मुगल शैली के किन्हीं दो चित्रों का वर्णन कीजिए। - mugal shailee ke kinheen do chitron ka varnan keejie.

अरब निवासी कला से घृणा करते थे और किसी मानवाकृति या पशु-पक्षी को अंकित करना उनके लिए तुच्छ कार्य था। यद्यपि इस्लाम धर्म का शनैःशनैः उत्थान होता रहा परन्तु कला के क्षेत्र में धर्माधिकारियों के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया।

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किसी कलाकार ने यदि कोई कलाकृति बनायी तो इस्लाम धर्माधिकारियों ने उसे नष्ट करवा दिया क्योंकि कुरानशरीफ में मद्य एवं द्यूत के समान कला रचना को एक प्रकार की शैतान की आदत बताया गया है और हदीस के अनुसार कयामत के दिन कलाकार नरक में जाता है क्योंकि वह ईश्वर के समान जगत को चेतन करने का दुस्साहस करता है।

इन सबसे ज्ञात होता है कि इस्लाम के प्रारम्भिक अनुयायी कला के प्रति अपना व्यवहार कितना कट्टर रखते थे। इस धार्मिक संकीर्णता के कारण शासकों ने अनेक कलाकृतियों को नष्ट करवा दिया।

सुल्तान फिरोजशाह, चंगेज खाँ, नादिर शाह आदि ने सर्वथा संस्कृति एवं कला का शोषण किया परन्तु धीरे-धीरे परिस्थतियों में परिवर्तन हुए और परवर्ती इस्लामी शासक कला के संदर्भ में सहृदयी और उदार हुए एवं उससे कला के उत्कृष्ट नमूने तैयार हुए।

इस्लाम के अनुयायियों ने अपने देश की सीमाओं को तोड़कर अन्य देशों में प्रवेश किया।

मुगल शैली का विकास | Development of Mughal Style

भारत में अरब निवासियों ने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का विस्तार किया। भारत में राजनैतिक एवं सामाजिक अस्थिरता के कारण जहाँ एक ओर अरब के शक्तिशाली वर्ग को भारत में शासन स्थापित करने में सहायता मिली वहीं भारतीयों को भी अरबी संस्कृति ने बहुत प्रभावित किया जिसके परिणाम स्वरूप कला, साहित्य एवं संगीत के क्षेत्र में भी कलाकार उससे प्रेरणा लेने लगे।

अरबों के पश्चात् भारत में मुगलों का आगमन हुआ जो अपने साथ-साथ वहाँ की कला के नमूने भी लेकर आए।

इन्होंने भारतीय कला एवं संस्कृति से समागम कर कला की एक नयी समन्वित शैली का विकास किया और भारत में मुगल साम्राज्य स्थापित हो जाने पर कला के क्षेत्र में नयी-2 संभावनाएँ एवं प्रवृत्तियाँ दिखाई देने लगी।

इस संदर्भ में वावर (जन्म 1483 ई०) मुगल सल्तनत के अधिष्ठाता थे जिनका जन्म तैमूर वंश में हुआ उनकी माता मंगोल वंश की थी जिसके नाम पर बाबर का वंश मुगल वंश कहलाया।

बाबर एक महत्वाकांक्षी इन्सान थे। इन्होंने 1519 ई० में भारत पर आक्रमण कर एक बड़ा भाग अपने आधीन कर लिया। राजनीति के साथ-साथ उनकी रूचि कला एवं साहित्य में भी थी वह स्वयं एक उच्चकोटि के कवि तथा लेखक थे।

रायकृष्णदास के शब्दों में, “बाबर में भी यह कुलगत कलाप्रवृत्ति पूर्णरूप से विद्यमान थी। कवि होने के सिया यह ऐसा प्रौढ़ गद्य-लेखक था कि उसका आत्मचरित, जो तुर्की भाषा में है, विश्व साहित्य की चीज है। इस रामकहानी में उसने घटनाओं के बहुत विशद और सजीव वर्णन तो किये ही है, मनुष्यों के नख-शिख एवं प्रकृति तथा स्थावर जंगम जगत के ऐसे सच्चे और सजीव शब्द चित्र भी खींचे हैं कि मानना पड़ता है कि वह पहुॅचा हुआ मुसव्विर था, भले ही उसने रंग और तूलिका का प्रयोग कभी न किया हो।”

बाबर कला के क्षेत्र में जो कछ चाहते थे वह नहीं कर पाए और उनकी महत्वाका को हुमायुँ ने पूर्ण करने का प्रयास किया परन्तु राजनीति के कठोर घटना चक्रों ने उनको भावनाओं क पनपने में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कर दी।

हुमायूँ को 1540 ई० में अफगान शासन शेरशाह द्वारा दिल्ली से बाहर कर दिया गया और उन्हें 15 वर्ष फारस में और अफगान में रहना पड़ा।

शाह ताहमश (Tahmash) के दरबार में वह फारसी चित्रकार अगामिरक (Aga Mirak), सुल्तान मुहम्मद अली तथा मुजफ्फर अली के सम्पर्क में आए है सभी विहिजाद के शिष्य थे जिसे ‘पूर्व का रैफल’ कहा जाता था।

यहीं वह कवि कलाकार मीर सैयद अली के भी सम्पर्क में आए। 1550 ई० के लगभग मीर सैयद अली तथा अब्दुस्समद हुमायूँ के साथ जुड़ गए और जब हुमायूँ को वापिस अपना शासन भारत में मिला तो वह दोनों कलाकार इन्हीं के साथ यहाँ आ गए जिनमें अब्दुस्समद पशु चित्रण में पारंगत थे और मीर सैयद अली ग्राम्य चित्रण में इन दोनों कलाकारों ने ईरानी शैली को भारतीय शैली में ढ़ालकर एक नवीन शैली का सूत्रपात किया जो हिरात-कलम कहलायी।

इस समय कलाकारों ने अपनी कला प्रतिभा का जो कौशल दिखाया वह उन पुस्तकालयों में दिखायी देता है जहाँ शाही पुस्तकें संग्रहित थी। इसके अतिरिक्त कलाकारों ने मुगल शासकों की छवियों को सिक्कों पर भी ढाला।

जहाँगीर के सिक्कों में उन्हें उनको महारानी नूरजहाँ के साथ दर्शाया गया है। मुगल शासकों ने विशाल दुर्गों तथा भव्य स्मारकों का बड़े स्तर पर निर्माण कराया।

साथ ही साथ कलाकारों को राजकीय सम्मान एवं आश्रय दिया गया, उन्हें पुरस्कार दिए गए, जागीरें गयीं और इससे भी अधिक इन्हें दरबार में उचित स्थान दिए गए।

वाचस्पति गैरोला के शब्दों में, “उन्होंने विशाल दुर्गो, भव्य स्मारकों को स्थापित करके अपनी कला प्रियता का परिचय दिया। उन्होंने कलाकारों को समुचित राजकीय सम्मान दिया। उनकी कला साधना के लिए उन्हें समुचित सुविधाएँ दी। उनके नाम जागीरें बार्थी, उन्हें आर्थिक सहायता दी और दरबार में उनके लिए स्थान निश्चित किए। वे बड़ी दिलचस्पी से स्वयं भी कला संविधानों की बारीकियों को जानने और क्रियात्मक रूप से चित्रशालाओं में बैठकर अभ्यास करने लगे। इस प्रेरणा, प्रोत्साहन और आदर सम्मान का परिणाम यह हुआ कि कलाकारों के अनेक वर्ग बड़ी तेजी से प्रकाश में आए।”

इस प्रकार यह निश्चित है कि इस्लाम के कटुनिषेध एवं प्रतिबन्धों के परिणाम स्वरूप भी मुगलों ने कला के प्रति अपना व्यवहार उदार रखा।

सौंदर्य के प्रति एक निर्मल भावना तथा प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता मुगल शासकों की प्राथमिक विशिष्टताएँ थी वावर एवं जहाँगीर घण्टों निसर्ग के सान्निध्य में आत्मदर्शन करते थे और -अकबर कला रचना को ईश्वर तक जाने का एक मार्ग मानते थे।

मुगल तथा दृश्यों का प्रत्यक्ष सादृश्य के साथ आलंकारिक प्रस्तुतीकरण थे। इसी संदर्भ में अकबर शासन काल का सौवलदास बनाया हुआ वह चित्र बहुत प्रभावपूर्ण जिसमें अकबर उस युद्ध को दर्शाया जब 27 सरदारों के साथ गुजरात के अहमदाबाद तूफानी आक्रमण किया था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मुगल सल्तनत नींव रखने वाले बाबर आरम्भ होकर यह शैली औरंगजेब के पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य के पर समाप्त हुई।

मुगल सल्तनत का इतिहास लगभग 200 वर्षों (16वीं, 17वीं शताब्दी लगभग) है। इस सम्पूर्ण समय राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक इतिहास मुगल चित्रों स्पष्ट है।

इन मुगल चित्रों में वैसे तो भारतीय एवं ईरानी शैली का सम्मिश्रण माना परन्तु सूक्ष्म रूप से देखें पाश्चात्य प्रभाव को भी नहीं नकारा जा सकता। वास्तव तो यह कि भले ही मुगल शैली पर अन्य शैलियों प्रभाव रहा हो परन्तु लघु चित्र श्रृंखला के क्षेत्र में यह शैली मात्र एक कड़ी ही नहीं वरन् पहाड़ी शैली लिए प्रेरणा स्रोत भी है जिसको नींव में मुगल कलाकारों का सहयोग महत्त्वपूर्ण है।

Books: How to Draw ( Drawing Guide for Teachers and Students)

अकबर काल (1556-1606) | Art during Akbar’s period

सभी मुगल सम्राटों में अकबर का शासन काल अनेक प्रकार प्रभावपूर्ण रहा क्योंकि उन्होंने विविध राज्यों एकता के आधार पर विशाल साम्राज्य की स्थापना की। वह जब 1556 सिंहासनारूढ़ हुए 13 वर्ष के थे।

तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियाँ अकबर के सर्वथा विपरीत थी परन्तु परिश्रम, साहस एवं दृढ़ प्रतिज्ञा उन्होंने दुष्कर मार्ग को सुगम बना दिया।

अकबर की कार्य क्षमता एवं अद्वितीय दूरदर्शिता में उनकी समन्वयात्मक नीति ने विशेष योगदान दिया। उन्होंने धार्मिक द्रोह आक्रोशित जनता शान्त किया और शनैः अपने साम्राज्य की सीमा रेखाओं का भी विस्तार किया।

इस समय तक उत्तर भारत में समृद्धता एवं शान्ति स्थापित हो चुकी थी। इसी कारण साथ ही साथ वह यथासम्भव कला एवं साहित्य जगत को भी एक आधार प्रदान कर दृढ़ करते रहे।

अबुल फजल की रचना ‘आइने अकबरी’ से ज्ञात होता है कि उन्हें किशोरावस्था से ही चित्रकला का शौक था। अबुल फजल के अनुसार “किशोरावस्था से ही श्रीमान की अभिरूचि चित्रकला की ओर रही है और वे सब तरह से उसे प्रोत्साहित करते हैं। चित्रकला को वे अध्ययन एवं मनोरंजन का हेतु मानते हैं। उनके इस पृष्ठपोषण से यह कला उन्नत हो रही है और अनेक चित्रकारों ने प्रसिद्धि प्राप्त की है। चित्रशाला के दरोगा प्रतिसप्ताह समस्त चित्रकारों के काम को श्रीमान के सम्मुख उपस्थित करते हैं। जो काम की उत्तमता के अनुसार कारीगरों को इनाम देते हैं व उनका वेतन बढ़ाते हैं।”

