गुटनिरपेक्ष आंदोलन का कारण क्या था? - gutanirapeksh aandolan ka kaaran kya tha?

प्रश्न 13. गुटनिरपेक्षता क्या है ? विश्व-शान्ति बनाए रखने में यह कितना प्रभावशाली सिद्ध हुआ ?

अथवा '' अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में असलग्न राष्ट्रों की भूमिका पर प्रकाश डालिए।

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अथवा '' गुटनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं ? गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है ?

अथवा '' गुटनिरपेक्षता क्या है ? क्या आप मानते हैं कि यह वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक है ? व्याख्या कीजिए।

अथवा '' गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धियों एवं उसके भविष्य पर प्रकाश डालिए।

अथवा "गुटनिरपेक्ष नीति असंगत हो गई है।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।

अथवा '' गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उपलब्धियों तथा असफलताओं की विवेचन कीजिए।

अथवा '' गुटनिरपेक्षता को परिभाषित कीजिए तथा गुटनिरपेक्षता की सार्थकता की विवेचना कीजिए।

उत्तर - गुटनिरपेक्षता का उदय

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व दो विरोधी गुटों-सोवियत संघ और अमेरिकी गुट में विभक्त हो चुका था और दूसरी तरफ एशिया एवं अफ्रीका के राष्ट्रों का स्वतन्त्र अस्तित्व उभरने लगा था, अमेरिकी गुट एशिया के इन नवोदित राष्ट्रों पर तरह-तरह के दबाव डाल रहा था, ताकि वे उसके गुट में शामिल हो जाएँ। लेकिनएशिया के अधिकांश राष्ट्र पश्चिमी देशों की गुटबन्दी में विश्वास नहीं करते थे। वे सोवियत साम्यवाद और अमेरिकी पूँजीवाद,दोनों को अस्वीकार करते थे। वे अपने आपको किसी 'वाद' के साथ सम्बद्ध नहीं करना चाहते थे और उनका विश्वास था कि उनके प्रदेश विश्व की तीसरी शक्ति हो सकते थे और जो गुटों के विभाजन को अधिक जटिल सन्तुलन में परिणत करके अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में सहायक हो सकते थे। गुटों से अलग रहने की नीति अर्थात् गुटनिरपेक्षता एशिया के नवजागरण की प्रमुख विशेषता थी।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन का कारण क्या था? - gutanirapeksh aandolan ka kaaran kya tha?

सन् 1947 में स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत ने इस नीति का पालन शुरू किया। उसके बाद एशिया के अनेक देशों ने इस नीति में अपनी आस्था व्यक्त की। जैसे-जैसे अफ्रीका के देश स्वतन्त्र होते गए, वैसे-वैसे उन्होंने भी इस नीति का अवलम्बन करना शुरू किया। भारत के प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने तीसरी शक्ति की इस धारणा को काफी मजबूत बनाया। सन् 1961 में गुटनिरपेक्षता के तीन कर्णधारों - पं. नेहरू , नासिर और टीटो ने इसके पाँच आधार स्वीकार किए थे

(1) सदस्य देश स्वतन्त्र नीति पर चलता रहे।

(2) सदस्य देश उपनिवेशवाद का विरोध करता हो।

(3) सदस्य देश किसी सैनिक गुट का सदस्य न हो।

(4) सदस्य देश ने किसी बड़ी शक्ति के साथ द्विपक्षीय समझौता न किया हो।

(5) सदस्य देश ने किसी बड़ी शक्ति को अपने क्षेत्र में सैनिक अड्डा बनाने की इजाजत न दी हो।

 गुटनिरपेक्षता : अर्थ एवं परिभाषाएँ

गुटनिरपेक्षता'-यह शब्द शायद पं. जवाहरलाल नेहरू ने गढ़ा था और वह भी इससे बहुत प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि इस शब्द में प्रकटतः निषेधात्मक ध्वनि है। गुटनिरपेक्षता को 'अप्रतिबद्धता', 'असम्पृक्तता', 'सकारात्मत तटस्थता', 'गतिशील तटस्थता', 'स्वतन्त्र और सक्रिय नीति' और 'शान्तिपूर्ण सक्रिय सह-अस्तित्व' भी कहा जाता है।

