राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष कौन होता है? - raashtreey maanavaadhikaar aayog ke adhyaksh kaun hota hai?

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये।

जी राष्ट्रीय मानव अधिकार दिसंबर से संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम होते हैं

ji rashtriya manav adhikaar december se sanyukt rashtra sangh ke naam hote hain

जी राष्ट्रीय मानव अधिकार दिसंबर से संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम होते हैं

  7      

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष कौन होता है? - raashtreey maanavaadhikaar aayog ke adhyaksh kaun hota hai?
 227

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष कौन होता है? - raashtreey maanavaadhikaar aayog ke adhyaksh kaun hota hai?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष कौन होता है? - raashtreey maanavaadhikaar aayog ke adhyaksh kaun hota hai?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष कौन होता है? - raashtreey maanavaadhikaar aayog ke adhyaksh kaun hota hai?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष कौन होता है? - raashtreey maanavaadhikaar aayog ke adhyaksh kaun hota hai?

This Question Also Answers:

Vokal App bridges the knowledge gap in India in Indian languages by getting the best minds to answer questions of the common man. The Vokal App is available in 11 Indian languages. Users ask questions on 100s of topics related to love, life, career, politics, religion, sports, personal care etc. We have 1000s of experts from different walks of life answering questions on the Vokal App. People can also ask questions directly to experts apart from posting a question to the entire answering community. If you are an expert or are great at something, we invite you to join this knowledge sharing revolution and help India grow. Download the Vokal App!

आपातकाल के बाद हुए चुनाव में सत्ता गँवाने के बाद इंदिरा गांधी ने ज़ोरदार वापसी की थी और एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. अगले दिन 15 जनवरी, 1980 को इंदिरा गांधी को गर्मजोशी से भरे तमाम संदेश मिल रहे थे.

इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस प्रफ़ुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती का भी संदेश था.

उन्होंने लिखा था, "मैं चुनावों में शानदार जीत और प्रधानमंत्री के तौर पर आपकी सफल वापसी के लिए आपको हार्दिक बधाई देता हूँ. मुझे यक़ीन है कि अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, दूरदृष्टि, प्रशासनिक क्षमता और कमज़ोरों की तकलीफ़ समझने वाले हृदय के साथ आप इस राष्ट्र को अपने लक्ष्य तक ले जाएँगी."

जस्टिस भगवती के इस संदेश पर सवाल उठे और कहा गया कि ऐसी चिट्ठी से जनता का न्यायपालिका से भरोसा उठ जाएगा.

इस घटना के 40 साल बाद जब सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा ने सार्वजनिक मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ की, तो उन्हें भी जस्टिस पीएन भगवती की तरह आलोचनाओं का सामना करना पड़ा.

22 फ़रवरी 2020 को दिल्ली में आयोजित इंटरनेशनल ज्यूडिशियल कॉन्फ्रेंस में जस्टिस मिश्रा ने मोदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत दार्शनिक बताते हुए कहा था कि वो 'सदाबहार ज्ञानी हैं.' इस आयोजन में 20 देशों के जज शिरकत कर रहे थे.

अब जब जस्टिस मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है, तो उन पर भी सवाल उठ रहे हैं.

2 जून 2021 को जस्टिस (रिटायर्ड) अरुण कुमार मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. ये पद पिछले 6 महीनों से ख़ाली पड़ा था. इससे पहले देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू आयोग के अध्यक्ष थे, जिनका कार्यकाल 2 दिसंबर 2020 को समाप्त हो गया था. इनके रिटायरमेंट तक सरकार ने अगले अध्यक्ष का चुनाव नहीं किया था.

मार्च 2021 में जब आयोग के सदस्य जस्टिस प्रफ़ुल्ल चंद्र पंत ने नियुक्ति का मुद्दा उठाया, तो 3 मई को आयोग ने एक आदेश जारी करके उन्हें 25 अप्रैल से आयोग का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया.

मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के उम्मीदवारों को चुनने वाली कमेटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, राज्यसभा के उप-सभापति हरिवंश नारायण सिंह, लोकसभा स्पीकर ओम बिरला और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे शामिल थे.

कमेटी के पाँच सदस्यों में से सिर्फ़ खड़गे ही जस्टिस मिश्रा के चुनाव के विरोध में थे. उस बैठक के अलावा उन्होंने अपनी आपत्तियाँ लिखित में भी पीएम मोदी को भेजी हैं.

इमेज स्रोत, Hindustan Times/GETTY IMAGES

क्या हैं खड़गे की आपत्तियाँ?

खड़गे का मत है कि चूँकि मानवाधिकार हनन के ज़्यादातर मामलों में कथित पिछड़ी जातियों के लोग, आदिवासी और अल्पसंख्यक निशाने पर होते हैं, तो आयोग का अध्यक्ष भी इन्हीं में से किसी समुदाय से चुना जाना चाहिए.

