रेडियो ध्वनि का माध्यम है। ध्वनि के तमाम रूप मिलकर रेडियो भाटक को गतिशीलता प्रदान करते हैं। उसे असरदार बनाते हैं। मंदीय नाटक और रेडियो नाटक के बीच का मुख्य अंतर आपने पिछले भाग में जान लिया है। रेडियो नाटक किस तरह मंच से अलग स्वरूप ग्रहण करता है यह भी आप पिछले भाग में पढ़ चुके हैं। अब हम रेडियो नाटक के घटक तत्वों की चर्चा करने जा रहे हैं। सामान्यतः रेडियो नाटक के निम्नलिखित घटक तत्व माने जाते हैं - Show 1) कथा तत्व 2) पात्र-योजना 3) संवाद 4) मौन 5) ध्वनि प्रभाव 6) संगीत 1) कथा तत्व बिना कथानक के रेडियो नाटक की कल्पना असंभव है। इसलिए सबसे पहले रेडियो नाटककार विषय का चयन करता है। फिर कथानक का 'प्लाट' तैयार करता है। 'प्लाट' में सबसे पहले 'कथा-बीज' की कल्पना की जाती है। यह कथानक का वह मूल बिंदु है जहाँ से कथा आरंभ होती है। बीज जिस तरह खाद. पानी और वायुमण्डल के संपर्क में आकर वृक्ष का रूप धारण करता है ठीक उसी तरह रेडियो नाटक में 'कथा बीज ' के माध्यम से आगे की घटनाओं या पात्रों के कार्य-व्यापार की पृष्ठभूमि तैयार की जाती है। इसके द्वारा श्रोता के मन में जिज्ञासा उत्पन्न की जाती है कि अब आगे घटना का स्वरूप क्या होगा? वस्तुतः यही रेडियो नाटक का आरंभ होता है। आरंभ के बाद कथाका विस्तार होता है जिसमें विषय को निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचाने के लिए घटना क्रम तेजी से घटता है। ठीक उस तरह जैसे बीज अंकुरित होकर शाखाओं में फूट कर पूर्ण वृक्ष का रूप धारण करता है। इसे 'क्लाइमेक्स * या चरम परिणति कहा जाता है। इसके बाद कथानक एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है। 2) पात्र-छोजना और चरित्र-चित्रण रेडियो ध्वनि और अवधि का माध्यम है। सामान्यतः रेडियो से प्रसारित होने वाले नाटकों की अदधि 15 मिनट से लेकर 30 मिनट तक होती है। कभी- कभी यह अवधि 60 मिनट भी होती है। अतः सीमित अवधि में चरित्र विकास या चरित्र- चित्रण असरदार हो इसके लिए आवश्यक है पात्रों की संख्या कम-से-कम हो। आधा घण्टे के नाटक में पाँच या छः पात्र पर्याप्त होते हैं। आलेख तैयार करते समय इस बात की ध्यान में रखना आवश्यक है। 3) संवाद कम अवधि का होने के कारण रेडियो नाटकों में कार्य-व्यापार या घटनाक्रम तेजी से बदलता है। इसलिए संवाद संक्षिप्त और कसे हुए होने चाहिए। छोटे संवाद रेडियो नाटक को गति प्रदान करते हैं जो रेडियो माध्यम के लिए जरूरी है। संवाद ही वह तत्व है जिसके द्वारा किसी पात्र की मनःस्थिति प्रकट होती है या उसका चरित्र स्थापित होता है। रेडियो नाटक में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है पात्र या चरित्र-परिचय। श्रोताओं को पात्रों से परिचय कराने के लिए आलेख में कई तकनीकें अपनायी जा सकती हैं। जैसे - नाटक में एक सूत्रधार रखा जा सकता है जो आवश्यकतानुसार पात्रों का परिचय कराता जाएगा। नाटक में सूत्रधार नहीं है तो एक पात्र, दूसरे पात्र का परिचय नाम लेकर या उसका काम बताकर या रिश्ता बताकर