वास्तव में गुटनिरपेक्षता अथवा तटस्थता की नीति का अभिप्राय अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सैनिक सन्धियों से न बँधना तथा किसी शक्ति या गुट का समर्थन न करते हुए गुण-दोष के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर अपने विचार प्रकट करना है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि गुटनिरपेक्षता या तटस्थता की नीति विश्व समस्याओं के प्रति तटस्थ भाव नहीं है, वरन् यह किसी देश की आन्तरिक एवं | वैदेशिक नीतियों का वह समन्वय है जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता की रक्षा करते हए । विश्व के विरोधी गुटों के किसी सैनिक संगठन में न बँधते हुए अपने राष्ट्रीय हितों की वृद्धि करना तथा मानवाधिकारों का समर्थन करना है।

जॉर्ज लिस्का के अनुसार, “किसी विवाद के सन्दर्भ में यह जानते हुए कि कौन सही और कौन गलत है, किसी का पक्ष नहीं लेना तटस्थता है. किन्त गुटनिरपेक्षता का अभिप्राय सही और गलत में विभेद करते हुए सदैव सही का समर्थन करना है।"___

संक्षेप में,गुटनिरपेक्षता का स्पष्ट अभिप्राय है किसी देश के साथ सैनिक गुटबन्दी में सम्मिलित न होना, पश्चिमी या पूर्वी तटों के किसी भी विशेष देश के साथ सैनिक दृष्टि से न बँधना, हर प्रकार की आक्रामक सन्धि से दूर रहना,शीत युद्ध से पृथक् रहनाऔर राष्ट्रीय हित का ध्यान रखते हुए न्यायोचित पक्ष में अपनी विदेश नीति का संचालन करना।

गुटनिरपेक्षता को प्रोत्साहन देने वाले कारक

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् गुटनिरपेक्षता के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं

(1) शीत युद्ध -

शीत युद्ध के वातावरण में नव स्वतन्त्र राष्ट्रों ने किसी भी पक्ष का समर्थन न करके पृथक् रहने का निर्णय किया । शीत युद्ध से पृथक् रहने की नीति ही आगे चलकर गुटनिरपेक्षता के नाम से जानी जाने लगी।

(2) मनोवैज्ञानिक विवशता -

नवोदित राष्ट्रों के गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने का दूसरा कारण एक भावात्मक और मनोवैज्ञानिक विवशता थी और वह यह कि वे न केवल औपचारिक अर्थ में स्वतन्त्र हों, बल्कि शक्तियों के प्रभुत्व या प्रभाव के अवशेषों से एकदम मुक्त प्रतीत भी हों।

(3) सैनिक गुटों से पृथक रहना-

एशिया-अफ्रीका के अनेक स्वतन्त्र राष्ट्र किसी भी सैनिक गुट में फँस जाने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि वे अपनी समस्याएँ किसी सैनिक गुट के हस्तक्षेप से नहीं सुलझाना चाहते थे।

(4) अपनी पहचान कायम रखना-

नवोदित राष्ट्रों को ऐसा लगा कि गुटनिरपेक्षता उनके लिए, विशेषतः दोनों गुटों के वैचारिक संघर्ष के रूप में अपने पृथक् और विशिष्ट वैचारिक स्वरूप को बनाए रखने का साधन थी। वे अपने राजनीतिक,आर्थिक,सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं के पृथक् स्वरूप को बनाए रखना चाहते थे।

(5) स्वतन्त्र विदेश नीति की कामना-

नवोदित एशिया और अफ्रीका के राष्ट्र गुटनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से अपने को स्वतन्त्र शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे। गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति के फलस्वरूप आज ये किसी बड़ी शक्ति के इशारों पर नाचने के लिए बाध्य नहीं हैं।

