वाणिज्यवाद शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किस अर्थशास्त्री ने किया - vaanijyavaad shabd ka prayog sarvapratham kis arthashaastree ne kiya

  • वाणिज्य क्रान्ति
    1. कारण-:-परिवर्तनों-का-योगदान
    2. मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास
    3. वितरण व्यवस्था में सुधार
    4. संचार-साधनों में सुधार
    5. परिवहन सेवाएँ
    6. अटलांटिक महासागर का महत्त्व
    7. व्यापारिक संगठनों का विकास
    8. बीमा कम्पनियाँ
  • वाणिज्यवाद
    • भूमिका
    • वाणिज्यवाद का जन्म
    • वाणिज्यवाद का अर्थ
    • वाणिज्यवाद का उद्देश्य
  • वाणिज्यवाद के उदय के कारण
    1. पुनर्जागरण
    2. भौगोलिक खोजें
    3. जनसंख्या में वृद्धि
    4. धर्म सुधार आन्दोलन
    5. राजनैतिक विचारों में परिवर्तन
    6. आर्थिक परिस्थितियाँ
    7. राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना
    8. मध्यम वर्ग का उदय
  • प्रमुख वाणिज्यवादी विचारक
    1. सर टामस मन (1571-1641)
    2. ऐण्टोनिओसैरा (1580-1650)
    3. जीन बैपटिस्ट कोल्बर्ट (1619-1683)
    4. अन्य विचारक
  • वाणिज्यवादियों के प्रमुख विचार
    1. शक्तिशाली राज्यों का निर्माण
    2. सोने एवं चाँदी को महत्त्व
    3. विदेशी व्यापार का महत्त्व
    4. अनुकूल व्यापार सन्तुलन
    5. औद्योगिक एवं व्यापारिक नियंत्रण
    6. कृषि सम्बन्धी विचार
  • वाणिज्यवाद की नीतियों का व्यावहारिक प्रयोग
    1. इंगलैण्ड
    2. फ्रांस
    3. स्पेन
    4. जर्मनी
  • वाणिज्यवाद की आलोचना
    • वाणिज्यवाद का महत्त्व
  • वाणिज्यवाद का पतन: कारण
    1. फ्रांसीसी वाणिज्यवाद की असफलता का प्रभाव
    2. कृषि की शोचनीय स्थिति
    3. व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति का सवाल
    4. स्वतन्त्र व्यापार की माँग
    5. एडम स्मिथ के विचारों का प्रभाव
    6. निरंकुश शासन के प्रति असन्तोष

मध्यकालीन यूरोप का प्रथम चरण जिसे “अन्धकार युग” भी कहा जाता है, पोर अराजकता एवं अव्यवस्था का युग रहा। परन्तु द्वितीय चरण में पोप तन्त्र तथा सामन्त तन्त्र ने इस स्थिति पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया और लोगों को जान-माल की सुरक्षा प्रदान की। परन्तु सामन्तों के आपसी संघर्ष ने यूरोप की अर्थव्यवस्था को उभरने का अधिक अवसर प्रदान नहीं किया। इसके बाद लगभग दो शताब्दियों तक चले धर्मयुद्धों ने यूरोप के सम्पूर्ण जीवन को हो प्रभावित कर डाला। कृषि, उद्योग धन्धों एवं व्यापार वाणिज्य का विस्तार हुआ। पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध विकसित हुए। फिर भी, कई कारणों के फलस्वरूप व्यापार व्यवसाय में अपेक्षित उन्नति नहीं हो पाई। एक प्रमुख कारण था-व्यापारिक मार्गों की असुरक्षा स्थल मार्गों पर डाकुओं का भय और समुद्री मार्ग पर समुद्री लुटेरों का आतंक दूसरा प्रमुख कारण था- पारगमन शुल्कों की भरमार सामन्त लोग किसी भी माल के किसी पुल या जागीर के सीमान्त को पार करते समय ये कर वसूल करते थे। एक अन्य कारण था अपर्याप्त मुद्रा और ऋण तथा लेने देने की अपूर्ण व्यवस्था जिसके चलते अधिक व्यवसाय करना कठिन था। चर्च ईसाइयों को दिये गये ऋण पर ब्याज देने या लेने को मना करता था अन्तिम कारण मध्यकालीन गिल्ड (श्रेणियाँ) स्वयं थी, जो नई पद्धतियों को भी निरुत्साहित करती थी। उन्हें यह भय रहता था कि इन सुधारों के कारण कोई श्रेणी सदस्य औरों से अधिक धनी न हो जाय। परन्तु मध्ययुग के उत्तरार्द्ध में परिस्थितियाँ बदलने लगी और वाणिज्य क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। 

वाणिज्य क्रान्ति

कारण : परिवर्तनों का योगदान – यदि भौगोलिक खोजों को वाणिज्यिकक्रान्ति की जननी कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप यूरोपवासी अब तक के अज्ञात महाद्वीपों के सम्पर्क में और पूर्वी एशिया तक जाने का जलमार्ग खोजा गया। स्पेन और पुर्तगाल ने अमेरिका की प्राचीन सभ्यताओं को नष्ट करके, वहाँ से अपार धन-सम्पदा हस्तगत की। बाद में अमेरिका की धरती पर यूरोपीय उपनिवेश स्थापित किये गये और वहाँ के प्राकृतिक साधनों का दोहन किया जाने लगा। राष्ट्रीय राज्यों की औपनिवेशिक नीतियों ने व्यापारियों के हितों को सुरक्षित कर व्यापारिक क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया। बास्को डी- गामा ने यूरोप से भारत का जलमार्ग खोजकर यूरोप के लिये एशियाई बाजारों के द्वार भी खोल दिये। अब यूरोपीय देशों को एशियाई माल के लिये न तो मुस्लिम व्यापारियों पर निर्भ रहने की आवश्यकता रह गई और न इटली के नगर राज्यों की वे एशियाई देशों के साथ सीध व्यापार कर भारी मुनाफा कमाने लगे। परन्तु इसके लिए काफी धन की आवश्यकता थी। घर संग्रह के लिये कम्पनियाँ तथा बैंक खुलने लगे। सम्पन्न लोग पूँजी निवेश करने लगे। परिणाम यह निकला कि व्यापार वाणिज्य का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक हो गया। इसी को व्यापारिक क्रान्ति अथवा वाणिज्यिक क्रान्ति कहते हैं।

डॉ. पार्थ सारथि गुप्ता का मानना है कि सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में व्यापार के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए जिनमें मुख्य थे- अंतःक्षेत्रीय व्यापार में वृद्धि, स्थानीयतावाद की समाप्ति समुद्रपारीय व्यापार का विकास, बाजार का व्यापक और बढ़ता हुआ प्रभाव और नये प्रकार के व्यापारिक संगठनों का विकास वाणिज्यिक क्रान्ति इन्हीं परिवर्तनों का परिणाम थी। अतः इनका उल्लेख करना समोचीन होगा।

मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास – सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दियों में व्यापार वाणिज्य के विकास के साथ-साथ यूरोपीय देशों में बड़े पैमाने पर उन्नत किस्म की मुद्रा का प्रचलन बढ़ा। विभिन्न प्रकार के भुगतान करने में मुद्रा का अधिकाधिक प्रयोग किया जाने लगा। ऋण-व्यवस्था को व्यापक एवं सुगम बनाने का प्रयास किया गया तथा लेन-देन के मामलों में हुंडी (Draft), ऋण-पत्र (Letters of Credit) तथा विनिमय-पत्रों को मान्यता मिलने लगी। इससे माख व्यापार (Credit Trading) में भी वद्धि हुई। वस्तुतः मौद्रिक अर्थव्यवस्था में सुधार व्यापारिक क्रान्ति के लिये अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ।

वितरण व्यवस्था में सुधार – वाणिज्यिक क्रान्ति के विकास के लिये न केवल उत्पादन में वृद्धि आवश्यक है, अपितु उत्पादित माल की वितरण व्यवस्था में सुधार भी आवश्यक है। इससे पूर्व यूरोप के कुछ प्रमुख नगरों में वार्षिक और अर्द्धवार्षिक मेले लगते थे, जहाँ उत्पादक लोग अपना माल बेचने आते थे। परन्तु अब एक निश्चित बाजार की आवश्यकता अनुभव जाने लगी। अतः अब मेलों के स्थान पर साप्ताहिक हाट बाजार लगने लगे। हाट-बाजारों उत्पादकों को एक निश्चित बाजार प्रदान कर उन्हें प्रोत्साहित किया। एन्टवर्प, पेरिस, लन्दन, एम्सटरडम आदि नगरों में सप्ताह में एक दिन एक निश्चित स्थान पर बाजार लगते थे, जहाँ आस-पास के जरूरतमन्द ग्राहक ही नहीं अपितु दूर-दराज के ग्राहक भी आते थे। धीरे-धीरे इन हाट-बाजारों ने स्थायी बाजारों का स्थान ले लिया। कई सम्पन्न व्यापारी थोक में वस्तुओं को खरीद कर अपने गोदामों में रखने लगे और खुदरा दुकानदार अपनी आवश्यकतानुसार माल खरीदने लगे। थोक व्यापार के बढ़ने के साथ-साथ दलालों (बिचौलियों) की संख्या भी बढ़ने लगी, जो अपना पारिश्रमिक लेकर थोक व्यापारियों को माल उपलब्ध कराने तथा खुदरा दुकानदारों को सामान दिलवाने का काम करने लगे। इससे व्यापारिक गतिविधियों को तीव्रगति मिली।

संचार-साधनों में सुधार – ज्यों-ज्यों व्यापार का क्षेत्र विस्तृत होता गया संचार-साधनों को उन्नत बनाने की तरफ भी ध्यान दिया जाने लगा ताकि अन्य नगरों की व्यापारिक गतिविधियों, भाव-ताव एवं सामान के स्टॉक आदि की जानकारी मिल सके। सर्वप्रथम डाक सेवाओं में सुधार किया गया। 1500 ई. तक इंगलैण्ड, फ्रांस और स्पेन में सरकारी डाक सेवाएँ शुरू हो चुकी थीं और 1600 ई. तक यूरोप के लगभग सभी प्रमुख नगर डाक सेवा से जुड़ गये थे। इससे व्यापार एवं वाणिज्य सम्बन्धी समाचार अधिकाधिक मिलने लगे। सत्रहवीं सदी में अखबारों के प्रचलन से भी व्यापारिक गतिविधियों की जानकारी मिलने लग गई। इन सुविधाओं के विकास ने व्यापार वाणिज्य को काफी बढ़ावा मिला।

