छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?

दंगों का माहौल तो सपा सरकार बना रही है: सतपाल मलिक

छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?

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भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई की पिछले दिनों वृंदावन में हुई कार्यकारणी बैठक में ‘लव जेहाद’ का मामला खासा गरमाया। हालांकि, इस संबंध में कोई प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। लेकिन, ‘लव जेहाद’ पर बहस तेज हो गई है। विश्व हिंदू परिषद ने इसको जबरदस्त मुद्दा बनाना शुरू किया है। झारखंड में तो इस मामले को लेकर तोड़-फोड़ भी हुई। हिंदू लड़कियों को बहला कर एक साजिश के तहत शादी करके धर्म परिर्वतन करने के कुछ कथित मामले सामने आने के बाद इस प्रकरण ने और तूल पकड़ लिया है। हिंदू संगठनों की तरफ से ‘लव जेहाद’ पर जवाबी हमले के धमकी दिए जाने से माहौल विषाक्त बनता जा रहा है। गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्य नाथ की एक वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर ‘वायरल’ होने के कारण राष्टÑीय अल्पसंख्यक आयोग भी मामले में कूद पड़ा है। आयोग ने योगी के खिलाफ आपराधिक मामला भी दर्ज कराने का मन बना लिया है। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी के राष्टÑीय उपाध्यक्ष सतपाल मलिक का कहना है कि ‘लव जेहाद’ जैसे शब्द यदि इस मामले में न भी इस्तेमाल किए जाएं, तो भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस तरह की घटनाएं पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ी हैं। इसका असर अब झारखंड और पूरे देश में दिखने लगा है। इसके पीछे कुछ मुस्लिमों के पास अकूत धन आ जाना भी एक वजह बन रहा है। बड़ी संख्या में मुस्लिम युवा लड़के बिगड़ गये हैं, वे अपना नाम और धर्म छिपाकर हिंदु लड़कियों को ‘सॉफ्ट टारगेट’ बना रहे हैं। मुस्लिम धार्मिक नेता अपने बिगडैÞल बच्चों को रोकने के बजाए चुप्पी साधे हैं। वैसे तो ये लोग तमाम तरह के फतवे जारी करते रहते हैं। लेकिन, इस बारे में कोई भी सख्त संदेश उन लोगों की तरफ से नहीं आया। इसकी वजह से हिंदुओं और उनके धार्मिक नेताओं में गुस्सा पनप रहा है। इस स्थिति के  लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और समाजवादी पार्टी की सरकार भी काफी जिम्मेदार है। वही मुस्लिमों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं करके सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है। सतपाल मलिक, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार में मंत्री रह चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत में उनका खास प्रभाव माना जाता है। मलिक से विभिन्न मुद्दों पर हमारे विशेष संवाददाता एस पी त्रिपाठी ने विस्तार से बात की।

मोदी सरकार के 100 दिन पूरे हो रहे हैं। लेकिन, अभी तक आम आदमी के ‘अच्छे दिन’ तो नहीं आये। लोग सवाल कर रहे हैं, वायदा तेरा वायदा, वायदे का क्या हुआ?

देखिए, मोदी सरकार को 100 दिन के काम काज से मत आंकिए। मोदी सरकार ने सबसे बड़ा परिवर्तन कार्य संस्कृति में भारी बदलाव करके अपनी पारी की शुरुआत की है। मंत्री से लेकर नौकरशाह तक में जनता के प्रति जवाबदेही का भय सताने लगा है। मोदी ने कह दिया है कि ‘न मैं खाउंगा और न ही खाने दूंगा’। इसके आगे भी बढ़कर वे संदेश दे चुके हैं कि ‘न सोउंगा और न ही सोने दूंगा’। यानी जनता ने पांच साल के लिए चुनकर भेजा है, तो उसके कल्याण के लिए हर संभव प्रयास होना है। जिस तरह से मोदी ने शासन में जनता की भलाई के लिए काम शुरू किया है, उससे लोगों में विश्वास और बढ़ा है कि मोदी जी ईमानदार, कर्मठ व नए- नए विचारों को अमल में लाकर हर व्यक्ति का भला करने के लिए प्रत्यनशील हैं। यह विश्वास मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। लोगों को भरोसा हो गया है कि ‘अच्छे दिन’ आने शुरू हो गये हैं।

लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान महंगाई को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हुर्इं। इस तरह के सपने दिखाऐ गये थे कि जैसे सत्ता में आने के बाद महंगाई से लोगों को एकदम निजात मिल जायेगी। लेकिन, अभी तो महंगाई के बढ़ने की रफ्तार भी कम होती नजर नहीं आ रही है। इस पर आप क्या कहेंगे?

महंगाई तो कम हुई है। हां, कुछ जिंसों की कीमतें जरूर बढ़ी हैं। प्याज और टमाटर की कीमतें बढ़Þी हैं। बारिश के दिनों में सब्जियों की कीमतें हर साल बढ़ जाती हैं। आलू और प्याज की कीमतें को लेकर विपक्ष ज्यादा शोर मचा रहा है। कांग्रेस को तो इसको लेकर विरोध का कोई नैतिक अधिकार ही नहीं है। उसके शासनकाल में तो आलू-प्याज की ही क्या हर चीज की कीमतें आसमान छू रही थीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले एक महीने से प्याज और टमाटर की कीमतें बढ़ी हैं। लेकिन, यह भी सच है कि इससे किसानों को भी लाभ हुआ है। उसकी जेब में अधिक पैसा गया है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में आप की खास पैठ रही है। यही क्षेत्र आप की राजनीति का कर्म क्षेत्र भी है। लेकिन, पिछले कई महीनों से इस संभाग के कई शहरों में ग्रामीण और शहरी इलाके सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील हो चुके हैं। दंगों का माहौल बनाया जा रहा है। इस स्थिति के लिए खासतौर पर संघ परिवार पर उंगलियां उठ रही हैं। आप को क्या लगता है कि इस तरह की बातों में कोई दम है?

संघ परिवार पर उंगलियां उठाना कतई उचित नहीं है। संघ का एक चिंतन है। राष्टÑभक्ति और देश के चहुंमुखी विकास के लिए संघ के कार्यकर्ता समर्पित होकर काम कर रहे हैं। पिछले पचास सालों से संघ पर सांप्रदायिकता फैलाने का कोई आरोप नहीं लगा है। दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता के लिए मुस्लिम कठमुल्ले और मुलायम सिंह का खराब रवैया खास जिम्मेदार हैं। मुलायम सिंह और प्रदेश की सपा सरकार हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच संतुलन नहीं बना पा रही है। मुस्लिमों को निहित स्वार्थ के कारण बढ़ावा दिया जा रहा है। मुस्लिमों को हिंदुओं के प्रति भड़काया जा रहा है। उनका काम ही भड़काना है। दंगा का माहौल तो मुलायम सिंह और सपा सरकार बना रही है और आरोप लगाया जा रहा है संघ पर। 

पिछले दिनों वृंदावन में यूपी भाजपा कार्यकारणी की बैठक हुई थी। इसमें ‘लव जेहाद’ के मुद्दे पर बहस हुई। क्या, आप को भी लगता है कि वाकई में बड़े नियोजित तरीके से कोई ‘लव जेहाद’ चलाया जा रहा है?

कार्यकारणी में कोई प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। लेकिन, यह सच है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में काफी अरसे से सुनियोजित तरीके से यह काम हो रहा है। बेशक इसे ‘लव जेहाद’ का नाम न दें। लेकिन, मुस्लिम युवाओं में बड़ी तादाद हाथ में कलावा पहनकर और माथे पर टीका लगाकर स्कूलों, कॉलेजों व विश्वविद्यालयों के गेट पर खड़े होकर हिंदू लड़कियों से दोस्ती कर लेते हैं। बहकाकर शादी का झांसा दिया जा रहा है। मुस्लिम के एक वर्ग जिसमें कुरैशी जाति के लोग हैं, उनके पास अनाप-शनाप और अवैध तरीके से पशु कटाई के काम से अकूत पैसा आ रहा है। उनके लड़के हिंदू लड़कियों को बहकाने में लगे हैं। अब इसका असर पश्चिमी यूपी से झारखंड और दूसरे प्रदेशों में दिख रहा है। लेकिन, इसके पीछे धन का चकाचौंध ही है। चूंकि, कंजर्वेटिव और तमाम पाबंदी के कारण मुस्लिम लड़कियां इन लड़कों के चंगुल में नहीं आतीं, लेकिन हिंदू लड़कियां सॉफ्ट टार्गेट हो जाती हैं। इस तरह की घटनाएं पाकिस्तान से या कोई संगठन द्वारा नहीं चलाई जा रही हैं। ना ही इसे रोकने के लिए मुस्लिम मौलवी या धर्मगुरु सामने आ रहे हैं। इस काम में उनकी मौन स्वीकृति है। वैसे तो ये लोग तमाम तरह के फतवे जारी करते हैं, लेकिन इस मामले में मुस्लिम लड़कों को रोकने के लिए गंभीर प्रयास नहीं कर रहे हैं। इन्हें नतीजों का फिक्र नहीं है कि यह स्थिति कितनी विस्फोटक हो सकती है? इसका असर यह हो रहा है कि हिंदुओं और उनके संगठनों में गुस्सा पनप रहा है। हिंदू समाज को मिल बैठ कर तय करना है कि इस समस्या का निराकरण कैसे हो? 

‘लव जेहाद’ को लेकर गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ का एक विवादित वीडियो भी सामने आया है। जिसमें वे कहते दिख रहे हैं कि यदि कोई मुस्लिम लड़का एक हिंदू लड़की का धर्म परिवर्तन कराता है, तो उसके जवाब में हमें 100 मुस्लिम लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराना है? इस तरह के गैर-जिम्मेदार बयान पर आप की प्रतिक्रिया?

योगी जी अनुभवी और सम्मानित नेता हैं। उन पर हम कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकते। लेकिन, इतना कह सकता हूं कि जब इस तरह की बड़े पैमाने पर घटनाएं होंगी, तो हिंदू समाज में भी गुस्सा आयेगा ही।

आप ने तो किसान नेता चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में राजनीति शुरू की थी। उस दौर में किसान और गरीबों के हक के मुद्दों पर ही चरण सिंह और आप जैसे उनके सिपहसालार जूझते थे। लेकिन, इस वर्ग की आवाज अब कहां गुम हो गई? भाजपा भी इन वर्गों के लिए कोई जुझारूपन क्यों नहीं दिखा रही?

किसान और गरीब लोग सबसे अधिक हासिये पर यूपीए सरकार में रहे हैं। यूपीए सरकार की नीतियां किसान और गरीब विरोधी रही हैं। जबकि, इनकी भलाई के लिए तमाम काम करने का दावा कांग्रेस ही करती रही है। लेकिन, अब वक्त बदला है। मोदी सरकार में एक बार फिर किसान और गरीब केंद्र बिंदु में आ गये हंै। यह सरकार इन पर फोकस कर रही है। पीएम ने जन-धन योजना शुरू करने के अवसर पर कहा भी अब गरीब भी अमीर की तरह से सम्मानपूर्वक जीवन-यापन कर सकेगा। 

पिछले दिनों चार राज्यों में उप चुनावों के परिणाम आये हैं। खासतौर पर बिहार के परिणामों से यह कहा जा रहा है कि अब मोदी की राजनीति का जादू उतार की ओर बढ़ने लगा है। इस तरह के राजनीतिक निहितार्थों को कितना सही मानते हैं?

देखिए, बिहार दूसरे तरह का राज्य है। इसमें पिछड़े और मुस्लिमों की आबादी ज्यादा हैं। उपचुनाव में इसका भी असर पड़ा है। इसके साथ ही स्थानीय मुद्दे और प्रदेश नेतृत्व का प्रभाव भी मतदाताओं पर रहा। अधिकतर उपचुनावों का यही टेंड्र रहा है कि उससे विपक्ष का फायदा होता है। उपचुनावों में मोदी जी या राहुल सामने नहीं थे। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि मोदी जी का जादू जनता में उतर रहा है। जन-धन योजना में एक दिन में करीब डेढ़ करोड़ लोगों ने बैंक खाते खुलवाये। इससे स्पष्ट है कि मोदी जी जो कह रहे हैं, उस पर जनता भरोसा कर रही है।

बिहार में मोदी और भाजपा की बढ़त को रोकने के लिए सेक्यूलर महागठबंधन का राजनीतिक प्रयोग किया गया। इसमें एक हद तक सफलता भी मिली। नीतीश ने कहा कि अब इस राजनीति का प्रयोग देशभर में अजमाने की जरूरत है। ताकि, भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का मुकाबला किया जा सके। इस तरह के भाजपा विरोधी गठबंधनों का भविष्य रह गया है?

इस तरह का कोई प्रयोग सफल नहीं होगा। बिहार में उपचुनावों की जीत से इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है कि यह महाप्रयोग देश भर में सफल होगा। इस तरह के प्रयोग कई बार हुए हैं और जनता ने उन्हें नकार दिया है। इसलिए तो इस लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की राजनीति करने वालों ने चुनाव पूर्व गठबंधन करने की हिम्मत नहीं की। 

गृहमंत्री राजनाथ सिंह और उनके बेटे पंकज को लेकर अफवाहों का बाजार पिछले कई दिनों से गर्म था। अफवाहों से गृहमंत्री इतने दुखी हुए कि मीडिया के सामने आकर कहा कि यदि मेरे और परिवार के किसी भी सदस्य के खिलाफ भ्रष्टाचार का साक्ष्य साबित हो जाए, तो मैं राजनीति छोड़कर घर बैठ जाऊंगा। उनके बयान के बाद भाजपा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री को भी बयान देकर इन अफवाहों का खंडन करना पड़ा। कांगे्रस ने भी निशाना साधा है। इस प्रकरण पर क्या कहेंगे?

देखिए, इस संबंध में हमारी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने खुद इन अफवाहों को बेबुनियाद करार कर दिया है। इसके बाद किसी अन्य पदाधिकारी को प्रतिक्रिया देने का कोई औचित्य नहीं बनता है। यह मामला खत्म हो गया है। 

‘अच्छे दिन’ लाने का मिशन: जन-धन योजना को बड़ा राजनीतिक धमाका बनाने की तैयारी

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पहले ‘आॅपरेशन’ से ही ‘मनरेगा’ को बौना करने की कवायद

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से 15 अगस्त को जो कहा था, उसे पूरा करने की शुरुआत कर दी है। इसी के तहत बड़े तामझाम से ‘प्रधानमंत्री जन-धन योजना’ यहां पर लॉन्च कर दी गई। प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि इस महत्वाकांक्षी परियोजना से देश आर्थिक छुआछूत से मुक्त होगा। क्योंकि, अब गरीबों को भी वही आर्थिक संसाधन मिलने लगेंगे, जो अब तक केवल अमीरों तक सीमित रहते थे। देश के करोड़ों गरीबों ने तो कभी सपना ही नहीं देखा कि उनका भी एक बैंक खाता होगा और उनके पास भी अमीरों की तरह अपना क्रेडिट कार्ड होगा। लेकिन, अब यह सपना ही नहीं हकीकत बनने जा रहा है। महत्वाकांक्षी जन-धन योजना से 2018 तक 7.5 करोड़ घरों में दो-दो बैंक खाते खुलवाने का लक्ष्य रखा गया है। यानी, इस अवधि तक 15 करोड़ नए बैंक खाते खोल दिए जाएंगे। मोदी सरकार ने इस योजना के जरिए लोगों में यह उम्मीद जगाने की कोशिश की है कि वायदे के अनुसार, अब सरकार आम आदमी के ‘अच्छे दिन’ लाने का सपना जमीन पर उतार रही है। इस अकेली योजना से ही देशव्यापी आर्थिक विकास के तार जुड़ जाएंगे। 

इस योजना को सरकार ने एक बड़े राजनीतिक मिशन के रूप में लिया है। प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक को यह आर्थिक सुविधा मिलेगी, तो गरीबों को ‘विषचक्र’ से निकालने का ऐतिहासिक काम हो जाएगा। क्योंकि, सदियों से गरीब जनता अमीर से ज्यादा ब्याज पर साहूकार से पैसा लेता रहा है। कर्ज के ब्याज का ‘विषचक्र’ इतना उलझाऊ रहा है कि पूरी जिंदगी वह इससे मुक्त नहीं हो पाता। ऐसे में, उनकी इच्छा है कि जन-धन योजना गरीबों को कर्ज के इस आर्थिक जंजाल से पूरी तरह मुक्ति का रास्ता दिखाए। ऐसे में, इसे हम ‘मुक्ति पर्व’ के रूप में मना रहे हैं। दावा किया गया है कि पहले दिन ही देशभर में करीब 1 करोड़ खाते खोलने का रिकॉर्ड बना है। ये सभी खाते जीरो बैलेंस से खोले गए हैं। यानी, बैंक खाता खुलवाने के लिए न्यूनतम धनराशि जमा करने की भी मजबूरी नहीं रही। खाता खुलते ही खाता धारक को एक लाख रुपए दुर्घटना बीमा की गारंटी की भी व्यवस्था की गई है। 

यहां विज्ञान भवन में हुए इस कार्यक्रम में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी इस योजना को लेकर कई बड़े-बड़े दावे कर डाले। उन्होंने अपने भाषण में कुछ इस तरह से समां बांधने की कोशिश की, मानो की बैंक खातों के जरिए ही उनकी सरकार एक झटके में गरीबी का उन्मूलन करने जा रही है। आर्थिक जानकारों का मानना है कि निश्चित तौर पर मोदी सरकार की इस योजना का लाभ बड़े पैमाने पर गरीबों तक पहुंचेगा। इसका सबसे बड़ा लाभ यही हो सकता है कि कल्याणकारी योजनाओं का सरकारी पैसा सीधे अब गरीबों के खाते में चला जाए। इससे संभावना यह है कि निचले स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार में कुछ कमी आ सकती है। यह भी है कि दुर्घटना बीमा के चलते गरीब परिवारों को एक न्यूनतम आर्थिक सुरक्षा का घेरा जरूर मिल जाएगा। लेकिन, इस योजना को लेकर जिस तरह के तमाम बड़े दावे किए जा रहे हैं, उनकी जमीनी सच्चाई इतनी खरी नहीं हो सकती? 

