गांव से बड़े शहरों की ओर लोग क्यों जाते हैं? - gaanv se bade shaharon kee or log kyon jaate hain?

प्रदूषण आज दुनिया भर के लिए एक बड़ी समस्या बन गया है. कुछ वर्षों पहले तक चीन की राजधानी बीजिंग दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर था. लेकिन 2018 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ कानपुर शहर ने इसे पछाड़ दिया है.

बड़े शहरों में लोग प्रदूषण से तो परेशान हैं ही तनाव भी एक बड़ी समस्या है. इन्हीं मुसीबतों से छुटकारा पाने के लिए लोग समुद्री और पहाड़ी इलाक़ों का रूख करना चाहते हैं. लेकिन हाल की रिसर्च साबित करती हैं कि हम चाहे बड़े शहरों में रहें, समुद्र के किनारे रहें या फिर पहाड़ों पर रहें, माहौल का हमारी सेहत और ख़ुशियों पर बहुत गहरा असर नहीं पड़ता.

हालांकि ये बात अभी शुरूआती रिसर्च की बुनियाद पर कही जा रही है इस दिशा में प्रयोग अभी जारी हैं.

ब्रिटिश पर्यावरण मनोवैज्ञानिक मैथ्यू व्हाइट और अन्य रिसर्चरों का कहना है कि हमारे आस-पास का माहौल हम पर कैसा असर डालता है, इसकी कई वजहें होती हैं. इसमें इंसान की परवरिश, ज़िंदगी के हालात, उसके शौक़ और कर्म अहम रोल निभाते हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि जो लोग हरियाली के नज़दीक रहते हैं, उन पर किसी भी तरह के प्रदूषण का असर कम होता है. तनाव भी कम होता है.

बड़े शहरों में रहने वालों के लिए तो हरियाली बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी है. जब हम किसी पार्क या पेड़ के नीचे बैठते हैं, तो, हमारे दिल की धड़कन और ब्लड प्रेशर अपने आप ही नियंत्रित होने लगता है.

दरअसल उस वक़्त हमारा शरीर लिम्फ़ोसाइट्स नाम की किलर सेल पैदा करने लगता है. जो शरीर में वायरस की शिकार कोशिकाओं और कैंसर जैसी घातक बीमारी के वायरस से लड़ती हैं. हालांकि कुछ रिसर्चर इस थ्योरी को पूरी तरह सही नहीं मानते.

लेकिन, अमरीका की मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एम्बर पियर्सन का कहना है कि अगर इंसान के विकास क्रम की थ्योरी पर ग़ौर किया जाए तो क़ुदरत ही उसके अस्तित्व की बड़ी वजह थी. लिहाज़ा हाल की रिसर्च के नतीजों को नज़रअंदाज़ या पूरी तरह से नकारा नहीं किया जा सकता.

इसमें कोई शक नहीं कि शहरों में रहने वालों को तरह-तरह की एलर्जी, तनाव और सांस संबंधी बीमारियां ज़्यादा होती है. इसके बावजूद शहरी लोगों में मोटापे और ख़ुदकुशी की दर कम होती है. हादसों में मौत का ख़तरा भी कम होता है और बुढ़ापे में ज़िंदगी बेहतर गुज़रती है.

लोग शहर की भीड़, प्रदूषण और तनाव से दूर रहने के लिए गांव-देहात में रहने लगते हैं. लेकिन वहां रहना भी एक चुनौती है. वहां कीड़े-मकोड़ों से होने वाले इंफ़ेक्शन होने का ख़तरा ज़्यादा रहता है. ऐसा भी नहीं है कि देहात में प्रदूषण बिल्कुल नहीं होता.

अगर हम भारत की बात करें तो यहां बड़े शहरों में होने वाले प्रदूषण के लिए बहुत हद तक गांव ज़िम्मेदार हैं. गांवों में बड़े पैमाने पर पराली और खेत साफ़ करने के लिए घास-फूस जलाई जाती है. जिससे ज़हरीला धुंआ निकलता है. धुआं शहरी लोगों से ज़्यादा गांव वालों के लिए ख़तरनाक होता है. क्योंकि, वो इस धुएं के सीधे संपर्क में होते हैं.