(6) आर्थिक कारक-

गुटनिरपेक्षता का एक अन्य आधार आर्थिक है। प्रायः सभी गुटनिरपेक्ष देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे और उनका रहन-सहन का स्तर निम्न था। अतः उन्होंने अपनी विदेश नीति को ऐसा मोड़ दिया कि उन्हें जहाँ से भी कोई शर्त रखे बगैर आर्थिक सहायता मिल सकती हो, मिल जाए,क्योंकि उन्हें उसकी सतत् आवश्यकता थी।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उपलब्धियाँ (सफलताएँ)अथवा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उपलब्धियों (सफलताओं/भूमिका) को निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं

(1) नि:शस्त्रीकरण में योगदान-

 निःशस्त्रीकरण और शस्त्र नियन्त्रण के लिए बातचीत करने में गुटनिरपेक्ष देशों ने जो भूमिका निभाई,उसमें उन्हें एकदम सफलता तो नहीं मिली। फिर भी उसने लोगों को यह नहीं भूलने दिया कि विश्व-शान्ति को बढ़ावा देने की सारी चर्चा के सामने अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने की बेलगाम दौड़ कितनी खतरनाक है।

(2) स्वतन्त्र वातावरण का निर्माण-

नवोदित कमजोर राष्ट्रों को महाशक्तियों के चंगुल से निकालकर उन्हें स्वतन्त्रता के वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रखने का अवसर गुटनिरपेक्षता ने प्रदान किया।

(3) अपना राष्ट्रीय ढाँचा विकसित करना-

गुटनिरपेक्ष देशों की उपलब्धियों में एक बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने अमेरिका और सोवियत संघ के आदर्शों को अपने ऊपर थोपे जाने का विरोध किया और अपनी राष्ट्रीय प्रकृति के अनुसार विकास के अपने राष्ट्रीय ढाँचों और पद्धतियों का आविष्कार किया।

(4) संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वरूप को रूपान्तरित करना-

गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संघ को छोटे राष्ट्रों के बीच शान्ति कायम रखने वाले संगठन से ऐसे संगठन में रूपान्तरित करने में सहायता दी जिससे छोटे राष्ट्र बड़े राष्ट्रों पर कुछ नियन्त्रण रख सकें । उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की भूमिका का महत्त्व बढ़ा दिया, जिसमें सभी सदस्यों का बराबर प्रतिनिधित्व होता है और सुरक्षा परिषद् की भूमिका को कम कर दिया।

(5) अविकसित राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद-

गुटनिरपेक्ष राष्टों को अविकसित राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद रखने में सफलता मिली है। कोलम्बो शिखर सम्मेलन में तो एक आर्थिक घोषणा-पत्र स्वीकार किया गया जिसका मुख्य आधार यह था कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच अधिकाधिक आर्थिक सहयोग हो और इस आर्थिक सहयोग के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न किया जाए। - 

(6) शीत युद्ध को तनाव-

शैथिल्य में बदलना-शीत युद्ध को तनाव-शैथिल्य (देतान्त) की स्थिति में लाने का श्रेय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ही है।

(7) शीत युद्ध को शस्त्र युद्ध में परिणत होने से रोकना-

गुटनिरपेक्ष देशों ने दोनों गुटों के बीच सद्भावना और सम्पर्क के माध्यम का काम किया तथा दोनों पक्षों के बीच खाम-ख्यालियाँ और गलतफहमियाँ दूर कर इसे शस्त्र युद्ध में बदलने से रोक दिया।

