पतंजलि योग सूत्र में कितने नियम है? - patanjali yog sootr mein kitane niyam hai?

इसे सुनेंरोकेंपूर्व लिखा था। इसे योग पर लिखी पहली सुव्यवस्थित लिखित कृ‍ति मानते है। इस पुस्तक में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है।

योग के प्रणेता कौन हैं?

इसे सुनेंरोकेंयोग की परम्परा भारत में हजारों साल से चली आ रही है, योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि द्वारा ‘योग सूत्र’ की रचना से भी पहले से। भारतीय संस्कृति में शिव को पहला योगी माना गया है।

समाधि पाद में सूत्रों की संख्या कितनी है?

इसे सुनेंरोकेंसमाधि पाद: पतंजलि योग सूत्र के चार पादों में पहला पाद है समाधिपाद। इस प्रथम पाद में मुख्य रूप से समाधि तथा उसके विभिन्न भेदों का वर्णन किया गया है। अतः इसका नाम समाधि पाद है, इसमें साधकों के लिए समाधि के वर्णन के साथ-साथ योग के विभिन्न साधनों का भी समावेश किया गया है।

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पतंजलि सूत्र के योग के कितने अंग हैं?

इसे सुनेंरोकेंअष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है। यह आठ अंग हैं- (1) यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि।

योग का जन्मदाता कौन सा देश है?

इसे सुनेंरोकेंयोग का जन्मदाता भारत ही है इसमें कोई नहीं।

सबसे पहले योग गुरु कौन थे?

इसे सुनेंरोकेंपरमहंस योगानंद- उन्होंने पश्चिम के लोगों को मेडिटेशन और क्रिया योग से परिचित कराया. इतना ही नहीं, परमहंस योगानंद योग के सबसे पहले और मुख्य गुरू है.

इसे सुनेंरोकेंइसे योग पर लिखी पहली सुव्यवस्थित लिखित कृ‍ति मानते है। इस पुस्तक में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है।

पतंजलि योग सूत्र में कितने अध्याय हैं?

इसे सुनेंरोकेंयोगसूत्र ग्रंथ महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है। यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है।

योग सूत्र के अनुसार वृत्तियों के कितने भेद है?

इसे सुनेंरोकेंचूंकि आगे के सूत्रों में महर्षि पतंजलि ने स्वयं वृत्तियों के विषय में चर्चा की है इसलिए अभी इतना ही समझें कि हमारे भीतर उठने वाली विचार रूपी तरंगों या मन के क्रियाकलाप को जो कि पांच प्रकार से विभाजित है उसे वृत्तियाँ कहते हैं। अब सूत्र का अंतिम एवं महत्वपूर्ण भाग आता “निरोध”।

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पतंजलि योग दर्शन क्या है?

इसे सुनेंरोकेंयोगसूत्रों की रचना ४०० ई॰पूर्व महान भारतीय मनीषा महर्षि पतंजलि ने की थी । योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है । पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है।

वृत्तियाँ कितनी होती है?

इसे सुनेंरोकेंआदत, स्वभाव और व्यवहार तीनों जब मिलते हैं तो वृत्ति कहलाते हैं। हमारे भीतर चार प्रकार की वृत्ति होती हैं। देवीयवृत्ति, मानुषीवृत्ति, पशुवृत्ति और संतवृत्ति। देवीयवृत्ति खुशी और गम दोनों से ऊपर उठने की स्थिति है।

योग क्या है योग के तत्वों का वर्णन कीजिए?