यहां राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि टीम मोदी कोशिश कर रही है कि प्रधानमंत्री जनधन योजना के जरिए ही देश के गरीब तबकों में भाजपा का नया राजनीतिक वोट बैंक तैयार कर लिया जाए। रणनीति यही है कि यदि 15 करोड़ नए खाता धारक सरकार की ‘कृपा’ से खुश हो गए, तो संभावना है कि इनमें ज्यादातर पार्टी के हमदर्द बन जाएं। जन-धन योजना दो चरणों में पूरी की जानी है। पहला चरण अगले साल 26 जनवरी को पूरा होगा। दूसरा चरण 15 अगस्त 2018 तक पूरा करने का लक्ष्य है। रणनीति एकदम स्पष्ट है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले वोट बैंक का दायरा और व्यापक कर लिया जाए। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने तो औपचारिक तौर पर मीडिया से यही कहा है कि जन-धन परियोजना के पीछे वोट बैंक की राजनीति नहीं है। उनकी सरकार तो इस योजना के जरिए वंचित वर्गों का आर्थिक विकास करना चाहती है। ऐसे में, सभी राज्य सरकारों से पूरा सहयोग मांगा गया है। 76 शहरों में दिल्ली के साथ ही यह योजना लॉन्च की गई है। इसमें 20 राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी हिस्सेदारी रही है। इसीलिए इसमें वोट बैंक का नजरिया नहीं तलाशा जाना चाहिए। क्योंकि, यह तो कांग्रेस की संस्कृति रही है, हमारी नहीं। 

एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने अनौपचारिक तौर पर इस योजना के संदर्भ में ‘डीएलए’ से कहा कि उनकी सरकार तो गरीब से गरीब का बैंक खाता खुलवाने जा रही है। यह काम देशव्यापी पैमाने पर हो रहा है। इसके तहत हर परिवार को बीमा सुरक्षा भी मिल जाएगी। यह ऐतिहासिक काम है। जबकि, कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने तो 1971 का लोकसभा चुनाव केवल ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर जीत लिया था। वंचित वर्गों ने कांग्रेस के नारे पर विश्वास किया था। लेकिन, सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने कभी इस नारे को हकीकत में बदलने का जज्बा नहीं दिखाया। इसी के चलते गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद ने विकराल रूप ले लिया है। कम से कम अब उनकी सरकार गरीबों के आर्थिक उत्थान के लिए ‘अच्छे दिन’ लाने के वायदे के तहत इतना बड़ा काम करने जा रही है। ऐसे में, विपक्ष को भी उदारता का परिचय देते हुए मोदी सरकार की सराहना करने का जज्बा दिखाना चाहिए। 

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा अनौपचारिक तौर पर यही कह रहे हैं कि यूपीए सरकार ने भी गरीबों के बैंक खाते खुलवाने की पहल की थी। तमाम परियोजनाओं के जरिए इस तरह के काम हुए हैं, जिनसे कि वंचित वर्गों का आर्थिक विकास हुआ है। यूपीए सरकार ही ‘मनरेगा’ योजना लाई थी। जिसने ग्रामीण बेरोजगारों को रोजगार की गारंटी दी। इस योजना के चलते गांव की आर्थिक तस्वीर बदली है। देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में ‘मनरेगा’ की सराहना हुई है। इसे दुनिया में अब तक की सबसे बड़ी कल्याणकारी योजना का तमगा मिला है। लेकिन, यूपीए सरकार ने ये योजना तमाम पहलुओं का अध्ययन करके धीरे-धीरे उतारी थी। लेकिन, मोदी सरकार तो जन-धन योजना के ढोल ऐसे बजा रही है, जैसे कि इस अकेली योजना से ही गरीबों के ‘अच्छे दिन’ आ जाएंगे। 

राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि मनमोहन सिंह की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2009 का लोकसभा चुनाव ‘मनरेगा’ के बलबूते ही जीत लिया था। हालांकि, 2014 के चुनाव में यह महत्वाकांक्षी परियोजना कांग्रेस के लिए चुनावी वैतरणी नहीं बन पाई। भाजपा के कई वरिष्ठ नेता निजी बातचीत में कहते हैं कि मोदी सरकार की जन-धन योजना ही मनरेगा के प्रभाव को बौना कर देगी। मनरेगा के जरिए देश के दूर-दराज के गांव में भी गरीब मजदूरों के हाथ में मजदूरी के पैसे आ रहे थे। इससे उनकी कंगाली दूर हुई थी। इस योजना के चलते ही गांव-गांव में भी मजदूरी की दरें बढ़ गई हैं। जबकि, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी पिछले दिनों ही कह चुके हैं कि कांग्रेस के नेता भले मनरेगा को लेकर तमाम दावेदारी करें, लेकिन इसकी एक सच्चाई रिकॉर्ड भ्रष्टाचार की भी है। देश में सभी लोग इससे वाकिफ हैं कि मनरेगा में हुए घोटालों के जरिए नेताओं और नौकरशाहों के ही ‘अच्छे दिन’ आए हैं। अब हमारी सरकार इस तरह की भ्रष्ट संस्कृति के उन्मूलन में जुट गई है। पूरी राज व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी बनाने की कोशिश है। इसी अभियान के तहत प्रधानमंत्री जन-धन योजना को समयबद्ध ढंग से लागू करने का संकल्प है। इससे जमीनी स्तर पर सरकारी कामकाज में पारदर्शिता बढेÞगी। 

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

मोदी सरकार में सत्ता संघर्ष!

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राजनीतिक हल्कों में संघ परिवार से जुड़े घटकों को अफवाहबाजी का उस्ताद जरूर माना जाता है। यह अलग बात है कि जब इस तरह के कटाक्ष सेक्यूलर दलों के नेता करते हैं, तो संघ परिवारियों को बहुत गुस्सा आ जाता है। लेकिन, जब भाजपा की सत्ता आती है, तो उसे अक्सर अफवाहबाज योद्धाओं से निपटने की विकट चुनौती रहती है। कुछ इसी तरह की अंदरूनी उठापटक की शुरुआत के लक्षण नरेंद्र मोदी सरकार में भी नजर आने लगे हैं। हालांकि, अभी इस सरकार के तीन महीने ही सही सलामत बीते हैं। मोदी, लालकिले के अपने भाषण में भी सत्ता शैली बदल देने का संकल्प जता चुके हैं। लेकिन, उनकी सरकार के अंदर भी राग-द्वेष वाली ओछी राजनीतिक चालें शुरू हो गई हैं। करीब 20 दिन पहले से कई तरह की बातें मीडिया से लेकर पार्टी के सत्ता गलियारे में कही-सुनी जा रही थीं। इनमें तरह-तरह के किस्से रहे हैं। मसलन, फलां मंत्री देर रात किसी निजी पार्टी में जींस पहनकर चला गया, तो मोदी ने फोन पर ही खबर ले ली। कभी कहा गया कि दो मंत्री मुंबई में एक बड़े उद्योगपति के मीनारनुमा भवन में डिनर करने चले गए थे, तो प्रधानमंत्री निवास से आधी रात को ही इन दोनों मंत्रियों को डांट पड़ी। बताने वालों का भाव कुछ इस तरह का रहा जैसे कि शुचिता की राजनीति के लिए प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों पर भी अनुशासन का हंटर चलाने को हमेशा तैयार रहते हों। इसी क्रम में यह अफवाह चली कि गृह मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र को बुलाकर पीएम ने किसी बात के लिए फटकार लगाई। कुछ दिन बाद मीडिया में ये अफवाहें छपने भी लगीं। इसी बीच राजनाथ के बेटे का चुनावी टिकट कट गया, तो इसे अफवाह से जोड़ दिया गया। ऐसे में, आजिज आकर गृह मंत्री ने जज्बाती होकर एक बयान दे डाला। मामले ने गंभीर मोड़ लिया, तो पीएमओ ने भी सफाई दे दी कि मंत्री पुत्र से जुड़ी बातें निराधार हैं और सरकार को बदनाम करने की साजिशभर हैं। अब कांग्रेस ने मजे लेने शुरू किए हैं। कहा कि देश को बताया जाए कि गृह मंत्री के बेटे पर क्या आरोप था? खंडन-मंडन के बावजूद इस बात में काफी दम नजर आता है कि मोदी सरकार के अंदर भी विघ्नसंतोषी प्रवृति ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं। यदि अंदरुनी सत्ता संघर्ष सही ढंग से नियंत्रित नहीं किया गया, तो फिर मोदी का मजबूत किला भी लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। 

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

अलविदा! योजना आयोग

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प्रभात कुमार रॉय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लालकिले से अपनी तकरीर में योजना आयोग को बाकायदा खत्म करने का ऐलान कर दिया गया। अब योजना भवन संसद मार्ग, नई दिल्ली के स्थान पर राष्ट्रीय आर्थिक नियोजन के लिए एक नया संस्थान अपनी शक्ल-ओ-सूरत अख्तियार करेगा, जिसे कि कथित तौर पर नरेंद्र मोदी हुकूमत द्वारा मौजूदा वक्त की आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापित किया जाएगा। योजना आयोग का विकल्प प्रदान करने वाले संस्थान के गठन का काम अंजाम देने की शासकीय कवायद बाकायदा प्रारम्भ कर दी गई है। आजाद भारत में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता के तहत योजना आयोग ने तकरीबन चौसठ वर्षों तक अपना काम अंजाम दिया। 15 मार्च 1950 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने योजना आयोग के गठन का ऐलान किया था। दरअसल, 1938 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रेसिडेंट निर्वाचित हुए और अपने प्रेसिडेंशियल उद्बोधन में नेताजी ने आजाद भारत के लिए सुनियोजित आर्थिक विकास के लिए एक योजनाबद्ध आर्थिक विकास की परिकल्पना प्रस्तुत की थी। बाद में, नेताजी सुभाषचंद्र बोस के निकट सहयोगी रहे विख्यात वैज्ञानिक मेघनाथ साहा ने नेताजी सुभाष द्वारा प्रस्तावित योजनाबद्ध आर्थिक विकास की अवधारणा पर योजना आयोग की विस्तृत रूपरेखा तैयार की थी। सर्वविदित है कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह की तरह ही नेताजी सुभाषचंद्र प्रखर राष्ट्रवादी होने के साथ ही साथ आर्थिक समतामयी समाजवाद के सिद्धांतों में गहन विश्वास व्यक्त करते थे। ब्रिटिश शासनकाल में 1944 में औपचारिक तौर पर प्रथम बार योजनाबद्ध आर्थिक विकास की गहन चर्चा हुई और निजी उद्योगपतियों और अर्थशास्त्रियों द्वारा 1944 में अनेक विकास योजनाएं निर्मित की गईं।

वस्तुत: योजना आयोग केंद्रीय सरकारी संस्थान के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता और पूर्व नौकरशाह मोंटेक सिंह अहलूवालिया की उपाध्यक्षता के तहत राष्ट्र के करोड़ों मेहनतकशों की गरीबी का शासकीय उपहास करने के लिए काफी कुख्यात हो गया। 2011 में योजना आयोग के तहत नियुक्त तेंदुलकर कमेटी ने 27 रुपयों से अधिक आमदनी वाले ग्रामीण और 33 रुपयों से अधिक आमदनी वाले शहरी नागरिक को गरीबी की सरहद से ऊपर का शख्स करार दिया था। तेंदुलकर कमेटी की कटु आलोचना होने के बाद गरीबी की सरहद तय करने के लिए योजना आयोग द्वारा गठित रंगराजन कमेटी ने फिर वही कारनामा कुछ फेर बदल करके दोहरा दिया गया। सरकारी हुक्म का अनुपालन करते हुए योजना आयोग के हुक्मरानों द्वारा भ्रामक तौर पर दुनिया की निगाहों में भारत के गरीबों की वास्तविक तादाद को बेहद कम करके बताया गया। इस तरह से योजना आयोग द्वारा अपनी साख को राष्ट्र के समक्ष समाप्त कर लिया गया। 

पं. जवाहरलाल नेहरु द्वारा साम्यवादी सोवियत संघ के आर्थिक विकास से अत्यंत प्रभावित होकर केंद्रीय योजना आयोग वस्तुत: अस्तित्व में लाया गया। योजना आयोग ने प्रथम पंचवर्षीय योजना में भारत के कृषि विकास को अपना मुख्य एजेंडा बनाया, किंतु योजना आयोग द्वारा दूसरी पंचवर्षीय योजना से भारत के सुनियोजित आर्थिक विकास का एजेंडा पूर्णरुपेण परिवर्तित करके इसे बड़े पैमाने के विशालकाय सार्वजनिक औद्योगिक विकास से संबद्ध कर दिया गया। प्रखर सोशलिस्ट पुरोधा आचार्य नरेंद्र देव और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने पं. नेहरु की अध्यक्षता के तहत काम करने वाले योजना आयोग की कड़ी आलोचना की। समाजवादी नेताओं का विचार था कि करोड़ों किसानों का निर्मम शोषण करके भारत के बड़े औद्योगिक विकास को अंजाम देने की पहल योजना आयोग ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से कर दी। इनका विचार था कि विशाल उद्योगों के स्थान पर योजना आयोग को कृषि विकास के साथ ही साथ घरेलू और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति पर अमल करना चाहिए था। आचार्य विनोबा भावे, आचार्य कृपलानी, काका कालेलकर, दादा धर्माधिकारी व जयप्रकाश नारायण सहित उस युग के अनेक विशिष्ट गांधीवादी लीडरों ने भी योजना आयोग के माध्यम से अपनाए गए आर्थिक विकास मॉडल को राष्ट्र के लिए अत्यंत घातक बताया था। समाजवादी नेताओं के अतिरिक्त भारत के राजनीतिक पटल पर तेजी से उभर रही एक अन्य राजनीतिक शक्ति भारतीय जनसंघ के लीडर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी योजना आयोग की आर्थिक विकास की समस्त पहलकदमी को खारिज किया था। भारत की तत्कालीन आर्थिक जरूरतों के मुताबिक आर्थिक योजनाएं बनाने की बात सामने रखी थी। 

योजना आयोग को दूसरी पंचपर्षीय योजना के कार्यकाल से ही विपक्ष की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था। राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके राजनीतिक मिजाज के राजनेता ही तकरीबन साठ वर्षों तक प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे। अत: योजना आयोग का मिजाज और उसकी कार्यशैली भी पूर्णत: कांग्रेसी तौर तरीकों की बनी रही। 1991 में पं. नरसिम्मा राव की कयादत में मनमोहन सिंह ने जब वित्त मंत्रालय संभाला, तो नई ग्लोबल आर्थिक नीति का सृजन अंजाम दिया गया। नेहरुकाल से बदस्तूर जारी रहे लाइसेंसराज का तो खात्मा कर दिया गया, किंतु योजना आयोग के तौर तरीके एवं रंग-ढंग कदाचित नहीं बदले। योजना आयोग में विराजमान आर्थिक सलाहकारों और नौकरशाहों ने भारत में बड़े औद्योगिक विकास को ही अपना मुख्य लक्ष्य बनाए रखा। 