परिवहन सेवाएँ – संचार-साधनों में सुधार के परिणामस्वरूप यूरोप के अनेक प्रमुख नगर एक-दूसरे के काफी निकट आ गये थे। अब परिवहन सेवाओं में सुधार की तरफ ध्यान दिया गया ताकि सामान को शीघ्रता के साथ गन्तव्य स्थान तक पहुँचाया जा सके। परन्तु इसमें पर्याप्त सफलता नहीं मिल पाई। वर्षा और शीत ऋतु में हिमपात की वजह से स्थल यातायात अस्त-व्यस्त हो जाता था। वे ही खराब सड़कें और वे ही भारवाही पशु। परन्तु उत्तरी नीदरलैण्ड और इंगलैण्ड जैसे देशों को इस प्रकार की कठिनाइयों का सामना बहुत कम करना पड़ा, क्योंकि इनका व्यापार मुख्यतः समुद्री मार्गों से होता था। समुद्री यातायात में अवश्य सुधार हुआ अब उन्नत किस्म के बड़े-बड़े जहाजों का निर्माण होने लगा जो तेज गति से अधिक माल ढोने में सक्षम थे। इस दिशा में हालैण्ड अग्रणी रहा। ऐसा अनुमान है कि इसके व्यापारिक बन्दरगाह एन्टवर्प पर प्रतिदिन 200 से अधिक जहाज अपना माल उतारा करते थे। बाद में इंगलैण्ड उससे भी आगे निकल गया। नई तकनीक से बने जहाजों ने वाणिज्यिक क्रान्ति को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

अटलांटिक महासागर का महत्त्व – भौगोलिक खोजों के पूर्व यूरोप का व्यापार मुख्यत: भूमध्यसागर और बाल्टिक सागरों तक ही सीमित था। पुराने व्यापारिक मार्ग भूमध्यसागर से होकर जाते थे। अब अटलांटिक होकर अमेरिका और अफ्रीका की परिक्रमा करते हुए एशियाई देशों के जलमार्ग ढूंढ़ निकाले गये। इससे इटली के नगर-राज्यों वेनिस, जिनोआ आदि का महत्त्व जाता रहा, जबकि इन खोजों के पूर्व भूमध्यसागरीय व्यापार पर इन नगर-राज्यों का एकाधिकार रहा था। अब अटलांटिक महासागर की महत्ता बढ़ गई। इसके तट पर स्थित इंगलैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन आदि देश व्यापारिक केन्द्र बन गये और उनमें प्रतिस्पर्धा की भावना भी पनपने लगी। नई दुनिया से सोना-चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ प्रचुर मात्रा में यूरोपीय देशों में आने लगीं जिससे यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था में भारी बदलाव आ गया।

डॉ. पार्थसारथि गुप्ता ने लिखा है कि, “एशिया के साथ यूरोप के व्यापार की एक सामान्य विशेषता यह थी कि सोने-चाँदी के बदले यूरोप के लोग मुख्यत: ऐसी वस्तुएँ मँगाते थे, जो उनकी तश्तरी का स्वाद बढ़ाती थीं और शरीर को अलंकृत करती थीं।” परन्तु उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के साथ व्यापार भिन्न किस्म का था। इस क्षेत्र में यूरोपीय देशों का मुख्य ध्येय भूमि हस्तगत करना और भूमि से लाभ उठाना, मूल्यवान धातुओं की खानों का पता लगाकर उनका दोहन करना। चौनी, इमारती लकड़ी, तम्बाकू, कपास और मछली जैसी वस्तुओं के व्यापार से भी काफी मुनाफा कमाया गया। बदले में यूरोप से उपभोक्ता सामान, कपड़ा, फर्नीचर, शराब आदि भेजी जाती थी। सबसे अधिक महत्त्व की बात थी गुलामों का व्यापार वस्तुत: कृषि कार्य के लिये नीग्रो गुलामों का आयात किया जाता था। इस घृणित व्यापार से भारी मुनाफा कमाया गया।

व्यापारिक संगठनों का विकास – आधुनिक काल के प्रारम्भ में समुद्र पार के व्यापार में यूरोप के उद्यमी सामान्यतः व्यक्तिगत रूप में अथवा अपने ही परिवार की साझेदारी में काम करते थे। कुछ व्यापारी हैनसिएरिक लीग अथवा मर्चेन्ट एडवेनचरस जैसे बड़े इजारेदारों की देखरेख में भी काम करते थे। इसमें भी वे स्वयं अपना माल बेचते थे और अपनी पूँजी लगाते थे। जो व्यापारी खुद नहीं जा पाते थे वे अपने एजेन्टों को भेजते थे। परन्तु इसमें खतरा भी बना रहता था, क्योंकि सभी एजेन्ट निष्ठावान नहीं होते थे। इसके अलावा जहाजों के डूबने तथा बाजार के हालात बदल जाने का खतरा भी बना रहता था।

सोलहवीं सदी में नये प्रकार के व्यापारिक संगठनों का उदय हुआ। जहाज की कीमत और उसकी खेप में व्यापारियों की साझेदारी चल पड़ी। परिणामस्वरूप छोटे-छोटे व्यापारी भी इसमें सम्मिलित होने लगे। सामान्यत: एक साझेदार जहाज को ले जाता और माल बेच आता। अन्य साझेदार अपना माल और पूँजी देते थे और लाभ तथा हानि में उसी अनुपात में हिस्सा बँटाते थे। जहाज में साझेदारी एक बार की यात्रा के लिये ही होती थी।

समुद्र पार के व्यापार में भारी मुनाफे की सम्भावना थी, परन्तु इसके लिये बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी। किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार के लिये इसको जुटाना सम्भव न था। साझेदारी प्रथा भी शुरू हुई, परन्तु वह केवल एक बार की यात्रा के लिये ही होती थी। अत: कुछ महत्त्वाकांक्षी लोगों ने मिलकर आवश्यक धन जुटाने का निश्चय किया और इसके लिये “संयुक्त पूँजी कम्पनियों” (Joint Stock Companies) की स्थापना की। इस प्रकार की कम्पनियों में शेयर हस्तान्तरित करने की सुविधा थी। वैसे इस प्रकार की साझेदारी वाली कम्पनियों का अस्तित्व पन्द्रहवीं सदी में जर्मनी और इटली में देखने को मिलता है परन्तु 1550 के बाद इंगलैण्ड और उत्तरी नीदरलैण्ड में इस प्रकार की कम्पनियों की संख्या अधिक हो गई थी। सामान्य सम्पन्न लोगों के लिये भी अब इन कम्पनियों में पूंजी निवेश करने का अवसर मिल गया। पूँजी निवेश करने वाले लोगों को कम्पनी के शेयर दिये जाते थे। जितने शेयर के वे मालिक होते, उसी अनुपात में उन्हें लाभ मिलता था। शेयरधारी जरूरत पड़ने पर अपने कुछ अथवा सभी शेयर बेचकर नकद राशि प्राप्त कर सकता था। ऐसे शेयरों के हस्तान्तरण के लिये शीघ्र ही शेयर बाजार भी अस्तित्व में आ गया। शेयर होल्डर मिलकर कम्पनी के संचालक मण्डल का निर्वाचन करते, जो कम्पनी का प्रबन्ध करता था। बाद में, कुछ कम्पनियों को क्षेत्र विशेष के साथ व्यापार करने का एकाधिकार भी मिल गया जैसेकि 1600 ई. में स्थापित ”ईस्ट इण्डिया कम्पनी” को भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार मिला था। वस्तुत: संयुक्त पूँजी कम्पनी एक महत्त्वूर्ण व्यापारिक घटना थी।

बीमा कम्पनियाँ – समुद्री यात्राओं में कई बार बड़े-बड़े जहाज भी नष्ट हो जाते थे और जहाज पर लदा सामान भी डूब जाता था। इससे व्यापारिक कम्पनियों तथा जहाज मालिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था। इस विपदा से निपटने के लिये बीमा कम्पनियों का जन्म हुआ। बीमा कम्पनियों की स्थापना से वाणिज्यिक क्रान्ति को बहुत बड़ा सहारा मिला।

इस प्रकार, एक के बाद एक होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप यूरोपीय व्यापार वाणिज्य का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। इसी को “वाणिज्यिक क्रान्ति” कहा जाता है।

वाणिज्यवाद

भूमिका-मध्यकालीन यूरोप के लोगों के जीवन पर धर्म और नैतिकता का जबरदस्त प्रभाव था। इसके चलते आर्थिक विचारधारा स्वतन्त्र रूप से विकसित न हो सकी। उस युग में उन्हीं आर्थिक क्रियाओं को उचित व न्यायसंगत माना जाता था जो धर्मानुकूल होती थीं। क्योंकि उस समय धन की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्त्व दिया जाता था। मध्ययुग के उत्तरार्द्ध में धीरे धीरे परिस्थियाँ बदलने लगीं। पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोपवासी पूर्वी देशों के सम्पर्क में आये। उन्हें नवीन जलमार्गों की जानकारी मिली। भौगोलिक खोजों के द्वारा नये-नये महाद्वीपों की खोज हुई। यूरोप का विस्तार होने लगा जिससे व्यापार-वाणिज्य में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इसी समय यूरोप में शक्तिशाली राष्ट्र राज्यों की स्थापना की भावना भी जोर पकड़ने लगी। प्रत्येक देश के विचारक इस बात से सहमत थे कि बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा तथा आन्तरिक शान्ति की स्थापना तभी सम्भव हो सकती है, जबकि राज्य शक्तिशाली हो। राज्य को सशक्त तभी बनाया जा सकता है जबकिउसके पास पर्याप्त धन हो। अतः अब धन प्राप्ति के स्रोतों के बारे में विचार किया जाने लगा। अब धर्म के स्थान पर धन कोअधिक महत्त्व दिया जाने लगा। धन की दृष्टि से सोना और चाँदी सबसे उपयुक्त थे। अर्थात् जिस देश के पास जितना अधिक सोना-चाँदी होगा, वह उतना ही धनी माना जायेगा। अतः मध्ययुग के अन्त तथा आधुनिक काल के प्रारम्भ में यूरोपीय शासकों ने अपने देश के स्वर्ण एवं रजत भण्डार को बढ़ाने तथा इन दोनों बहुमूल्यवान धातुओं को देश से बाहर जाने से रोकने के लिये समय-समय पर नियम बनाये। चूँकि व्यापार वाणिज्य को इन धातुओं को प्राप्त करने का एक प्रमुख साधन माना गया था, अतः यूरोपीय शासकों ने व्यापार-वाणिज्य और उद्योगों को भी नियमित किया। यही नीति ‘वाणिज्यवाद’ कहलाती है जिसका मुख्य ध्येय सोना-चाँदी प्राप्त करके अपने देश को सबल बनाना था।