इतिहास साक्षी है कि अकबर ने अपने आश्रय में बहुत से कलाकारों को स्थान दिया और सम्मानित पद पर प्रतिष्ठित किया। इसी के साथ-साथ अकबर में अपने कलाकारों के कार्यों को परखने की क्षमता भी थी।

प्रारम्भिक समय में अकबर के दरबार में ईरानी कलाकार प्रमुख थे। इसलिए तत्कालीन चित्रों पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप देखा जा सकता है जैसे कि मुख्य रूप से बाबरनामा के चित्रों में इसी समय हम्जानामा भी चित्रण हुआ जिसमें अंकित मानवाकृतियों वास्तु रंगाकन आदि में ईरानी प्रभाव दिखायी देता है।

इस प्रकार अकबर काल में भारतीय तथा उनी शैली का सम्मिश्रण दिखायी देता है।

वाचस्पति गैरोला भी उसकी पुष्टि कुछ इस प्रकार करते हैं. इन मुगलकालीन चित्रों में दो प्रकार की शैलियों का सम्मिश्रण है- भारतीय और ईरानी अन्तः सौंदर्य की अभिव्यक्ति जिन चित्रों दर्शित है उनमें भारतीय शैली को अपनाया गया है और बाहय सौंदर्य का अभिव्यंजन ईरानी शैली के माध्यम से हुआ है। इस प्रकार भारतीय शैली के चित्रों में की प्रधानता और ईरानी शैली के चित्रों में उत्तम रेखांकन का समावेश हुआ।"

धीरे-धीरे ईरानी शैली के चित्रकारों पर भारतीय प्रभाव पड़ने लगा। साथ ही काश्मीरी एवं राजस्थानी शैलिये ने भी मुगल कलाकारों को प्रभावित किया।

इन्होंने हिन्दु कलाकारों के साथ मिलकर कार्य किया क्योंकि अकया हिन्दु कलाकारों को बहुत सम्मान देते थे। इस समय बहुत से हिन्दु कलाकारों के नाम मिलते हैं।

आइने  अकबरी में अबुल फजल एक स्थान पर लिखते हैं, "यह सत्य है कि हिन्दुओं के चित्र हमारी चित्रकला को मात करते हैं। वास्तव सम्पूर्ण संसार में इनके जैसे चित्रकार कम मिलते हैं।" 

अकबर के दरबार चूंकि सभी कलाकारों ने मिलकर कार्य किया। इसलिए एक ही चित्र में अलग-अलग कलाकारों की तूलिका होने के कारण आपसी प्रभाव का पड़ना सम्भाव्य था.

अकबर पुस्तकों के आधार पर चित्रों को तैयार करवाते थे। संस्कृत एवं फारसी दोनों का ही वह सम्मान करते थे।

इससे सम्बन्धित बहुत से दृष्टान्त चित्रों तथा हस्तलिखित पोथियों को अकबर ने सचित्र तैयार कराया जिनमें से शाहनामा, तवारीखे-खानदान-ए-तैमूरिया, अकबर नामा, अनवार-ए-सुहेली (पंचतंत्र का अनुवाद) रज्मनामा (रामायण का अनुवाद) बाकआत-वाबरी (बाबर की आत्म कथा) रामायण, महाभारत, हरिवंश, दशावतार, कृष्णचरित, तृतीनामा कथा सरित्सागर, चंगेजनामा आदि प्रमुख हैं।

इन पोधियों में विषयानुसार सभी प्रकार की सामाजिक, राजनैतिक, घटनाओं तथा उत्सव आदि को चित्रित किया गया है। साथ ही विषय से सम्बन्धित प्रत्येक पात्र आत्माभिव्यक्ति में कलाकार की तूलिका के कौशल को भी प्रत्यक्ष प्रदर्शित करता है।

यह हस्तलिखित पोथियाँ जहाँ एक ओर कलाकार के कौशल की सूचक हैं; वहीं दूसरी ओर आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह पोथियाँ मूल्यवान हैं।

यह पोथियाँ अकवर के शो पुस्तकालय में संग्रहित थी जो आगरा और दिल्ली के साथ-साथ लाहौर में भी था। आज यह पोथियाँ लंदन, फ्रांस यूरोप तथा भारत के विभिन्न संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। रज्मनामा का चित्रण दसवन्त तथा वसावन द्वारा बहुत ही सुन्दरता पूर्वक किया गया।

यह सर्वविदित है कि अकबर एक उत्कृष्ट कला प्रेमी थे जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण तत्कालीन कलाकृतियों को देखकर हो जाता है। अकबर ने राजनीति और कला के क्षेत्र में साहसपूर्ण कार्य किए उनके अनुसार चित्रकार ही मानव का एक मात्र गुरू है जो ईश्वर की विभूतियों को प्रस्तुत कर उसके अस्तित्व को बताता है।

उनका ऐसा विश्वास था कि चित्रकार जब कला साधना करता है तो वह ईश्वर से साक्षात्कार करता है। उसके हृदय में एक प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति का निवास होता है और इसी शक्ति से चित्रकार सुन्दर चित्रों का निर्माण कर पाता है।

वाचस्पति गैरोला के अनुसार, "शहंशाह अकबर पहला कला प्रेमी शासक था, जिसने प्रसुप्त भारतीय चित्रकला को पुनरूज्जीवित किया। उसने बड़े उद्योग से अच्छे चित्रकारों को अपने यहाँ आदरपूर्वक आमन्त्रित किया। उसने बाहरी चित्रकारों को उनकी कृतियों पर पुरस्कार देकर उन्हें प्रोत्साहित किया। उसने धर्म के प्रतिबन्धों से नियन्त्रित चित्रकला को उभारा और उसको लोक गोचर करके जनता के हृदय में अपना वास्तविक स्थान बनाया। धर्म के ठेकेदार मौलवी-मुल्लाओं के कुप्रचार के भय से भारतीय चित्रकार अपने क्षेत्र से हटते जा रहे थे, किन्तु अकबर की इस उदारता ने उसमें नए जीवन का संचार किया जिसका प्रबल समर्थक हुआ शहंशाह जहाँगीर।"

अकबर के दरबार में लगभग 100 कलाकार कार्य कर रहे थे और सभी कलाकार अपने कार्यों में इतने दक्ष थे कि इनको प्रसिद्धि ईरान तथा यूरोप जैसे देशों में भी हो रही थी जिसकी पुष्टि अबुल फज़ल के वक्तव्य से हो जाती है,

“चित्रकारी की सामग्री में बहुत उन्नति हुई है एवं रंग बनाने का तरीका विशेष उन्नत हुआ है जिसके कारण अब चित्रों की अभूतपूर्व तैयारी होने लगी है। अब ऐसे-ऐसे चित्रकार तैयार हो गए हैं कि इनके चित्र यूरोप के चित्रकारों से टक्कर लेते हैं। इन उत्तम चित्रकारों की संख्या 100 से ऊपर है और जो कारीगरी में पूरे वा माध्यम श्रेणी के हैं उनकी संख्या तो बहुत बड़ी है। कलम की बारीकी तैयारी पोढ़ापन आदि जो अब के चित्रों में पाया जाता है। वह अप्रतिम है, यहाँ तक कि निष्प्राण वस्तुओं में भी जीवन जान पड़ता है।”

उनके दरबार के हिन्दु चित्रकार मुस्लिम चित्रकारों की तुलना में अधिक दक्ष एवं संवेदनशील थे। इन कलाकारों ने बहुत सी पोथियों में चित्रों का निर्माण किया।

अकबर का शाही पुस्तकालय 24000 हस्तलिखित पोथियों से भरा पड़ा था। किसी विशिष्ट अतिथि के आने पर वह उन्हें अपना यह पुस्तकालय दिखाते थे।

इसी के साथ-साथ अकबर ने अपने अन्तःपुर में अतिथिशाला, महल, शयनकक्ष को भी सुन्दर भित्तिचित्रों से सुसज्जित करवाया हुआ था। साथ ही साथ स्तम्भ, छत, एवं फर्श को भी विविध विधियों से सज्जित कर आकर्षक बनाया गया था।

यह सभी कलाकृतियाँ अकबर की रूचि एवं परिष्कार की सूचक हैं। साथ ही हिन्दू रानी के प्रेम एवं सहयोग ने इनको संवेदनशील बना दिया था जिसकी छाप उनकी उदार नीति तथा कला परिकल्पना में अवश्य सहयोग देती है।

यही कारण है कि जीवन के विविध आयाम इनके समय के चित्रों में दृष्टिगोचार हो जाते हैं। अकबर के कलाकार उनके दरबार के रत्न थे। जिन्हें उन्होंने विशेष प्रकार से जाँच परख कर अपने दरबार में रखा था।

उनके दरबार के ये उच्चकोटि के रत्न अबदुस्समद, मुकुन्द, मीर सैयद अली, दसवन्त, बसावन, जगन्नाथ, केसो, माधो, ताराचन्द, हरवंश, खेमकरन, मिस्कीन, गोविन्द आदि थे। अबुलफज़ल ने आइने-अकबरी में अकबर की चित्रशाला में 13 विख्यात चित्रकारों के नामों का उल्लेख किया है जो प्रायः मिलकर कार्य करते थे।

अकवर की नीति विषयवस्तु के सन्दर्भ में उदार रही। इनके समय में बनाए गए चित्रों में भारतीय तथा अभारतीय दोनों प्रकार के विषयों को अपनाया गया जिसके अन्तर्गत ऐतिहासिक, दरबारी, व्यक्ति चित्रण आदि का अंकन है।

अकबर के ऐतिहासिक महत्व की अनेक घटनाओं को कलाकारों ने अनेक कलापूर्ण पोथियों में सुसज्जित किया जिनकी संख्या सैकड़ों में थी। इन सभी चित्रों से तत्कालीन इतिहास की बहुत जानकारी मिलती है।

इसकेअतिरिक्त यह भी सत्य है कि अकबर के समय के व्यक्तिचित्रों का अपना एक पृथक महत्व रहा है जिसके अंकल में कलाकारों ने विशेष निपुणता प्रदर्शित कर कला जगत को एक प्रेरणादायक धरोहर प्रदान की है।

इसका कारण यह था कि मुगल सम्राटों को व्यक्ति चित्र (शबीह) बनवाने का बहुत शौक था। उसी प्रकार अकबर भी अपनी बी बनवाने हेतु बहुत रूचि से बैठता था।

इतना ही नहीं वह अपने पूर्वजों, विशिष्ट अतिथियों तथा सन्तों के व्यक्ति चित्र भी बनवाते थे जिन्हें वह एलबम में सुरक्षित रखते थे। इनके समय के बहुत से चित्र देश विदेश के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

अकबर कलाकारों का सर्वदा मार्गदर्शन करता था। उनके प्रोत्साहन हेतु दरबार में सप्ताह में एक बार प्रदर्शनों का आयोजन किया जाता था। अकबर के दरबार में सांस्कृतिक उत्थान हेतु नवरत्न थे जिनमें तानसेन, भगवानदास राजा मान सिंह, बिहारीमल आदि हिन्दू थे।