प्रथम पंचवर्षीय योजना के बाद बनी पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत कृषि और लघु उद्योगों को सदैव योजना आयोग द्वारा उपेक्षित बनाए रखा गया। मुख्यमंत्रीगण, केंद्रीय योजना आयोग के समक्ष सदैव याचक गण बने रहे। नरेंद्र मोदी स्वयं 12 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और उन्होंने भी अन्य मुख्यमंत्रियों सहित यह गहन पीड़ा बाकायदा भोगी है। इस पीड़ा को तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने भी गहन तौर पर व्यक्त किया कि हमको दिल्ली केवल इसलिए हाजिर होना पड़ता है कि योजना आयोग हमें यह बताए कि हमारे प्रांत को आबंटित की गई योजना धनराशि को हम किस तरह से खर्च करें? योजना आयोग के नौकरशाही तौर तरीकों को दृष्टिगत रखते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ ने फरमाया कि योजना आयोग नौकरशाहों और आर्थिक सलाहकारों की आरामगाह बनकर रह गया है।

छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?
तमाम खामियों और नाकामियों के बावजूद आजादी के तत्काल बाद योजना आयोग ने भारत के बुनियादी आर्थिक विकास में अहम किरदार निभाया है। लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के गरीबों के हक में प्रबल तकरीर करने वाले प्रधानमंत्री मोदी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी मॉडल) के दमखम पर राष्ट्र के सौ करोड़ गरीब नागरिकों का आर्थिक उत्थान करने के सिलसिले में सबसे पहले बीमार योजना आयोग को दुरुस्त करने के स्थान पर उसे नेस्तनाबूद कर देता है और फिर फरमान जारी करता है कि राष्ट्र के लिए एक नया नियोजन संस्थान खड़ा किया जाएगा। प्रस्तावित राष्ट्रीय नियोजन संस्थान यदि विकेंद्रीकृत आर्थिक विकास के आधार पर निर्मित नहीं किया गया और गांव देहात, कस्बों व छोटे शहरों को आर्थिक विकास का केंद्र नहीं बनाया गया, तो फिर वही ढाक के तीन पात सिद्ध होगा, प्रस्तावित नियोजन संस्थान। देश का गरीब और गरीब होता चला जाएगा और अमीर घराने और अधिक अमीर हो जाएंगे। सर्वविदित है कि प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर केवल मुनाफे की गरज से कहीं भी निवेश किया करता है। ऐसे में, उससे राष्ट्र के गरीबों के कल्याण की उम्मीद लगाना एकदम निरर्थक और बेमानी है। हां, प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी मॉडल) के नाम पर केंद्र सरकार राष्ट्र के गरीबों के आर्थिक विकास के कार्यों से कदम पीछे हटाती हुई नजर आ रही है, जिसे किसी भी

नजरिए से शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।

(पूर्व सदस्य, नेशनल सिक्यूरिटी एडवाइजरी काउंसिल)

आडवाणी-जोशी के युग का अंत: ‘मोदी ब्रांड’ कायाकल्प का दौर हो गया शुरू

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केंद्र की सत्ता संभालने के ठीक तीन महीने बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने भाजपा के कायाकल्प का जोरदार श्रीगणेश कर दिया है। संसदीय बोर्ड (पार्टी की शीर्ष निर्णायक समिति) में व्यापक फेरबदल का फैसला मंगलवार को कर लिया गया। लंबे समय तक भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व डॉ. मुरली मनोहर जोशी की ‘त्रिमूर्ति’ का बोलबाला रह चुका है। यही त्रिमूर्ति पार्टी की राष्ट्रीय पहचान का पर्याय रही है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक दशक से अस्वस्थ चल रहे हैं। वे किसी तरह के कामकाज की स्थिति में नहीं हैं। फिर भी, अभी तक उनको संसदीय बोर्ड में बनाए रखा गया था। वे एनडीए के चेयरमैन भी रहे हैं। लेकिन, अब तस्वीर तेजी से बदल रही है। संसदीय बोर्ड का गठन नए सिरे से हुआ है। इसमें अब इस ‘त्रिमूर्ति’ को कोई जगह नहीं मिली। वाजपेयी तो अस्वस्थ हैं, केवल उनको हटाया गया होता, तो शायद किसी को ज्यादा हैरानी नहीं होती। लेकिन, उनके साथ ही शीर्ष नेता आडवाणी और जोशी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 

जबकि, लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी को लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया था। दोनों नेता भारी मतों से जीतकर भी आए। आडवाणी के बारे में तो शुरुआती दौर से ही संकेत मिल गए थे कि उन्हें कोई महत्वपूर्ण ओहदा नहीं मिलेगा। लेकिन, इतना माना जा रहा था कि मोदी सरकार और संगठन के मामलों में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी जरूर रहेगी। लेकिन, ताजा फैसले के बाद तस्वीर साफ होने लगी है कि उन्हेें संगठन में किनारे लगाया जा रहा है। डॉ. जोशी तो मोदी सरकार में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार माने जाते थे। उनके लोगों ने यह प्रचारित भी करना शुरू कर दिया था कि शायद उन्हें मोदी, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ही जिम्मेदारी दे दें। उल्लेखनीय है कि वाजपेयी की सरकार में भी डॉ. जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे। जब मंत्रिमंडल में उन्हें हिस्सेदारी नहीं मिली, तो कयास तेज हुए थे कि उन्हें संघ नेतृत्व की सलाह पर किसी बड़े राज्य का राज्यपाल बना दिया जाएगा। लेकिन, ऐसा भी नहीं हुआ। 

जबकि, कई राज्यपालों की नियुक्ति हो चुकी है। यह सिलसिला जारी है। इसमें भी डॉ. जोशी को कोई जगह नहीं मिल पाई। अब तो उन्हें संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से भी बाहर कर दिया गया है। इतना जरूर है कि आडवाणी और डॉ. जोशी जैसे नेताओं का औपचारिक सम्मान रखने के लिए उन्हें पांच सदस्यीय मार्गदर्शक मंडल में रख लिया गया है। भाजपा में यह नई समिति बनी है। मार्गदर्शक मंडल में आडवाणी, जोशी व अटल बिहारी वाजपेयी के साथ नरेंद्र मोदी व राजनाथ सिंह को भी रखा गया है। इस मार्गदर्शक मंडल की भूमिका कितनी निर्णायक होगी? इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। विपक्षी दलों ने मार्गदर्शक मंडल के गठन को लेकर चुटकी लेनी शुरू कर दी है। कांग्रेस के प्रवक्ता राशिद अल्वी ने कहा है कि मार्गदर्शक मंडल तो ‘मूकदर्शक मंडल’ होगा। लेकिन, भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हाराव को राशिद अल्वी के तंज पर घोर ऐतराज है। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस को हमारे अंदरूनी मामलों में इस तरह के कटाक्ष नहीं करने चाहिए। यह किसी तरह से उचित नहीं है। यह सोचने की बात है कि जिस समिति में नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह हों, उसे भला ‘ओल्ड एज होम’ कहना कितना वाजिब है?

12 सदस्यीय नवगठित संसदीय बोर्ड में तीन नए चेहरों को जगह मिली है। ये हैं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह, राष्ट्रीय महासचिव जेपी नड्डा व मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। बाकी सदस्य पहले भी संसदीय बोर्ड में थे। इनमें नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी, वेकैंया नायडू, थावर चंद्र गहलोत, अनंत कुमार व रामलाल शामिल हैं। मोदी और अमित शाह युग के पहले पार्टी में यह परंपरा थी कि संसदीय बोर्ड में पार्टी के सभी पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों को शामिल किया जाएगा। इसी फॉर्मूले पर राजनाथ सिंह के दौर में संसदीय बोर्ड का गठन हुआ था। लेकिन, इस बार संसदीय बोर्ड से ‘त्रिमूर्ति’ को बाहर कर दिया गया है। जबकि, ये तीनों नेता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। जे पी नड्डा, संघ से भाजपा में आए हैं। माना जा रहा है कि पार्टी में उनका कद बढ़ाने के लिए संघ नेतृत्व का भी खासा दबाव रहा है। पहले उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की भी कोशिश हुई थी। लेकिन, इस पद पर मोदी की कृपा के चलते अमित शाह विराजमान हो गए। 

संसदीय बोर्ड के पुनर्गठन के साथ ही 15 सदस्यीय केंद्रीय चुनाव समिति भी बनाई गई है। इसमें नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेकैंया नायडु, नितिन गडकरी, अनंत कुमार, जुएल उरांव, थावरचंद्र गहलोत, शिवराज सिंह चौहान, जे पी नड्डा, रामलाल, शाहनवाज हुसैन व विजया राहतकर को जगह मिली है। जबकि, उत्तर प्रदेश के तेज तर्रार नेता विनय कटियार और महिला मोर्चा की पूर्व अध्यक्ष सरोज पांडे को इस समिति से हटाया गया है। सरोज पांडे की जगह महिला मोर्चा की अध्यक्ष विजया राहतकर को जगह मिली है। विजया, औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की मेयर रह चुकी हैं। इस समिति में आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री जुएल उरांव को जगह मिलना काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इससे अमित शाह, आदिवासियों में संदेश देने की कोशिश में रहे हैं कि संगठन की अहम समितियों में उनके समाज को भी प्रतिनिधित्व दिया गया है। दलित नेता थावर चंद्र गहलोत, मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। उन्हें संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति दोनों में जगह मिली है। 

भाजपा के हल्कों में इस बात पर हैरानी जताई जा रही है कि मोदी और शाह की जोड़ी ने संघ की एक लॉबी के दबाव के बावजूद केंद्रीय मंत्री उमा भारती को चुनाव समिति में भी जगह नहीं दी। जबकि, चर्चा चल रही थी कि यदि कटियार का नाम कटा, तो इसकी जगह पार्टी की साध्वी नेता उमा भारती को जगह जरूर मिल जाएगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। इससे उमा के समर्थक कुछ मायूस देखे गए। उत्तर प्रदेश में होने जा रहे उपचुनावों की टिकटों का फैसला भी भाजपा नेतृत्व ने किया है। राष्ट्रीय राजधानी से सटी नोएडा विधानसभा सीट पर भी उपचुनाव होना है। यहां से विधायक रहे डॉ. महेश शर्मा लोकसभा के लिए चुन लिए गए हैं। ऐसे में, यह सीट रिक्त हुई थी। इस सीट पर टिकट के लिए सबसे प्रबल दावेदारी गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सुपुत्र पंकज सिंह की थी। एक दिन पहले तक संघ के शीर्ष नेतृत्व ने पंकज को भरोसा भी दिलाया था कि टिकट उन्हीं को मिलेगा। वे उत्तर प्रदेश में पार्टी के लंबे समय से महासचिव हैं। लेकिन, चुनाव समिति ने पंकज की जगह टिकट महिला मोर्चा में सक्रिय रहीं विमला बाथम को दे दिया है। यह अलग बात है कि पार्टी में उनका चेहरा ज्यादा जाना-पहचाना नहीं है। 

एक मंत्री पुत्र का टिकट तो कट गया, लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन के सुपुत्र गोपाल टंडन को लखनऊ पूर्वी विधानसभा सीट से टिकट मिल गया है। इसके भी पार्टी के अंदर तमाम राजनीतिक निहितार्थ समझे जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि लखनऊ संसदीय क्षेत्र से टंडन का टिकट काटकर इस बार राजनाथ सिंह को लड़ाया गया था। ऐसे में, चर्चा चल रही थी कि बुजुर्ग नेता टंडन को पहली खेप में ही राज्यपाल बना दिया जाएगा। मंगलवार को ही कल्याण सिंह सहित संघ परिवारी चार नेताओं को राज्यपाल बनाया गया है। लेकिन, टंडन का पत्ता कट गया है। माना जा रहा है कि ‘सांत्वना’ राजनीतिक दांव के तहत उनके बेटे को टिकट थमा दिया गया है। मजेदार बात यह है कि भाजपा के अदंर गुपचुप ढंग से तो नए बदलावों को लेकर कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं। लेकिन, बड़े नेता भी खुलकर कुछ कहने में जोखिम समझ रहे हैं। सबको लगता है कि मोदी-शाह के इस युग में खुलकर अंदर खाने भी चर्चा की, तो तमाम खतरों के फंदे सामने झूल सकते हैं। सो, जो फैसले हो रहे हैं, उनकी ही वाहवाही करो। इसी में फिलहाल ज्यादा अक्लमंदी है!

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

चुनावी हलचल: ‘सेमी फाइनल’ के नतीजों ने मोदी के करिश्मे पर लगाया ब्रेक!

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चार राज्यों के उपचुनाव के परिणाम आ गए हैं। सीधे तौर पर इन परिणामों से किसी पार्टी का कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं है। लेकिन, इससे राजनीतिक हल्कों में यह संकेत जरूर चला गया है कि अब नरेंद्र मोदी का देशव्यापी राजनीतिक जादू कुछ उतार की ओर बढ़ चला है। एक तरह से ये परिणाम भाजपा नेतृत्व के लिए पूर्व चेतावनी भी समझे जा सकते हैं। क्योंकि, लोग केवल संकल्प और वायदों से ही संतुष्ट नहीं होना चाहते। उन्हें तो अब ‘अच्छे दिन’ आने का इंतजार है। लोकसभा के चुनावी अभियान के दौरान पूरे देश में टीम मोदी ने यही वायदा किया था कि वे सत्ता में आए, तो सभी के ‘अच्छे दिन’ जरूर आ जाएंगे। केंद्र में मोदी सरकार को सत्ता में आए 100 दिन पूरे होने जा रहे हैं। लेकिन, लोग यह महसूस कर रहे हैं कि किसी भी मापदंड से अभी ‘अच्छे दिन’ जाने कहां अटके हुए हैं? शायद, इस अहसास के चलते ही भाजपा नेतृत्व को इन उपचुनावों में झटका लग गया है। इससे विपक्षी दल के नेताओं के मायूस चेहरों पर कुछ चमक दिखाई पड़ी है। खास तौर पर बिहार में सेक्यूलर महागठबंधन के नेताओं को लगने लगा है कि उनका पहला प्रयोग ही सफल रहा है। इससे आगे की राह आसान हो सकती है। 

ये उपचुनाव बिहार, मध्यप्रदेश, कर्नाटक व पंजाब में हुए हैं। बिहार की दस विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए। मतदान 21 अगस्त को हुआ था। इन दस में से छह सीटें भाजपा के पास थीं। भाजपा के विधायक लोकसभा का चुनाव जीते थे। ऐसे में, ये सीटें रिक्त हुई थीं। लोकसभा के चुनाव में जदयू, राजद व कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यहां पर एनडीए को भारी सफलता मिली थी। 40 में से भाजपा ने 31 सीटें जीत ली थीं। लोकसभा के चुनाव में एनडीए ने इन दस में से आठ सीटों में जीत हासिल की थी। लेकिन, ढाई-तीन महीने में ही टीम मोदी की करिश्माई राजनीति से यहां के लोगों का कुछ मोह भंग हुआ है। इसी के चलते राजद, जदयू व कांग्रेस के महागठबंधन को ठीक-ठाक सफलता मिल गई है। यहां 10 में से 6 सीटें इस गठबंधन की झोली में चली गई हैं। भाजपा खेमा इस चुनाव परिणाम को अपने लिए झटका मान रहा है। 

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने कहा है कि बिहार के नतीजे हमारे लिए दुखद जरूर हैं। अब हम यह मंथन करेंगे कि हम मतदाताओं की नजर में पूरे तौर पर खरे क्यों नहीं उतर पाए? शाहनवाज का मानना है कि चुनावी नतीजों से गठबंधन के नेताओं को बहुत खुशफहमी पालने की जरूरत नहीं है। क्योंकि, लोग यह अच्छी तरह से जान रहे हैं कि अवसरवादी मकसद के लिए यह गठबंधन तैयार हुआ है। इसके पीछे कोई सैद्धांतिक पृष्ठभूमि नहीं है। जो नीतीश कुमार राजद प्रमुख लालू यादव को ‘जंगलराज’ का शिरोमणि बताते थे, वे सालों तक बिहार में घूम-घूम कर कहते रहे हैं कि लालू और राबड़ी के राज में ही राज्य की ऐतिहासिक बर्बादी हुई है। लेकिन, अब सत्ता में बने रहने के लिए नीतीश जैसे नेताओं ने यू-टर्न ले लिया है। सो, ज्यादा लंबे समय तक इनकी पाखंडी राजनीति यहां चलने वाली नहीं है। 

