अस्पृश्यताअस्पृश्यता का इतिहास भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के इतिहास से जुड़ा हुआ है क्योंकि यह जाति व्यवस्था के साथ ही हमारे समाज में एक गम्भीर समस्या रही है। वैदिक काल में अस्पृश्यता शब्द का प्रयोग तो नहीं किया जाता रहा है, परन्तु चण्डाल, डोम, अन्त्यज, निषाद आदि शब्दों का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए किया जाता रहा है, जिनका स्तर लगभग अस्पृश्यों जैसा ही था। उस समय पवित्रता-अपवित्रता सम्बन्धी विचारों का प्रमुख स्थान था तथा इन लोगों को दूध से बनी वस्तुओं एवं यज्ञ में काम आने वाली चीजों को छूने की आज्ञा नहीं थी। परन्तु वैदिक तथा उत्तर-वैदिक काल में इन लोगों के प्रति भेदभाव एवं घृणा की भावना अधिक कटु नहीं थी। घुरिये के अनुसार यद्यपि वैदिक काल में यज्ञ, धर्म आदि से सम्बन्धित शुद्धता या पवित्रता की धारणा अत्यन्त प्रखर थी, तथापि अस्पृश्यता का जो रूप आज है वैसा उस युग में नहीं था। उस काल में चण्डाल आदि लोगों के रहने की व्यवस्था गाँव से बाहर होती थी। इनके अनुसार उत्तर-वैदिक काल में केवल चण्डालों या अन्त्यजों पर ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण शूद्र वर्ण पर अस्पृश्यता सम्बन्धी प्रतिबन्ध लगा दिए गए। अगर कोई उच्च वर्ण की स्त्री निम्न या अस्पृश्य जाति के किसी व्यक्ति से विवाह कर लेती थी, तो उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। स्मृतिकाल में अस्पृश्यता की भावना में तेजी से वृद्धि होने लगी। महर्षि मनु के अनुसार चण्डालों को गाँव से बाहर रहना चाहिए, दिन में गाँव में नहीं आना चाहिए और अपने बर्तनों के प्रयोग को केवल अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। Show इस काल में इन्हें अधम कार्य (यथा गन्दगी साफ करना, लावारिस शवों को उठाना आदि) ही करने दिया जाता था। भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् अस्पृश्यों की स्थिति में और अधिक गिरावट आ गई और इन्हें अनेक प्रकार की निर्योग्यताओं के कारण एकान्त स्थान पर रहने के लिए बाध्य किया गया। अंग्रेजी शासनकाल में समाज सुधारकों एवं सरकारी प्रयासों के कारण अस्पृश्यों की स्थिति में काफी सुधार हुआ तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संवैधानिक प्रावधानों द्वारा अस्पृश्यता को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है। अस्पृश्य जातियों के नाम के बारे में प्रारम्भ से ही काफी विवाद रहा है। वैदिक एवं उत्तर-वैदिक काल में इन्हें चण्डाल, डोम, अन्त्यज आदि नामों से पुकारा जाता था, जबकि अंग्रेजी शासनकाल में इन्हें दलित वर्ग कहा जाने लगा। 1931 ई० की जनगणना में दलित वर्ग के स्थान पर बाहरी जाति शब्द का भी प्रयोग किया गया। 1931 ई० में उस समय के ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रेम्जे मैक्डोनाल्ड ने इनको पृथक् निर्वाचन का अधिकार दे दिया परन्तु गांधी जी ने इसका तीव्र विरोध किया। गांधी जी का विचार था कि दलित वर्ग हिन्दुओं से पृथक् नहीं हैं अपितु हिन्दुओं का ही एक अंग हैं, इसलिए उन्हें पृथक् निर्वाचन का अधिकार देना उचित नहीं है। गांधी जी ने 20 सितम्बर, 1932 ई० को इसके विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया। परन्तु डॉ० सप्रू एवं डॉ. जयकर के प्रयासों से गांधी जी एवं डॉ० अम्बेडकर में 'पूना पैक्ट' के नाम से जानी जाने वाली एक सन्धि हुई जिसके अनुसार दलित वर्ग को हिन्दुओं का ही अंग स्वीकार किया गया और उनको कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए गए। उसी समय गांधी जी ने इन्हें दलित वर्ग के स्थान पर 'हरिजन' कहना प्रारम्भ कर दिया। 