महाद्वीप एवं महासागर की उत्पत्ति (The Origin of Oceans and Continents in hindi) Show
महाद्वीप और महासागर विश्व के दो प्रमुख भौगोलिक घटक हैं जो पृथ्वी के प्रथम श्रेणी के उच्चावच कहलाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी का क्षेत्रफल लगभग 50.995 करोड़ वर्ग किमी है जिसमें से 36.106 करोड़ वर्ग किमी पर जल अवस्थित है तथा शेष 14.889 करोड़ वर्ग किमी पर स्थलमंडल अवस्थित है। संपूर्ण पृथ्वी का 70.8 % जल तथा 29.2 % भाग पर स्थल का विस्तार है।
✧ केल्विन के अनुसार पृथ्वी के शीतल होते समय संकुचन के कारण इसका कुछ भाग ऊंचा रह गया एवं कुछ भाग नीचे की ओर धंस गया। इस प्रकार ऊपर उठा हुआ स्थलीय भाग महाद्वीप बना एवं निचला भाग सागर की तली बना।इनकी उत्पत्ति, विकास एवं विस्तार के विषय में अनेक विद्वानों ने अलग-अलग मत प्रतिपादित किए हैं। कुछ महत्वपूर्ण मत निम्नलिखित हैं- ✧ जेम्स एवं जेफरीज के अनुसार घूर्णन की स्थिरता को प्राप्त करने के क्रम में पृथ्वी का आकार नाशपातीनुमा हो गया एवं ऊपर उठे हुए भागों द्वारा महाद्वीप एवं दबे हुए भागों द्वारा महासागरों का निर्माण हुआ। ✧ चेंबरलीन के अनुसार महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति एवं वितरण ब्रह्मांडीय पदार्थों के असमान वितरण का परिणाम है। ✧ सोलास के अनुसार महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति एवं वितरण, वायुमंडलीय दबाव की असमानता का परिणाम है। अधिक वायुमंडलीय दबाव वाले क्षेत्रों में महासागर एवं कम वायुमंडलीय दबाव वाले क्षेत्रों में महाद्वीप का निर्माण हुआ। ✧ ग्रेगरी ने 1919 में अपना मत 'स्थल सेतु सिद्धांत' के पक्ष में प्रस्तुत करते हुए बताया है कि विश्व के वर्तमान सभी स्थलीय भाग विभिन्न स्थल सेतुओं के माध्यम से परस्पर जुड़े हुए थे तथा एक भाग से दूसरे भाग तक जीवों एवं वनस्पतियों का निर्बाध संचरण होता था। कालांतर में इन स्थल सेतुओं के जलीय भाग के नीचे डूब जाने के कारण विभिन्न महासागर अस्तित्व में आए। वर्तमान समय में इस मत के पक्ष में विद्वानों का बहुमत नहीं है। ✧ लैपवर्थ एवं लव ने महासागर एवं महाद्वीपों की उत्पत्ति का मुख्य कारण पृथ्वी के ऊपरी धरातल पर बड़े पैमाने पर वलन की क्रिया का होना बतलाया। लैपवर्थ के अनुसार पृथ्वी के शीतल होने के क्रम में संकुचन के परिणामस्वरूप वलन की क्रिया हुई तथा वलन का अपनति (Anticline) वाला भाग महाद्वीप एवं अभिनति (Syncline) वाला भाग सागर में परिवर्तित हो गया। लव के अनुसार पृथ्वी की केंद्रीय आकर्षण शक्ति के कारण उसके धरातलीय भाग में विभिन्न स्थानों पर उत्थान एवं अवतलन की क्रिया हुई। महाद्वीप एवं महासागर की उत्पत्ति के प्रमुख सिद्धान्त-1. लोथियन ग्रीन का चतुष्फलक सिद्धांत-इस सिद्धांत का प्रतिपादन लोथियन ग्रीन (1875) द्वारा किया गया यह सिद्धांत संकुचन पर आधारित है। यह सिद्धांत वास्तव में ब्यूमोंट के पेंटागोनल डोडीकाहेड्रन सिद्धांत का ही संशोधित रूप है।