उल्लेखनीय है कि लोकसभा के चुनाव में यहां राजद, जदयू व कांग्रेस को भारी झटका लगा था। मोदी लहर के चलते इनका एक तरह से सफाया ही हो गया। इसके बाद ही पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की खास पहल पर भाजपा के मुकाबले के लिए यह चुनावी गठबंधन तैयार हुआ है। हालांकि, राजनीतिक रूप से यह काफी मुश्किल भरा फैसला था। क्योंकि, दो दशकों में लालू और नीतीश के बीच घोर कटुतापूर्ण रिश्ते रहे हैं। दोनों नेता एक दूसरे पर तीखे कटाक्ष करते रहे हैं। लेकिन, इन उपचुनावों में मोदी लहर का मुकाबला करने के लिए गठबंधन का प्रयोग किया गया। इस गठबंधन को भाजपा नेताओं ने अवसरवादी मेल-मिलाप करार किया। आम जनता में भी इस तालमेल को लेकर कोई बड़ा उत्साह देखने को नहीं मिला था। दशकों बाद लालू और नीतीश हाजीपुर की रैली में एक मंच पर अवतरित हुए थे। इन ऐतिहासिक क्षणों में भी ज्यादा लोग नहीं जुट पाए थे। इस रैली में मुश्किल से दो हजार लोग ही जुट पाए थे। इससे भाजपा का खेमा काफी उत्साहित हो गया था। उसने यह प्रचार करना शुरू कर दिया था कि जनता ने इस अवसरवादी गठजोड़ को चुनाव के पहले ही अस्वीकर कर दिया है। 

लेकिन, नीतीश कुमार चुनावी अभियान के दौरान यही कहते रहे कि बिहार से शुरू हुआ सेक्यूलर गठबंधन का यह राजनीतिक प्रयोग और विस्तार लेगा। इसी रणनीति के जरिए मोदी की झांसेबाजी की राजनीति का मुकाबला हो सकेगा। चुनाव परिणाम आने के बाद नीतीश कुमार ने कहा है कि वे संतुष्ट हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि अब सेक्यूलर गठबंधन का यह प्रयोग दूसरे प्रदेशों में भी आजमाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों राजद प्रमुख लालू यादव ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह को सुझाव दिया था कि बिहार की तरह ही वे उत्तर प्रदेश में भी भाजपा के खिलाफ सेक्यूलर गठबंधन बनाने की पहल करें। उन्होंने सुझाव दिया था कि यहां पर सपा और बसपा, भाजपा के मुकाबले के लिए हाथ मिला लें, तो पूरे देश में बदलाव की राजनीति का आगाज हो सकता है। उल्लेखनीय है कि यहां की 80 लोकसभा सीटों में से भाजपा खेमे को 73 सीटों में ऐतिहासिक सफलता मिली थी। माना जा रहा है कि यह करिश्मा मोदी लहर के चलते ही हो पाया है। 

लालू यादव कहते रहे हैं कि सपा-बसपा हाथ मिला लें, तो भाजपा की राजनीतिक जमीन खिसक जाएगी। यह अलग बात है कि लालू के ‘फॉर्मूले’ को आत्मसात करने के लिए न सपा तैयार है और न बसपा। यहां तक कि पिछले दिनों बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस मशविरे के लिए लालू की जमकर खबर ली थी। उन्होंने कह दिया था कि मुलायम सिंह के लोगों ने लखनऊ गेस्ट हाउस में उन पर जानलेवा हमला किया था और अपमानित किया था। इसको वे कभी भूल नहीं सकतीं। क्योंकि, उनकी पार्टी के लिए सत्ता नहीं, बल्कि आत्म सम्मान ज्यादा अहमियत रखता है। माया ने लालू पर यह कह कर भी तंज कसा था कि गेस्ट हाउस कांड में यदि उनकी जगह लालू यादव की बहन-बेटी प्रताड़ित हुई होती, तो वे मुलायम से हाथ मिलाने का मशविरा कभी नहीं देते। माया की इस तल्ख टिप्पणी के बाद बिहार जैसा राजनीतिक प्रयोग उत्तर प्रदेश में होने की संभावनाएं फिलहाल नहीं मानी जा रहीं। 

उत्तर प्रदेश में भी अगले महीने उपचुनावों की बड़ी चुनौती है। यहां पर 13 सितंबर को एक लोकसभा सीट और 11 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव होने हैं। लोकसभा में मुलायम सिंह ने दो क्षेत्रों से चुनावी जीत हासिल की थी। इसके बाद ही उन्होंने अपनी मैनपुरी सीट से इस्तीफा दिया था। अब इस सीट पर उन्होंने अपने बड़े भाई के पौत्र को ही टिकट थमा दिया है। यह क्षेत्र सपा की राजनीति का काफी मजबूत गढ़ माना जाता है। यहां पर यादव बिरादरी के मतदाताओं का अच्छा-खासा दबदबा है, जिन्हें सपा का खास समर्थक माना जाता है। सो, भाजपा की रणनीति है कि यहां इस चुनाव में गैर-यादव वोटों को सपा के खिलाफ लामबंद किया जाए। लेकिन, भाजपा के दिग्गज भी जान रहे हैं कि इस मजबूत गढ़ में मुलायम सिंह को राजनीतिक चुनौती देना आसान नहीं रह गया। हां, विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ सपा की मुश्किलें जरूर बढ़ सकती हैं। क्योंकि, पिछले कई महीनों से प्रदेश की कानून व्यवस्था काफी नाजुक चल रही है। बिजली की किल्लत से भी लोग परेशान हैं। सो, यहां पर सत्ता विरोधी रुझान सपा को मुश्किल में डाल सकता है। 

इन उपचुनावों में बसपा ने कुछ हैरान करने वाली रणनीति अपनाई है। बसपा इन चुनावों में हिस्सेदारी ही नहीं कर रही। ऐसे में, कयास लगाए जा रहे हैं कि दलित वोट बैंक का झुकाव इस बार किसकी तरफ रहेगा? फिलहाल, बसपा रणनीतिकारों ने ये संकेत भी नहीं दिए कि वे लोग अपने खास प्रतिद्वंद्वी सपा को मात देने के लिए क्या पर्दे के पीछे भाजपा का साथ देंगे? सच्चाई जो भी हो, लेकिन सपा के कार्यकर्ताओं ने यह प्रचार शुरू कर दिया है कि बसपा के नेताओं ने भाजपा की मदद की रणनीति अपनाई है। राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि इस रणनीति के पीछे यह भी संभव है कि बसपा से अल्पसंख्यकों का मोह एकदम भंग करने के लिए इस तरह की बातें प्रचारित की जा रही हों। 

पंजाब की दो विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए हैं। यहां पटियाला सीट से कांग्रेस की उम्मीदवार परनीत कौर 23 हजार वोटों से चुनाव जीत गई हैं। जबकि, लोकसभा के चुनाव में वे पटियाला से ही चुनाव हार गई थीं। परनीत कौर पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पत्नी हैं। लोकसभा चुनाव में यहां की सीट से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार डॉ. धर्मवीर गांधी ने जीत हासिल की थी। लेकिन, इस बार आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार कांग्रेस के सामने अपनी जमानत भी नहीं बचा पाया। तलवंडी सीट से सत्तारूढ़ अकाली दल के उम्मीदवार जीत मोहिंदर सिंह ने भारी मतों से विजय हासिल कर ली है। दरअसल, पहले वे कांग्रेस के टिकट पर ही यहां से चुनाव जीते थे। लेकिन, उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अकाली दल का हाथ थामा था। इसीलिए, उन्होंने विधानसभा सीट से इस्तीफा दिया था। इस सीट से वे दोबारा जीत गए हैं। लेकिन, उनके दलबदल से कांग्रेस को भारी झटका लगा है। 

कर्नाटक की तीन सीटों में से दो कांग्रेस के हाथ लगी हैं। भाजपा को सबसे बड़ा झटका बेल्लारी सीट से लगा है। यह क्षेत्र भाजपा के चर्चित रेड्डी बंधुओं का गढ़ माना जाता है। ऐेसे में, यहां की हार से भाजपा को खास झटका माना जा रहा है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के बेटे ने शिकारीपुरा सीट से उपचुनाव जीत तो लिया है, लेकिन जीत का फासला काफी कम रहा। जबकि, यह क्षेत्र येदियुरप्पा की राजनीति का मजबूत किला माना जाता है। मध्यप्रदेश की तीन सीटों में चुनाव हुए हैं। चुनावी अभियान के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दावा कर रहे थे कि तीनों सीटों पर कांग्रेस जमानत भी नहीं बचा पाएगी। लेकिन, सभी सीटों पर कांग्रेस ने टक्कर का मुकाबला दिया है। एक सीट कांग्रेस ने जीत भी ली है। 

इन चुनावी परिणामों को लेकर भाजपा के रणनीतिकार गहन-विमर्श करने में लगे हैं। उनकी चिंता हो गई है कि कहीं इस ‘सेमीफाइनल’ की काली छाया आगामी महीनों में होने वाले हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड व जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों पर न पड़ जाए? भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जम्मू में पार्टी कार्यकर्ताओं को लगे हाथ सोमवार को अगाह भी कर दिया है कि कार्यकर्ता केवल ‘मोदी जादू’ के भरोसे हाथ पर हाथ धरे न बैठे रहें। घर-घर जाकर लोगों को आश्वस्त करें कि दिल्ली से लेकर जम्मू-कश्मीर तक सबके ‘अच्छे दिन’ बहुत जल्द आने वाले हैं। पूरा यकीन रखें। भाजपा अध्यक्ष के इस मशविरे को उनकी गहन चिंता का भी सबब माना जा सकता है। 

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

दलित आंदोलन के लिए यह संक्रमण काल है: डॉ. उदित राज

छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?

राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा हिंदुत्व के बारे में दिए गये बयान पर देश भर में जोरशोर से चर्चा हो रही है। कहा यह भी जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ के पदचिन्हों पर चलने के लिए विवश हैं। सरकार के फैसलों पर संघ का प्रभाव है। लेकिन, उत्तर-पश्चिम दिल्ली के लोकसभा सांसद एवं भारतीय राजस्व सेवा के पूर्व अधिकारी उदित राज का कहना है कि भागवत के बयान को बेवजह तूल दिया जा रहा है। हिंदुत्व देश के किसी भी धर्मावलंबी पर थोपा नहीं जा रहा है। जैसे अमेरिका में रहने वाला अमेरिकी है, जापान में रहने वाला अपने को जापानी कहता है। उसी तरह से हिंदुस्तान में रहने वाले को हिंदू कहने की बात कही जा रही है। हिंदुत्व को तो पहले से ही परिभाषित किया गया है कि यह जीवन शैली है। इससे किसी की धार्मिक भावना कतई प्रभावित नहीं होती। दलित नेता उदित राज, छात्र जीवन से ही सोशल एक्टिविस्ट के रूप में चर्चित हो गये थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाई पूरी की और भारतीय राजस्व सेवा के लिए 1988 में चयनित हुए। 2003 में उन्होंने अतिरिक्त आयकर आयुक्त के पद से इस्तीफा दे दिया और इंडियन जस्टिस पार्टी का गठन किया। दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़ों के लिए वे आरक्षण बढ़ाने की वकालत लगातार करते रहे। 1997 से उन्होंने आॅल इंडिया एससी/एसटी परिसंघ बनाकर कई आंदोलन चलाये। इस संगठन के बैनर तले 1997, 98,99 व 2000 में दिल्ली के रामलीला मैदान में जोरदार रैलियां हुईं। दलित मुद्दों पर खांटी तेवर अपनाने वाले डॉ. उदित राज संसद में भी जोरदार ढंग से अपनी बात दर्ज कराते नजर आए। मोदी के रणनीतिकार भरोसा कर रहे हैं कि उदित राज जैसे नेताओं के सहयोग से दलित वोट बैंक देर-सवेर भाजपा की ओर जरूर रुख करेगा। उदित राज से हमारे विशेष संवाददाता एस पी त्रिपाठी ने विस्तार से सम सामयिक मुद्दों पर बात की।

अब आप मुख्यधारा की नई राजनीति कर रहे हैं। भाजपा के सांसद हैं। आमतौर पर भाजपा की छवि एक दकियानूसी सोच वाली पार्टी की रही है, जिसकी दलित, वंचित व महिला वर्ग को बराबरी का स्थान देने की मानसिकता नहीं रही है। अब तो आप इस पार्टी के हिस्सेदार हैं। इस पार्टी की अंदरूनी सच्चाई क्या लगती है?

देखिए, अतीत में कांग्रेस और भाजपा की एक जैसी सोच रही है। लेकिन, पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी जी ने इस सोच को बदला। उन्होंने दलितों और आदिवासियों के आरक्षण के लिए संविधान में तीन संशोधन किए। 80, 82 व 85वें संविधान संशोधन करके वाजपेयी जी ने दलितों और पिछड़ों के संवैधानिक आरक्षण के अधिकार को दोबारा बहाल किया। पिछले दस सालों को ही देखिए, यूपीए सरकार दलितों और आदिवासियों के कल्याण के लिए ढोल पीटती रही। लेकिन, यूपीए प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में आरक्षण का विधेयक पारित नहीं करा पाई। संसद में विधेयक इसलिए पारित नहीं हो पाया, क्योंकि सरकार की इच्छाशक्ति कमजोर थी। सरकारी नौकरियों में प्रौन्नति के आरक्षण का मामला भी यूपीए सरकार की लचर नीतियों और कमजोर इच्छाशक्ति के कारण ही लटका हुआ है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा में भारी अंतर सोच का है। 

कांग्रेस ने आजादी के बाद से ज्यादातर वर्षों में सत्तासुख भोगा है। इस पार्टी का दावा रहा है कि उसने ही दलितों के उत्थान के लिए विभिन्न स्तरों पर काम किए हैं। कांग्रेस, जब सत्ता से बाहर रहती है तो सबसे ज्यादा नुकसान दलितों और वंचित वर्गों ही का होता है। कांग्रेस की इस तरह की दावेदारी के संबंध में आप का नजरिया क्या है?

कांग्रेस की यह दावेदारी सरासर झूठी है। यदि इसमें जरा भी सच्चाई रहती, तो आजादी के 67 सालों बाद जिसमें 60 सालों के करीब कांग्रेस का शासन रहा दलितों और वंचित वर्गों के हालात इतने खराब नहीं होते। पढ़ाई से लेकर सरकारी नौकरियों में दलितों की भागीदारी काफी कम है। 1991 में आर्थिक उदारवाद के नाम पर निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया। सरकारी नौकरियां कम होती गर्इं। यूपीए के पिछले दस सालों के शासन में ठेकेदारी प्रथा से शोषण का दौर शुरू हुआ है, जिसमें सबसे अधिक प्रभावित वंचित वर्ग ही है। कांग्रेस हो या तथाकथित सेक्यूलरवादी दल या उनके समर्थन की सरकारें, किसी ने दलितों और वंचित वर्गों के लिए काम नहीं किया। बल्कि, इस वर्ग को केवल वोट बैंक समझा। आज जो भी संवैधानिक अधिकार दलित समाज को मिले हैं, वह किसी की मेहरबानी से नहीं, बल्कि यह सब उनके संघर्ष और बाबा साहब डॉ. अंबेडकर की कृपा से ही संभव हो पाया है। 

आप सालों से दलितों और वंचित वर्गों के तमाम सामाजिक और गैर राजनीतिक संगठनों को एकजुट करते रहे हैं। सांसद बनने के बाद आप की ये गतिविधियां क्या थम जायेंगी?

