कुंती कर्ण के पास क्यों गई थी उसने कर्ण से क्या कहा था? - kuntee karn ke paas kyon gaee thee usane karn se kya kaha tha?

                
                                                                                 
                            जिसने जननी का आंचल,वंश का नाम ना पाया।
गुरु से अर्जित ज्ञान जिसके अंत समय मे काम ना आया।
क्या व्यथा उस वीर की रही होगी।
मन ही मन कितनी पीड़ा उसने सही होगी।
विपरीत समय,विपरीत परिस्थिति, हर और मचा काल भी भीषण,
कुछ समय बाद ही छिड़ने वाला था महाभारत का रण।
सहकर अपमान की ज्वाला, मन में अर्जुन वध का प्रण,
हर ओर हाहाकार मचा होगा,मृत शरीर पड़े होंगे।
जिस समय करण और अर्जुन आमने सामने खड़े होंगे।
जब हर ओर चीखों का शोर, हर और विलाप होगा,
किसी के मन में दुख,किसी के मन में पश्चाताप होगा,
जब मुख से नहीं बाणों से वार्तालाप होगा।
इसी इंतजार मे काट रहे थे हर क्षण,सूर्य पुत्र करण।
जब कुरूवंश के लिए सबसे दुखद घड़ी थी।
तब महारानी कुंती तो अलग ही सोच मे डूबी पड़ी थी।
स्मृति में वो दिन,जब हुआ पुत्र प्राप्त विवाह के बिन,
सोच रही थी के जग को अपनी कहानी कैसे बतलाऊगीं,
इतिहास के पन्नों में तो मैं एक मलीन कहलाऊंगी,
बैठी इस डर में,के मेरे ही दोनों पुत्र भिड़ेंगे बीच समर में, तो मैं किसका हित चाहूंगी।
फिर मन ही मन कुछ हिम्मत जुटाई, राजमहल से करण के पास आई।
जब देखा करण को बीच जल में,जाह्नवी तट पर।
रह गया वात्सल्य आंचल में सिमट कर।
जब करण निकल जल से बाहर आया,
महारानी कुंती को सामने खड़ा पाया,
बोला हे!महारानी आप यहां इस स्थिति में,
क्या है कोई विशेष कारण आपकी उपस्थिति में,
बोली कुंती हे पुत्र मैं आज एक सच तुम्हें बतलाने आई हूं।
मां का अधिकार जताने, तुम्हें गले लगाने आई हूं।
पुत्र तुमने सहा है जो अपमान सूत पुत्र होने का वो झूठा है।
अर्जुन की भांति तू भी मेरा ही बेटा है।
तू हुआ जब प्राप्त मुझे मैं अविवाहित थी,
समाज के डर से तुझे कर गई मैं जल मे प्रवाहित थी।
तब तुझे जल से सूत पत्नी ने निकाला था,
उसी ने बड़ा किया तुझे उसी ने पाला था।
बड़ा है हृदय उनका,वो श्रेष्ठ नारी है,
ये कुंती भी उनकी आभारी है।
पूरे जग में तू अजय,एक बाण में समर्थ तू करने को प्रलय।
कवच और कुंडल का अधिकारी तू,
दानवीर परोपकारी तू,वीर है योद्धा अत्ती भारी तू।
रण में खाती पूरी सेना तुमसे भय,
पुत्र पिता है तेरे पूरी धरा को प्रकाश देने वाले साक्षात सूर्य।
अब भी बता क्या तू अपने हृदय को पत्थर करेगा।
अब भी क्या तू अपने भाईयों के विपक्ष होकर समर करेगा।
अब भोग तू राज्य समस्त,भोग तू सुख धाम।
ये है एक विनती मेरी के रण में पांडवों का हाथ तू थाम।
ये सुन बोला करण के ये रहस्य जन्म का ज्ञात मुझे।
याद कर जिसे लगता है गहरा आघात मुझे।
अब बोलो आप भी के किस मुख से आप मुझे पुत्र कहने आई है।
क्यों अब आप मुझे ये राज्य समस्त देने आई है।
जब डर गई थी उस वक्त तो अब क्यों है इतना है असंक।
अब कैसे बना पुत्र ये बालक जो था कभी कलंक।
जिसे पुत्र से प्यारा राजमहल,जिसे सबसे प्यारी होती है अपनी प्रशंसा।
क्या ऐसी नारी होती है लायक कहलाने को मां।
हर बार नियति ने भी मेरे साथ छल किया है।
हर बार लाचार मुझे, हर बार विकल किया है।
ना दिया मा का आंचल,ना मुझे अपना वंश मिला।
किए सत्कर्म तो भी मुझे बस अपयश मिला।
पर हे! माते करण नहीं कोई सवांग करता।
एक विजय की खातिर नहीं धर्म का त्याग करता।
आई हो जो आशा लेकर नहीं निराश लौटाऊंगा।
नहीं दूंगा साथ पांडवों का पर एक बात का विश्वास दिलाऊंगा।
अब रण में होगा वहीं जो चाहेंगी विधाता।
पर हे जननी आप बनी रहेंगी पांच पुत्रों की माता।
मैं आज आपको एक वचन देता हूं,
अर्जुन को छोड़ अन्य पांडवों का जीवन देता हूं।
हे माते नहीं है लोभ मुझे कोई संपत्ति का, मैं तो बस अपना धर्म निभाना चाहता हूं।
जो किए है उपकार दुर्योधन ने मुझपर उनका ऋण चुकाना चाहता हूं।
कल के युद्ध में ये करण अपने बाणों से अनल बरसाएगा।
अगर मरा अर्जुन तो ये युद्ध भी टल जाएगा।
कल के भीषण युद्ध में मैं या अर्जुन मे से एक अवश्य स्वर्ग सिधारेगा,
अगर मरा अर्जुन तो पांडव,अगर मरा मैं तो दुर्योधन हारेगा।
पर देखो नियति के खेल कितने बड़े हैं,
केसव भी तो अर्जुन के संग खड़े हैं।
जिनसे चलता है सारा संसार,जिनसे धरा और सारा आकाश है,
जिनसे चन्द्र मे शीतलता जिनसे सूर्य में प्रकाश है।
जिनसे हवा चलती है,जिनसे सृष्टि अपना वजूद रखती है,
जिसके साथ हों स्वयं भगवान क्या उसे मृत्यु छू सकती है।
पर चलो छोड़ो अब क्या होगा इन बातों से,
वीर नहीं डरा करते षड्यंत्र या घातों से।
ये सुन बोली कुंती उदास कर मन को,
पुत्र कभी सुख कभी दुख देखने पड़ते है हर जन को।
तू अब नहीं मानेगा बात मेरी जानती हूं मैं,
यही है धर्म तेरा मानती हूं मैं,
मैं भी तो लाचार हूं फिर भी लाचार नहीं लगती,
पुत्र को जन्म देकर माता का अधिकार नहीं रखती।
पर पुत्र मुझे अपने किए का थोड़ा पश्चाताप करने दे,
एक बार बस तुम्हें अपने आंचल में भरने दे।
फिर कुंती की आंखों में जल भर आया,
चूम कर माथा कुंती ने करण को गले लगाया।
ममता के आंचल से वात्सल्य फूटा,
रह गए सारे जीव स्तब्ध देख ये दृश्य अनूठा।
आज करण के धर्म के आगे ममता हारी,
लेकर वेदना भरे दिल में पुत्र का प्यार महारानी कुंती राजमहल सिधारी।
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कुंती कर्ण के पास क्यों गया था?