इसे सुनेंरोकेंयोग विद्या में निर्देशित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय Page 9 योग के आधारभूत तत्व संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान पारिवारिक वातावरण को सुसंस्कारित और समृद्ध बनाते है। सभी निरोगी हो” इसी उददेश्य के साथ योग समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर है। सिखाया जा रहा है।

अंतत: : पांतजलि ने ग्रंथ में किसी भी प्रकार से अतिरिक्त शब्दों का इस्लेमाल नहीं किया और ना ही उन्होंने किसी एक ही वाक्य को अनावश्यक विस्तार दिया। जो बात दो शब्द में कही जा सकती है उसे चार में नहीं कहा। यही उनके ग्रंथ की विशेषता है।

का प्रयास करता है कि ‘योग क्या है?’ समाधि की स्थिति योग का सार रूप है। इसलिए, इस खंड में समाधि पर व्यापक चर्चा की गई है। इस अध्याय में भी मानव मन (चित्त) और उसकी सभी अस्थिर

दशाओ  (विचित्ति) की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है।


दूसरे पाद में क्लेश (कष्ट) की प्रकृति पर चर्चा और मानव कष्टों का हल खोजने का प्रयास किया गया है। यह एक प्रश्न उठाता  है कि ‘हमें योगाभ्यास क्यों करना चाहिए?’ यह मानव जीवन और इसकी दशाओं का एक उत्तम विश्लेषण प्रदान करता है।


इस ग्रंथ के इस भाग में अभ्यास के आठ अंग (घटक) प्रस्तुत किए गए हैं जो इस प्रकार हैंः यम, नियम,

आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठ घटको के पहल े पांच घटक बहिरगं योग या बाह्य प्रकृति के योग रूप कहे गए है। इन पांच घटको को आरंभिक तैयारी के घटको ं के रूप में जाना जा सकता है। बाद के तीन घटको ( धारणा, ध्यान, समाधि) को अंतरंग योग का घटक कहा गया है क्योंकि वे अंतर्मन को साधने का कार्य करते हैं। इनका अभ्यास हमें अंतरगं योग की ओर उन्मुख करता है जिसमें समाधि की स्थिति सन्निहित है। यह अध्याय हमें योग के धरातल पर मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और नैतिक रूप से तैयार करता है। 


तीसरा खंड विभूति पाद है जिसका पहला भाग अंतरंग योग, अष्टांग योग के अंतिम तीन घटक (समाधि), पर विस्तार से प्रकाश डालता है। ये उच्च तकनीके ं यौगिक जीवन के रहस्यों को प्रकट करती हैं। दिव्य शक्तियों (विभूतियो ं एवं सिद्धियो) का अनुभव होता है।


कैवल्य पाद इस ग्रंथ का अंतिम अध्याय है। यह योगाभ्यास से संबंधित दार्शनिक समस्याओं की गहरी छानबीन करता है। यह अध्याय मन की आवश्यक प्रकृति, लौकिक अवधारणा, मानव की ऐच्छिक प्रकृति और कैसे इच्छाएँ अनुकूलन और बंधन का कारण हैं; के बारे में भी चर्चा करता है। मुक्ति (कैवल्य) की स्थिति को किस प्रकार अनुभव किया जा सकता है और इस प्रकार की शुद्ध चेतना द्वारा किस तत्त्व की व्युत्पत्ति होती है, को स्पष्ट करता है।

पतंजलि योग सूत्र के चार अध्याय

पतंजलि योगसूत्र को चार अध्यायों के अन्तर्गत रखा गया है जिन्हें ‘पाद’ की संज्ञा दी है-
  1. समाधि पाद 
  2. साधन पाद 
  3. विभूति पाद 
  4. कैवल्य पाद 
समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं। कुल मिलाकर सम्पूर्ण योग सूत्र में 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है। विषय के अनुसार इन्हीं 195 सूत्रों में योग के विभिन्न विषय संक्षिप्त रूप में समझाए गए हैं जिन्हें समझने के लिए हम उपलब्ध टीकाओं और अनुवादों का सहारा लेते हैं। विषय की दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-

1. समाधि पाद - 

समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है। इस अध्याय में सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है। यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह योग समाधि है। समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात बताए गए हैं। जिनको बाद में विस्तार से जानकारी दी गयी है। दोनों ही प्रकार की समाधियों के अन्तर भेदों को भी विस्तार पूर्वक समझाने का प्रयास किया गया है। समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गयी है। विद्वानों के अनुसार इस अध्याय के अन्तर्गत बताए अभ्यास सामान्य योगाभ्यासी के लिए नहीं अपितु उच्च कोटि के अधिकारी के लिए है। जिनका चित्त पहले से ही स्थिर हो चुका है, उन्हीं को ध्यान में रखकर यहाँ अभ्यासों की चर्चा की गयी है। कई सारे अभ्यास दिखने में जितने आसान प्रतीत होते हैं करने में उतने ही कठिन है।