कतई नहीं। अभी सांसद बनने के बाद क्षेत्र में अपने को फोकस किया है। क्षेत्र में ज्यादा समय देने के कारण थोड़े वक्त के लिए ये गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं। लेकिन, क्षेत्र में व्यवस्थित होने के बाद देशव्यापी दौरा करूं गा। पिछले सप्ताह ही हमारे एससी-एसटी का अखिल भारतीय परिसंघ की दिल्ली में बैठक हुई थी। इसमें करीब 1200 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस बैठक में मैंने कहा कि बेशक मैं सांसद बन गया हूं लेकिन मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य दलित, आदिवासी व वंचित समाज का हित ही है। मैंने प्रतिनिधियों से आग्रह किया कि मेरे संसद में पहुंचने का मतलब तभी साकार होगा जब परिसंघ के लोग समाज की भलाई के लिए और तेजी से काम करें। जब इस साल फरवरी में भाजपा में शामिल हुआ था, तो मेरी पहली शर्त यही थी कि दलित समाज की भागीदारी हर क्षेत्र में हो तो यह समाज भाजपा का पूरा साथ देगा और एक बार ही नहीं हमेशा मैं समझता हूं कि लोकसभा चुनाव में हमारे आंदोलन के साथियों ने भाजपा को पुरजोर समर्थन किया है, अब उसका पुरस्कार उन्हें जरूर मिलना चाहिए।

आप स्वीकार करते हैं कि दिल्ली में आप की भी जीत के पीछे मोदी लहर का ही करिश्मा रहा है?

बिल्कुल, इसमें दो राय हो नहीं सकती। मैं ही क्या, पूरा देश यह बात जानता है। देश की जनता ने मोदी जी पर विश्वास व्यक्त किया है। मोदी जी चुनाव जीतने के बाद कह चुके हैं कि अब हमें देश की जनता के विश्वास पर खरा उतरना है।

अभी तो मोदी सरकार को काम करते हुए 3 महीने भी पूरे नहीं हुए, फिर भी सरकार के शुरुआती कामकाज को यूपीए सरकार की कार्यशैली की तुलना में किस तरह देख रहे हैं?

आप खुद अनुभव कर रहे होंगे। पीएम ने लाल किले से ही कहा कि अधिकारी और कर्मचारी समय पर दफ्तर पहुंच रहे हैं, तो यह भी खबर बन रही है। पिछली सरकार में पूरा सिस्टम ध्वस्त हो गया था। मोदी जी ने उसे ठोक पीट कर रफ्तार देना शुरू किया है। सरकार ने अपने पहले बजट सत्र में सराहनीय काम किए। तमाम विधेयक पारित हुए। देर तक संसद के सदनों की बैठकें चलीं। संसद में पहली बार अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़े वर्ग की समस्याओं के लिए लोकसभा में गरमा-गर्म बहस हुई। भाजपा की तरफ से मैं वक्ता था। आजादी के बाद हमारे समाज के साथ किस तरह का अन्याय किया जाता रहा? इस सब पर पहली बार चर्चा हुई। इस बार मोदी जी ने भूटान और नेपाल की यात्रा की। शपथ ग्रहण समारोह में सार्क  देशों के मुखिया आये। महंगाई पर कैबिनेट में कई बार निर्णायक चर्चा हुई। कड़े फैसले लिए गये। यह बात दीगर है कि महंगाई के मोर्चे पर हमारी सफलता का स्तर मन मुताबिक नहीं है। जनता, खुद महसूस कर रही है यूपीए और एनडीए सरकार की कार्यशैली में भारी अंतर है।

मायावती जैसे अन्य दलित नेताओं ने लंबे समय से यह बात उठाई है कि दलित वर्गों को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। अब क्या आप लोग भी इस एजेंडे के लिए अपनी सरकार पर दबाव बनायेंगे?

देखिए, मायावती जी के शासनकाल में ही तो हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में यह मामला उठा था। वहां यदि कानूनी बहस ठीक से की गई होती, तो सुप्रीम कोर्ट तक इस मुद्दे पर झटका नहीं लगता। मायावती जी किस मुंह कह रही हैं कि इस मसले को लेकर वे लंबे समय से संघर्ष करती आई हैं? इतना ही नहीं जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण का अधिकार खारिज किया, तो यूपीए सरकार का मायावती जी समर्थन कर रही थीं। उसमें उन्होंने हो-हल्ला तो मचाया, लेकिन सरकार पर निर्णायक दबाव नहीं बना पार्इं। हमारी सरकार इस एजेंडे के प्रति प्रतिबद्ध है। यह सरकार जरूर इस संबंध में संसद के अंदर विधेयक पारित करायेगी। 

अपनी सरकार से दलित एजेंडे पर क्या- क्या अपेक्षाएं कर रहे हैं?

मुख्य मुद्दा तो पर्याप्त आरक्षण और दलित सशक्तिकरण का ही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के अलावा किसी और पार्टी का एजेंडा दलितों और वंचित वर्गों के हितों का इतना पक्षधर नहीं रहा। इसीलिए भाजपा को 282 सीटों में ऐतिहासिक जीत मिली है। हमारी कोशिश यही रहेगी कि दलित, वंचित वर्ग व पिछड़ों का सशक्तिकरण हो। आरक्षण बढ़े। निजी क्षेत्र में आरक्षण मिले। हमारा मकसद है कि सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए जिनके हाथ में धन-संपत्ति और सत्ता है उसका साथ देकर विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी लेना। मेरा मानना है कि यदि सामाजिक आंदोलन तेज हुआ, तो हम स्वयं कई क्षेत्रों में भागीदारी के लिए सक्षम हो जायेंगे।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में दलित वोट बैंक सालों से मायावती के नेतृत्व वाली पार्टी के ही साथ है। अब इस नेतृत्व को भी यह आशंका हो रही है कि भाजपा कहीं उनके वोट बैंक पर सेंध न लगा ले। क्या, वाकई में आप लोगों की नजर बहन जी के वोट बैंक पर है?

देखिए, दलित आंदोलन के लिए यह समय संक्रमण काल का है। तेजी से बदलते भारतीय समाज और देशकाल को देखते हुए दलित वर्ग भी आंखें मूंदे हुए नहीं हैं। उसे पता है कि उसका हित किस दल में सध सकता है? भारतीय जनता पार्टी की सोच है ‘सबका साथ और सबका विकास’। इस दिशा में काम हो रहा है। भाजपा दलितों को वोट बैंक नहीं मानती। बल्कि, उसके चहुंमुखी विकास के लिए प्रयत्नशील रहती है। लोकसभा चुनाव में पार्टी की इस मंशा पर दलित समाज ने भरोसा जताया है। यह सिलसिला अब और आगे बढ़ने वाला है। 

भाजपा के एजेंडे में यूपी मिशन की खास अहमियत है। लेकिन, यहां पर दलित वोट बैंक आज भी बसपा से ही जुड़ा हुआ है। आप जैसे दलित नेताओं के जरिए इस वोट बैंक को भाजपा में कितना शिफ्ट किया जा सकता है?

पार्टी के लिए सचमुच यूपी खासी अहमियत रखता है। लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता के पीछे यूपी का ऐतिहासिक योगदान रहा है। विधानसभा चुनाव में भी हम इसी तरह की उम्मीद करते हैं। अभी पार्टी से इस संबंध में मेरी कोई खास बात नहीं हुई है। लेकिन, समय आने पर प्रदेश के हर कोने में जाऊंगा और लोगों से यही कहूंगा कि आप ने जिस तरह से लोकसभा चुनाव में भाजपा पर विश्वास जताया, उसी तरह से विधानसभा चुनाव में भी पार्टी पर विश्वास जताइये। उम्मीद है कि हमें पूरा समर्थन मिलेगा।

संघ प्रमुख मोहन भागवत इन दिनों हिंदुत्व को लेकर नए-नए ‘ज्ञान’ दे रहे हैं। इनसे आप कितना सहमत हैं?

देखिए, संघ प्रमुख मोहन भागवत जी हिंदुत्व पर जो भी बात कह रहे हैं, उसका कतई मतलब यह नहीं निकालना चाहिए कि वे किसी अन्य धर्मावलंबी पर हिंदुत्व थोप रहे हैं। उनकी बातों का तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग गलत तरीके से व्याख्या कर रहे हैं। 

रिश्तों में घुलती कड़वाहट: सीएम- पीएम का टंटा खड़ा कर सकता है बड़ा राजनीतिक संकट!

छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?

एक बार फिर वही हो गया, जिसकी आशंका यहां राजनीतिक हल्कों में पहले से की जा रही थी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की हूटिंग पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंच पर हुई थी। प्रधानमंत्री के सामने हुड्डा के खिलाफ जमकर नारेबाजी भी हुई। यहां तक कि कुछ उत्साही मोदी समर्थकों ने हरियाणा के मुख्यमंत्री को महाभ्रष्टाचारी तक करार किया था। लेकिन, प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे थे। इससे हुड्डा को और गुस्सा आया। उन्होंने कैथल में ही ऐलान कर दिया था कि अब वे दोबारा मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के किसी कार्यक्रम में हिस्सेदारी नहीं करेंगे। जरूरत पड़ी, तो वे औपचारिक प्रोटोकोल की भी परवाह नहीं करेंगे। क्योंकि, उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाई गई है। इसे वे कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते। अपने मुख्यमंत्री की यह पीड़ा सुनकर कांग्रेसी नेतृत्व को भी गुस्सा आ गया। इसी के बाद नेतृत्व ने अपने सभी मुख्यमंत्रियों को सलाह दे डाली कि ऐसी किसी किरकिरी से बचने के लिए वे लोग प्रधानमंत्री के मंच से ज्यादा से ज्यादा दूरी बनाएं। केवल, प्रोटोकोल की औपचारिकता भर पूरी करें। 

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने पार्टी आलाकमान की नसीहत मानकर प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रमों का बायकॉट शुरू कर दिया है। गुरुवार को इस नई शुरुआत से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक नया राजनीतिक बवाल खड़ा हो गया है। प्रधानमंत्री नागपुर में विकास योजनाओं के दो कार्यक्रमों में पहुंचे थे। उन्हें यहां पर मेट्रो प्रोजेक्ट के लिए भूमि पूजन और एक थर्मल प्लांट का उद्घाटन करना था। उन्होंने किया भी। लेकिन, मुख्यमंत्री इन कार्यक्रमों से नदारत रहे। जबकि, सरकारी प्रोटोकोल के मुताबिक उन्हें प्रधानमंत्री के साथ हाजिर रहना चाहिए था। लेकिन, चव्हाण ने पहले ही सूचना दे दी थी कि वे इन कार्यक्रमों में हिस्सेदारी नहीं करेंगे। क्योंकि, शनिवार को ही सोलापुर के एक बिजली प्रोजेक्ट के उद्घाटन मौके पर मुख्यमंत्री चव्हाण की जमकर हूटिंग हो गई थी। 

प्रधानमंत्री ने उस दिन सोलापुर-रायचुर ट्रांसमिशन लाइन के साथ ही पुणे-सोलापुर के फोर लाइन राजमार्ग का भी उद्घाटन किया था। इस मौके पर जब मुख्यमंत्री चव्हाण जब बोलने लगे तो आगे की तरफ बैठे मोदी समर्थकों ने हूटिंग शुरू कर दी। यहां तक कि प्रधानमंत्री के सामने ही चव्हाण के खिलाफ अभद्र भाषा में टीका-टिप्पणियां की गईं। मुख्यमंत्री ने कहा है कि इसी प्रकरण के बाद उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि वे गुरुवार को नागपुर वाले कार्यक्रम में हिस्सेदारी नहीं करेंगे। इस बारे में उन्होंने अपने केंद्रीय नेतृत्व से विमर्श भी किया था। उन्हें यही सलाह मिली कि वे अपने आत्मसम्मान की कीमत पर कुछ न करें। यदि प्रधानमंत्री को एक राज्य के मुख्यमंत्री के सम्मान की परवाह नहीं है, तो फिर मुख्यमंत्री ही क्यों प्रोटोकोल की परवाह करते घूमें?

सोलापुर के प्रकरण को लेकर ही चव्हाण काफी तुनक गए थे। इस बीच हरियाणा में भी 19 अगस्त को इसी तरह की कहानी दोहरा दी गई। कैथल में हाईवे प्रोजेक्ट के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री पहुंचे थे। यहां पर मुख्यमंत्री हुड्डा भी उनके साथ मंच पर रहे। शिलान्यास कार्यक्रम के बाद मंच पर आकर प्रधानमंत्री के सामने हुड्डा ने भाषण शुरू किया, तो आगे की पंक्तियों में बैठे मोदी समर्थकों ने हुड्डा के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। उन्हें भ्रष्ट सरकार का मुखिया कहा गया। कई मिनट तक यह राजनीतिक हुड़दंगी चलती रही। प्रधानमंत्री चुपचाप बैठे रहे। ऐसे में, हुड्डा की खीझ और बढ़ गई। उन्होंने कैथल में ही कह दिया था कि अब वे दोबारा प्रधानमंत्री के मंच पर हिस्सेदारी नहीं करेंगे। 

हरियाणा की घटना के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने इस मुद्दे पर गंभीरता से विमर्श किया। इसी के बाद पार्टी ने अपने सभी मुख्यमंत्रियों को मशविरा दिया कि वे सरकारी कार्यक्रमों में भी प्रधानमंत्री के मंच पर साझीदार न हों। केवल, प्रोटोकोल की औपचारिकता भर निभाकर लौट जाएं। कांग्रेस के महासचिव शकील अहमद कहते हैं कि सोलापुर, कैथल व रांची में जिस तरह से प्रधानमंत्री के मंच से मुख्यमंत्रियों को अपमानित करने का चलन शुरू हुआ है, वह काफी खतरनाक परंपरा है। इससे देश के संघीय ढांचे को भी बड़ा खतरा हो सकता है। सोलापुर और कैथल की घटनाओं के बाद गुरुवार को रांची में एक सरकारी कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री के मंच पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमेंत सोरेन को भी हूटिंग का दंश झेलना पड़ा। यहां भी मोदी के उत्साही समर्थकों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। इससे खीझकर सोरेन ने कह दिया है कि यदि प्रधानमंत्री ने इसी परंपरा को जारी रखा, तो राज्यों और केंद्र के रिश्तों में बहुत कड़वाहट घुल जाएगी। इससे देश के संघात्मक ढांचे में भी बड़ी दरार पड़ सकती है। 

झारखंड के मुख्यमंत्री को बहुत गुस्सा आ गया है। उन्होंने कहा कि जिस तरह की राजनीति प्रधानमंत्री के मंचों से शुरू हुई है, यह तो सीधे राज व्यवस्था के साथ बलात्कार है। दरअसल, महाराष्ट्र और हरियाणा की घटनाओं को लेकर झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन पहले से ही कुछ आशंकित थे। ऐसे में, उन्होंने बुधवार को ही सरकार के एक आलाअफसर के जरिए पीएमओ में संदेश भिजवाया था कि रांची में मंच साझा करने पर कहीं उन्हें सीएम हुड्डा की तरह तो कोई अपमान तो नहीं झेलना पड़ेगा? सूत्रों के अनुसार, प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने झारखंड के मुख्यमंत्री को आश्वासन दिया था कि वे इस तरह की कोई आशंका न करें। प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि उनके कार्यक्रमों में किसी सस्ती राजनीति के दांव चले जाएं। इस आश्वासन के बाद ही रांची में सोरेन, मोदी के मंच पर गए थे। लेकिन, यहां उन्हें मोदी समर्थकों द्वारा की गई हूटिंग का सामना करना पड़ा। 

रांची के कार्यक्रम के बाद ही प्रधानमंत्री मोदी नागपुर पहुंचे। लेकिन, यहां दोनों कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री चव्हाण ने हिस्सेदारी नहीं ली। इसकी घोषणा वे पहले ही कर चुके थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा कहते हैं कि इस बायकॉट को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की भूमिका पर सवाल नहीं होने चाहिए। क्योंकि, जिस तरह की परंपरा मोदी के मंचों से शुरू हुई है, वह देश की एकता के लिए भी शुभ नहीं है। भाजपा नेतृत्व ने पृथ्वीराज चव्हाण के फैसले की निंदा की है। कहा है कि मुख्यमंत्री को कम से कम प्रोटोकोल की औपचारिकता जरूर निभानी चाहिए। ऐसा न करके उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था को ठेंगा दिखाने की कोशिश की है, जो कि किसी तरह से सही नहीं है। कांग्रेस के प्रवक्ता सचिन सावंत ने कहा है कि अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए चव्हाण के पास इसके अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा था। क्योंकि, अब कई घटनाओं के बाद यह साबित हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी की मानसिकता तानाशाही वाली ही है। 