प्रिय छात्र जब महाभारत का युद्ध निकट था तब कुंती कर्ण केेेेेेेेेे पास गई और उसे बताया कि तुम पांडवों के बड़े भाई हो। तुम कुंती पुत्र हो। तुम पांडवों की ओर से युद्ध लड़ो। तब कर्ण नेे कहा कि मैं अपनेे मित्र को धोखा नहीं दे सकता और उसने पांडवों की ओर से लड़ने से मना कर दिया।

कुंती ने कर्ण से क्या कहा था?

कुंती ने कहा, 'कर्ण तुम यह कभी मत समझना कि तुम सूत-पुत्र हो। न तो राधा तुम्हारी मां हैं और न ही अधिरथ तुम्हारे पिता। तुम्हें जानना चाहिए कि तुम राजकुमारी पृथा( पांडु से विवाह के पहले कुंती का नाम) यानी तुम कुंती पुत्र हो, मेरे अविवाहित रहते हुए सूर्य के अंश मेरी कोख में आ गए और तुम पैदा हुए।

कुंती और कर्ण के बीच क्या संबंध है?

कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और कर्ण और उनके छ: भाइयों के धर्मपिता महाराज पांडु थे। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे। कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था।

कर्ण की प्रेमिका कौन थी?

कर्ण ने रुषाली नाम की एक सूतपुत्री से विवाह किया। कर्ण की दूसरी पत्नी का नाम सुप्रिया था। दोनों पत्नियों से कर्ण की नौ संतानें हुईं।