मूल्य निर्धारण का सामान्य सिद्धांत क्या है? - mooly nirdhaaran ka saamaany siddhaant kya hai?

मूल्य निर्धारण का अर्थ किसी वस्तु या सेवा में मौद्रिक मूल्य निर्धारित करने से है। किन्तु विस्तृत अर्थ में, मूल्य निर्धारण वह कार्य एवं प्रक्रिया है। जिसे वस्तु के विक्रय से पूर्व निर्धारित किया जाता है एवं जिसके अन्तर्गत मूल्य निर्धारण के उद्देश्यों, मूल्य को प्रभावित करने वाले घटकों, वस्तु का मौद्रिक मूल्य, मूल्य नीतियों एवं व्यूहरचनाओं का निर्धारण किया जाता है। 

मूल्य निर्धारण की परिभाषा

प्रो. कोरी के अनुसार- ‘‘किसी समय विशेष पर ग्राहकों के लिए उत्पाद के मूल्य को परिमाणात्मक रूप में (रूपयों में) परिवर्तित करने की कला कीमत निर्धारण है।’’ इस प्रकार मूल्य निर्धारण एक प्रबन्धकीय कार्य एवं प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत लाभप्रद विक्रय हेतु मूल्यों के उद्देश्यों, उपलब्ध मूल्य लोचशीलता, मूल्यों को प्रभावित करने वाले घटकों, वस्तु का मौद्रिक मूल्य, मूल्य नीतियों एवं व्यूहरचनाओं का निर्धारण, क्रियान्वयन एवं नियंत्रण सम्मिलित है।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 3 Theory of Price Determination (मूल्य-निर्धारण का सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
“किसी वस्तु का बाजार मूल्य माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है।” रेखाचित्र सहित व्याख्या कीजिए।
या
“जिस प्रकार हम इस बात पर विवाद कर सकते हैं कि कागज के एक टुकड़े को कैंची का ऊपर वाला या नीचे वाला फलक काटता है, उसी प्रकार हम इस बात पर भी विवाद कर सकते हैं कि मूल्य का निर्धारण तुष्टिगुण द्वारा होता है या उत्पादन लागत द्वारा।” मार्शल के इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
रेखाचित्र द्वारा कीमत-निर्धारण के सामान्य सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2011]
उत्तर:
किसी वस्तु का मूल्य मुद्रा में निर्धारित करने के विषय में विभिन्न अर्थशास्त्रियों में मतभेद रहा है। परम्परावादी अर्थशास्त्री प्रो० एडम स्मिथ, रिकाड, माल्थस व मिल आदि मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत को तथा ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री प्रो० जेवेन्स, मैन्जर तथा वालरस आदि तुष्टिगुण को अधिक महत्त्व प्रदान करते थे; परन्तु प्रो० मार्शल ने मूल्य के निर्धारण में समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा मूल्य के निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त, जिसे माँग और पूर्ति का नियम (Law of Demand and Supply) या आधुनिक सिद्धान्त (Modern Theory) कहते हैं, प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, ‘मूल्य के निर्धारण’ में माँग (तुष्टिगुण) और पूर्ति (उत्पादन लागत) दोनों ही शक्तियों का हाथ होता है। इन दोनों के परस्पर प्रभाव द्वारा कीमत का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है। जहाँ दोनों की सापेक्ष स्थिति समान होती है अर्थात् जहाँ माँग और पूर्ति मात्रा के बराबर होती हैं। इस बिन्दु को सन्तुलन बिन्दु कहते हैं। इस बिन्दु पर जो कीमत निश्चित होती है उसे सन्तुलित कीमत (Equilibrium Price) कहते हैं।

1. माँग पक्ष की व्याख्या – किसी वस्तु की कीमत के निर्धारण में माँग पक्ष से सम्बन्धित दो प्रश्न उठते हैं

  •  क्रेता किसी वस्तु के लिए कीमत क्यों देता है?
  • क्रेता किसी वस्तु के लिए अधिक-से-अधिक कितनी कीमत दे सकता है?

