बच्चों को सीखने की प्रकृति का समाधान बच्चे कैसे सीखते हैं? - bachchon ko seekhane kee prakrti ka samaadhaan bachche kaise seekhate hain?

केवलानन्द काण्डपाल [Hindi,PDF 188 KB]

बच्चों को सीखने की प्रकृति का समाधान बच्चे कैसे सीखते हैं? - bachchon ko seekhane kee prakrti ka samaadhaan bachche kaise seekhate hain?
बच्चे अपने ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। इस क्रम में अध्यापक एक सुगमकर्त्ता के रूप में बच्चों की ज्ञान निर्माण प्रक्रिया में सहभागिता निभाता है जिससे सीखना बच्चों के लिए अर्थपूर्ण बन सके। इस विचार को संरचनावाद (constructivism) के नाम से जाना जाता है। इसके लिए गहन संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है। इसमें सीखने-सिखाने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक होनी चाहिए। एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें बच्चे को अपनी समझ (बहुत बार नासमझी) को अभिव्यक्त करने के अवसर हों, दूसरों की बात सुनने का हुनर व धैर्य हो और सबसे महत्वपूर्ण कि बच्चे को अपनी हँसी उड़ाए जाने का भय न हो। सहमत-असहमत होने की आज़ादी भी हो। प्रस्तुत आलेख कक्षा-कक्ष के अनुभवों को संरचनावाद के आलोक में समझने का प्रयास है।

ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया क्या होगी?
बच्चे अपने ज्ञान की संरचना कैसे करते हैं? अपने आसपास की दुनिया को कैसे समझते हैं? इन सभी प्रक्रियाओं को समझने के लिए हमारे लिए यह जानना ज़रूरी है कि बच्चे ज्ञान निर्माण की इस प्रक्रिया में किस प्रकार शामिल होते हैं। इस प्रक्रिया को समझने से कक्षा में शिक्षण गतिविधियाँ निर्धारित करने में सहायता मिल सकती है।
संज्ञान व्यवस्थित अनुभव का नाम है। प्रत्येक अनुभव संज्ञान में तब्दील नहीं होता है परन्तु संज्ञान के लिए अनुभव अनिवार्य है। बच्चे अपने अनुभवों को सूत्रबद्ध करके सार्थक ज्ञान की रचना कर सकते हैं। इन्द्रियगत अनुभवों की ज्ञान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चों का अनुभव अवधारणाओं के माध्यम से संज्ञान में तब्दील होता है और भाषा के माध्यम से इसे ज्ञान के रूप में संजोया जाता है।
बच्चे अपने ज्ञान की संरचना स्वयं करते हैं, इस पर सैद्धान्तिक समझ के बावजूद मन में एक कौतूहल बना रहता है कि यह कक्षा-कक्ष में किस प्रकार घटित हो सकता है। एक विद्यालय में कक्षा-कक्ष  में  इसे व्यावहारिक रूप से घटित होते देखने  का अवसर मिला।