1935 ई० के विधान में इन जातियों को विशेष सुविधाएँ देने के लिए एक अनुसूची तैयार की गई तथा जिन जातियों को इस अनुसूची के अन्तर्गत रखा गया उन्हें वैधानिक दृष्टि से अनुसूचित जातियाँ भी कहा जाने लगा। आज भी समस्त सरकारी प्रयोग में उन्हें अनुसूचित जातियों के नाम से सम्बोधित किया जाता है। अनुसूचित जातियों के लोग हरिजन शब्द के प्रयोग को भी अब पसन्द नहीं करते और इसे अपमानजनक समझते हैं। इसलिए सरकार द्वारा भी अब यह शब्द प्रयोग नहीं किया जाता है। भारतीय समाज में पाई जाने वाली प्रमुख समस्याओं में से अस्पृश्यता भी एक समस्या है। अस्पृश्यता के नाम पर हजारों वर्षों तक निम्न जातियों को अनेक मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया तथा उन पर अनेक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक निर्योग्यताएँ लगा दी गईं। गांधी जी ने कहा था कि, “अस्पृश्यता जिस रूप में आज हिन्दू धर्म में प्रचलित है, यह भगवान तथा मनुष्य दोनों के ही विरुद्ध है। अत: अस्पृश्यता एक विष की भाँति है जो हिन्दू धर्म को खाए जा रही है। मेरे विचार में हिन्दू शास्त्रों में सामूहिक दृष्टि से इसकी कहीं भी स्वीकृति नहीं है।" अस्पृश्यता का अर्थ एवं परिभाषाएँअस्पृश्यता का अर्थ अछूत है अर्थात् जो छूने योग्य नहीं है वह अस्पृश्य है। अस्पृश्यता पवित्रता-अपवित्रता की धारणा से जुड़ी हुई है क्योंकि अस्पृश्य जातियों को अपवित्र माना जाता है। ऐसा समझा जाता है कि अगर कोई अस्पृश्य किसी सवर्ण हिन्दू को छू देता है तो वह भी अपवित्र हो जाता है और उसे पुनः पवित्र होने के लिए विशेष संस्कार करने पड़ते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि अस्पृश्यता के साथ अपवित्रता की भावनाएँ जुड़ी हुई हैं तथा इसीलिए अस्पृश्यों पर अनेक निर्योग्यताएँ लगाई गई थीं। अस्पृश्यों की निर्योग्यताएँअनेक विद्वानों (जैसे डॉ० डी० एन० मजूमदार) ने अस्पृश्यता की परिभाषा ही अस्पृश्य जातियों की आर्थिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं के आधार पर दी है। निर्योग्यताएँ परम्परागत रूप से निर्धारित होती हैं और सामाजिक दृष्टि से लागू की जाती हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सरकार ने वैधानिक रूप से अस्पृश्यता एवं अस्पृश्यों की सभी निर्योग्यताओं को समाप्त कर दिया है तथा इसमें काफी सीमा तक सफलता भी मिली है। के० एम० पाणिक्कर के मतानुसार, “यह मान लेना सर्वथा अनुचित होगा कि अस्पृश्यता समाप्त हो जाने की घोषणा कर देने से ही अस्पृश्यों की सामाजिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं।" यह कथन काफी सीमा तक ठीक भी है क्योंकि व्यावहारिक जीवन में ये निर्योग्यताएँ आज भी कुछ सीमा तक देखी जा सकती हैं। ग्रामीण समाज में परम्परा का बोलबाला होने के कारण अस्पृश्यों के साथ कुछ नियोग्यताएँ आज भी देखी जा सकती हैं। अस्पृश्यों को समाज में निम्नवत् निर्योग्यताओं का शिकार होना पड़ता था- 1. धार्मिक निर्योग्यताएँ क्योंकि अस्पृश्यता पवित्रता-अपवित्रता के विचारों से जुड़ी हुई है, इसलिए धार्मिक दृष्टि से अस्पृश्यों की अनेक धार्मिक निर्योग्यताएँ थीं। ये लोग हिन्दुओं के मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, वेदों का अध्ययन व मन्त्रोच्चारण नहीं कर सकते थे तथा हिन्दू ग्रन्थों के उपदेशों को सुनना तक इनके लिए पाप समझा जाता था। प्राचीन समय में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जिनके अनुसार अगर कोई शूद्र मन्त्रोच्चारण करता था तो उसकी जीभ काट दी जाती थी। परन्तु अब ये धार्मिक निर्योग्यताएँ लगभग समाप्त हो गई हैं। 