भारत की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में रहती है। इसलिए ग्रामीण स्तर पर स्वशासन का विशेष महत्व है। लोकतंत्र की वास्तविक सफलता तब है जब शासन के सभी स्तरों पर जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो। भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के समय से ही स्थानीय शासन के महत्व को समझा जाने लगा था। प्रशासन की इकाई जिला स्थापित की गई थी एवं इसकी प्रशासन व्यवस्था जिलाधिकारी के अधीन थी। वर्ष 1882 में लार्ड रिपन के शासन के कार्यकाल में स्थानीय स्तर पर प्रशासन में लोगों को सम्मिलित करने के कुछ प्रयास किए गए एवं जिला बोर्डों की स्थापना की गई। राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा महत्व दिए जाने एवं ब्रिटिश शासन द्वारा लोगों को अपने प्रशासन में सम्मिलित करने के लिए 1930 एवं 1940 में अनेक प्रांतों में पंचायती राज संबंधी कानून बनाए गए। गौरतलब है कि संविधान के प्रथम प्रारूप में पंचायती राज व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं था। गांधी जी के दबाव के परिणामस्वरूप इसे संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 40 में स्थान दिया गया। Show स्थानीय शासन द्वारा स्वशासन की वुवस्था को स्थानीय स्वायत्त शासन कहते हैं। स्थानीय स्वायत्त शासन के दो मूल कारण हैं- पहला, यह व्यवस्था शासन को निचले स्तर तक लोकतांत्रिक बनाती है; दूसरा, स्थानीय लोगों की भागीदारी सक्षम बनती है, साथ ही लोगों को शासन की कला का ज्ञान होता है। स्थानीय स्वशासन में स्थानीय लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वे स्थानीय समस्याओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और उसके समाधान को भी आसानी से ढूंढ सकते हैं। अतः स्थानीय स्व-शासन का तात्पर्य है- स्थानीय लोगों की भागीदारी द्वारा स्थानीय शासन की व्यवस्था सुचारू रूप से करना और उस व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाना, जिससे समस्या का निदान भी हो और लोकतांत्रिक स्वरूप की निचले स्तर तक स्वस्थ व्यवस्था भी स्थापित हो। पहले, स्थानीय स्वायत्त शासन में स्थानीय लोगों की समस्या का समाधान किया जाता है। इसमें स्थानीय संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। दूसरे, स्थानीय संस्थाएं लोगों की राजनितिक समझ को परिपक्व बनाती हैं अर्थात लोग स्वयं अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं और अपने आस-पास हो रही घटनाओं पर ध्यान देते हैं। तीसरे, सत्ता का विकेंद्रीकरण तभी संभव है जब स्थानीय संस्थाएं निचले स्तर तक विद्यमान हों। क्योंकि केंद्र या राज्य सरकार के लिए सुदूर गांव की समस्या का तत्काल हल निकालना संभव नहीं होता है। अतः स्थानीय समस्या का निदान वहीं के लोगों द्वारा सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। चौथे एवं सबसे महत्वपूर्ण तथ्य कि, यदि स्थानीय संस्थाएं लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित हैं तो स्थानीय लोगों में राजनीतिक चेतना तथा समझ का विकास देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप को मजबूत बनाता है। संवैधानिक प्रयास ब्रिटिश शासन के समय से ही पंचायतें स्थानीय शासन के रूप में कार्य करती रही हैं। परंतु यह कार्य सरकारी नियंत्रण में होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं द्वारा स्थानीय स्वशासन का कार्य किया जाता था। स्वतंत्र भारत में इस पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 ने इसकी पुष्टि इस प्रकार से की है- राज्य, ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनकी ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो। परंतु इस प्रयास में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के लोकतांत्रिक स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया गया। इन कमियों को राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में उजागर किया गया और पुनं: इनके संवैधानिक समाधान के लिए प्रयास किया गया। भारतीय संसद द्वारा पंचायतों तथा नगरपालिकाओं के लिए ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारतीय संविधान में 73वां तथा 74वां संशोधन 1992 में किया गया। संविधान का 73वां संशोधन अधिनियम 25 अप्रैल, 1993 से तथा 74वां संशोधन अधिनियम 1 जून, 1993 से लागू हो गया है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज तथा नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया है। पंचायती राज भारत गांवों का देश है। गांवों की उन्नति और प्रगति पर ही भारत की उन्नति एवं प्रगति निर्भर करती है। महात्मा गांधी के अनुसार, यदि गांव नष्ट होते हैं तो भारत नष्ट हो जाएगा। भारत के संविधान निर्माता भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे, अतः देश के विकास एवं उन्नति को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण शासन व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया। संविधान के अनुच्छेद-40 के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था को राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अंतर्गत रखा गया है। वस्तुतः भारतीय लोकतंत्र इस आधारभूत अवधारणा पर आधारित है कि शासन के प्रत्येक स्तर पर जनता अधिक-से-अधिक शासन सम्बन्धी कार्यों में हाथ बंटाए तथा स्वयं पर राज्य करने का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करे। पंचायतें भारत के राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ हैं। देश के राजनीतिक भविष्य एवं भावी राजनीतिक चाल का निर्धारण संघीय व्यवस्था में बैठे बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ की अपेक्षा, विभिन्न राज्यों के ग्रामीण अंचलों में विद्यमान पंचायती राज संस्थाएं ही करती