बच्चों  से  बातचीत  के अवसर

बच्चों को सीखने की प्रकृति का समाधान बच्चे कैसे सीखते हैं? - bachchon ko seekhane kee prakrti ka samaadhaan bachche kaise seekhate hain?
साल 2015 के अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में डी.एल.एड. शिक्षक-प्रशिक्षुओं के एक समूह के साथ डाइट के लैब एरिया विद्यालय रा.प्रा.वि. गाडगाँव  जाना हुआ। विद्यालय पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि विद्यालय प्रबन्ध समिति की बैठक तो एक दिन पहले ही आयोजित की जा चुकी है। बैरंग वापस लौटने की बजाय रणनीति में बदलाव करना उचित लगा। प्रधानाध्यापिका से ज्ञात हुआ कि विद्यालय के दूसरे अध्यापक ड्यूटी सम्बन्धी किसी प्रशिक्षण में बाहर गए हैं अत: विद्यालय एक-ही अध्यापिका द्वारा संचालित हो रहा है, सभी कक्षाएँ एक साथ बैठी थीं। प्रधानाध्यापिका से अनुमति लेकर बच्चों से बातचीत का यह मौका एक तरह से मैंने लपक लिया।
आज मैंने निश्चय कर रखा था कि कक्षा में बच्चे ज्ञान की संरचना किस प्रकार करते हैं -- इसका व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करना है। कक्षा किस दिशा में जाएगी, इसका निश्चय बच्चे करेंगे। मैं केवल मार्गदर्शक यानी सुगमकर्ता की भूमिका में ही रहूँगा अर्थात् कक्षा किस दिशा में बढ़ेगी, इसका ओर-छोर बच्चे सम्हालेंगे, बहुत ज़रूरी होने पर मैं केवल दिशा को नियंत्रित करूँगा।

कक्षा-1 से कक्षा-5 तक के कुल 22 बच्चे कक्षा में मौजूद थे। बच्चों से आपसी परिचय के बाद माहौल थोड़ा  अनौपचारिक हो चला था। मैं कक्षा को पूर्व निर्धारित नहीं करना चाहता था सो बच्चों से ही पूछ लिया कि आज हम क्या करेंगे। बच्चे चहक उठे कि ड्रॉइंग बनाएँगे। मैं गोल घेरे में बच्चों के बीच ही बैठ गया। एक बच्चे ने कॉपी, पेंसिल और रबर मुझे थमाते हुए कहा, “हम आपको बताएँगे कि क्या बनाना है।” “पहले आप बनाएँगे फिर हम अपनी-अपनी कॉपियों में बनाएँगे।” इस तरह से सभी बच्चे मेरे शिक्षक बन गए, और मैं कक्षा का विद्यार्थी।

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बच्चों संग चित्रकारी
मेरे बचपन के ड्रॉइंग के अनुभव बहुत सुखद नहीं रहे हैं बल्कि निचली कक्षाओं में तो कई बार इस विषय में एक तरीके से असफल ही रहा हूँ। खैर, बच्चों का आदेश हुआ कि एक खुश बच्चे का चेहरा बनाऊँ। अत: गोलाकार आकृतियों का सहारा लेकर बनाया। इसके बाद नाराज़ बच्चा, रोता हुआ बच्चा, ऐसा बच्चा जिसकी समझ में कोई बात न आई हो, गुस्से में बच्चा आदि आकृतियाँ भी बनाई गईं। पहले मैंने प्रयास किया, बाद में बच्चों ने मुझसे बेहतर अपनी अभ्यास पुस्तिकाओं में चित्र बनाए, पेड़ बनाए।  उड़ते हुए कौओं के समूह की आकृतियाँ बनाईं। विद्यालय के पास ही चीड़ का पेड़ है सो उसका भी रेखाचित्र बनाया। मैं मन ही मन सोच रहा था कि शायद हम चित्र बनाने में लगे रहेंगे। कक्षा की प्रक्रिया का ओर-छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। संयोग से एक बच्चे ने कहा, “मुझे बिल्ली अच्छी नहीं लगती, कुत्ता अच्छा लगता है।” अब ड्रॉइंग पीछे हो ली, बात चल पड़ी कि कौन-सा जीव अच्छा लगता है, कौन-सा अच्छा नहीं लगता। बस मैंने एक बात और जोड़ दी कि यह भी बताना होगा कि क्यों अच्छा लगता है और क्यों अच्छा नहीं लगता, इसके 2-3 कारण भी बताने होंगे। मन ही मन मैं खुश था कि कक्षा प्रक्रिया का ओर-छोर मेरी पकड़ में आने वाला है और हम अपने परिवेश के जीव-जन्तुओं को जानने-समझने की दिशा में बढ़ रहे हैं, सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। मेरी खुशफहमी कुछ ही देर बनी रही। हमारे ठीक सामने आकाश में एक हेलीकॉप्टर नमूदार हुआ, बातें बदल गईं। अब मुद्दा यह था कि हेलीकॉप्टर हमसे कितनी ऊँचाई पर उड़ रहा है। हमारी कक्षा विद्यालय की छत पर चल रही थी, सो यह होना ही था और एक तरह से ठीक ही हुआ।