क्रेता की वस्तु के उपयोग से आवश्यकता की पूर्ति होती है, इसी कारण वह वस्तु के लिए कीमत देने को तैयार रहता है। वस्तु की आवश्यकता जितनी अधिक तीव्र होती है, क्रेता उसके लिए उतनी ही अधिक कीमत देने के लिए तत्पर रहता है, क्योंकि उसे वस्तु से उतना ही अधिक तुष्टिगुण मिलता है। क्रेता किसी वस्तु की अधिक-से-अधिक कितनी कीमत देने को तैयार हो जाएगा, यह आवश्यकता की तीव्रता पर निर्भर करता है; परन्तु सीमान्त तुष्टिगुण ह्रास नियम के अनुसार, किसी वस्तु की अधिकाधिक इकाइयों से मिलने वाला तुष्टिगुण क्रमशः घटता जाता है। अतः कोई भी क्रेता किसी वस्तु की अधिक-से-अधिक सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर कीमत दे सकता है। क्रेता वस्तु की जितनी भी इकाइयाँ खरीदता है वे रूप और गुण में समान होती हैं; अत: वह वस्तु की प्रत्येक इकाई के लिए एक ही अर्थात् सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर कीमत देता है। इस प्रकार किसी वस्तु की माँग तथा कीमत, सीमान्त तुष्टिगुण द्वारा निश्चित होती है। यह क्रेता द्वारा दी जाने वाली मूल्य की अधिकतम सीमा होती है।

2. पूर्ति पक्ष की व्याख्या – माँग पक्ष की भाँति ही पूर्ति के विषय में भी दो प्रश्न उठते हैं

  •  विक्रेता अपनी वस्तु के लिए कीमत क्यों माँगता है ?
  •  विक्रेता अपनी वस्तु के लिए कम-से-कम कितनी कीमत ले सकता है ?

वस्तुओं के उत्पादन में कुछ-न-कुछ व्यय अवश्य करना पड़ता है। इसलिए विक्रेता अपनी वस्तु के लिए कीमत माँगता है। कोई भी उत्पादक अपंना माल हानि पर अर्थात् उत्पादन व्यय से कम कीमत पर नहीं बेचना चाहता। वह हर सम्भव प्रयास करता है कि उसे अधिकाधिक कीमत मिले, परन्तु किसी भी दशा में वह उत्पादन लागत व्यय से कम कीमत पर अपना माल बेचने के लिए तैयार नहीं होता। उत्पादन लागत से तात्पर्य ।

मूल्य निर्धारण का सामान्य सिद्धांत क्या है? - mooly nirdhaaran ka saamaany siddhaant kya hai?

सीमान्त लागत (Marginal Cost) से है। अत: वस्तु का निम्नतम पूर्ति मूल्य, वस्तु की सीमान्त लागत के बराबर चावल की माँग व पूर्ति की मात्राएँ (क्विटलों में) होगा। यह वस्तु की कीमत की न्यूनतम सीमा होती है। इस कीमत से कम पर विक्रेता अपनी वस्तु बेचने के लिए तैयार नहीं हो सकता।

3. माँग और पूर्ति का सन्तुलन – मॉग पक्ष अथवा क्रेताओं की दृष्टि से किसी वस्तु की कीमत सीमान्त तुष्टिगुण से अधिक नहीं हो सकती। किसी भी दशा में वे सीमान्त तुष्टिगुण से अधिक कीमत देने के लिए तैयार नहीं होते। दूसरी ओर विक्रेता अथवा पूर्ति पक्ष अपनी वस्तु की न्यूनतम कीमत सीमान्त उत्पादन लागत व्यय से कम लेने को तैयार नहीं होते हैं। अत: कीमत दोनों सीमाओं (अधिकतम और न्यूनतम) के बीच माँग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों के प्रभाव के अनुसार निर्धारित होती है अर्थात् कीमत माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा सीमान्त तुष्टिगुण द्वारा निर्धारित अधिकतम और सीमान्त लागत व्यय द्वारा निर्धारित न्यूनतम सीमा के बीच कहीं पर निश्चित होगी। क्रेता कम-से-कम कीमत देना चाहेगा और विक्रेता अधिक-से-अधिक कीमत प्राप्त करना चाहेगा। इस क्रम में जिस पक्ष की स्थिति सुदृढ़ होगी, कीमत उसके पक्ष में होगी। इस स्थिति में कीमत ऊपर-नीचे होती रहेगी और अन्त में यह उस बिन्दु पर निश्चित होगी जहाँ माँग और पूर्ति की मात्राएँ बराबर होंगी। यही स्थिति साम्य अथवा सन्तुलन की स्थिति कहलाती है।