जब कमेटी के बाक़ी सदस्यों ने उम्मीदवारों में ऐसा कोई नाम न होने की बात कही, तो खड़गे ने सुझाव दिया कि नए नामों के साथ एक हफ़्ते बाद भी बैठक की जा सकती है. हालाँकि, ऐसा हुआ नहीं. कमेटी की ओर से नाम भेज दिए गए और जस्टिस मिश्रा की नियुक्ति भी हो गई.

खड़गे ने पीएम मोदी को भेजा अपना ख़त ट्विटर पर भी पोस्ट किया है.

जस्टिस मिश्रा की नियुक्ति के बाद देश के कई मानवाधिकार संगठनों और चिंतकों ने एक साझा प्रेस बयान जारी किया.

ये बयान रविकिरण जैन, मल्लिका साराभाई, अपूर्वानंद, आकार पटेल, हर्ष मंदर, निवेदिता मेनन, बेला भाटिया, मेधा पाटकर, अरुणा रॉय और गौहर रज़ा समेत तमाम शख़्सियतों की ओर से जारी किया गया है.

इस बयान में लिखा है, "सरकार का ये फ़ैसला साफ़ तौर पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्वायत्तता के ख़िलाफ़ है. इसके अध्यक्ष के तौर पर मानवाधिकार मामलों पर काम कर चुके किसी पूर्व चीफ़ जस्टिस की नियुक्ति की जानी चाहिए थी. मोदी सरकार की ये नियुक्ति दिखाती है कि नियुक्तियों में योग्यता नहीं, बल्कि सत्ता से क़रीबी मायने रखती है. जनता जानना चाहती है कि जस्टिस मिश्रा को किस आधार पर नियुक्त किया गया है. ये साफ़ है कि उन्हें पीएम मोदी के प्रति निष्ठा दिखाने का इनाम दिया गया है."

इस साझा बयान में जस्टिस मिश्रा के पिछले फ़ैसलों का भी ज़िक्र है, जिनके आधार पर उनकी नियुक्ति सवालों के घेरे में खड़ी की गई है.

जस्टिस मिश्रा के किन फ़ैसलों का हो रहा है ज़िक्र?

जबलपुर हाई कोर्ट में जज रहे जस्टिस हरगोविंद मिश्रा के बेटे जस्टिस अरुण मिश्रा ने 21 साल वकालत की है. फिर सुप्रीम कोर्ट पहुँचने से पहले उन्होंने कई हाई कोर्ट में भी काम किया. उनके कई रिश्तेदार नामी वकील हैं और उनकी बेटी भी दिल्ली हाई कोर्ट में वकालत करती हैं.

जस्टिस मिश्रा तब विवाद में आए, जब उन्होंने ज़मीन अधिग्रहण के एक मामले में फ़ैसला सुनाया. फिर इस मामले को जिस संविधान पीठ को सौंपा गया, जस्टिस मिश्रा उसके भी सदस्य थे. उन्होंने ख़ुद को उस संविधान पीठ से अलग करने से इनकार कर दिया था. यानी वो अपने ही दिए गए फ़ैसले को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई में शामिल थे.

जस्टिस अरुण मिश्रा उस खंडपीठ के भी सदस्य थे, जो बहुचर्चित 'सहारा बिरला दस्तावेज़' मामले की सुनवाई कर रही थी. इस मामले में भी राजनेताओं, नौकरशाहों और जजों पर आरोप लगे थे, लेकिन ये मामला बाद में ख़ारिज हो गया था.

2019 में जाने-माने वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर जस्टिस अरुण मिश्रा के ख़िलाफ़ एक उद्योग समूह के कई मामलों को अपनी अदालत में सुनने का आरोप लगाया था.

उनका आरोप था कि एक विशेष औद्योगिक समूह के मामले जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ के ही सुपुर्द किए जाते रहे हैं. हालाँकि, उस उद्योग समूह ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सब कुछ तय नियमों के हिसाब से हुआ था.

वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा ने गुजरात के चर्चित हरेन पांड्या हत्याकांड का ज़िक्र करते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा के उस जजमेंट में कई ख़ामियाँ निकालीं, जिसके तहत खंडपीठ ने गुजरात हाई कोर्ट के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया था.

प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना के मामले में दोषी ठहराते हुए उन पर एक रुपये का जुर्माना लगाने वाली खंडपीड की अध्यक्षता जस्टिस अरुण मिश्रा ही कर रहे थे.

चार जजों की प्रेस कॉन्फ़्रेंस का मामला

जस्टिस मिश्रा के कार्यकाल से जुड़ा सबसे विवादास्पद मामला चार जजों की प्रेस कॉन्फ़्रेंस का है. जस्टिस लोया की हत्या के आरोप का मामला वरीयता सूची में 10वें नंबर पर जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ के सामने लिस्ट किया गया.