ईश्वर प्रणिधान या ईश्वर भक्ति (ईश्वर प्रणिधान का विस्तृत विवेचन चतुर्थ ईकाइ में किया जायेगा) और ईश्वर के स्वरूप की चर्चा भी इसी अध्याय के अन्तर्गत की गयी है। ईश्वर वर्णन के कारण ही कभी-कभी सांख्य और योग में अन्तर किया जाता है। सांख्य जहां ईश्वर का वर्णन नहीं करता वहीं योग (पातंजल योग) ईश्वर का वर्णन करने के कारण कभी-कभी सेश्वर-सांख्य के नाम से जाना जाता है।

इस प्रकार विभिन्न विषयों की विस्तार से चर्चा करने के साथ-साथ योग के दार्शनिक स्वरूप को बड़े ही सुन्दर ढंग से रखने का प्रयास समाधि पाद के अन्तर्गत किया गया है। चित्त से लेकर समाधि के भेद-प्रभेद एवं चित्त निरोध आदि के उपाय आदि भी इसी अध्याय के अन्तर्गत समझाए गए हैं। जिनके अध्ययन के बाद आपको योग की दार्शनिक पृष्ठभूमि का आकलन स्वत: ही लग जाएगा। इसी अध्याय के अन्तर्गत यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो योग के विभिन्न विषय जो बचे हुए 3 पादों में आने वाले हैं, उनका भी स्पष्ट-अस्पष्ट चित्र दिखाई दे जाता है।

2. साधन पाद 

साधन पाद में योग को प्राप्त करने के लिए कई उपाय आदि बताये गए हैं। भाष्यकारों के अनुसार पहले अध्याय मे  बताए गए अभ्यास उत्तम अधिकार प्राप्त योगियों के लिए सही है। मध्यम और साधारण अधिकारी उन अभ्यासों को करने में सक्षम नहीं है। इसी को ध्यान में रखकर इस अध्याय के प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि मध्यम अधिकारी के लिए क्रिया योग ही सर्वोत्तम साधन है। क्रिया योग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश किया है। इसी की विस्तृत चर्चा के साथ इस अध्याय की शुरुआत होती है। पंचक्लेषों की विस्तृत चर्चा भी इसी अध्याय के अन्तर्गत मिलती है। इसी अध्याय के अन्तर्गत आपको आगे चलकर अष्टांग योग की भी चर्चा मिलेगी जिसे साधारण अधिकारी के लिए अति उत्तम साधन माना गया है। अष्टांग योग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश किया गया है। अष्टांग योग सर्वाधिक प्रचलित साधना पद्धति है जिसको योग विषयक लगभग सभी अध्ययनों में देखा जा सकता है।


अष्टांग योग के विभिन्न अंगों की विवेचना के साथ-साथ यहां उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों का भी वर्णन किया गया है। जिसके कारण यहाँ प्राप्त होने वाले अष्टांग योग के वर्णन की तुलना किसी अन्य स्थल से नहीं की जा सकती है। इस अध्याय के अन्तर्गत विभिन्न दार्शनिक विषयों का भी वर्णन किया गया है। जिसमें ‘दृष्टा’ और ‘दृश्य’ प्रमुख हैं। दृष्टा यहां पुरुष को एवं दृश्य प्रकृति को कहा गया है। इन दोनों में विवेक ज्ञान हो जाना ही योग की प्राप्ति कराता है। इन दोनों की मिली हुई अवस्था के कारण ही अविद्या की स्थिति बनी रहती है। 