कांग्रेस की 11 राज्यों में सरकारें हैं। इनमें पांच सरकारें पूर्वोत्तर के राज्यों में ही हैं। दो दिन पहले ही असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने आरोप लगाया था कि नगालैंड से सीमा विवाद के मामले में केंद्र सरकार की उदासीनता के कारण ही मामले ने तूल पकड़ लिया है। मुख्यमंत्री के इस आरोप के बाद ही केंद्र सरकार ने इस विवाद में बीच बचाव की पहल की है। गुरुवार को गुवाहाटी में असम और नगालैंड के मुख्यमंत्रियों के बीच वार्ता हुई है। इसमें हिस्सेदारी केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू की भी रही। उल्लेखनीय है कि हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड व जम्मू-कश्मीर में अगले कुछ महीनों में ही विधानसभा के चुनाव होने हैं। माना जा रहा है कि इन राज्यों की चुनावी राजनीति के खातिर तरह-तरह के सियासी प्रयोग किए जा रहे हैं। इसी के चलते सीएम-पीएम के बीच तनाव का नया सिलसिला भी शुरू हुआ है। कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कह दिया है कि अपने केंद्रीय नेतृत्व के मशविरे के बाद भी वे राज्य में प्रधानमंत्री के मंच पर हिस्सेदारी करेंगे। लेकिन, कर्नाटक में भी मोदी समर्थकों ने उनके साथ बदसलूकी की हिमाकत की, तो भाजपा नेतृत्व को यह सब बहुत महंगा पड़ सकता है। 

बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने पहले ही कह दिया था कि इन दिनों मोदी चुनावी राज्यों में अपने सरकारी कार्यक्रमों के जरिए वोटों की खेती करने में ज्यादा लगे हैं। इस संदर्भ में मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग को एक शिकायती पत्र भी भेज दिया है। मीडिया से मांझी ने कहा कि उन्हें दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह प्रधानमंत्री से कोई डर नहीं लगता। क्योंकि, उनकी सरकार बहुत साफ-सुथरे ढंग से अपना कामकाज चला रही है। उल्लेखनीय है कि मोदी के मुद्दे पर ही पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा नेतृत्व के बीच राजनीतिक तनाव बढ़ा था। इसी के चलते जदयू और भाजपा का 17 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन टूट गया था। इसके बाद जदयू नेतृत्व और भाजपा के बीच तनाव के रिश्ते बने हैं। बिहार के मुख्यमंत्री मांझी ने तो आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री मोदी कई तरह से राज्यों के साथ भेदभाव कर रहे हैं। इसकी भी लड़ाई वे आगे लड़ने को तैयार हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर कहते हैं कि तानाशाही रवैए की राजनीति नरेंद्र मोदी पहले से करते आ रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उनके तौर-तरीके यही थे। अब प्रधानमंत्री के इन तौर-तरीकों देश यह देखेगा कि वे कैसे अपने इस रवैए से लोकतांत्रिक ढांचे को भारी नुकसान पहुंचाते हैं? जिस तरह से उन्होंने अपने मंचों से मुख्यमंत्रियों की हूटिंग शुरू कराई है, यह बहुत ही खतरनाक शुरुआत है। इससे संघीय ढांचे को दूरगामी आघात पहुंच सकता है। 

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

असम- नगालैंड सीमा विवाद

छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?

पूर्वोत्तर के दो राज्यों असम और नगालैंड के बीच गोलाघाट इलाके में सीमा विवाद ने खतरनाक रूप धारण कर लिया है। दशकों से सीमा का यह विवाद जब तब गरम होता रहा है। लेकिन, केंद्र सरकार ने कभी यह कोशिश नहीं की कि दो राज्यों के बीच चले आ रहे इस विवाद का कोई स्थाई समझौता करा दिया जाए। जब भी इस मुद्दे को लेकर बवाल बढ़ा, तो अस्थाई निदान निकालने की कोशिश की गई। इसी का नतीजा रहा कि छोटे से सीमा विवाद का नासूर अंदर ही अंदर विस्फोटक होता गया। अब स्थिति यह हो गई है कि गोलाघाट में दोनों प्रदेशों की सीमावर्ती इलाके में दोनों राज्यों की दावेदारी को लेकर कुछ इस तरह का तनाव खड़ा कर दिया गया है, मानो दो दुश्मन देशों के बीच का कोई जटिल सवाल हो? पिछले दिनों इस इलाके के सात गांवों में नगालैंड के एक उग्र समूह ने हमला बोल दिया था। ये गांव असम की सीमा में आते हैं, जबकि नगालैंड का दावा इन गांवों को लेकर रहा है। इस हमले में करीब 15 लोग मारे गए थे। इस हत्याकांड को लेकर मंगलवार से सीमावर्ती इलाके में असम आॅल इंडिया एसोसिएशन के साथ कुछ और संगठनों ने मिलकर नगालैंड को जाने वाली सड़क पर अनिश्चितकालीन जाम लगा दिया था। इससे वातावरण और उग्र होता गया। जब सुरक्षाबलों ने आंदोलनकारियों को भगाने की कोशिश की, तो स्थिति और तनावपूर्ण हो गई। ऐसे में, मंगलवार को पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार शुरू की। इसमें करीब दो दर्जन लोग घायल हुए हैं। हालांकि, पुलिस का दावा है कि इनमें से किसी को पुलिस की गोलियां नहीं लगीं। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने आरोप लगा दिया है कि केंद्र सरकार की उदासीनता के कारण ही यह मामला काफी संवेदनशील हो गया है। मामले ने राजनीतिक तौर पर भी गर्मी पकड़ी, तो बुधवार को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने असम के मुख्यमंत्री गोगोई और नगालैंड के मुख्यमंत्री टी आर जेलीयांग से बातचीत की है। राजनाथ सिंह की पहल पर आज गुवाहाटी में दोनों मुख्यमंत्रियों के बीच इस मुद्दे पर वार्ता होने जा रही है। सवाल यह है कि यदि समय रहते केंद्र ने इस मामले में बीच-बचाव की कारगर भूमिका पहले ही अदा की होती, तो शायद असम और नगालैंड के बीच का विवाद इतना उग्र रूप धारण नहीं करता। 

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

आत्मघाती रास्ते पर बढ़ने से बचे पाक

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प्रभात कुमार रॉय

कश्मीर के प्रति अपनी गहन प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने की गरज से भारत और पाकिस्तान के मध्य अंजाम दी जाने वाली परस्पर कूटनीतिक वार्ताओं से ठीक पहले भारत स्थित पाकिस्तान के हाईकमिश्नर और जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के बीच दोस्ताना मुलाकातें प्राय: पहले भी होती रही हैं। कांग्रेस की कयादत में संचालित हुकूमत द्वारा इन कुटिल रहस्यमय मुलाकातों को लेकर कभी भी कोई कड़ी कूटनीतिक प्रतिक्रिया का कदाचित इजहार नहीं किया गया। विदेश सचिव स्तर पर 25 अगस्त से प्रारम्भ होने वाली कूटनीतिक वार्ता से पहले पाकिस्तान हाईकमिश्नर के साथ कश्मीर के पृथकतावादी लीडरान की मुलाकात को नरेंद्र मोदी सरकार ने बहुत गंभीरता से लिया और इस मुलाकात को भारत के आंतरिक मामलात में पाकिस्तान की नाकाबिले बर्दाश्त दखलंदाजी करार दिया। भारत स्थित पाकिस्तान हाईकमिश्नर की इस बेजा हरकत को मद्देनजर रखते हुए नरेंद्र मोदी हुकूमत द्वारा भारत और पाकिस्तान के मध्य विदेश सचिव स्तर की कूटनीतिक वार्ता को बाकायदा रद्द कर दिया गया है। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने शिमला समझौते की शर्तों का उल्लेख करते हुए बहुत कड़े अलफाजों में फरमाया कि पाकिस्तान के समक्ष एक ही कूटनीतिक मार्ग शेष बचा है कि वह भारत के साथ अपने सारे विवादों का समाधान केवल द्विपक्षीय वार्ता के तहत ही तलाश करे। कश्मीर के जटिल प्रश्न पर मोदी हुकूमत का कूटनीतिक दृष्टिकोण यकीनन पूर्व की केंद्रीय सरकार से एकदम अलग प्रतीत हो रहा है। 

सर्वविदित है कि हुर्रियत कान्फ्रेंस के पृथकतावादी लीडरों ने कश्मीर में जेहादी दहशतगर्दी के लिए अनुकूल समूचा वातावरण तैयार करने में सबसे अहम किरदार निभाया है। पाकिस्तान के संरक्षण में और उसके सक्रिय समर्थन से ही 1988 से कश्मीर में आतंकवादी जेहाद प्रारम्भ हुआ था। पाक सरपरस्ती में कश्मीर में जेहादी आतंकवादियों की समस्त कारगुजारियों के जारी रहते हुए भी भारत सरकार ने विगत 15 वर्षों से परस्पर सहमति द्वारा कश्मीर समस्या का निदान निकालने की खातिर कूटनीतिक वार्ता का दरवाजा सदैव खुला रखा। प्रथम अवसर है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुकूमत-ए-हिंदुस्तान द्वारा पाकिस्तान की पाखंडपूर्ण दोहरी कूटनीतिक चालबाजियों के बरखिलाफ कड़े रुख का स्पष्ट परिचय दिया गया है। एक तरफ भारत के साथ कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण निदान निकालने के लिए पाकिस्तान द्विपक्षीय कूटनीतिक वार्ताएं अंजाम देता रहा है और दूसरी तरफ वही पाकिस्तान जेहादी छद्म युद्ध के जरिए कश्मीर को बलपूर्वक हड़प लेने की खूनी साजिशें भी बाकायदा अंजाम देता रहा है। पाक अधिकृत कश्मीर इलाके में आईएसआई द्वारा संचालित जेहादी प्रशिक्षण शिविरों के संचालन की संपूर्ण जानकारी पूरी तफसील के साथ भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के पास विद्यमान है। ऐसे कुटिल और दुष्कर हालातों  में पाखंडी पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक वार्ता जारी रखने का कोई वाजिब औचित्य शेष नहीं रह जाता है।

भारतीय विदेश नीति के नियंता इस तथ्य को बाखूबी जानते हैं कि पाकिस्तान की फौज दरअसल हुकूमत-ए-पाकिस्तान की अंदरुनी प्रांतों में मौजूद एक खुदमुख्तार हुकूमत के तौर पर कार्य करती है। कश्मीर में सक्रिय आतंकी जेहाद के पृष्ठभूमि में सदैव ही पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई विद्यमान रही है। आईएसआई पर पाकिस्तान की नागरिक हुकूमत कोई प्रभावी नियंत्रण कदापि स्थापित नहीं कर सकी है। आईएसआई वस्तुत: पाकिस्तानी फौज के नियंत्रण में अपना काम अंजाम देती आई है। आईएसआई का शीर्ष कमांडर भी पाक फौज का लेफ्टिनेंट जनरल रैंक का अफसर होता है। स्मरण करें कि जिस वक्त पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ कूटनीतिक वार्ता करने के लिए लाहौर यात्रा अंजाम दे रहे थे, तकरीबन उसी वक्त जनरल परवेज मुशर्रफ की कमांडरशिप में पाक फौज ने जेहादियों को अपनी ढाल बनाकर करगिल की गगनचुंबी पहाड़ियों पर साजिशन आधिपत्य जमा लिया था। नवाज शरीफ का दावा रहा कि प्रधानमंत्री के तौर पर उनको करगिल की पहाड़ियों पर पाक फौज द्वारा कब्जा जमाने की कारगुजारी के विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं थी। इसके विपरीत अपने संस्मरण में जनरल परवेज मुशर्रफ एकदम उल्टा दावा पेश करते हैं कि पाक फौज द्वारा करगिल में उठाए गए प्रत्येक कदम की जानकारी नवाज शरीफ को प्रदान की जाती रही थी।

1947 से ही कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के मध्य भयानक तनाव पनपा और परवान चढ़ा। 1947 में ही हुकूमत ए पाकिस्तान ने वादी-ए-कश्मीर को बलपूर्वक हासिल करने के लिए अपनी संपूर्ण फौजी ताकत झोंक दी थी। कश्मीर पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए जारी आतंकवादी प्रॉक्सी वार के तहत दोनों तरफ के तकरीबन एक लाख लोगों की जान जाने के बाद भी पाकिस्तान को अभी तक कुछ भी हासिल नहीं हो सका। ऐतिहासिक तौर पर पाकिस्तान ने भारत के साथ तीन बड़ी फौजी जंगों में पूर्णत: पराजित होकर, अंतत: कुटिल कुनीति के कारण 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (बंगला देश) को गंवा दिया था। कश्मीर के प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव से भारत और पाकिस्तान के मध्य समझौते की दास्तान शुरू हुई और ताशकंद समझौता, शिमला समझौता, वाजपेयी की लाहौर यात्रा व आगरा समिट आदि कितने ही कूटनीतिक प्रयास कश्मीर समस्या को निपटाने में एकदम नाकाम सिद्ध हुए। विगत 15 वर्षों से आपसी ताल्लुकात को दुरुस्त करने की दिशा में कूटनीतिक कोशिशें बाकायदा जारी रही। आपसी ताल्लुकात सुधारने की दिशा में दोनों देशों के मध्य गहन आर्थिक संबंधों में निरंतर जारी बढ़ोत्तरी एक संभवतया एक नई इबारत की संरचना कर सकती है। भारत-पाकिस्तान के मध्य आपसी व्यापार तकरीबन तीन अरब डॉलर तक पहुंच चुका है, जिसके आगामी पांच वर्षों में तकरीबन 12 अरब डॉलर के विशाल स्तर तक पहुंच जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है।

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पाकिस्तान और भारत के मध्य ताल्लुकात सुधारने की प्रथम और अनिवार्य शर्त है कि हुकूमत-ए-पाकिस्तान सुनिश्चित तौर पर भारत के बरखिलाफ जारी अघोषित आतंकवादी प्रॉक्सी वार का मुकम्मल खात्मा करे। हुकूमत-ए-पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तैयबा सरगना हाफिज सईद, जैश-ए-मोहम्मद सरगना मौलाना अजहर मसूद, नृशंस अपराधी दाऊद इब्राहिम, सरीखे तमाम भारत विरोधी दशहतगर्दों को प्रश्रय प्रदान किया। इन तमाम दहशतगर्द गुटों ने कश्मीर और शेष भारत में बर्बर जेहादी आतंक मचाना जारी रखा। पाकिस्तान की सरजमीं पर विद्यमान सारे दहशतगर्द सरगनाओं को हुकूमत-ए-पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत तत्काल भारत सरकार के हवाले करे। हुकूमत-ए-पाकिस्तान अपनी इंटेलिजेंस एजेंसी आईएसआई पर पूरी तरह से कड़ी लगाम कसे और आईएसआई को भारत विरोधी गतिविधियां खत्म करने का सख्त हुक्म जारी करे। पाक-अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी प्रशिक्षण शिवरों को तत्काल बंद किया जाए। हुकूमत-ए-पाकिस्तान आतंकवाद के प्रश्न पर अपनी पाखंडपूर्ण दोरंगी नीतियों का तत्काल परित्याग करे। कश्मीर को हथियाने के प्रयास में आतंकवादी गिरोहों को प्रबल प्रश्रय प्रदान करके पाकिस्तानी राजसत्ता ने वस्तुत: पाकिस्तान को ही विध्वंस कर डालने की दुर्भाग्यपूर्ण राष्ट्रीय राजनीति का सृजन किया है, जो आखिरकार विनाशकारी सिद्ध होगी। पाकिस्तान और भारत के मध्य कूटनीतिक वार्ता तभी कामयाब हो सकती है जबकि हुकूमत-ए-पाकिस्तान आत्मघाती कुटिल कूटनीति का परित्याग करके भारत को अपने ही कुनबे का राष्ट्र समझे, जिससे कि वह साम्राज्यवादी साजिश के कारण 1947 में विलग हो गया था। 

(पूर्व सदस्य, नेशनल सिक्यूरिटी एडवाइजरी काउंसिल)

पाक के खिलाफ कड़ा फैसला: मोदी सरकार ने संघ नेतृत्व का दिल जीता!