हैं। बलवंत राय मेहता समिति भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का आरम्भ 1952 में हुआ था। फलस्वरूप, आम जनता इस कार्यक्रम से प्रत्यक्ष रूप में जुड़ नहीं पाई। इसी समस्या के निदान के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति गठित की गई और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1958 में प्रस्तुत की। इस समिति ने लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित त्रिस्तरीय स्वरूप वाली पंचायती राज व्यवस्था की वकालत की। उन्होंने सुझाव दिया कि त्रिस्तरीय व्यवस्था इस प्रकार होगी- ग्राम पंचायत गांव स्तर पर, पंचायत समिति प्रखंड स्तर पर और जिला परिषद जिला स्तर पर। दूसरे शब्दों में, परिवारों के समूह पंचायत, पंचायतों के समूह प्रखड तथा प्रखंडों के समूह जिला परिषद की स्थापना करते हैं। अंततः राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को 12 जनवरी, 1958 को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। इस समिति ने, सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर दिया जिससे स्थानीय शासन में निचले स्तर के लोगों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और जिसका परिणाम सामुदायिक विकास की सफलता होगी। समिति ने राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी जोर दिया और वित्तीय संकट, जो स्थानीय संस्थाओं को स्थायी संकट में डाले रहता है, का निवारण राज्य द्वारा ही संभव है। बलवंत राय मेहता समिति की प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश में प्रयोग के विचार से अगस्त, 1958 में कुछ भागों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को लागू किया गया। इसकी सफलता के फलस्वरूप 2 अक्टूबर, 1959 को स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले में प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण की योजना का सर्वप्रथम औपचारिक शुभारंभ किया। उसके बाद अन्य राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। परंतु इस प्रयास को भी उतनी सफलता नहीं मिली जितनी आशा की गई थी। इसके कारण हैं- पंचायती राज संस्थाओं में धन की कमी होना, जिसके लिए वह पूरी तरह राज्य सरकारों पर निर्भर थी। इस संकट ने पूरे प्रयास को असफल बना दिया। दूसरा कारण यह था कि पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों के बीच कार्यों को लेकर बड़ी भिन्नता था और एक-दूसरे को दोषारोपण करना आम बात बन गई। अतः इससे भी पूरी धारणा को आघात पहुंचा। संस्थाओं के वरिष्ठ तथा कनिष्ठ व्यक्तियों के बीच भी आंतरिक मतभेद बने रहते थे। तीसरा महत्वपूर्ण कारण था कि समाज के उच्च वर्ग, यथा- जमींदारों, उच्च जाति के लोगों तथा समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के कब्जे में आकर पंचायती राज व्यवस्था मृतप्राय हो गई। परिणाम यह हुआ कि आम जनता ने ऐसी संस्थाओं से अपना मुंह मोड़ लिया और पूरी व्यवस्था की सफलता संदिग्ध स्थिति में आ गई। चौथा कारण था कि गांवों में निरक्षरों की भरमार तथा राजनीतिक चेतना के अभाव ने भी इन संस्थाओं के स्वस्थ कार्यकलाप पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। विभिन्न राज्यों में पंचायती संस्थानों के नाम
अशोक मेहता समिति उपरोक्त प्रयासों की असफलता के बाद पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करने एवं पंचायती राज को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति गठित की गई। इस समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। इस समिति ने पंचायती राज को द्विस्तरीय बनाने का सुझाव दिया- पहला, निचले स्तर पर-मंडल पंचायत, तथा; दूसरा, जिला-स्तर पर-जिला परिषद। परंतु, अशोक मेहता समिति की सिफारिशों को देश की राजनीतिक अस्थिरता के कारण लागू नहीं किया जा सका। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में 1986 में एक समिति का गठन किया । इसका उद्देश्य पंचायती राज व्यवस्था की जांच करना था। इस समिति ने ग्राम सभा को पुनर्जीवित करने तथा पंचायती राज के नियमित चुनाव कराने पर बल दिया। इस समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने की भी सिफारिश की। पंचायती राज की नई प्रणाली संविधान के अनुच्छेद 40 के रूप में एक निदेश समाविष्ट किया गया- राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनकी ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो। लेकिन अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतंत्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएं। इस दृष्टि से पंचायत को अधिक सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। संविधान में नया अध्याय 9 जोड़ा गया है। अध्याय 9 द्वारा संविधान में 16 अनुच्छेद और एक अनुसूची-ग्यारहवीं अनुसूची, जोड़ी गयी है। 25 अप्रैल, 1993 से 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 लागू किया गया है। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं- [table id=196 /] तीन सोपान प्रणाली संविधान के भाग 9 के अंतर्गत अनुच्छेद-243(ख) के द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। प्रत्येक राज्य में ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं जिला स्तर पर (क्रमशः ग्राम पंचायत, पंचायत समिति एवं जिला परिषद) पंचायती राज संस्थाओं का गठन किया जाएगा; किंतु, 20 लाख से कम जनसंख्या वाले राज्यों में मध्यवर्ती स्तर पर पंचायतों का गठन करना आवश्यक नहीं होगा। 