मलबे का मालिक के लेखक/कहानीकार/रचयितामलबे का मालिक (Malabe Ka Maalik) के लेखक/कहानीकार/रचयिता (Lekhak/Kahanikar/Rachayitha) "मोहन राकेश" (Mohan Rakesh) हैं। Show
Malabe Ka Maalik (Lekhak/Kahanikar/Rachayitha)नीचे दी गई तालिका में मलबे का मालिक के लेखक/कहानीकार/रचयिता को लेखक/कहानीकार तथा कहानी के रूप में अलग-अलग लिखा गया है। मलबे का मालिक के लेखक/कहानीकार/रचयिता की सूची निम्न है:-
मलबे का मालिक किस विधा की रचना है?मलबे का मालिक (Malabe Ka Maalik) की विधा का प्रकार "कहानी" (Kahani) है। आशा है कि आप "मलबे का मालिक नामक कहानी के लेखक/कहानीकार/रचयिता कौन?" के उत्तर से संतुष्ट हैं। यदि आपको मलबे का मालिक के लेखक/कहानीकार/रचयिता के बारे में में कोई गलती मिली हो त उसे कमेन्ट के माध्यम से हमें अवगत अवश्य कराएं। विषयसूची मलबे के मालिक कहानी के रचनाकार का क्या नाम है?इसे सुनेंरोकेंपूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे मलबे का मालिक कहानी का सारांश क्या है? इसे सुनेंरोकेंहिंदू और मुस्लिम के बीच उस सांप्रदायिक वहशीपन में जो एक अविश्वास उपजा था, लेखक उसकी झलक भी चुपके से दे जाता है जब गली की लड़की मुसलमान का भय दिखाकर रोते बच्चे को चुप कराती है। विभाजन के कारण बदली हुई सामाजिक स्थितियों का एक रंग यह भी है। गली में मुसलमान के आने की ख़बर पर मची भगदड़ इसी की अभिव्यक्ति है। हकीम आसिफ अली की दुकान पर किस ने कब्जा कर लिया था मलबे के मालिक से? इसे सुनेंरोकेंयहां हकीम आसिफ अली की दुकान थी न? अब यहां एक मोची ने कब्जा कर रखा है परमात्मा का कुत्ता किसकी रचना है?इसे सुनेंरोकेंपरमात्मा का कुत्ता: मोहन राकेश की कहानी24 मार्च 2020 मलबे का अर्थ क्या होता है? इसे सुनेंरोकें- 1. ध्वस्त इमारत आदि की टूटी-फूटी ईंटों तथा मिट्टी, पत्थर आदि का ढेर 2. कूड़ा-करकट। परमात्मा का कुत्ता कहानी का क्या संदेश है? इसे सुनेंरोकेंबहुत-से लोग यहां-वहां सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों. दो-एक व्यक्ति पगड़ियां सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सड़क के किनारे बिखर गए थे. छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा- मोटा क्यू लगा था चिराग दिन क्या काम करता था मलबे के मालिक से?इसे सुनेंरोकेंदो दिन चिराग़ के घर की छानबीन होती रही थी। जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका, तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी थी। रक्खे पहलवान ने तब कसम खायी थी कि वह आग लगाने वाले को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देगा क्योंकि उस मकान पर नज़र रखकर ही उसने चिराग़ को मारने का निश्चय किया था। परमात्मा का कुत्ता कहानी का प्रमुख पात्र कौन है? इसे सुनेंरोकें4) ‘उसने कहा था’ कहानी के प्रमुख पात्र लहना सिंह का चरित्र-चित्रण कीजिए। मोहन राकेश का जन्म कब हुआ? 8 जनवरी 1925 मोहन राकेश का जन्म कब और कहां हुआ?8 जनवरी 1925, अमृतसर मोहन राकेश कौन से युग के रचनाकार है? इसे सुनेंरोकेंमोहन राकेश रचनाकार है | i) भारतेन्दु-यूग के | ii) द्विवेदी-युग के31 जन॰ 2020 मोहन राकेश कौन से युग के रचनाकार हैं?