इसके अतिरिक्त चित्रकारों में खाती, कायस्थ तथा कहार जाति के भी थे। दसवन्त कहार जाति के थे जो पालकी उठाने तथा दीवारों पर लेखन कार्य करते थे। सम्राट अकबर इनके कार्यों को देखकर बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने आश्रय में रख लिया।

इस समय चित्रों में लेखन कार्य भी किया जाता था विद्वानों के अनुसार भारतीय चित्रकारों की तुलना में ईरानी चित्रों में यह लेखन अधिक सुन्दर है किन्तु ऐसा नहीं है भारतीय कलाकारों ने भी उतनी ही सघी तूलिका से स्पष्ट तथा प्रभावपूर्ण आलेखन किया जितना ईरानी कलाकारों ने।

चित्रण कार्य के अतिरिक्त मुगल सम्राटों को मस्त हाथियों पर बैठकर शिकार करना, उनका युद्ध देखना तथा सवारी करना भी प्रिय था।

इसी प्रकार अकबर को भी मस्त हाथियों पर सवारी करना बहुत प्रिय था। अकबरनाम में ऐसे बहुत से चित्र हैं जिनमें उन्हें पशुओं के साथ चित्रित किया गया है।

इस सन्दर्थ में एक चित्र विशेष सराहनीय है जिसमें उन्हें हवाई (Hawai) नामक हाथी के साथ दर्शाया गया है जो उनका प्रिय हाथी था। चित्र का शीर्षक है “अकबर एण्ड ए मस्त एलीफैन्ट ऑन द ब्रिज ऑफ बोट्स” (Akbar and a mast elephant on the bridge of boats) जो लगभग 1600 के आसपास का है।

चित्र में दो हाथी नौकाओं पर बने पुल को पार करते हुए दर्शाए गए हैं। हाथियों की शारीरिक भोगमा लययुक्त है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक आकृति की भाव, मुद्राएँ एवं शारीरिक संरचना भी क्रियाशील है। जल की लहरों का आवेग आकृतियों के जोश में सामञ्जस्य उत्पन्न कर रहा है।

रंग योजना चटख किन्तु स्वाभाविक एवं विषय के अनुरूप है। पृष्ठभूमि में लाल पत्थर से बनी वास्तु तथा उसके पीछे हरे रंग की विविध आभाओं के माध्यम से प्रकृति का सुन्दर प्रस्तुतीकरण चित्र को एक रमणीय वातावरण प्रदान करने में समर्थ है।

अकबर कालीन वास्तुकला | Akbar era architecture

विभिन्न कलात्मक रूचियों के साथ-साथ जैसा कि यह भी सर्वविदित है कि मुगल काल में बहुत सुन्दर एवं कलात्मक वास्तु की भी रचना करवायी गयी।

इस सन्दर्भ में अकबर ने भी बहुत ही भव्य एवं वैभव पूर्ण भवनों तथा महलों का निर्माण कराया जिन्हें भित्तिचित्रों से सुसज्जित कराया। अकबर ने आगरा से 23 मील दूर फतेहपुर सीकरी का निर्माण कराया और साथ ही साथ वहाँ भवन, मस्जिद, पाठशाला, तालाब, पुस्तकालय आदि की भी सुविधाएँ दी।

यहाँ के वास्तु तथा उद्यानों का सौंदर्य मन्त्र मुग्ध कर देता है। अबुल फज़ल के एक विवरण के अनुसार फतेहपुर सीकरी के भवन में कार्य करने हेतु अकबर ने सौ से भी अधिक शिल्पियों को नियुक्त किया जिनके उत्कृष्ट कार्यों का प्रमाण हमें आज भी फतेहपुर सीकरी के वास्तु एवं कलाकृतियों से मिल जाता है।

भवन निर्माण के इस कार्य को कुछ कलाकारों ने अपने चित्रों में करते हुए भी दर्शाया है जिसका उदाहरण ‘कन्स्ट्रक्शन ऑफ फतेहपुर सीकरी’ तथा ‘अकबर सुपरवाइजिंग द कनस्ट्रक्शन ऑफ आगरा फोर्ट’ आदि चित्र हैं।

इन चित्रों में शिल्पी भवन निर्माण रचना में संलग्न हैं। वैसे तो भारत में मुगल साम्राज्य से पूर्व भी बहुत से भव्य एवं महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण हुआ परन्तु अकबर ने वास्तु निर्माण की प्रचलित परम्परा को नए आयाम के साथ प्रस्तुत किया।

भवन निर्माण रचना में नए-नए तत्वों का समावेश हुआ। इनके समय का वास्तु प्राकृतिक सौंदर्य के साथ सामञ्जस्य उत्पन्न कर एक प्रकार का काव्यात्मक सौंदर्य प्रस्तुत करता है।

उस समय जो इमारते बनीं उनमें जल प्रपात, फाउन्टेन, उद्यान, पत्थरों के बीच-बीच में रास्ते, जलाशय आदि की परिकल्पना कर कलाकारों ने सौंदर्यमय संसार की रचना की है। इस प्रकार चित्रकला के साथ-साथ वास्तु जैसी सूक्ष्म कला में पत्थरों के माध्यम से भावों की सूक्ष्म अभिव्यंजना मुगल काल को चरम उपलब्धि है।

भले ही वह फतेहपुर सीकरी की इमारतें हो या आगरा को फतेहपुर सीकरी में प्रमुख इमारतें तुर्की सुल्ताना का महल, पंचमहल, जामा मस्जिद, दीवान-ए-खास, राजा बीरबल का महल, सलीम चिश्ती का मकबरा आदि।

तुर्की सुल्ताना महल की लाल सैंड स्टोन की नक्काशी, दीवाने खास में कमल के फूल का आभास देते स्तम्भों का संयोजन, बीरबल के महल में चित्रित बेलबूटों के अलंकृत डिजाइन आदि सभी में सम्राट की परिष्कृत रूचि एवं कलाकार की उन्मुक्त कल्पनाशीलता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं।

साथ ही अलंकृत छज्जे, मीनारें, बुर्ज, जालीदार खिड़कियाँ, नक्काशीदार स्तम्भ आदि की सुन्दर अभिव्यंज्ञ्जना को भी नहीं नकारा जा सकता। इसके अतिरिक्त कुछ भारतीय अभिप्रायों जैसे पद्म, स्वास्तिक, हंस, चक्र आदि का भी यहाँ समावेश किया गया है।

अकबर काल की सभी कलाकृतियों को देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वह प्रत्येक कला चाहे वह चित्र हो या वास्तु में अपूर्व रूचि रखते थे। वह उन व्यक्तियों से घृणा करते थे जो कला से घृणा करते थे।

अकबर के स्वयं के शब्दों में, "बहुत से व्यक्ति हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं परन्तु ऐसे व्यक्ति मेरे स्नेह भाजन नहीं। धार्मिक नियमों के अन्धविश्वासी चित्रकला के घातक शत्रु हैं परन्तु अब उनके नेत्र सत्य का अनुभव करते हैं।" 

अकबर कला को ईश्वर के समीप जाने का मार्ग मानते थे उनके अनुसार ‘मुझे तो ऐसा लगता है कि ईश्वर को पहचानने के लिए चित्रकार का एक अनोखा मार्ग है जब वह किसी सजीव वस्तु की आकृति बनाता है और एक के बाद एक अंग-प्रत्यंग लिखता जाता है फिर भी उसमें जान नहीं डाल सकता तो हठात् उसका ध्यान ईश्वर की ओर जाता है, जो जीवन का एकमात्र दाता है और इस प्रकार उसके ज्ञान की वृद्धि होती है।”

“There are many that hate painting, but such man I dislike. It appears to me as if a painting had quite peculiar means of recognising God; for a painter, sketching anything that has life, and in devising its limbs one after the other. must come to feel that he cannot bestow individuality upon his work and is thus forced to think of God, the giver of life; so he will increase in knowledge…

Akbar

अकबर कालीन चित्रों पर पाश्चात्य प्रभाव | Western influence on Akbar’s paintings

अकबर एक ऐसे प्रतिभावान सम्राट थे जिनका सम्बन्ध भारतीय सल्तनत से ही नहीं वरन् उनका सम अन्य देशों से भी रहा। सन् 1573 ई० तथा सन् 1578 ई० में पुर्तगाल से तथा सन् 1580 ई० के लगभग यूरोष से अतिथि अकबर के दरबार में आए और अपने साथ-साथ कलाकृतियाँ भी लाए जिससे अकबर के दरबारी कलाकारो का विदेशी कला से परिचय हुआ।

इन अतिथियों ने अकबर को चित्रित बाइबिल की प्रति (Eighth volume polyger Bible printed by plantyn for Philip It in 1569-1573) तथा ईसा एवं मरियम के चित्र भेंट किए।

दो-तीन वर्षों स विदेशी अतिथि अकबर के साथ रहे। इसी कारण भारतीय चित्रों पर भी पाश्चात्य शैली का कुछ प्रभाव पड़ने लगा। इसी के साथ-साथ भारतीय कलाकारों ने कुछ पाश्चात्य चित्रों को अनुकृतियाँ भी तैयार की।

अकबर ने पाश्चात्य कलाकृतियों की ओर ही रूचि नहीं दर्शायी वरन् ईसाई धर्म के नियमों को भी बहुत करीब से जाना पहचाना किन् उसने अपने लिए एक नया धर्म खोजा जो दीन-ए-इलाही कहलाया।

इस प्रकार यह सर्वविदित है कि अकबर एक कुशल शासक, साहित्य प्रतिभा सम्पन्न होने के साथ-2 सुरूचि सम्पन्न व्यक्तित्व के इन्सान भी थे।

जहाँगीर काल (1605-1627) | Jahangir period

शहंशाह अकबर के पश्चात् उनका उत्तराधिकारी जहाँगीर मुगल सिंहासन पर 1605 ई० में आरूढ़ हुआ। विद्वान् ऐसा मानते हैं कि राजनैतिक सांस्कृतिक एवं कलात्मक जगत् में जिन विशिष्ट्ताओं को अकबर ने प्रारम्भ किया वह अपने चरमोत्कर्ष पर जहाँगीर के समय में दिखाई देती हैं।

अकबर के समान ही उनके पुत्र जहाँगीर अत्यन्त कुशल शासक थे। अकबर के समान ही उन्होंने प्रचलित परम्पराओं को संजोया और शास्त्रीय कला के ऐसे चित्रों का निर्माण कराया जो देश विदेश के विभिन्न संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं।

जहाँगीर हिन्दू माँ के सपूत थे इसलिए भारतीय संवेदनाएँ उन्हें जन्मजात रूप में मिली थी। इसलिए उन्होंने जिन चित्रों का निर्माण कराया वह उच्च कलात्मक मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरते हैं।

इनके चित्रों में प्रयुक्त प्रत्येक तत्व नए विकास तत्वों को स्पष्ट करता है। इसी कारण मानवीय अनुभूतियाँ एवं पात्रों के पार्श्व में निहित भावनाओं की विशिष्ट अभिव्यञ्जना तत्कालीन चित्रों का मूल है।