2. राजनीतिक निर्योग्यताएँ यद्यपि अस्पृश्यों के साथ मुख्य रूप से धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक नियोग्यताएँ ही जुड़ी हुई थीं, फिर भी अस्पृश्यों की कुछ राजनीतिक निर्योग्यताओं का भी उल्लेख मिलता है। इनको राय देने का अधिकार नहीं था तथा नौकरी में नियुक्ति एवं वेतन सम्बन्धी समान अधिकार नहीं थे। वोट देने तथा शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारों से भी इन्हें वंचित रखा जाता था। परन्तु आज अधिकांश राजनीतिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो चुकी हैं। 3. सामाजिक निर्योग्यताएँ सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य जातियों की अनेक सामाजिक निर्योग्यताएँ थीं जिनके कारण इनसे लोग समान व्यवहार नहीं करते थे। मुख्य सामाजिक निर्योग्यताएँ निम्न प्रकार थीं-
4. आर्थिक निर्योग्यताएँ कोई भी समाज, व्यक्ति, समूह या राष्ट्र तब तक उन्नति नहीं कर सकता है जब तक कि उसकी आर्थिक स्थिति ठीक न हो। अस्पृश्यों के पिछड़े होने का मुख्य कारण उनकी आर्थिक हीनता रही है। इनकी प्रमुख आर्थिक नियोग्यताएँ निम्नांकित थीं-
5. सार्वजनिक निर्योग्यताएँ अपवित्र समझे जाने के कारण अनुसूचित जातियों को सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग नहीं करने दिया जाता था। उच्च जातियों के कुओं के पास तक आना इनके लिए निषेध था। यहीं तक नहीं, बल्कि इनको सड़क पर घूमना भी मना था। पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों के लिए राजाज्ञा थी कि वे अपने साथ एक मिट्टी की हाँडी लटकाकर चलें। यदि उनको थूकना होता था तो वे उसी हाँडी में थूक सकते थे, सड़क पर नहीं। ये लोग दोपहर को ही सड़क पर चल सकते थे। निर्योग्यताओं के परिणामअस्पृश्यों की निर्योग्यताओं से केवल वे लोग ही प्रभावित नहीं होते थे, परन्तु सम्पूर्ण समाज पर इनका प्रभाव पड़ता था। निर्योग्यताओं के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित रहे हैं- धार्मिक परिणाम अस्पृश्यों की नियोग्यताओं से हिन्दू समाज पर बुरा प्रभाव पड़ा है, क्योंकि अनेक अस्पृश्य जातियों के व्यक्तियों ने अपना धर्म परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। ईसाई धर्म के प्रचार से बहुत से अस्पृश्य ईसाई बन गए तथा काफी लोग मुसलमान भी बन गए, क्योंकि ईसाई धर्म की भाँति मुसलमानों में भी अस्पृश्यता नहीं थी। सामाजिक एकता में बाधा यह सत्य है कि भारत आपसी भेदभाव के कारण पराधीन हुआ। इससे देश की सामाजिक एकता में निरन्तर बाधा पड़ती रही और इसका लाभ विदेशी उठाते रहे। एक ओर उच्च जातियों के हिन्दू अस्पृश्यों को सदैव अपने से नीचा समझते रहे हैं और दूसरी ओर अस्पृश्य सदैव इन लोगों से अपने को अलग समझते रहे हैं। इसी कारण समाज में कभी भी एकता नहीं रही है। राजनीतिक फूट अस्पृश्यों की निर्योग्यताओं से इनकी राजनीति पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। अछूतों ने अपने को अलग मानकर अपने पृथक् मताधिकारों की माँग की। 1931 ई० में डॉ० अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार से गोलमेज कॉन्फ्रेन्स के समय अछूतों के लिए पृथक् मताधिकार की माँग की तथा इसमें उन्हें सफलता भी मिली, परन्तु गांधी जी के प्रयासों से उन्हें हिन्दुओं का ही एक अंग समझा जाता रहा है। आर्थिक असमानताएँ श्रम-विभाजन जाति के आधार पर होने के कारण अस्पृश्य जातियों के लोग केवल निम्न व्यवसाय ही कर सकते थे। इन लोगों को उच्च व्यवसायों को करने की अनुमति नहीं थी, खेती करने का अधिकार नहीं था और इन्हें अच्छी नौकरियाँ भी नहीं मिल सकती थीं। इसलिए इनकी आय बहुत कम होती थी। ये लोग भर पेट भोजन भी नहीं खा सकते थे। इसके फलस्वरूप समाज में आर्थिक असमानताएँ पैदा हुईं और आज भी अनुसूचित जातियाँ आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं। स्वास्थ्य का नीचा स्तर घृणित पेशे करने के कारण इनके जीवन स्तर पर काफी प्रभाव पड़ता था। ये लोग शहरों तथा ग्रामों के मध्य सवर्ण हिन्दुओं के बीच अपने मकान नहीं बना सकते थे। गन्दी बस्तियों में रहने के फलस्वरूप इनके जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता रहा है। अशिक्षा अस्पृश्य जातियों के व्यक्ति उच्च जाति के लोगों के साथ नहीं बैठ सकते थे जिसके कारण अस्पृश्यों के बच्चों को स्कूलों में प्रवेश नहीं दिया जाता था। ब्राह्मण लोग अस्पृश्यों को शिक्षा देना धर्म के विरुद्ध समझते थे। इस हेतु ये लोग प्राय: शत-प्रतिशत अशिक्षित होते थे तथा आज भी अनुसूचित जातियों में शिक्षा का स्तर उच्च जातियों की अपेक्षा काफी भिन्न है। स्वतन्त्र भारत में संवैधानिक रूप से अस्पृश्यों को विभिन्न प्रकार के संरक्षण प्रदान किए गए हैं, किन्तु इससे पूर्व उन्हें किसी भी प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। भारत में अस्पृश्यता निवारणअस्पृश्यता भारतीय समाज के लिए एक बहुत बड़ा कलंक रही है। इसीलिए इसके निवारण के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं। आज औद्योगीकरण, नगरीकरण, लौकिकीकरण, प्रजातान्त्रिक व्यवस्था, शिक्षा तथा अनेक ऐसे कारकों से जातीय दूरी कम हुई है तथा अस्पृश्यों के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। ऐसे लोगों की संख्या काफी हो गई है जो अस्पृश्यता को आमूल-चूल रूप में समाप्त करना चाहते हैं। स्वयं अनुसूचित जातियों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता में वृद्धि हुई है तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् आरक्षण नीति एवं इनको उपलब्ध विशेष सुविधाओं के परिणामस्वरूप इनके सामाजिक-आर्थिक स्तर में भी सुधार हुआ है। अस्पृश्यता निवारण के प्रयासों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- सुधार आन्दोलन अथवा गैर सरकारी प्रयास समाज सुधारकों द्वारा समय समय पर अस्पृश्यता के निवारण के लिए आन्दोलन किए जाते रहे हैं। महात्मा बुद्ध, रामानुज, कबीर, सेन, चैतन्य, नानक, नामदेव, तुकाराम, रैदास आदि विद्वानों के नाम इन आन्दोलनों से जुड़े हुए हैं। स्वयं अस्पृश्य जातियों द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में दक्षिण में ऐसे आन्दोलनों की शुरूआत की गई। श्री ज्योतिबा फुले एवं डॉ० अम्बेडकर ने अस्पृश्यों को संगठित करके ऐसे आन्दोलनों को आगे बढ़ाया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी अनेक संगठन, संघ व आश्रम अस्पृश्यता निवारण तथा हरिजनोद्धार के कार्यों में लगे हुए हैं। इन सभी के प्रयासों को भी दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
सरकारी प्रयास अंग्रेजी शासनकाल में ही अस्पृश्यता निवारण के सरकारी प्रयास प्रारम्भ हो गए थे। 1920 ई० में कांग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने प्रयोग का एक महत्त्वपूर्ण अंग बनाया। 1936 ई० में कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों की स्थापना के बाद इनकी अवस्था सुधारने के प्रयास शुरू किए गए। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान का निर्माण करते समय अस्पृश्यता निवारण को सामने रखा गया जिसका परिणाम यह है कि हमारा संविधान किसी भी नागरिक के प्रति धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान या अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। संविधान में अस्पृश्यों को सार्वजनिक संस्थाओं में प्रवेश की अनुमति प्रदान की गई है और इनकी निर्योग्यताओं की समाप्ति तथा अस्पृश्यता को फैलाने या मानने वालों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है। 