संचार और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों-टेलीफ़ोन, इंटरनेट, फैक्स, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा आदि के जरिये मनुष्य संदेशों के आदान-प्रदान में एक-दूसरे के बीच की दूरी और समय को लगातार कम से कम करने की कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि आज संचार माध्यमों के विकास के साथ न सिर्फ भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं बल्कि सांस्कृतिक और मानसिक रूप से भी हम एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं। शायद यही कारण है कि कुछ लोग मानते हैं कि आज दुनिया एक गाँव में बदल गई है। Show जनसंचार माध्यम कितने उपयोगी आज संचार और जनसंचार के माध्यम हमारी अनिवार्य आवश्यकता बन गए हैं। हमारे रोजमर्रा के जीवन में उनकी बहुत अहम भूमिका हो गई है। उनके बिना हम आज आधुनिक जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। वे हमारे लिए न सिर्फ सूचना के माध्यम हैं बल्कि वे हमें जागरूक बनाने और हमारा मनोरंजन करने में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। मैगी की बिक्री पर रोक नई देल्ली, विशेष संवाददाता उग्रवादियों की तलाशी का अभियान तेज इंफाल एजेंसियों महज 20 किलोमीटर की दूरी पर म्यांमार सीमा है। इसलिए हमला कर उग्रवादी भागने में कामयाब रहे। सूत्रों ने बताया कि उग्रवादियों की धरपकड़ के लिए परालोंग, चरोंग, मोल्तुह और कुछ अन्य इलाकों में खोज अभियान चलाया जा रहा है। इस बीच, सुरक्षा का जायजा लेने पहुँचे सुहाग ने शुक्रवार को तीसरी कोर के कमांडर और शीर्ष पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की। उन्होंने घटना और मौजूदा सुरक्षा व्यवस्था की जानकारी ली। सुहाग ने कहा कि उग्रवादियों के खिलाफ दीर्घकालिक और लक्षित अभियानों के लिए एक विस्तृत अभियान योजना पर काम किया जा रहा है। संचार क्या है? संचार के तत्व
संचार के प्रकार
जनसंचार की विशेषताएँ
जनसंचार माध्यमों में द्वारपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह उनकी ही जिम्मेदारी है कि वे सार्वजानिक हित, पत्रकारिता के सिद्धांतों, मूल्यों और आचार संहिता के अनुसार सामग्री को संपादित करें और उसके बाद ही उनके प्रसारण या प्रकाशन की इजाजत दें। जनसंचार के कार्य
भारत में जनसंचार माध्यमों का विकास चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक जैसे सम्राटों के शासन-काल में स्थायी महत्व के संदेशों के लिए शिलालेखों और सामयिक या तात्कालिक संदेशों के लिए कच्ची स्याही या रंगों से संदेश लिखकर प्रदर्शित करने की व्यवस्था और मजबूत हुई। तब बाकायदा रोजनामचा लिखने के लिए कर्मचारी नियुक्त किए जाने लगे और जनता के बीच संदेश भेजने के लिए भी सही व्यवस्था की गई। भीमबेटका के गुफाचित्र इसके प्रमाण हैं। यह समानांतर व्यवस्था बाद में कठपुतली और लोकनाटकों की विविध शैलियों के रूप में दिखाई पड़ती है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विविध नाट्यरूपों-कथावाचन, बाउल, सांग, रागनी, तमाशा, लावनी, नौटंकी, जात्रा, गंगा-गौरी, यक्षगान आदि का विशेष महत्व है। इन विधाओं के कलाकार मनोरंजन तो करते ही थे, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक संदेश पहुँचाने और जनमत निर्माण करने का काम भी करते थे। लेकिन जनसंचार के आधुनिक माध्यमों के जो रूप आज हमारे यहाँ हैं, वे निश्चय ही हमें अंग्रेजों से मिले हैं। चाहे समाचारपत्र हों या रेडियो, टेलीविजन या इंटरनेट, सभी माध्यम पश्चिम से ही आए। हमने शुरुआत में उन्हें उसी रूप में अपनाया लेकिन धीरे-धीरे वे हमारी सांस्कृतिक विरासत के अंग बनते चले गए। चाहे फ़िल्में हों या टी०वी० सीरियल, एक समय के बाद वे भारतीय नाट्य परंपरा से परिचालित होने लगते हैं। इसलिए आज के जनसंचार माध्यमों का खाका भले ही पश्चिमी हो. लेकिन उनकी विषयवस्तु और रंगरूप भारतीय ही हैं। जनसंचार माध्यमों के वर्तमान प्रचलित रूपों में प्रमुख हैं-समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा और इंटरनेट। इन माध्यमों के जरिये जो भी सामग्री आज जनता तक पहुँच रही है, राष्ट्र के मानस का निर्माण करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। समाचारपत्र-पत्रिकाएँ पत्रकारिता के सोपान