(8) विश्व राजनीति में संघर्षों को टालना-

गुटनिरपेक्षता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उसके प्रभाव से विश्व के कुछ विकट संघर्ष टल गए या उनकी तीव्रता कम हुई या फिर उनका समाधान हो गया और विशेषतः तीसरा विश्व युद्ध नहीं छिड़ा। इसके साथ-साथ अविकसित तथा विकासशील देशों को शान्तिपूर्ण मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और इस प्रकार उसने अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों को स्थिर रूप देने में योगदान दिया।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की विफलताएँ (असफलताएँ)

इस सम्बन्ध में आलोचक निम्नलिखित तर्क देते हैं

(1) अवसरवादी और काम निकालने की नीति-

आलोचकों के अनुसार गुटनिरपेक्षता एक अवसरवाद और काम निकालने की नीति होकर रह गई है और गुटनिरपेक्ष देश सिद्धान्तहीन हैं । ये देश दोनों गुटों से अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने का और जिसका पलड़ा भारी हो,उसकी ओर मिल जाने का ध्येय रखते हैं।

(2) संकुचित नीति-

गुटनिरपेक्षता का दायरा बहुत सीमित है। सारी नोति गुटों की राजनीति के आसपास घूमती है । या तो गुटों के आपसी झगड़ों में पंच बनने की कोशिश करना या दोनों से अलग रहते हुए एक के केवल इतने समीप जाने का प्रयत्न करना कि दूसरा बुरा न माने और यदि दूसरे के बुरा मानने का डर है, तो पहले से नाप-तौलकर दूर हटना या बारी-बारी से पास जाना या दूर हटना, यही गुटनिरपेक्षता की शैली है।

(3) बुनियादी एकता का अभाव-

आलोचकों के अनुसार गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता का अभाव है । समृद्ध राष्ट्रों के शोषण के विरुद्ध मोर्चाबन्दी करना तो दूर, वे आपस में भी एक-दूसरे की सहायता करने की कोई ठोस योजना नहीं बना सके हैं।

(4) बाह्य सहायता पर निर्भर-

गुटनिरपेक्ष देशों की एक बड़ी विफलता यह रही है कि वह बाहरी आर्थिक व बाह्य सहायता पर बुरी तरह निर्भर हैं। अतः सहायता प्राप्ति के लिए उन्हें महाशक्तियों का मुँह ताकना पड़ता है व उनकी शर्ते भी माननी पड़ती हैं । अतः गुटनिरपेक्षता का भलीभाँति पालन नहीं हो पाता है।

(5) नाममात्र की गुटनिरपेक्षता-

गुटनिरपेक्षता नाममात्र की है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के अधिकांश सदस्य किसी-न-किसी गुट से सम्बद्ध हैं।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की चुनौतियाँ अथवा समस्याएँ

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को आज अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

(1) सैनिक दबाव-

महाशक्तियाँ गुटनिरपेक्ष देशों पर सैनिक दबाव डालती रहती हैं। अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए महाशक्तियाँ गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने वाले देशों को अपने सैनिक संगठनों के माध्यम से घेरने की कोशिश करती हैं। भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश के विरुद्ध अमेरिका पाकिस्तान को शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित करता रहा है।

(2) गुटनिरपेक्ष देशों में पारस्परिक तनाव एवं वैमनस्य-

गुटनिरपेक्ष देश पर्याप्त रूप से संगठित नहीं हैं। उनमें तनाव और भयंकर विवाद उभरते रहे हैं। उदाहरण के लिए, भारत और बांग्लादेश, दोनों ही गुटनिरपेक्षता के समर्थक हैं । लेकिन कोलम्बो शिखर सम्मेलन में बांग्लादेश ने भारत के साथ गंगा के पानी के बँटवारे के प्रश्न को उठाकर दुनिया के सामने अपने आपसी तनाव का ही प्रकटीकरण किया। _