1. ग्राम पंचायत: पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत होती है, जिसका चुनाव ग्राम सभा द्वारा किया जाता है। ग्राम सभा में एक गांव अथवा छोटे-छोटे कई गांवों के समस्त वयस्क नागरिक (18 वर्ष से ऊपर के) सम्मिलित होते हैं, जो कि एकत्रित होकर अथवा ग्राम सभा का क्षेत्र अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में विभक्त होने की स्थिति में अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित तिथि को मतदान करते हैं। ग्राम सभा द्वारा वार्षिक बजट पर विचार किया जाता है तथा यह निर्धारित किया जाता है कि आगामी वर्ष में खेती की उपज का क्या लक्ष्य रखा जाए? पंचायत के सभी सदस्यों एवं सरपंच का चुनाव ग्राम सभा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। 2. पंचायत समिति: पंचायती राज व्यवस्था में मध्य के अर्थात् प्रखण्ड स्तर पर पंचायत समिति होती है। पंचायत समिति का संगठन सभी राज्यों में एक समान नहीं है। इसके सदस्यों में सम्मिलित हैं- विधानसभा के सदस्य; लोकसभा के सदस्य; प्रखण्डों के समस्त प्रधानों, सहकारी समितियों एवं छोटी नगरपालिकाओं तथा अधुसुचित क्षेत्रों के प्रतिनिधि; प्रखण्ड से निर्वाचित अथवा प्रखण्ड में निवास करने वाले विधानपरिषद एवं राज्यसभा के सदस्य; प्रखण्ड से निर्वाचित जिला परिषद के समस्त सदस्य; विकास एवं आयोजन में रुचि रखने वाले दो सहयोजित सदस्य तथा महिलाओं एवं अनुसूचित जातियों के कुछ सहयोजित प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं। विकास अधिकारी इसका सचिव होता है। इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है तथा इसकी सहायतार्थ उप-प्रधान भी चुने जाते हैं। इस सम्पूर्ण योजना में पंचायत समिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था है। प्रखंड की समस्त ग्राम पंचातयों के मध्य सामंजस्य रखना एवं समस्त विकास कार्यों को चलाना इसी का कार्य है। ऊपर से प्राप्त होने वाले अनुदान का ग्राम पंचायतों के मध्य विभाजन पंचायत समिति द्वारा ही किया जाता है। 3. जिला परिषद: पंचायती राज व्यवस्था के पदसोपान क्रम में जिला परिषद शीर्षस्थ संस्था है। इसका संगठन भी पंचायत समिति के नमूने पर ही किया गया है। इसके सदस्यों का निर्वाचन भी जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। इसके अतिरिक्त जिले के समस्त विधायक, संसद सदस्य, राज्य विधानपरिषद के सदस्य एवं कुछ महिलाएं तथा अनुसूचित जातियों के सहयोजित सदस्य भी जिला परिषद के सदस्य होते हैं। प्रत्येक जिला परिषद में एक निर्वाचित अध्यक्ष होता है, जिसे जिला प्रमुख कहा जाता है। इसके अतिरिक्त एक उपाध्यक्ष भी होता है, जिसे उप-जिला प्रमुख कहते हैं। विभिन्न राज्यों में स्थानीय एवं आवश्यकता के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं के संगठन एवं कार्यों में अंतर होते हुए भी निम्नलिखित 5 सिद्धांत समान रूप से स्वीकृत किए गए हैं-
पंचायतों की संरचना राज्य विधानमंडल को विधि द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई है, परन्तु किसी भी स्तर पर पंचायत के प्रादेशिक क्षेत्र की जनसँख्या और ऐसी पंचायत में निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त राज्य में यथासंभव एक ही होगा। पंचायतों के सभी स्थान पंचायत राज्य क्षेत्र के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने गए व्यक्तियों से भरे जाएंगे। इस प्रयोजन के लिए प्रत्येक पंचायत क्षेत्र को ऐसी रीति से निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जायेगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या और उसको आवंटित स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त पंचायत क्षेत्र में यथासाध्य एक ही हो। प्रत्येक पंचायत का अध्यक्ष राज्य द्वारा पारित विधि के अनुसार निर्वाचित होगा। इस विधि में यह बताया जाएगा कि ग्राम पंचायत और अंतर्वर्ती पंचायत के अध्यक्षों का जिला पंचायत में प्रतिनिधित्व किस प्रकार का होगा। इस विधि में संघ और राज्य के विधानमण्डलों के सदस्यों के सम्मिलित होने के बारे में उपबंध होगा। किंतु, यह ग्राम स्तर से ऊपर के लिए ही होगा। आरक्षण अनुच्छेद 243(घ) के अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा। उदाहरण के लिए यदि अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 30 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों की 21 प्रतिशत है तो उनके लिए क्रमशः 30 प्रतिशत और 21 प्रतिशत स्थान आरक्षित होंगे। इस प्रकार आरक्षित स्थानों में से 1/3 स्थान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। राज्य विधि द्वारा ग्राम और अन्य स्तरों पर पंचायत के अध्यक्ष के पदों के लिए आरक्षण कर सकेगा। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए किए गए आरक्षण तब तक प्रवृत्त रहेंगे जब तक अनुच्छेद 334 में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त नहीं हो जाती। राज्य विधि द्वारा किसी भी स्तर की पंचायत में नागरिकों के पिछड़े वर्गों के पक्ष में स्थानों का आरक्षण कर सकेगा। अवधि पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष होगा। किसी पंचायत के गठन के लिए निर्वाचन 5 वर्ष की अवधि के पूर्व और विघटन की तिथि से 6 माह की अवधि के अवसान से पूर्व करा लिया जायेगा। सदस्यता के लिए अर्हता अनुच्छेद 248 (च) में यह उपबंध है कि वे सभी व्यक्ति जो राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचित होने की अर्हता रखते हैं, पंचायत का सदस्य होने के लिए अर्ह होंगे। केवल एक अंतर है 21 वर्ष की आयु का व्यक्ति भी सदस्य बनने के लिए अर्ह होगा। यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कोई सदस्य निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो यह प्रश्न ऐसे प्राधिकारी को विनिर्दिष्ट किया जाएगा जो राज्य विधानमण्डल विधि द्वारा उपबंधित करे। वित्त आयोग राज्य का राज्यपाल 73वें संशोधन प्रारम्भ से एक वर्ष के भीतर और उसके बाद प्रत्येक 5 वर्ष के अवसान पर पंचायतों की वित्तीय स्थिति का पुनर्निरीक्षण करने के लिए एक वित्त आयोग का गठन करेगा। वित्त आयोग निम्नलिखित विषय में राज्यपाल की अपनी सिफारिश करेगाः
