लोक कल्याणकारी राज्य एक ऐसा समाज है जिसमें एक सुनिश्चित न्यूनतम जीवन स्तर एवं विकास के अवसर प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध होते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास करने के लिए स्वतन्त्र है. वर्तमान युग में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा एक युगीन आवश्यकता बनकर दिनो-दिन अधिकाधिक लोकप्रिय बनती जा रही है. नवीन लोकतांत्रिक राज्य इसे अपनाते जा रहे हैं तथा इसके आदर्शों को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए कृत संकल्प दिखायी देते हैं. लोक कल्याणकारी राज्य का सिद्धान्त राज्य की उपयोगिता स्वीकार करते हुए राज्य को लोक कल्याण एवं व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित व्यापक उत्तरदायित्व सौंपता है. ठीक भी है, लोकतन्त्र और समाजवाद के मूल आदर्शों को उस समय तक व्यावहारिक स्वरूप प्रदान नहीं किया जा सकता है जब तक कि लोक-कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त को स्वीकार न कर लिया जाए. Show मूल अवधारणा प्राचीनकाल से ही भारत में राज्य की अवधारणा में लोक-हित या लोक-कल्याण के बीज पाये जाते हैं. ईस्वी सन् पूर्व से लेकर आज तक भारतीय व पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन में लोक कल्याण को राज्य का लक्ष्य बताया गया है, महाभारत के शान्ति पर्व में लिखा है “राज्य को प्रजा के नैतिक जीवन का नियमन, नियन्त्रण तथा पथ-प्रदर्शन करना चाहिए और पृथ्वी को मनुष्यों के विकास के योग्य एवं सुख-सुविधाओं से पूर्ण बनाना चाहिए.” महाभारत में महर्षि व्यास ने तो यहाँ तक लिखा है कि जो राजा अपनी प्रजा को पुत्रवधू समझकर उसके चतुर्दिक विकास का प्रयास नहीं करता है, वह नरकगामी होता है. इसी कथन की पुनरावृत्ति हमें 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास प्रणीत ‘रामचरितमानस’ में मिलती है “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।” इस प्रकार भारतीय चिन्तन पद्धति के अनुसार राज्य मनुष्य के नैतिक कल्याण का प्रयत्न करता है और साथ साथ मनुष्य की भौतिक समृद्धि के प्रति भी जागरूक होता है. भारत के मध्यकालीन साहित्य (रामचरितमानस) में रामराज्य की कल्पना लोक-कल्याणकारी राज्य के समग्र रूप को उजागर करती है, जैसे- बयरु न कर काहू सन कोई । राम प्रताप विषमता खोई । दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि व्यापा । सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती । अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा । सब सुन्दर सब निरुज सरीरा । नहिं दरिद्र कोउ दुःखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना । (दोहा 21-26, उत्तरकाण्ड, रामचरितमानस) यूरोप के विख्यात विचारक अरस्तू ने भी लोक-कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की थी. “राज्य का निर्माण जीवन को सम्भव बनाने के लिए किया गया था और अच्छे जीवन को सम्भव बनाने के लिए वह अब तक जीवित है.” आधुनिक विचारक राज्य को प्रमुखतः आर्थिक कल्याण का साधन मानते हैं और आर्थिक कल्याण में ही लोकहित की परिकल्पना को साकार होते हुए देखना चाहते हैं. समाजवादियों की बात छोड़ भी दें, यूरोप के विचारक काण्ट तक ने यह प्रतिपादित किया है कि “लोक हितकारी राज्य एक ऐसा राज्य है, जो अपने नागरिकों के लिए सामाजिक सेवाओं के एक विस्तृत क्षेत्र की व्यवस्था करता है.” आज के राज्य यह भली प्रकार समझ गये हैं कि केवल समाज में शान्ति बनाये रखना, बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा करना आदि तक शासन के कर्त्तव्य सीमित नहीं है, बल्कि श्रमिकों को पूँजीपतियों के शोषण से बचाने के लिए, समाज के प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक व्यवस्था करना आदि भी राज्य के दायित्व हैं. इसके लिए उसे नई-नई संस्थाएँ खोलनी चाहिए तथा समाज की स्वस्थ आवश्यकताओं का नियमन करके जीवन की भौतिक परिस्थितियों में सुधार करना चाहिए. लोक