इसके अलावा गांवों में खाना बनाने के लिए उपलों का इस्तेमाल होता है. इससे भी ख़तरनाक धुआं निकलता है, जो नुक़सानदेह होता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2015 में भारत में क़रीब 11 लाख लोगों की मौत प्रदूषण की वजह से हुई थी. मरने वालों में क़रीब 75 फ़ीसद लोग गांव-देहात के ही थे.

भारत की तरह इंडोनेशिया में भी खेत साफ़ करने का ऐसा ही तरीक़ा अपनाया जाता है. लेकिन यहां खेत जलने से निकलने वाला धुआं ज़्यादा ज़हरीला होता है और कई महीनों तक ना सिर्फ़ इंडोनेशिया बल्कि नज़दीक के देशों, जैसे सिंगापुर, मलेशिया और थाईलैंड को भी अपनी चपेट में ले लेता है. यही नहीं दक्षिण अमरीका और दक्षिण अफ़्रीका में पैदा होने वाला धुआं पूरे दक्षिणी गोलार्ध को दूषित करता है.

विकसित देश भी हवा दूषित करने में पीछे नहीं हैं. मिसाल के लिए अमरीका के जंगलों में लगने वाली आग या खेतों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक भी यूरोप, रूस, अमरीका और चीन की हवा को ज़हरीला बना रहे हैं.

जो लोग मैदानी इलाक़ों से 2500 मीटर की ऊंचाई पर रहते हैं, उन्हें सांस संबंधी बीमारियां, दिल का रोग और कैंसर कम होते हैं. इसकी बड़ी वजह है कि यहां की हवा में शहरों की हवा के मुक़ाबले कार्बन एरोसोल कम होते हैं. लेकिन ऊंचाई पर रहने वालों को सांस संबंधी बीमारियां आसानी से हो जाती है. उन्हें अक्सर सांस की नली में इंफ़ेक्शन हो जाता है.

दरअसल जब ज़्यादा ऊंचाई पर कार चलती है, तो, उससे कार्बन मोनोऑक्साइड और हाईड्रोकार्बन ज़्यादा निकलते हैं. सोलर रेडिएशन की वजह से वाहन और भी ज़्यादा ख़तरनाक हो जाते हैं. लिहाज़ा 1500 से 2500 की ऊंचाई के बीच रहना अच्छा विकल्प है. इस ऊंचाई पर प्रदूषण स्तर अमूमन कम होता है.

पानी के पास रहने के फायदे-नुकसान

पानी के नज़दीक रहने के समर्थन में भी बहुत से मत हैं. कुछ का कहना है कि जो लोग पानी के नज़दीक रहते हैं उन्हें विटामिन डी की कमी नहीं होती और दूसरे वहां खाने के लिए इतने तरह के जीव मिल जाते हैं जो इंसान की सेहत के लिए अच्छे हैं.

इसके अलावा बहुत से लोग तो इसके मनोवैज्ञानिक फ़ायदे भी बताते हैं. मिसाल के लिए रिसर्चर पियर्सन और उनके साथियों ने मिलकर साल 2016 में न्यूज़ीलैंड में एक रिसर्च की. पाया गया कि जो लोग दूर तक फैले नीले पानी को देखते हैं उन्हें मूड डिसऑर्डर और तनाव की समस्या कम होती है.

कुछ इसी तरह के नतीजे अमरीका की ग्रेट लेक और हांगकांग में पानी के नज़दीक रहने वालों पर रिसर्च के भी रहे. हालांकि अभी रिसर्च जारी है कि किस तरह की वॉटर बॉडी के नज़दीक रहने से कितना और क्या फ़र्क़ पड़ता है. क्या कभी कभार समंदर किनारे जाने से भी काम चल सकता है.

डेटा ये भी बताता है कि जो लोग बहुत ज़्यादा सूरज की सीधी रोशनी के संपर्क में रहते हैं उन्हें स्किन कैंसर होने का ख़तरा ज़्यादा होता है. यही वजह है कि अमरीका के वरमोंट और मिनेसोटा में रहने वाले और फ्रांस-डेनमार्क के लोगों में स्किन कैंसर ज़्यादा होता है.

हां अगर पानी और हरियाली का मिलान रहे तो फ़ायदा ज़्यादा होगा.