राज्य निर्वाचन आयोग अनुच्छेद 243ट में पंचायतों के लिए राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का उपबंध है जिसमे एक राज्य निर्वाचन आयुक्त होगा, जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा। निर्वाचक नामावली तैयार कराने का और पंचायतों के निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण निदेशन और नियंत्रण इस राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होगा। आयोग स्वतंत्र बना रहे यह सुनिश्चित आधारों पर और उसी प्रक्रिया से हटाया जा सकता है जिस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जा सकता है। न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन अनुच्छेद 329 में यह कहा गया है कि निर्वाचन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर न्यायालय उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार न्यायालयों को इस बात की अधिकारिता नहीं होगी कि वे अनुच्छेद 243ट के अधीन निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या स्थानों के आवंटन से संबंधित किसी विधि की वैधानिकता की परीक्षा करें। पंचायत का निर्वाचन, निर्वाचन-अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जा सकेगा जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की जाएगी जो राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किया जाए। पंचायती राज व्यवस्था की कार्य प्रणाली इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी है, जिसमें पंचायती राज संस्थाओं से संबंधित 29 विषय रखे गये हैं। इन 29 विषयों में सम्मिलित हैं:
जिला परिषद स्तर पर ग्रामीण स्वायत्त शासन की सर्वोच्च इकाई होने के कारण जिला परिषद का मुख्य कार्य समन्वयकर्ता एवं परामर्शदाता निकाय का है। साथ ही उससे यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह राज्य सरकार अथवा निम्नस्तरीय पंचायतों के मध्य की कड़ी भूमिका का निर्वहन करेगी। यदि प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य किया जाए तो जिला परिषद पंचायती राज संस्थाओं की व्यवस्था पर स्वस्थ्य प्रभाव डालकर वांछित परिवर्तन ला सकती है। पंचायत समिति स्तर पर पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत पंचायत समिति वह धुरी है, जिसके चारों ओर पंचायती राज की समस्त प्रवृत्तियां केन्द्रित हैं। जिला परिषद् केवल एक परामर्शदात्री एवं पर्यवेक्षी संस्था है। कार्यपालिका के समस्त वास्तविक अधिकार एवं कर्तव्य पंचायत समितियों में ही निहित हैं। पंचायत समितियों द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्यों में प्रमुख हैं-
पंचायत समितियों के उल्लिखित कार्यों पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि विकास सम्बन्धी कार्यों एवं योजनाओं की प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने का उत्तरदायित्व पंचायत समितियों का ही होता है। अपने कार्यों को अच्छे ढंग से चलाने हेतु पंचायत समितियों द्वारा अनेक स्थायी समितियों की स्थापना की जाती है, जिन्हें पंचायत समितियां अपने अधिकार उनके कार्यों के अनुसार सौंप देती हैं। अतः स्थायी समितियों के निर्णय पंचायत समिति के निर्णय माने जाते हैं किन्तु अंतिम अधिकार एवं उत्तरदायित्व पंचायत समितियों के ही होते हैं। ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम पंचायतें पंचायती राज व्यवस्था की आधारशिलाएं हैं। पंचायती राज व्यवस्था की सफलता एवं उसकी प्रभावपूर्ण क्रियान्विति पंचायतों की सुदृढ़ता एवं शक्ति पर ही निर्भर करती है। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के अंतर्गत पंचायतों की महत्वपूर्ण स्थिति को स्वीकृति प्रदान की गई है। ग्राम पंचायतों द्वारा विविध एवं बहुमुखी कार्यों को सम्पन्न किया जाता है, जिनमें से प्रमुख कार्य हैं
देश के कई राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन कराये जाते हैं। केंद्र सरकार भी इस दिशा में राज्यों को पूर्ण सहयोग प्रदान कर रही है। इसके द्वारा राज्यों के उन अधिकारियों एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षित भी किया जाता है, जो इस कार्य से जुड़े हुये हैं। इस प्रशिक्षण का उद्देश्य पंचायती राज व्यवस्था के संबंध में आये नये उत्तरदायित्वों के संबंध में सरकारी अमले को प्रशिक्षित करना है। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के पंचायत मंत्रियों की एक राष्ट्रीय समिति भी गठित की गयी है। यह समिति पंचायती राज व्यवस्था के संबंध में बनाये गये संवैधानिक प्रावधानों के क्रियान्वयन की समीक्षा करती है तथा इस संबंध में राज्यों की दिशा-निर्देश एवं परामर्श भी प्रदान करती है। केवल केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि पंचायती राज के संबंध में वह राज्यों द्वारा की गयी किसी भी गलती या उदासीनता के प्रति चेतावनी दे सकती है। देश में इसके अतिरिक्त कोई अन्य ऐसी संस्था या संगठन नहीं है, जो इस संबंध में राज्यों की चेतावनी या निर्देश दे सके। राज्यों की विधायिकाओं को यह अधिकार है कि वे पंचायतों के चुनावों से संबंधित सभी मुद्दों को परिवर्तित कर सकती है या उन पर नियम-कानून बना सकती हैं। जिला योजना समितियां पंचायतों एवं नगरपालिकाओं दोनों के संबंध में योजनाओं का निर्माण करती है तथा इन संस्थाओं एवं राज्यों के मध्य समन्वय स्थापित करती हैं। इस समिति के सदस्य जिला स्तर की पंचायत एवं नगरपालिकाओं से चुने जाते हैं। 73वां संविधान संशोधन का कतिपय क्षेत्रों को लागू न होना
पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) भारतीय संविधान का अनुच्छेद 244(1) और 244(2) सरकार को अनुसूचित और जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन हेतु पृथक् विधान लागू करने की शक्ति प्रदान करता है। इन अनुच्छेदों के क्रियान्वयन में, भारत का राष्ट्रपति देश के प्रत्येक राज्य को जनजाति बहुल क्षेत्रों की पहचान करने को कहता है। राज्यों द्वारा चिन्हित किए गए इस प्रकार के क्षेत्रों को पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र घोषित किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों को विशेष अधिकार शासन तथा जनजाति समुदाय के अधिकारों की रक्षा हेतु विनियम बनाने की शक्ति प्राप्त होती है। जब 73वां संविधान संशोधन किया गया जिससे संविधान में अनुच्छेद 243 जोड़ा गया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में विकेन्द्रीकृत शासन प्रभाव में लाना था। कई राज्यों, जिनमें महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र (उदाहरणार्थ मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश) पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आते हैं, इस अधिनियम के सभी प्रावधानों के क्रियान्वयन को विस्तारित किया गया। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई और न्यायालय ने तुरंत इस मामले में हस्तक्षेप किया और संसद को निर्देश दिया कि अनुसूची V में आने वाले क्षेत्रों के स्थानीय शासन के लिए विशेष कदम उठाए जाएं। उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के प्रत्युत्तर में संसद ने देश के पांचवीं अनुसूची में आने वाले क्षेत्रों तक पंचायती राज के लागू किए जाने के संबंध में अनुशंसा प्राप्त करने के लिए मध्य प्रदेश के जनजाति क्षेत्र से सांसद दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में सांसदों एवं विशेषज्ञों की एक विशेष समिति गठित की। भूरिया कमेटी की अनुशंसाओं के आधार पर, संसद ने वर्ष 1996 में, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पंचायत हेतु 73वें संविधान संशोधन अधिनियम में अनुलग्नक के तौर पर एक विशेष प्रावधान का उल्लेख करने के लिए पृथक् कानून पारित किया। मध्य प्रदेश जैसे राज्यों ने, जिसने वर्ष 2000 में चुनाव आयोजित किए, पंचायत विस्तारित अधिनियम के विशेष प्रावधानों के कार्यान्वयन सुनिश्चित किया। इस विस्तारित अधिनियम ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की विशेष शक्तियां प्रदान की, जो कि सामान्य क्षेत्रों में ग्राम सभा को दी गई शक्तियों से भिन्न है। उदाहरणार्थ, मध्य प्रदेश में पंचायत संबंधी राज्य अधिनियम प्रावधान करता है कि ग्राम सभा का गैर-निर्वाचित जनजाति सदस्य ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता करेगा। अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत और साथ ही शासन को प्रदान की गई शक्तियां निम्न हैं-
इस अधिनियम ने संविधान के पंचायत संबंधी भाग IX के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित किया। संसद द्वारा इसे भारतीय गणतंत्र के 47वें वर्ष में लागू किया गया, जो इस प्रकार है-
उपबंध किया गया है की अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण कुल सीटों का आधे से कम नहीं होगा; आगे उपबंध किया गया है कि सभी स्तरों पर पंचायत अध्यक्ष की सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित रहेंगी;
∎ संविधान के भाग IX में किसी बात के होते हुए भी, अनुसूचित क्षेत्रों से सम्बद्ध पंचायतों के बारे में इस अधिनियम द्वारा बनाया गया कोई प्रावधान, कोई नियम, अपवाद एवं संशोधन इस अधिनियम के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने से भाग IX के प्रावधानों के साथ असंगत होने पर भी जारी रहेंगे जब तक कि इन्हें सक्षम विधानमण्डल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा निरसित न किया जाए या राष्ट्रपति से इस अधिनियम को प्राप्त स्वीकृति को एक वर्ष न हो गया हो; उपबंध किया गया है कि इस दिन से (अधिनियम की स्वीकृति की तारीख) पूर्व मौजूद पंचायतें अपने नियत कल समाप्त होने तक बनी रहेंगी जब तक कि यथाशीघ्र राज्य का विधानमण्डल इनके विघटन का प्रस्ताव पारित न कर दे, जिन राज्यों में विधान परिषद् है, वहां राज्य की विधानमंडल के प्रत्येक सदन द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया हो। वन अधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वनाधिकारों को मान्यता) अधिनियम, 2006, दिसम्बर 2007 से प्रभावी हो गया। इस कानून का महत्व इस संदर्भ में है कि यह वन अधिकारों की पहचान और इस बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा के प्रबंधन में पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत सबसे निचले स्तर की जनतांत्रिक संस्था, ग्रामसभा को प्रमुख भूमिका प्रदान करता है। इसमें गांव के सभी वयस्क नागरिक शामिल हो सकते हैं और महिलाओं की समग्र और अबाधित भागीदारी सुनिश्चित की गई है। इस कानून का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि कानून में ग्राम सभा को केंद्र बिंदु बनाया गया है। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र का विस्तार) कानून, (पीईएसए), 1996 ग्राम सभा और ग्राम पंचायतों को महत्व देने का पहला कदम था। पीईएसए कानून का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पंचायतें एक स्वशासी संस्थान की तरह काम करें और उन्हें धारा (एम) (1 से 7) जो अधिकार दिए गए हैं वे बेहद व्यापक हैं। वर्ष 2006 के वन अधिकार कानून ने पीईएसए को लागू करने के लिए अब मजबूत आधार और सकारात्मक माहौल तैयार किया है क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभा की स्थानीय सरकार की इकाई के रूप में मान्यता देता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वन अधिकार कानून 2006 में ग्राम सभा को बराबर के महत्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कानून के प्रावधानों के क्रियान्वयन से पूर्व इस पर गौर करना जरूरी है कि पंचायतों का गठन न केवल कानूनी ढंग से हो बल्कि वे मजबूत हों और स्थानीय सरकारी संस्थानों की भांति काम करें। संबद्ध राज्य स्तर पर राजनीतिक इच्छा शक्ति आवश्यक है। वन अधिकार अधिनियम के महत्वपूर्णं बिंदु-