वाचस्पति गैरोला के शब्दों में "भारत में यद्यपि मुगल शैली का समारम्भ अकबर के शासन में हुआ; किन्तु उसमें उच्च कलात्मक ध्येयों और नए विकास तत्वों का समावेश हुआ जहाँगीर के समय में। मानवीय अभीप्साओं, आचरणों और भावनाओं के ठीक अनुरूप चित्र जहाँगीर के ही समय में बने। जहाँगीर के समय में जिन रंगों का निर्माण हुआ और उनका जिस ढंग से उपयोग किया गया वह अपूर्व था। रंगों के अतिरिक्त रेखाओं की दिशा में भी जहाँगीर कालीन चित्रकारों ने अपनी विशेषता का परिचय दिया। वस्त्राभूषणों की योजना करते हुए उनकी दृष्टि यथार्थ पर रही। इस प्रकार अंग-प्रत्यंग का चित्रण करने विशेषतया मीनाकृत आँखों, सम्पूर्ण मुखाकृति और हाथों का चित्रण करने में जहाँगीर कालीन चित्रकार बड़े निपुण थे।" 

इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जहाँगीर के समय का प्रत्येक चित्र कला की विशिष्टताओं को पूर्णरूपेण प्रकट करता है। इस काल के चित्रों में अलंकारिकता के साथ स्वाभाविकता का समावेश एक पृथक् सौंदर्य का सृजन करता प्रतीत होता है।

ऐसा सौंदर्य जिसे निहारने हेतु बाह्य चक्षु के स्थान पर सूक्ष्म दृष्टि (माइक्रोस्कोपिक आइज) की आवश्यकता है। जहाँगोर के व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय उनके आत्म चरित की पुस्तक ‘तुज़ुक-ए-जहाँगीरी’ से मिलता है।

जहाँगीर एक पवित्र, उदार हृदयी, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक रूचि-सम्पन्न, दूरदर्शी प्रतिभावान् एवं संवेदनशील शासक थे जिनके इन गुणों का परिचय जीवन पर्यन्त उनके व्यक्तित्व से मिलता है। उन्होंने कई राज्यों को जीतकर अपने आश्रय में ले लिया था।

1613 ई० में उन्होंने मेवाड़ के राजा अमर सिंह को हराया तथा 1620 ई० में उन्होंने कांगड़ा को जीत लिया। किन्तु साथ ही साथ उन्होंने कुछ राजपूत राजाओं से मधुर सम्बन्ध भी रखे और उन्हें अपने दरबार में उच्च पदों पर आसीन किया उन्होंने अपने प्रासाद के बाहर एक ‘चेन ऑफ जस्टीस’ स्थापित की जिसमें कोई भी सोधे बादशाह से सम्पर्क कर सकता था।

जहाँगीर का प्रकृति प्रेम | Jahangir’s Love of Nature

जहाँगीर एक महान् शासक होने के साथ-साथ अद्भुत कला पारखी और समाज सुधारक थे। वह प्रकृति से बहुत प्रेम करते थे और उसके सान्निध्य में रहना पसन्द करते थे।

प्रकृति निरीक्षण हेतु वह पर्वतों पर भी विचरण के लिए जाते थे। उनके इस प्रकृति प्रेमी गुण का प्रभाव उनके समय के बने चित्रों में स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है। इन चित्रों में प्रकृति आकृतियों को सहयोगी बनकर उनके लिए एक वातावरण उपस्थित करती है।

प्रकृति के प्रति जहाँगीर की संवेदनाओं के मूल में नूरजहाँ की भावना-प्रवण प्रवृत्ति के लक्षण दिखायी देते हैं। नूरजहाँ प्रकृति चित्रों से विशेष रूप से आकृष्ट होती थी। इसीलिए जहाँगौर ने मंसूर को सैकड़ों पुष्पों को चित्रित करने का आदेश दिया। प्रत्येक पुष्प एक नवीन सौंदर्य को प्रस्तुत कर प्रत्येक को मन्त्रमुग्ध करता है।

इसी प्रकृति का ही एक अंग हैं पशु-पक्षी, जो मूक रहकर अपने सामीप्य एवं संवेदनाओं से मानव के साथ एक प्रकार का सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं।

जहाँगीर को पशु-पक्षियों से भी विशेष लगाव था। पुष्पों के चित्रों के साथ-साथ उस्ताद मंसूर ने पशु-पक्षियों का भी भावनापूर्ण चित्रण किया। इन पशु-पक्षियों का चित्रण कहाँ मानवाकृतियों के सहयोगी रूप में हैं तो कहाँ व्यक्तिगत रूप में।

ये सभी चित्र इतने स्वाभाविक एवं यथार्थवादी हैं कि मानों फोटोग्राफ हों। जहाँगीर पशु-पक्षियों से इतना प्रेम करते थे कि एक बार शीतल जल में स्नान करते हुए एक हाथी को काँपते हुए देखकर उन्होंने उसके लिए तालाव का पानी गर्म करवाया।

इतिहास साक्षी है कि अकबर के समय में प्रचलित शास्त्रीय परम्पराओं को और अधिक परिमार्जित कर जहाँगीर काल के कलाकारों ने आगे बढ़ाया। इसलिए इस समय ईरानी प्रभाव कम होता गया परन्तु पूर्णत: समाप्त नहीं हुआ।

जहाँगीर कालीन चित्रों में प्राकृतिक वास्तविकता की प्रमुखता दी गयी है। इस समय के चित्रों में कलम की बारीकी व उत्कृष्टता चित्रों को तकनीकी कौशल की विशिष्ट्ता प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ है।

यही कारण है कि वस्तुगत सूक्ष्मता को चित्रों का प्रमुख आधार बना कर कलाकारों ने एक परिपक्व शैली का निर्वाह किया है। इनके चित्रों में राजसी भव्यता एवं शान-शौकत के साक्षात् दर्शन होते हैं।

वस्त्रों का आलेखन, भवनों की नक्काशी, कालीन के डिजाइन, आभूषणों की सज्जा वैभवपूर्ण दरबार आदि सभी से शान-ए-शौकत दिखायी देती है। प्रायः चित्रों में आकृतियों की भीड़-भाड़ है।

किसी-किसी चित्र में तो 65-70 आकृतियाँ हैं परन्तु इस सन्दर्भ में आकृतियों का चुनाव परिप्रेक्ष्य की कुशलता आदि के माध्यम से संयोजन में संतुलन प्रस्तुत किया गया है।

सहयोग इस प्रकार निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जहाँगीर काल के प्रत्येक चित्र के पार्श्व में कलाकार की उच्च रूचि एवं पारखी दृष्टि अपना महत्व सिद्ध करती है।

इसी संदर्भ में यहाँ रायकृष्ण दास का प्रस्तुत वास्तव्य जिज्ञासु वास्तव में बहुत ठीक है “वह बड़ा ही सहृदय, सुरूचि सम्पन्न, पहले दर्जे का चित्रप्रेमी, प्रकृति-सौंदर्य उपासक, वृक्ष-खग-मृग, विज्ञानी, संग्रहकर्ता, विशद् वर्णनाकार और सबसे अधिक पक्का और प्रज्ञावादी था।”

वास्तव में जहाँगीर अन्य सम्राटों से पृथक् एक ऐसे शासक थे जो अपनी प्रतिभा एवं व्यक्तित्व को पहचानते थे। इसी कारण जहाँगीर प्रतिदिन अपने कलाकारों के कार्यों को परखते थे।

इसलिए वह इसमें इतने निपुण हो गए थे कि वह प्रत्येक कलाकार के कार्यों को पहचान जाते थे। यहाँ तक कि एक ही चित्र में कार्य करने वाले प्रत्येक कलाकार के तूलिका संघातों को देखकर भी वह कलाकारों के नाम बता देते थे।

इसी सन्दर्भ में जहाँगीर ने आत्मचरित में एक स्थान पर लिखा था, “मेरी चित्र की रूचि और पहचान यहाँ तक बढ़ गयी है कि प्राचीन और नवीन उस्तादों में से जिस किसी का काम मेरे देखने में आता है, मैं उसका नाम सुने बिना ही झट उसे पहचान लेता हूँ कि अमुक उस्ताद का बनाया है। यदि एक चित्र में कई चेहरे हों और हरेक अलग-अलग चित्रकार का बनाया हुआ हो तो मैं जान सकता हूँ कि कौन सा चेहरा किसने बनाया है और यदि एक ही चेहरे में आँखे किसी की और भवें किसी की बनायी हुई हों तो भी मैं पहचान लूँगा कि बनाने वाले कौन हैं।” (जहाँगीरनामा, दूसरा भाग, पृष्ठ 331)

अकबर के सदृश जहाँगीर ने अपनी परिकल्पनाओं को चित्रकारों द्वारा साकार कराया। उन्होंने न केवल चित्रकारों को सम्मानित किया वरन् उन्हें पर्याप्त धनराशि एवं पुरस्कार भी प्रदान किये ताकि वह निश्चिंतता से सुन्दर कलाकृतियों का सृजन कर सकें।

ईरानी चित्रकार आकारिजा तथा उनके पुत्र अबुल हसन उस समय के उत्कृष्ट कलाकार थे जिन्होंने ईरानी कलम की विशिष्टताओं को भारतीय चित्रों में समाहित किया जिसका कारण था कि हिन्दू तथा मुस्लिम कलाकारों के साथ-साथ ईरानी कलाकार सभी मिलकर कार्य करते थे।

इन कलाकारों में उस्ताद मंसूर, विशन दास, मनोहर, दौलत, मोहम्मद मुराद, गोवर्धन, मोहम्मद नादिर आदि प्रमुख थे जिन्हें जहाँगीर दिव्य रत्न मानते थे।

केवल इतना ही नहीं जहाँगीर अपने दरबारियों तथा कलाकारों को विशेष उपाधियों से भी विभूषित करते थे जैसे अबुल हसन को उन्होंने ‘नादिर उल जमा’ मंसूर को नादिर उल असर, शरीफ खाँ को अमीर उल उमरा की उपाधि से विभूषित किया।

जहाँगीर ने अपने समय के उत्कृष्ट चित्रों का एलबम तैयार करवाया था। अकबर की सुलह-कुल नीति के कारण जहाँगीर के समय तक आते-आते धार्मिक संकीर्णताएँ लगभग समाप्त हो चुकी थी।

कलाकार मिलकर कार्य करते थे और समाज में भी शान्ति थी। इस समय तक पोथियों के दृष्टान्त चित्रों के साथ-साथ स्फुट चित्र मिलने लगते हैं। शैली को विशिष्ट्ता में यद्यपि अकबर की परम्पराएँ ही जहाँगीर काल में पुष्पित हुई परन्तु जहाँगीर कालीन चित्रकला अकबर कालीन कलम से कुछ आगे है।

युवावस्था में जहाँगीर को एक सुन्दर दासी अनारकली से प्रेम हो गया परन्तु अकबर का सहयोग उन्हें नहीं मिल पाया। अनारकली की मृत्यु के पश्चात् उनकी समाधि लाहौर में बनवाया गया और इन्हीं के नाम पर वहाँ के एक बाजार का नाम अनारकली बाजार रखा गया।

सन् 1611 ई० में जहँगीर ने एक पारसी सज्जन शेर अफगान की विधवा से निकाह किया जिसे उन्होंने नूरजहाँ (Light of the world) कह कर पुकारा। नूरजहाँ एक अत्यन्त सुन्दर विदुषी एवं प्रतिभाशाली स्त्री थी।

