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Published in JournalYear: Mar, 2019 Article Details
प्राचीन काल से ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन मार्गों का ज्ञान दिया गया है। यह मार्ग है कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग। धर्म और ज्ञान का अनुसरण ही भक्ति मार्ग का प्रतीक है। भक्ति का अस्तित्व भारत में प्राचीन काल से ही है। अपने आराध्य देव के प्रति श्रद्धा एवं आस्था का भाव ही भक्ति कहलाता है। वैदिक काल से ही भक्ति का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है जिसका अर्थ है, भगवान की सेवा करना। भक्ति शब्द का अर्थ है- अनुराग, पूजा, उपासना तथा विभाजन। भक्ति शब्द भज् धातु से बना है जिसका अर्थ है भजना, स्मरण करना या ध्यान करना। श्रद्धा भाव से भगवान की शरण प्राप्त करना, बिना किसी स्वार्थ के भगवान से प्रेम करना और बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण करना ही भक्ति कहलाता है। भारत में भक्ति आंदोलन अत्यधिक प्राचीन है। इसके उद्गम को हम वेदों में देख सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने जिस श्रद्धा और अनुराग के साथ सूर्य, अग्नि, रूद्र, वरुण आदि देवताओं पर ऋचाएं लिखी हैं, वह उनकी भक्ति भावना को ही प्रमाणित करती है। उपनिषद साहित्य में यद्यपि निर्गुण भजन की विवेचना की गई है लेकिन उसमें ज्ञान के साथ है राग तत्व का भी मिश्रण कर दिया गया है। महाभारत तक आते-आते वैष्णव भक्ति का समुचित विकास हो चुका था और विष्णु को भगवान के रूप में प्रतिष्ठा मिल गई थी। श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म का सर्वश्रेष्ठ समन्वय देखा जा सकता है। हिंदी साहित्य में भक्ति काल के उदय के बारे में विचार करने से पहले विद्वानों द्वारा दी गई भक्ति शब्द की परिभाषा पर विचार करना अनिवार्य है जो इस प्रकार है-
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जब धर्म को बिना किसी आडंबर और बुद्धि के सहारे न निभा कर उसमें भावना और हृदय का समावेश कर लिया जाता है तब भक्ति की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार की भक्ति के द्वारा भक्त स्वयं भी आनंदित होता है और दूसरों को भी आनंदित करता है। भक्ति काल का उद्भव और विकासहिंदी साहित्य में भक्तिकाल को साहित्य का स्वर्ण युग कहा गया है। इसकी समय सीमा संवत् 1375 से संवत् 1700 तक स्वीकार की गई है। भक्ति की इस अविरल परंपरा के उद्भव और विकास को लेकर विद्वानों में अनेक मत प्रचलित हैं। किसी भी युग के उद्भव में तत्कालीन परिस्थितियों अत्यधिक महत्व रखती हैं। भक्ति काल के उदय में भी उस समय की सामाजिक व धार्मिक परिस्थितियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूरा देश इस समय विदेशी आक्रमणों से आक्रांत था और विशेष रूप से इस्लाम धर्म का प्रचार व प्रसार जोरों पर था। हिंदू धर्म का ह्रास हो रहा था और लोग धार्मिक कट्टरता के कारण इस्लाम धर्म अपना रहे थे। ऐसे समय में देश में भक्ति आंदोलन का उदय हुआ। भक्ति की लहर दक्षिण भारत से विकसित हुई। इसमें आलवार भक्तों ने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति की इस लहर को रामानंद द्वारा उत्तर भारत में लाया गया। कबीर के शब्दों में, “भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद”। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “भक्ति आंदोलन के उदय एवं विकास का श्रेय दक्षिण की आलवार भक्तों को दिया जाना चाहिए। इनकी संख्या बारह मानी गई है। लेकिन यहां पर यह बता देना भी आवश्यक है कि तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारण भी भक्ति के उद्भव तथा विकास के लिए उत्तरदाई है।इससे भक्ति भावना का आगमन दक्षिण से हुआ है लेकिन भक्ति का प्रवाह वैदिक युग से चला आ रहा था। फिर यहां राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक परिस्थितियों ने इसे बल प्रदान किया।” हिंदी में भक्ति काल का उद्भव कैसे हुआ इस विषय को लेकर तीन प्रकार के मत सामने आते हैं-
इस प्रकार उत्तर भारत में भक्ति के उद्भव एवं विकास को लेकर विद्वानों ने निम्नलिखित मत दिए हैं-