यद्यपि ये तीनों काम परस्पर जुड़े हुए हैं पर पत्रकारिता के अंतर्गत पहले दो कामों को शामिल किया जाता है। जहाँ बाहर से खबरें लाने का काम संवाददाताओं का होता है, वहीं तमाम खबरों, लेखों, फ़ीचरों को व्यवस्थित तरीके से संपादित करने और सुरुचिपूर्ण ढंग से छापने का काम संपादकीय विभाग में काम करने वाले संपादकों का होता है। आज पत्रकारिता का क्षेत्र भी बहुत व्यापक हो चला है। खबर का संबंध किसी एक या दो विषयों से नहीं होता। दुनिया के किसी भी कोने की घटना समाचार बन सकती है बशर्त कि उसमें पाठकों की दिलचस्पी हो या उसमें सार्वजानिक हित निहित हो। भारत में अखबारी पत्रकारिता का आरंभ गांधी जी को हम समकालीन भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कह सकते हैं, क्योंकि आजादी दिलाने में उनके पत्रों न महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी के पहल के प्रमुख पत्रकारों में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद दविवेदी, बाबुराव बिष्णुराव पराड़कर, प्रताप नारायण मिश्र, शिवपूजन सहाय. रामवृक्ष बेनीपुरी और बालमुकुंद गुप्त हैं। उस समय के महत्वपूर्ण अखबारों और पत्रिकाओं में ‘केसरी’, हिंदुस्तान’ ‘सरस्वती’ ‘हंस’ ‘कर्मवीर’, ‘ आज’,’ प्रताप ‘,’प्रदीप’ और ‘विशाल भारत’ आदि प्रमुख हैं। स्वतंत्र भारत के प्रमुख समाचार पत्र रेडियो आजादी के बाद भारत में रेडियो एक बेहद ताकतवर माध्यम के रूप में विकसित हुआ। आज आकाशवाणी देश की 24 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रस्तुत करती है। देश की 96 प्रतिशत आबादी तक इसकी पहुँच है। 1993 में एकएम (फ्रिक्वेंसी मॉडयूलेशन) की शुरुआत के बाद रेडियो के क्षेत्र में कई निजी कंपनियाँ भी आगे आई ह। लेकिन अभी उन्हें समाचार और सम-सामयिक कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं है। रेडियो एक ध्वनि पाध्यम है। इसकी तात्कालिकता, घनिष्ठता और प्रभाव के कारण गांधी जी ने रेडियो को एक अद्भुत श न कहा था। ध्वनि-तरंगों के जरिये यह देश के कोने-कोने तक पहुँचता है। दूर-दराज के गाँवों में, जहाँ संचार और मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होते, वहाँ रेडियो ही एकमात्र साधन है. बाहरी दुनिया से जुड़ने का। फिर अखबार और टेलीविजन की तुलना में यह बहु ‘ सस्: भी है। इसलिए भारत के दूरदराज के हलाकों में लोगों ने रेडियो क्लब बना लिए हैं। आकाशवाणी के अलावा सैकड़ों निजी एफएम स्टेशनों और बीबीसी, वायस आँफ अमेरिका, डोयचे वेले (रेडियों जर्मनी), मास्को रेडियो, रेडियों पेइचिंग, रेडियो आस्ट्रेलिया जैसे कई विदेशी प्रसारण और हैम अमेच्योर रेडियो क्लबों (स्वतंत्र समूह द्वारा संचालित पंजीकृत रेडियो स्टेशन) का जाल बिछा हुआ है। टेलीविजन भारत में टेलीविजन की शुरुआत यूनेस्को की एक शैक्षिक परियोजना के अंतर्गत 15 सितंबर, 1959 को हुई थी। इसका मकसद टेलीविजन के जरिये शिक्षा और सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करना था। इसके तहत दिल्ली के आसपास के गाँवों में 2 टी०वी० सेट लगाए गए जिन्हें 200 लोगों ने देखा। यह हफ्ते में दो बार एक-एक घंटे के लिए दिखाया जाता था। लेकिन 1965 में स्वतंत्रता दिवस से भारत में विधिवत टी०वी० सेवा का आरंभ हुआ। तब रोज एक घंटे के लिए टी०वी० कार्यक्रम दिखाया जाने लगा। 