एक वेनिस के यात्रों के अनुसार नूरजहाँ ने जहाँगीर के लिए एक भोज का आयोजन किया जहाँ पर तालाब (reservoirs) को गुलाब जल से भरने का आदेश दिया।

सुबह जब उन्होंने इस जल को अपने वस्त्रों पर लगाया तो वह नूरजहाँ द्वारा किए गए इस प्रयास से बहुत प्रभावित हुए नूरजहाँ जहाँ एक ओर विदुषी थी वहीं वह संस्कृतिशील साहित्यिक एवं कलागत गतिविधियों में भी रूचि रखती थी।

वह जहाँगोर के साथ राजकाज तो देखती ही थी साथ ही साथ वह इनके साथ शिकार पर भी जाती थी। तुजुके- जहाँगीरी में उन्होंने इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार एक हाथी पर सवार होकर नूरजहाँ ने पाँच शॉट में चार शेरों को मार गिराया।

नूरजहाँ ने बहुत सी राजनैतिक समस्याओं को सुलझाया। जब भी सम्राट बीमार हो जाते वह सम्पूर्ण कार्यभार संभालती इसी कारण उनके प्रभुत्व के ही परिणाम स्वरूप तत्कालीन सिक्कों पर जहाँगीर और शाहजहाँ दोनों का चित्र दिखाई देता है।

जहाँगीर कालीन कला पर विदेशी प्रभाव | Foreign influence on Jahangir’s art

जहाँगीर के शासनकाल में बहुत से यूरोपीय व्यापारी भारत आए थे। पुर्तगाली लोग तो अकबर के समय से ही भारत में आ रहे थे। इस समय ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत से सम्पर्क स्थापित करने प्रारम्भ कर दिए थे।

इंग्लैण्ड के राजदूत सर टामस से जहाँगीर के दरबार में व्यापारिक विचार विमर्श हेतु आए थे। इस व्यापारिक सम्पर्क के परिणाम स्वरूप यूरोपीय कलाकारों ने भी मुगल दरबार में आना प्रारम्भ कर दिया जो अपने साथ यूरोपीय कलाकृतियों को भी लाए।

इन कलाकृतियों ने मुगल चित्रकारों को अत्यन्त प्रभावित किया।

इसी के साथ-साथ सर टामस रो ने भी जहाँगीर को कई कलाकृतियाँ भेंट की और दावा किया कि उनके द्वारा भेंट की गयी कलाकृतियों की कोई भी कलाकार भारत में नकल नहीं कर सकता. सम्पूर्ण वृतान्त को सर टामस रो ने इस प्रकार प्रस्तुत किया, “बादशाह को मैंने एक चित्र दिया था। मुझे विश्वास था कि भारत में उसकी नकल होना असम्भव है। एक दिन बादशाह ने मुझे बुलाकर पूछा कि उस चित्र के तद्वत् प्रतिकृतिकार को क्या दोगे। मैंने कहा चित्रकार का पुरस्कार 50 रूपये है। उत्तर मिला मेरा चित्र मंसबदार है उसके लिए यह पुरस्कार बहुत थोड़ा है। रात में मैं पुनः बुलाया गया और मुझे मेरे चित्र जैसे छः चित्र दिखाए गए कि इनमें से अपना चित्र छाँट लो। कुछ कठिनता से मैं अपना चित्र पहचान पाया और मैंने प्रतिकृतियों के अन्तर बताए। उपरान्त पुरस्कार का मोल-भाव पुनः प्रारम्भ हुआ।”

यह वृतान्त यह सिद्ध करता है कि भारतीय कलाकार प्रत्येक कलम की प्रतिकृति करने में निश्चित रूप से सिद्धहस्त हैं। इस समय का एक प्रमुख कलाकार विशनदास हुआ जिसकी शैली मुगल एवं पाश्चात्य विशिष्ट्ताओं का अनुपम सामञ्जस्य प्रस्तुत करती है।

इसी संदर्भ में एक विशिष्ट चित्र ‘सलीम का जन्म’ है। रंग संयोजन, छाया-प्रकाश, मानवाकृति रचना, परिप्रेक्ष्य आदि में पाश्चात्य प्रभाव को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

रायकृष्ण दास भी इसी संदर्भ में विचार विमर्श करते हैं, "जहाँगीर कालीन चित्रों में इतनी स्वाभाविकता कहाँ से आई। उत्तर देने के लिए सीधा मार्ग है- 'फिरंगी प्रभाव से। किन्तु इसी से सन्तोष नहीं किया जा सकता है। निसन्देह यह बात सर्वविदित है कि जहांगीर के समय में यहाँ यूरोप के चित्र काफी तादाद में आ चुके थे और आ रहे थे, इतना ही नहीं जहाँगीर उनकी कदर और संग्रह भी करता था। इस समय यहाँ के कारीगर इनकी प्रतिकृति और उनके आधा पर स्वतन्त्र चित्र भी बनाते थे। जहाँगीर कालीन कछ चित्रों की पृष्ठिका व अंश-विशेष में यूरोपीय दृश्य भी नकल किए गए हैं, फिर भी देखना तो यह है उक्त स्वाभाविकता यूरोपीय शैली है। या स्वतन्त्र हमारा उत्तर है कि वह स्वतन्त्र है।" 

परन्तु यह भी सत्य है कि इस विदेशी प्रभाव के फलस भी मुगल कलाकारों ने निजत्व मौलिकता को नहीं त्यागा। इसलिए यह कहा जा सकता है कि जहाँगीर काल निर्मित अधिकांश चित्र भारतीय हैं और जो विदेशी प्रभाव भी चित्रों में था उसने भारतीयता का जामा ओढ़ लिया।

इस समय के कलाकार केवल भारतीय तकनीक में ही नहीं वरन् पाश्चात्य तकनीक में भी सिद्धहस्त थे जहाँगर के समय में स्त्रियाँ भी चित्रण करती थीं। भारत कला भवन में एक चित्र मिलता है जिसमें एक महिला चि एक नारी का व्यक्तिचित्र बनाती हुई दर्शायी गयी है।

शाहजहाँ कालीन कला (1628-1658 ई०) | Art during Shah Jahan’s time

मुगल साम्राज्य की राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही। बाबर के बाद हुमायूँ, हुमायूँ के बाद अकबर, अकबर के बाद जहाँगीर और फिर शाहजहाँ 1628 ई० में राज सिंहासन पर बैठे। जिन्होंने तीस वर्षों तक कुशल प्रशासन किया।

अपने पूर्वजों के समान कलाभिरूचि इन्हें विरासत में मिली थी और इनके पिता सम्राट जहाँगीर के समय के कलाकार भी इनके दरबार में कार्य कर रहे थे। इसलिए कला को प्रचलित धारा अबाध गति से चलती रही परन्तु शाहजहाँ ने जहाँगीर तथा अकबर के सदृश कलाकारों को वह पारखी दृष्टि तथा सहायता नहीं दी जो इनके पूर्वजों ने दी थी।

सम्राट को चित्रकला के प्रति उदासीनता रही अतः जहाँगीर की कलम की बारीकी तथा रंगों का सूफीयानापन नहीं आ सका और समीक्षकों के मत में वह दरबारी वैभव का प्रदर्शन मात्र रह गयी।

रायकृष्ण दास के शब्दों में इस काल को संक्षेप में इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। “शाहजहाँ काल से मुगल शैली एक दूसरे ही रूप में सामने आती है। अब बादशाह का उससे कोई निजी सम्बन्ध नहीं रह जाता। वह मुगल वैभव और तड़क-भड़क, जो इस समय अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गयी थी, प्रदर्शन का एक अंग मात्र रह गयी, जैसा कि बादशाह की अन्य कृतियाँ भी हैं, अब चित्रों में हद से ज्यादा रियाज, महीन कार्य, अत्यधिक ब्योरे, रंगों की खूबी तथा शान शौकत एवं अंग प्रत्यंगों विशेषतः हस्त मुद्राओं की लिखाई में बड़ी सफाई और कलम में कहीं से कमजोरी न रहने पर भी दरबारी अदब-कायदों की जकड़बन्दी और शाही दबदबे के कारण इन चित्रों में भाव का सर्वथा अभाव बल्कि एक प्रकार का सन्नाटा पाया जाता है, यहाँ तक कि जी ऊबने सा लगता है।" 

यह सत्य है कि इनके शासन काल में अनुशासन एवं दरबारी अदब, कायदे का कठोर पालन होता था। अकबर तथा जहाँगीर काल के सदृश कलाकार उतना स्वतंत्र नहीं था।

इसलिए प्रायः शाहजहाँ के दरबारी रीतिरिवाजों तथा शान शौकत के विलासिता पूर्ण दृश्य मुख्य रूप से चित्रित हैं। परिणामस्वरूप भावों की अभिव्यक्ति में उदासीनता आ गयी और ऐसे रंगों एवं रूपों का प्रयोग किया जाने लगा जिससे मुगल सल्तनत का वैभव बखूबी दिखाया जा सके।

वाचस्पति गैरोला के शब्दों में, “चित्रकला का उद्देश्य अब मुगल सल्तनत के वैभव का प्रदर्शन करना मात्र रह गया था। उसमें अब भीतरी साधनों के भाव प्रदर्शित न होकर रियाज, बारीकी, रंगों की तड़क-भड़क, हस्त मुद्राओं का आकर्षण, अंग-प्रत्यंगों का उभार और हुकूमत का दबदबा आदि की अधिकता थी। स्त्रियों के अंगों का आकर्षक अंकन करने में चित्रकारों ने अवश्य ही कमाल हासिल किया, किन्तु चित्रकला के भावी विकास के लिए यह स्थिति शुभकर साबित न हुई।”

शाहजहाँ बाल्यकाल से एक कलात्मक परिवेश में रहे। उस समय वह शाही पुस्तकालय में बैठकर चित्रों का अध्ययन करते थे।

शाहजहाँ के आश्रय में जिन कलाकारों ने कार्य किया इनमें से प्रमुख मनोहर, विचित्तिर, गोवर्धन मोहम्मद नादिर होनहार, बालचन्द आदि थे जिन्होंने कुछ विपरीत स्थितियाँ होने पर भी उत्कृष्ट कलाकृतियाँ प्रदान की जिनमें विषयों की विविधता है जैसे दरबारी, संगीत सम्बन्धी, सामाजिक, दैनिक, ऐतिहासिक, व्यक्ति चित्र आदि।

निरीक्षण एवं निर्देशन हेतु शाहजहाँ ने फकीर उल्लाह खान को अपनी चित्रशाला का प्रधान बनाया हुआ था। मोहम्मद नादिर तथा समरकन्दी ने चित्रण के क्षेत्र में बहुत से प्रयोग किए और काली स्याही से कुछ ऐसे चित्रों को बनाया गया जिसमें रेखांकन की बारीकी विशिष्ट है।

इस चित्रों को स्याह-कलम कहा गया। स्याह कलम चित्रों में कागज पर अस्तर लगाया जाता था जिसमें सरेस या अण्डे की जर्दों को फिटकरी में मिलाकर प्रयुक्त किया जाता था।

तत्पश्चात् सधी हुई तूलिका से कलाकार उस पर बारीक रेखांकन करते थे। यह बारीक रेखांकन इतना सूक्ष्म है कि सिर या दाढ़ी आदि का एक-एक बाल दिखाने का प्रयास किया गया है।