लोथियन ग्रीन ने यह कल्पना की कि यदि गोलाकार वस्तु को चारों ओर से समान भार द्वारा दबाया जाए तो उसकी आकृति चतुष्फलकीय हो जाएगी। चतुष्फलक की रचना चार समबाहु त्रिभुजों के मिलने से होती है एवं इसका आयतन धरातलीय क्षेत्र की तुलना में कम होता है। चतुष्फलक के विपरीत गोला वह आकृति है जिसका आयतन धरातलीय क्षेत्र की अपेक्षा अधिकतम होता है। प्रयोगों के आधार पर ग्रीन ने यह निष्कर्ष निकाला कि यदि एक गोला के धरातल पर चारों तरफ से समान दबाव डाला जाए तो वह गोला चतुष्फलक आकृति में परिवर्तित हो जाएगा। इस सिद्धांत को ग्रीन ने पृथ्वी पर लागू किया। लोथियन ग्रीन ने यह माना कि पृथ्वी की उत्पत्ति के समय वह एक गोले के रूप में थी। उस अवस्था से वह धीरे-धीरे ठंडी हुई। भूपटल सबसे पहले ठंडा होकर ठोस हुआ। आंतरिक भाग धीरे-धीरे ठंडा व संकुचित हुआ। पृथ्वी के आंतरिक भाग में ऊपरी भाग की अपेक्षा अधिक संकुचन होने के कारण उसका आयतन घट गया। ऊपरी भाग पहले ही ठोस हो चुका था, उसमें अधिक सिकुड़न की गुंजाइश नहीं थी। परिणामत: पृथ्वी की ऊपरी परत (भूपटल) व भीतरी भाग में अंतर आ गया। तब गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार भूपटल को आंतरिक भाग पर बैठना पड़ा। इस प्रक्रिया में गोल आकार पृथ्वी चतुष्फलकीय होने लगी। इस चतुष्फलक आकृति के चपटे भागों पर महासागर एवं कोनों वाले भागों अथवा कोणात्मक भागों पर महाद्वीप का निर्माण हुआ। उत्तरी सपाट भागों पर आर्कटिक महासागर एवं शेष तीन चपटे भागों पर प्रशांत महासागर, अंध महासागर एवं हिंद महासागर का निर्माण हुआ। इसी प्रकार जल से ऊपर उठे हुए चारों कोणात्मक भागों पर उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका, यूरोप व अफ्रीका, एशिया एवं आस्ट्रेलिया तथा अंटार्कटिका महाद्वीप फैले हुए हैं। चतुष्फलकीय आकृति के अनुरूप ही महाद्वीप एवं महासागर प्रतिध्रुवीय (Antipodal) स्थिति में है।2. जोली का तटीय चक्र सिद्धांत- महाद्वीपों एवं महासागरों के वर्तमान वितरण को स्पष्ट करने के लिए महाद्वीपीय विस्थापन को आवश्यक समझा गया। वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत में सबसे प्रमुख कमी विस्थापन के लिए आवश्यक शक्ति की थी। इसी दौरान रेडियो एक्टिव पदार्थों की खोज ने भौतिक भूगोल के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचारों का सूत्रपात किया। रेडियो एक्टिव तत्व विखंडित होकर उष्मा पैदा करते हैं। विद्वानों के मत में यदि यह ऊष्मा अध:स्तर में एकत्रित हो जाए तो अध:स्तर पिघल सकता है। द्रवित अध:स्तर में तैरते हुए महाद्वीप साधारण बल द्वारा ही विस्थापित हो सकते हैं। रेडियो एक्टिवता को आधार मानकर जोली, होम्स एवं अन्य विद्वानों ने अपने सिद्धांत प्रस्तुत किए। ✧ जोली (1952) ने तापीय चक्र सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए पृथ्वी के धरातलीय इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया। सुएस की भांति जोली भी महाद्वीपों को कम सघन (2.67) सियाल से निर्मित मानते हैं। ✧ जोली के मत में भूपटल के नीचे समस्त शैलें रेडियो सक्रिय हैं। सियाल के नीचे रेडियो एक्टिव तत्व अधिक एकत्रित हैं। थोरियम एवं यूरेनियम प्रमुख रेडियो एक्टिव तत्व हैं, जिनके विखंडन से ऊष्मा