक शिक्षा की देखरेख की व्यवस्था नई स्थापित स्थानीय समितियों (जिला परिषद एवं नगरपालिका) के सुपुर्द करने की सिफारिश की। गैर सरकारी संस्थाओं के संबंध में इस समिति ने यह परामर्श दिया कि कुछ कॉलेजों, माध्यमिक स्कूलों एवं अन्य आवश्यक संस्थानों को सरकारी व्यवस्था में लेकर, अन्य सभी क्षेत्र गैर सरकारी संस्थाओं के सुपुर्द कर दिए जाएं।
  • कमीशन द्वारा की गई सभी सिफारिशें सरकार द्वारा मानी गईं एवं लागू की गईं।

चौथा चरण ( 1901-20 ) 

  • 1901 ई० में लॉर्ड कर्जन ने सभी सरकारी अनुदेशों के निदेशकों का एक सम्मेलन बुलाया और इसके निर्णयों के आधार पर शैक्षिक सुधारों के एक नए काल की शुरुआत हुई। उन्होंने थॉमस रेले जो वायसराय के कार्यकारी परिषद के कानूनी सदस्य थे, के नेतृत्व में 1902 ई० में एक विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की जिसकी सिफारिशों के आधार पर 1904 ई० में इंडियन यूनिवर्सिटीज एक्ट पास किया गया।
  • इस एक्ट के द्वारा विश्वविद्यालयों ने शैक्षणिक कार्य अपने हाथ में ले लिया ( अभी तक इनका मुख्य कार्य परीक्षा लेना था)। इसके आधार पर कार्यों के शीघ्र समाधान के लिए विभिन्न संस्थानों की स्थापना हुई। इन विभिन्न संस्थानों को स्वीकृति प्रदान करने हेतु कठोर शर्ते रखी गईं तथा समय-समय पर इनके निरीक्षण की योजनाएं बनीं।
  • इन सभी उपायों के कारण उच्च शिक्षा में गुणात्मक सुधार हुए हालांकि राष्ट्रवादी भारतीयों ने अत्यधिक सरकारी नियंत्रण के आधार पर इसकी आलोचना की।
  • 1901 ई० में केन्द्र में शिक्षा का एक अलग विभाग स्थापित हुआ। शैक्षिक नीति पर भारत सरकार ने 1913 ई० में आवासीय विश्वविद्यालयों की स्थापना और प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों के प्रशिक्षण को संशोधित करने का प्रस्ताव रखा।
  • लॉर्ड चेम्सफोर्ड द्वारा कलकत्ता विश्वविद्यालय के कार्य का सर्वेक्षण करने के लिए सैडलर कमीशन (1917-19) की नियुक्ति की गई। इस कमीशन ने माध्यमिक शिक्षा को माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के नियंत्रण में छोड़ देने और स्नातक पाठ्यक्रम की अवधि तीन वर्षों में पूरा करने की सिफारिश की।
  • भारत में 1921 ई० तक विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़कर 12 हो गई, जिसमें बनारस, मैसूर, पटना, अलीगढ़, ढाका, लखनऊ एवं उस्मानिया में सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। माध्यमिक एवं प्राथमिक स्तर की शिक्षा में इसी प्रकार की वृद्धि हुई, लेकिन यह वृद्धि दर जनसमुदाय की शिक्षा के लिए अपर्याप्त थी।
  • इसी चरण में गांधी, लाला लाजपतराय और एनीबेसेंट जैसे भारतीय नेताओं द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा की बात उठाई गई। उनके अनुसार वर्तमान शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय विकास के लिए असहायक ही नहीं, बल्कि प्रतिकूल भी थी। उन्होंने कहा कि एक नई व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए जो मातृभूमि के प्रति प्रेम प्रोत्साहित करे। अतः कई राष्ट्रीय संस्थान जैसे कि काशी विद्यापीठ एवं जामिया मिलिया इस्लामिया स्थापित किए गए जो सरकारी तंत्र से स्वतंत्र होकर कार्य करते थे।

पांचवां चरण (1921-47 ) 

  • इस चरण में शिक्षा पहली बार आधिकारिक तौर पर भारतीय नियंत्रण में आई। मोंटफोर्ड एक्ट 1919 ई० के प्रस्तावों में प्रांतीय हस्तांतरित विषयों का प्रशासन प्रांतीय विधायिका के जिम्मेदार मंत्री के हाथों में था। इसके परिणामस्वरूप सभी स्तर की शिक्षा में अपूर्व विकास हुआ। 
  • इस समय के कुछ महत्त्वपूर्ण विकास इस प्रकार से थे- विश्वविद्यालयों की संख्या में विकास हुए जिनकी संख्या 1947 में 20 हो गई; सैंडलर कमीशन की सिफारिशों पर आधारित सुधारों को लागू करने से उच्च शिक्षा की स्थिति में सुधार हुआ; 1924 ई० में अंतर विश्वविद्यालय बोर्ड की स्थापना हुई। 
  • अंतर महाविद्यालय एवं अंतर विश्वविद्यालय क्रियाकलाप की शुरुआत हुई, महिलाओं की शिक्षा तथा पिछड़े वर्ग के लोगों को लोकप्रिय मिशनरियों द्वारा दिए गए अनुदान से उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता मिली।

हार्टोग समिति रिपोर्ट (1928-29 ): 