1975 तक दिल्ली, मुंबई, श्रीनगर, अमृतसर, कोलकाता, मद्रास और लखनऊ में टी०वी० सेंटर खुल गए। लेकिन 1976 तक टी०वी० सेवा आकाशवाणी का हिस्सा थी। 1 अप्रैल, 1976 से इसे अलग कर दिया गया। इसे दूरदर्शन नाम दिया गया। 1984 में इसकी रजत जयंती मनाई गई। स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दूरदर्शन की ताकत का एकसास था। वे देशभर में टेलीविजन केंद्रों का जाल बिछाना चाहती थीं। 1980 में इंदिरा गांधी ने प्रोफेसर पी०सी० जोशी की अध्यक्षता में दूरदर्शन के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक समिति गठित की। जोशी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, हमारे जैसे समाज में जहाँ पुराने मूल्य टूट रहे हों और नए न बन रहे हों, वहाँ दूरदर्शन बड़ी भूमिका निभाते हुए जनतंत्र को मजबूत बना सकता है। दूरदर्शन कार्यक्रमों की गुणवत्ता के सुधार में प्रो० पी०सी० जोशी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जिसने अपनी रिपोर्ट में लिखा-‘हमारे जैसे समाज में जहाँ पुराने मूल्य टूट रहे हों और नए न बन रहे हों, वहाँ दूरदर्शन बड़ी भूमिका निभाते हुए जनतंत्र को मजबूत बना सकता है।’ टेलीविजन के उद्देश्य
दूरदर्शन ने देश की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में उल्लेखनीय सेवा की है, लेकिन लंबे समय तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण इसमें ताज़गी का अभाव खटकने लगा और पत्रकारिता के निष्पक्ष माध्यम के तौर पर यह अपनी जगह नहीं बना पाया। अलबत्ता मनोरंजन के एक लोकप्रिय माध्यम के तौर पर इसने अपनी एक खास जगह बना ली है। टेलीविजन का असली विस्तार तब हुआ, जब भारत में देशी निजी चैनलों की बाढ़ आने लगी। अक्टूबर, 1993 में जी टी०वी० और स्टार टी०वी० के बीच अनुबंध हुआ। इसके बाद समाचार के क्षेत्र में भी जी न्यूज और स्टार न्यूज नामक चैनल आए और सन् 2002 में आजतक के स्वतंत्र चैनरल के रूप में आने के बाद तो जैसे समाचार चैनलों की बाढ़ ही आ गई। जहाँ पहले हमारे सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शक का उद्देश्य राष्ट्र-निर्माण और सामाजिक उन्नयन था, वहीं इन निजी चैनलों का मकसद व्यावसायिक लाभ कमाना रह गया। इससे जहाँ टेलीविजन समाचार को निष्पक्षता की पहचान मिली, उसमें ताजगी आई और वह पेशेवर हुआ, वहीं एक अंधी होड़ के कारण अनेक बार पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी नैतिकता का भी हनन हुआ। इसके बावजूद आज पूरे भारत में 200 से अधिक चैनल प्रसारित हो रहे हैं और रोज नए-नए चैनलों की बाढ़ आ रही है। सिनेमा भारत में पहली मूक फ़िल्म बनाने का श्रेय दादा साहेब फ़ाल्के को जाता है। यह फ़िल्म थी 1913 में बनी-‘राजा हरिश्चंद्र’। इसके बाद के दो दशकों में कई और मूक फ़िल्में बनीं। इनके कथानक धर्म, इतिहास और लोक-गाथाओं के इर्द-गिर्द बुने जाते रहे। 1931 में पहली बोलती फिल्म बनी-‘ आलम आरा’। इसके बाद कि बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ। आज़ादी मिलने के बाद जहाँ एक तरफ़ भारतीय सिनेमा ने देश के सामाजिक यथार्थ को गहराई से पकड़कर आवाज़ देने की कोशिश की, वहीं लोकप्रिय सिनेमा ने व्यावसायिकता का रास्ता अपनाया। एक तरफ़ पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान, सोहराब मोदी, गुरुदत्त जैसे फ़िल्मकार थे, तो दूसरी तरफ़ सत्यजित राय जैसे फ़िल्मकार। सिनेमा जनसंचार के एक बेहतरीन और सबसे ताकतवर माध्यमों में से एक है। इसके कई और आयाम भी हैं। यह मनोरंजन के साथ-साथ समाज को बदलने का, लोगों में नई सोच विकसित करने का और अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से लोगों को सपनों की दुनिया में ले जाने का माध्यम भी है। मौजूदा समय में भारत हर साल लगभग 800 