पंचायती राज मंत्रालय द्वारा उठाए गए कदम पंचायती राज मंत्रालय ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) के क्रियान्वयन के संबंध में निम्न कार्य किए हैं-
दिसम्बर, 2006 में केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय ने पंचायत की दशा शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में पंचायती राज व्यवस्था की अब तक की स्थिति को उद्घाटित किया गया है। इसने 73वेंसंविधान संशोधन में उल्लिखित प्रावधानों और वास्तव में मौजूद जमीनी हकीकत के बीच भारी अंतर को दिखाया। इस रिपोर्ट के अनुसार, पंचायती राज के प्रभावी कार्यान्वयन में सबसे बड़ी बाधा एवं चुनौती वित्त की कमी रही है। पंचायती चुनावों में जन सहभागिता तात्विक रही है और कुछ समय तो यह संसदीय चुनावों से भी अधिक रही है। पंचायती चुनावों की निगरानी एवं पर्यवेक्षण राज्य निर्वाचन आयोग करता है तथा राज्य_ स्तर में इसमें विभिन्नता एवं उतार-चढ़ाव दृष्टिगत होते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि चुनाव संबंधी सभी जिम्मेदारियां जैसे- निर्वाचक नामावली तैयार करना, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन, उम्मीदवारों का आरक्षण एवं पुनर्चक्रण तथा चुनाव संबंधी आचारसंहिता, पूरी तरह से राज्य निर्वाचन आयोग में निहित हैं। इसमें बताया गया है कि सामान्य निर्वाचक नामावली तथा इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के प्रयोग ने भयमुक्त एवं निष्पक्ष पंचायत चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रिपोर्ट में, राज्य योजना के लिए केंद्र द्वारा जारी या अतिरिक्त केंद्रीय सहायता के रूप में वित्त पोषण की समीक्षा करने की अनुशंसा की गई है। साथ ही वित्त पोषण की संरचना एवं प्रक्रिया के सरलीकरण की बात भी कही गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि पंचायत में राजस्व सुधार इस बात पर निर्भर करेगा कि वे कितनी सफलतापूर्वक राजस्व वृद्धि हेतु करारोपण कर सकते हैं। दूसरी ओर लोगों का करों के भुगतान के लिए इच्छुक होना पंचायत का लोगों के मध्य लोकप्रियता एवं विश्वास को जाहिर करेगा। इस बात की भी बल दिया गया है कि राज्य वित्त आयोग का संवैधानिक प्रावधान किया जाना चाहिए जिससे पंचायत स्तर पर धन की उपलब्धता निश्चित रूप से बढ़ेगी। प्रतिवेदन मेंजाति-आधारित पंचायत या खाप पंचायत को पंचायती राज व्यवस्था का विकृत रूप बताया गया है। खाप पंचायतों को अवैध एवं संभवतः गैर-क़ानूनी ऐसे निकाय बताया है जो सामाजिक बुराइयों एवं दोषों पर अत्याधिक अनुक्रियात्मक तरीके से अव्यवस्था को जन्म दे रहे हैं। इस प्रकार इन पंचायतों को संविधान में उल्लिखित पंचायत के समान वैधता प्राप्त नहीं है। इन पंचायतों को संविधान की भावना एवं प्रावधान के अंतर्गत बनायीं गयी पंचायतों से अलग कर लिया जाना चाहिए तथा इनके गैर-कानूनी तरीकों से सामाजिक विषयों के निपटारे पर रोक लगाई जानी चाहिए। पंचायती राज में महिलाओं की स्थिति
पंचायती राज का सिंहावलोकन लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने की दृष्टि से पंचायती राज संस्थाओं को भारतीय संविधान में स्वशासन की इकाई की अवधारणा का उल्लेख एक सही कदम है, किंतु ध्यान देने की बात है कि यह इकाई राजनीतिक के साथ-साथ आर्थिक इकाई भी है। इस संदर्भ में ग्राम सभा को एक कृषि औद्योगिक समुदाय की संज्ञा दी जा सकती है। जी.वी.के. राव समिति की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि विकास कायों में गांव के लोगों का स्वैच्छिक सहयोग स्वावलम्बन की दिशा में पहला कदम होगा। राज्यों के पंचायत अधिनियमों में ऐसा प्रावधान है कि ग्राम सभा की इस जिम्मेदारी को निभाना है कि ग्रामीण विकास के किसी कार्यक्रम में श्रमदान हेतु लोगों को प्रेरित किया जाए। निःसंदेह इसके लिए पंचायती राज संस्थाओं के स्तर पर एक गतिशील नेतृत्व की आवश्यकता होगी। सभी राज्यों के पंचायती राज संस्थाओं की कार्यकारिणी में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। कुछ राज्यों (बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड) में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान लागू है। ग्राम सभा की बैठकों में पुरुषों की तुलना में आम महिलाओं की भागीदारी बेहद कम होती है। यह असमानता महिला सशक्तीकरण की दृष्टि से एक गलत संदेश देती है। आज महिलाओं द्वारा गठित स्वयं सहायता समूहों का व्यापक स्तर पर विकास हुआ है। किंतु यह अब तक साफ जाहिर नहीं होता है की पंचायती रह संस्थाओं से इन समूहों का सम्बन्ध बन पाया है या नहीं। यदि ग्राम सभा के स्तर पर इन समूहों की महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए तो ग्राम सभा में आम महिलाओं की भी भागीदारी बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त आम महिलाओं को स्वयं सहायता समूह बनाने की प्रेरणा मिलेगी और यह महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से एक सराहनीय कदम होगा। यह खेदजनक है कि अधिकतर ग्राम पंचायत क्षेत्रों में इनका कोई पंचायत भवन नहीं है जहां इन संस्थाओं की बैठक हो सके। हर ग्राम पंचायत में कार्यालय और एक बड़े सभा कक्ष की आवश्यकता होगी। किंतु इनके निर्माण हेतु कितनी भूमि की आवश्यकता होगी, यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग के संदर्भ में स्थानीय स्वशासन: आयोग के अनुसार स्थानीय स्वशासन निकाय अपने स्तर पर एक सरकार है और इस नाते वह देश की मौजूदा शासन प्रणाली का अभिन्न अंग है, इसलिए निर्दिष्ट कार्यों के निष्पादन के लिए इन निकायों को देश के मौजूदा प्रशासनिक ढांचे की प्रतिस्थापित करते हुए सामने आना चाहिए। इस आधार पर जब तक स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के लिए कोई स्वायत्त जगह निर्मित नहीं की जाती तब तक स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में कोई खास सुधार कर पाना संभव नहीं होगा। जबकि स्थानीय स्तर पर जिला प्रशासन के साथ-साथ राज्य सरकार की कुछ संस्थापनाओं के प्रतिधारण के औचित्य पर कुछ सवाल उठ सकते हैं उनके कार्यों एवं उत्तरदायित्व उन क्षेत्रों में आ सकते हैं जोकि स्थानीय निकायों के अधिकार क्षेत्र से बाहर हों। जहां तक इन्हें सांपे गए कार्यों का प्रश्न है स्थानीय शासन संस्थाओं को स्वायत्तता होनी चाहिए और इन्हें राज्य सरकार की नौकरशाही के नियंत्रण से पूरी तरह से मुक्त होना चाहिए। आयोग ने कहा है-