मनोरी ने उसके चेहरे का बदला हुआ रंग देखा. उसने उसकी बांह को और सहारा देकर ठहरे हुए स्वर में उत्तर दिया,‘आपका मकान उन्हीं दिनों जल गया था.’ गनी छड़ी का सहारा लेता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुंच गया. मलबे में अब मिट्टी ही मिट्टी थी, जिसमें जहां-तहां टूटी और जली हुई ईटें फंसी थीं. लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से न जाने कब का निकाल लिया गया था. केवल जले हुए दरवाजे की चौखट न जाने कैसे बची रह गई थी, जो मलबे में से बाहर को निकली हुई थी. पीछे की ओर दो जली हुई अलमारियां और बाकी थीं, जिनकी कालिख पर अब सफेदी की हल्की-हल्की तह उभर आई थी. मलबे को पास से देखकर गनी ने कहा,‘यह रह गया है, यह?’ और जैसे उसके घुटने जवाब दे गए और वह जली हुई चौखट को पकड़ कर बैठ गया. क्षण-भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा लगा और उसके मुंह से बिलखने की-सी आवाज़ निकली,‘हाए! ओए, चिरागदीना!’ जले हुए किवाड़ की चौखट साढ़े सात साल मलबे में से सिर निकाले खड़ी तो रही थी, मगर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गई थी. गनी के सिर के छूने से उसके कई रेशे झड़कर बिखर गए. कुछ रेशे गनी की टोपी और बालों पर आ गिरे. लकड़ी के रेशों के साथ एक केंचुआ भी नीचे गिरा, जो गनी के पैर से छह-आठ इंच दूर नाली के साथ बनी ईंटों की पटरी पर सरसराने लगा. वह अपने लिए सूराख ढूंढ़ता हुआ ज़रा-सा सिर उठाता, मगर दो- एक बार सिर पटककर और निराश होकर दूसरी ओर को मुड़ जाता. खिड़कियों में से झांकने वाले चेहरों की संख्या पहले से कहीं बढ़ गयी थी. उनमें चेमेगोइयां चल रही थीं कि आज कुछ न कुछ ज़रूर होगा. चिराग़दीन का बाप गनी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की सारी घटना आज खुल जाएगी. लोगों को लग रहा था जैसे वह मलबा ही गनी की सारी कहानी सुना देगा कि शाम के वक़्त चिराग़ ऊपर के कमरे में खाना खा रहा था जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया कि वह एक मिनट आकर एक ज़रूरी बात सुन जाए. पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था. हिन्दुओं पर ही उसका काफ़ी दबदबा था, चिराग़ तो ख़ैर मुसलमान था. चिराग़ हाथ पर कौर बीच में ही छोड़कर नीचे उतर आया. उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियां किश्वर और सुलताना खिड़कियों में से नीचे झांकने लगीं. चिराग़ ने डयोढ़ी से बाहर क़दम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज़ के कालर से पकड़कर खींच लिया और उसे गली में गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा. चिराग़ उसका छुरेवाला हाथ पकड़कर चिल्लाया,‘न, रक्खे पहलवान मुझे मत मार! हाय मुझे बचाओ! जुबैदा! मुझे बचा...!’ और ऊपर से जुबैदा चीख़ती हुई नीचे डयोढ़ी की तरफ भागी. रक्खे के एक शगिर्द ने चिराग़ की जद्दोजहद करती हुई बांहें पकड़ लीं ओर रक्खा उसकी जांघों को घुटने से दबाए हुए बोला,‘चीख़ता क्यों है, भैण के... तुझे पाकिस्तान दे रहा हूं, ले!’ और जुबैदा के नीचे पहुंचने से पहले ही उसने चिराग़ को पाकिस्तान दे दिया. आसपास के घरों की खिड़कियां बंद हो गईं. जो लोग इस दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाज़े बन्द करके अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था. बन्द किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीख़ने की आवाज़ें सुनाई देती रहीं. रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान देकर विदा कर दिया, मगर दूसरे तबील रास्ते से. उनकी लाशें चिराग के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पाई गईं. दो दिन तक चिराग के घर की ख़ाना-तलाशी होती रही. जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी. रक्खे पहलवान ने कसम खाई थी कि वह आग लगाने वाले को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देगा, क्योंकि उसने उस मकान पर नज़र रख कर ही चिराग़ को मारने का निश्चय किया था. उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन-सामग्री भी ख़रीद रखी थी. मगर आग लगाने वाले का पता ही नहीं चल सका, उसे ज़िन्दा गाड़ने की नौबत तो बाद में आती. अब साढ़े सात साल से रक्खा पहलवान उस मलबे को अपनी जागीर समझता आ रहा था, जहां न वह किसी को गाय-भैंस बांधने देता था ओर न खोंचा लगाने देता था. उस मलबे से बिना उसकी अनुमति के कोई ईंट भी नहीं उठा सकता था. लोग आशा कर रहे थे कि सारी कहानी ज़रूर किसी न किसी तरह गनी के कानों तक पहुंच जाएगी जैसे मलबे को देखकर उसे अपने-आप ही सारी घटना का पता चल जाएगा. और गनी मलबे की मिट्टी नाख़ूनों से खोद-खोद कर अपने ऊपर डाल रहा था और दरवाज़े की चौखट को बांह में लिए हुए रो रहा था,‘बोल, चिराग़दीना, बोल! तू कहां चला गया, ओए! ओ किश्वर! ओ सुल्तान! हाय मेरे बच्चे! ओएऽऽ! गनी को कहां छोड़ दिया, ओएऽऽ!’ और भुरभुरे किवाड़ से कड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे. पीपल के नीचे सोए हुए रक्खे पहलवान को किसी ने जगा दिया, या वह वैसे ही जाग गया. यह जानकर कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी आया है ओर अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया, जिससे उसे खांसी हो आई और उसने कुएं के फ़र्श पर थूक दिया. मलबे की ओर देखकर उसकी छाती से धौंकनी का-सा स्वर निकला और उसका निचला ओंठ थोड़ा बाहर को फैल आया. ‘गनी अपने मलबे पर बैठा है.’ उसके शागिर्द लच्छे पहलवाने ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा. ‘मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है!’ पहलवान ने झाग के कारण घरघराई हुई आवाज़ में कहा. ‘मगर वह वहां पर बैठा है,’लच्छे ने आंखों में रहस्यमय संकेत लाकर कहा. ‘बैठा है, बैठा रहे, तू चिलम ला,’ उसकी टांगें थोड़ी फैल गईं और उसने अपनी नंगी जांघों पर हाथ फेरा. ‘मनोरी ने अगर उसे कुछ बताया-उताया तो...’ लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा. ‘मनोरी की शामत आई है!’ लच्छे चला गया. कुएं पर पीपल की कई पुरानी पत्तियां बिखरी थीं. रक्खा उन पत्तियों को उठा-उठाकर हाथों में मसलता रहा. जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर उसके हाथ में दिया तो उसने कश खींचते हुए पूछा,‘और भी तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?’ ‘नहीं.’ ‘ले.’ और उसने खांसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी. लच्छे ने देखा कि मनोरी मलबे की तरफ से गनी की बांह पकड़े हुए आ रहा है. वह उकड़ू होकर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा. उसकी आंखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की ओर लगी रहतीं. मनोरी गनी की बांह पकड़े हुए उससे एक क़दम आगे चल रहा था, जैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुएं के पास से बिना रक्खे पहलवान को देखे ही निकल जाए. मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया. कुएं के पास पहुंचते न पहुंचते उसकी दोनों बांहें फैल गईं और उसने कहा,‘रक्खे पहलवान!’ रक्खे ने गर्दन उठाकर और आंखें जरा छोटी करके उसे देखा. उसके गले में अस्पष्ट-सी घरघराहट हुई, पर वह बोला कुछ नहीं. ‘रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?’ गनी ने बांहें नीची करके कहा,‘मैं गनी हूं, अब्दुल गनी, चिराग़दीन का बाप!’ पहलवान ने सन्देहपूर्ण दृष्टि से उसका ऊपर से नीचे तक जायजा लिया. अब्दुल गनी की आंखों में उसे देखकर चमक आ गई थी. सफ़ेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुरियां ज़रा फैल गई थीं. रक्खे का निचला होंठ फड़का, फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला,‘सुना गनिया!’ गनी की बांहें फिर फैलने को हुई, परन्तु पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गईं. वह पीपल के तने का सहारा लेकर कुएं की सिल पर बैठ गया. ऊपर खिड़कियों में चेमेगोइयां तेज़ हो गईं कि अब दोनों आमने-सामने आ गए हैं, तो बात ज़रूर खुलेगी. फ़िर हो सकता है, दोनों में ग़ाली-गलौज भी हो. अब रक्खा गनी को कुछ नहीं कह सकता, अब वो दिन नहीं रहे. बड़ा मलबे का मालिक बनता था! असल में मलबा न इसका है, न गनी का. मलबा तो सरकार की मिल्कियत है. क़िसी को गाय का खूंटा नहीं लगने देता. मनोरी भी डरपोक है. उसने गनी को बताया क्यों नहीं कि रक्खे ने ही चिराग़ और उसके बीवी-बच्चों को मारा है? रक्खा आदमी नहीं है, सांड है. दिन भर सांड की तरह गली में घूमता है. ग़नी बेचारा कितना दुबला हो गया है. दाढ़ी के सारे बाल सफ़ेद हो गए है! गनी ने कुएं की सिल पर बैठकर कहा,‘देख, रक्खे पहलवान, क्या से क्या रह गया है? भरा-पूरा घर छोड़कर गया था और आज यहां मिट्टी देखने आया हूं. बसे हुए घर की यही निशानी रह गई है. तू सच पूछ, रक्खे, तो मेरा यह मिट्टी भी छोड़कर जाने को जी नहीं करता.’ और उसकी आंखें छलछला आईं. पहलवान ने फैली हुई टांगें समेट लीं और अंगोछा कुएं की मुंडेर से से उठाकर कन्धे पर डाल लिया. लच्छे ने चिलम उसकी तरफ़ बढ़ा दी और वह कश खींचने लगा. ‘तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह?’ गनी आंसू रोकता हुआ आग्रह के साथ बोला,‘तुम लोग उसके पास थे, सबमें भाई-भाई की-सी मुहब्बत थी, अगर वह चाहता तो वह तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसे इतनी भी समझ नहीं आई!’ ‘ऐसा ही है,’ रक्खे को स्वयं लगा कि उसकी आवाज़ में कुछ अस्वाभाविक-सी गूंज है. उसके होंठ गाढ़ी लार से चिपक-से गए थे. उसकी मूंछों के नीचे से पसीना उसके होंठों पर आ रहा था. उसके माथे पर किसी चीज़ का दबाव पड़ रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी. ‘पाकिस्तान के क्या हाल हैं?’ उसने वैसे ही स्वर में पूछा. उसके गले की नसों में तनाव आ गया था. उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुंह में खींच कर गली में थूक दिया. ‘मैं क्या हाल बताऊं, रक्खे!’ गनी दोनों हाथों से छड़ी पर जोर देकर झुकता हुआ बोला,‘मेरा हाल पूछो, तो वह ख़ुदा ही जानता है. मेरा चिराग़ साथ होता तो और बात थी. रक्खे! मैंने उसे समझाया था कि मेरे साथ चला चल. मगर वह अड़ा रहा कि नया मकान छोड़कर कैसे जाऊं. यहां अपनी गली है, कोई ख़तरा नहीं है. भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में ख़तरा न सही, बाहर से तो ख़तरा आ सकता है. मकान की रखवाली के लिए चारों जनों ने जान दे दी. रक्खे! उसे तेरा बहुत भरोसा था. कहता था कि रक्खे के रहते कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. मगर जब आनी आई, तो रक्खे के रोके न रुक सकी.’ रक्खे ने सीधा होने की चेष्टा की, क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी दर्द कर रही थी. उसे अपनी कमर और जांघों के जोड़ पर सख़्त दबाव महसूस हो रहा था. पेट की अन्तड़ियों के पास जैसे कोई चीज़ उसकी सांस को जकड़ रही थी. उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था ओर उसके पैरों के तलुवों में चुनचुनाहट हो रही थी. बीच-बीच में फुलझड़ियां-सी ऊपर से उतरतीं और उसकी आंखों के सामने से तैरती हुई निकल जातीं. उसे अपनी जबान और होंठों के बीच का अन्तर कुछ ज़्यादा महसूस हो रहा था. उसने अंगोछे से होंठों के कोनों को साफ़ किया और उसके मुंह से निकला- ‘हे प्रभु! सच्चिआ, तू ही है, तू ही है, तू ही है!’ गनी ने लक्षित किया कि पहलवान के होंठ सूख रहे हैं ओर उसकी आंखों के इर्द-गिर्द दायरे गहरे हो आए हैं, तो वह उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोला,‘जी हल्कान न कर, रक्खिया. जो होनी थी, सो हो गई. उसे कोई लौटा थोड़े ही सकता है. ख़ुदा नेक की नेकी रखे और बद की बदी माफ़ करें. मेरे लिए चिराग़ नहीं, तो तुम लोग तो हो. मुझे आकर इतनी ही तसल्ली हुई कि उस ज़माने की कोई तो यादगार है. मैंने तुमको देख लिया, तो चिराग़ को देख लिया. अल्लाह तुम लोगों को सेहतमंद रखे. जीते रहो और ख़ुशियां देखो!’ और गनी छड़ी पर दबाव देकर उठ खड़ा हुआ. चलते हुए उसने फिर कहा,‘अच्छा रक्खे पहलवान, याद रखना!’ रक्खे के गले से स्वीकृति की मद्धम-सी आवाज़ निकली. अंगोछा बीच में लिए हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गए. गनी गली के वातावरण को हसरत भरी नज़र से देखता हुआ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया. ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेमेगोइयां चलती रहीं कि मनोरी ने गली से बाहर निकलकर ज़रूर गनी को सब कुछ बता दिया होगा. गनी के सामने रक्खे का तालू किस तरह खुश्क हो गया था! रक्खा अब किस मुंह से लोगों को मलबे पर गाय बांधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! बेचारी कितनी अच्छी थी! कभी किसी से मंदा बोल नहीं बोली. रक्खे मरदूद का घर, न घाट. इसे किस मां-बहन का लिहाज था? और थोड़ी ही देर में स्त्रियां घरों से गली में उतर आईं, बच्चे गली में गुल्ली-डण्डा खेलने लगे और दो बारह-तेरह बरस की लड़कियां किसी बात पर एक-दूसरी से गुत्थमगुत्था हो गईं. रक्खा गहरी शाम तक कुएं पर बैठा खंखारता और चिलम फूंकता रहा. कई लोगों ने वहां से गुज़रते हुए उससे पूछा,‘रक्खे शाह, सुना है आज गनी पाकिस्तान से आया था?’ ‘आया था,’ रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया. ‘फिर?’ ‘फिर कुछ नहीं, चला गया.’ रात होने पर पहलवान रोज़ की तरह गली के बाहर बाईं ओर की दुकान के तख़्ते पर आ बैठा. रोज़ अक्सर वह रास्ते से गुज़रने वाले परिचित लोगों को आवाज़ दे-देकर बुला लेता था और उन्हें सट्टे के गुर और सेहत के नुस्ख़े बताया करता था. मगर उस दिन वह लच्छे को अपनी वैष्णो देवी की यात्रा का विवरण सुनाता रहा, जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी. लच्छे को विदा करके वह गली में आया, तो मलबे के पास लोकू पंडित की भैंस को खड़ी देखकर वह रोज़ की आदत के मुताबिक़ उसे धक्के दे-दे कर हटाने लगा-तत्-तत्...तत्- तत्... और भैंस को हटाकर वह सुस्ताने के लिए मलबे की चौखट पर बैठ गया. गली उस समय बिल्कुल सुनसान थी. कमेटी की कोई बत्ती न होने से वहां शाम से ही अन्धेरा हो जाता था. मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज़ करता हुआ बह रहा था. रात की ख़ामोशी के साथ मिली हुई कई तरह की हल्की-हल्की आवाज़ें मलबे की मिट्टी में से निकल रहीं थीं. एक भटका हुआ कौआ न जाने कहां से उड़कर कड़ी की चौखट पर आ बैठा. उससे लकड़ी के रेशे इधर-उधर छितरा गए. कौए के वहां बैठते ने बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्राकर उठा और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा-वउ-अउ अऊ-वऊ. कौवा कुछ देर सहमा-सा चौखट पर बैठा रहा, फिर वह पंख फड़फड़ाता हुआ उड़कर कुएं के पीपल पर चला गया. कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की ओर मुंह करके भौंकने लगा. पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज में बोला-दुर् दुर् दुर् दुरे. मगर कुत्ता और पास आकर भौंकने लगा-वउ-अउ-वउ-वउ-वउ. -हट हट, दुर्रर्र-दुर्रर्र दुरे वऊ-अऊ-अऊ-अउ-अउ. पहलवान ने एक ढेला उठाकर कुत्ते की ओर फेंका. कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ. पहलवान मुंह ही मुंह में कुत्ते की मां को गाली देकर वहां से उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जाकर कुएं की सिल पर लेट गया. पहलवान के वहां से हटने पर कुत्ता गली में उतर आया और कुएं की ओर मुंह करके भौंकने लगा. काफ़ी देर भौंक कर जब गली में उसे कोई प्राणी चलता-फिरता दिखाई नहीं दिया तो वह एक बार कान झटककर मलबे पर लौट आया और वहां कोने में बैठकर गुर्राने लगा. Illustration: Pinterest Next Story मालबे का मालिक का रचनाकार कौन है?पूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे. हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था, जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराए हो गए थे.
मलबे का मालिक कहानी का उद्देश्य क्या है?हिंदू और मुस्लिम के बीच उस सांप्रदायिक वहशीपन में जो एक अविश्वास उपजा था, लेखक उसकी झलक भी चुपके से दे जाता है जब गली की लड़की मुसलमान का भय दिखाकर रोते बच्चे को चुप कराती है। विभाजन के कारण बदली हुई सामाजिक स्थितियों का एक रंग यह भी है। गली में मुसलमान के आने की ख़बर पर मची भगदड़ इसी की अभिव्यक्ति है।
गनी मियां के परिवार की हत्या कौन करता है?गनी मियां भारत छोड़ पाकिस्तान चले गए, उनका परिवार भारत में ही रह गया। भविष्य से बेखबर गनी मियां के बेटे तथा उनके परिवार को भारत में ही उनके जान-पहचान वालों (रक्खा पहलवान) द्वारा पाकिस्तान दे दिया गया अर्थात उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी।
सुक्खी भटियारिन की भट्टी पर अब कौन बैठा है?उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारिन की भट्ठी थी, जहां अब वह पानवाला बैठा है।...
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