इस प्रकार बाजार में कीमत गेंद की तरह इधर-उधर लुढ़कती रहेगी, परन्तु अन्त में वह सन्तुलन बिन्दु पर ही निर्धारित होगी। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में साम्य की स्थिति में – कीमत = सीमान्त तुष्टिगुण = सीमान्त लागत।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वस्तु के मूल्य के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से कोई एक, दूसरे की सहायता के बिना स्वयं मूल्य निर्धारित नहीं कर सकता। मूल्य-निर्धारण में माँग व पूर्ति के सापेक्षिक महत्त्व को स्पष्ट करते हुए प्रो० मार्शल ने बताया है कि जिस प्रकार हम इस बात पर विवाद कर सकते हैं कि कागज के एक टुकड़े को कैंची को ऊपर वाला या नीचे वाला फलक काटता है, उसी प्रकार हम इस बात पर भी विवाद कर सकते हैं कि मूल्य का निर्धारण तुष्टिगुण द्वारा होता है या उत्पादन लागत द्वारा।”

प्रो० मार्शल के अनुसार, मूल्य-निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त यह बताता है कि वस्तु का मूल्य सीमान्त तुष्टिगुण तथा सीमान्त उत्पादन व्यय के बीच में माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।
कीमत-निर्धारण के उपर्युक्त सिद्धान्त को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। किसी समय बाजार में चावल की माँग एवं पूर्ति को निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है
माँग और पर्ति तालिका

चावल की माँग की मात्राचावल का मूल्य प्रति क्विटल(₹ में)वस्तु की पूर्ति की मात्रा (किंवटल में)5001,2001,3007001,0001,0009008009001,0006007001,300400500

माँग और पूर्ति की दी गयी तालिका मॉग और पूर्ति के नियम के अनुसार है। इस तालिका से स्पष्ट है कि कीमत बढ़ने पर माँग घट जाती है, किन्तु पूर्ति बढ़ जाती है। इसके विपरीत कीमत घट जाने पर माँग बढ़ जाती है और पूर्ति घट जाती है। साम्य की स्थिति में चावल की कीमत में ₹ 800 प्रति क्विटल होगी, क्योंकि इस कीमत पर ही माँग और पूर्ति की मात्राएँ समान हैं। यही कीमत सन्तुलित कीमत है। उपर्युक्त उदाहरण को रेखाचित्र द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
इस रेखाचित्र में अ ब रेखा पर चावल की माँग एवं पूर्ति और अ स रेखा पर चावल की कीमत दिखायी गयी है। उपर्युक्त तालिका में दिये गये आँकड़ों के आधार पर माँग और पूर्ति वक्र खींचे गये हैं। म म’ माँग वक्र और प प पूर्ति वक्र हैं। ये दोनों वक्र एक-दूसरे को स बिन्दु पर काटते हैं। यही सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि इस बिन्दु पर माँग और पूर्ति की मात्राएँ बराबर हैं। कीमत के क’ के बराबर है।

प्रश्न 2
मूल्य के निर्धारण में समय तत्त्व के महत्त्व की व्याख्या कीजिए। विभिन्न समयावधि में मूल्य के निर्धारण में मॉग और पूर्ति की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
या
कीमत-निर्धारण में समय तत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रो० मार्शल प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने मूल्य के निर्धारण में समय के महत्त्व पर विशेष बल दिया। उनके अनुसार, समयावधि मूल्य के निर्धारण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है। किसी वस्तु का मूल्य उसकी माँग और पूर्ति से निर्धारित होता है। मूल्य के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों में किसकी महत्त्व अधिक है, यह समय या अवधि पर आधारित होता है। मूल्य के निर्धारण में माँग पक्ष अधिक प्रभावशाली होगा अथवा पूर्ति पक्ष, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को एक-दूसरे के साथ समायोजित होने के लिए कितना समय मिलता है। ऐसा इसलिए होता है कि पूर्ति की दशाएँ समयावधि के साथ बदलती रहती हैं। साधारणतया समयावधि जितनी लम्बी होती है, पूर्ति का प्रभाव उतना ही अधिक होता है और समयावधि जितनी छोटी होती है, उतना ही माँग का प्रभाव अधिक होता है।