इन सभी को एक साथ देखना होगा।
ग्राम सभा की महत्ता को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर विचार करना होगा कि गांव के आमजन की भागीदारी ग्राम सभा के स्तर पर कैसे बढ़ाई जाए जिससे कार्यों में पारदर्शिता आए। पारदर्शिता से पंचायती राज संस्थाओं के चुने हुए पदाधिकारियों में जवाबदेही की भावना बढ़ेगी। इस संदर्भ में इसका उल्लेख किया जा सकता है कि 1968 में सामुदायिक विकास एवं सहकारिता मंत्रालय ने आर.आर. दिवाकर की अध्यक्षता में एक अध्ययन दल गठित किया था जिसकी रिपोर्ट पर उस समय चर्चा हुई थी। किंतु अब तो शायद उस रिपोर्ट की स्मृति मात्र भी शेष नहीं है। उस रिपोर्ट के साथ-साथ उस नए परिवेश एवं कार्यों की दृष्टि में रखते हुए ग्राम सभा की भूमिका की समीक्षा पुनः की जा सकती है। आज हर कार्यक्रम के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही की बात होती है, किंतु इसमें ग्राम सभा की भूमिका की चर्चा सही ढंग से नहीं होती है। केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना) जैसे कार्यक्रम में पंचायती राज संस्थाओं का सक्रिय सहयोग लिया जाता है। गौरतलब है कि मनरेगा की परियोजनाओं के क्रियाकलाप की देख-रेख में ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभा की अहम भूमिका पंचायती राज प्रणाली में जनसहभागिता का द्योतक है। मनरेगा की धारा 13 से 17 के बीच पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसके तहत् नरेगा का 50 प्रतिशत धन पंचायती राज संस्थाओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से व्यय किया जाएगा। ग्राम सभा ग्राम पंचायत की विशेषीकृत परियोजनाओं की सलाह दे सकेगा। इसी अधिनियम की धारा-19 कहती है कि राज्य सरकार, योजना के क्रियान्वयन के क्रम में किसी व्यक्ति द्वारा की गई किसी शिकायत के निस्तारण के लिए, नियमों द्वारा खंड एवं जिला स्तर पर समुचित तंत्र निश्चित करेगी और ऐसी शिकायत के निस्तारण के लिए प्रक्रिया निर्धारित करेगी। केन्द्रीय पंचायत राज मंत्रालय ने पंचायती राज संस्थाओं के सुदृढ़ीकारण हेतु अक्टूबर, 2009 में पंचायती राज संस्थाओं द्वारा मनरेगा के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हेतु मार्गदर्शन जारी किया था। विगत 15 वर्षों में राजनीतिक भागीदारी के संदर्भ में महिलाएं चरणबद्ध ढंग से आगे बढ़ती रहती हैं। लगभग 20 लाख निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में 10 लाख के आस-पास महिलाएं हैं। महिलाओं की पंचायत में बढ़ती इस भागीदारी को पहचानते हुए पंचायती राज संस्थाओं की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की भागीदारी, प्रतिनिधित्व तथा कार्यनिष्पादन को और बढ़ाने के लिए पंचायती राज मंत्रालय पंचायत महिला एवं युवा शक्ति अभियान को वर्ष 2007-08 से कार्यान्वित कर रहा है। पंचायत सशक्तिकरण एवं जवाबदेही प्रोत्साहन योजना (पीईएआईएस) वर्ष 2005-06 से पंचायती राज मंत्रालय द्वारा लागू एवं कार्यान्वित की गई है। इसके तहत् राज्य सरकारों को अनुच्छेद 243जी के अंतर्गत उसकी 11वीं अनुसूची के साथ पठित संवैधानिक औपचारिकता को पूरा करने के लिए पंचायतों के वास्ते कार्य, कोष एवं पदाधिकारी विकसित करने के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इस योजना का उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं को पर्याप्त रूप से सशक्त करने के लिए राज्यों को प्रोत्साहित करना और पंचायती राज संस्थाओं को जवाबदेही की ओर लेन की व्यवस्था करना है। केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय 73वें संविधान संशोधन के वास्तविक क्रियान्वयन हेतु मॉडल पंचायत व ग्राम स्वराज अधिनियम का प्रारूप तैयार किया है जिसे 26 मई, 2009 को विभिन्न राज्य सरकारों से क्रियान्वयन हेतु आग्रह किया है। इसकी विशेषताएं हैं-
देश में ग्राम पंचायतों, मध्यवर्ती पंचायतों एवं जिला पंचायतों में शासन की गुणवत्ता सुधार के लिए केंद्र सरकार ने सभी पंचायतों को ई-सक्षम करने के लिए ई-पंचायत मिशन मोड परियोजना नामक एक परियोजना आरंभ की है, जो उनके कार्यकरण को और अधिक कुशल एवं पारदर्शी बनाएगी। ई-पंचायत का उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं को आधुनिकता, दक्षता, उत्तरदायित्व का प्रतीक बनाना एवं सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के प्रति वृहत् ग्रामीण आबादी को अभिप्रेरित करना है। इस परियोजना का नेतृत्व केंद्र द्वारा और कार्यान्वयन राज्यों द्वारा किया जा रहा है। ई-पंचायत द्वारा पंचायतों के लिए राष्ट्रीय पंचायत निर्देशिका, पंचायतों की सामाजिक जनसांख्यिकीय प्रोफाइल, ऑनलाइन परिसंपत्तियों के पंचायतों की परिसंपत्ति निर्देशिका, पंचायत लेखांकन, योजना का ऑनलाइन कार्यान्वयन और निगरानी, शिकायत निवारण, सामाजिक अंकेक्षण, मांग प्रबंधन प्रशिक्षण जैसी सेवाएं प्रदान करना संभव हो पाया है। पंचायती राज की आवश्यकता एवं महत्व पंचायतों का अस्तित्व यद्यपि प्राचीन काल में भी विद्यमान था, किन्तु समकालीन पंचायती राज संस्थाएं इस अर्थ में नयी हैं कि उन्हें काफी अधिक अधिकार, साधन एवं उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होते हैं-