वाणिज्यवाद का जन्म- वाणिज्यवाद का जन्म कब हुआ? इस सम्बन्ध में इतिहासकारों तथा अर्थशास्त्रियों के मतों में काफी भिन्नता है। एल.एच. हैने के मतानुसार सोलहवीं सदी से अठारहवीं सदी के मध्य में इसका जन्म हुआ, जबकि एक अन्य विद्वान् अलैक्जेण्डर ग्रे इसका प्रारम्भ चौदहवीं सदी के अन्त या पन्द्रहवीं सदी के प्रारम्भ से मानते हैं। प्रो. केनल वाणिज्यवाद के प्रारम्भ को सत्रहवीं सदी से नहीं मानते। चूँकि “वाणिज्यवाद” एक आधुनिक शब्द है, इसलिए इसके उद्भव का समय निश्चित करना काफी कठिन है; क्योंकि इसके कुछ लक्षण हमें चौदहवीं सदी से ही दिखलाई पड़ते हैं।

वाणिज्यवाद का अर्थ- वाणिज्यवाद (जिसे वणिकवाद एवं व्यापारवाद भी कहा जाता है) शब्द का प्रयोग लम्बे समय तक होता रहा है, परन्तु इसकी परिभाषा किसी के द्वारा नहीं दी गई है, क्योंकि यह कोई संगठित एवं व्यवस्थित विचारधारा नहीं थी। इसलिए इसकी सही-सही परिभाषा करना बहुत कठिन है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग एडम स्मिथ ने 1776 ई. में प्रकाशित अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक “वैल्थ ऑफ नेशन्स” में किया था। बाद में, 1883-84 के मध्य जर्मन विद्वान् गुस्ताव वॉन शमॉलर ने अपने लेख तथा पुस्तक में इस शब्द का प्रयोग किया। इसके बाद कई लेखक इस शब्द का प्रयोग करते रहे। इस सम्बन्ध में अलैक्जेण्डर ग्रे ने लिखा है कि, “प्रायः हम वाणिज्यवादी सिद्धान्त, वाक्यांश का प्रयोग करते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि किसी समय पर लेखकों का कोई समूह था जिसने वाणिज्यवादी विचार प्रस्तुत किये?”

प्रोफेसर हैने का कहना है कि, “वाणिज्यवाद से आशय उस आर्थिक विचारधारा से है। जो कि सोलहवीं सदी से लेकर अठारहवीं सदी के मध्य तक यूरोपीय राजनीतिज्ञों में काफी लोकप्रिय रही थी।” इंगलैण्ड में इसे “वणिकवाद” अथवा “व्यापारवाद” के नामों से पुकारा। जाता था। फ्रांस में इसे ‘कोल्बर्टवाद’ के नाम से तो जर्मनी में “केमर्लिजम” के नाम से पुकारा। जाता था।

व्यापार और उद्योग को नियमित सोना और चाँदी प्राप्त करने की नीति हो । वाणिज्यवाद कहलाती है। राजाओं और व्यवसायी लोगों का विश्वास था कि केवल सोना और चाँदी के संचित भण्डार ही देश को धनी एवं सशक्त बना सकते हैं। इसलिए प्रत्येक शासक अथवा सरकार ने सोना और चाँदी को अपने देश की ओर आकृष्ट करने और अपने देश से उनको बाहर जाने से रोकने के लिए नियम बनाये। उनमें से कुछ इस प्रकार थे –

1. जितने माल का आयात होता है, उसकी तुलना में निर्यात ज्यादा हो ताकि बाह्य देश को आयात-निर्यात के अन्तर का भुगतान सोना-चाँदी के रूप में करना पड़े। इससे व्यापार का ‘अनुकूल सन्तुलन’ बना रहेगा।

2. विदेशी माल को खरीद को निरुत्साहित करने के लिए सीमा शुल्कों में वृद्धि की जाय ताकि विदेशी वस्तुएँ महँगी हो जायँ और लोग उन्हें खरीद न पायें।

3. स्वदेशी उद्योगों को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाय।

4. उपनिवेशों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बने रहना। उपनिवेशों का उपयोग सोना चाँदी और कच्चे माल के स्रोत के रूप में तथा मातृ-देश के तैयार माल की खपत के लिए बाजार के रूप में करो। उपनिवेशों के स्वयं माल बनाने या दूसरे देशों से व्यापार करने पर प्रतिबन्ध लगा दो।

वाणिज्यवाद का मौलिक सिद्धान्त यह है कि सम्पत्ति बहुमूल्य धातुओं से अर्जित होती है और चूँकि इन धातुओं की निश्चित राशि परिभ्रमण में रहती है, अतः प्रत्येक देश को अपने हित के लिए इनका अधिक-से-अधिक संग्रह करना चाहिए। उस युग में वही देश धनी एवं शक्ति सम्पन्न माना जाता था जिसके कोष में इन धातुओं का विशाल भण्डार हो। कुछ शासकों ने इन धातुओं को प्राप्त करने का एक अन्य उपाय सोचा। वह था दूसरे देशों पर आक्रमण करके उनकी धन-सम्पदा का अपहरण करना। परन्तु यह अधिक कारगर सिद्ध नहीं हुआ।

वाणिज्यवाद का उद्देश्य- वाणिज्यवाद के अर्थ की व्याख्या से इसके उद्देश्य भी स्पष्ट हो जाते हैं। इसका मूल उद्देश्य अपने राष्ट्र के आर्थिक प्रभुत्व को बढ़ाना था। आर्थिक प्रभुत्व की वृद्धि के लिए सोना-चाँदी के भण्डार को बढ़ाना आवश्यक था और यह व्यापार-वाणिज्य के अनुकूल सन्तुलन से ही सम्भव था। “अधिक स्वर्ण प्राप्त करके अधिक शक्तिशाली बनो” यह उनका नारा था। इसीलिए कुछ लेखकों ने वाणिज्यवाद को धातुवाद की संज्ञा दी है। फॉसिस बेकन ने वणिकवाद को शक्तिशाली राज्य प्राप्त करने की नीति बताया तो कनिगाहम ने इसे राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आर्थिक शक्ति का साधन बताया। जर्मन विद्वान् गुस्ताव पॉन श्मॉलर ने इसका उद्देश्य समाज तथा राज्य का आर्थिक एकीकरण बताया।

वाणिज्यवाद के उदय के कारण

वाणिज्यवाद को भली-भाँति समझने के लिए यह आवश्यक है कि उन कारणों (कारकों) का अध्ययन किया जाय जो इसके विकास के लिए उत्तरदायी थे। इसके उदय के लिए उत्तरदायी कारण निम्नलिखित हैं –

1. पुनर्जागरण- तेरहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से सोलहवीं सदी के यूरोप में जो अभूतपूर्व सांस्कृतिक प्रगति हुई, उसको अंग्रेजी भाषा में “रेनेसाँ” कहते हैं। इसका अर्थ है ”पुनर्जागरण'”। व्यावहारिक दृष्टि से हम इसे मनुष्य की बौद्धिक चेतना और चिन्तनशक्ति का पुनर्जन्म कह सकते हैं।

रोमन साम्राज्य की अवनति के साथ-साथ यूरोप में एक गहन अन्धकार छा गया था और सदियों तक यूरोपवासी इस अन्धकार में डूबे रहे। लोगों के जीवन पर चर्च और धर्म का गहराप्रभाव था और मनुष्य को स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने की छूट नहीं थी। धर्मशास्त्रों में जो कुछ सच्चा झूठा लिखा हुआ था अथवा धर्म के प्रतिनिधि जो कुछ बतलाते थे, उसे पूर्ण सत्य मानना पड़ता था। विरोध करने पर मृत्युदण्ड तक की सजा दी जाती थी।

मध्य युग के अन्त में स्थिति में धीरे-धीरे परिवर्तन आता गया। अब मनुष्य ने अपने आपको तथा अपनी उपलब्धियों को पहचानना शुरू कर दिया। वह परलोक को चिन्ता छोड़कर इहलोक में जिज्ञासा रखने लगा। धार्मिक समस्याओं के स्थान पर सांसारिक समस्याओं को प्रधानता देने लगा। पुनर्जागरण ने आलोचना को नई गति एवं विचारधारा को नवीन निडरता प्रदान की। उसने मनुष्य को अन्धविश्वासों, रूढ़ियों तथा चर्च के बन्धनों से मुक्त किया और मनुष्य को इस जीवन का पूरा-पूरा आनन्द उठाने को कहा। मानव जीवन को सार्थक बनाने को शिक्षा दो। चूँकि सांसारिक सुख के लिए धन-दौलत का संग्रह करना आवश्यक था, फलतः आर्थिक क्षेत्र में धीरे-धीरे व्यापक प्रगति होने लगी।