शाहजहाँ के काल में वास्तुकला | Architecture during the period of Shah Jahan

वैसे तो शाहजहाँ काल की चित्रशैली अकबर एवं जहाँगीर की कला परम्परा को ही आगे बढ़ाती है किन्तु चित्रण की तुलना में इस समय वास्तु कला का अधिक प्रचलन हुआ जिससे अनेक भवनों, महलों, उद्यानों, मकबरो आदि का निर्माण हुआ।

इन भवनों को इस समय अंकित चित्रों में भी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है। शाहजहाँ के शासन काल में बने महल आज भी कला की अमर धरोहर के रूप में दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं।

इनके समय की भवन निर्माण कला उच्चकोटि की है जिसके पार्श्व में मुमताज का अमर प्रेम था। इसके प्रतोक स्वरूप निर्मित ताजमहल आज विश्व के सात आश्चयों में माना जाता है। इसके अतिरिक्त इन्होंने जामा मस्जिद, मोती मस्जिद, लाल किले के दीवाने-आम तथा दीवाने-खास आदि को भी बनवाया।

शाहजहाँ द्वारा निर्मित भवनों तथा महलों में वास्तु कला को उत्कृष्ट शैली दिखायी देती है। इन महलों को बुर्जों तथा मीनारों से शोभायमान किया गया है जिन पर अलंकरणात्मक सज्जा, महीन नक्काशी में कलाकार की सिद्धहस्तता निश्चित ही सराहनीय है।

समीक्षकों के विचार में शाह काल में स्थापत्य कला की विशिष्ट पद्धतियों का विकास हुआ जो आज स्थापत्य शिल्पियों के लिए प्रेरणाप्रद है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण ताजमहल के साथ-साथ दिल्ली का लाल किला भी प्रमुख है।

लाल किले की बनावट सहज ही दर्शकों को मंत्रमुग्ध करती है विशेष रूप से दीवान-ए-खास का रूप विन्यास जहाँ मयूर सिंहासन विद्यमान है। इसमें सुसज्जित मणियों, हीरो, पन्नों की कलात्मक शोभा अवर्णनीय है।

अपने पूर्वजों के समान शाहजहाँ को भी शिकार का शौक था। इनके समय में चित्रकारों का यह एक प्रिय विषय था जब भी सम्राट शिकार करने जाते वह अपने सहायकों को उस स्थान के निरीक्षण हेतु प्रेषित कर देते थे और जब तक शाही सदस्यों का समूह सम्राट के साथ उस स्थान पर पहुँचता, तब तक वह किसी गाय, भैंस, या बकरी को वहाँ पर प्रस्तुत कर देते ताकि शेर उसके शिकार हेतु वहाँ पर आ जाए जंगल में उस स्थान को चारों ओर से जाल से ढ़क दिया जाता था। केवल मात्र उसमें एक द्वार होता था।

जहाँ से सम्राट अपने साथियों के साथ हाथी पर बैठकर अन्दर जा सके। शाहजहाँ नामा से सम्बन्धित चित्र ‘शाहजहाँ हन्टिंग लायन उसी विषय को प्रस्तुत करता है जिसे कलाकार द्वारा प्रत्यक्ष अध्ययन कर चित्रित किया गया।

शाहजहाँ नामा से ही सम्बन्धित एक अन्य चित्र में स्वर्ण मुद्राओं द्वारा सम्राट को तराजू पर तोला जा रहा है। शाही वस्त्रों में सुसज्जित अनेक दरबारियों का चित्रण, कारपेट का आलेखन, वास्तु को सज्जा, स्वर्ण का प्रयोग आदि सभी भव्य वैभव को प्रस्तुत करने में सहायक हैं।

इस काल में खुसरू-शिरोन, लैला-मजनू, रूपमति-वाज बहादुर आदि के प्रेम-प्रसंगों को भी चित्रित किया गया है। इसी संदर्भ में एक प्रमुख चित्र ‘बाज बहादुर एण्ड रूपमति राइडिंग वाई नाइट’ है जो लगभग 1650 ई० का है।

इस चित्र में सलेटी रंग से एक नदी का चित्रण है जिसके किनारे मध्यभूमि में दो घोड़ों पर अलग-अलग बाज बहादुर और रूपमति सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित दर्शाए गए हैं।

घोड़ों के नीचे का भाग छोटे-छोटे टीलों के पीछे छिपा है। पृष्ठभूमि में वृक्षों के झुंड हैं। सम्भवतः रात्रि का दृश्य है परन्तु घोड़ों, वाज बहादुर तथा रानी रूपमति में चटख रंग योजना है क्योंकि यही चित्र का मुख्य विषय है।

इसी के साथ-साथ वस्त्रों तथा आभूषणों में स्वर्ण का प्रयोग भी चित्र में अतिरिक्त चमक उत्पन्न कर रहा है।

शाहजहाँ कालीन कला पर पाश्चात्य प्रभाव | Western Influence on Shah Jahan’s Art

जहाँगीर के समान शाहजहाँ काल में भी यूरोप से कलाकार एवं सम्मानित अधिकारी भारत में राजाओं के दरवारों में आते रहते थे जिससे पाश्चात्य कला का प्रभाव मुगल कलाकारों पर पड़ता रहा जो मुख्य रूप से परिप्रेक्ष्य तथा छाया प्रकाश के अंकन में दिखाई देता है।

इससे आकारों में त्रि-आयामी प्रभाव उत्पन्न करने का सफल प्रयास किया गया है। तत्कालीन चित्रों में आकृतियों के पार्श्व में जो वास्तु निर्मित है उसमें काफी हद तक पाश्चात्य प्रभाव दिखाई देता है।

उसके अतिरिक्त इस काल के चित्रों में रूढ़िवादिता को भी नहीं नकारा जा सकता। दरबारी शान-शौकत के प्रस्तुतीकरण के कारण अलंकारिकता की प्रवृत्ति अधिक दिखाई देती है और विषयवस्तु के क्षेत्र में भी ऐसी घटनाओं तथा दृश्यों को चित्रित किया गया है जिसमें सम्राट के वैभव का प्रदर्शन हो सके।

इसके लिए कलाकारों ने मणियों के समान चटख रंग लगाए हैं। शाहजहाँ काल में चूंकि चित्र की अपेक्षा कलाकारों की रूचि वास्तुकला में थी अत: चित्रों की संख्या कम ही रही।

विषयों की सीमितता के कारण पशु-पक्षियों का स्वतन्त्र चित्रण भी नहीं मिलता। परन्तु शाहजहाँ द्वारा फारसी तथा हिन्दी के काव्य तथा संगीत जगत में प्रस्तुत किया जाने वाला सहयोग महत्वपूर्ण है।

सुन्दर श्रृंगार के रचयिता सुन्दरदास इनके प्रिय कवि थे। मेवाड़ शैली में इस ग्रन्थ पर तब चित्रण किया गया जब शाहजहाँ मेवाड़ के राणा के पास अतिथि रूप में गए थे। इसके अतिरिक्त चिन्तामणि, देवदत्त, जगन्नाथ आदि ने भी शाहजहाँ के साथ कार्य किया।

जगन्नाथ ने ‘रस गंगाधर’ नामक ग्रन्थ की रचना की जिसकी प्रेरणा उसे एक मुस्लिम स्त्री के प्रेम से मिली। इन्होंने बहुत समय तक शाहजहाँ के दरबार में सम्मान प्राप्त किया।

अपने पूर्वजों के समान शाहजहाँ को भी शिकार का शौक था। इनके समय में चित्रकारों का यह एक प्रिय विषय था जब भी सम्राट शिकार करने जाते वह अपने सहायकों को उस स्थान के निरीक्षण हेतु प्रेषित कर देते थे और जब तक शाही सदस्यों का समूह सम्राट के साथ उस स्थान पर पहुँचता, तब तक वह किसी गाय, भैंस, या बकरी को वहाँ पर प्रस्तुत कर देते ताकि शेर उसके शिकार हेतु वहाँ पर आ जाए जंगल में उस स्थान को चारों ओर से जाल से ढ़क दिया जाता था।

केवल मात्र उसमें एक द्वार होता था। जहाँ से सम्राट अपने साथियों के साथ हाथी पर बैठकर अन्दर जा सके। शाहजहाँ नामा से सम्बन्धित चित्र ‘शाहजहाँ हन्टिंग लायन उसी विषय को प्रस्तुत करता है जिसे कलाकार द्वारा प्रत्यक्ष अध्ययन कर चित्रित किया गया।

शाहजहाँ नामा से ही सम्बन्धित एक अन्य चित्र में स्वर्ण मुद्राओं द्वारा सम्राट को तराजू पर तोला जा रहा है। शाही वस्त्रों में सुसज्जित अनेक दरबारियों का चित्रण, कारपेट का आलेखन, वास्तु को सज्जा, स्वर्ण का प्रयोग आदि सभी भव्य वैभव को प्रस्तुत करने में सहायक हैं।

इस काल में खुसरू-शिरोन, लैला-मजनू, रूपमति-वाज बहादुर आदि के प्रेम-प्रसंगों को भी चित्रित किया गया है। इसी संदर्भ में एक प्रमुख चित्र ‘बाज बहादुर एण्ड रूपमति राइडिंग वाई नाइट’ है जो लगभग 1650 ई० का है।

इस चित्र में सलेटी रंग से एक नदी का चित्रण है जिसके किनारे मध्यभूमि में दो घोड़ों पर अलग-अलग बाज बहादुर और रूपमति सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित दर्शाए गए हैं। घोड़ों के नीचे का भाग छोटे-छोटे टीलों के पीछे छिपा है।

पृष्ठभूमि में वृक्षों के झुंड हैं। सम्भवतः रात्रि का दृश्य है परन्तु घोड़ों, वाज बहादुर तथा रानी रूपमति में चटख रंग योजना है क्योंकि यही चित्र का मुख्य विषय है। इसी के साथ-साथ वस्त्रों तथा आभूषणों में स्वर्ण का प्रयोग भी चित्र में अतिरिक्त चमक उत्पन्न कर रहा है।

जैसा कि यह सर्वविदित है कि मुगल सम्राटों के आश्रय (हरम) में बहुत सी स्त्रियाँ रहती थीं जो हर प्रकार से सम्राट की सेवा करती थी। प्रत्येक वर्ष सम्राट दरबार में अष्टदिवसीय मेले का आयोजन करते थे जिसमें स्त्रियों के अतिरिक्त कोई नहीं जा सकता था।

दरबार में नृत्य संगीत के आनन्दोत्सव होते थे जिनमें नर्तकियों को बहुमूल्य पुरस्कार प्रदान किए जाते थे। इसके अतिरिक्त शाहजहाँ की एक प्रमुख रूचि हाथियों के युद्ध को देखने की भी थी। शाहजहाँ किसी खिड़की में तथा शाही स्त्रियाँ जालीदार झरोंखों में बैठकर अखाड़े को देखती थी।

हाथियों के मध्य तीन फीट चौड़ी और छ: फीट ऊँची मिट्टी की दीवार बनायी जाती थी। हाथियों के ड्राइवर के पास लोहे का भाला होता था। दोनों हाथी एक दूसरे पर प्रहार करते, मिट्टी की दीवार टूट जाती और शक्तिशाली हाथी दूसरे हाथी को हरा देता युद्ध इतना भयावह रूप ले लेता कि अग्नि जला कर उसे शान्त किया जाता इस प्रकार के दृश्यों के कई चित्र शाहजहाँ काल में चित्रकारों द्वारा कुशलता पूर्वक आँके गए।