कीमत के निर्धारण पर समय के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए प्रो० मार्शल ने बाजार का वर्गीकरण इस प्रकार किया है

  1. अति-अल्पकालीन बाजार,
  2. अल्पकालीन बाजार,
  3. दीर्घकालीन बाजार,
  4. अति-दीर्घकालीन बाजार।

1. अति-अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण – अति-अल्पकाल उस स्थिति को बताता है जिसमें पूर्ति लगभग स्थिर रहती है। समय इतना कम होता है कि माँग के बढ़ने पर अधिक उत्पादन नहीं किया जा सकता, इसलिए पूर्ति मात्र स्टॉक तक ही सीमित होती है। पूर्ति के लगभग स्थिर होने के कारण कीमत माँग के द्वारा निर्धारित की जाती है। यदि माँग में वृद्धि होती है तो कीमत बढ़ जाती है और यदि माँग घट जाती है तो कीमत कम हो जाती है। अति-अल्पकालीन बाजार में कीमत माँग और पूर्ति के अस्थायी सन्तुलन का परिणाम होती है, इस कारण मूल्य के निर्धारण में ‘माँग’ का प्रभाव अधिक होता है।

2. अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण – अल्पकाल वह अवधि है जिसमें पूर्ति पूर्णतया निश्चित नहीं होती। उसमें कुछ परिवर्तन किया जा सकता है, परन्तु उसे माँग के अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता। केवल अल्पकाल में परिवर्तनशील साधन; जैसे – श्रम, कच्चा माल, शक्ति के साधनों आदि की मात्रा में वृद्धि करके उत्पादन में कुछ वृद्धि की जा सकती है, इसलिए पूर्ति पूर्णतया अनिश्चित होती है; अत: उसे माँग के बराबर नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि मशीनों की उत्पादन क्षमता निश्चित होती है और इतने कम समय में नई ‘फर्मे भी उद्योग में प्रवेश नहीं कर सकतीं। अत: अल्पकाल में भी कीमत के निर्धारण में मुख्य प्रभाव माँग का रहता है, क्योंकि पूर्ति में अधिक परिवर्तन करना सम्भव नहीं होता।।

3. दीर्घकाल में मूल्य – निर्धारण दीर्घकाल में इतना पर्याप्त समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुसार किया जा सकता है। इसमें इतना समय मिल जाता है कि उत्पत्ति के सभी साधनों में परिवर्तन किया जा सकता है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की पूर्ति को वर्तमान मशीनों की क्षमता को बढ़ाकर या उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश के द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार मशीनों की क्षमता को कम करके या उद्योगों से कुछ फर्मों के बहिर्गमन के द्वारा पूर्ति को घटाया जा सकता है। इसलिए कीमत पर माँग का प्रभाव बहुत कम हो जाता है तथा कीमत का निर्धारण अधिकांश रूप से पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से बहुत ऊपर अथवा बहुत नीचे नहीं रह सकती है। दीर्घकालीन कीमत माँग और पूर्ति के बीच स्थायी और स्थिर सन्तुलन की परिणाम होती है। अत: दीर्घकालीन कीमत को दीर्घकालीन सामान्य कीमत भी कहा जाता है।

4. अति-दीर्घकाल में मूल्य-निर्धारण – जबे समय इतना अधिक लम्बा हो कि उसमें माँग और पूर्ति की परिस्थितियाँ ही बदल जाएँ तो उसे दीर्घकाल कहते हैं। दीर्घकाल में मूल्य के निर्धारण में पूर्ति पक्ष का प्रभाव अधिक रहता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, “सामान्यतः काल जितना अल्प होता है, कीमत पर माँग का प्रभाव उतना ही अधिक होता है और काल जितना ही दीर्घ होता है, कीमत पर लागत (पूर्ति) का प्रभाव उतना ही अधिक होता है।” मत के निर्धारण के सम्बन्ध में यह बात लागू नहीं होती है कि कीमत का निर्धारण कुछ परिनिया में केवल माँग द्वारा होता है और कुछ अन्य परिस्थितियों में अकेले पूर्ति द्वारा।
प्रो० मार्शल के अनुसार, “जिस प्रकार कागज काटने के लिए कैंची के दोनों फलकों का उपयोग आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार कीमत-निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों की ही आवश्यकता होती है। यह सत्य है कि समय जितना अल्प होगा, उतना ही मूल्य के ऊपर माँग का प्रभाव अधिक होगा। इसके विपरीत समय जितना अधिक होगा, वस्तु के मूल्य पर पूर्ति का प्रभाव उतना ही अधिक होगा।’