2. भौगोलिक खोजें- पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोपवासियों में भूगोल के प्रति अभिरुचि का विकास हुआ जिससे भौगोलिक अनुसन्धान को प्रोत्साहन मिला। पुर्तगाल और स्पेन ने यूरोप के अन्य देशों का मार्ग प्रशस्त किया। वास्कोडिगामा ने पूर्वी द्वीप समूह के लाभप्रद व्यापार का जलमार्ग खोज निकाला तो कोलम्बस ने अब तक अज्ञात अमेरिका की खोज की। बाद में अनेक यूरोपीय विश्व के अज्ञात क्षेत्रों के अनुसन्धान में जुट गये। नये क्षेत्रों से प्राप्त धन सम्पदा से पुर्तगाल, स्पेन, इंगलैण्ड, हालैण्ड, फ्रांस आदि देश सम्पन्न होने लगे। धीरे-धीरे भौगोलिक अनुसन्धानों का काम राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गया। एक तरफ तो व्यापार वाणिज्य का विकास हुआ और दूसरी तरफ उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का प्रसार हुआ।

3. जनसंख्या में वृद्धि – इस काल में यूरोप की जनसंख्या में तेजी के साथ वृद्धि हुई। ज्यों-ज्यों यूरोप की जनसंख्या बढ़ती गई, त्यों-त्यों रोटी-रोजी की समस्या बढ़ती गई; क्योंकि अब मात्र कृषि के द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या को रोजी देना सम्भव न था। अतः अधिकाधिक लोग उद्योग-धन्धों की तरफ बढ़ने लगे। दूसरी बात यह थी कि जनसंख्या की वृद्धि के कारण दैनिक उपयोग की वस्तुओं की माँग भी बहुत अधिक बढ़ गई थी। बढ़ती हुई माँग ने औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन दिया। औद्योगिक विकास ने व्यापार-वाणिज्य को विकसित होने में सहयोग दिया और व्यापारी वर्ग समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता गया।

4. धर्म सुधार आन्दोलन- धर्म सुधार आन्दोलन के पूर्व मध्ययुगीन चर्च की मान्यता थी कि धन का लालच मनुष्य को पाप की ओर ले जाता है। भौतिक सुख क्षणिक होता है। अतः सांसारिक धन-दौलत का संग्रह करना बेकार है और सूद पर रुपया देना पाप है। चर्च की उपर्युक्त शिक्षाएँ व्यापार वाणिज्य के विकास में बाधक सिद्ध हो रही थीं।

सोलहवीं सदी में चर्च की कुछ धार्मिक बातों एवं विचारों के विरुद्ध जबरदस्त विद्रोह उठ खड़ा हुआ और विद्रोहियों ने रोमन चर्च का परित्याग करके अपने निजी चर्च की स्थापना की। धर्म के क्षेत्र में होने वाले इन परिवर्तनों से वाणिज्यवाद को नई शक्ति प्राप्त हुई। नये चर्च के अनुयायी जिन्हें ‘प्रोटेस्टेंट’ कहा गया, ने ब्याज लेने की तरफ उदार दृष्टिकोण अपनाया और मितव्ययता, समय और कठोर श्रम आदि पर जोर दिया, जो कि व्यवसाय की वृद्धि तथा पूँजीवाद के विकास के लिए आवश्यक गुण थे। इसके अलावा उन्होंने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर जोर दिया। उन्होंने व्यक्तिगत सम्पत्ति व संविदा की स्वतन्त्रता का समर्थन किया। इससे व्यक्तिवादी विचारधारा को समर्थन मिलने लगा। लोगों में व्यक्तिगत सम्पत्ति के सृजन तथा उसकी वृद्धि को भावना जोर पकड़ने लगी। इस प्रवृत्ति ने वाणिज्यवादी विचारधारा को पनपने का सुअवसर प्रदान किया।

5. राजनैतिक विचारों में परिवर्तन-धर्म सुधार आन्दोलन के पूर्व यूरोपीय राज्यों पर चर्च के प्रमुख पोप का जबरदस्त राजनैतिक प्रभाव था। राजाओं का राज्याभिषेक पोप की स्वीकृति के बाद ही किया जा सकता था। पोप को राज्यों के घरेलू तथा वैदेशिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार था। पोप अपने आदेश द्वारा किसी भी कैथोलिक राजा को धर्म एवं समाज से बहिष्कृत कर सकता था और उस राजा की प्रजा को उसके विरुद्ध विद्रोह करने का आदेश भी दे सकता था। संक्षेप में, पोप के पास असीमित अधिकार थे जिसकी वजह से यूरोप के शासक राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तनों को प्रोत्साहन देने की स्थिति में न थे।

सोलहवीं सदी में यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों और निरंकुश राजतन्त्रों की स्थापना तथा राजाओं की शक्ति को सबल बनाने पर जोर दिया जाने लगा। इस विचारधारा का स्पष्ट चित्रण उस युग के सुप्रसिद्ध लेखक मेकियावेली (मेकाविली) की रचना ‘द प्रिन्स’ में देखने को मिलता है। उसने लोगों को चर्च की शक्ति न मानकर राज्य की शक्ति को मानने तथा उसे सबल बनाने का सुझाव दिया। उसके अनुसार राजा की शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है और देश के भीतर प्रचलित अन्य शक्तियों को राजा की शक्ति की अधीनता स्वीकार करनी चाहिए। मेकियावेली के विचारों की समीक्षा करते हुए अलैक्जेण्डर ग्रे ने लिखा है कि, “उन्होंने राजनीति को सब प्रकार की नैतिकता से अलग स्वतन्त्र स्थान दे डाला था।” जीन बोदिन तथा अन्य विचारकों ने भी राज्य की सार्वभौमिकता तथा सर्वोपरि नियन्त्रण के विचारों का प्रतिपादन किया।

प्रश्न यह उठता है कि उस समय के विचारकों ने राज्य की शक्ति को इतना अधिक महत्त्व एवं समर्थन क्यों दिया था? इसका एक प्रमुख कारण उस युग के सामन्तों के आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणों का भय था। आये दिन के लड़ाई-झगड़ों से शान्ति और सुरक्षा अस्त व्यस्त हो गई थी और जनता पर करों का बोझ बढ़ने लगा था। व्यापार वाणिज्य भी चौपट हो रहा था। लोगों की आर्थिक स्थिति दयनीय बन गई थी ऐसी स्थिति में राजा की शक्ति को बढ़ाने की भावना बलवती होती गई। इस सम्बन्ध में वाणिज्यवादियों का मानना था कि व्यापार वाणिज्य के माध्यम से ही राजा के कोष में धन की वृद्धि हो सकती है और धन के सहारे ही राजा अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाकर आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था कायम करने में सफल हो सकता है। क्योंकि कृषि तथा घरेलू अर्थव्यवस्था के माध्यम से इतनी आय प्राप्त नहीं की जा सकती थी कि उससे प्रशासनिक व्यय के साथ-साथ एक शक्तिशाली सेना का व्यय भी उठाया जा सके। अतः व्यापार, विशेषकर विदेशी व्यापार, पर जोर दिया जाने लगा, जो वाणिज्यवादी विचारों का मूल मन्त्र था।

6. आर्थिक परिस्थितियाँ- वणिकवाद के उदय में उस समय की आर्थिक परिस्थितियों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में व्यापार वाणिज्य के विकास की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। सामन्तों ने कृषि को अर्थव्यवस्था का आधार मान लिया था। उद्योग-धन्धे भी नाममात्र के थे और उनमें भी स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त ही उत्पादन होता था। सम्पूर्ण आदान-प्रदान वस्तु विनिमय के माध्यम से होता था। इससे अर्थव्यवस्था के विकास में बाधा आती थी। किन्तु मुद्रा के प्रचलन से यह बाधा दूर हो गई और व्यापार वाणिज्य का क्षेत्र व्यापक होता चला गया। इंगलैण्ड की साम्राज्ञी एलिजाबेथ प्रथम (1158-1603 ई.) ने सिक्के में सुधार करके व्यापार वाणिज्य तथा उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन दिया। सोलहवीं सदी के अन्त तक यूरोप के अनेक देशों तथा अमेरिका के कई क्षेत्रों में सोने तथा चाँदी के भण्डारों का पता लग जाने के बाद मुद्रा का प्रचलन काफी बढ़ गया। इसी युग में बैंकों का भी जन्म हुआ। बैंकों ने उद्योग-धन्धों की उन्नति तथा आन्तरिक एवं विदेशी व्यापार वाणिज्य को बढ़ाने में अभूतपूर्व सहयोग दिया। नये-नये देशों की खोज ने भी वाणिज्यवाद को बढ़ावा दिया। अब प्रत्येक देश व्यापार को बढ़ाकर सोना तथा चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ प्राप्त करने में जुट गया। इन आर्थिक परिस्थितियों ने कुशल एवं साहसी व्यक्तियों को व्यापार वाणिज्य तथा उद्योग के क्षेत्र में प्रवेश करने के अवसर प्रदान किये। परिणामस्वरूप वाणिज्यवाद को एक नई शक्ति एवं गति प्राप्त हुई।

7. राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना- यूरोप में सामन्तवाद के पतन तथा राष्ट्रीय राज्यों का उदय, मध्ययुग की प्रमुख घटनाएँ हैं। जर्मन आक्रान्ता पश्चिमी यूरोप में स्थायी रूप से बस गये थे और स्थानीय लोगों से काफी हिलमिल गये। कालान्तर में उनके प्रयत्नों द्वारा पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रीयता का प्रचार किया गया तथा राष्ट्रीय राज्यों का निर्माण किया गया। सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में सामन्तवाद की शक्ति जर्जर हो चुकी थी। इससे राजाओं को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला इटली तथा जर्मनी में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना नहीं हो पाई। परन्तु इंगलैण्ड, फ्रांस तथा स्पेन के शासकों ने राष्ट्रीय राज्यों की स्थापन करने में सफलता प्राप्त की। बाद में पुर्तगाल, हालैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, स्वीडन आदि देशों में भी राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हुई। राष्ट्रीय राज्यों ने अपने-अपने राज्यों में शान्ति एवं व्यवस्था को कायम किया। व्यापार वाणिज्य की उन्नति के लिए यह नितान्त जरूरी था। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय राज्यों के भौगोलिक क्षेत्र में भी वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप वस्तुओं की माँग बढ़ी जिस व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा मिला। चूँकि प्रत्येक राष्ट्रीय राज्य अपनी शक्ति एवं समृद्धि बढ़ाने के लिए उत्सुक था, अत: अपने राज्य के व्यापारियों को विदेशों से व्यापार करने तथा विदेशों से सोना-चाँदी राज्य में आयात करने के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा।

