Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 वाख Textbook Exercise Questions and Answers. Show
JAC Board Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 वाखJAC Class 9 Hindi वाख Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. (ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए शिक्षा का व्यापक प्रचार सबसे महत्त्वपूर्ण है। अशिक्षित व्यक्ति का बौद्धिक विकास पूरी तरह नहीं हो पाता इसलिए अच्छे-बुरे के बीच भेद करने का विवेक उन्हें प्राप्त नहीं होता। वे कुएँ के मेंढक की तरह संकुचित मानसिकता के हो जाते हैं। आपसी भेद-भाव मिटाने के लिए आर्थिक विषमता का दूर होना भी आवश्यक है। गरीबी-अमीरी के बीच की खाई भेद-भाव को बढ़ाती है। नर-नारियों पर लगे तरह-तरह के सामाजिक-धार्मिक प्रतिबंध पूर्ण रूप से मिटा दिए जाने चाहिए। नारी-शिक्षा को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए ताकि नारी शिक्षित होकर अपने परिवेश से ऐसे विचारों को दूर कराने में सहायक बन सके। कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा भेद-भावों को बढ़ाने संबंधी भ्रामक विचारों के प्रसारण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इसे दंडनीय अपराध मानना चाहिए ताकि वे भोली-भाली जनता को बहका न सकें। सरकार के द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में ऐसे सजगता संबंधी कार्यक्रम कराने चाहिए जिनसे वे जागरूक हो सकें। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न : JAC Class 9 Hindi वाख Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव। शब्दार्थ : रस्सी कच्चे धागे की – कमज़ोर और नाशवान सहारे। नाव – जीवन रूपी नौका। भवसागर – दुनिया रूपी सागर। कच्चे सकोरे – स्वाभाविक रूप से कमज़ोर। व्यर्थ – बेकार। प्रयास – प्रयत्न। प्रसंग : प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित किया गया है जिसकी रचयिता कश्मीरी संत ललद्यद हैं। मानव ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है और उसे पाने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करता है पर उसके द्वारा किए गए प्रयत्नों से उसे सफलता नहीं मिलती। कवयित्री ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए किए जानेवाले ऐसे ही प्रयत्न की व्यर्थता को प्रकट किया है। व्याख्या : कवयित्री दुखभरे स्वर में कहती है कि मैं अपनी जीवन रूपी नौका को कमज़ोर और नाशवान कच्चे धागे की साँसों रूपी रस्सी से लगातार खींच रही हूँ। मैं इसे उस पार लगाना चाहती हूँ पर पता नहीं परमात्मा कब मेरी पुकार सुनेंगे और मुझे दुनिया रूपी सागर को पार कराएँगे। स्वाभाविक रूप से कमज़ोर कच्चे बरतन रूपी शरीर से निरंतर पानी टपक रहा है; मेरा जीवन घटता जा रहा है; आयु व्यतीत होती जा रही है पर मेरे द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने के लिए किए गए सभी प्रयत्न असफल होते जा रहे हैं। मेरे हृदय से रह-रहकर पीड़ाभरी आवाज़ उत्पन्न होती है। परमात्मा से मिलने और इस संसार को छोड़कर वापस जाने की मेरी इच्छा बार-बार मुझे घेर रही है पर वह इच्छा चाहकर भी पूरी नहीं हो रही है। अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं शब्दार्थ : अहंकारी – घमंडी। सम (शम ) – अंतःकरण