एकत्रित होती रहती है। इनसे कालांतर में अधिक ताप के कारण धरातल पर महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। जोली के अनुसार भूपटल में सियाल के नीचे रेडियो एक्टिवता द्वारा उत्पन्न ताप क्रमशः बाहर निकलता रहता है, अतएव संचित नहीं हो पाता। किंतु महासागरों के नीचे सीमा में ताप एकत्रित होता रहता है। इस संचित ताप के कारण 330 लाख से 560 लाख वर्षों में अध:स्तर पिघलने से पृथ्वी का व्यास बढ़ जाता है। सीमा का घनत्व कम होने पर सियाल निर्मित महाद्वीप उसमें गहरे धंस जाते हैं। उन पर सागरों का जल चढ़ जाता है। इसे सागरों का अतिक्रमण काल कहते हैं। महाद्वीपों के किनारों पर छिछले सागरों में तलछट का निक्षेप होता रहता है। महासागरों के तलों में तनाव होने के कारण विदरें उत्पन्न होती हैं और उनसे पिघला हुआ बेसाल्ट बाहर निकलता है। इससे द्वीपों का निर्माण होता है। तलछट में वलन क्रिया होने से पर्वतों की उत्पत्ति होती है। ✧ पिघले हुए अध:स्तर के ऊपर महाद्वीपों के तैरने पर ज्वारीय शक्ति प्रबल होती है, जिसके द्वारा महाद्वीपों का पश्चिम दिशा में विस्थापन होता है। महाद्वीपों का विस्थापन होने से उनके नीचे से संचित ऊष्मा बाहर निकल जाती है। फलत: अध:स्तर ठंडा होकर पुनः ठोस हो जाता है। पृथ्वी का व्यास पुनः कम हो जाता है। महाद्वीप ऊंचे उठ जाते हैं तथा उनके ऊपर से सागरीय जल वापस लौट जाता है। यह सागरी प्रतिक्रमण काल कहलाता है। 3. होम्स का संवहन धारा सिद्धांत-✧ होम्स (1928-29) के अनुसार भूपटल की रचना ऊपरी व निचली सियाल परतों से हुई है। इनके नीचे अध:स्तर लगभग द्रवित अवस्था में मौजूद है। सागरों के नीचे ऊपरी सियाल परत नहीं पाई जाती, किंतु निचली सियाल परत एवं अध:स्तर महाद्वीपों एवं महासागरों के नीचे सर्वत्र विस्तृत है। ✧ महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति के बारे में होम्स का सिद्धांत नवीन दिशा प्रस्तुत करता है। यह सिद्धांत शैलों की रेडियो ऐक्टिवता पर आधारित है। भूपटल की शैलों में यूरेनियम, थोरियम, पोटेशियम आदि रेडियो ऐक्टिव पदार्थ विखंडित होकर ऊष्मा पैदा करते हैं। ये कण भूपटल की ऊपरी परत में निचली परतों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, किंतु ऊपरी सिआल परत से ऊष्मा या ताप विकिरण द्वारा बाहर निकल जाता है, जबकि अध:स्तर में ताप संचित होता रहता है। फलस्वरूप अध:स्तर में संवहन धाराएं (Convection Currents) चलने लगती है। संवहन धाराओं का चलना दो बातों पर निर्भर करता है- (i) विषुवत रेखा से ध्रुवों तक अध:स्तर की मोटाई। (ii) भूपटल की मोटाई एवं रेडियो ऐक्टिव पदार्थों की मात्रा। विषुवत रेखा पर ध्रुवों की अपेक्षा भूपटल की मोटाई अधिक है। अतएव इसके नीचे से ऊपर उठने वाली संवहन धाराएं चलती हैं। इसी प्रकार महाद्वीपों के नीचे भी महासागरों की अपेक्षा रेडियो ऐक्टिव पदार्थों की अधिकता के कारण नीचे से ऊपर उठने वाली धाराएं चलती हैं। विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर चलने वाली धाराओं द्वारा भूखंड भी ध्रुवों की ओर विस्थापित तथा खंडित होता है। मेसोजोइक युग में टेथिस की उत्पत्ति इसी प्रकार भूखंड के खंडित होने से हुई होगी। 4. महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना (Continental Drift Hypothesis)-इस परिकल्पना का प्रतिपादन टेलर (Taylor) द्वारा किया गया। 5. महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत (Continental Drift Theory)-महाद्वीपों के प्रवाहित होने की संभावना का सुझाव सर्वप्रथम एंटोनियो स्नाइडर ने 1858 ई. में दिया। पुन: टेलर ने 1910 ई. में महाद्वीपीय प्रवाह की परिकल्पना के आधार पर मोड़दार पर्वतों के वितरण को स्पष्ट करने का प्रयास किया। परंतु सर्वप्रथम वेगनर ने 1912 ईस्वी में महाद्वीपीय प्रवाह को एक सिद्धांत के रूप में रखा। वेगनर ने विश्व के विभिन्न भागों में हुए जलवायु परिवर्तन को महाद्वीपीय विस्थापन द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया। वेगनर के अनुसार कार्बोनिफेरस युग में संसार के सभी महादेश आपस में जुड़े हुए थे एवं एक महान स्थल खंड पैंजिया (Pangaea) के रूप में विद्यमान थे। पैंजिया के चारों ओर एक विशाल सागर था, जिसे वेगनर ने पैंथलासा (Panthlasa) कहा। ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका, प्रायद्वीपीय भारत, अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका मिलकर इस स्थल खंड के दक्षिणी भाग थे, जिसे गोंडवाना लैंड कहा जाता है। उत्तरी अमेरिका, यूरोप एवं एशिया स्थल खंड के उत्तरी भाग थे, जिसे अंगारा लैंड या लौरेशिया कहा जाता है। इन दोनों खंडों के बीच टेथिस सागर स्थित था। वेगनर ने यह भी माना कि उस समय दक्षिणी ध्रुव दक्षिणी अफ्रीका में डरबन के पास एवं उत्तरी ध्रुव प्रशांत महासागर में स्थित था। कार्बोनिफेरस युग में पैंजिया का विखंडन प्रारंभ हुआ एवं महाद्वीपों का वर्तमान रूप पैंजिया के विखंडन एवं इन विखंडित स्थल खंडों के विभिन्न भागों में प्रवाहित होने के फलस्वरूप हुआ है। वेगनर के अनुसार सीमा के ऊपर तैरते हुए पैंजिया का विखंडन एवं मुख्य रूप से गुरुत्वाकर्षण शक्तियों की असमानता का परिणाम था। उनके अनुसार महाद्वीपों का प्रवाह दो दिशाओं में हुआ है। एक भूमध्य रेखा की ओर, जो उस समय वर्तमान अल्पाइन पर्वतों के क्षेत्र से होकर गुजरती थी एवं दूसरा, पश्चिम की ओर। विषुवत रेखा की ओर प्रवाह का कारण विषुवत रेखीय भाग में उभार (Bulge) से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण बल माना गया। महाद्वीपों के पश्चिम की ओर प्रवाह का कारण सूर्य एवं चंद्रमा के ज्वारीय बल को माना गया। यूरेशिया, अफ्रीका एवं प्रायद्वीपीय भारत के भूमध्य रेखा की ओर प्रवाहित होने एवं एक दूसरे के समीप आने से अल्पाइन एवं हिमालय पर्वत श्रेणियों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार एंडीज एवं रॉकी पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण पश्चिम की ओर प्रवाहित होते हुए उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी किनारों के समुद्र तल की चट्टानों की रुकावट के कारण मुड़ जाने से हुआ। प्रवाह सिद्धांत के पक्ष में प्रमाण- I. कार्बोनिफेरस युग हिमानीकरण