(3) गुटनिरपेक्ष देशों में अस्थिरता उत्पन्न करना-

महाशक्तियाँ गुटनिरपेक्ष देशों में हस्तक्षेप करती रहती हैं और अपने गुप्तचरों के माध्यम से अस्थिरता लाने के प्रयास करती हैं। क्यूबा जैसे गुटनिरपेक्ष देशों में अमेरिका ने सी. आई. ए. के माध्यम से फिदेल कास्त्रो सरकार को गिराने की बार-बार कोशिश की। चिली के राष्ट्रपति रुलेण्डे की हत्या में सी.आई.ए.का हाथ था।

(4) यह मात्र एक नैतिक आन्दोलन है-

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन नैतिक अपील-सा लगता है । यह मानवता की रक्षा की आवाज बुलन्द कर सकता है, किन्तु शस्त्रों द्वारा शान्ति स्थापित नहीं कर सकता, आक्रमणों का प्रतिरोध नहीं कर सकता। गुटनिरपेक्षआन्दोलन अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप की प्रत्यक्षतः भर्त्सना नहीं कर सका।

(5) आर्थिक पिछड़ापन-

गुटनिरपेक्ष देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इन देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए महाशक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है। महाशक्तियाँ आर्थिक लालच देकर इन छोटे और कमजोर गुटनिरपेक्ष देशों का शोषण करती हैं। वे इन्हें आर्थिक सहायता का लुभावना मोह दिखाकर उन्हें अपने गुट में बाँधने का प्रयत्न करती हैं।

शीत युद्ध की समाप्ति और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का औचित्यअथवावर्तमान समय में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता(सार्थकता)अथवागुटनिरपेक्ष आन्दोलन का भविष्य

सिद्धान्ततः गुटनिरपेक्षता एक आदर्शवादी नीति है, परन्तु गुटनिरपेक्षता उसी स्थिति में उचित थी जब विश्व दो गुटों में विभाजित था। सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् विश्व का सम्पूर्ण राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका है। विश्व में गुटों के राजनीति खत्म हो चुकी है। सैनिक गठबन्धन टूट रहे हैं। अमेरिका वर्तमान एकधुवीय विश्व का सर्वमान्य नेता है । वह समस्त विश्व पर अपनी दादागीरी दिखा रहा है। विगत कुछ वर्षों से गुटनिरपेक्ष आन्दोलन निर्जीव पड़ गया है।

शीत युद्ध की समाप्ति (सोवियत संघ के विघटन) के पश्चात् प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि एकध्रुवीय व्यवस्था में गुटनिरपेक्षता अथवा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन जैसी संस्था की क्या उपयोगिता है ? यह प्रश्न इसलिए किया जाता है क्योंकि इस आन्दोलन का जन्म शीत युद्ध की राजनीति के प्रतिक्रियास्वरूप ही हुआ था।

एक आलोचक के अनुसार, कहने को निर्गुट राष्ट्रों के आन्दोलन में अब भी सौ से अधिक देश हैं, परन्तु वे हैं इस समय बिल्कुल बेबस । उनमें पहले भी कोई विशेष दमखम नहीं था। परन्तु शीत युद्ध के चलते दोनों महाशक्तियाँ कम-से-कम इनकी बात अवश्य सुन लेती थीं। अब इस आन्दोलन की इतनी पूछ भी नहीं है । हाँ, निर्गुट आन्दोलन की बैठकें बराबर हो रही हैं । परन्तु इसके सदस्य देशों की माली (आर्थिक) हालत इतनी नाजुक है कि इनके नेता हर समय विश्व बैंक से कर्जे की अर्जी लिए वाशिंगटन में मौजूद रहते हैं। विश्व बैंक में अकेले अमेरिका का सर्वाधिक 20% हिस्सा है। उसकी मर्जी के बिना वहाँ से कौड़ी भी नसीब नहीं हो सकती । इसलिए ये देश फिलहाल अमेरिका के सामने खड़े होने की हैसियत में नहीं हैं। आर्थिक तंगी, भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई गरीबी और जन-असन्तोष के कारण निर्गुट आन्दोलन के देश राजनीतिक अस्थिरता से पीड़ित हैं, इसलिए यह आन्दोलन मृत है। सन् 1992 में गुटनिरपेक्ष देशों के विदेश मन्त्रियों की बैठक में मिस्र ने इस आन्दोलन को समाप्त करने की अपील की थी। उसका तर्क था कि सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है।