इसके बाद जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. ठाकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ़ और जस्टिस चेलमेश्वर ने सार्वजनिक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके आरोप लगाया कि अहम मामलों को कुछ ख़ास जजों की बेंच में लिस्ट किया जा रहा है. हालाँकि, इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में जस्टिस अरुण मिश्रा का नाम नहीं लिया गया था, लेकिन वो इससे काफ़ी नाराज़ हुए थे. बाद में उन्होंने जज लोया के मामले से ख़ुद को अलग कर लिया था.

जस्टिस अरुण मिश्रा को विदाई देने के लिए आयोजित वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग में भी विवाद हुआ था.

सुप्रीम कोर्ट बार असोसिएशन के अध्यक्ष रहे दुष्यंत दवे ने आरोप लगाया था कि उन्हें विदाई समारोह में कुछ कहने नहीं दिया गया, क्योंकि बाक़ियों को डर था कि कहीं वो कुछ अप्रिय न कह दें.

इसके बाद दवे ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस एसए बोबडे को पत्र में लिखा था, "मुझे कहना पड़ेगा कि सुप्रीम कोर्ट की ऐसी हालत हो गई है कि जजों को बार से डर लग रहा है. याद रखिए, जज आएँगे, जाएँगे. लेकिन, बार हमेशा रहेगा."

मानवाधिकार संगठनों से जुड़े लोगों से लेकर सोशल मीडिया तक पर ये तथ्य बार-बार दोहराया जा रहा है कि मानवाधिकार आयोग के 27 साल के इतिहास में पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया जा रहा है, जो सुप्रीम कोर्ट का चीफ़ जस्टिस नहीं रहा है.

दरअसल सितंबर 1993 में 'प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट' (PHRA) बनने पर ये नियम रखा गया था कि सुप्रीम कोर्ट के किसी पूर्व चीफ़ जस्टिस को ही आयोग का अध्यक्ष बनाया जाएगा.

फिर 8 जुलाई 2019 को लोकसभा में द प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स (अमेंडमेंट) बिल 2019 पेश किया गया. इसमें कहा गया कि चीफ़ जस्टिस या सुप्रीम कोर्ट में जज रहे किसी भी व्यक्ति को आयोग का अध्यक्ष बनाया जा सकता है.

वहीं आयोग के सदस्यों के तौर पर मानवाधिकार के दो जानकारों के बजाय तीन सदस्यों की नियुक्ति का प्रस्ताव रखा गया, जिनमें से एक महिला सदस्य का होना अनिवार्य था.

इसके अलावा बिल में अध्यक्ष पद का कार्यकाल पाँच साल से घटाकर तीन साल कर दिया गया. नियमों के मुताबिक़, अगर कोई व्यक्ति कार्यकाल पूरा होने से पहले 70 साल का हो जाता है, तो भी उसे पद छोड़ना होगा.

19 जुलाई 2019 को लोकसभा और 22 जुलाई 2019 को राज्यसभा से पास होने के बाद इस बिल ने क़ानून की शक्ल ले ली थी. अब इसी नियम के आधार पर जस्टिस मिश्रा की नियुक्ति की गई है, जो कभी चीफ़ जस्टिस नहीं रहे हैं.

भारत में सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों के रिटायर होने के बाद उन्हें नई सरकारी ज़िम्मेदारियाँ मिलने की परंपरा नई नहीं है.

1973 में सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफ़ा देने वाले जस्टिस केएस हेगड़े जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर लोकसभा पहुँचे और 1977 से 1980 तक स्पीकर रहे.

जस्टिस एम. हिदायतुल्लाह 1970 में चीफ़ जस्टिस के पद से रिटायर हुए और 1979 में उन्हें उप-राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना गया.

जनवरी 1983 में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जस्टिस बहरुल इस्लाम को इंदिरा गांधी ने जून 1983 में राज्यसभा में मनोनीत किया था.

चीफ़ जस्टिस पद से रिटायर हुए जस्टिस पी. सदाशिवम को 2014 में एनडीए सरकार ने केरल का गवर्नर बनाया था.

2019 में चीफ़ जस्टिस पद से रिटायर हुए जस्टिस रंजन गोगोई भी राज्यसभा पहुँचे.

हालाँकि 2012 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से नितिन गडकरी ने पार्टी की एक बैठक में प्रस्ताव रखा था कि किसी जज के रिटायर होने और उन्हें नया पद दिए जाने के बीच कम से कम दो साल का कूलिंग ऑफ़ पीरियड होना चाहिए. ऐसा नहीं हुआ, तो सरकारों को न्यायपालिका को प्रभावित करने का मौक़ा मिल जाएगा और निष्पक्ष न्यायपालिका महज़ एक सपना बनकर रह जाएगी.