इस प्रकार कहा जा सकता है किसमग्रतः भक्ति आंदोलन का उदय ग्रियर्सन व ताराचंद के लिए बाहय प्रभाव, शुक्ल के लिए बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया तथा द्विवेदी के लिए भारतीय परंपरा का स्वतः स्फूर्त विकास था।भक्ति आन्दोलन मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। सिख धर्म के उद्भव में भक्ति आन्दोलन की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। भक्ति के उद्भव एवं विकास के समय जो कुछ भी भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति तथा इतिहास को प्राप्त हुआ, वह स्वयं में अद्भुत, अनुपम एवं दुर्लभ है। अन्ततः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में कह सकते है, ‘समूचे भारतीय इतिहास में यह अपने तरह का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। भक्ति का यह नया इतिहास मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवद्भक्ति, आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान। निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि भक्ति आंदोलन के संतों ने लोगों के सामने कर्मकांडों से मुक्त जीवन का ऐसा लक्ष्य रखा, जिसमें ब्राह्मणों द्वारा लोगों के शोषण का कोई स्थान नहीं था । भक्ति आंदोलन के कई संतों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया, जिससे इन समुदायों के मध्य सहिष्णुता और सद्भाव की स्थापना हुई। भक्तिकालीन संतों ने क्षेत्रीय भाषों की उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी, पंजाबी, तेलुगू, कन्नड़, बंगला आदि भाषाओं में इन्होंने अपनी भक्तिपरक रचनाएँ कीं। भक्ति आंदोलन के प्रभाव से जाति-बंधन की जटिलता कुछ हद तक समाप्त हुई। फलस्वरूप दलित व निम्न वर्ग के लोगों में भी आत्मसम्मान की भावना जागी। भक्तिकालीन आंदोलन ने कर्मकांड रहित समतामूलक समाज की स्थपाना के लिये आधार तैयार किया। भक्ति आंदोलन से हिन्दू-मुस्लिम सभ्यताओं का संपर्क हुआ और दोनों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। भक्तिमार्गी संतों ने समता का प्रचार किया और सभी धर्मों के लोगों की आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के लिये प्रयास किये। Published by Dr. Sunita SharmaAsst. Professor at Govt Degree College Diggal Himachal Pradesh. View all posts by Dr. Sunita Sharma भक्ति आंदोलन के उदय के क्या कारण थे स्पष्ट करें?भारत में भक्ति आंदोलन के उदय के कारण-
सूफी संतों की उदार एवं सहिष्णुता की भावना तथा एकेश्वरवाद में उनकी प्रबल निष्ठा ने हिन्दुओं को प्रभावित किया; जिस कारण से हिन्दू, इस्लाम के सिद्धांतों के निकट सम्पर्क में आये। हिन्दुओं ने सूफियों की तरह एकेश्वरवाद में विश्वास करते हुए ऊँच-नीच एवं जात-पात का विरोध किया।
भक्ति आंदोलन क्या है भारत में इसकी उत्पत्ति और विकास के कारणों पर प्रकाश डालिए?दिल्ली सुल्तानों ने हिन्दू धर्म के प्रति अत्याचार करना आरंभ कर दिये थे । उन्होंने अनेक मंदिरेां और मुर्तियों को तोड़ने लगे थे । जिससे हिन्दुओं ने अपने धर्म की रक्षा के लिए एकेश्वरवाद को महत्व दिया और धर्म सुधारक ने एक आंदोलन चलाया यही आंदोलन भक्ति आंदोलन के नाम से विख्यात हुआ।
भक्ति आंदोलन का उद्भव कब हुआ?भक्ति आन्दोलन का आरम्भ दक्षिण भारत में आलवारों एवं नायनारों से हुआ जो कालान्तर में (800 ई से 1700 ई के बीच) उत्तर भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में फैल गया। इस हिन्दू क्रांतिकारी अभियान के नेता शंकराचार्य थे जो एक महान विचारक और जाने माने दार्शनिक रहे।
भक्तिकाल का उद्भव कैसे हुआ?सूरदास ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर कृष्ण की प्रेमलीलाओं एवं बाल क्रीड़ाओं को भक्ति के रंग मधुरंग कर प्रस्तुत किया । माधुर्यभाव की इन लीलाओं ने जनता को बहुत रसमग्न किया । इस तरह दो मुख्य सम्प्रदाय सगुण भक्ति के अन्तर्गत अपने पूरे उत्कर्ष पर इस काल में विद्यमान थे – रामभक्ति शाखा; कृष्णभक्ति शाखा ।
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