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
माँग, मूल्य व पूर्ति की पारस्परिक निर्भरता यो सम्बन्ध को समझाइए।
उत्तर:
माँग, मूल्य और पूर्ति के सम्बन्ध को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है

1. मूल्य, माँग व पूर्ति पर निर्भर रहता है – जिस प्रकार कागज काटने के लिए कैंची के दोनों फलकों का उपयोग आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार कीमत (मूल्य) के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों की ही आवश्यकता होती है। उनके परस्पर प्रभाव द्वारा मूल्य का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर दोनों की सापेक्ष स्थिति एक-सी होती है अर्थात् जहाँ पर माँग और पूर्ति दोनों ही मात्रा में बराबर होती हैं। इस प्रकार कहा जाता है कि मूल्य की स्थिति माँग व पूर्ति पर निर्भर करती है।

2. मॉग, मूल्य व पूर्ति पर – माँग और मूल्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी वस्तु को खरीदने और व्यय करने की तत्परता (Willingness) पर मूल्य का बड़ा प्रभाव पड़ता है। कोई व्यक्ति वस्तु की कितनी मात्रा खरीदेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु का बाजार में कितना मूल्य है। जब हम कहते हैं कि बाजार में गेहूं की माँग एक हजार क्विटल है तो हमें इसके साथ यह भी बताना चाहिए कि यह माँग किस मूल्य पर है। माँग और मूल्य के घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही यह कहा जाता है कि माँग से अभिप्राय वस्तु की उस मात्रा से है जो किसी निश्चित समय में किसी एक विशेष कीमत पर खरीदी जाएगी। इस प्रकार बिना मूल्य के माँग अर्थहीन है।

माँग, पूर्ति पर भी निर्भर रहती है। माँग और पूर्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई व्यक्ति वस्तु की कितनी मात्रा खरीदेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु की बाजार में कितनी पूर्ति है। बिना पूर्ति के माँग का कोई अर्थ नहीं होता। जब हम कहते हैं कि बाजार में गेहूं की माँग एक हजार क्विटल है तो हमें उसके साथ यह भी बताना चाहिए कि इस मूल्य पर वस्तु की कितनी पूर्ति है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तु की माँग, मूल्य व वस्तु की पूर्ति पर निर्भर रहती है कि वस्तु कितनी मात्रा में खरीदी जाएगी।

3. पूर्ति, मूल्य व माँग पर – किसी वस्तु का उत्पादन कितनी मात्रा में किया जाए, यह वस्तु की माँग पर निर्भर करता है। उपभोक्ताओं की रुचि, फैशन तथा आय पर वस्तु की माँग निर्भर रहती है। लोग जितनी अधिक वस्तुओं की माँग करेंगे, वस्तु का मूल्य उतना ही अधिक होगा; अत: उत्पादक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से वस्तुओं का अधिक उत्पादन करेंगे जिसके कारण वस्तुओं की पूर्ति बढ़ेगी। कीन्स का रोजगार सिद्धान्त प्रभावपूर्ण माँग सिद्धान्त पर आधारित है। माँग जितनी अधिक होगी, वस्तुओं का उत्पादन या पूर्ति उतनी ही अधिक होगी। इस प्रकार माँग पूर्ति को प्रभावित करती है।
पूर्ति और मूल्य का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। किसी वस्तु की पूर्ति साधारणतया कीमत पर निर्भर होती है। कीमत बढ़ने पर पूर्ति भी बढ़ जाती है और कीमत घटने पर पूर्ति भी घट जाती है। अर्थशास्त्र में पूर्ति का अभिप्राय वस्तु की उस मात्रा से होता है जो किसी समय एक मूल्य-विशेष पर बिकने आती है। अंतः बिना मूल्य का उल्लेख किये पूर्ति का कोई अर्थ नहीं होता। इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तु की पूर्ति वस्तु की मॉग व मूल्य पर निर्भर होती रहती है।