फ़िल्मों का निर्माण करता है और दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म-निर्माता देश बन गया है। यहाँ हिंदी के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं और बालियों में भी फ़िल्में बनती हैं और खूब चलती हैं। इंटरनेट यह एक अंतरक्रियात्मक माध्यम है यानी आप इसमें मूक दर्शक नहीं है। आप सवाल-जवाब, बहस-मुबाहिसों में भाग लेते हैं, आप चैट कर सकते हैं और मन हो तो अपना ब्लाग बनाकर पत्रकारिता की किसी बहस के सूत्रधार बन सकते हैं। इंटरनेट ने हमें मीडिया समागम यानी कंवर्जेस के युग में पहुँचा दिया है और संचार की नई संभावनाएँ जगा दी हैं। हर माध्यम में कुछ गुण और कुछ अवगुण होते हैं। इंटरनेट ने जहाँ पढ़ने-लिखने वालों के लिए, शोधकर्ताओं के लिए संभावनाओं के नए कपाट खोले हैं, हमें विश्वग्राम का सदस्य बना दिया है, वहीं इसमें कुछ खामियाँ भी हैं। पहली खामी तो यही है कि इसमें लाखों अश्लील पन्ने भर दिए गए हैं, जिसका बच्चों के कोमल मन पर बुरा असर पड़ सकता है। दूसरी खामी यह है कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। हाल के वर्षों में इंटरनेट के दुरुपयोग की कई घटनाएँ सामने आई हैं। जनसंचार माध्यमों का प्रभाव कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जनसंचार माध्यमों ने जहाँ एक ओर लोगों को सचेत और जागरूक बनाने में अहम भूमिका निभाई है, वहीं उसके नकारात्मक प्रभावों से भी इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी स्पष्ट है कि जनसंचार माध्यमों के बिना आज सामाजिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे में यह जरूरी है कि हम जनसंचार माध्यमों से प्रसारित और प्रकाशित सामग्री को निष्क्रिय तरीके से ग्रहण करने के बजाय उसे सक्रिय तरीके से सोच-विचार करके और आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद ही स्वीकार करें। एक जागरूक पाठक, दर्शक और श्रोता के बतौर हमें अपनी आँखें, कान और दिमाग हमेशा खुले रखने चाहिए। V पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न प्रश्न 1: प्रश्न 2:
हम समाचार-पत्रों को इन चुनौतियों के प्रति काफी हद तक संवेदनशील पाते हैं। वे अपने दायित्व का निर्वहन, इनसे पीडित लोगों की आवाज सरकार तक पहुंचाकर कर रहे हैं, जिससे सरकार और अन्य स्वयंसेवी संस्थाएँ इनको हल करने के लिए आगे आती हैं। हाँ, छोटे समाचार-पत्र अपनी सीमा निश्चित होने के कारण कई बार दबाव में आकर उतने संवेदनशील नहीं हो पाते हैं। जनसंचार का सबसे नया माध्यम क्या है?इंटरनेट जनसंचार का सबसे नया, लेकिन तेजी से लोकप्रिय हो रहा माध्यम है। एक ऐसा माध्यम, जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविजन, किताब, सिनेमा यहाँ तक कि पुस्तकालय के सारे गुण मौजूद हैं।
जनसंचार का सबसे आधुनिक माध्यम कौन सा है?इंटरनेट जनसंचार का सबसे आधुनिक तथा तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा माध्यम है। 3. इंटरनेट एक ऐसा माध्यम है जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, किताब, सिनेमा इन सारे माध्यमों का समागम है ।
नए संचार माध्यम कौन कौन से हैं?पत्र-पत्रिकाएँ. सिनेमा. आकाशवाणी और रेडियो. टेलीविजन. इन्टरनेट. सोशल मिडिया. विज्ञापन. विविध माध्यम. वर्तमान का लोकप्रिय संचार माध्यम क्या है?' दूरदर्शन, समाचार पत्र, फिल्में, पत्रिकाएं, रेडियो, विज्ञापन, वीडियो गेम और सीडी। ' 1- पहला आधुनिक मास मीडिया संस्थान 'प्रिंटिंग प्रेस डेवलपमेंट' के साथ शुरू हुआ। 2- आज के जीवन में, हमारे पास आधुनिक जनसंचार के स्रोत के रूप में 'अखबार, पत्रिका, रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, विज्ञापन, सोशल मीडिया, पत्रकारिता' हैं।
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