पीपल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ की राजस्थान इकाई की अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव इसके जवाब में कहती हैं, "कोई भी संस्था तभी अच्छा काम कर सकती है, अगर वो स्वायत्तता से काम करे. जस्टिस मिश्रा अपने निजी जीवन में कुछ भी कह या कर सकते हैं, लेकिन एक जज के तौर पर जब वे ख़ुद को पीएम मोदी की सार्वजनिक तारीफ़ करने तक कॉम्प्रोमाइज़ कर चुके हैं, तो उनसे कैसी उम्मीद की जा सकती है. हम कैसे यक़ीन करें कि वो सरकार के पक्ष में फ़ैसले नहीं सुनाएँगे."

कविता सरकार की नीयत पर सवाल उठाती हैं, "नरेंद्र मोदी सरकार का रिकॉर्ड ही वकीलों, कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्ट्स को जेल में डालने का रहा है. तो कैसे यक़ीन किया जा सकता है कि नियुक्त हो रहे लोग मानवाधिकार हनन पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं करेंगे."

कविता कहती हैं, "हमारा विरोध सिर्फ़ इसी आधार पर है कि जस्टिस मिश्रा का मानवाधिकारों को लेकर काम करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. ऊपर से आयोग में विविधता भी नहीं है. सरकार इंटेलिजेंस के लोगों को आयोग का सदस्य बना रही है, जिनका काम ही मानवाधिकारों के ख़िलाफ़ होता है. ये ह्यूमन राइट्स कमीशन नहीं, बल्कि एंटी-ह्यूमन राइट्स कमीशन बनाया जा रहा है."

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता का मानना है कि केवल एक व्यक्ति की नियुक्ति के बारे में बहस करना बहुत सही नहीं होगा, यह समय ऐसा है जब लोकतंत्र के मूल आधारों में से एक, न्यायपालिका पर ही लगातार सवाल उठ रहे हैं, जब न्याय व्यवस्था के ढाँचे में दरार दिख रही है तो बुनियादी सवालों पर बात होनी चाहिए.

वे कहते हैं, "जस्टिस मिश्रा की नियुक्ति की आलोचना तीन पहलुओं को लेकर हो रही है, कहा जा रहा है कि वे सुप्रीम कोर्ट के एक ऐसे रिटायर्ड जज हैं, जिन्होंने बड़े संवैधानिक मामलों की सुनवाई में सरकार का साथ दिया, दूसरा उन्होंने कुछ ऐसे फ़ैसले किए जिन्हें मानवाधिकार विरोधी बताया गया, और तीसरा ये कि यह न्यायपालिका और राजनीति के गठजोड़ का मामला है."

विराग गुप्ता ज़ोर देकर कहते हैं कि इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, "जिन तीन पहलुओं को लेकर जस्टिस मिश्रा की नियुक्ति की आलोचना हो रही है उनमें से कोई ऐसा नहीं है जो नया हो. जज राज्यपाल बनते रहे हैं, राजनीतिक दलों की सदस्यता लेते रहे हैं, संसद में भी गए हैं, यह सब लगातार होता रहा है और हर सरकार के दौर में होता रहा है."

उनका कहना है, "जब सरकार के पास नियुक्ति का अधिकार है तो हर नियुक्ति चाहे कोई भी सरकार करे, उसे उपकार के रूप में ही देखा जाएगा, तो किसी एक व्यक्ति पर बहस करना उसे सिंगल आउट करना है. देखना चाहिए कि व्यवस्था ऐसी हो कि ऐसे आरोप-प्रत्यारोप की गुंज़ाइश कम से कम हो."

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का अध्यक्ष कौन होता है?

इसके प्रथम अध्यक्ष न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र थे। वर्तमान में (2021)न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा इसके वर्तमान अध्यक्ष के पद पर आसीन है

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है?

व्याख्या: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए गठित समिति में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में, लोकसभा अध्यक्ष, गृह मंत्री, मुख्य विपक्षी दल के नेता और राज्यसभा के उपाध्यक्ष शामिल होते हैं।

भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मुख्यालय कहाँ है?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission-NHRC) एक स्वतंत्र वैधानिक संस्था है, जिसकी स्थापना मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के प्रावधानों के तहत 12 अक्टूबर, 1993 को की गई थी। मानवाधिकार आयोग का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है और 12 अक्टूबर, 2018 को इसने अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे किये।

भारत में कुल कितने आयोग है?

स्वतन्त्र भारत में अब तक भारत में 22 विधि आयोग बन चुके हैं। 22वें विधि आयोग का कार्यकाल 2021 तक है।