तथा बाह्य-इंद्रियों का निग्रह। समभावी – समानता की भावना। खुलेगी साँकल बंद द्वार की – मन मुक्त होगा; चेतना व्यापक होगी। प्रसंग : प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ से लिया गया है जो कश्मीरी संत ललद्यद के द्वारा रचित है। मानव परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के आडंबर रचता है पर उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। परमात्मा की प्राप्ति तो मानव की चेतना अंतःकरण से समभावी होने पर ही व्यापक हो सकती है। व्याख्या : कवयित्री कहती है कि हे मानव ! यह संसार तो मायात्मक है। तू इसके भ्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर पाएगा। सुखों की प्राप्ति करता हुआ और नित तरह-तरह के व्यंजन खाकर तू कुछ नहीं पाएगा। यदि बाह्याडंबर करता हुआ तू व्रत के नाम पर कुछ नहीं खाएगा तो स्वयं को संयमी मानकर तू अहंकार का भाव अपने मन में लाएगा। स्वयं को योगी- तपी मानने लगेगा। यदि तू परमात्मा को वास्तव में पाना चाहता है तो अपने अंतःकरण और बाह्य – इंद्रियों को अपने बस में कर; अपने तन – मन पर नियंत्रण कर। जब समानता की भावना तेरे भीतर उत्पन्न होगी तभी तेरा मन मुक्त होगा, तेरे मन रूपी बंद द्वार की साँकल खुलेगी, तेरी चेतना व्यापक होगी। बाह्याडंबरों से तुझे कुछ नहीं मिलेगा। अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न : 3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह, शब्दार्थ : गई न सीधी राह – जीवन में सांसारिक छल-छद्मों के रास्ते चलती रही। सुषुम-सेतु – सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल; हठयोग के अनुसार शरीर की तीन प्रधान नाड़ियों (इंगला, पिंगला और सुषुम्ना) में से जो नासिका के मध्य भाग (ब्रहमरंध्र) में स्थित है। जेब टटोली – आत्मालोचन किया। कौड़ी न पाई – कुछ प्राप्त न हुआ। माझी – ईश्वर गुरु; नाविक। उत्तराई – सत्कर्म रूपी मेहनताना। प्रसंग : प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित है जिसकी रचयिता कश्मीरी संत ललद्यद हैं। परमात्मा जब मानव को धरती पर भेजता है तो वह साफ़-स्वच्छ मन का होता है पर दुनियादारी उसे बिगाड़ देती है। वह सत्कर्मों से दूर हो जाता है जिस कारण वह मन-ही-मन भयभीत होता है कि परमात्मा के पास जाने पर वह वहाँ क्या बताएगा ? भवसागर से पार जाने के लिए सत्कर्म ही सहायक होते हैं। व्याख्या : कवयित्री दुखभरे स्वर में कहती है कि जब परमात्मा ने मुझे संसार में भेजा था तो मैं सीधी राह से यहाँ आई थी पर मोह माया से ग्रसित इस संसार में सीधी राह पर न चली। मैं सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल पर खड़ी रही और मेरा जीवन रूपी दिन बीत गया अर्थात हठयोग ने मुझे रास्ता तो दिखाया था पर मैं ही अज्ञान वश उस मार्ग पर पूरी तरह चल नहीं पाई। मैं माया रूपी संसार में उलझ गई। अब जब इस संसार को छोड़कर वापस जाने का समय आया है तो मेरे द्वारा आत्मालोचन करने से पता चला कि मैंने इस संसार कुछ नहीं पाया; जीवनभर भक्ति नहीं की इसलिए मुझे उसका फल नहीं दिया। मुझे नहीं पता कि अब मैं उतराई के रूप में नाविक रूपी ईश्वर को क्या दूँगी। भाव है कि मैंने अपना जीवन व्यर्थ ही गवाँ दिया है और मेरे पास सत्कर्म रूपी मेहनताना भी नहीं है। अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न : 4. थल-थल में बसता है शिव ही, शब्दार्थ : थल-थल – सर्वत्र। शिव – ईश्वर। भेद – अंतर। साहिब – स्वामी, ईश्वर। प्रसंग : प्रस्तुत पद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ से अवतरित है जिसे ‘वाख’ के अंतर्गत संकलित किया गया है। संत कवयित्री ललद्यद ने शैव दर्शन के आधार पर चिंतन किया था। वह मानती है कि परमात्मा शिव रूप में संसार के कण-कण में विद्यमान है। व्याख्या : कवयित्री कहती है कि शिव तो इस संसार में सर्वत्र विद्यमान हैं। प्रभु का स्वरूप तो प्रत्येक वस्तु के कण-कण में सिमटा हुआ है। आप चाहे हिंदू हैं या मुसलमान – उस परमात्मा को जानने पहचानने में कोई अंतर न करो। यदि आप ज्ञानवान हैं तो स्वयं को पहचानो। स्वयं को पहचानना ही परमात्मा को पहचानना है क्योंकि परमात्मा ही तो आपके जीवन का आधार है। वही आपके भीतर है और आपके जीवन की गति का आधार है। ईश्वर सर्वव्यापक है इसलिए धर्म के आधार पर उसमें भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। आत्मज्ञान ही सर्वोपरि है। अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : वाख Summary in Hindiकवयित्री – परिचय : ललद्यद कश्मीरी भाषा में रचना करनेवाली प्रथम कवयित्री थी जिन्होंने आज से लगभग 700 वर्ष पहले कश्मीरी जनता पर अपने विचारों से गहरा प्रभाव छोड़ा था। उनकी वाणी से तत्कालीन समाज ही प्रभावित नहीं हुआ था बल्कि अब भी उनकी रचनाएँ कश्मीर की जनता में गाई जाती हैं। इनके जीवन के विषय में अन्य संतों के समान प्रामाणिक जानकारी बहुत कम मात्रा में प्राप्त हुई है। इनका जन्म कश्मीर स्थित पांपोर के सिमपुरा गाँव में लगभग 1320 ई० में हुआ था। इनका देहावसान सन् 1391 ई० के आसपास माना जाता है। इन्हें केवल ललद्यद नाम से ही नहीं जाना जाता बल्कि लल्लेश्वरी, लाल्ल योगेश्वरी, ललारिका आदि नामों से भी जाना जाता है। इनके द्वारा रचित काव्य का वहाँ के लोक जीवन पर गहरा प्रभाव है। इनकी काव्य- शैली ‘वाख’ नाम से प्रसिद्ध है। जिस प्रकार हिंदी में कबीर के दोहे, मीराबाई के पद, तुलसीदास की चौपाइयाँ और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार ललद्यद के ‘वाख’ प्रसिद्ध हैं। इन्होंने इनके द्वारा तत्कालीन समाज में प्रचलित भेद-भावों और धार्मिक संकीर्णताओं को दूर करने का प्रयास किया था। इन्होंने समाज को भक्ति की उस राह पर चलाने में सफलता प्राप्त की थी जो अपने-आप में उदार थीं। इनकी भक्ति का जन-जीवन से संबंध था। इन्होंने धार्मिक आडंबरों का विरोध किया था तथा प्रेम को मानव जीवन का सबसे बड़ा उपहार माना था। इन्होंने लोक जीवन के तत्वों से प्रेरित होकर तत्कालीन पंडिताऊ भाषा संस्कृत और दरबार के बोझ से दबी फ़ारसी को अपनी कविता के लिए स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने इनके स्थान पर सामान्य जनता की भाषा का प्रयोग करते हुए अपने भावों को अभिव्यक्त किया था। भाषा और विषय की सरलता और सहजता के कारण शताब्दियों बाद भी इनकी वाणी जीवित है। इनके भाव और भाषा की प्रासंगिकता इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि ये आधुनिक कश्मीरी भाषा की प्रमुख आधार स्तंभ स्वीकार की जाती हैं। ललद्यद के ‘वाख’ भक्ति भाव से परिपूर्ण हैं। वे जीवन को अस्थिर मान