हितकारी राज्य के मान्य लक्षण इस प्रकार हैं सामाजिक सुविधाएँ, व्यक्तित्व का विकास, राष्ट्रीय आय का समान वितरण, समाज कल्याण की भावना, आर्थिक उन्नति तथा सांस्कृतिक विकास. कहने का तात्पर्य यह है कि लोक कल्याणकारी राज्य का परिवेश बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत है. कृषि, उद्योग, व्यापार, श्रम, स्वास्थ्य, परिवहन, यातायात, शिक्षा, समाज सुधार, आमोद-प्रमोद आदि समस्त क्षेत्र उसके अन्तर्गत आ जाते हैं. वस्तुतः वह एक समग्र जीवन पद्धति है. न्यायमूर्ति श्री छागला का यह कथन वस्तुतः लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा प्रायः सार्वभौमिक है, मानव-संस्कृति के विकास में वह एक अपरिहार्य सोपान के रूप में मान्य है. भारत में लोक कल्याणकारी राज्य के लिए सैद्धान्तिक रूप में अपेक्षाकृत अधिक बातें की जाती हैं. भ्रष्ट शासक-प्रशासक उसकी उन्मुक्त प्रगति में सबसे बड़े बाधक है. यह सन्तोष का विषय है कि जनमत इसके लिए निरन्तर दबाव डालता रहता है. लोक-कल्याणकारी राज्य लोक-कल्याणकारी राज्य के लक्षण या विशेषताएँ या उद्देश्य 2. राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था – लोक-कल्याणकारी राज्य की दूसरी विशेषता राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था कही जा सकती है। इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि राजनीतिक शक्ति सभी व्यक्तियों में निहित हो और ये अपने विवेक के आधार पर इस राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर सकें। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं- 3. सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था – सामाजिक सुरक्षा का तात्पर्य सामाजिक समानता से है। और इस सामाजिक समानता की स्थापना के लिए आवश्यक है कि धर्म, जाति, वंश, रंग और सम्पत्ति के आधार पर उत्पन्न भेदों का अन्त करके व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में महत्त्व प्रदान किया जाए। डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में, “सामाजिक समानता का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति के सुख का महत्त्व हो सकता है तथा किसी को भी अन्य किसी के सुख का साधनमात्र नहीं समझा जा सकता है। वस्तुत: लोक-कल्याणकारी राज्य में जीवन के सभी पक्षों में समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। लोक कल्याणकारी राज्य का क्या आशय है?लोक कल्याणकारी राज्य से तात्पर्य किसी विशेष वर्ग का कल्याण न होकर सम्पूर्ण जनता का कल्याण होता है । इस तरह सम्पूर्ण जनता को केन्द्र मानकर जो राज्य कार्य करता है, वह लोक कल्याणकारी राज्य है ।
लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य क्या है?इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य जनता के संपूर्ण विकास तथा सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय की स्थापना करते हुए अवसर तथा प्रतिष्ठा की समानता स्थापित करना है। यह व्यवस्था समाज आधारित व्यवस्था है जहां व्यक्ति नहीं बल्कि समाज लोकनीति के केंद्र में होता है।
क्या भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है?जहाँ तक भारत का प्रश्न है सामाजिक प्रशासन या कल्याण प्रशासन की मूल प्रकृति जनहितकारी ही है लोक कल्याणकारी राज्य में राज्य के दायित्व बहुत गम्भीर तथा व्यापक होते हैं क्योंकि ऐसा राज्य उन पिछड़े, दीन हीन, पतित अक्षम, नि:शक्त तथा प्रताड़ित किये गये व्यक्तियों का विकास, पुनर्वास तथा सुरक्षा सुनिश्चित करता है, जो समाज की ...
कल्याणकारी क्या है?लास्की के शब्दों मे " कल्याणकारी राज्य लोगों का वह संगठन है, जिसमे सबका सामूहिक रूप से अधिक हित हो सके। डाॅ. अब्राहम के अनुसार " कल्याणकारी राज्य वह है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था का संचालन आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से करता है।"
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