पंचायती राज की बाधाएं पंचायती राज में विकेंद्रीकरण के माध्यम से विकास की गति में वृद्धि होगी, परियोजनाएं शीघ्र पूरी होगों और लोगों की विकास कार्यों में भाग लेने की चेतना में वृद्धि होगी, परन्तु इसके साथ ही कुछ संभावित त्रुटियां भी इस व्यवस्था के अंतर्गत निहित हैं, वे इस प्रकार हैं-
इन आधारभूत समस्याओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हमें प्रतिक्रियावादी तत्वों पर प्रतिबंध तथा समुचित वातावरण की संरचना हेतु कदम उठाना आवश्यक है। इन तथ्यों से सभी परिचित हैं कि चुनाव दो प्रकार के कार्य करते हैं- एक तो वे ग्रामीण जनता को लोकतांत्रिक संस्थाओं के कार्यों की जानकारी देते हैं तथा दूसरा वे जनता के चुनाव में भाग लेने से होने वाले विकास के महत्व की ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हैं। प्रत्येक पांच वर्ष के बाद चुनाव आयोजित करने की संवैधानिक दायित्व से भी पंचायती राज व्यवस्था की सफलता को बल मिलेगा। नियमित चुनाव भी नेताओं को अधिक उत्तरदायी बनाने में सहायक होगा। राजनैतिक तथा अन्य कारणों से पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिस्थापन पर प्रतिबंध हेतु कड़े नियम बनाने होंगे। यदि राजनीतिक दल पंचायती राज व्यवस्था को अपनी गंदी राजनीति से दूर ही रखें, तो यह राष्ट्र के हित में होगा। जाति, धर्म और मुद्रा शक्ति पर आधारित वर्तमान ढांचे को उखाड़ने के लिए एक सामाजिक क्रांति का होना अति आवश्यक है। महात्मा गांधी के अनुसार, स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मूल्य केवल राजनैतिक विकेंद्रीकरण से ही प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी विकेंद्रीकरण अनिवार्य है। तद्नुसार, राजनैतिक तथा आर्थिक विकेंद्रीकरण एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। इसके अतिरिक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं से उन्होंने सदैव सृजनात्मक कार्यों के माध्यम से लोकतंत्र की नींव तैयार करने की अपील की। समाज कल्याण तथा आर्थिक विकास के उद्देश्य से गठित लोकतांत्रिक ढांचे से लोगों की कई प्रकार की आशाएं होती हैं। बढ़ती आशाएं प्रशासन में लोगों की भागीदारी के लिए यथार्थवादी एवं प्रभावशाली नीतियों की मांग करती हैं। राजनैतिक स्वतंत्रता तथा नीतिगत उद्घोषणाओं से उठी चुनौतियों और आकांक्षाओं के लिए अंतर्मन से किए जाने वाले प्रयासों की आवश्यकता है। लोक कार्यो का प्रबन्ध लोकतांत्रिक होना चाहिए। निम्न स्तर पर लोगों के प्रतिनिधियों से लेकर उच्च स्तर तक दायित्वों का विकेंद्रीकरण व स्थानीय स्वायत्तता आवश्यक है। यहां द्रष्टव्य है कि भारत की संस्कृति, भाषा आदि की अनेकता इस कार्य को कुछ अधिक जटिल बना देती है। अंततः हम यह आशा करते हैं कि निचले स्तर पर जिस लोकतंत्र की व्यवस्था की गयी है वह कई राज्यों के ग्रामीण नागरिकों में जागृति लाने की प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभाएगी। निर्बाध गति से चल रहे है। इस लोकतंत्र में किसी प्रकार का कोई क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं है। किन्तु, बेहतर भविष्य के लिए यह परिवर्तन का वाहक अवश्य सिद्ध हो सकता है। पंचायती राज व्यवस्था की अधिक प्रभावी एवं व्यावहारिक बनाने हेतु सुझाव
उपरिलिखित शर्तों एवं सुझावों को पूरा करने के लिए केंद्रीय सरकार, राज्य सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों, प्रशासन, समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन तथा बुद्धिजीवियों सभी के सहयोग की आवश्यकता है। पंचायती राज की सफलता केवल ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन की सक्रियता के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु यह देश में लोकतंत्र के विकास के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण प्रशिक्षण स्थल तथा राजनीतिक समाजीकरण के लिए भी उचित साधन के रूप में लगभग अनिवार्य है। इसलिए आवश्यक है कि पहले की तरह पंचायती राज को ग्रामीण स्तर पर सत्ता संघर्ष का अखाड़ा और विशिष्ट वर्गों के हाथों का खिलौना न बनने दे तथा देश में उचित लोकतांत्रिक वातावरण के विकास के लिए इसका संभावित उपयोग करें। स्थानीय सरकार का क्या काम होता है?यह प्रावधान स्थानीय शासन की शक्ति को सुरक्षा प्रदान करता है। बाद में, सन् 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को संसद ने पारित किया। संविधान का 73वाँ संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है।
स्थानीय सरकार कितने प्रकार के होते हैं?स्थानीय स्वशासन में ग्रामीण और शहरी दोनों सरकारें शामिल हैं। यह सरकार का तीसरा स्तर है। स्थानीय सरकारें 2 प्रकार की होती हैं - ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतें और शहरी क्षेत्रों में नगर पालिकाएँ।
स्थानीय सरकार की आवश्यकता क्यों है?भारत के लिए स्थानीय संस्थाओं का काफी महत्व है। यहाँ तक कि भारत में स्व-शासन का प्रारम्भ स्थानीय संस्थाओं से हुआ है । ग्राम्य स्वराज्य उल्लेखनीय भारतीय अवधारणा है। पंचवर्षीय योजनाओं तथा विकास के कार्यक्रमों को सुलझाने के लिए भी स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं को बहुत महत्व प्रदान किया गया है ।
स्थानीय शासन क्या है समझाइए?स्थानीय लोगों द्वारा मिल-जुल कर अपनी समस्याओं के निदान एवं विकास हेतु बनाई गई ऐसी व्यवस्था जो संविधान और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गये नियमों एवं कानूनों के अनुरूप हो। स्थानीय शासन से हमारा अभिप्राय यह है कि स्थानीय क्षेत्रों का प्रशासन वहाँ के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाए।
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