8. मध्यम वर्ग का उदय- मध्यम वर्ग के उदय ने वाणिज्यवाद को तथा वाणिज्यवाद के विकास ने मध्यमवर्ग को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वस्तुतः ये दोनों कारक एक हो सिक्के के दो पहलू थे। नगरों के उदय और उनके महत्त्व की वृद्धि के साथ-साथ इस वर्ग का महत्त्व भी बढ़ता गया। चार्ल्स मोराजे ने लिखा है कि यूरोप के विस्तार, इसकी वैज्ञानिक खोजों और इसकी प्रगति में मध्यम वर्ग का सर्वाधिक योगदान रहा है। विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के माध्यम से अर्जित औद्योगिक, व्यावसायिक और व्यापारिक निपुणता के द्वारा मध्यम वर्ग ने वाणिज्यिक चरित्र को धारण कर लिया। कुलीन वर्ग के पतन के बाद ही मध्यम वर्ग उद्योगपतियों और पूँजीपतियों का शासकीय वर्ग बन बैठा। इससे वाणिज्यवाद को जबरदस्त समर्थन मिला।

प्रमुख वाणिज्यवादी विचारक

वाणिज्यवाद का समय लगभग तीन सौ वर्ष का रहा है। इस लम्बी अवधि में अनेक विचारक हुए जिन्होंने अपने विचार प्रवाह से उस युग को नई दिशा प्रदान की। यहाँ हम कुछ प्रमुख वणिकवादियों के विचारों को स्पष्ट करेंगे जिससे विभिन्न देशों में वणिकवादी विचारों की सही-सही जानकारी प्राप्त हो सकेगी।

1. सर टामस मन (1571-1641)- सर टामस मन इंगलैण्ड के एक प्रबुद्ध लेखक तथा व्यापारी थे। उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक “इंगलैण्ड्स ट्रेजर बाय फॉरिन ट्रेड” उनकी मृत्यु के काफी वर्षों बाद 1664 ई. में प्रकाशित हुई थी। लोग इस रचना की वाणिज्यवाद की गीता मानते हैं। टामस मन देश के धन-संग्रह के लिए विदेशी व्यापार को बढ़ाने के पक्ष में थे क्योंकि धन वृद्धि से ही देश शक्तिशाली बन सकता है। उन्होंने लिखा, “अपनो समृद्धि बढ़ाने के लिए हमें विदेशों को अधिक माल निर्यात करना चाहिये और कम से कम आयात करना चाहिए।” अर्थात् व्यापार का सन्तुलन देश के पक्ष में होना चाहिये। इसी सन्दर्भ में उन्होंने सुझाव दिया कि आयात की वस्तुओं पर भारी मात्रा में कर लगाना चाहिये तथा निर्यात पर साधारण कर लगाना चाहिये। वह असीमित मात्रा में धन-संग्रह के पक्षपाती नहीं थे। उनका विचार था कि ऐसा करने से अन्त में व्यापार सन्तुलन प्रतिकूल हो जाता है।

2. ऐण्टोनिओसैरा (1580-1650)- इनका जन्म इटली में हुआ था। उन्होंने अपनी में पुस्तक में व्यापारवादी सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला था। उन्होंने सोने-चाँदी के संग्रह के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा था कि इससे देश महान बनता है। उन्होंने कृषि की अपेक्षा उद्योगों को अधिक महत्त्व दिया। उनका कहना था कि उद्योगों में उत्पत्ति वृद्धि नियम लागू होता है और इसी से देश में धन-सम्पत्ति की वृद्धि भी होती है। इसके विपरीत कृषि में मौसम की अनिश्चितता के कारण लाभ अनिश्चित रहता है। इसके अतिरिक्त कृषि जन्य पदार्थों की लम्बे समय तक सुरक्षित भी नहीं रखा जा सकता और कृषि जन्य पदार्थों का व्यापार एक निश्चित क्षेत्र तक हो सीमित रहता है। वे मुद्रा के निर्यात को नियंत्रित करने तथा रोकने के पक्ष में नहीं थे।

3. जीन बैपटिस्ट कोल्बर्ट (1619-1683)- फ्रांस के वित्त मन्त्री कोल्बर्ट का वाणिज्यवाद को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा था। कालान्तर में वाणिज्यवाद को इन्हीं के नाम पर ‘कोल्बर्टवाद’ भी कहा जाने लगा। उनके प्रमुख विचार इस प्रकार थे –

(i) सड़कों व नहरों का निर्माण करके घरेलू अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना,

(ii) शक्तिशाली जहाजी-बेड़े का निर्माण करना,

(iii) अनाज के निर्यात व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना,

(iv) गिल्डों पर सरकारी नियन्त्रण बनाये रखना,

(v) मुद्रा के सृजन के लिए निर्माण उद्योगों को बढ़ावा देना, और

(vi) शक्तिशाली व्यापारिक कम्पनियों की स्थापना करना तथा फ्रांस के औपनिवेशिक साम्राज्य का विस्तार करना।

4. अन्य विचारक- इनके अलावा सर विलियम पैटी (1623-87), सर जोशिया चाइल्ड (1630-99), रिचार्ड कैन्टिलन (1680-1734), सर जेम्स स्टुअर्ट (1712-80), फिलिप विलियम वोन होर्निक (1638-1712), जॉन लॉक, जॉन जोकिम बैकर्स आदि अनेक विचारक हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा वाणिज्यवाद को प्रोत्साहन दिया। सर विलियम पैटी को “सांख्यिकीय विधि” (Statistical Method) का संस्थापक कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने सर्वप्रथम अर्थशास्त्र में सांख्यिकी का प्रयोग किया था। जोशिया चाइल्ड ने कम ब्याज दर की वकालत की। जॉन लॉक ने माँग व पूर्ति के सिद्धान्त का विकास किया। उनके विचारों में मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त का भी संकेत मिलता है। जॉन बैकर्स, गिल्ड प्रणाली के समर्थक तथा सट्टे को बन्द करने के पक्षपाती थे। वे व्यापार के क्षेत्र में एकाधिकार के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि एकाधिकार की प्रवृत्ति देश का विनाश ही करती है। कैन्टिलन का मानना था कि कच्चे माल का आयात एवं उत्पादित माल (तैयार माल) का निर्यात करने से ही समृद्धि बढ़ती है। उपर्युक्त सभी विचारकों के विचारों ने सामूहिक रूप से यूरोप में वाणिज्यवाद को बढ़ावा दिया।

वाणिज्यवादियों के प्रमुख विचार

लगभग तीन सौ वर्ष तक यूरोप के प्रमुख देशों में वाणिज्यवादी विचारों का प्रभाव बना रहा। इस अवधि में सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों का सिलसिला भी जारी रहा और इन परिवर्तनों के फलस्वरूप वाणिज्यवादी विचारकों के विचार प्रवाह में भी अन्तर आता गया। परन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण बातें ऐसी थीं जिनका समर्थन लगभग सभी वाणिज्यवादियों ने एक स्वर से किया। यहाँ उन्हीं महत्त्वपूर्ण बातों की व्याख्या की जा रही है।

1. शक्तिशाली राज्यों का निर्माण – लगभग सभी विचारकों की मान्यता थी कि व्यापार वाणिज्य की उन्नति के लिए शक्तिशाली राज्यों का निर्माण किया जाना चाहिए। वैसे भी, वाणिज्यवाद का जन्म शक्तिशाली राज्यों के निर्माण के लिए हुआ था। मध्यकालीन युग में राजा से बढ़कर ईसाई धर्म के प्रमुख अधिकारी ‘पोप’ को मान्यता दी जाती थी। परन्तु जनता सामन्तों एवं राजाओं, सामन्तों के आपसी युद्धों तथा बाह्य आक्रमणों से तंग आ चुकी थी। लगभग सभी देशों को आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई थी। ऐसी स्थिति में यह सोचा जाने लगा कि देश को सुरक्षा के लिए राज्य को शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए तथा देश में शान्ति एवं व्यवस्था कामय की जानी चाहिए। वाणिज्यवादियों ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा को और राजाओं को पर्याप्त आर्थिक सहयोग एवं समर्थन देकर उनकी सैनिक शक्ति को सबल बनाया। इस समय ऐसे विचार प्रस्तुत किये जाने लगे थे जिनसे राजनीतिक एकता और राष्ट्रीय शक्ति प्राप्त की जा सकती थी ।

2. सोने एवं चाँदी को महत्त्व- वाणिज्यवादियों ने राज्य की शक्ति को बढ़ाने वाले संसाधनों को जुटाने की तरफ विशेष ध्यान दिया। वे सोने तथा चाँदी को राज्य की शक्ति बढ़ाने का साधन मानते थे क्योंकि यही ऐसी धातुएँ थीं जिनके बदले में कोई भी चीज प्राप्त की जा सकती थी तथा इनके मूल्य में गिरावट आने की कम ही सम्भावना थी। वाणिज्यवादियों का प्रमुख नारा यह था कि “ अधिक सोना, अधिक धन और अधिक शक्ति’ (More Gold, More Wealth and More Power)। इस सम्बन्ध में विलियम पैटी ने लिखा है, “व्यापार का अन्तिम व महान् प्रभाव धन की वृद्धि करना नहीं है बल्कि सोना, चाँदी और जवाहरात आदि बहुमूल्य पदार्थों की वृद्धि करना है; जो न तो नाशवान हैं और न ही परिवर्तनशील हैं। इनको प्रत्येक समय और स्थान में प्रयुक्त किया जा सकता है और वे हर समय सम्पत्ति होते हैं। इसी प्रकार टामस मन ने लिखा है कि, “जिन राष्ट्रों के पास अपनी खानें नहीं हैं उनको स्वर्ण और चाँदी प्राप्त करके धनवान बनना चाहिये।” चाइल्ड का मानना था कि “किसी देश की समृद्धि का माप-स्तर वहाँ पाये जाने वाले सोने व चाँदी की मात्रा है।” सोने और चाँदी को इतना अधिक महत्त्व देने का मुख्य कारण यह था कि इन धातुओं की सहायता से अस्त्र-शस्त्र तथा युद्धोपयोगी सामग्री खरीदी जा सकती थी और जिसके पास पर्याप्त मात्रा में अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार होगा वह युद्ध को जीतने की सम्भावना रख सकेगा।