के प्रमाण से इस बात की पुष्टि होती है, कि ये स्थल खंड आपस में जुड़े हुए थे एवं दक्षिणी ध्रुव डरबन के पास था। II. दोनों तटों के भूवैज्ञानिक इतिहास एवं संरचना में भी समानता पाई जाती है। III. अटलांटिक महासागर के दोनों तटों (अर्थात् अफ्रीका का पश्चिमी तट एवं दक्षिण अमेरिका का पूर्वी तट तथा उत्तरी अमेरिका का पूर्वी तट तथा यूरोप के पश्चिमी तट) को ठीक उसी प्रकार मिलाया जा सकता है जिस प्रकार एक वस्तु के दो टुकड़े करके उन्हें पुन: मिलाया जा सकता है। इस अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों को Jig-Saw-Fit कहा जाता है। आलोचना- I. एक तरफ वेगनर का यह मानना है कि सियाल सीमा पर तैर रहा था। दूसरी तरफ वे यह मानते हैं कि सीमा से सियाल के प्रवाह पर रुकावट आई। II. वेगनर द्वारा महाद्वीपों के प्रवाह के लिए जिस बल की कल्पना की गई है, वह वास्तविकता से परे है। इन आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धांत के द्वारा अनेक भौगोलिक एवं भूवैज्ञानिक समस्याओं को सुलझाने में मदद मिली है। प्लेट विवर्तनिकी एवं पुराचुंबकत्व (Paleo Magnetism) अध्ययन से इस सिद्धांत के समर्थन में नए प्रमाण प्राप्त हुए हैं। समुद्र तल का प्रसार- ✧ पुराचुंबकत्व संबंधी अध्ययनों से इस बात की पुष्टि होती है कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले विभिन्न युगों की चट्टानों में चुंबकीय दिकपात एवं झुकाव (Magnetic Declination and Inclination) भिन्न-भिन्न हैं। साथ ही विभिन्न महादेशों में एक ही भूवैज्ञानिक काल के लिए ध्रुवों की स्थिति भिन्न पायी गई है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि महाद्वीपों का विस्थापन हुआ है। पुराचुंबकत्व से समुद्र तल प्रसार की भी पुष्टि होती है। ✧ 'समुद्र तल प्रसार' की परिकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम हैरी हेस द्वारा 1960 ईस्वी में किया गया। ✧ इस सिद्धांत के अनुसार संवहन धाराओं द्वारा मध्य महासागरीय कटक से मैग्मा ऊपर उठता है एवं वहां से दोनों किनारों पर फैलता है। इस प्रकार कटकों के सहारे समुद्र तल का प्रसार एवं ट्रेंचों के सहारे विनाश होता है। यही कारण है कि कटक से दूर जाने पर चट्टानों की आयु भी बढ़ती जाती है, अर्थात् कटक के निकट नवीनतम एवं कटक से दूर प्राचीनतम चट्टानें मिलती हैं। ✧ व्हाइन तथा मैथ्यू ने चुंबकीय ध्रुव में उत्क्रमण से उत्पन्न चुंबकीय विसंगति के आधार पर हैरी हेस के इस सिद्धांत की पुष्टि की है। ✧ महाद्वीपीय प्रवाह, मध्य महासागरीय कटक के निकट भूकंपों का आना, कटक पर तलछटों का अभाव, मध्य अटलांटिक कटक पर ज्वालामुखी द्वीपों का पाया जाना, पूरे सागरीय तल पर तलछटों का पतला आवरण, समुद्री तल पर 1.3 करोड़ वर्षों से अधिक पुरानी चट्टानों की अनुपस्थिति आदि तथ्यों की व्याख्या हैरी हेस के समुद्री तल प्रसार सिद्धांत द्वारा की जा सकती है। 6. प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत (Plate Tectonic Theory)- यह महाद्वीपीय विस्थापन को स्पष्ट करने वाला नवीनतम एवं सर्वाधिक मान्य सिद्धांत है। Read More |