इसके अतिरिक्त ‘चतुव्र्युहवाद’ की भी स्पष्ट विवेचना इसी अध्याय के अन्तर्गत आती है। हेय-दु:ख का वर्णन, हेय-हेतु-दु:ख के कारण का वर्णन, हान-मोक्ष का स्वरूप और हानोपाय-मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्मिलित है। इस प्रकार यह अध्याय स्वयं में पूर्ण रूप से योग के विभिन्न दार्शनिक पहलुओं पर विस्तृत विचार प्रस्तुत करता है। कर्मफल का सिद्धान्त भी इसी अध्याय के अन्तर्गत आता है। 


इन सभी विषयों का ठीक प्रकार से समावेश होने के कारण इस अध्याय का नाम साधन पाद बहुत ठीक जान पड़ता है।

3. विभूति पाद 

धारणा, ध्यान और समाधि से शुरु होने वाले इस अध्याय में बड़े ही रहस्यास्पद एवं रोचक विषयों का समावेश देखने को मिलता है। यहां दार्शनिक विषयों का उल्लेख पहले के अध्यायों की अपेक्षा बहुत कम देखने को मिलता है। फिर भी, दार्शनिक दृष्टि से इस अध्याय का भी महत्व कम नहीं है। दार्शनिक विषयों में धर्म, धर्मी आदि का स्वरूप, चित्त के परिणाम की विवेचना मिलती है। इसके साथ-साथ धारणा, ध्यान और समाधि को यहां सम्मिलित रूप से ‘संयम’ के रूप में बताया गया है। ‘संयम’ योगसूत्र की पारिभाशिक शब्दावली का प्रमुख अंग है। सामान्यतया संयम का अर्थ नियंत्रण से होता है, परन्तु यहां इसका प्रयोग की धारणा, ध्यान और समाधि के सम्मिश्रण को बताया है। इन सभी विषयों के साथ-साथ इस अध्याय का प्रमुख विषय संयमजनित विभूतियों का वर्णन है। जिस कारण इस अध्याय का नाम विभूति पाद रखा गया है। विभूति का अर्थ यहां पर सिद्धियों से ही है। 

4. कैवल्य पाद 

यह अध्याय योग के चरम लक्ष्य ‘कैवल्य’ की स्थिति को बताने वाला है। इस अध्याय में भी योग के दार्शनिक स्वरूप पर चर्चा देखने को मिलती है। इस अध्याय की शुरुआत पांच प्रकार से प्राप्त होने वाली सिद्धियों के वर्णन से होती है जिसमें बताया गया है कि सिद्धियाँ जन्म से, औषधि से, मन्त्र से, तप से और समाधि के द्वारा मिलती है। जिसमें बाद में समाधि जन्य सिद्धि को शुद्ध माना है। जिसका कारण बताया गया है कि समाधि में वासनाजन्य संस्कार नहीं रहते इस कारण समाधि से प्राप्त सिद्धि भी पवित्र संस्कार वाली होती है। 


इस अध्याय मेंनिर्माण चित्त, चतुर्विध कर्म, वासना आदि का बड़ा ही सुन्दर वर्णन मिलता है। इसके आलावा  जीवनमुक्त की मनोवृत्ति पर भी समुचित प्रकाश डाला गया है। अन्त में कैवल्य का स्वरूप बताकर इस अध्याय की समाप्ति के साथ योगसूत्र की भी पूर्णता हो जाती है। पहले के अध्यायों की अपेक्षा यह अध्याय छोटा है। परन्तु, इसके बिना योग सूत्र की पूर्णता भी नहीं होती। इस कारण इस अध्याय का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है।

पतंजलि योग सूत्र में कितने नियम होते हैं?

इसे योग पर लिखी पहली सुव्यवस्थित लिखित कृ‍ति मानते है। इस पुस्तक में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है।

योग सूत्र में कितने यम नियम बताए गए हैं?

यह पाँच है - सत्य , अहिंसा , अस्तेय , ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह। नियम प्रवृत्तिमूलक साधन माने जाते हैं , जो पाँच है - शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय तथा ईश्वर - प्राणिधान। योग सर्वप्रथम यम और नियम द्वारा व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को ही ठीक करने की सलाह देता है।

योग सूत्र में कितने तत्वों का वर्णन है?

उत्तर – योग सूत्र में 26 तत्वों का वर्णन है ।