दाराशिकोह

(1615-1658). शाहजहाँ के समान इनके बड़े पुत्र दारा की रूचि भी कला में थी। वह अपने पूर्वजों के समान चित्रकारों का सम्मान करते थे। इनके समय का एक एलबम विशेष प्रसिद्ध हैं जिसमें 40 चित्र थे और जो इंडिया आफिस लाइब्रेरी, लंदन में सुरक्षित था।

इस एलबम पर दारा के हस्ताक्षर हैं। एलबम के मुख पृष्ठ पर एक लेख इस प्रकार मिलता है, “यह संग्रह उसकी सबसे प्रिय और निकट मित्र सम्भ्रान्त महिला नादिरा बेगम, को सम्राट शाहजहाँ के पुत्र युवराज मुहम्मद दाराशिकोह के द्वारा भेंट दिया गया।”

इस एलबम में सुन्दर चित्र हैं जिनमें मानवाकृति अंकन के साथ-साथ पक्षी भी चित्रित हैं। दाराशिकोह के व्यक्ति चित्र भी यहाँ सुरक्षित हैं। एक मुखाकृति उसकी उत्कृष्ट कलाकृतियों में मानी जाती है जिसे हुनर नामक चित्रकार ने रचित किया एक चित्र में दाराशिकोह को घोड़े पर बैठे हुए चित्रित किया गया है। इसका समय 1625 है।

चित्रण के साथ-साथ दाराशिकोह की रूचि साहित्य में भी थी। उन्होंने फारसी में उपनिषद तथा भागवत् गीता का अनुवाद कराया। इसके अतिरिक्त नृत्यसंगीत में भी इनकी रूचि थी। उन्होंने राना दिल से प्रेम विवाह किया था।

इनके प्रेम को प्रस्तुत करता हुआ एक चित्र लगभग 1658 ई० का मिलता है जिसमें दारा तथा रानादिल हाथ पकड़े एक दूसरे को निहारते हुए छत पर चित्रित हैं। एक दासी मदिरा उंडेल रही है तथा एक दासी वाद्य बजा रही है। पृष्ठभूमि में प्राकृतिक वातावरण नदी, चाँद आदि को सलेटी रंग की विविध तानों से दर्शाया गया।

औरंगजेब (1658-1707)

शाहजहाँ का चतुर्थ पुत्र औरंगजेब था जो कि आलमगीर के नाम से जाना जाता था। सन् 1658 ई० में वह अपने पिता सम्राट शाहजहाँ को बन्दी बनाकर गद्दी पर बैठ गया। वैसे तो वह एक परिश्रमी शासक था। परन्तु संकीर्ण प्रवृत्ति का था, वह खुदा से डरता था।

अपने पूर्वजों की तुलना में वह बहुत सरल एवं साधारण रूप से में रहता था। सम्भवतः इसी कारण उन्हें ‘जिन्दापीर’ (living saint) के नाम से जाना जाता था। उन्होंने भारत के एक बहुत बड़े भाग पर लगभग 50 वर्षों तक शासन किया राज्य की विशालता और प्रचलित नीतियों में परिवर्तन के कारण उन्हें काफी विद्रोह का सामना करना पड़ा जिससे उनका काफी समय विद्रोह की ज्वाला को शान्त करने में व्यतीत हुआ।

औरंगजेब के सत्तासीन होते ही राजनैतिक द्रोहों तथा सम्राट की उदासीनता के कारण इस समय कला की धारा मन्द पड़ गयी। इन्होंने एक ऐसे राज्य की स्थापना की जहाँ संवेदनाओं एवं परिकल्पना का कोई स्थान नहीं था। यदि उनके समय में जो कुछ चित्र बने वह कला रचना के लिए न होकर पारिवारिक सदस्यों के हाल-चाल जानने के लिए बने थे जिन्हें उन्होंने ग्वालियर के किले में कैद कर रखा था।

औरंगजेब चूंकि एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था अतः काफी हद तक उसने कला तथा कलाकारों को निराश्रित कर दिया था। यहाँ तक की कला को धर्म निषेध घोषित कर दिया। यद्यपि वह स्वयं भी संगीत का ज्ञाता था परन्तु उन्होंने उसे भी त्याग दिया था। यहाँ तक कि किसी भी घर से संगीत के स्वर सुनाई देने पर वह उसे नष्ट करवा देते थे।

इस कार्य को करने हेतु उन्होंने एक मंत्री के आधीन पूरा विभाग बनाया। यह विभाग कलाकृतियों को भी नष्ट करता था। सिकन्दरा में अकबर के मकबरे पर बनी कलात्मक सज्जा पर इन्होंने पुताई करवा दी।

यहाँ तक कि दिल्ली के लालकिले में मुख्य द्वार के दोनों ओर जो दो हाथी थे, इन्होंने तुड़वा दिए। बीजापुर में असर महल के चित्रों को भी मिटवा दिया। धीरे-धीरे कला का मार्ग अवरूद्ध होता गया। मुगल शैली में दिन प्रतिदिन ह्यस के चिह्न दिखाई देने लगे। उच्च साहित्यिक, दरबारी, सामाजिक विषयों के स्थान पर यदि कुछ चित्रित हुआ भी तो मद्यपान, मुजरा नृत्य, श्रंगारिक क्रीड़ाओं आदि के दृश्य।

सन् 1757 ई० में बंगाल में क्लाइव की विजय के पश्चात उत्तरी भारत में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होनी प्रारम्भ हो गयी और नए शासकों को प्रसन्न करने की होड़ में कलाकार लग गए। इस समय का एक प्रसिद्ध चित्र ‘ए नाच पार्टी परफोर्मिंग इन ए यूरोपियन मैनशन’ है जिसमें एक यूरोपीय भवन में नृत्य समारोह को दर्शाया गया है।

मानवाकृतियों में कम्पनी शैली का प्रभाव है। वेशभूषा में दक्षिण भारत का प्रभाव है। चित्र को समविभाजन विधि से संतुलित किया गया है। इस प्रकार औरंगजेब की उदासीनता तथा पाश्चात्य प्रभाव की वृद्धि के कारण कला मुगल दरवारों से हट गयी। कुछ कलाकार दक्षिण में तथा कुछ पहाड़ी रियासतों में चले गए जहाँ के नैसर्गिक वातावरण में कलाकार की परिपक्व तूलिका को उन्मुक्त अभिव्यक्ति मिली।

मुगल शैली की विषय वस्तु

विषय वह तथ्य, वह माध्यम, वह आधार है जिसका आश्रय लेकर एक कलाकार अपने भावों को स्पष्टतया अभिव्यक्त कर सकता है। आदि काल से निरन्तर कलाकार समय-समय पर अपने विषयों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करता आया है। चूँकि मुगल शैली मुगल साम्राज्य के साथ विकसित हुई इसलिए इसमें मुख्यरूप से मुगल साम्राज्य के भव्य वैभवपूर्ण दृश्यों की प्रतिच्छाया है।

इसीलिए कुछ आलोचक इसे दरबारी कला कहकर भी सम्बोधित करते हैं। परन्तु चूँकि मुगल सम्राट उदार नीतिज्ञ थे। इसलिए उनके समय में केवल मुस्लिम जीवन एवं साहित्य को ही नहीं चित्रांकित किया गया वरन् हिन्दू धर्म से प्रेरणा लेकर साहित्यिक एवं सामाजिक चित्रों को भी रचित किया गया।

ऐसे अनेक भारतीय तथा फारसी ग्रन्थ हैं जिनमें दृष्टान्त चित्रों को बनाया गया जिसमें कलाकारों की शैली की उत्कृष्टता, कलात्मकता तथा तकनीकी कौशल के साथ-साथ विषय की विविधता भी दिखायी गयी है। यही शैली की उत्कृष्टता अकबर से प्रारम्भ होकर जहाँगीर काल में अपने चरमोत्कर्ष पर दिखायी देती है।

यद्यपि इस समय तक पुस्तक चित्रण अधिक न होकर लघु चित्र छिन्न रूप से बने हैं परन्तु विषयवस्तु का चुनाव प्रस्तुतीकरण, संयोजन, वर्ण नियोजन सभी कलाकार की कार्यप्रणाली की सिद्धहस्तता को प्रकट करने में पूर्णतः समर्थ हैं।

इस समय मुख्य रूप से सम्राट की रूचि एवं सम्बन्धित घटनाओं के आधार पर चित्रण हुआ और सम्राट को केन्द्रीभूत करके प्रायः शान्तिप्रिय विषयों को अधिक अपनाया गया। मुगल शैली के सम्पूर्ण विषय विस्तार को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है।

मुगल शैली में दरबारी वैभव

मुगल शैली में अपने सम्पूर्ण परिश्रम, ओज एवं उत्साह के साथ मुगल सम्राटों के जीवन क्रिया-कलाप आदि का स्वरूप कुशलता पूर्वक उकेरा गया है। इन कलाकारों द्वारा बनाए गए दरबारी दृश्यों में राजा अपने दरबारियों से विचार विमर्श करते हुए, उपहार ग्रहण करते हुए युद्ध को देखते हुए आदि रूपों में बनाए गए हैं।

मुगल सम्राटों की भव्यता प्रदर्शित करने हेतु प्राय: चित्रकारों ने हाथी, घोड़े, नगाड़े, तुरही, सज्जित सिंहासन, कीमती वस्त्राभूषण, पताकाएँ आदि को बनाया है। इसके अतिरिक्त वास्तु पर की गयी नक्काशी, आलेखन युक्त कालीन, फब्बारे, विविध प्रकार के सजे-धजे मण्डप आदि भी उसी प्रकार के वैभव के प्रतीक हैं।

प्रत्येक वस्तु चित्रित करते समय उसकी सज्जा एवं चित्रण की बारीकी मुगल कलम की कुशलता को पूर्णतः सिद्ध करने में सक्षम दिखाई देती है। इसी संदर्भ में जहाँगीर काल का एक विशिष्ट चित्र ‘जहाँगीर वेइंग प्रिन्स खुर्रम (Jahangir weighing Prince Khurram) है जिसमें राजकुमार खुर्रम के जन्मोत्सव को दर्शाया गया है।

जब सम्राट दान देने के लिए राजकुमार को तराजू पर तोल रहे हैं। अग्रभूमि में थाल में उपहार रखे हैं, पृष्ठभूमि में राजा का सिंहासन है, वास्तु में आलों में रखे विभिन्न पात्र, कालीन, वस्त्र, वेषभूषा, आभूषण आदि सभी भव्य दरबार के वैभव को प्रदर्शित करने में सहायक हैं।

यह चित्र लगभग 1615 ई० का है जो ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में सुरक्षित है। वर्ण नियोजन चटख है तथा प्रत्येक रूपाकृति के सूक्ष्म विवरण दर्शनीय है। दाँयी ओर वास्तु के पार्श्व में उद्यान का चित्रण है जो जहाँगीर के प्रकृति सम्बन्धी प्रेम को स्पष्ट करता है।