  • ब्रिटिश भारत में हुए शिक्षा में विकास पर विवरण देने एवं इस क्षेत्र में संभावित वृद्धि के अन्वेषण के लिए सैडलर कमीशन ने सर फिलिप जोसेफ की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय समिति का मई 1928 ई० में गठन किया। अपने विवरण में समिति ने निम्नांकित टिप्पणी की-
  •  जनसमुदाय की शिक्षा की जिम्मेदारी प्राथमिक रूप से राज्यों पर है। सभी के लिए शैक्षिक सुविधाएं पूर्णतया स्थानीय समितियों की दया पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए।
  • 'माध्यमिक शिक्षा की आम-स्थिति संतोषपूर्ण थी परंतु बड़ी संख्या में माध्यमिक परीक्षा की असफलता विस्मयकारी थी। ऐकिक विश्वविद्यालय अपर्याप्त थे, इन सभी में बड़ी संख्या में अयोग्य विद्यार्थी भरे हुए थे। 
  • अंत में, शिक्षकों के वेतन में सुधार की आवश्यकता, निरीक्षक वर्ग में वृद्धि करना, पाठ्यक्रम में सुधार, कॉलेजों में शैक्षिक कार्य पर दबाव, यौन शिक्षा तथा अन्य समक्षेत्रीय विषयों के अध्ययन में सुधार करना था।

मौलिक शिक्षा या वर्धा शिक्षा ( 1937 ): 

  • मौलिक शिक्षा, जिसे नई तालीम भी कहा जाता था, शिक्षा की एक पद्धति ही नहीं बल्कि एक नए जीवन एवं समाज की अभिव्यक्ति थी। इसके पीछे मूल बात यह थी कि शिक्षा की केवल इसी व्यवस्था द्वारा भारत एक स्वतंत्र एवं अहिंसक समाज बन सकता था। यह योजना सर्वप्रथम महात्मा गांधी द्वारा अपनी साप्ताहिक पत्रिका 'हरिजन 'में लेखों के क्रम में 1937 ई० में प्रकाशित की गई। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर नि: शुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को कुछ-कुछ हस्तचालित या उत्पादित कार्य में जुड़े रहने पर जोर दिया। यथासम्भव दिए जाने वाले प्रशिक्षण ऐसे केंद्रीय शिल्प से जुड़े होने चाहिएं जो बच्चे के पर्यावरण से संबंध रखता हो।
  • "राष्ट्रीय शिक्षा" पर पहला सम्मेलन 22-23 अक्टूबर 1937 ई० को वर्धा में आयोजित किया गया। इसमें डॉ० जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए एक समिति का गठन किया गया, जिसे इस समिति द्वारा दिसंबर 1937 ई० को पूरा कर लिया गया।
  • यह योजना वस्तुत: गांधी की सामाजिक-राजनैतिक विचारधारा का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। स्वतंत्रता के बाद यह योजना प्राथमिक स्तर पर राष्ट्रीय शिक्षा के रूप में केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा स्वीकृत की गई।

सार्जेंट शिक्षा रिपोर्ट (1944 )

केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने सर जे० पी० सार्जेंट की अध्यक्षता में भारत में युद्धोपरांत शैक्षिक विकास पर 1944 ई० में अपना विवरण प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट के अंतर्गत-

  • 3 से 6 वर्ष के बच्चों को पूर्ण प्राथमिक शिक्षा देना। 
  • 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देना। 
  • 11 से 17 वर्ष के कुछ चुने गए बच्चों को छ: वर्षों की उच्च विद्यालय शिक्षा देना। 
  • माध्यमिक विद्यालय परीक्षा के बाद शुरू होने वाले तीन वर्षीय विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम की शिक्षा कुछ चुने हुए छात्रों को देना । तकनीकों, व्यावसायिक तथा कला की शिक्षा पूर्णकालिक व अंशकालिक विद्यार्थियों को उचित वेतनमान पर देना। 
  • प्रौढ़ निरक्षरता को समाप्त करना तथा 20 वर्षों में सार्वजनिकपुस्तकालय व्यवस्था का विकास करना।

भारत में पश्चिमी शिक्षा का क्या प्रभाव पड़ा?

पश्चिमी शिक्षा के साथ, महिला शिक्षा को भी व्यापक संरक्षण प्राप्त हुआ। बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी में भी शिक्षा के प्रसार के इसी पैटर्न को देखा जा सकता है। भारत में पश्चिमी शिक्षा से अंततः भारतीयों में एक नई भावना और एक नया आलोचनात्मक दृष्टिकोण पैदा हुआ, जिसके कारण अंततः राष्ट्रवाद की भावना पैदा हुई।

भारत में पश्चिमी शिक्षा का विकास कैसे हुआ वर्णन कीजिए?

1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग द्वारा भारतीय शिक्षकों को अंग्रेजी स्कूलों में सरकारी नौकरी देने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार अंग्रेजी शिक्षा को सफलता मिली और इसने बंगाल, बंबई तथा मद्रास की तीन प्रेसीडेंसियों में अच्छी सफलता प्राप्त की। इस तरह देश में 1813, 1853 के बीच कई स्कूल व कालेज खोल दिए गए।

पाश्चात्य शिक्षा का भारतीय चेतना पर क्या प्रभाव पड़ा?

पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव भारतीय राष्ट्रीयधारा में पश्चिमी शिक्षा ने सराहनीय योगदान दिया। 1825 ई0 मे लार्ड मैकाले के सुझाव पर भारत मे शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को निश्चित किया। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय चेतना को जड़ से नष्ट करना था।

पाश्चात्य शिक्षा पद्धति ने मनुष्य पर क्या प्रभाव डाला है?

शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता देने की अनुशंसा की गई। (9.) स्त्री-शिक्षा: घोषणा-पत्र में स्त्री-शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया तथा कन्या पाठशालाओं को विभिन्न प्रकार से प्रोत्साहन देने का सुझाव दिया गया।