1955 ई० में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम पारित किया गया जिसमें निर्योग्यताओं को समाप्त कर अस्पृश्यता के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था रखी गई। इसके अतिरिक्त, इनके लिए अनेक कल्याण कार्यों से सम्बन्धित योजनाएँ बनाई गई हैं, विधानमण्डलों में इनको प्रतिनिधित्व दिया गया है तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। इनकी आर्थिक दशा सुधारने के लिए इन्हें कुटीर उद्योगों की स्थापना व गृह निर्माण के लिए ऋण सुविधाएँ उपलब्ध करवाई गई हैं तथा पंचवर्षीय योजनाओं में इनके कल्याण के लिए काफी पैसा खर्च किया जा रहा है। अस्पृश्यता-निवारण के लिए सुझावगैर-सरकारी तथा सरकारी प्रयासों के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता में कमी तो हुई है परन्तु यह कुरीति पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पाई है। अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रभावशाली सुझाव इस प्रकार हैं-
यद्यपि अस्पृश्यता काफी सीमा तक समाप्त हो गई है, तथापि पूर्व अस्पृश्य जातियों, जिन्हें अब अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है, का सामाजिक असमता के कारण अत्याचार और उत्पीड़न आज भी कम नहीं हुआ है। अस्पृश्यता के कारण इन्हें जिन सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता था उसके कारण ये जातियाँ अनेक प्रकार के अत्याचारों और उत्पीड़न का शिकार हो गई हैं। लगभग सभी राज्यों में अनुसूचित जातियों पर उत्पीड़न और अत्याचार के समाचार निरन्तर मिलते रहते हैं। इनमें इनकी भूमि को अवैध रूप से छीन लेना, उनसे बेगार लेना तथा बँधुआ मजदूरों के रूप में काम लेना, महिलाओं से दुर्व्यवहार एवं शोषण, हत्याएँ, लूटमार तथा जमीन के खरीदने व बेचने में अनियमितताएँ इत्यादि प्रमुख हैं। इन्हें जिन्दा जला देने की घटनाएँ भी सुनने में आती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी प्रकार के अत्याचार और उत्पीड़न पर कठोरता से नियन्त्रण रखा जाए। इसके लिए राज्य सरकारों को विशेष उपाय करने की जरूरत है तथा पुलिस फोर्स को इसके लिए स्पष्ट निर्देश दिए जाने अनिवार्य हैं। अगर कानून के रक्षक पुलिस वाले ही इस प्रकार के मामलों में संलग्न होने के दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें कठोर दण्ड देने की आवश्यकता है। अत्याचार पीड़ित लोगों को उदार अनुदान देने एवं पुनर्वास की सुविधाएँ भी तुरन्त उपलब्ध की जानी चाहिए। समाज के लिए अस्पृश्यता क्या है?अस्पृश्यता का अर्थ (asprishyata kya hai)
साधारण शब्दों मे अस्पृश्यता का अर्थ ऐसी वस्तुओं से लिया जाता है जिनको स्पर्श करना वर्जित हो। भारत मे इस शब्द का अर्थ विशेषकर उन जातियों से दूर रहने के लिये किया जाता रहा है जो निम्न जाति की है और जिनका मुख्य कार्य कूड़ा, मैला उठाना या सफाई करना है।
अस्पृश्यता का मतलब क्या होता है?- 1. अछूत; जो छूने या स्पर्श करने के योग्य न हो 2. जिसका स्पर्श संभव न हो।
अस्पृश्यता का उद्देश्य क्या है?अस्पृश्यता का सर्वप्रथम कारण प्रजातीय भावना का विकास है। कुछ प्रजातियाँ अपने को दूसरे प्रजातियों से श्रेष्ठ मानती हैं। अमेरिकी गोरे, नीग्रो जाति के लोग को हेय मानते हैं, इसके अतिरिक्त विजेता प्रजातियाँ पराजित जातियों को हीन मानती है। भारत में सवर्ण जातियों द्वारा छुआछूत माना जाता था।
अस्पृश्यता का अंत कौन से अनुच्छेद में है?अनुच्छेद 17 समता के अधिकार को एक क्षेत्र विशेष में लागू करता है और अस्पृश्यता के अंत की घोषणा करता है।
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