व्यक्ति चित्रण

चूँकि मुगल चित्रकारों का मुख्य उद्देश्य अपने आश्रय दाताओं की रूचि के अनुसार चित्रण करना था। इसलिए उन्होंने अपने इन आश्रय दाताओं के प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु उनके व्यक्ति चित्रों को भी बनाया है। कहीं इन सम्राटों को एकाकी तो कहीं सम्पूर्ण चित्र में किसी स्थान पर एक पैनल के अन्दर इस प्रकार दिखाया है मानों वह कोई व्यक्ति चित्र हो।

‘मुगल’ चित्र शैली की प्रमुख विशेषतायें

मुगल चित्रकला को भारत की ही नहीं वरन् एशिया की कला में स्वतन्त्र और महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह शैली ईरान की कला परम्परा से उत्पन्न होकर भी ईरानी शैली नहीं रही। इस पर यूरोपीय तथा चीनी प्रभाव भी पड़े हैं। इस शैली पर भारतीय रंग योजनाओं तथा वातावरण का प्रभाव पड़ा है।

मुगल दरवार के अधिकांश कलाकार हिन्दु थे। तथापि उनके अनेक आचार्य ईरानी कलाकार ही थे जिनकी शैली, परम्परा तथा विचार धारा का प्रभाव अन्य समस्त चित्रकारों पर पड़ना स्वाभाविक था। मुगल आश्रय दाताओं की रुचि का भी इसमें योगदान रहा है। इस चित्रशैली की विशेषतायें इस प्रकार से हैं-

  1. मुगल चित्रों का विषय दरवारी शान-शौकत, बादशाहों की रुचियाँ, शबीह आदि रहा है। धार्मिक चित्रण, नायक-नायिका भेद, राग-रागिनी व जन-जीवन के विषयों को प्राय: मुगल चित्रकला में स्थान नहीं मिला।
  2. मुगल काल में सर्वाधिक संख्या में एक चश्म चेहरे बने हैं क्योंकि मुगल चितेरों को चेहरे को साफ लिखाई के लिये एक चश्म चेहरा अधिक सुविधाजनक लगा। कुछ पौने दो चश्म चेहरे भी इस शैली में बने।
  3. चित्रांकित मानवाकृतियों की वेषभूषा सम्राटों के पहनावें के मुताबिक ही बनायी गयी है। जैसे- जामा लम्बा व फ्रिलदार बनाया गया, पगड़ियों का अंकन भी अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ आदि सम्राटों के समकालीन फैशन के अनुरूप हुआ यथा- अटपटी, खिड़कीदार व छज्जेदार पगड़ियाँ चित्रों में बनायी गयी।
  4. मानवाकृतियों का कद सामान्य ही रहा है। राजस्थान की तरह पासवानों के आधार पर नारी चित्रण नगण्य ही रहा है। “
  5. परदाज चेहरे पर छाया लगाने की एक प्रचलित मुगलिया तकनीक थी।
  6. रेखायें गोलायी लिये बारीक व महीन से महीनतर खींची गयी हैं। केवल रेखाओं से वस्त्रों की फहरान को दिखाया गया है।
  7. मुगल शैली का रंग विधान ईरानी तथा भारतीय पद्धतियों से भिन्न है। मुगल शैली के रंगों में एक विशेष प्रकार की दीप्ति थी लेकिन वह मेवाड़ी रंग नियोजन की तरह सपाट व मुख्य रंगतों तक ही सीमित न रहकर मिश्रित रंगों व तानों के विभिन्न योग से मधुकर बन गयी थी। रंगों को ईरानी अलंकारिता को भी छोड़ दिया गया था।
  8. मुगल शैली में सहजता, स्वाभाविकता के प्रति मुगल कलाकारों का आकर्षण बना रहा है। दरबारी चित्रों, प्रकृति चित्रों तथा शवोह चित्रों को बादशाह की निगाह में ऊँचा उठाने के लिये उनमें स्वाभाविकता का आकर्षण उत्पन्न करना आवश्यक था।
  9. मुगल चित्र शैली में चित्र के चारों ओर का हाशिया भी सुसज्जित एवं अलंकृत बनाया जाता था। हाशियों को सुसज्जित करने की प्रथा मुगलों ने ही विकसित की थी। राजस्थानी चित्रों में कलाकार रंग की पतली पट्टी व विरोधी रंगों को रेखाओं से हाशिये बनाते थे लेकिन मुगल चित्रों में हाशियों का उत्तरोत्तर विकास होता गया था, बेल-बूटे, वृक्ष, खग-मृग मानवाकृतियाँ आदि हाशियों के बीच-बीच में चित्रित किये जाने लगे। इन अलंकृत हाशिये वाले चित्रों में बहुत सफाई होती थी।
  10. क्षितिज रेखा जो मेवाड़ी चित्रों में बहुत ऊपर बनती है, अब यह खिसककर धीरे-धीरे नीचे आती गर्यो जमीन व आसमान दोनों को ही चित्रों में दर्शाया गया।
  11. तल व्यवस्था को मुगल चित्रों में वास्तु व पहाड़ियों के माध्यम से संजोया गया था लेकिन बाद के चित्रों में पूर्णतया दृष्टि बिन्दु ऊँचाई पर स्थित कर वास्तु व प्रकृति वाले तलों को व्यवस्थित किया गया।
  12. मुगल चित्रों में प्रकृति का उन्मुक्त रूप सामने नहीं आ पाया। प्रकृति भी प्रतीकात्मक व अलंकारिक रूप में चित्रित नहीं हुई। बल्कि उसका कोई एक पक्ष (वृक्ष, फल, पुष्प या पक्षी) बादशाह की सुखानुभूति के लिये चित्रित किया जाता था। राजस्थानी चित्रों में प्रकृति का उन्मुक्त रूप उभरा है। मानवाकृतियों के सुख-दुख के साथ वह भी सुखी व दुखी दिखलायी पड़ती हैं। मुगल चित्रों में प्रकृति के रूपों को फोटों जैसी यथार्थता में चित्रित करने का प्रयास बना रहा।

मुग़ल कालीन कला के बारे में विद्वानों के विचार

Their blood was thus Turkish and Mongol. but their cultural background was Persian Babur was attracted to India because of its spaciousness thronging population and wealth in gold and silver Although he enjoyed literature and poetry, he was primarily a man of action with a sense of style in writing and in architecture and gardening.”

Douglas Barett & Basil Gray

“The Moghul school of painting from the 16th to the 18th century formed as it were, the spinal column of the various schools of Indian miniature art. If the Moghul school had not come into being, the Pahari and Rajasthani schools would not have emerged in the forms in which we find them.”

Rai Krishandasa

“There can be no question that the foundations of the Mughal school largely rested on the circumstance that many Indian painters from various parts of the country such as Gujarat, Gwalior Kashmir and elsewhere, were employed in the imperial atelier.

Rai Krishandas

“Persian miniatures were the work of individual artists. But in the Mughul atelier the artico worked as a team. One man would execute the outlines, another the portraits a third the landscape and a fourth would add the colour. Working under these conditions it was natural that the Hindu and indigenous Muslim artists and the Persian should have greatly influenced one another so that within a very short space of time a distinctive and unifiel style grew up.

Krishan Chaitanya

“Akbar’s school painters were all Hindus. Most of these were drawn from castes, the khayastha, chitera, silavat and khatri of whom the most renowned were the kayasthas or writers Indian Painting under the Mughal.

Percy Brown

“And among the arts called in to assist in making Akbar’s palaces the most beautiful of their age was that of mural decoration. As soon as the mason’s work was finished, expert painters were called into design and execute pictures. On the interior walls of many of the palace-halls and living rooms, Remains of these are still visible and although much obliterate that period. None of this decoration is fresco or even temperat was usually the method of the Indian craftsman, but the sandstone surface of the wall was primed with a coat of white pigment upon which the colours of the pictures were directly applied.”

Percy Brown

“More than a hundred painters were employed in the royal atelier at Fatehpur Sikri. Most of these were Hindus from Gujarat, Gwalior and Kashmir. They worked, in turn, under two Persian master artists, Abdus samad and Mir Sayyid Ali but they were encouraged and inspired by Akbar. “

Randhawa and Galbraith

“Jahangir was also passionately curious about the forms and behaviour of plants and animals, and it has been remarked that he might have been a better and happier man as the head of a natural history museum.”

Andrew Tops field

“Jahangir was a very different man, a man of sensibility and taste, proud of his artistic gifts and judgement; finding an outlet for his feelings in the commissioned work of ruler and judge, of kings; and reflecting in his person the glory of his name Jahangir (carth-seizer) and the splendour of his second name Nur-al-Din (light of religion).

Douglas Barett Basil Gray

By 1616 Jahangir had also examples of Italian and English, Sir Thomas Roc. ambassador from king James 1, gave him a miniature portrait by Isaae Oliver the best English miniaturist of the period. The emperor had copies of this made by his painters and challenged Roe to distinguish them from the original.”

Douglas Barett & Basil Gray

“The Taj Mahal was one of Shah Jahan’s masterwork. He restored the importance of Delhi by building the Red Fort-red for its red stone walls which enclosed his palace and the Pearl Mosque. Indeed, the present day City of Delhi owes its existence to Shah Jahan and was named Shah Jahanabad for him. With its tall chaste walls marching into the distance, the ‘Red Fort Combines’ majesty and strength with serenity.”

Randhawa and Galbraith

“A man ( Daswant) of humble birth, son of a Hindu porter, Daswant showed an extra ordinary gift of draughtsmanship. The story was that he was seen at work on a wall by the emperor Akbar who recognized his ability and enrolled him in the library under the guidance of Abdal-Samad.”

मुगल शैली का चित्रकार कौन है?

अकबर के काल में मुगल चित्रकला- अकबर के समय के प्रमुख चित्रकार मीर सैय्यद अली, दसवंत, बसावन, ख्वाज़ा, अब्दुस्समद, मुकुंद आदि थे।

मुगलकालीन चित्रकला की क्या विशेषता है?

मुगल चित्रकला शैली का विकास चित्रकला की स्वदेशी भारतीय शैली और फारसी चित्रकला की सफ़विद शैली के एक उचित संश्लेषण के परिणामस्वरुप हुआ था। इस शैली की शुरूआत बाबर (1526-30) से मानी जाती है। उसे फारसी कलाकार बिहजाद को संरक्षण देने वाला कहा जाता है।

भारत में मुगल चित्र शैली का जन्म कैसे हुआ?

भारत में मुगल शैली की चित्रकला का जन्म हुमायूँ के शासनकाल में प्रारंभ हुआ। शेरशाह से पराजित होने के पश्चात् हुमायूँ ने फारस एवं अफगानिस्तान के अपने निर्वसन के दौरान मुगल चित्रकला की नींव रखी। फारस में हुमायूँ की मुलाकात दो चित्रकारों-मीर सैय्यद अली एवं ख्वाजा अब्दुस्मद से हुई। इन्होंने ही मुगल चित्रकला की नींव रखी।

कौन सा मुगल राजा चित्र कला में निपुण था?

मुगल सम्राट अकबर ने चित्रकला शैली की जिस आधारशिला को रखा वह उसके पुत्र जहाँगीर के काल में प्रौढ़ता को प्राप्त हुई. उसने इस काल के विकास में विशेष रुचि ली और इस कला तथा कलाकारों को राजाश्रय प्रदान किया. वह चित्र रचना की शैली को देखकर उसके कलाकार को नाम बता सकता था.