रिसर्च से एक और दिलचस्प बात सामने आती है. जो लोग सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमज़ोर होते हैं उन्हें क़ुदरती चीज़ों का फ़ायदा पैसे वालों के मुक़ाबले ज़्यादा होता है. प्रोफ़ेसर व्हाइट का कहना है कि अमीर लोग आम पार्क में ना जाकर ऐसे पार्कों में जाते हैं, जहां उनके जैसे ही लोग आते हैं. वो तनाव मुक्त होने के लिए छुट्टियों पर भी चले जाते हैं. जबकि कम पैसे वाले लोग खुले में ज़्यादा रहते हैं और अपना जीवन स्तर बेहतर करने के लिए संघर्ष करते हैं.

ब्रिटेन में तो क़ानूनी तौर पर स्थानीय संस्थाओं की ज़िम्मेदारी है कि वो पार्कों का रखरखाव ठीक करें ताकि ग़रीब लोगों को उसका फ़ायदा मिल सके.

ख़ुशहाल ज़िंदगी जीने के लिए सिर्फ़ जगह बदल देना काफ़ी नहीं होगा. ज़िंदगी के अन्य तक़ाज़े जैसे रोज़गार का मसला, शादी-तलाक़ का मसला, बनते-बिखतरे रिश्ते भी हमारे जीवन की ख़ुशहाली से ही जुड़े हैं. इनका भी हमारी सेहत पर गहरा असर पड़ता है. प्रोफ़ेसर व्हाइट कहते हैं कि पार्क में बेघर रहने से बेहतर है, घर में रहना.

वहीं एस्तोनिया के प्रोफ़ेसर साइमन बेल कहते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि क़ुदरत के नज़दीक रहने के अपने फ़ायदे हैं. लेकिन ज़्यादा ज़रूरी ये है कि लोग ऐसी जगह का चुनाव करें जहां वो सुरक्षित महसूस कर सकें. काम की जगह और बच्चों का स्कूल घर के नज़दीक हो.

फिर अगर कोई समंदर और हरियाली के नज़दीक रहना चाहता है तो सिडनी और वेलिंगटन बेहतरीन विकल्प हो सकते हैं. लेकिन याद रहे ये सेहत और रहने के लिहाज़ से बेहतर है. असल ख़ुशी तो मन की शांति और संतुष्टि से ही आती है.

(नोटः ये रसेल नूवर की मूल स्टोरी का अक्षरश: अनुवाद नहीं है. हिंदी के पाठकों के लिए इसमें कुछ संदर्भ और प्रसंग जोड़े गए हैं)

भारत में गांव से नगरों की ओर प्रवास क्यों बढ़ता जा रहा है?

रोजगार और मौलिक सुविधाओं का अभाव गांवों में कृषि भूमि का लगातार कम होते जाना, जनसंख्या बढ़ने, और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-नगरों की तरफ जाना पड़ रहा है। गांवों में मौलिक आवश्कताओं की कमी भी पलायन का एक बड़ा कारण है।

गांव के लोगों एवं शहर के लोगों के रहन सहन में क्या अंतर है?

Solution details. शहर में लोगों के पास समय नहीं है, इस वजह से वह अपना सारा काम जल्दी करते हैं, खाना से ले घर के काम करने तक वहां सबकुछ जल्दबाज़ी में या घड़ी के आखिरी कांटे तक होता है। यहां लोग देख दिखावे में ज्यादा रहते हैं और वे बहुत प्रतिस्पर्धी होते हैं। गांव में लोग आराम से और सरलता से जीवन व्यतीत करते हैं।

गांव से बड़ा क्या होता है?

शहर जनसंख्या, रोजगार, ट्रांसपोर्ट, व्यापार के मामले में गांव और कस्बों से काफी बड़ा होता है.

लोग पलायन क्यों करते हैं?

Explanation: मनुष्य स्थायी या अस्थायी रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान आवागमन करते है। अक्सर आवागमन लम्बी दूरी का ही होता है। वह अपने देश से दूसरे देश तक ही नही बल्कि आन्तरिक पलायन भी करते हैं क्योंकि ज़्यादातर लोग अपने देश मे रहना पसन्द करते हैं