3. विदेशी व्यापार का महत्त्व- यह ठीक है कि वाणिज्यवादियों ने सोने तथा चाँदी को अधिक महत्त्व दिया था, परन्तु वे यह भी जानते थे कि घरेलू व्यापार से आवश्यकतानुसार सोना चाँदी प्राप्त नहीं किया जा सकता। वांछित सोना-चाँदी प्राप्त करने के लिए विदेशों के साथ स्वदेश के व्यापार को बढ़ाना आवश्यक था। वे विदेशी व्यापार को आत्मनिर्भरता और सम्पन्नता का साधन मानते थे। इस सम्बन्ध में टामस मन ने लिखा है कि, “अपने धन को बढ़ाने का सबसे अच्छा ढँग विदेशी व्यापार है। इसे प्रोत्साहित करना आवश्यक है; क्योंकि राजा को अधिक आय, राज्य का सम्मान, व्यापारियों का व्यवसाय, हमारी कला की प्रगति, हमारे निर्धनों का भोजन, हमारी भूमि की उन्नति, नाविकों की शिक्षा, हमारे साम्राज्य की दीवारें, हमारे युद्धों की विजय सब कुछ विदेशी व्यापार पर निर्भर करते हैं।” विदेशी व्यापार को बढ़ाने के लिए जोशिया चाइल्ड का कहना था कि, “उन उद्योगों को सबसे अधिक प्रोत्साहन देना चाहिये जिनमें जहाजरानी का सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है।”

विदेशी व्यापार में अधिकांश कच्चे माल का आयात और निर्मित माल का निर्यात किया जाता था क्योंकि इस प्रक्रिया से निर्यातक देश को लाभ-ही-लाभ होता था। निर्यातक देश में कल-कारखानों का विकास होता था तथा देश में रोजगार की मात्रा बढ़ती थी। अतः वाणिज्यवादियों ने व्यापार तथा उद्योग को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। वे कृषि को आय का साधन नहीं मानते थे।

4. अनुकूल व्यापार सन्तुलन- वाणिज्यवादी ऐसे विदेशी व्यापार के पक्ष में थे जिससे लगातार निर्यात बढ़े और आयात घटे। अर्थात वे अनुकूल व्यापार सन्तुलन के पक्ष में थे। इसके लिए वे निम्नलिखित बातों पर जोर देते थे –

(i) विदेशों की बनी बनायी वस्तुओं पर भारी मात्रा में आयात शुल्क लगाने चाहिए, परन्तु खाद्यान्नों के आयात के सम्बन्ध में इस नियम का पालन नहीं किया जाना चाहिये।

(ii) निर्यातों का मूल्य आयातों के मूल्य की अपेक्षा अधिक न हो।

(iii) आयात या तो किया ही न जाय और यदि करना आवश्यक हो तो बदले में सोनाचाँदी न देकर देश में उत्पन्न वस्तुएँ ही देनी चाहियें।

(iv) देश में माल की खपत को कम से कम किया जाय और बचे हुए माल को विदेशों को निर्यात कर दिया जाय।

स्पष्ट है कि प्रत्येक देश के व्यापार को अपने पक्ष में रखना चाहता था। अपने देश को लाभ पहुँचाने के लिए वाणिज्यवादियों ने विदेशी व्यापार में अनेक प्रकार के नियंत्रणों का भी समर्थन किया था।

5. औद्योगिक एवं व्यापारिक नियंत्रण-व्यापार की वृद्धि तथा विदेशी व्यापार को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए वाणिज्यवादियों ने अनेक प्रकार के औद्योगिक एवं व्यापारिक नियंत्रणों को महत्त्व दिया था। वे व्यापार की वृद्धि के लिए उद्योग-धन्धों का भी नियंत्रण करना चाहते थे। राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से उन्होंने आयात तथा निर्यात को सरकारी सहयोग से नियंत्रित करने की बात कही थी। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों को अधिक महत्त्व दिया गया –

(i) आयातों को प्रतिबन्धित किया गया तथा कुछ विशेष कम्पनियों को ही आयात करने की सुविधाएँ दी गईं। निर्मित माल विदेशों में बेचने तथा कच्चे माल को प्राप्त करने के लिए उपनिवेशों की स्थापना की जाने लगी तथा पिछड़े देशों पर राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करने का प्रयास किया गया ताकि वहाँ की अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण किया जा सके।

(ii) निर्यातों को बढ़ाने तथा आयातों को कम करने के लिए अनेक प्रकार के करों को लागू किया गया। ऐसी व्यवस्था की गई कि उद्योगों पर करारोपण का कम-से-कम भार पड़े ताकि उन्हें हानि न हो सके।

(iii) आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से ऐसी व्यवस्था की गई जिससे यातायात के साधनों, विशेषकर समुद्री यातायात का विकास किया जा सके। 

(iv) लगभग प्रत्येक वाणिज्यवादी ने जनसंख्या को बढ़ाने का सुझाव दिया था, क्योंकि उस युग में उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में मानव व पशु शक्ति का ही उपयोग अधिक होता था। जोशिया चाइल्ड का विचार था कि, “अच्छे नियम और अधिक जनसंख्या किसी भी देश को धनवान बनाने के मुख्य साधन होते हैं।” 

6. कृषि सम्बन्धी विचार– यद्यपि वाणिज्यवादियों ने व्यापार को अधिक महत्त्व दिया था, फिर भी उन्होंने कृषि व्यवस्था की उपेक्षा नहीं की थी। उन्होंने कृषि को व्यापार के बाद दूसरा स्थान दिया था। वे कृषि को कच्चे माल का स्रोत मानते थे और बहुत-से उद्योग-धन्धे कृषि की उपज पर ही निर्भर थे। अतः उन्होंने मिट्टी की जाँच कर फसल बोने तथा बंजर और बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाने पर जोर दिया। इसमें उनका मुख्य ध्येय कृषि के उत्पादन को बढ़ाना था ताकि उद्योगों को सस्ते मूल्य पर कच्चा माल उपलब्ध हो सके और वे निर्यात को बढ़ा सकें। टामस मन ने तो कृषि के अतिरिक्त मछलीपालन तक को आर्थिक दृष्टि से उपयोगी बताया था। कृषि को बढ़ावा देने का एक कारण खाद्यान्नों की दृष्टि से देश को आत्मनिर्भर बनाना भी था ताकि खाद्यान्नों के आयात से व्यापार सन्तुलन प्रतिकूल न हो जाय।

वाणिज्यवाद की नीतियों का व्यावहारिक प्रयोग

वाणिज्यवाद की सभी नीतियों को एक साथ यूरोपीय देशों ने नहीं अपनाया था। शनै: शनै: कुछ महत्त्वपूर्ण नीतियों को विभिन्न देशों के द्वारा अपनाया जाने लगा था। आर्थिक नियमों का पालन करने के लिए उन देशों के द्वारा समय-समय पर कुछ महत्त्वपूर्ण कानून भी बनाये गये थे। कुछ देशों द्वारा वाणिज्यवादी नीतियों को किस प्रकार से व्यवहार में परिणत किया गया, उसका संक्षिप्त विवरण आगे प्रस्तुत किया गया है।

1. इंगलैण्ड- इंगलैण्ड में वाणिज्यवादी नीति की आधारशिला ट्यूडरवंश के शासकों के समय में रखी गई। सर्वप्रथम इस वंश के प्रथम शासक हेनरी सप्तम (1485-1509 ई.) के समय में कुछ नाविक कानून पास किये गये जिनके द्वारा यह निश्चित किया गया कि विदेशी व्यापार के लिए केवल इंगलैण्ड के जहाजों (अंग्रेजी जहाजों) का उपयोग किया जायेगा। इसके अलावा हेनरी सप्तम ने कुछ स्वदेशी उद्योगों (रेशम, गर्म वस्त्र, रस्सी उद्योग) को विशेष प्रोत्साहन दिया। उसकी नीति का मुख्य ध्येय यह था कि इन वस्तुओं के लिए देश का धन बाहर न जाए।

महारानी एलिजाबेथ प्रथम के शासन काल (1558-1603 ई.) में इंगलैण्ड ने पूर्ण रूप से वाणिज्यवादी नीतियों को अपना लिया था। उत्पादन को बढ़ाने के लिए देश के अनेक स्थानों में श्रमिकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों व शिविरों का आयोजन किया गया था। आन्तरिक व्यापार की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विस्तार किया जाने लगा और कानून बनाकर जल यातायात को भी सुव्यवस्थित किया जाने लगा। श्रमिकों की माँग बढ़ने लगी और इसकी पूर्ति के निमित्त वहाँ “निर्धन कानून” लागू किया गया। अमेरिका, अफ्रीका तथा अन्य क्षेत्रों में उपनिवेश स्थापित करने की तरफ विशेष ध्यान दिया गया।