करा सकता है। कभी-कभी पात्रों का स्वगत कथन भी पात्र का परिचय देने के लिए उपयुक्त तकनीक बन जाती है। सूत्रधार या नैरेटर का प्रयोग मंचीय नाटक में अक्सर किया जाता है। रेडियो नाटकों में भी इस तकनीक का उपयोग किया जा सकता है। जैसे नाटक के आरंभ में सुत्रधार आकर किसी स्त्री-पात्र के बारे में श्रोताओं को बताता है – सूत्रधार - (पार्श्क में किसी महिला की ठनकती हँसी) - ये हैं हँंसमुख ताई। हर समय हँसते रहना इनकी आदत है। उम्र यही कोई 40 साल होगी लेकिन व्यक्तित्व इतना आकर्षक है कि कोई भी उनसे रश्क कर सकता है। सूत्रधार द्वारा दिए गए परिचय से हँसमुख ताई के संपूर्ण चरित्र की विशेषताएँ उभर आती हैं। इतने परिचय के बाद अन्य पात्रों से उनके रिश्ते, बातचीत का रूप आदि काफी कुछ स्पष्ट हो जाएगा। इसी तरह कई बार पात्र एक दूसरे का परिचय कराते हैं। जैसे -
रमेश - आओ देवकी नंदन। बहुत दिन बाद दिखाई दिए हो। सब ठीक तो है। देवकीनंदन. - क्या ठीक है ताऊ जी। व्यापार में घाटा ही घाटा हो रहा है। रमेश - क्यों ऐसा क्या हुआ? देवकीनंदन. - अब इतनी बड़ी फैक्ट्री ऊपर से अकेला मैं ही देखमे वाला। मार्केट संभालता हूँ तो प्रोडक्शन पर असर पढ़ता है। प्रोडक्शन देखता हूँ तो मार्केटिंग बंद हो जाती है। रमेश - और तुम्हारा बेटा राकेश। वह हाथ नहीं बटाता। देवकीनंदन. - क्या कहूँ? उसे अपनी पढाई से फुर्सत हो तब ना! स्वगत कथन पद्धति से पात्र का परिचय कराना हो तो उसका स्वरूप कुछ इस तरह होगा – “जिसे देखो वही छोटू को बुलाता रहता है। छोटू बाजार चला जा, छोटू जरा पान ले आ - छ्टू जरा बर्तन रसोई में रख आ ... अब छोटी ननन्हीं सी जान किस किसको खुश करे। ... अरे बाप रे .... अभी तो बाबूजी के कमरे में झाड़ू लगाना बाकी ही रह गया है। उनके कपड़े भी ठीक करने हैं ... चलूँ वरना डॉट पड़ेगी।... 4) ध्वनि प्रभाव पात्रों के बीच चल रहे कार्य व्यापार को प्रकट करने के लिए रेडियो नाटक में ध्वनि प्रभावों का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे पंचायत का दृश्य चल रहा है। पंचों के बीच बातचीत चल रही है। पंच हुक्का पी रहे हैं। मंच पर तो इसे प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता है। रेडियो में इसे 'ध्वनि प्रभाव” के माध्यम से सुनाया 'दिखाया” जाएगा। कोई एक पात्र संवाद में कहेगा ... 'लो रामदीन हुक्का पीओ' और फिर हुक्के की गुड़गुड़ाहट का ध्वनि प्रभाव सुनाया जाएगा। संगीत के माध्यम से भी रेडियो में ध्वनि प्रभाव" पैदा किया जाता है। इसके अलावा कार्यक्रम शुरू और अंत करने, दृश्य परिवर्तन, पात्रों की मनोदशा व्यक्त करने आदि के लिए भी उपयुक्त संगीत का इस्तेमाल होता है। रेडियो नाटक में घ्वनि प्रभाव और संगीत का विशेष महत्व होता है। इसके अभाव में नाटक नीरस और शुष्क हो जाएँगे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि ध्वनि प्रभाव और संगीत के अभाव में रेडियो नाटक की प्रस्तुति हो ही नहीं सकती।
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