अनुमान लगाना
अब कक्षा प्रक्रिया का छोर मुझे स्पष्ट हो गया था कि आज अनुमान लगाने की प्रक्रिया एवं दक्षता पर काम करना है और इस छोर को तो मैं तनिक भी नहीं छोड़ना चाहता था। बच्चे अनुमान लगा रहे थे, बल्कि सही अनुमान तक पहुँचने के लिए एक तरह से बेचैन थे। यद्यपि हेलीकॉप्टर कुछ मिनट तक आकाश में हमारी नज़रों में था परन्तु बच्चों के लिए हेलीकॉप्टर से ज़्यादा उसकी ऊँचाई जानने में रुचि थी। एक बच्चे ने लगभग मुझे फँसाते हुए पूछ लिया, “आप बताएँ कि लगभग कितनी ऊँचाई पर उड़ रहा होगा?” मैं सचेत था, अत: उनके प्रश्न जाल में फँसने वाला नहीं था। मैंने कहा, “अनुमान लगाओ। हम सब मिलकर अनुमान लगाएँ।” एक बच्चे का पहला अनुमान सामने आया कि 2000 कि.मी., दूसरे बच्चे ने टोका, यह तो बहुत ज़्यादा है। फिर अनुमान घटते-घटते 20 कि.मी. तक पहुँचा। बच्चों के उलझन भरे चेहरे से साफ था कि वे इस अनुमान से भी सन्तुष्ट नहीं थे। वे चाहते थे कि अनुमान को वास्तविकता के आसपास ही होना चाहिए। उनका तर्क था कि अनुमान लगाने का भी कोई तरीका होना चाहिए, हम यूँ ही कोई तुक्का नहीं लगा सकते कि अमुक ऊँचाई पर उड़ रहा है। बच्चों की आपसी बातचीत से मामला नहीं सुलझा तो अब बच्चे मुद्दे को लेकर मेरे सामने थे। मेरी भूमिका के लिए यह बहुत ही उपयुक्त अवसर था।

अनुमान लगाने की प्रक्रिया

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अनुमान लगाने की प्रक्रिया की ओर बढ़ते हुए सबसे पहले फर्श पर एक मीटर की दूरी नापकर उसको चॉक से अंकित किया गया। अब प्रत्येक बच्चे ने अपने-अपने कदमों से नापकर देखा। बड़ा बच्चा 4 कदम, छोटा बच्चा 5 कदम या उससे भी ज़्यादा। अब बच्चों के पास अनुमान के अपने-अपने पैमाने थे। एक बच्चे के लिए एक मीटर का अनुमान लगाने के पश्चात् अनुमान लगाना थोड़ा आसान हुआ, अर्थात् 1000 मीटर बराबर उनके 4000 कदम। जिस बच्चे ने हेलीकॉप्टर की ऊँचाई 2000 कि.मी. का अनुमान लगाया था उसने गणना की कि यह तो उसके 80,00,000 कदमों के बराबर हुआ। अब उसे पक्का यकीन हो गया कि इतनी दूरी पर तो हेलीकॉप्टर नहीं ही था। इसी दौरान बच्चों ने तय किया कि अगले दिन वे अपने घर से विद्यालय तक की दूरी का अनुमान लगाएँगे। मेरे पूछने पर कि किस प्रकार तो उनका आत्मविश्वास से भरा उत्तर था, “बिलकुल आसान है, हम अपने घर से विद्यालय तक कितने कदम चले इसे याद रखेंगे और उसको 4 से विभाजित कर देंगे (कुछ बच्चे 5 से भी विभाजित करने की बात कर रहे थे), हमें मीटर में दूरी का अन्दाज़ हो जाएगा। मीटर को किलोमीटर में बदलना तो बिलकुल आसान है।” बच्चे अनुमान लगाने की व्यवस्थित प्रक्रिया की ओर बढ़ रहे थे। परन्तु हेलीकॉप्टर कितनी ऊँचाई पर उड़ रहा था, उसका अनुमान लगाना अभी शेष था। इसके लिए कुछ बातें जानना ज़रूरी था - मसलन हेलीकॉप्टर का आकार क्या होता है, आकाश में हेलीकॉप्टर किस आकार का दिखाई दे रहा था।