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मोदी सरकार ने एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश शुरू की है। पाकिस्तान को कड़क संदेश देने के लिए सरकार ने 25 अगस्त को इस्लामाबाद में होने जा रही विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर दी है। इस कड़े फैसले से पाक के हुक्मरानों की बेचैनी बढ़ गई है। दरअसल, भारत सरकार की तमाम चेतावनियों के बाद भी जम्मू की सरहद पर सीमापार से फायरिंग का सिलसिला थम नहीं रहा है। केंद्र सरकार की नाराजगी के बावजूद पाक की तरफ से सैन्य शरारतें और बढ़ा दी गई थीं। इन हरकतों से सरकार की नाराजगी लगातार बढ़ती गई। इस बीच दिल्ली में तैनात पाकिस्तान के हाई कमीश्नर अब्दुल बासित ने एक और नागवार करने वाली पहल कर दी। इसको लेकर खास तौर पर तनातनी बढ़ी। माना जा रहा है कि इसी मुद्दे को लेकर भारत ने सचिव स्तर की वार्ता रद्द करा दी है। इस फैसले को लेकर इस्लामाबाद के हुक्मरानों ने इसकी पूरी जिम्मेदारी भारत सरकार पर डालने की कोशिश शुरू कर दी है। कहा गया है कि द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करने की दिशा में पाक ने पूरी ईमानदारी से पहल की थी, लेकिन भारत ने कदम पीछे हटाए हैं। यह पहल किसी मायने में दोनों देशों के रिश्तों के लिए शुभ नहीं हो सकती। 

उल्लेखनीय है कि इस्लामाबाद में प्रस्तावित विदेश सचिव की वार्ता के महज एक सप्ताह पहले पाकिस्तानी उच्चायोग ने कश्मीर के कुछ अलगाववादी नेताओं को बातचीत के लिए न्यौता भेज दिया था। पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारुख, हुर्रियत कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी व शब्बीर शाह आदि को मशविरे के लिए बुला लिया था। 19 अगस्त (आज) को इन अलगाववादी नेताओं से अब्दुल बासित चर्चा करने वाले थे। लेकिन, रविवार को ही केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पाक उच्चायुक्त की इस पहल पर अपना जोरदार विरोध दर्ज कराया था। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी इस मुद्दे पर अपनी गहरी नाराजगी दर्ज कराई थी। यह कहा गया था कि भारत के अंदर ही पाक उच्चायुक्त की इस तरह की फूट डालो वाली राजनीतिक हिमाकत बर्दाश्त नहीं की जा सकती। यहां तक कि कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने भी पाक उच्चायुक्त की इस कवायद की तीखी आलोचना की थी।

सोमवार को कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यह सवाल खड़ा किया था कि यूपीए सरकार के दौर में भाजपा नेतृत्व आरोप लगाता था कि सरकार का रवैया पाकिस्तान के प्रति दब्बूपन का है। इसीलिए पाक के हौसले इतने आक्रामक हो चले हैं। लेकिन, अब तो सरहद पर हालात काफी गंभीर हैं। पिछले कई दिनों से यहां पर गोलीबारी का सिलसिला लगातार बढ़ गया है। फिर भी, सरकार के स्तर पर केवल बयानबाजी ही क्यों होती है? सच्चाई तो यह है कि मौजूदा केंद्र सरकार के दब्बूपन के रवैए से ही पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने दिल्ली में भारत सरकार को ठेंगा दिखाते हुए कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को वार्ता के लिए न्यौता दे दिया है। लेकिन, मोदी सरकार चुप्पी साधे हुए है। कई और दलों ने भी इस मुद्दे पर सरकार पर कटाक्ष करने शुरू किए थे। 

भाजपा सूत्रों के अनुसार, उच्चायुक्त द्वारा कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को न्यौते के प्रकरण से संघ नेतृत्व भी काफी गुस्से में था। बताया जा रहा है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस संदर्भ में वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से संदेशा भिजवाया था कि समय आ गया है कि सरकार तत्काल कोई कड़ा फैसला ले। ताकि, संघ परिवार के कैडर में सकारात्मक संदेश जाए। हालांकि, सरकार के स्तर पर रविवार को ही पाक उच्चायुक्त से कह दिया गया था कि हुर्रियत के नेताओं को मशविरे के लिए न्यौता दिया जाना भारत सरकार को रास नहीं आ रहा है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कूटनीतिक चैनल से अपना कड़ा संदेश इस्लामाबाद भी भिजवा दिया था। इस बीच जम्मू की सरहद पर अरनिया और आरएस पुरा सेक्टरों में सीमापार से अंधाधुंध फायरिंग का सिलसिला तेज होता रहा। यहां तक कि रविवार को रात से सोमवार की सुबह तक करीब 10 घंटे तक बीएसएफ की करीब 20 चौकियों पर जमकर निशाना साधा गया। पाक की फायरिंग के चलते आर एस पुरा सेक्टर के नजदीकी बसे गांवों के लोग भी आतंकित रहे। दो-तीन नागरिकों को गोलियां भी लगीं। इस आक्रामक रवैए ने पीएमओ को और नाराज कर दिया। 

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने मीडिया से कहा है कि इस्लामाबाद में होने जा रही सचिव स्तर की वार्ता इसलिए रद्द करनी पड़ी, क्योंकि वर्तमान माहौल में रिश्ते सुधारने की ऐसी पहल का कोई मतलब नहीं रह गया था। सरकार के इस फैसले से हुर्रियत के कट्टरपंथी धडेÞ का नेतृत्व खफा हो गया है। हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने कहा है कि दोनों देशों के रिश्ते स्थाई रूप से तभी बेहतर हो सकते हैं, जबकि कश्मीर का मसला सुलझा लिया जाए। वे लोग तो इस्लामाबाद और दिल्ली दोनों सरकारों से यही कहते आए हैं कि कश्मीरी आवाम का गला दबाने की कोशिश न कीजिए। कोई लोकतांत्रिक हल निकलने दीजिए। यह मसला केवल आपसी संवाद से ही संभव है। जबकि, दोनों देशों की सरकारों का रवैया सामंतवादी किस्म का है। ये सरकारें अपनी अहम की लड़ाई में कश्मीर के मुद्दों को अपने-अपने ‘कवच’ के रूप में इस्तेमाल करती हैं। इसलिए, कश्मीर की समस्या लगातार बिगड़ी है। 

हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी इस बात पर खास तौर से खफा है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं को खुला संरक्षण मिल रहा है। इसी वजह से संघ प्रमुख मोहन भागवत सहित इनके कई नेता हिंदुत्व का एजेंडा बढ़ाने में लगे हैं। ऐसे में, जम्मू-कश्मीर की आवाम में कई तरह की शक की सुइयां घूमने लगी हैं। दरअसल, संघ प्रमुख मोहन भागवत कई मौकों पर हिंदुत्व के संदर्भ में विवादित टिप्पणियां कर चुके हैं। इन बयानों को लेकर राजनीतिक गरमा-गरमी का माहौल रहा है। पिछले दिनों भागवत ने कह दिया था कि जब इंग्लैंड में रहने वाले लोग अंग्रेज, जर्मनी में रहने वाले जर्मन व अमेरिका में रहने वाले अमेरिकी, तो फिर हिंदुस्तान में रहने वाला हर शख्स हिंदू क्यों नहीं हो सकता? उन्होंने जोड़ा था कि इस भूभाग में रहने वाले सभी लोग अपनी पहचान हिंदुत्व से जोड़ लें, तो इसमें आपत्ति क्या है? वैसे भी हिंदुत्व तो एक जीवन शैली का ही पर्याय है। इसका मतलब किसी खास पूजा-पद्धति से नहीं है। 

इस बयान को लेकर लंबे समय तक राजनीतिक थुक्का फजीहत का दौर चलता रहा था। इस बीच मोहन भागवत ने हिंदुत्व को लेकर एक और विवादित बयान दे दिया है। उन्होंने कह दिया है कि हिंदुत्व में क्षमता है कि वह सभी धर्मों को पचा ले। इधर, पिछले कुछ वर्षों में उसका हाजमा जरूर कुछ खराब हुआ है। सो, वे उम्मीद करते हैं कि अगले 10 सालों में हिंदुत्व का हाजमा बहुत मजबूत हो जाएगा। संघ प्रमुख के इस बयान ने विवाद की आग में घी डालने का काम कर दिया है। कांग्रेस के चर्चित महासचिव दिग्विजय सिंह ने हिंदुत्व को लेकर इस तरह के बयान देने वाले संघ प्रमुख को ‘हिटलर’ करार किया। उन्होंने ट्वीटर संदेश में कहा है कि इस तरह के ‘हिटलर’ देश की एकता के लिए बड़ा खतरा हैं। दिग्विजय सिंह के इस कटाक्ष को लेकर संघ परिवार के नेताओं ने पलटवार शुरू किया है। 

विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ नेता प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि अब लोग कांग्रेस के छद्म सेक्यूलरिज्म पर भरोसा नहीं करने वाले। भारत, हिंदू राष्ट्र है। हमारा यही नारा है। इसमें हमने कुछ नया नहीं कहा है। ऐसे में, दिग्विजय सिंह और मुलायम सिंह जैसे नेता चौंक क्यों रहे हैं? संघ के विचारक राकेश सिन्हा कहते हैं कि सच्चाई तो यही है कि भारत की पहचान हिंदुत्व की है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदुत्व को लेकर जो विमर्श दिया है, जिसे मानना है, वो माने, जिसे न मानना हो वह न माने। लेकिन, इसमें ज्यादा अफलातूनी बनने की क्या जरूरत है? भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव मुरलीधर राव को लगता है कि दिग्विजय सिंह जैसे बेलगाम नेताओं के कारण ही कांग्रेस की इतनी दुर्दशा हुई है। उन्हें इस बात की हैरानी है कि वे संघ प्रमुख को हिटलर कहने का दुस्साहस कर रहे हैं। फिर भी, कांग्रेस का आलाकमान चुप्पी साधे हुए है। दलीय राजनीति में इतनी मर्यादा हीनता का आचरण टकराव की राजनीति ही पैदा करता है। संघ सूत्रों के अनुसार, पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर दी गई है, इससे संघ प्रमुख मोहन भागवत काफी संतुष्ट हैं। उन्होंने इस फैसले के बाद अपने लोगों से कहा है कि इस तरह के ‘दबंग’ फैसले मोदी सरकार में ही संभव हैं। उन्हें इस तरह के फैसलों से हिंदुस्तान के ‘अच्छे दिन’ आने की आहट वाकई में होने लगी है।

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।

मोदी के ज्ञान पर मुझे तरस आता है: आनंद शर्मा

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारतीय जनता पार्टी की राष्टÑीय परिषद की बैठक में देश के किसानों और गरीबों के लिए वर्ल्ड ट्रेड आॅर्गनाइजेशन यानी डब्लूटीओ के प्रावधानों पर अमेरिका के दबाव के आगे नहीं झुकने के बयान पर काफी हंगामा मचा हुआ है। पीएम ने यह भी कहा कि कांग्रेस सरकार ने चुनाव में खाद्य सुरक्षा विधेयक के नाम पर वोट मांगे, लेकिन डब्लूटीओ में देश के किसानों के हितों के साथ समझौता कर लिया। इस तरह के बयान को लेकर कांग्रेस काफी कुपित है। संसद के बीते सत्र में भी इस पर कांग्रेस की तरफ से काफी हो-हल्ला हुआ। कांग्रेस की तरफ से कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी इस तरह का बयान देकर देश को गुमराह कर रहे हैं। जबकि डब्लूटीओ में यूपीए सरकार ने बड़ी मजबूती से अपना पक्ष रखा और विकासशील देशों को एकजुट करके विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली कृषि सब्सिडी को पूरी तरह से समाप्त करने पर दबाव डाला। इससे विकासशील देशों के किसानों का फायदा हुआ है और वे भी अपने उत्पादों को अंतरराष्टÑीय स्तर पर विकसित देशों के मुकाबले टक्कर दे सकते हैं। जहां तक खाद्य सुरक्षा का सवाल है, तो इसका संबंध तो डब्लूटीओ से है भी नहीं। पीएम को विदेश नीति के बारे में जानकारी नहीं है। हैरानी इस बात की है कि पीएम विदेश नीति के मामले में भी अपना राजनीतिक लाभ ढूंढ़ रहे हैं। जबकि विदेश नीति देश के मान और सम्मान के लिए होती है। इस पर कोई भी सरकार समझौता नहीं कर सकती। खाद्य सुरक्षा तो देश की सार्वभौमिकता के अधिकार के तहत है। इसको तो कोई चुनौती दे नहीं सकता है। राज्यसभा में कांग्रेस के उपनेता एवं पूर्व केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने कहा कि पिछले सप्ताह भारतीय जनता पार्टी की राष्टÑीय परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री का बयान निंदनीय और सरासर झूठ पर आधारित है। प्रधानमंत्री का यह कहना कि डब्लूटीओ की बाली की बैठक में यूपीए सरकार ने किसानों के हितों की अनदेखी की, वह पूरी तरह झूठ और निंदनीय है। पीएम को इस तरह का बयान देना शोभा नहीं देता। आनंद शर्मा कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई के संस्थापक सदस्यों में शामिल थे। वे लंबे समय तक युवा कांग्रेस के राष्टÑीय अध्यक्ष रहे हैं। यूपीए सरकार की दोनों पारियों में शर्मा मंत्री रहे हैं। आनंद शर्मा से हमारे विशेष संवाददाता एस पी त्रिपाठी ने डब्ल्यूटीओ विवाद पर विस्तार से बात की।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि यूपीए सरकार ने आम आदमी के हितों की अनदेखी करते हुए डब्लूटीओ में कई जनविरोधी समझौते किए थे। लेकिन, उनकी सरकार इनको मंजूरी नहीं देने वाली है। मोदी जो बात कह रह हैं, उसकी हकीकत क्या समझ रहे है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस तरह का आरोप निराधार और झूठ पर आधारित है। उनके बयान से ऐसा प्रतीत होता है कि पीएम को विदेश नीति के बारे मे बिल्कुल जानकारी नहीं है। यहां तक कि उनके विशेषज्ञ सलाहकार भी उन्हें इस संबंध में बरगला रहे हैं। मोदी अभी भाजपा के नेता से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। आखिर, अब वे भाजपा के नेता नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री हैं। उन्हें जो भी बोलना चाहिए, सोच समझकर बोलना चाहिए। भाजपा की राष्ट्रीय परिषद में डब्लूटीओ पर अपनी पीठ थपथपना उन्हें शोभा नहीं देता। क्योंकि, यूपीए सरकार ने डब्ल्यूटीओ में इस तरह के कोई हस्ताक्षर नहीं किए। बल्कि, दोहा के बाद कैनकुन, हांगकांग, जनेवा व बाली मंत्रिस्तरीय बैठक में मजबूती से अपना पक्ष रखा। हांगकांग मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में जी-10 में भारत ने विकासशील देशों को एकजुट करके विकसित देशों द्वारा कृषि सब्सिडी को समाप्त करने के लिए सहमत किया। इसी तरह विकासशील देशों को कृषि में निर्यात सब्सिडी 2013 तक समाप्त करना था। लेकिन बाली के सम्मेलन में विरोध हुआ। विकासशील देशों ने डब्ल्यूटीओ के विकसित देशों के दबाव के आगे झुकने से मना कर दिया। जिसमें कहा गया कि विकासशील देशों को किसानों की कुल उत्पादन का 20 प्रतिशत अधिक सब्सिडी सरकारें न दें। आगे के दौरों में भी 150 विकासशील देशों को झुकाकर समझौता कराना आसान नहीं है। यही बात मोदी ने अमेरिका के प्रतिनिधि को बता दिया है कि भारत इस पर समझौता नहीं करेगा। यह तो यूपीए सरकार ने पहले ही बाली में कह दिया है। इस बारे में संसद के अंदर मोदी सरकार की वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी यही जानकारी दी है। अब कौन झूठ बोल रहा है मोदी या सीतारमण? लेकिन मोदी कह रहे हैं कि यूपीए ने समझौता कर लिया। इसलिए हम कह रहे हैं कि मोदी सरासर झूठ बोल रहे हैं और उन्हें विदेश नीति के बारे में जानकारी नहीं है। कोई बयान देने के पहले उन्हें होमवर्क करना चाहिए।

मोदी सरकार का तो साफ-साफ आरोप है कि आप लोगों की सरकार ने चुनावी फायदा उठाने के लिए खाद्य सुरक्षा गारंटी कानून बनवाया था ताकि जनता की वाहवाही लूटी जाए। लेकिन, खाद्यान्न सब्सिडी में कटौती के लिए आप लोगों ने अंतरराष्टÑीय समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस मामले में आखिर सच क्या है?