परम ब्रह्म को पाना चाहती थीं। वे शैवयोगिनी थी। इनका चिंतन का आधार शैवधर्म था। इनकी कविता केवल पुस्तक वर्णित धर्म नहीं है बल्कि इसमें लोगों के विश्वास – विचार और आशा-निराशा का स्पंदन है। इन्होंने शैवधर्म की दीक्षा अपने कुलगुरु बूढ़े सिद्ध श्री कंठ से ली थी। इनका काव्य जीवन और संसार को असत्य न मानकर उसमें आस्था रखना सिखाता है। ये कबीर की तरह क्रांतिकारी व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। इन्होंने लोगों को समझाया था कि बाह्याडंबरों का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है। कविता का सार : कश्मीरी भाषा की प्रथम संत कवयित्री ललद्यद ने भक्ति के क्षेत्र में व्यापक जन-चेतना को जगाने में सफलता प्राप्त की थी। उनके पहले वाख में ईश्वर-प्राप्ति के लिए किए जानेवाले प्रयासों की व्यर्थता की चर्चा की गई है। अपनी जीवन रूपी नाव को कच्चे धागे की रस्सी से खींच रही है पर पता नहीं ईश्वर उसके प्रयास को सफलता प्रदान करेंगे या नहीं। उसके सारे प्रयत्न असफल सिद्ध हो रहे हैं। वह परमात्मा के घर जाना चाहती है पर जा नहीं पा रही। दूसरे वाख में बाह्याडंबरों का विरोध करते हुए कहा गया है कि अंतःकरण से समभावी होने पर ही मनुष्य की चेतना व्यापक हो सकती है। माया के जाल में व्यक्ति को कम-से-कम लिप्त होना चाहिए। व्यर्थ खा-खाकर कुछ प्राप्त नहीं होगा जबकि कुछ न खाकर व्यर्थ अहंकार बढ़ेगा। जीवन से मुक्ति तभी प्राप्त होगी जब बंद द्वार की साँकल खुलेगी। तीसरे वाख में माना गया है कि दुनिया रूपी सागर से पार जाने के लिए सत्कर्म ही सहायक सिद्ध होते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए अनेक साधक हठयोगी जैसी कठिन साधना करते हैं पर इससे लक्ष्य की प्राप्ति सरल नहीं हो जाती। चौथे वाख में भेदभाव का विरोध और ईश्वर की सर्वव्यापकता को प्रकट किया गया है। ईश्वर सभी के भीतर विद्यमान है पर मानव स्वयं उसे पहचान नहीं पाता। कवयित्री के हृदय में हूक क्यों उठ रही है?Answer: (ख) कवयित्री हर क्षण एक ही प्रार्थना करती है कि वह परमात्मा की शरण प्राप्त कर इस जीवन को त्याग दे पर ऐसा हो नहीं रहा। इसी कारण उस के हृदय से बार-बार हूक उत्पन्न होती है।
कवयित्री के दिल में क्या हूक सी उठती है और क्यों?कवयित्री के दिल में क्या हूक-सी उठती है और क्यों ? उत्तर कवयित्री के दिल में परमात्मा से मिलने की हूक अर्थात् तड़प उठती है, क्योंकि उसके लिए अर्थात् मनुष्य की आत्मा के लिए यह भवसागर या संसार तो पराया घर है और परमात्मा का घर उसका अपना घर है।
कवयित्री के जी में क्या हूक उठती है *?कवियित्री के मन में क्या हुक उठती है ? कवियित्री के मन में बार बार यह हुक उठती है कि उसे घर जाना है अर्थात प्रभु से मिलना है। कवियित्री प्रभु से मिलने के लिए तड़प रही है , वह कह रही है कि हमने जीवन में केवल बाहरी साधन अपनाए है जबकि परम पिता परमात्मा से मिलने का एक ही रास्ता है अपनी इन्द्रियों को वश में करना।
कच्चे धागे की रस्सी तथा नाव से क्या तात्पर्य है?नाव का मतलब है जीवन की नैया। इस नाव को हम कच्चे धागे की रस्सी से खींच रहे होते है। कच्चे धागे की रस्सी बहुत कमजोर होती है और हल्के दबाव से ही टूट जाती है। हालाँकि हर कोई अपनी पूरी सामर्थ्य से अपनी जीवन नैया को खींचता है।
|