कबीर की भाषा में निहित व्यंग्य बोध की चर्चा कीजिए? - kabeer kee bhaasha mein nihit vyangy bodh kee charcha keejie?

भाषा मूलत: संस्कृति का एक अंग है और संस्कृति अपने को भाषा के माध्यम से जितना अभिव्यक्त करती है, उतना शायद ही किसी अन्य माध्यम से करती हो। जि...

कबीर की भाषा में निहित व्यंग्य बोध की चर्चा कीजिए? - kabeer kee bhaasha mein nihit vyangy bodh kee charcha keejie?

भाषा मूलत: संस्कृति का एक अंग है और संस्कृति अपने को भाषा के माध्यम से जितना अभिव्यक्त करती है, उतना शायद ही किसी अन्य माध्यम से करती हो। जिस संस्कृति को कूप जल और भाषा को कबीर बहता नीर कहते हैं उस कबीर की काव्य-भाषा बक़ौल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में “पँचमेल खिचड़ी” है। यह अजीब विडम्बना है कि जिन कबीर की भाषा को अनेक भाषा से आए शब्दों के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने “पँचमेल खिचड़ी” कहा, उन्हीं कबीर की भाषा “पँचमेल खिचड़ी” का वास्तविक विकास उनके परवर्ती संत कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से करते हैं।

कबीर की भाषा शैली में व्यंजना की प्रौढ़ शक्ति और काव्य गुणों का अक्षय कोष विद्यमान है। यद्यपि उनके विभिन्न शिष्यों के प्रान्त-भेद के कारण उनकी वाणी के विभिन्न रूप मिलते हैं, जिनमें भाषा की एक रूपता नहीं मिलती। मूलत: उनकी भाषा में भावों को व्यक्त करने की असाधारण शक्ति है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनकी भाषा पर कहा है – “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया – बन गया तो सीधे सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कबीर के समक्ष लाचार बन जाती है।“

द्विवेदी पुन: कहते है, “व्यंग करने में और चुटकी लेने में कबीर सबसे आगे रहते हैं। पंडित और काजी, अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी गहरी चोट करते हैं कि चोट सीधा मर्म तक पहुंचता है। कबीर कहते हैं-

मेरे संगी दोई जणों, एक वैष्णो एक राम।

वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै राम॥

अपनी आस्था और धर्म के प्रति अटल होने के बावजूद भक्तिकालीन संत कवियों की सर्व-समावेशी दृष्टि को समझने के बाद भक्तिकालीन संत कवियों की भाषा की वह परत भी खुलने लगती है जिसे प्राय: सधुक्क्ड़ी कहा जाता है।

कबीर ने अपने ईश्वर को जिन प्रिय शब्दों के साथ सर्वाधिक स्मरण किया है वह शब्द है “साहिब” उसके बाद उनकी रचनाओं में “गरीब नवाज” शब्द मिलता है।

“साहब मेरा मैं साहब का”

कबीर ने तत्कालीन सत्ता की अनीतियों का पूरजोर विरोध किया है। व्यभिचारी प्रवृत्तियों के प्रति आक्रोश व्यक्त किया और तमाम तरह के पाखंडों को अनावृत करने में जरा भी नहीं हिचके। लेकिन इन तमाम चीजों के बीच इस बात का उन्हें बराबर ख्याल रहा कि अपनी किसी भी रचना में उन्होने विरोधी धर्म के लोगों को निकृष्ट या हीन नहीं समझा। उनका यही दृष्टिकोण भाषा को लेकर भी है, जहाँ वे किसी भी भाषा के शब्द को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुनते समय शब्दों के कुल – गोत्र अथवा श्रेष्ठ या हीन होने के फेर में कभी नहीं पड़ते और अपनी अभिव्यक्ति के लिए जिस भी भाषा के जो भी शब्द उन्हें सर्वाधिक उपयुक्त लगते है, उनका इस्तेमाल वे कर लेते हैं।

कबीर की भाषा पर विभिन्न स्त्रोतों का प्रभाव देखा जाता है। सिद्ध साहित्य की अनेक प्रवृत्तियाँ कबीर साहित्य पर देखी जाती है। जैसे परंपरागत वर्ण व्यवस्था का विरोध, विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की बाह्य पद्धतियों का खण्डन, मुक्तक पद शैली एवं सामान्य लोक भाषा को अपनाना आदि।

कबीर ने वैष्णव भक्ति के अनेक तत्वों को ग्रहण किया। स्वयं कबीर गुरु रामानन्द के शिष्य थे। प्रेमानुभूति की तन्मयता के क्षणों में तो उनकी वाणी राम हरी गोविन्द का ही स्मरण करती है, अर्थात उनकी अन्तरआत्मा की गहराई में तो वैष्णव भक्तों के ही आराध्य का नाम छिपा हुआ है।

मेरे संगी दोई जणा, एक वैष्णो एक राम।

वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम॥

कबीर की वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग है – रमैनी, सबद और साखी। यह खड़ी बोली अवधी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।