प्रश्न 2
सामान्य मूल्य की परिभाषा तथा विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
अर्थशास्त्र में सामान्य मूल्य से आशय है किसी वस्तु का वह मूल्य जो वस्तु की माँग व पूर्ति की। स्थायी शक्तियों द्वारा दीर्घकाल में निश्चित होता है। यह माँग व पूर्ति के स्थायी साम्य का परिणाम होता है। यह मूल्य दीर्घकाल तक रहता है; अत: यह मूल्य स्थिर रहता है तथा लागत मूल्य के बराबर होता है।

परिभाषा – मार्शल के अनुसार, “किसी निश्चित वस्तु का सामान्य मूल्य वह है जो कि अधिक शक्तियों द्वारा दीर्घकाल में निर्धारित होता है। इस मूल्य पर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव होता है, क्योंकि दीर्घकाल में पूर्ति में परिवर्तन लाया जा सकता है।

सामान्य मूल्य के निम्नलिखित लक्षण या विशेषताएँ हैं

1. यह दीर्घकाल में होता है – माँग और पूर्ति के सन्तुलन का परिणाम दीर्घकाल में होने के कारण इसे दीर्घकालीन मूल्य कहते हैं।

2. सामान्य मूल्य के निर्धारण में पूर्ति का अधिक महत्त्व होता है – इस पर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव हैं, क्योंकि दीर्घकाल में पूर्ति को माँग के अनुसार घटाया-बढ़ाया जा सकता है।

3. मॉग व पूर्ति के सन्तुलन का स्थायी परिणाम होता है – दीर्घकाल में पूर्ति को माँग के साथ समन्वय का पूरा समय मिल जाता है। इस कारण यह माँग व पूर्ति के स्थायी साम्य का परिणाम होता है।

4. यह सीमान्त व औसत लागत के बराबर होता है – दीर्घकाल में समयावधि इतनी लम्बी होती है कि सीमान्त लागत औसत लागत के बराबर हो जाती है। अत: सामान्य मूल्य सीमान्त व औसत दोनों लागतों के बराबर होता है।

5. यह काल्पनिक होता है – यह व्यावहारिक जीवन में सम्भव नहीं होता है। यह केवल काल्पनिक होता है।

6. यह मूल्य स्थिर रहता है – इसके मूल्य में बाजार मूल्य की तरह परिवर्तन नहीं होते। यह स्थायी रहता है।

7. सामान्य मूल्य धुरी के समान होता है – इस मूल्य के चारों ओर बाजार मूल्य चक्कर काटा करता है। अतः यह धुरी के समान होता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
बाजार मूल्य एवं सामान्य मूल्य में अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर:
बाजार मूल्य एवं सामान्य मूल्य में अन्तर

क्र० सं०बाजार मूल्यसामान्य मूल्य1.अल्पकालीन मूल्य होता है।सामान्य मूल्य दीर्घकालीन मूल्य होता है।2.इसमें परिवर्तन होते रहते हैं।यह अस्थायी होता है।3.यह माँग व पूर्ति के अस्थायी प्रभाव का परिणाम होता है।यह माँग और पूर्ति के स्थायी साम्य का परिणाम होता है।4.यह वास्तविक जीवन में पाया जाता है।यह काल्पनिक होता है।5.यह पुनरुत्पादनीय और अपुनरुत्पादनीय दोनों प्रकार की वस्तुओं का होता है।यह केवल पुनरुत्पादनीय वस्तुओं का होता है।6.यह सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।यह मूल्य धुरी के समान होता है और स्थिर रहता है।7.यह लागत मूल्य से ऊँचा-नीचा होता रहता है।यह सीमान्त व औसत, दोनों लागतों के बराबर होता है।8.इस पर माँग का व्यापक प्रभाव होता है।इस पर पूर्ति का अधिक प्रभाव होता है।