गणतन्त्र शासन (1649-1660 ई.) की अवधि में इंगलैण्ड ने स्वीडन से व्यापारिक सन्धियाँ करके बाल्टिक सागर में व्यापार करने की सुविधा प्राप्त कर ली। इसी प्रकार की सन्धियाँ डेन्मार्क तथा पुर्तगाल के साथ भी की गई परन्तु स्पेन के साथ पुरानी नीति, अर्थात् स्पेन के जहाजों को लूटना, को जारी रखा गया। क्रामवेल के जहाजरानी कानूनों के अन्तर्गत इंगलैण्ड ने अमेरिका के उपनिवेशों के साथ होने वाले व्यापार पर अंग्रेजों के एकाधिकार को सुदृढ़ बना दिया। चार्ल्स द्वितीय तथा प्रधानमन्त्री वालपोल के समय में कच्चे माल के स्थान पर तैयार माल के निर्यात पर जोर दिया जाने लगा और फ्रांस तथा इटली से आयात होने वाली विलासिता की सामग्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस प्रकार, वाणिज्यवादी विचारों को प्रोत्साहन दिया गया।

यूरोप में फ्रांस की शराब लोकप्रिय थी और इंगलैण्ड में भी इसकी काफी माँग थी। 1703 ई. में इंगलैण्ड ने पुर्तगाल के साथ एक सन्धि (मैथ्यून सन्धि) सम्पन्न की। इसका ध्येय इंगलैण्ड में फ्रांसीसी शराब के आयात को रोकना था। अब पुर्तगाली शराब आयात की जाने लगी। बदले में पुर्तगाल ने अपने अमेरिकी उपनिवेश ब्राजील के द्वार अंग्रेजी व्यापार के लिए खोल दिये। इंगलैण्ड ने इससे काफी मुनाफा कमाया।

हनोवर काल (1714-1789 ई.) में इंगलैण्ड ने अपने कपड़ा उद्योग की तरफ विशेष ध्यान दिया। कच्ची ऊन का निर्यात रोक दिया गया। चीनी रेशमी वस्त्रों तथा भारतीय सूती वस्त्रों के आयात को काफी सीमित कर दिया गया। मशीनों के निर्यात पर रोक लगा दी गई और कुशल विदेशी शिल्पियों को इंगलैण्ड में आकर बसने के लिए प्रोत्साहित किया। उपर्युक्त कारणों से इंगलैण्ड में वाणिज्यवाद फलता-फूलता रहा।

2. फ्रांस- फ्रांस के वित्तमन्त्री कोल्बर्ट ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। फ्रांस में तो ‘वाणिज्यवाद’ को उसके नाम के पीछे ‘कोल्बर्टवाद’ के नाम से पुकारा जाने लगा था। फ्रांस के विदेशी व्यापार को बढ़ाने के लिए कोल्बर्ट ने अनेक प्रकार के व्यापारिक तथा औद्योगिक नियन्त्रण लगाये थे जो स्थानीय व्यापारियों के हित में थे। श्रमिकों व सेवायोजकों के मध्य अच्छे सम्बन्ध बने रहें, इस दृष्टि से भी बहुत से कानून लागू किये गये उद्योगों का से स्थानीयकरण करने, उत्पादन बढ़ाने तथा उत्पादन के विशिष्टकरण लागू करवाने के लिए भी कानून बनाये गये थे। बैल के मतानुसार, “कोल्बर्ट के अधीन वाणिज्यवाद फ्रांस में जितने विस्तार से लागू किया गया उतना इंगलैण्ड में भी नहीं किया जा सका।” फ्रांस ने भी कालान्तर में उपनिवेश स्थापित करने तथा एशिया के पिछड़े देशों पर अपना प्रभाव स्थापित करने की नीति को अपनाया जिसके परिणामस्वरूप उसे इंगलैण्ड से कई बार संघर्ष करना पड़ा।

फ्रांस के वाणिज्यवाद के सम्बन्ध में विशेष उल्लेख की बात यह है कि वहाँ आर्थिक नीति-निर्धारण का कार्य नौकरशाही ने किया था जबकि इंगलैण्ड में वहाँ के व्यापारी समाज के सदस्यों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। नौकरशाही में विद्यमान दोषों के कारण फ्रांस को अपनी नीतियों का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया। उदाहरण के लिए फ्रांस के वैज्ञानिकों तथा इंजीनियरों ने कई आविष्कार किये परन्तु उनका विकास एवं व्यावहारिक इस्तेमाल इंगलैण्ड तथा स्कॉटलैण्ड में किया गया।

3. स्पेन- यद्यपि स्पेन में वाणिज्यवादी नीति पर अधिक जोर दिया गया था परन्तु आन्तरिक अर्थव्यवस्था को सुधारने की तरफ ध्यान नहीं दिया गया। स्पेनवासियों ने सोने और चाँदी के संग्रह को विशेष महत्त्व दिया और इसके लिए उन्होंने उन सभी साधनों का उपयोग किया जिनके द्वारा सोना-चाँदी प्राप्त किया जा सकता था। इसके लिए उन्होंने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य का विस्तार किया और उपनिवेशों का अत्यधिक आर्थिक शोषण भी किया। परन्तु आन्तरिक उद्योग-धन्थों की उपेक्षा करने के कारण वे अपने परिश्रम का लाभ न उठा सके। क्योंकि वे व्यापार सन्तुलन को अपने अनुकूल न बना पाये और परिश्रम से अर्जित सोना-चाँदी आयातित वस्तुओं के बदले में विदेशों को चला गया।

4. जर्मनी– जर्मनी ने अपने औद्योगिक विकास की तरफ ध्यान दिया। विदेशों से कुशल कारीगरों को जर्मनी में बसाने के लिए अनेक योजनाओं पर अमल किया गया। आयात और निर्यात को नियन्त्रित किया गया तथा व्यापारिक अवसरों की सूचियाँ बनाकर सरकारी अधिकारियों के माध्यम से व्यापारियों के बीच में वितरित करने का सिलसिला प्रारम्भ किया। इससे निजी विनियोग को प्रोत्साहन मिला। व्यापार एवं वाणिज्य के लिए मुद्रा तथा साख को भी विकसित किया जाने लगा।

वाणिज्यवाद की आलोचना

सत्रहवीं सदी के अन्तिम दशक से ही कई विचारकों ने वाणिज्यवाद की कमियों एवं दोषों को लेकर उसकी आलोचना करनी शुरू कर दी थी। कुछ लोग नियन्त्रित व्यापार की आलोचना करते हुए “मुक्त व्यापार” का समर्थन करने लगे थे। लॉक ने वाणिज्यवाद के मूल सिद्धान्तों पर चोट करते हुए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की बात प्रारम्भ कर दी थी। नार्थ ने विदेशी व्यापार की अपेक्षा आन्तरिक व्यापार और कृषि की उन्नति की तरफ विशेष ध्यान दिये जाने का समर्थन किया।

वाणिज्यवादियों ने अपना पूरा ध्यान बहुमूल्य धातुओं के संग्रह पर केन्द्रित किया था। उन्होंने इसके संग्रह के लिए नैतिक नियमों तक को ताक में रख दिया था। आलोचकों का कहना था कि इन बहुमूल्य धातुओं से व्यक्ति का पेट नहीं भरा जा सकता था। इस सम्बन्ध में एडम स्मिथ ने लिखा है कि, “किसी देश का धन उसको सस्ती और अधिक मात्रा में वस्तुएँ पैदा करने की क्षमता में होता है; सोना और चाँदी तो केवल इन वस्तुओं को प्राप्त करने का साधन ही हो सकते हैं।” आलोचकों के अनुसार देश के उद्योग-धन्धों का विकास सोने तथा चाँदी की अपेक्षा लोहा और इस्पात से होता है। सम्पूर्ण व्यापार इसी पर निर्भर रहता है। अत: सोना-चाँदी की अपेक्षा लोहे और कोयले को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। आलोचकों का यह भी मत था कि जब तक आन्तरिक व्यापार और कृषि की उन्नति नहीं की जायेगी तब तक विदेशी व्यापार के लाभों की आशा करना निरर्थक है। इस सन्दर्भ में नार्थ ने लिखा है कि, “आन्तरिक व्यापार एवं कृषि विदेशी व्यापार की दो महत्त्वपूर्ण आधारशिलाएँ हैं। उनकी उन्नति के बिना विदेशी व्यापार को बढ़ाना सम्भव नहीं।”

आलोचकों का कहना था कि वाणिज्यवादियों के अनुकूल व्यापार सन्तुलन सम्बन्धी विचार भी भ्रामक हैं। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि एक देश लगातार दूसरे देश को निर्यात करता ही रहे उससे बहुत ही कम आयात करे। क्योंकि आयातक देश भी अपने निर्यातक देश को अपनी वस्तुएँ निर्यात करके लाभ कमाना चहेगा क्योंकि यदि सभी देश निर्यात पर अधिक जोर देंगे तो ऐसी दशा में विदेशी व्यापार लम्बे समय तक नहीं चल पायेगा।

राज्य को अधिक शक्तिशाली बनाने तथा विदेशी व्यापार को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए अनेक प्रकार के राजनैतिक तथा आर्थिक प्रतिबन्धों को लागू किया गया था। इनके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को गहरा आघात पहुँचा था। सरकारी हस्तक्षेप तथा औद्योगिक संरक्षण के कारण आर्थिक क्षेत्र में सरकारी नीतियों को लागू किया जाने लगा था जिसके फलस्वरूप व्यक्ति स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी वस्तुओं को विदेशों को निर्यात नहीं कर सकता था और न ही उनके उत्पादन के लिए आवश्यक सामान आयात कर सकता था क्योंकि कुछ विशेष कम्पनियों को ही ऐसा करने का एकाधिकार दिया गया था। आलोचकों का मत था कि आर्थिक क्षेत्र में अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण उद्योग-धन्धों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है।

उपनिवेशों की स्थापना तथा उनकी उपयोगिता के सम्बन्ध में वाणिज्यवादी और उनकी सरकारें भ्रान्त धारणा से ग्रस्त रहीं। उनका मानना था कि उपनिवेश मातृदेश को लाभ पहुँचाने के लिए है और इसी आधार पर वे उपनिवेशों का आर्थिक शोषण करते रहे। परन्तु उपनिवेशी इस प्रकार के विचारों को अधिक समय तक सहन करने को तैयार नहीं थे। परिणामस्वरूप इंगलैण्ड को अपने अमेरिकी उपनिवेशों से हाथ धोना पड़ा और इंगलैण्ड सहित यूरोपीय देशों को अपने उपनिवेशों के प्रति अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा।