यह साफ था कि अब बच्चों की रुचि हेलीकॉप्टर की ऊँचाई की ठीक-ठीक माप पता करने की बजाय अनुमान लगाने की प्रक्रिया में ज़्यादा थी। यह तय हुआ कि हेलीकॉप्टर का आकार विद्यालय में प्रधानाध्यापिका के कक्ष के बराबर होगा। अब हमें करना यह था कि अपने चारों ओर दृष्टि डालकर दूर स्थित एक कमरे को खोजना था जिसका आकार आकाश में उड़ रहे हेलीकॉप्टर के आकार के बराबर हो। कुछ देर की जद्दोजेहद के बाद दूर स्थित 2-3 घरों को बच्चों ने चिन्हित कर लिया। संयोगवश हम विद्यालय की छत पर थे और अपने चारों ओर के परिवेश को बिना किसी बाधा के देख पा रहे थे। अपने स्थान से उन घरों की दूरी का अनुमान लगाना आसान था। बच्चों के अनुमान 2 कि.मी. से 3 कि.मी. के बीच आने लगे (वस्तुत: यह दूरी 1.5 से 2 कि.मी. रही होगी)। बच्चे जिस प्रकार से रचनाशील थे, मैं इस प्रक्रिया में बाधा नहीं बनना चाहता था।

एक बच्चे ने ज़ोर देकर कहा कि हमारे विद्यालय से अमुक स्थान 2 कि.मी. से अधिक नहीं है। उसके गाँव का एक परिवार वहाँ रहता है, वह एक बार वहाँ गया भी है। कुछ बहस के बीच तय हुआ कि यह 2 कि.मी. की दूरी है। इसका मतलब है उक्त हेलीकॉप्टर हमारे ऊपर 2000 मीटर की ऊँचाई पर उड़ रहा होगा। यह अनुमान कितना सही था मैं दावे से नहीं कह सकता बल्कि यह मेरा निश्चित मत है कि अब बच्चे अनुमान लगाने से पहले खोजबीन की प्रक्रिया का ज़रूर पालन करेंगे। बच्चों का मानना था कि जब कोई वस्तु हमारे निकट होती है तो वह बड़े आकार में दिखाई देती है, ज्यों-ज्यों दूर होती जाती है छोटे आकार में दिखाई पड़ती है। यदि वातावरण में धूल, धुँआ, कोहरा न हो तो हम लगभग 1 कि.मी. तक मनुष्य एवं उसकी गतिविधियों को देख सकते हैं। यह सब बच्चों के अपने अनुमान थे। बच्चे अपने घर से विद्यालय, दुकान, पंचायत-घर, पड़ोस, पड़ोस के गाँव की दूरी आदि का अनुमान अपने नन्हे-नन्हे कदमों को गिनकर, उसे मीटर एवं किलोमीटर में बदलकर लगाने का प्रयास करेंगे। धीरे-धीरे जब उनके अनुमान लगाने की प्रक्रियाओं में सुधार होगा तो वे सटीकता के  करीब पहुँचेंगे।