प्रश्न 2
बाजार और सामान्य मूल्य में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदैव सामान्य मूल्य के बराबर होने की होती है। बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है। यह अधिक समय तक सामान्य मूल्य से बहुत नीचा या ऊँचा नहीं रह सकता। सामान्य मूल्य लागत मूल्य के बराबर होता है, किन्तु बाजार मूल्य घटता-बढ़ता रहता है। इतना होते हुए बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदा सामान्य मूल्य की ओर बढ़ने लगती है। यदि बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से अधिक ऊँचा हो जाता है तो उत्पादकों को असाधारण लाभ होने लगेगा और वे इस वस्तु का उत्पादन बढ़ाएँगे। दूसरे उत्पादक भी इस वस्तु का उत्पादन करने लगेंगे। वस्तु की पूर्ति माँग के बराबर हो जाएगी और मूल्य गिरकर सामान्य मूल्य के बराबर हो जाएगा।

इसी प्रकार, यदि माँग कम हो जाने के कारण किसी वस्तु का बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से नीचा होता है तो उत्पादकों को हानि होने लगेगी। वे इस वस्तु का उत्पादन कम कर देंगे तथा कुछ अन्य उत्पादक भी इसका उत्पादन बन्द कर देंगे। इस प्रकार वस्तु की पूर्ति कम होकर माँग के अनुसार हो जाएगी और बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के बराबर हो जाएगा। इस प्रकार मूल्य बार-बार सामान्य मूल्य के बराबर होता रहता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत का अधिक महत्त्व रहता है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का है ?
उत्तर:
परम्परावादी अर्थशास्त्री प्रो० एडम स्मिथ, रिकाड, माल्थस व मिल आदि अर्थशास्त्रियों का मत है कि मूल्य-निर्धारण में उत्पादन लागत का अधिक महत्त्व रहता है।

प्रश्न 2
“मूल्य के निर्धारण में तुष्टिगुण अर्थात माँग पक्ष का अधिक महत्त्व रहता है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का था ?
उत्तर:
ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री प्रो० जेवेन्स, मैन्जर तथा वालरस आदि मूल्य के निर्धारण में तुष्टिगुण को अधिक महत्त्व प्रदान करते थे।

प्रश्न 3
प्रो० मार्शल के अनुसार मूल्य-निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल के अनुसार मूल्य-निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त यह बताता है कि, “वस्तु का मूल्य सीमान्त तुष्टिगुण तथा सीमान्त उत्पादन लागत के बीच में माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।”

प्रश्न 4
बाजार मूल्य की सामान्य प्रवृत्ति क्या होती है ?
उत्तर:
बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदैव सामान्य मूल्य के बराबर होने की होती है। बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।

प्रश्न 5
बाजार मूल्य की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. बाजार मूल्य माँग वे पूर्ति के अस्थायी प्रभाव का परिणाम होता है।
  2.  यह लागत मूल्य से ऊँचा-नीचा होता रहता है।

प्रश्न 6
किस प्रकार के बाजार में कीमत के निर्धारण में माँग का प्रभाव अधिक होता है ?
उत्तर:
अति-अल्पकालीन बाजार में पूर्ति निश्चित होने के कारण मूल्य मुख्यतया माँग पर आधारित होता है। अत: अति-अल्पकालीन बाजार में कीमत-निर्धारण में माँग का प्रभाव अधिक होता है।

प्रश्न 7
प्रो० मार्शल ने समय को कितने भागों में बाँटा है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने समय को चार भागों में बाँटा है।

प्रश्न 8
किसी वस्तु का बाजार मूल्य किन शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है ?
उत्तर:
मॉग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है।

प्रश्न 9
बाजार मूल्य किस प्रकार की वस्तुओं का होता है ?
उत्तर:
केवल भण्डार तक रखी वस्तुओं का अर्थात् जिन वस्तुओं की पूर्ति भण्डार की मात्रा तक बढ़ायी जा सकती है।

प्रश्न 10
सब्जियों के मूल्य के निर्धारण में किस पक्ष की प्रधानता होती है, माँग पक्ष की या पूर्ति पक्ष की ?
उत्तर:
माँग पक्ष की।

प्रश्न 11
कीमत-निर्धारण में समय कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर:
कीमत-निर्धारण में समय चार प्रकार का होता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
वस्तु के मूल्य-निर्धारण में उत्पादन लागत को महत्त्व प्रदान करने वाले अर्थशास्त्री हैं
(क) प्रो० एडम स्मिथ
(ख) रिकाड
(ग) माल्थस व मिल
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।

प्रश्न 2
वस्तु के मूल्य-निर्धारण में तुष्टिगुण को महत्त्व प्रदान करने वाले अर्थशास्त्री हैं
(क) प्रो० जेवेन्स
(ख) मैन्जर तथा वालरस
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) माल्थस व मिल
उत्तर:
(ग) (क) तथा (ख) दोनों।।

प्रश्न 3
वस्तु के मूल्य-निर्धारण में समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाने वाले अर्थशास्त्री हैं
(क) प्रो० जेवेन्स
(ख) प्रो० माल्थस
(ग) प्रो० मार्शल
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) प्रो० मार्शल।।

प्रश्न 4
मार्शल के ‘माँग एवं पूर्ति का नियम’ को इस नाम से भी पुकारते हैं
(क) माँग का सिद्धान्त
(ख) आधुनिक सिद्धान्त
(ग) सीमान्त लागत का सिद्धान्त ।
(घ) ये सभी
उत्तर:
(ख) आधुनिक सिद्धान्त।।

प्रश्न 5
यदि बाजार मूल्य सामान्य से अधिक ऊँचा हो, तो
(क) उत्पादकों को सामान्य हानि होने लगेगी
(ख) उत्पादकों को सामान्य लाभ होने लगेगा
(ग) उत्पादकों को असाधारण लाभ होगा
(घ) उत्पादकों को असाधारण हानि होने लगेगी
उत्तर:
(ग) उत्पादकों को असाधारण लाभ होगा।

प्रश्न 6
कीमत-निर्धारण में समय के महत्त्व को बतलाया था
(क) ए० मार्शल ने
(ख) ए० सी० पीगू ने
(ग) एल० रॉबिन्स ने
(घ) जे० के० मेहता ने
उत्त:
(क) ए० मार्शल ने।

प्रश्न 7
“एक वस्तु की कीमत के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों का समान महत्त्व होता है।” यह कथन है
(क) ए० सी० पीगू का
(ख) जे० के० मेहता का
(ग) डेविड रिकार्डों का
(घ) ए० मार्शल का
उत्तर:
(घ) ए० मार्शल का।

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मूल्य निर्धारण के सामान्य सिद्धांत क्या है?

मूल्य-निर्धारण यह निर्धारित करने की प्रक्रिया है कि कंपनी अपने उत्पादों के बदले क्या हासिल करेगी. मूल्य-निर्धारण के घटक हैं निर्माण लागत, बाज़ार, प्रतियोगिता, बाजार स्थिति और उत्पाद की गुणवत्ता. मूल्य-निर्धारण व्यष्टि-अर्थशास्त्र मूल्य आबंटन सिद्धांत में भी एक महत्वपूर्ण प्रभावित करने वाला कारक है।

मूल्य निर्धारण का अर्थ क्या है?

मूल्य या कीमत निर्धारण (mulya nirdharan kya hai) इसका अभिप्राय यह है कि एक फर्म अपने उत्पाद का मूल्य कितना तय करे, अपने माल को किस भाव पर बेजे, ताकि उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।

मूल्य निर्धारण क्यों आवश्यक है?

मूल्य निर्धारण के उद्देश्य मूल्यों में स्थिरता - ऐसे उद्योग जहाँ उतार-चढ़ाव अधिक मात्रा में आते हैं, वहाँ पर निर्माता मूल्यों में स्थिरता लाना चाहते हैं। ऐसी संस्थाएँ जो सामाजिक उत्तरदायित्व एवं सेवा की भावना को महत्व देती है, वे अधिकतम ऐसा करती है।

कीमत निर्धारण के क्या उद्देश्य है?

कीमत निर्धारण निर्णय का मुख्य उद्देश्य है कि कीमत को उस स्तर पर निर्धारित करना जहाँ पर विनिमय संभव हो पाए अर्थात् वह कीमत जिस पर बड़ी संख्या में उपभोक्ता क्रय करने की इच्छा रखते हैं ।