देखिए, मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। मैं उनका सम्मान करता हूं। लेकिन, जब वे इस तरह का बयान देते हैं तो उनके ज्ञान पर मुझे तरस आता है। कम से कम डब्ल्यूटीओ के इतिहास के बारे में वे पढ़ कर बयान देते। डब्ल्यूटीओ की स्थापना 1 जनवरी 1995 को हुई। 15 अप्रैल 1994 को 123 देशों के वाणिज्य मंत्रियों ने मराकश में उरूग्वे दौर के फाइनल एक्ट पर हस्ताक्षर किए थे। यह दौर 1986 से 1994 तक चला था। भारत डब्ल्यूटीओ का संस्थापक सदस्य है। यह संस्था नियम आधारित पारदर्शी एवं प्रत्यक्ष बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था है, जो ताकतवर व्यापार भागीदार के दबाव से सदस्य देशों की रक्षा करता है। अब डब्ल्यूटीओ के सदस्यों की संख्या 159 हो गई है। डब्ल्यूटीओ की सबसे बड़ी निर्णायक संस्था सदस्य देशों के मंत्रियों का सम्मेलन है। इसकी बैठक हर दो साल में होती है। पहली बैठक 9-13 दिसंबर 1996 को सिंगापुर में हुई थी। उसके बाद जेनेवा, सियटल व चौथी बैठक दोहा में 9 से 14 नवंबर 2001 को हुई थी। इन बैठकों में एनडीए सरकार के वाणिज्य मंत्री मुरोसोली मारन और अरुण जेटली ने भागीदारी की थी। दोहा की बैठक अहम इसलिए है कि इस मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में एक व्यापक कार्य योजना स्वीकार की गर्ई, जिसे दोहा विकास एजेंडा कहा गया। इसी में कृषि तथा सेवाओं के कुछ मुद्दों पर अतिरिक्त मापदंड और समय-समीएं तय की गर्इं। इसी के बाद कैनकुन और बाली आदि के सम्मेलन में कृषि सब्सिडी पर पाबंदियों की बात की गर्ई। आज मोदी ने जो उंगलियां यूपीए की तरफ उठाई हैं उसकी जड़ में तो एनडीए सरकार है। जिसने 2001 में ही दोहा विकास एजेंडा पर हस्ताक्षर कर लिया था। भारत ने विकासशील देशों के हितों के लिए इस संगठन में सशक्त तरीके से अगुवाई की है। सच्चाई यही है। अब देश तय करेगा कि कौन झूठ बोल रहा है? मोदी या हम। 

मोदी सरकार इस तरह की छवि बनाने की कोशिश कर रही है कि जैसे वह गरीब वर्गों को सस्ता खाद्यान्न देने के लिए अमेरिका जैसी महाशक्तियों से भी भिड़ने के लिए तैयार है। कहा गया कि भारतीय हितों की अनदेखी करके कोई समझौता नहीं किया जायेगा। सरकार के इस स्टैंड को किस तरह से देख रहे हैं?

देखिए, सस्ते खाद्यान्न के लिए यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा गारंटी कानून बनाया। अब मोदी इस कानून पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। जबकि आजाद देश और उसमें निहित सार्वभौमिकता के नाते संसद को यह अधिकार है कि वह कानून बनाये। यूपीए सरकार ने पहल की और कानून बना। इससे डब्ल्यूटीओ के समझौतों से कोई मतलब नहीं है। इस पर सवाल उठाने के मतलब है कि देश की सार्वभौमिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना है। इसलिए हम कह रहे हैं कि मोदी को विदेश नीति का ज्ञान सतही है। क्योंकि, विदेश नीति एक दिन में और एक सरकार द्वारा नहीं बनाई जाती है। यह सतत प्रक्रिया है। इस पर प्रधानमंत्री जैसे व्यक्ति को पूर्ववर्ती सरकार पर उंगली उठाना उचित नहीं है। मोदी ने तो केवल सस्ती लोकप्रियता के लिए बवाल खड़ा किया। 

मोदी सरकार नेपाल-भूटान, पाकिस्तान व चीन जैसे पड़ोसी देशों से व्यापार बढ़ाने पर जोर दे रही है। चीन में व्यापार संतुलन बनाने की बात पर भी मोदी जोर दे रहे हैं। यह भी कहा गया है कि यूपीए सरकार की ना-समझी के चलते चीन से भारत के व्यापार में असंतुलन बढ़ा है। मौजूदा सरकार की वाणिज्य नीति के बारे में आप का नजरिया क्या बन रहा है?

चीन के मामले में भी मोदी जी गलतबयानी कर रहे हैं। उन्हें पहले पिछले दस सालों का भारत-चीन व्यापार का आंकड़ा देखना चाहिए। आरोप लगाना तो आसान है। लेकिन, काम करना मुश्किल है। मैं केवल पिछले दो दशक का आंकड़ा देता हूं। 1991 से 2010 तक के बीच जहां वर्ल्ड इकोनॉमी की वृद्धि 2.7 प्रतिशत थी, वहीं चीन की 10.5 और भारत की 6.5 प्रतिशत थी। मोदी को शायद यह भी पता नहीं होगा कि यूपीए सरकार ने ही भारत-चीन व्यापार का द्विपक्षीय समझौता किया है कि दोनों देशों के बीच 2015 तक 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक व्यापार करने का लक्ष्य रखा गया है। मोदी अपने इस लक्ष्य को बढ़ा पाने में सफल हों, तब यूपीए सरकार की आलोचना करें। अभी यूपीए सरकार की आलोचना करने के बजाए उन्हें काम पर ध्यान देने की जरूरत है। जहां तक वाणिज्य नीति की बात है, तो वह तो यूपीए सरकार का ही अनुकरण कर रहे हैं। पहले यही भाजपा एफडीआई का विरोध कर रही थी। अब, रेलवे में शत प्रतिशत एफडीआई की वकालत कर रही है। हम इसकी आलोचना नहीं कर रहे हैं। लेकिन, एनडीए सरकार द्वारा कथनी और करनी का फर्क महज दो महीनों में ही देखने को मिल गया।

लोकसभा में कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। इस बीच आप लोगों ने चुनावी हार को लेकर तमाम विमर्श किया है। आखिर, इस तरह की करारी हार की खास वजह क्या रही?

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा की है। वरिष्ठ नेता एवं पूर्व रक्षा मंत्री ए के एंटनी की अध्यक्षता में एक कमेटी ने तह तक जाकर हार के कारणों का पता लगाया है। जहां तक मैं समझता हूं कि हार के अहम कारणों में सत्ता विरोधी रुझान का खास असर रहा है। भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का मीडिया प्रबंधन और झूठे वायदों ने भी देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाया। 2जी स्पेक्ट्रम आदि में हुए भ्रष्टाचार को विपक्ष और मीडिया ने बड़ा मुद्दा बनाया। चुनाव के अंतिम दौर तक पहुंचते-पहुंचते भाजपा ने सांप्रदायिकता के नाम जमकर वोटों का धु्रवीकरण कर लिया। ये सब कारण हार के रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने हार की सामूहिक जिम्मेदारी ली है। राजनीतिक दलों के जीवन में चुनावी हार-जीत पड़ाव की तरह होते हैं। कांग्रेस ने भी इसे उसी तरह लिया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं से कहा कि हार से निराश नहीं होना है। जनता की सेवा के कार्य को और तन्मयता से करना है। हमने हार को भुलाकर महाराष्टÑ और हरियाणा तथा आगे आने वाले अन्य चुनावों में पूरी ताकत लगाने की तैयारियां शुरू कर दी हैं।

राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर पार्टी के अंदर और बाहर बहस तेज हुई है। आप की नजर में राहुल का नेतृत्व पार्टी के भविष्य के लिए कितना तारणहार हो सकता है?

राहुल जी की आलोचना करने वाले यह भूल जाते हैं कि राहुल गांधी के पास देश की आम जनता की भलाई के लिए जबरदस्त विजन है। इसके लिए वे संसद के अंदर और बाहर प्रयत्नशील रहते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूं। भाजपा देश में सांप्रदायिक धु्रवीकरण के नाम पर आशांति फै लाने की कोशिश कर रही है। यूपी में मुजफ्फरनगर से लेकर मुरादाबाद तक दंगों को उकसाने में जुटी है। यूपी के कांठ में जब दंगा भड़काने में भाजपा जुटी थी, तो राहुल जी के प्रयास से कांग्रेस के नेता वहां शांति मार्च के लिए दिल्ली से रवाना हुए और गिरफ्तारी दी। कांग्रेस हमेशा देश में समरसता और भाई-चारे को बढ़ाने में विश्वास रखती है। राहुल गांधी, युवा और होनहार नेता हैं। कांग्रेस ही नहीं, वे देश के भी भविष्य हैं।

अमित शाह की नई टीम: मंत्री मां का ‘आशीर्वाद’ वरुण के लिए बना अभिशाप!

छोटे भाई के मन में कौन -सी कुटिल भावना उदित हुई और क्यों? - chhote bhaee ke man mein kaun -see kutil bhaavana udit huee aur kyon?

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की टीम में इस बार युवा नेता वरुण गांधी को कहीं जगह नहीं मिल पाई। जबकि, माना जा रहा था कि संघ नेतृत्व की खास ‘कृपा’ से नई टीम में भी उनकी कुर्सी बरकरार रहेगी। क्योंकि, नेहरू-गांधी परिवार के इस ‘दबंग’ चेहरे का उपयोग ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के राजनीतिक अभियान में और ज्यादा करना है। इसी रणनीति के तहत वरुण को इस बार लोकसभा का चुनाव पीलीभीत संसदीय क्षेत्र के बजाए सुल्तानपुर से लड़ाया गया। मोदी की लहर में वे जमकर जीते भी। रणनीति यही रही है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी की अमेठी और रायबरेली संसदीय क्षेत्रों को भी पड़ोसी क्षेत्र सुल्तानपुर में पैठ करके के शिकंजे में कस लिया जाए। यह अलग बात है कि चुनावी अभियान के दौरान वरुण गांधी ने अपनी ताई सोनिया गांधी या भाई राहुल गांधी के खिलाफ सीधे जुबानी जंग नहीं छेड़ी थी। लेकिन, वे यूपीए सरकार को लेकर तीखे तंज जरूर कसते रहे थे। वरुण ने भले राहुल और सोनिया को सीधी चुनौती देने की कोशिश न की हो, लेकिन उनकी मां मेनका गांधी ने जमकर राजनीतिक हमले बोले थे। इससे भाजपा नेतृत्व खुश भी हुआ था। सरकार बनी, तो मेनका गांधी महत्वपूर्ण मंत्रालय की मंत्री भी बन गईं। लेकिन, मां की एक ‘भूल’ से बेटे वरुण की चमक पार्टी में फीकी पड़ गई है।

पार्टी संगठन में वरुण के पास राष्ट्रीय महासचिव का पद था। वरुण की राजनीतिक शैली में संघ नेतृत्व का खास असर दिखाई पड़ता रहा है। 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण ने एक घोर सांप्रदायिक भाषण दिया था। इसको लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा बवेला मचा था। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मायावती सरकार ने वरुण को जेल भी भिजवा दिया था। कई दिनों तक इस युवा नेता को जेल में ही बिताने पड़े थे। लेकिन, इस प्रकरण के चलते उनकी छवि प्रखर हिंदुत्ववादी नेता की बन गई थी। पार्टी में तो एक धड़ा उन्हें ‘यूपी का मोदी’ भी कहने लगा था। उल्लेखनीय है कि गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की छवि भी एक धुर हिंदुत्ववादी नेता की रही है। ऐसे में, भाजपा में यह भी चर्चा रही है कि वरुण की उत्तेजक राजनीतिक शैली को टीम मोदी पसंद करती है। 

सूत्रों के अनुसार, भाजपा प्रमुख अमित शाह को वरुण गांधी की राजनीतिक शैली कभी रास नहीं आई। इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान भी शाह को यह पसंद नहीं आता था कि वरुण, पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ‘बिग बॉस’ जैसा अफलातूनी व्यवहार क्यों करते हैं? इस चुनाव के दौरान शाह उत्तर प्रदेश भाजपा के चुनावी प्रभारी थे। शाह ने वरुण को अपना रवैया बदलने के संकेत भी दिए थे। लेकिन, युवा जोश वाले वरुण ने उनके मशविरों को भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी। माना जा रहा है कि शाह ज्यादा बड़ी भूमिका में आए, तो उन्होंने वरुण का पत्ता काट करके सबक सिखा दिया है। 

भाजपा के राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि वरुण का पत्ता साफ होने के मामले में उनकी मां मेनका गांधी की एक चर्चित टिप्पणी की बड़ी भूमिका हो गई है। दरअसल, पिछले दिनों पार्टी के एक कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्री मेनका ने जुमला उछाल दिया था कि यदि वरुण गांधी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन जाएं, तब तो पीलीभीत और प्रदेश के मजे ही आ जाएंगे। केंद्रीय मंत्री के इस बयान को लेकर पार्टी में राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया था। यहां तक कि पार्टी प्रवक्ता को कहना पड़ा था कि अभी भाजपा ने उत्तर प्रदेश में किसी को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट नहीं किया है। ऐसे में, मेनका गांधी की राय को पार्टी का नजरिया न माना जाए। हालांकि, कई नेताओं ने इस विवाद को थामने के लिए कहा था कि मेनका गांधी की टिप्पणी को बस बेटे के लिए मां का आशीर्वाद ही समझा जाए। माना जा रहा है कि यही आशीर्वाद बेटे वरुण के लिए अभिशाप जैसा बन गया है। 

इस मामले में पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा ने एक चर्चा के दौरान कह दिया कि वरुण गांधी को अगर टीम में जगह नहीं मिली, तो इसके दूसरे राजनीतिक निहितार्थ नहीं लगाए जाने चाहिए। संभव है कि पार्टी उन्हें किसी और भूमिका में उपयोग करने का मन बना रही हो। पार्टी में यह भी चर्चा है कि गुस्सैल स्वभाव वाले वरुण गांधी शायद ही धैर्य पूर्वक इस ‘अवमानना’ को सहन कर पाएं। यदि उन्होंने किसी तरह से अपनी नाराजगी के तेवर दिखा दिए, तो फिर मां मेनका गांधी के लिए भी दिक्कतें हो सकती हैं। यह अलग बात है कि भाजपा नेतृत्व और मोदी सरकार की खास निशाने पर आईं सोनिया गांधी के खिलाफ मेनका गांधी एक कारगर राजनीतिक हथियार के रूप में देखी जाती हैं। सो, मोदी सरकार मेनका गांधी को शायद न छेड़ना चाहे। वैसे भी मंत्री के रूप में मेनका की छवि एक दृढ़ संकल्प वाली नेता की मानी जाती है। मेनका के कड़क तेवरों के चलते अल्प समय में ही मंत्रालय में उनका दबदबा बढ़ गया है। 

अमित शाह की नई टीम में 8 महासचिव बने हैं। आगरा के सांसद रमा शंकर कठेरिया को महासचिव बना दिया गया है। वे दलित नेता हैं। पहले इस श्रेणी से इस पद पर थावरचंद्र गहलोत थे। अब वे मोदी सरकार में मंत्री बन गए हैं। ऐसे में, दलित चेहरे के रूप में साफ-सुथरी छवि वाले कठेरिया को जगह मिल गई है। चर्चा यह भी है कि कठेरिया को संसदीय बोर्ड में भी जगह मिल जाएगी। संघ के प्रवक्ता रहे राम माधव पिछले दिनों ही भाजपा की गतिविधियों में शामिल हुए हैं। उन्हें भी महासचिव बनाया गया है। जबकि, संघ से ही आए हुए रामलाल को भी महासचिव पद पर बरकरार रखा गया है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा लोकसभा चुनाव के दौरान ही फिर से भाजपा में लौट आए थे। उल्लेखनीय है कि जमीन घोटालों के आरोप में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। इससे वे भाजपा नेतृत्व से तुनक गए थे। उन्होंने दो साल पहले भाजपा से इस्तीफा देकर एक नई पार्टी बना ली थी। लेकिन, कर्नाटक में चुनावी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने उन्हें फिर से गले लगाया था। यह फैसला एक हद तक सही भी रहा। क्योंकि, कर्नाटक में पार्टी को बड़ी सफलता मिली। अब शाह की टीम में वे राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बन गए हैं। यह अलग बात है कि येदियुरप्पा की पार्टी मुख्यधारा में वापसी से भाजपा को विपक्ष के तमाम ‘तीरों’ सामना करना पड़ता है। लेकिन, येदियुरप्पा के मामले में भाजपा नेतृत्व विपक्ष की आलोचनाओं की अनदेखी की रणनीति पर ही आगे बढ़ चला है।

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क के जरिए किया जा सकता है।