बच्चों को सीखने की प्रकृति का समाधान बच्चे कैसे सीखते हैं? - bachchon ko seekhane kee prakrti ka samaadhaan bachche kaise seekhate hain?
और अन्त में
इस प्रकार बच्चों के बीच लगभग तीन घण्टे काम करने के बाद मुझे तो पूरा विश्वास है कि अनुमान लगाने की प्रक्रिया हेतु अब उनके अपने उपकरण होंेगे, अपनी प्रक्रिया होगी। इसके लिए वे किसी दूसरे पर निर्भर न रहकर, खोजबीन जारी रखेंगे। समग्रता में देखा जाए तो अपने अनुमान लगाने के कौशल के क्रम में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया से ही गुज़र रहे होंगे। मुझे सन्तोष है कि मैंने अपने पूर्व-नियोजित सुगमकर्ता के दायरे में रहकर बच्चों को समाधान के लिए जूझने का अवसर दिया। बहुत ज़रूरी होने पर मात्र दिशा दी। बच्चों को स्वयं अनुमान तक पहुँचने का अवसर दिया। इस प्रक्रिया में इससे अधिक मेरी भूमिका बच्चों की ज्ञान संरचना के क्रम को बाधित ही करती। जब बच्चे अपनी ज्ञान रचना की प्रक्रिया से समुचित रूप से गुज़र रहे हों तो हमारा इसमें दखल देना उस प्रक्रिया को एक तरह से बाधित करता है।
एक जगह गिजू भाई बधेका ने कहा है, “जहाँ हमें कुछ नहीं दिखलाई पड़ता वहाँ बच्चों को चमत्कार दिखलाई पड़ते हैं।” बस, हम बच्चों के साथ इस चमत्कार को खोजने, जानने एवंं समझने की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाएँ तो एक सामान्य कक्षा संरचनावादी कक्षा (contructive classroom) में बदलने लगेगी।


केवलानन्द काण्डपाल: ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, बागेश्वर, उत्तराखण्ड में कार्यरत।
सभी चित्र: किरन जोन: चित्रकला परिषद, बेंगलुरु की छात्रा हैं। मूर्तिकला में स्पेशलाइज़ेशन कर रही हैं। बच्चों के लिए चित्रकारी करने में रुचि।

बच्चों की सीखने की प्रकृति का समाधान बच्चे कैसे सीखते हैं?

सीखने/खेलने की सामग्री पर कहानी और कविता की रचना करना.
बच्चों के पास बोलने वाले खिलौने होना | जैसे- गुड़िया आदि.
बच्चों का विभिन्न प्रकार की सीखने/खेल सामग्री के साथ संलग्न (engage)होना.
बच्चों का सीखने/खेलने की सामग्री खरीदना.

सीखना क्या है और बच्चे कैसे सीखते हैं?

वे जो कुछ भी देखते हैं उसे छूना चाहते हैं। इसी प्रक्रिया के माध्यम से वे सीखते हैं। विभिन्न प्रकार की गतिविधियों और सामग्री के माध्यम से बच्चे वस्तुओं में जोड़-तोड़ मेनुपुलेशन करके, प्रश्न पूछकर, पूर्वानुमान लगाकर भौतिक, सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण के बारे में जागरूक होते हैं

बच्चे बेहतर कब सीखते हैं?

बचपन के पहले आठ साल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, खासकर पहले तीन साल। यह समय भविष्य के स्वास्थ्य, बढ़त और विकास की बुनियाद होती है। दूसरे किसी भी समय के मुकाबले इस दौरान बच्चे तेजी से सीखते हैं

सबसे अधिक सीखना कब होता है?

प्रश्न (22) : सबसे अधिक सीखना कब होता है ?.
जब कक्षा में सभी बच्चे उपस्थित होते हैं.
जब सीखने में सभी इन्द्रियों का उपयोग या भागीदारी हो.
जब बच्चे हँसते हैं.
जब निर्धारित दिनचर्या का पालन होता है.