वाणिज्यवाद का महत्त्व- वाणिज्यवाद की उपर्युक्त आलोचना से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वाणिज्यवाद महत्त्वहीन अथवा अप्रासंगिक था। उस समय की परिस्थितियों में वह अनुकूल ही था। इस सन्दर्भ में प्रो. स्कॉट ने लिखा है कि, “वाणिज्यावादियों की आलोचना करना तो आसान है परन्तु ऐसा करना बेकार है। सामान्य प्रयोग में आने वाली आर्थिक नीति तथा राजनीतिज्ञों एवं अर्थशास्त्रियों का पथ-प्रदर्शन करने वाले सिद्धान्तों के रूप में उसके दोषों से आज के विद्यार्थी भली-भाँति परिचित हैं। जब वाणिज्यवादी युग का परिस्थितियों के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता है तो इस व्यवस्था में दोष निकालना यद्यपि असम्भव नहीं तो भी कठिन अवश्य है।”

वाणिज्यवाद का अपना महत्त्व है। आयातों पर नियन्त्रण लगाने से ही इंगलैण्ड के उद्योग-धन्धों को भरपूर लाभ हुआ और वहाँ की सभ्यता का भी विकास हुआ। इसी नीति के कारण शक्तिशाली राज्यों की नींव रखी जा सकी थी और इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी जैसे महान् राज्यों का निर्माण सम्भव हो सका था। वाणिज्यवादियों ने इस बात को भी स्पष्ट कर दिया था कि मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम ही नहीं है; अपितु धन-संचय करने का साधन भी है। वाणिज्यवाद के कारण ही यूरोप का विस्तार सम्भव हो पाया था। इसी के माध्यम से एशियाई देशों में घुसपैठ करने का अवसर मिल पाया था।

वाणिज्यवाद का पतन: कारण

अठारहवीं सदी के अन्त में वाणिज्यवाद के अभेद्य दुर्ग का ढहना शुरू हो गया। एडम स्मिथ के द्वारा वाणिग्यवादी विचारों की कड़ी आलोचना की गई और उनकी पुस्तक “वेल्य ऑफ नेशन्स” का प्रकाशन मुख्य रूप से वाणिज्यवाद के पतन के लिए उत्तरदायी था। संक्षेप में वाणिज्यवाद के पतन में निम्नलिखित कारणों ने योग दिया।

1. फ्रांसीसी वाणिज्यवाद की असफलता का प्रभाव- फ्रांस में कोल्बर्टवाद अथवा वाणिज्यवादी नीतियों का लोगों ने घोर विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। अब लोग नियंत्रणों की अपेक्षा स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था पर अधिक विश्वास करने लगे थे। संयोगवश फ्रांस में कृषि की दशा खराब होती गई और राजकोष में वृद्धि करने के उद्देश्य से लोगों पर भारी मात्रा में कर लगाये जाने लगे। करों के बोझ से पीड़ित लोगों का परेशान होना स्वाभाविक ही था और वे वाणिज्यवाद को आलोचना करने लगे। फ्रांस में कोल्बर्टवाद (वाणिज्यवाद) की असफलता का प्रभाव दूसरे देशों पर भी पड़ा और परिणामस्वरूप वाणिज्यवाद अपना महत्त्व खोता चला गया।

2. कृषि की शोचनीय स्थिति वाणिज्यवाद में व्यापार को प्रथम, उद्योग को द्वितीय और कृषि को तृतीय स्थान दिया गया था। लगभग तीन शताब्दियों तक यही व्यवस्था चलती रही। परिणामस्वरूप कृषि और कृषक-दोनों की स्थिति शोचनीय बनती चली गई। किसानों पर नाना प्रकार के कर लगाये जाते रहे। जिस भूमि पर वह रात-दिन परिश्रम कर रहा था, वही भूमि उसका पेट भरने में सहायक नहीं रह गयी थी। इसका एक कारण यह था कि सभी देशों में लगभग 70 प्रतिशत भूमि पर सम्पन्न एवं प्रभावशाली लोगों ने अधिकार जमा रखा था कृषि सुधारों के बारे में जमींदार तथा सरकार दोनों ही उदासीन हो चुके थे, क्योंकि विदेशी व्यापार को ही अधिक महत्व दिया जाता रहा। परन्तु इस नीति से फ्रांस की अर्थव्यवस्था चरमराने लग गई। इसी समय “प्रकृतिवादियों का जोर बढ़ा। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कृषि से ही शुद्ध उपज उपलब्ध होती है। जबकि व्यापार एवं उद्योग बोझ है। इस प्रकार के विचारों ने वाणिज्यवाद को जड़ें हिला कर रखी दीं।

3. व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति का सवाल- वाणिज्यवादियों ने सोने-चाँदी के संग्रह को सर्वाधिक महत्त्व दिया था। बाद में, यही बात उनके पतन का कारण भी बनी। सोना-चाँदी प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता था। पेट के लिए सोना-चाँदी की अपेक्षा अन्य वस्तुएँ अधिक उपयोगी समझी जाने लगीं। व्यक्ति के कल्याण का महत्त्व बढ़ने लगा जबकि सोने-चाँदी का महत्त्व कम होता चला गया।

4. स्वतन्त्र व्यापार की माँग– वाणिज्यवाद, व्यापार एवं औद्योगीकरण का प्रारम्भिक काल था। ज्यों-ज्यों उत्पादन के क्षेत्र में नये-नये अनुसन्धान होने लगे, त्यों-त्यों उत्पादन के क्षेत्र तथा तकनीक में भी विस्तार होता चला गया था। परिणामस्वरूप उत्पादन व व्यापार सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्धों को धीरे-धीरे हटाया जाने लगा क्योंकि अब वे अव्यावहारिक हो चुके थे। अब स्वतन्त्र व्यापार को अधिक उपयोगी माना जाने लगा। एकाधिकार प्राप्त कम्पनियों के स्थान पर निजी कम्पनियों ने आयात-निर्यात का कार्य करना शुरू कर दिया था। इस प्रकार जो प्रतिबन्ध और नियम वाणिज्यवाद को जीवित रखे हुए थे, जब वे ही समाप्त हो गये तो वाणिज्यवाद का अन्त स्वाभाविक ही था।

5. एडम स्मिथ के विचारों का प्रभाव- वाणिज्यवाद पर गहरी चोट एडम स्मिथ के विचारों ने की थी। उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध कृति “वेल्थ ऑफ नेशन्स” के माध्यम से वाणिज्यवाद की कमजोरियों को उजागर किया। उन्होंने व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप का विरोध किया तथा “अहस्तक्षेप की नीति” का जोर-शोर से प्रचार किया और व्यक्ति को स्वतन्त्र छोड़ देने का समर्थन किया। परिणामस्वरूप वाणिज्यवाद के प्रति लोगों का उत्साह कम होता गया और उसके प्रभाव में कमी आती गई। परन्तु बीसवीं सदी में यह नया रूप धारण करके पुनः प्रगट हो गया।

6. निरंकुश शासन के प्रति असन्तोष- वाणिज्यवादियों ने सत्ता को सुदृढ़ एवं सर्वोपरि बनाने में अहम् भूमिका अदा की थी। समय के साथ-साथ राजाओं की शक्ति में वृद्धि होती गई। परन्तु बाद के राजाओं ने निरंकुशता के साथ शासन करना शुरू कर दिया। चूँकि वाणिज्यवादी राजा की सर्वोच्च सत्ता के समर्थक थे अतः लोगों में निरंकुश शासन के साथ-साथ वाणिज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध भी असन्तोष फैलने लगा। इसी समय कुछ यूरोपीय देशों में उदारवादी विचारधारा का उदय हुआ। उदारवादी विचारधारा ने लोगों के असन्तोष को भड़काने का काम किया।

इस प्रकार, उपर्युक्त कारणों के सामूहिक प्रभाव के परिणामस्वरूप वाणिज्यवादी व्यवस्था का पतन हो गया।

वाणिज्यवाद का पिता कौन है?

वाणिज्यवाद एक नवीन आर्थिक विचारधारा है जिसका विवेचन 1776 ई० में सर्वप्रथम 'एडम स्मिथ' ने अपनी बुक 'दी वेल्थ ऑफ द नेशन्स' (The Wealth of Nations) में किया था। वाणिज्यवाद एक आधुनिक विचारधारा है जो सरकार की आर्थिक नीतियों को विशेषकर व्यापार जगत एवं वाणिज्य को नियमित करने की दिशा को प्रदर्शित करता है।

वाणिज्यवाद विचारक कौन था?

इस नवीन आर्थिक विचारधारा को वाणिज्यवाद, वणिकवाद या व्यापारवाद कहा गया है। फ्रांस में इस विचारधारा को कोल्बर्टवाद और जर्मनी में केमरलिज्म कहा गया। 1776 ई. में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने भी अपने ग्रन्थ 'द वेल्थ ऑफ नेशन्स' में इसका विवेचन किया है।

वाणिज्यवाद शब्द का क्या अर्थ होता है?

वाणिज्य क्रान्ति का विकास एवं प्रगति को जिस नीति के अन्तर्गत प्रोत्साहन मिला, वह नीति ही वाणिज्यवाद कहलाती है। आधुनिक युग में प्रत्येक यूरोपीय देश अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए लालायित था। अधिकाधिक धन केवल अनुकूल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता था।

वाणिज्यिक क्रान्ति की प्रक्रिया को वाणिज्यवाद ने कैसे प्रभावित किया?

यूरोपीय वाणिज्यवाद ने आधुनिक पश्चिमी विश्व में आर्थिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। यूरोप में जो भौगोलिक खोजें संपन्न हुई उससे यूरोपीय व्यापारी समुद्री मार्ग द्वारा कम समय में अफ्रीका एवं एशिया पहुँचे और इससे यूरोपीय व्यापार में तेजी आयी। आयात-निर्यात को गति एवं प्रोत्साहन मिला।