परन्तु जो लोग यह कहते हैं कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद इस आन्दोलन की उपयोगिता समाप्त हो गई है, वे गलती पर हैं, क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक सकारात्मक प्रयास भी है। यह ठीक है कि प्रारम्भ में गुटनिरपेक्ष देश का आशय उस देश से लिया जाता था जो संयुक्त राज्य अमेरिकाऔर सोवियत संघ,दोनों में से किसी से राजनीतिक और सैनिक रूप से न जुड़ा हो । परन्तु यह भी ठीक है कि कालान्तर में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल राष्ट्र उपर्युक्त शर्त का पालन नहीं कर सके,क्योंकि इस आन्दोलन के सदस्य देश नव-स्वतन्त्र राष्ट्र थे, जिन्हें अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए दोनों महाशक्तियों में से किसी की भी सहायता की आवश्यकता थी। स्वयं भारत ने सन् 1971 में सोवियत संघ से 20-वर्षीय सन्धि की थी। इसलिए गुटनिरपेक्ष राष्ट्र का अर्थ अमेरिका या सोवियत संघ से पृथक् रहना नहीं, वरन् वह राष्ट्र माना गया जिसकी विदेश नीति स्वतन्त्र हो और उसका निर्माण बिना किसी बाह्य दबाव के किया गया हो । आज गुटनिरपेक्ष राष्ट्र को यही अवधारणा है और ऐसी स्थिति में विश्व के एकधुवीय अथवा द्विध्रुवीय होने से गुटनिरपेक्षता की उपयोगिता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि शीत युद्ध समाप्त तो नहीं हुआ है, वरन् उसने दूसरा स्वरूप धारण कर लिया है। यदि मान भी लिया जाए कि शीत युद्ध समाप्त हो गया है, तो भी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उपयोगिता बनी रहेगी। एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका की बढ़ती रुचि के सम्बन्ध में गुटनिरपेक्ष देशों का विश्वव्यापी महत्त्व हो जाता है। अमेरिका एशिया को सामरिक शस्त्रीकरण के दायरे में घसीटना चाहता हैऔर वहाँ अपने नाभिकीय प्रक्षेपास्त्र तैनात करना चाहता है। यह बात छिपी नहीं है कि अमेरिका एशियाई देशों को अपनी आक्रमणकारी योजनाओं का लक्ष्य बनाना चाहता है। यही कारण है कि वह एशिया के वर्तमान तनावों से लाभ उठाने का अवसर देखता है और नये तनाव उत्पन्न करना चाहता है। ऐसी स्थिति में शान्ति, तटस्थता और नाभिकीय मुक्त क्षेत्र की स्थापना के लिए इस आन्दोलन का महत्त्व बद जाता है।

निष्कर्षमय में हम कर सकते है कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भी विश्व एक नीति और आन्दोलन दोनों रूपो मे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का महत्त्व बना रहेगा। राजनीतिक और आर्थिक, दोनो क्षेत्रों में इस आन्दोलन की महना बनी रहेगी। सोवियत संघ के विषटन के बाद यह बात बार-बार उभरी कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का कोई औचित्य नहीं रह गया है। जब दो महाशक्तियों नहीं हैं, तो इस आन्दोलन की क्या आवश्यकता है। परन्तु इस आन्दोलन के अधिकांश सदस्य देशों ने इस बात को नकार दिया है। उनका कहना है कि पहले दो शक्तियों परस्पर टकराती थी, अब जबकि केवल एक ही शक्ति बची है, तो उसकी दादागीरी का खतरा और बढ़ गया है। अतः इस संगठन को समाप्त करने के बजाय और अधिक मजबूत बनाने की आवश्यकता है।