अपनी भाषा के संबंध में कबीर ने कहा है-

“बोली हमारी पूरब की हमे लखे नहीं कोय।

हमको तो साँई लखै, धुर पूरब की होय।।

कबीर की भाषा में विभिन्न बोलियों का यह विचित्र संमिश्रण इतिहास की उस परंपरा को सूचित करता है जिसके अनुसार कबीर के पूर्ववर्ती, समकालीन एवं परवर्ती अनेक कवियों ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में एक साथ ही विभिन्न बोलियों का प्रयोग किया था। इसके अतिरिक्त इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कबीर काशी के वासी थे। परन्तु उनके शिष्य भारत के विभिन्न प्रान्तों से आकर उनका प्रवचन सुना करते थे और अपने प्रांत को लौटते समय इन प्रवचनों पर अपनी भाषा का रंग चढ़ाकर ले जाया करते थे। उन्हें भाषा के मूल रूप से कोई मोह न होकर केवल मात्र भाव से मोह रहा होगा। इसी कारण भाषा का मिश्रण हो गया होगा। विस्तृत भ्रमण करते रहनेवाले लोगों की भाषा में अन्य बोलियों और भाषाओं के अनेक शब्द तो प्रवेश पा जाते हैं परन्तु उनका मूल ढांचा मातृ भाषा का ही रहता है।

कबीर की भाषा के सरल और सीधी होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यदि उनकी उलट्बांसियों और पारिभाषिक शब्दों वाले पदों को छोड़ दिया जाय, तो उनका सम्पूर्ण काव्य साधारण पढे-लिखे व्यक्ति की समझ में आ जाता है। इसी कारण सामान्य जनता में जितना प्रचार कबीर की साखियों का है उतना और किसी भी कवि का नहीं है। कबीर की भाषा की एक दूसरी विशेषता यह भी है कि उनकी भाषा व्यक्ति, विषय और भाव के अनुरूप बदलती रहती है। जब वे मुसलमान या सूफियों की बातें करते हैं तो उसमें अरबी फारसी के शब्दों का व्यवहार अधिक होता है।

कबीर एक समाज सुधारक, उच्च कोटी के रहस्यवादी कवि और सत्य के अन्वेषक थे। वे अपने मनोदगारों को सीधी, सरल जन-साधारण की समझ में आ जाने वाली भाषा में ही व्यक्त करते थे। अत: उनकी भाषा में सर्वत्र एक प्रभाव और प्रेषणीयता है। हृदय को स्पर्श करने की जितनी शक्ति कबीर की भाषा में है, उतनी अन्य कवियों की भाषा में कम ही मिलती है। इसका मूल कारण उनकी उक्तियों के भीतर उनके हृदय की निश्छलता और सच्चाई ही रही।

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परिचय – पत्र

नाम - डॉ. रानू मुखर्जी

जन्म - कलकता

मातृभाषा - बंगला

शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय शिक्षा परिषद, यु.पी.)

लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।

प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में अनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शीघ्र प्रकाश्य)।

उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।

अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों क परिचय कराना।

कबीर की भाषा में निहित व्यंग्य बोध की चर्चा?

कबीर के व्यंग्य की सबसे विशेषता उनकी निडरता है। जिस युग में धर्म और धार्मिक व्यवहार ही समाज का आधार था, उस युग में कबीर ने धर्म और धार्मिक आडंबरों पर गहरी चोट की। यह निडरता कबीर में अपनी दार्शनिक मान्यताओं से आई है, जो ईश्वर को निराकार और सर्व शक्तिशाली मानती है, जो ईश्वर को निराकार और सर्व शक्तिशाली मानती है।

कबीर दास के व्यंग्यात्मक दोहे?

कबीर दास जी के दोहे.
शीलवन्त सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय। ... .
कबीर गुरु सबको चहै , गुरु को चहै न कोय। ... .
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय। ... .
साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द। ... .
आठ पहर चौसंठ घड़ी, लगी रहे अनुराग। ... .
सुमिरण की सुधि यौ करो, जैसे कामी काम। ... .
सुमिरण की सुधि यौ करो, ज्यौं गागर पनिहारि।.

कबीर ने किस पर व्यंग्य किया है?

सिर्फ जाति ही नहीं, कबीर ने मूर्ति पूजा के विरुद्ध भी बात की है और हिंदू तथा मुस्लिम दोनों को उनके संस्कारों, रीति-रिवाजों और प्रथाओ, जो उनकी दृष्टि मे व्यर्थ थे, उनकी आलोचना की। उन्होंने उपदेश दिया कि संपूर्ण श्रद्धा से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है

कबीर की काव्य भाषा पर प्रकाश डालिए?

कबीर की भाषा के संबंध में निर्णय की जटिलता से बचने के लिए सुगम उपाय कि कबीर की भाषा को “सधु्क्कड़ी भाषा” कहा जाए । कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी पंजाबी मिली खड़ी बोली है , पर 'रमैनी' और 'सबद' में गाने के पद है , जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं – कहीं पूर्वी बोली का भी व्यवहार है ।